श्रीलाल शुक्ल |
पंडित श्रीलाल शुक्ल के क्लासिक उपन्यास राग दरबारी के पचास साल होने पर राग दरबारी को इस तरह भी पढ़ा जा सकता है। श्रीलाल जी अगर आज जीवित होते तो अपने पात्रों की इन परछाइयों से इस तरह परिचित हो कर ख़ूब मुदित होते और कहते आइए दयानंद जी इसी बात पर दो पेग हो जाए। पर आज श्रीलाल जी नहीं हैं । तो अनिल सिंह का लिखा शिवपालगंज की सैर पढ़ कर मैं एक बार फिर से रंगनाथ की तरह राग दरबारी के उस ट्रक में सवार हो गया हूं। मन करे तो आप भी सवार हो जाइए। राग दरबारी का यह अविकल पाठ भी पुलकित करता है। बता दूं कि अनिल सिंह पावर ग्रिड, लखनऊ में इंजीनियर हैं। तो जो करंट होता है बिजली में कि अगर पकड़ ले तो फिर छोड़े नहीं। अनिल सिंह के इस लिखे में वही करंट है। वही तिलिस्म , वही जादू और वही वैभव जो श्रीलाल जी के राग दरबारी में पृष्ठ दर पृष्ठ उपस्थित है। संयोग देखिए कि जैसे श्रीलाल जी संगीत के रसिक थे , अपने अनिल सिंह भी संगीत के रसज्ञ हैं। इस लिए भी उन के इस लिखे में श्रीलाल जी की लय , भंगिमा और रस भी गुंफित है।
शिवपालगंज की सैर
अनिल सिंह
कुछ दिन पहले अखबार में पढ़ा कि (स्वर्गीय) श्रीलाल शुक्ल के अमर ग्रंथ 'राग दरबारी' के प्रकाशन के 50 वर्ष पूरे हो गये। पढ़ कर दिमाग बरबस ही उस दिन की ओर चला गया जब पहली बार यह पुस्तक मुझे पढ़ने को मिली थी। मुझे अच्छी तरह याद है: जून 1981 की बात है; किताब मैंने रात 10 बजे के आसपास पढ़नी शुरू की, और सुबह सात बजे पढ़ कर खत्म कर दी। यही नहीं, अगले दिन फिर उसे पढ़ना शुरू किया, और इस बार धीरे-धीरे रस लेकर पढ़ा। तब से लेकर आज तक न जाने कितनी बार-कई बार यूँ ही बीच में कहीं से भी और कहीं तक, राग दरबारी पढ़ चुका हूँ, और न जाने कितने लोगों को पढ़ा चुका हूँ। जितने लोगों को मैंने राग दरबारी की प्रतियाँ भेंट कीं, सभी ने बाद में कृतज्ञता-ज्ञापन किया। आज भी गाहे-बगाहे विद्वानों के बीच 'राग दरबारी' के उद्धरण सुनाकर मैं गर्व और आनंद का अनुभव करता हूँ। अन्य किसी पुस्तक के लिए इस तरह की दीवानगी मेरे मन में नहीं है। दरअसल अपने अनेक मित्रों की तरह मेरी साहित्यिक अभिरुचि भी राग दरबारी से शुरु होकर राग दरबारी पर ही समाप्त हो जाती है। मुझे गर्व है कि मैंने राग दरबारी पढ़ रखी है। राग दरबारी के प्रकाशन के 50 वर्ष पूरे होने के समाचार ने मस्तिष्क को इस प्रकार के विचारों से ओतप्रोत कर दिया, और रंगनाथ, वैद्यजी, रामाधीन भीखमखेड़वी, बद्री पहलवान, प्रिंसिपल साहब, खन्ना मास्टर, गयादीन जी, सनीचर, छोटे पहलवान और लंगड़ जैसे कितने ही पात्र दिमाग पर हावी हो गये। दिमाग उन वास्तविक पात्रों के बारे में सोचने लगा जिनसे जीवन में भेंट हुई जो सीधा 'राग दरबारी' से ही निकले जान पड़ते थे। तभी एक विचार आया कि क्यों न शिवपालगंज चल कर देखा जाय कि इन पात्रों में से कितने जीवित हैं, इनके बाल-बच्चे क्या कर रहे हैं, और शिवपालगंज खुद इन पचास सालों में कितना विकसित हो गया है।
