गोरखपुर के बांसगांव में सर्वेश्वर जी की मां अध्यापिका थीं प्राइमरी स्कूल में। तो सर्वेश्वर जी की प्राथमिक शिक्षा बांसगांव में ही हुई। बचपन वहीँ बीता। बांसगांव शीर्षक उन की एक लंबी कविता भी है। बांसगांव बड़ी बेकली से बदकता है इस कविता में। बांसगांव की धूल भी बड़ी बेफिक्री से उड़ती है इस कविता में। लगता है जैसे अभी ही लिखी हो बांसगांव। बाक़ी है लाठियों में तेल मल के आ रहा चुनाव गीत भी बहुत मशहूर है। रमेश उपाध्याय ने अपने एक नाटक भारत भाग्य विधाता में इस गीत का बारे-बार उपयोग किया है। अस्सी के दशक में जब मैं दिल्ली में रहा तो उन का विशेष स्नेह रहा मुझ पर। दिनमान में तो उन से भेंट होती ही थी। बंगाली मार्केट स्थित उन के घर भी जाना होता था। फिराक साहब के अंतिम समय सर्वेश्वर जी एम्स में अकसर मिलने जाते थे। मुझे भी एक बार लिवा ले गए थे। उन दिनों जोश मलीहाबादी का निधन हो गया था। सर्वेश्वर जी ने फ़िराक साहब को जब यह खबर दी तो फिराक साहब बहुत जोर से चीखे थे , ' ओह जोश ! ' थोड़ी देर बाद जब वह थोड़ा स्थिर हुए तो सर्वेश्वर का हाथ , हाथ में लेते हुए बोले , ' सर्वेश्वर एक काम करना कि मेरे मरने के बाद देखनामुझे दफनाया नहीं जाए, जलानया जाए। क्यों कि मैं हिंदू हूं। ' सर्वेश्वर जी ने फ़िराक साहब का हाथ अपने दोनों हाथ में ले कर , बहुत भावुक हो कर बोले , ' जानते हैं फिराक साहब , सभी लोग जानते हैं कि आप हिंदू हैं। आप को जलाया ही जाएगा , दफनाया नहीं जाएगा। निश्चिंत रहिए।
सर्वेश्वर जी दिल्ली में रहते हुए भी खांटी देसी आदमी थे। खांटी कायस्थ भी। कुआनो नदी तो उन में अपने शैवाल के साथ बहती ही थी। अज्ञेय जी भी उन की कुआनो नदी पर बहुत न्यौछावर दीखते हैं। लेकिन सर्वेश्वर जी के जीवन में कुआनो उस तरह नहीं बहती थी , कई बार ठहर-ठहर जाती थी। उन के कालम चर्चे और चरखे की ही तरह उन का जीवन भी अव्यवस्थित था। बचपन में पिता नहीं रहे तो अधेड़ होने पर पत्नी नहीं रहीं। दोनों बेटियों को अकेले ही पाला उन्हों ने। बातें बहुत सी हैं , सर्वेश्वर जी के बाबत। बहुत लोगों को देखा लेकिन बहुत कम लोगों को देखा जो फिराक से बराबरी से आंख में आंख डाल कर बात करते हों। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना उन्हीं में से एक थे। कई लोगों को तो देखा कि फिराक के सामने बोल ही नहीं पाते थे।
दिनमान के संपादक रहे रघुवीर सहाय का भी दफ्तर में बड़ा दबदबा रहता था। लेकिन सर्वेश्वर जी थोड़ा कम दबते थे। कन्हैयालाल नंदन जब दिनमान के संपादक बने तो मैं ने देखा कि नंदन जी खुद सर्वेश्वर जी की मेज पर चल कर आते थे। बुलवाते नहीं थे अपनी केबिन में। बाद में नंदन जी के प्रयास से ही सर्वेश्वर जी पराग का संपादन करने लगे थे। पराग के दिनों में ही उन्हें दिल का दौरा पड़ा। और विदा हो गए। मैं ने देखा कि तब दिल्ली में उन के शोक में निगमबोध घाट पर पहुंचने वालों में लेखकों से ज़्यादा संस्कृतिकर्मी थे। रंगकर्मी , नर्तकी , गायक , वादक आदि। हरिवंशराय बच्चन भी आए थे। मनोहरश्याम जोशी भी। दिनमान के लोग तो थे ही। मैं ने पाया कि रघुवीर सहाय तब बहुत चिंतित थे कि सर्वेश्वर जी की जगह उन की बेटी को फौरन नौकरी मिल जाए। इस के लिए उन्हों ने बच्चन जी से विशेष निवेदन भी किया कि यहीं , निगमबोध घाट पर ही बेटी की नौकरी की बात फाइनल हो जाए। टाइम्स आफ इण्डिया के मालिक अशोक जैन भी चूंकि आए हुए थे इस लिए रघुवीर सहाय चाहते थे कि बच्चन जी यहीं अशोक जैन से इस बाबत बात कर लें। नहीं बात टल जाएगी तो लंबी टाल जाएगी। हरिवंशराय बच्चन की अपनी चमक तो थी ही तब लेकिन उन से ज़्यादा चमक उन पर पुत्र अमिताभ बच्चन की थी। खैर मौका मिलते ही बच्चन जी ने अशोक जैन को पकड़ा और सर्वेश्वर जी की बेटी की नौकरी की बात की। जिसे अशोक जैन ने फ़ौरन सहर्ष स्वीकार लिया और बोले , यह तो करना ही है। बेटी को बुला कर आश्वस्त भी किया , सिर पर हाथ रख कर। इसी के बाद सर्वेश्वर जी की बेटी ने रोते-बिलखते हुए बिजली वाली भट्ठी का स्वीच दबा दिया था। और सर्वेश्वर जी की पार्थिव देह आग की भट्ठी में चली गई थी। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की एक कविता याद आती है :
भेड़िया गुर्राता है
तुम मशाल जलाओ
उसमें और तुममें
यही बुनियादी फर्क है
भेड़िया मशाल नहीं जला सकता।
सच सर्वेश्वर जी जाते-जाते भी मशाल जला गए थे।
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