उंगली पकड़ कर उठना
पिता से सीखा
सीना तान कर चलना
पड़ोसियों से सीखा
अकड़ कर रहना
हितैषियों से सीखा
पीठ में छुरा घोंपना
उदयभान मिश्र |
उदयभान जी जब भी मुझ से मिलते थे धधा कर मिलते थे । आत्मीयता से उन का रोया-रोया आप्लावित रहता । वह जब आकाशवाणी , गोरखपुर में निदेशक थे , तभी मेरी पहली मुलाकात हुई उन से । तब से ही वह मेरे आत्मीय हो गए । असाधारण ऊर्जा से भरे उदयभान जी में आलस एक पैसे का भी नहीं था । अच्छे ब्राडकास्टर रहे उदयभान जी ने आकाशवाणी और दूरदर्शन के विभिन्न केंद्रों पर अपनी प्रतिभा तो दिखाई ही , तमाम प्रतिभाओं को भी आगे बढ़ाया । प्रतिभा खोजी और उन्हें निखारा । यायावरी भी उन में खूब थी । दिल्ली-लखनऊ एक किए रहते थे । रामदरश मिश्र उन के जीवन में बहुत रहते थे । उन के संस्मरणात्मक उपन्यास यह कहानी मेरी नहीं में रामदरश जी बार-बार आते हैं । रामदरश मिश्र की आत्मकथा में भी उदयभान जी की निरंतर आवाजाही मिलती है । उदयभान जी लखनऊ जब भी आते थे , मेरे घर आते थे । मैं भी गोरखपुर में उन के घर जा कर मिलता था । वह मेरे गांव बैदौली भी आते थे । बेटे के यज्ञोपवीत पर , बेटी की शादी , अम्मा के निधन यानी मेरे हर सुख-दुःख में शरीक रहे । बीते जनवरी में अम्मा का श्राद्ध जब हुआ तो गज़ब की शीतलहरी चल रही थी , गोरखपुर में। लेकिन उस भयंकर सर्दी और अपनी उम्र की परवाह किए बिना वह मेरे गांव आए थे।
उदयभान जी की बड़ी इच्छा थी कि कभी गोरखपुर में उन के घर पर हफ्ता-दस दिन उन के साथ रहूं , बात करूं । उन के साथ किसी यात्रा पर चलूं । बहुत मलाल रहेगा कि उन की यह इच्छा पूरी नहीं कर पाने का । बहुत सी यादें और बातें हैं , उन की कविताएं हैं , लेख और स्मृतियां हैं । उन के आत्मकथात्मक उपन्यास के कई दुर्निवार हिस्से याद आ रहे हैं । उन के जैसा प्यार और आदर देने वाला मुझे दूसरा आत्मीय नहीं मिला । वह मेरे लिखे के भी बहुत बड़े प्रशंसक थे । अभी अस्पताल में जब भर्ती थे तब मेरे उपन्यास मैत्रेयी की मुश्किलें का अंश पढ़ कर फेसबुक पर टिप्पणी लिखी थी उन्हों ने कि इस उपन्यास पर उन्हों ने नोट बना लिए हैं । अस्पताल से छुट्टी पाते ही इस उपन्यास पर लिखेंगे । संयोग से यह उपन्यास मैं ने उन्हें ही समर्पित किया था । रामदेव शुक्ल जी ने बताया था कि वह इस से बहुत प्रसन्न थे । बहुत दिनों तक मेरा यह उपन्यास मैत्रेयी की मुश्किलें अपने साथ लिए घूमते रहे थे और जिस-तिस को दिखाते रहे थे । उदयभान जी मेरे पिता की उम्र के थे लेकिन जब भी मिलते , मित्रवत मिलते थे । प्रिय भाई दयानंद लिख कर अपनी किताबें भेंट करते थे। सरयू की धारा की सी रवानी थी उन में । ख़ूब बहते हुए मिलते रहते थे । खाने-खिलाने और आतिथ्य के बेहद शौक़ीन । लेकिन लिखने की जब बात आती तो वह कहते थे , मैं अपने लिए लिखता हूं , लोगों के लिए नहीं। लेकिन जब उन का लिखा पढ़ता था तो पाता था कि उन के लिखे में लोग ही समाए रहते थे। उन की एक कविता है , चलो घर चलें। अब वह अपने नए घर चले गए हैं।
उदयभान मिश्र और श्रीकांत वर्मा |
गोरखपुर में अस्पताल से निकलने के बाद मेरे पास दो विकल्प थे । एक दिल्ली जाने का , दूसरा लखनऊ जाने का । मगर मेरा कोष ,जवार गाँव बसावनपुर याद आने लगा । वह मिट्टी ,जहां मैं पैदा हुआ हूँ ,जहां कि धूप और हवा मुझे पालती पोसती रही ,मुझे लगातार बुलाने लगी , और मैँ पंद्रह अगस्त की आधी रात के बाद रामधनी मेमोरियल हॉस्पिटल बड़हलगंज गोरखपुर में पहुच गया । इसके संस्थापक डॉ संजय कुमार मेरे पूरे परिवार से जुड़े हुए हैं । वे गहरी आत्मीयता से मेरा उपचार कर रहे हैं ,सांस फूलने का कष्ट लगभग दूर हो गया है । उपचार जारी है ।
बहुत भाव-भीना लिखा है आपने, शायद उंगलियां भी कांपी हो.. आंख भी भरी भरी हो... 😓
ReplyDeleteउदयभान मिश्र जी को विनम्र श्रद्धांजलि ! स्मरणीय चित्रों के साथ भावपूर्ण लेखन !
ReplyDelete"कभी किसी को मुक़म्मल जहां नानी मिलता, कहीं ज़मीं तो कहीं आसमां नहीं मिलता।" - ठीक ही कहा है किसी शायर ने। इसी को नियति कहते हैं। बहुत भावपूर्ण ढंग से लिखा है आपके कविवर उदयभान मिश्र जी के बारे में। अत्यंत मार्मिक।
ReplyDelete