यह शिवपालगंज आखिर है कहाँ? शुक्ल जी ने इस सम्बंध में कुछ संकेत दिये हैं। उन्होंने लखनऊ के देहाती और शहरी रिक्शेवालों का ज़िक्र किया है। बद्री पहलवान एक बार अपने संदूक के साथ रिक्शे पर बैठकर शिवपालगंज आये थे जिसे एक शहरी रिक्शेवाला खींच रहा था, और उसने बातचीत में लखनऊ के माल अवेन्यू और फ्रैम्प्टन स्क्वायर मुहल्लों का ज़िक्र किया था। इसके अतिरिक्त शुक्ल जी ने एक संकेत और दिया है: शहर का किनारा; उसे छोड़ते ही देहात का महासागर शुरू हो जाता था। फिर रंगनाथ का ट्रक ड्राइवर से कहना: पंद्रहवें मील पर उतर पड़ेंगे। इन बातों का विचार करके मैंने अपनी कार से ही शिवपालगंज को ढूँढने का निश्चय किया। जहाँ शहर खत्म हो जाय, उसके बाद पंद्रह मील अथवा 20-22 किमी पर कहीं शिवपालगंज होना चाहिये, यह सोचकर एक दिन अच्छा मौसम और शुभ मुहूर्त देखकर मैंने अपनी यात्रा शुरु की। मेरा पहला लक्ष्य था: शहर का किनारा!
अपने आप को रंगनाथ की भूमिका में रख कर मैं शहर के उस छोर को ढूँढ रहा था जहाँ आज से 50 साल पहले रंगनाथ ने एक ट्रक खड़ा देखा था, पर लगभग 40 किमी गाड़ी चला लेने के बाद भी जब शहर का किनारा नहीं दिखा, तो मुझे ध्यान आया कि रंगनाथ की शिवपालगंज-यात्रा को 50 साल बीत चुके हैं, और पहले जहाँ शहर का किनारा रहा होगा, वह जगह अब शहर निगल चुका होगा। मैंने गाड़ी वापस मोड़ी, और इस बार सावधानी से एक-एक साइनबोर्ड देखते हुए धीमी गति से वापस शहर की ओर चलने लगा। अचानक एक साइनबोर्ड पर नज़र पड़ी: दंगनाथ स्टेशनरी ऐंड जनरल स्टोर्स।
गाड़ी रोक कर मैंने दुकान को ध्यान से देखा। दुकान की बनावट किसी रेलगाड़ी के डिब्बे की तरह थी: सामने ज्यादा जगह नहीं थी, पर अंदर पर्याप्त गहराई थी। दुकान को बड़े करीने से दो भागों में बाँट दिया गया था: एक भाग में स्टेशनरी स्टोर था जिसमें मुख्य रूप से इंजीनियरिंग की किताबें और स्थानीय अखबार और पत्र-पत्रिकाएं दिख रही थीं, और दूसरे भाग में जनरल स्टोर चल रहा था जिसमें बिकने वाला मुख्य पदार्थ रंग-बिरंगी बोतलों में बिकने वाला एक पेय था, जिसकी खाली बोतलें बता रही थीं कि वह पेय वहाँ काफ़ी लोकप्रिय था। बीच में एक लड़की जो स्पष्टतया दुकान की मालकिन या मैनेजर थी, किसी स्कूल की यूनीफॉर्म सी पहने बड़ी तल्लीनता से अपने मोबाइल से उलझी हुई थी। दुकान के नाम और दुकान की मालकिन से आकर्षित होकर में गाड़ी से उतर पड़ा और दुकान के सामने जाकर लड़की से पूछा: शिवपालगंज किधर पड़ेगा? लड़की ने मोबाइल से सिर उठाये बिना आवाज़ लगायी: छोटे, देखो साहब को क्या चाहिए! पहले दंगनाथ, और अब छोटे! मैं समझ गया कि में अपनी मंज़िल के बहुत नज़दीक हूँ। इसी बीच एक दो पन्ने के अखबार पर नज़र पड़ी जिसका नाम था: गंज टाइम्स, और नीचे लिखा था-मास्टर मोतीराम द्वारा स्थापित। खिली हुई बाँछों के साथ मैंने छोटे की ओर रुख किया। छोटे एक दस-बारह साल का लड़का था, जो सिर्फ निकर पहने हुए था और कुछ ग्राहकों को 'ठण्डा' पिलाने में व्यस्त था। मैंने प्यार से उससे कहा:
"बेटा, शिवपालगंज जाना है।"
मेरी ओर देखे बिना छोटे ने जवाब दिया: " तो जाओ, रोका किसने है?"
