Wednesday 29 April 2015

इतने गुलमोहर मत खिलाओ नहीं तो आग लग जाएगी



अपने भीतर
इतने गुलमोहर
मत खिलाओ
नहीं तो आग लग जाएगी

तुम्हारे यह होठ क्या कम थे
आग लगाने के लिए
जो अपने भीतर
गुलमोहर खिलाने लगी

तुम्हारी यह आंख क्या कम थी
इतराने के लिए
जो तुम गुलमोहर की आड़ ले कर
इस तरह इतराने लगी

यह तुम्हारे वक्ष ,यह तुम्हारे नितंब
यह तुम्हारे गरदन के पीछे से
झांकती तुम्हारी पीठ क्या कम थी
अपने अंगार में मुझे डुबो लेने के लिए
जो तुम गुलमोहर के शहद  में मुझे डुबाने लगी 

मेरे भीतर
गुलमोहर की तरह
आहिस्ता-आहिस्ता
इतना मत दहको
नहीं तो रात जग जाएगी

मौसम की राह चल कर
मेरे मन के भीतर
गुलमोहर की तरह
इतना मत झरो
नहीं तो बांसुरी बज जाएगी
 
प्यार की वही पुरानी बांसुरी
जो हरि प्रसाद चौरसिया से हमने सुनी थी
साथ-साथ
और खो गए थे एक दूसरे में

गुलमोहर की यह गमक
पलाश की लहक की तरह
महुआ की मदमाती महक की तरह
हमारी सांसों में खो गई थी
गुलमोहर की छांव तले
हरी घास पर बिछ गए
गुलमोहर के नरम फूलों पर बैठ कर

[ 29 अप्रैल , 2015 ]

No comments:

Post a Comment