Friday 8 November 2019

देह का गणित सपाट सही , वंदना गुप्ता रिस्क ज़ोन में गई तो हैं

दयानंद पांडेय

वंदना गुप्ता की कहानी देह का गणित पर अगर कोई यह आरोप लगा दे कि कहानी बहुत कमज़ोर है। बहुत उथली और इकहरी है। वंदना गुप्ता को कहानी लिखनी नहीं आती। अखबारों , पत्रिकाओं में छपने वाले सेक्स समस्याओं के समाधान से भी खराब ट्रीटमेंट है। आदि-इत्यादि। तो मुझे कोई आपत्ति नहीं होगी। अगर कोई यह आरोप भी लगाता है कि संपादक ने इस देह का गणित कहानी को छापने में संपादकीय कौशल का परिचय नहीं दिया है। तो यह आरोप भी मैं सुन सकता हूं। लेकिन जो भी कोई लोग इस देह का गणित कहानी को अश्लील होने का फतवा जारी कर रहे हैं , मैं उन से पूरी तरह असहमत हूं। उन के इस आरोप को फौरन से फौरन ख़ारिज करता हूं। यह आरोप ही अपने आप में अश्लील है। क्यों कि साहित्य में कुछ भी अश्लील नहीं होता। 

मैं कहना चाहता हूं कि अश्लीलता देखनी हो तो अपने चैनलों और अखबारों से शुरू कीजिए। जहां पचासों लोगों को बिना नोटिस दिए मंदी के नाम पर नौकरी से निकाल दिया जाता है। पूंजीपति जैसे चाह रहे हैं आप को लूट रहे हैं। हर जगह एम आर पी है लेकिन किसानों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य। आखिर क्यों ? कार के दाम घट रहे हैं, ट्रैक्टर महंगे हो रहे हैं। मोबाइल सस्ता हो रहा और खाद-बीज मंहगे हो रहे हैं। एक प्रधानमंत्री जब पहली बार शपथ लेता है तो भूसा आंटे के दाम में बिकने लगता है। वही जब दूसरी बार शपथ लेता है तो दाल काजू-बादाम के भाव बिकने लगती है।

तो मित्रों अश्लीलता यहां है, देह का गणित में नहीं। अगर हमारा जीवन ही अश्लील हो गया हो तो समाज का दर्पण कहे जाने वाले साहित्य में आप देखेंगे क्या ? स्वर्ग ?

हमारे विक्टोरियन मानसिकता वाले समाज में लोग लेडी चैटरलीज़ लवर को नंगी अश्लीलता ही समझते रहे हैं। पर आम जीवन का यौन व्यवहार कितना गोपनीय अश्लील है यह कोई दिखाता ही नहीं। लोहिया  ने किसी पुस्तक में सेठानियोँ और रसोइए महाराजों का ज़िक्र किया है , वह अश्लील नहीं है। दशकों पहले हमारे समाज में रईसोँ के रागरंग बड़ी आसानी से स्वीकार किए जाते थे, समलैंगिकता जीवन का अविभाज्य और खुला अंग थी। उर्दू में तो शायरी भी होती थी— उसी अत्तार के लौंडे से दवा लेते हैं जिस ने दर्द दिया है। पठानों के समलैंगिक व्यवहार के किस्से जोक्स की तरह सुनाए जाते थे।  लिखित साहित्य अब पूरी तरह विक्टोरियन हो गया है, पर मौखिक साहि्त्य… वाह क्या बात है।

इटली की ब्रौकिया टेल्स जैसे या तोता मैना, अलिफ़लैला, कथासागर जैसे किस्से खुले आम सुन सुनाए जाते थे। हम में से कई ने ऐसे चुटकुले सुने और सुनाए होंगे। उन की उम्र होती है। पीढ़ी दर पीढ़ी वही किस्से दोहराए जाते हैं। सोशल मीडिया की एक बड़ी खासियत है ,वो खबर हो चाहें खबरों से परे कोई बात ,उसे अपने तरीके से देखना चाहती है ,वो उसे उस ढंग से स्वीकार नहीं कर पाती, जैसी वो मूलतः है । वर्तमान समय में सेक्स से जुडी वर्जनाओं के टूटने की सब से बड़ी वजह सोशल मीडिया खुद है। 

निहायत शरीफ़ लोग अगर इस तरह के नंगे यथार्थ को बर्दाश्त नहीं कर सकते तो ज़ाहिर है कि यह दुनिया उन के लिए नहीं है। हाल के महीनों में जो खबरें सामने आई हैं, उस से मैं यह भी नहीं कह सकता कि आशाराम बापू जैसे संतों के आश्रम भी उन के लिए सब से महफूज़ जगह है।