मैं समझ गया कि यह खालिस गॅंजहा है; मैंने उसे आदर की दृष्टि से देखते हुए एक बार और कोशिश की:
"अरे भाई, में तो शिवपालगंज जाने का रास्ता पूछ रहा हूँ।"
छोटे पर इस प्रेम और आदर का कोई असर नहीं हुआ, और एक बार फिर बिना मेरी ओर देखे ही जवाब दिया: "पूछते रहो; हम यहाँ रास्ता बताने को थोड़े ही बैठे हुए हैं!"
मैंने मदद के लिए लड़की की ओर देखा, पर वह पहले की तरह मोबाइल से ही खेलने में व्यस्त थी। दोबारा छोटे की तरफ देखते हुए मैंने कहा: "बेटा; गॅंजहापन झाड़ रहे हो!"
छोटे ने अब टेढ़ी निगाह से मेरी तरफ देखते हुए कहा: "यहाँ जो आता है, गंज का रास्ता पूछते हुए ही आता है!" इसके बाद उसने भुनभुनाना शुरू किया: "सबको शिवपालगंज जाना है; सालों, हजरतगंज से मन नहीं भरता जो घूमने के लिए शिवपालगंज चले आते हो?"
बालक की विलक्षण प्रतिभा को देखकर मैंने मन ही मन छोटे पहलवान को याद किया, और मुस्कराते हुए एक बार फिर कोशिश की: "इतना नाराज़ क्यों हो रहे हो पहलवान? गर्मी बहुत है; एक ठण्डा पी लो, और आराम से बताओ।"
"आराम-वाराम शहर के चिड़ीमार किया करते हैं; यहाँ आराम कहाँ? और ठण्डा हम क्यों पियें? ठण्डा तुम पियो; कुछ जेब ढीली करो, तब पता चलेगा शिवपालगंज ठण्डा है कि गरम!" मैंने लड़की की ओर देखा; वह बिना सर उठाये मुस्कराई। उत्साहित होकर मैंने कहा: "एक गंज टाइम्स देना।"
"छुट्टे नहीं हैं।" लड़की ने फिर बिना सर उठाये कहा।
"ठीक है, फिर एक ठण्डा ही पिलाओ; पहलवान, तुम भी पी लो; मैडम आप भी लीजिए।"
मैडम ने अब घबरा कर सिर उठाया, और कहा-"नहीं-नहीं, में ठण्डा नहीं पीती; आप छोटे को ही पिलाइए।"
छोटे ने एक बोतल मुझे पकड़ाने के बाद बिना किसी तकल्लुफ़ के एक बोतल खोलकर मुँह से लगा ली, और बातचीत करने के लिए मेरे पास सरक आया, और आत्मीयता के साथ कहने लगा: "यह शिवपालगंज साला गरीब की जोरू हो गया है; जिसे देखो वही देखने चला आ रहा है! फोकट की फुट्टफैरी! साले आते हैं, और हमारे घरों के पिछवाड़े मूत कर चले जाते हैं; फिर ऊपर से सवाल पर सवाल! सनीचर