सुधाकर अदीब
अपना यह अत्यंत सजीव और सुंदर मधुबन दयानंद पांडेय एक मुलाक़ात में वर्ष 2013 में मुझे सौंप गए थे। तब से उनके संस्मरणों का यह नायाब गुलदस्ता मेरे निजी पुस्तकालय में, बिना इसमें विचरण किये, 2019 तक रखा रहा। सच कहूँ तो भाई दयानंद जी लिखने पढ़ने में जितने सक्रिय हैं, मैं उतना ही आलसी और आत्मस्थ हूँ। अब तो उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान से रिटायरमेंट के बाद से, विगत 04 वर्षों के इस अंतराल में युवाकाल का एक और पुराना मर्ज़ मुझे घेर चुका है। गायन, वह भी फ़िल्मी गायन, कराओके ट्रैक्स पर, धन्य हो आधुनिक तकनीक जिसने आज संगीत से लेकर रिकॉर्डिंग सिस्टम तक को आपके मोबाइल और आपके कानों में लगने वाले दो पतले तारों तक समेटकर रख दिया है।
बहरहाल जिन दिनों मैं कोई उपन्यास आदि नहीं लिख रहा होता हूँ, उन दिनों थोड़ा बहुत पढ़ता रहता हूँ। इसी सिलसिले में हाल ही में मुझे दयानंद पांडेय के 'यादों के मधुबन' में प्रवेश करने का अवसर मिल गया। प्रवेश किया तो बड़ा पछताया यह महसूस करके कि कवि-कथाकार-पत्रकार और विचारक दयानंद पांडेय के इस साहित्य और पत्रकारिता के भरे-पूरे अनुभव संसार से स्वयं को समृद्ध करने में मैंने नाहक 06 बेशकीमती वर्ष क्यों गँवा दिए? सचमुच इस संस्मरण संग्रह को पढ़ना आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, भगवती चरण वर्मा, अमृतलाल नागर, विष्णु प्रभाकर, कमलेश्वर, श्रीलाल शुक्ल, कन्हैयालाल नंदन, प्रभाष जोशी, रघुवीर सहाय, अदम गोंडवी, परमानंद श्रीवास्तव आदि अनेक विभूतियों के सामीप्य को यत्किंचित ही सही मगर बाकायदा पा लेने जैसा है।
दयानंद पांडेय एक जानेमाने कवि, कथाकार, पत्रकार और अनुभवी लेखक ही नहीं पूरे लिक्खाड़ हैं। इसे केवल उनकी साहित्यिक कृतियों के परिशीलन से ही नहीं, फ़ेसबुक से लेकर उनके ख़ुद के बेहतरीन ब्लॉग 'सरोकारनामा' को नित्य पढ़कर जाना जा सकता है। भाई दयानंद लिखते हैं और ख़ूब लिखते है। अपने विशद अनुभवजन्य मान्यताओं में वे अटल और अडिग हैं। अपनी बात कहने में वे किसी की भी परवाह नहीं करते। 'अपने अपने युद्ध' उपन्यास को लिखकर उन्होंने सीधे न्यायपालिका से पंगा ले लिया था और उच्च न्यायालय की अवमानना का वर्षों सामना किया था। फिर चाहे राजनीति का कोई पुरोधा हो या धर्म, राजनीति या साहित्य से जुड़ा कोई लेखक या बड़मनई आलोचक, पांडेय जी की निगाह में यदि वह चढ़ गया तो चढ़ गया। उसकी फिर ख़ैरियत नहीं। वे उसपर पूरी शिद्दत और निर्ममता से कलम चलाते हैं। यदि किसी कृति कृतिकार या व्यक्ति के गुणों से प्रभावित होते हैं तो उसके प्रति उनकी लेखनी उतनी ही उदार है। परंतु सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात यह कि दयानंद पांडेय की टिप्पणियां, लेख, समीक्षाएं और उनकी आलोचनाएं प्रायः सदैव बहुत सुविचारित, सारगर्भित, तर्कसंगत और गुणदोष पर आधारित होती हैं। बेलाग और बेलौस तो ख़ैर होती ही हैं।