साहित्य में अश्लीलता पर बहस बहुत पुरानी है। यह तय करना बेहद मुश्किल है कि क्या अश्लील है और क्या श्लील। एक समाज में जो चीज़ अश्लील समझी जाती, वह दूसरे समाज में एकदम शालीन कही जा सकती है। यह जो वाट्स आप पर नान वेज़ जोक्स का ज़खीरा है, होम सेक्स वीडियो है , उस से कौन अपरिचित है भला?  भाई जो इतने शरीफ़ और नादान हैं तो मुझे फिर माफ़ करें। 

ऐसे तो हमारे लोकगीतों और लोक परंपराओं में कई जगह गज़ब की अश्लीलता है। मैं पूर्वी उत्तर प्रदेश से ताल्लुक रखता हूं। हमारे यहां शादी व्याह में आंगन में आई बारात को भोजन के समय दरवाज़े के पीछे से छुप कर घूंघट में महिलाएं लोक गीतों के माध्यम से जैसी गालियां गाती हैं उसे यह लोग घोर अश्लील कह सकते हैं।  लेकिन समाज इस में रस लेता है और इसे स्वीकृति देता है। पर मेट्रो के दर्शकों को यह कार्यक्रम अश्लील लग सकता है। फ़र्क सिर्फ़ हमारे सामाजिक परिवेश का है।

एक मुहावरा हमारे यहां खूब चलता है–का वर्षा जब कृषि सुखाने ! वास्तव में यह तुलसीदास रचित रामचरित मानस की एक चौपाई का अंश है। एक वाटिका में राम और लक्ष्मण घूम रहे हैं। उधर सीता भी अपनी सखियों के साथ उसी वाटिका में घूम रही हैं, खूब बन-ठन कर। वह चाहती हैं कि राम उन के रूप को देखें और सराहें। वह इस के लिए आकुल और लगभग व्याकुल हैं। पर राम हैं कि देख ही नहीं रहे हैं। सीता की तमाम चेष्टा के बावजूद। वह इस की शिकायत और रोना अपनी सखियों से करती भी हैं, आजिज आ कर। तो सखियां समझाती हुई कहती हैं कि अब तो राम तुम्हारे हैं ही जीवन भर के लिए। जीवन भर देखेंगे ही, इस में इतना परेशान होने की क्या ज़रूरत है? तो सीता सखियों से अपनी भड़ास निकालती हुई कहती हैं—का वर्षा जब कृषि सुखाने !

यह तब है जब तुलसी के राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। और फिर मानस में श्रृंगार के एक से एक वर्णन हैं। केशव, बिहारी आदि की तो बात ही और है। वाणभट्ट की कादंबरी में कटि प्रदेश का जैसा वर्णन है कि पूछिए मत। भवभूति के यहां भी एक से एक वर्णन हैं। हिंदुस्तान में शिवलिंग आदि काल से उपासना गृहों में पूजनीय स्थान रखता है। श्रद्धालु महिलाएं शिवलिंग को अपने दोनों हाथों से पकड़ कर अपना माथा उस से स्पर्श कराती हैं। यही शिवलिंग पश्चिमी समाज के लोगों के लिए अश्लीलता का प्रतीक है।

कालिदास ने शिव-पार्वती की रति क्रीड़ा का विस्तृत, सजीव और सुंदर वर्णन किया है। कालिदास ने शंकर की तपस्या में लीन पार्वती का वर्णन किया है। वह लिखते हैं—- पार्वती शिव जी की तपस्या में लीन हैं। कि अचानक ओस की एक बूंद उन के सिर पर आ कर गिर जाती है। लेकिन उन के केश इतने कोमल हैं कि ओस की बूंद छटक कर उन के कपोल पर आ गिरती है। कपोल भी इतने सुकोमल हैं कि ओस की बूंद छटक कर उन के स्तन पर गिर जाती है। और स्तन इतने कठोर हैं कि ओस की बूंद टूट कर बिखर जाती है, धराशाई हो जाती है। कालिदास के लेखन को उन के समय में भी अश्लील कहा गया। प्राचीन संस्कृत साहित्य से ले कर मध्ययुगीन काव्य परंपरा है। डीएच लारेंस के ‘लेडीज़ चैटरलीज़ लवर’ पर अश्लीलता के लंबे मुकदमे चले। अदालत ने भी इस उपन्यास को अश्लील माना लेकिन अदालत ने यह भी कहा कि साहित्य में ऐसे गुनाह माफ़ हैं। ब्लादिमीर नाबकोव की विश्व विख्यात कृति ‘लोलिता’ पर भी मुकदमा चला। लेकिन दुनिया भर के सुधि पाठकों ने उन्हें भी माफ़ कर दिया। आधुनिक भारतीय लेखकों में खुशवंत सिंह, अरूंधति राय, पंकज मिश्रा, राजकमल झा हिंदी में डा. द्वारका प्रसाद, मनोहर श्याम जोशी, कृश्न बलदेव वैद्य उर्दू में मंटो, इस्मत चुगताई आदि की लंबी फ़ेहरिश्त है। 