कहाँ है, बेला का क्या हुआ? क्या लंगड़ को नकल मिली? और जाने क्या-क्या! सब एक से एक बेहया! कितना भी गरियाओ, टलने का नाम नहीं लेते। सब बड़ी-बड़ी गाड़ियों में खाने-पीने के सामान के साथ आते हैं, और कूड़ा हमारे यहाँ फेंक जाते हैं!" अचानक छोटे ने सुर बदला, और कहा: "अंकल, कुछ खाएंगे आप? एक चिप्स लीजिए।" इतनी सारी गालियों के बाद छोटे के मुँह से 'अंकल' और 'आप' जैसे शब्द सुनकर मुझे उसी तरह चक्कर आ गया जिस तरह प्रिंसिपल साहब के मुँह से पिकासो का नाम सुनकर रंगनाथ को आ गया था, पर मैंने किसी तरह अपने को लड़खड़ाने से बचाते हुए कहा: "हाँ-हाँ, क्यों नहीं?" इतना कहते ही छोटे ने एक चिप्स का पैकेट खोलकर उसमें से खाना शुरू किया, और फिर से अपने स्थायी भाव पर आ गया। "इधर तो पता नहीं क्या हो गया है-झुण्ड के झुण्ड लोग चले आ रहे हैं जैसे शिवपालगंज में ही इन सबकी नाल गड़ी हो! शिवपालगंज सबको देखना है, पर शिवपालगंज में रहने वालों से किसी को मतलब नहीं; सब मरे हुए लोगों का हाल जानना चाहते हैं, जिंदा लोगों की कोई कद्र नहीं! बैदजी का क्या हुआ? क्या लौण्डे अब भी अमराइयों में जुआ खेलते हैं? अबे हम क्या जानें बैदजी को, और अमराइयाँ अब कहाँ हैं? किसी से प्यार से बात करने के लिए घर के अंदर बुलाएं, तो ससुरे ऐसे भागते हैं जैसे घर में घुसते ही कोई छूत की बीमारी लग जायेगी; हमारे घर में बैठकर एक लोटा पानी नहीं पी सकते, पर हमारे परबाबा की इनको खबर चाहिए।"
तभी एक दुबला-पतला भला सा दिखने वाला प्रौढ़ आदमी सामने से आता हुआ दिखा; उसे देखते ही लड़की ने कहा: "पापा आ गये।"
'पापा' के कानों में भी छोटे के कुछ वाक्य पड़ चुके थे, इसलिए उन्होंने छूटते ही कहा-क्या बात है छोटू पहलवान? आज बहुत गुस्से में हो!" फिर वह मुझसे मुखातिब हुए, और नमस्कार करते हुए अपना परिचय दिया-"में दंगनाथ हूँ: रंगनाथ का बेटा।" खुशी के मारे मेरे हाथ से ठण्डे की बोतल छूट गयी, और मैंने भावावेश में उनसे हाथ मिलाते हुए कहा: "अहोभाग्य, जो आपके दर्शन प्राप्त हुए!"