मेरे उपन्यासों 'मम अरण्य' 'शाने तारीख़' 'रंग राची' और 'कथा विराट' पर भी लिखी गई उनकी समीक्षाएं मेरे लिए आज अमूल्य धरोहर हैं। इससे पहले मेरे प्रारंभिक उपन्यासों 'अथ मूषक उवाच' और 'चींटे के पर' की मूल्यवान समीक्षाएं हम सबके परम आत्मीय और अब स्मृतिशेष सुशील सिद्धार्थ ने उस ज़माने में लिखी थीं जब लखनऊ के कुछ स्वनामधन्य संपादक और आलोचक, विचारधारा विशेष के बोझ तले लदे फंदे मेरी उन कथाकृतियों से मुख फेर चुके थे। दयानंद पांडेय के अनेक उपन्यासों और काव्य संग्रहों को मैं पढ़ चुका हूँ। उनके संवेदनशील सामाजिक उपन्यास 'बांसगांव की मुनमुन' की समीक्षा और एक ग़ज़ल संग्रह 'मन यायावर है' की भूमिका लिखने का भी मुझे सुअवसर मिला है। परंतु उनकी पुस्तक ''यादों का मधुबन'' तो स्वयं में अद्भुत है।
दयानंद पांडेय ने विशेषकर साहित्यिक एवं कतिपय पत्रकारिता जगत की हस्तियों के साथ अपनी भेंटों और अनुभवों को इन संस्मरणों में बहुत मन से, भावुकता किन्तु ईमानदारी के साथ साझा किया है, जो कि स्वयं में बेहद दिलचस्प हैं। जिस किसी विभूति का दयानंद ज़िक्र करते हैं उसकी प्रमुख कृतियों का तो रेखांकन योग्य उल्लेख करते ही हैं उस व्यक्तित्त्व के व्यवहार, विशेषताओं और उसके ख़ास अंदाज़ और उसकी ख़ुद की कशमकश एवं विडंबनाओं के साथ-साथ अपनी भेंट का भी अच्छा हवाला देते हैं। जहाँ अमृतलाल नागर और विष्णु प्रभाकर जैसे बड़े लेखक एक बहुत खुले, उदार और बहिर्मुखी व्यक्तित्व के लोगों में नज़र आते हैं, वहीं भगवतीचरण वर्मा उन्हें प्रथम भेंट में थोड़े रिज़र्व से और जैनेन्द्र जैसे लेखक काफ़ी आत्मकेंद्रित से प्रतीत होते हैं। पर बड़ी बात यह कि दयानंद जी उनके व्यक्तित्व में छिपी महीन तरलता को भी खोज निकालते हैं और उसका यथास्थान उल्लेख करने से नहीं चूकते। उदाहरण के लिए - नागर जी का अपनी पत्नी के गुज़र जाने पर करीब करीब टूट जाना, उन्हें याद कर अक्सर रो पड़ना और रोते रोते एक किसी गाने की लाइन गुनगुनाने लगना यह सब पाठक को भी भीतर तक हिलाकर रख देता है। वहीं एक अरसे से कुछ नहीं लिख पाने के अहसास को जैनेन्द्र जी द्वारा पाप की संज्ञा देना, युवा दयानंद का 'चित्रलेखा' 'सबहिं नचावत राम गोसाईं' जैसे अनेक उपन्यासों के सुप्रसिद्ध लेखक लखनऊ के भगवतीचरण वर्मा से उनके घर के पास ही अचानक टकरा जाना और उन्हें ही न पहचानते हुए उनसे उनका ही घर पूछना जैसे अनेक दिलचस्प प्रसंग भी इस संस्मरण संग्रह में प्रस्तुत हुए हैं।
अधिक कहना इस पुस्तक के आकर्षण को कम करने समान होगा। मैं उन भावकों अथवा दर्शकों में से नहीं हूँ मित्रो ! जो किसी बेहतरीन फ़िल्म को देखकर आपको उसे देखने से पहले उसकी कहानी और क्लाइमेक्स पहले ही बताकर उसका मज़ा किरकिरा कर देते हैं। दयानंद पांडेय जी की 248 पृष्ठों की इस अत्यंत महत्त्वपूर्ण कृति 'यादों का मधुबन' को पढ़िए और बहुत कुछ हासिल करिए, जिसे मैं अब छः वर्ष ग़ाफ़िल रहने के बाद अब हासिल कर सका हूँ।
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सुंदर समीक्षा
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