साहित्यिक अश्लीलता से बचने का सब से बेहतर उपाय यह हो सकता है कि उसे न पढ़ा जाए। यह एक तरह की ऐसी सेंसरशिप है जो पाठक को अपने उपर खुद लगानी होती है। उस की आंखों के सामने ब्लू फ़िल्मों के कुछ उत्तेजक दृश्यों के टुकडे़ होते हैं, जवानी के दिनों की कुछ संचित कुंठाएं होती हैं। 

द्वारिका प्रसाद के उपन्यास घेरे के बाहर में सगे भाई, बहन में देह के रिश्ते बन जाते हैं। उपन्यास बैन हो जाता है। अनैतिक है यह। लेकिन क्या ऐसे संबंध हमारे समाज में हैं नहीं क्या। मैं लखनऊ में रहता हूं। एक पिता ने अपनी सात बेटियों को अपने साथ सालों सुलाता रहा। बेटियों को घर से बाहर नहीं जाने देता था। किसी से मिलने नहीं देता था। बेटियों से बच्चे भी पैदा किए। अंतत: घड़ा फूटा पाप का। वह व्यक्ति अब जेल में है। ऐसे अनगिन किस्से हैं हमारे समाज में। हर शहर , गांव और कस्बे में। गोरखपुर में तो हमारे मुहल्ले में एक ऐसा किस्सा सामने आया कि एक टीन एज लड़का , पड़ोस की दादी की उम्र से जब तब बलात्कार करता रहा। वृद्ध औरत जैसे-तैसे बर्दाश्त करती रही। लेकिन किसी से कुछ कहा नहीं। जब भेद खुला तो लड़का शहर छोड़ कर भाग गया। तो इन घटनाओं को ले कर कहानी लिख दी जाए तो वह अश्लील कैसे हो जाती है भला ? बहुत से ऐसे मामले हैं मेरे सामने गांव से ले कर शहरों तक के हैं कि पिता और बेटी के संबंध हैं। बहू और ससुर के संबंध हैं। राजनीतिक हलके में तो कुछ ऐसे संबंध सब की जुबान पर रहे हैं। कुछ बड़े नाम लिख रहा हूं। कमलापति त्रिपाठी , उमाशंकर दीक्षित , देवीलाल आदि। हमारे पूर्वांचल में ऐसे संबंधों को कोड वर्ड में पी सी एस कहा जाता रहा है। प्रमोद महाजन की हत्या उन के भाई ने क्यों की थी , याद कीजिए। नेहरू , मोरारजी देसाई , तारकेश्वरी सिनहा , इंदिरा गांधी , फिरोज गांधी आदि के अनगिन और अनन्य किस्से कौन नहीं जानता। 

जब दिल्ली में मैं रहता था तब घर के सामने ही सड़क उस पार एक परिवार में चाचा , भतीजी खुल्ल्मखुल्ला संबंध में रहते थे। पूरी कालोनी को पता था। जैनेंद्र कुमार की सुनीता एक एकांत स्थान पर एक पुरुष चरित्र के सामने अचानक निर्वस्त्र हो जाती है ताकि उस का क्रांतिकारी जाग जाए और अपना काम करे। यह कहती हुई कि इसी के लिए तो तुम यहां अपना काम छोड़ कर रुके हुए हो। वह हकबका जाता है। यह शॉक्ड था , उस के लिए। तो क्या जैनेंद्र कुमार की सुनीता  अश्लील हो गई ? अज्ञेय की पहली पत्नी ने तलाक लेने के लिए मेरठ की एक अदालत में अज्ञेय पर  नपुंसक होने का आरोप लगाया था। जिसे अज्ञेय ने चुपचाप स्वीकार कर लिया था। तलाक हो गया था। लेकिन नदी के द्वीप पढ़ने वाले जान सकते हैं कि नपुंसक व्यक्ति उन दृश्यों को , उन प्रसंगों को नहीं लिख सकता था। तो अज्ञेय का नदी का द्वीप अश्लील है ?