दंगनाथ ने विनम्रतापूर्वक कहा: तो आप भी शिवपालगंज को खोजते हुए आये हैं?! आपका दोष नहीं; शुक्लजी ने उसका वर्णन ही इतना जीवन्त किया है! इधर लोगों की आमदरफ्त काफी बढ़ गयी है, पर अधिकांश लोग जो शिवपालगंज जाते हैं, उन्हें निराश ही होना पड़ता है। लोग 50 साल पहले वाला शिवपालगंज ढूँढते हैं, जो उन्हें नहीं मिलता। शिवपालगंज यहाँ से करीब तीन मील की दूरी पर है; आप जाना चाहें तो में आपको रास्ता बताता हूँ, पर अगर आप कुछ देर मेरे साथ बैठें, तो मैं यहीं बैठे-बैठे आपको वह सारी जानकारियाँ दे सकता हूँ जो आपको चाहिए।"
"क्यों नहीं?" मैंने कहा। "शिवपालगंज मैं जाना तो अवश्य चाहूँगा, पर आपको भी मैं इतनी आसानी से छोड़ने वाला नहीं हूँ। कहीं इतमीनान से बैठ कर लंच करते हैं; इस बीच ज़रूरी बातें भी हो जायेंगी।" पास के एक रेस्तराँ में एक कोने की मेज पर बैठने और खाने का ऑर्डर देने के बाद मैंने बातचीत शुरू की।
-"तो अपने पिताजी से ही शुरू कीजिए; अपनी आत्मा के तारों पर पलायन-संगीत गूँजने के बाद उन्होंने तो शिवपालगंज छोड़ दिया था; फिर आप यहाँ कैसे आये? लेकिन ठहरिए; उससे पहले यह बताइए कि यह छोटे कौन है? क्या इसका छोटे पहलवान वल्द कुसहर प्रसाद से कुछ सम्बंध है?" दंगनाथ हँस पड़ा। "बिल्कुल सही पहचाना आपने; यह छोटे उस छोटे पहलवान का पोता है, और आपके लिए खुशी की बात यह है कि छोटे पहलवान अभी जीवित हैं, और आप उनसे मिल भी सकते हैं।"
"अरे वाह! उनसे तो मैं ज़रूर मिलूँगा, पर अभी आप रंगनाथ से शुरू कीजिए; कहाँ हैं वह आजकल?
"रंगनाथ!" पानी का एक लम्बा घूँट भरने के बाद दंगनाथ ने बोलना शुरू किया: "अभी जीवित हैं, और उतरेटिया के पास अपने पुश्तैनी मकान में अकेले रहते हैं। जीवन में बहुत कुछ देखा, पर चार-छह महीनों के शिवपालगंज-प्रवास में जो कुछ देखा, उसे देखकर दंग रह गये और शायद इसीलिए मेरा नाम उन्होंने दंगनाथ रखा। शिवपालगंज में जो कुछ उन्होंने देखा, आज तक उसी को समझने में लगे हैं। शिवपालगंज से लौटने के बाद वह बहुत चिड़चिड़े हो गये थे और हर किसी से खामखा भिड़ जाते थे। वह अपने गाइड से भी भिड़ गये; उसने सालों झुला कर भी उनकी पीएचडी पूरी नहीं होने दी, और परिणामस्वरूप उन्हें किसी सरकारी कॉलेज में नौकरी नहीं मिल सकी। उनके जीवन में प्रिंसिपल साहब की वह भविष्यवाणी अक्षरशः सत्य हुई जिसमें उन्होंने कहा थथा: 'जहाँ भी जाओगे, तुम्हें किसी खन्ना की ही जगह मिलेगी।' ज़िन्दगी भर अपनी योग्यता की माँग की अपेक्षा नीचे के पदों पर काम करने और अपने से अक्षम व्यक्तियों से अपमानित होने के बाद भी शिवपालगंज ही है जिसने उन्हें प्रसन्न रखा है। आज भी शिवपालगंज को याद करके कभी अकस्मात् हँसने लगते हैं, और कभी रोने भी लगते हैं। प्रिंसिपल साहब की बातों के नये-नये अर्थ निकालना आज भी उनका पसन्दीदा शगल है। उन्हें यह समझने में ही कई साल लग गये कि प्रिंसिपल साहब बात कहीं से शुरू करें, खत्म हमेशा खन्ना मास्टर पर ही करते थे।
वैद्यजी के साथ सम्बन्धों के असहज हो जाने के कारण शिवपालगंज लौटना उनके लिए सम्भव नहीं था, पर शिवपालगंज उनसे अलग कभी नहीं हुआ; वह आज भी शिवपालगंजमय हैं।"
"समझा।" मैंने कहा: "पर आप यहाँ कैसे पहुँचे?