मृदुला गर्ग का चितकोबरा जब छप कर आया तो तहलका मच गया। हमारे जैसे लोगों ने उसे छुप-छुपा कर पढ़ा। गोया कोई चोरी कर रहे हों। विद्यार्थी थे ही। चितकोबरा को बाकायदा अश्लील घोषित कर दिया गया। जैनेंद्र कुमार तब सामने आए। कहा कि मृदुला गर्ग की यातना को समझिए। कहा कि यह उपन्यास अश्लील नहीं है। हालां कि सारा चितकोबरा सिर्फ़ चार-छ पन्नों के लिए ही पढ़ा गया। वह भी इस लिए कि तब ब्लू फ़िल्में बाज़ार में आम जन के लिए उपलब्ध नहीं थीं। अगर होतीं तो चितकोबरा की लोग नोटिस भी नहीं लिए होते। इस लिए कि चितकोबरा में जो भी देह दृश्य , जो भी कल्पना थी , ब्लू फिल्मों से ही प्रेरित थीं। काश कि उस के दो मुंह होते , काश कि उस के वह दो होते , यह दो होते , चार होते। आदि-इत्यादि। जल्दी ही ब्लू फिल्म आम हुई और चितकोबरा का जादू गायब हो गया। सारी सनसनी सो गई। मृदुला गर्ग का कठगुलाब भी ऐसे ही आया और चटखारे ले कर चला गया। चित्रा मुद्गल , रमणिका गुप्ता , मैत्रेयी पुष्पा आदि की एक खेप आ गई अश्लीलता के आरोप का वसन पहने। कृष्ण बलदेव वैद , मनोहर श्याम जोशी आदि भी इधर बैटिंग में थे। वर्ष 2000 में मेरे उपन्यास अपने-अपने युद्ध पर भी भाई लोगों ने अश्लीलता का आरोप लगाया। लेकिन मैं तो नहीं डिगा। न इस आरोप को कभी स्वीकार किया। लंबे समय तक विवाद और विमर्श का सिलसिला जारी रहा। अभी भी जारी है। जल्दी ही मेरे उपन्यास लोक कवि अब गाते नहीं पर भी यह आरोप दर्ज हुआ। मेरी कुछ कहानियों , कविताओं को भी अश्लील कहा गया। सो अश्लीलता के इस बेहूदा आरोप की यातना से खूब वाकिफ हूं। अश्लीलता का बखेड़ा सिर्फ़ और सिर्फ़ एक बीमारी है। और कुछ नहीं। अगर मां , बेटे के संबंध जैसे भी घटित हो गए हैं देह का गणित में तो वह कृत्य घृणित है , कहानी नहीं। वंदना गुप्ता को बधाई दीजिए कि इस घृणित कृत्य को वह अपनी कहानी देह का गणित का कथ्य बनाने की वह हिम्मत कर सकीं। कहा ही जाता है कि औरत और मर्द का रिश्ता आग और फूस का रिश्ता होता है। आग लगती है तो लगती है। लगती ही जाती है। वर्जनाएं , शुचिता , नैतिकता , मर्यादा आदि का चलन इसी लिए बनाया गया है। जैसे मृदुला गर्ग की चितकोबरा में चार, छ पन्ने ही उस का प्राण थे , वंदना गुप्ता की देह की गणित में भी सौ , डेढ़ सौ शब्द ही हैं जिन के लिए लोग इस कहानी का नाम ले रहे हैं। चितकोबरा और देह का गणित में एक फर्क यह भी है कि चितकोबरा के वह पन्ने बार-बार हम ने पढ़े , रस लेने के लिए। लेकिन देह का गणित फिर दुबारा पढ़ने का मन नहीं हुआ। इस लिए भी कि वंदना गुप्ता ने इस में सेक्स का रस नहीं घोला है। सिर्फ घृणित कृत्य की सीवन उधेड़ी है। देह की गणित की मां अगर मदर इंडिया की नरगिस के चरित्र की तरह बेटे को गोली मार देती तो यह चरित्र बहुत बड़ा बन सकता था। पुलिस में रिपोर्ट कर जो जेल भेज देती बेटे को तब भी यह चरित्र निखर जाता। लेकिन फ़िल्मी कहानी और जीवन की कहानी में फर्क होता है। यहां देह की गणित की मां चूंकि खुद भी देह सुख में डूब लेती है तो वह ऐसा करती भी तो कैसे भला। कहानी की ईमानदारी और यथार्थ की मांग भी यह सब नहीं थी। मां , बेटे के नैतिक पतन और पाप को , व्यभिचार को यह कहानी सपाट ढंग से ही सही , कह जाती है। बावजूद इस सब के वंदना गुप्ता रिस्क ज़ोन में गई हैं। नहीं ऐसे संबंध हमारे समाज में बहुत पहले से हैं। पर हिंदी पट्टी में पाखंड के व्याकरण के तहत में इस संबंध पर कहानी लिखना पाप है , अपराध है। सो लोग बचते हैं। सोचिए कि ऐसे तो रामायण लिखने वाले बहुतेरे रचनाकारों द्वारा रावण द्वारा सीता के अपहरण की घटना लिखनी ही नहीं चाहिए था। क्यों कि यह अनैतिक था। पाप था। इस से बाल्मीकि , तुलसी दास या अन्य रचनाकारों को भी बचना चाहिए था। महाभारत में भी कंस , धृतराष्ट्र  , शकुनि , दुर्योधन , दुशासन , कुंती , कर्ण , द्रोपदी आदि फिर नहीं होने चाहिए थे। ऐसे ही तमाम निगेटिव करेक्टर नहीं होना चाहिए , किसी भी साहित्य में। क्या तो यह अनैतिक है। अपराध है। आदि-इत्यादि। फिर तो इस बुनियाद पर दुनिया भर का दो तिहाई कथा साहित्य अश्लील हो गया।

अच्छा देह का गणित तो कहानी है। मलयाली लेखिका कमला दास की आत्म कथा माई स्टोरी की याद कीजिए।  हिंदी में भी मेरी कहानी नाम से उपस्थित है। वह तो सच है। जिस में तमाम देह संबंधों के साथ ही वह अपने बेटे के दोस्तों के साथ भी देह सुख बटोरती रहती हैं। तो क्या वह अश्लील है ? तमाम हिंदी लेखिकाओं की कथाएं और उन का जीवन किन-किन किस्सों से नहीं भरा पड़ा है तो क्या वह अश्लील है ? कुछ लेखिकाएं सिर्फ़ इसी लिए ही जानी जाती हैं , अपने लेखन के लिए नहीं। अभी जो यहां इन लेखिकाओं के नाम लिख दूं तो स्त्री विरोधी का फतवा जारी करते हुए सब की सब मुझ पर हड्डों की तरह टूट पड़ेंगी। कुछ लेखिकाओं की आत्मकथा पढ़िए। कैसे तो अपनी साड़ियां खुद उतारती फिरती हैं। क्या-क्या नहीं लिख गई हैं। और जो वह नहीं लिख पाई हैं , क्या वह भी पब्लिक डोमेन में नहीं हैं ? यही हाल तमाम लेखकों का है। शिवरानी देवी की किताब प्रेमचंद घर में यह खुलासा है कि प्रेमचंद के अपने विमाता से निजी संबंध थे। निर्मला उन की ही अपनी कहानी है। रवींद्रनाथ टैगोर के संबंध अपनी सगी भाभी से थे। देवानंद के छोटे भाई और प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक , अभिनेता विजय आनंद ने अपनी सगी भांजी से तमाम विरोध के बावजूद विवाह किया। यह और ऐसे तमाम विवरण हैं। तो क्या यह सब अश्लील है ?

जी नहीं , यह जीवन है। निंदनीय ही सही यह जीवन सर्वदा से ही ऐसे चलता रहा है। पौराणिक कथाओं में भी यह और ऐसे चरित्र बहुतेरे हैं। वर्तमान में भी यह जीवन कहानियों में भी , उपन्यासों में भी , जल में परछाईं की तरह झलकता रहेगा। समय के दर्पण में दीखता रहेगा। साहित्य है ही , समाज का दर्पण। सो फिकर नाट वंदना गुप्ता । देह का गणित होता ही है ऐसा। आग , फूस जैसा। लोग जलते हैं तो जलने दीजिए। हम ने तो लिखने के लिए लोगों के अभद्र और अश्लील आरोप ही नहीं , हाई कोर्ट में कंटेम्प्ट का मुकदमा भी भुगता है , लेकिन सच लिखना नहीं छोड़ा। नहीं छोडूंगा। लोगों का क्या है , लोगों का तो काम ही है कहना। आप अपना काम पूरी निर्भीकता से करती रहिए। हमारे लखनऊ में भगवती चरण वर्मा कहते थे , संसार में अश्लीलता नाम की कोई चीज़ भी है , इस पर मुझे शक है। रही नैतिकता की बात तो मनुष्य का यह अपना निजी दृष्टिकोण है।

[ पाखी , नवंबर , 2018 अंक में प्रकाशित ]

2 comments:

  1. विचारोत्तेजक पोस्ट

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  2. साहित्य का विराट अनुभव है आपको..! सादर प्रणाम!💐

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