"लम्बी कहानी है।" दंगनाथ ने पानी का एक और लम्बा घूँट लिया। "गयादीन ने बेला की शादी अपना सबकुछ दहेज में देकर उसी शहरी नौजवान के साथ कर दी जो बच्चे कम पैदा करने के फ़ायदे बताने शिवपालगंज आया था। यहाँ से कुछ दूरी पर ही गयादीनजी के दामाद का शॉपिंग मॉल है। नाम भी बेला के नाम पर ही रखा है। आप वहाँ भी जा सकते हैं, पर वहाँ शिवपालगंज का नाम न लीजिएगा। बेला की शादी के बाद बद्री पहलवान कुछ ढीले पड़ गये, और पहलवानी के काम में भी ढिलाई बरतने लगे। इसी बीच उनके एक पालक-बालक ने-वही जिसकी बाम्हन की जोरू के साथ घसड़-फसड़ हो गयी थी, ने बाम्हन का खून कर दिया और फ़रार हो गया। उसके ज़ामिन होने के कारण बद्री पहलवान पुलिस और कानून की लपेट में आ गये, और उन्हें भी उन्नाव की जिला अदालत ने छह महीने के लिए जेल भेज दिया। जेल से छूटने के बाद बद्री पहलवान और भी अनमने से रहने लगे। वैद्यजी ने उनकी शादी कराने की कोशिश की, पर पहलवान एक तो प्रौढ़ हो चुके थे, फिर जेल काट कर आये थे, और बेला से सम्बन्धों की उनकी ख्याति दूर-दूर तक पहुँच चुकी थी। कोई अपनी लड़की उन्हें देने को तैयार नहीं हुआ। जेल हो आने और पहलवानी से बेज़ार हो जाने के कारण उनके सम्पर्क-सूत्र भी उनके हाथों से छूटने लगे, और एक दिन उन्होंने देखा कि वह बाज़ार से बिल्कुल उखड़ चुके हैं। वह बीमार रहने लगे, और उनकी बीमारी से वैद्यजी का साम्राज्य भी लड़खड़ा गया। बाबू रामाधीन भीखमखेड़वी ने मौके का फ़ायदा उठा कर बैजेगाँव के लाल साहब को अपनी ओर कर लिया, और छंगामल इंटर कालेज की मैनेजरी वैद्यजी के हाथ से जाने वाली ही थी कि रामाधीन भीखमखेड़वी को एक नया आइडिया आया। शिक्षा के व्यवसाय में फायदा देखकर उन्होंने छंगामल विद्यालय की मैनेजरी हड़पने के बजाय अपना कालेज खोलने की सोची और वैद्यजी को इस बात के लिए मना लिया कि वह अपने सम्पर्कों का इस्तेमाल रामाधीन के कालेज को मान्यता दिलाने में करें; बदले में वह छंगामल कालेज के मैनेजर बने रह सकते थे। नतीजा है बाबू रामाधीन भीखमखेड़वी कालेज ऑफ़ इन्जीनियरिंग ऐन्ड मैनेजमेंट। रामाधीन के कालेज में बाहर के लड़कों के आ जाने के बाद मार-पीट में भी छंगामल कॉलेज के लड़के पिटने लगे जिससे वैद्यजी का आभामण्डल और प्रभावित हुआ, और लगा जैसे वैद्यजी के साम्राज्य का सूर्य अस्त होने ही वाला है, पर तभी रुप्पन बाबू जिन्हें वैद्यजी ने अपनी विरासत से बेदखल कर दिया था, ने छोटे पहलवान की मदद से पहले छंगामल कॉलेज पर हस्तक्षेप किया, और उसके छात्रों को उत्तम कोटि का शारीरिक प्रशिक्षण और हथियार उपलब्ध कराये जिससे रामाधीन कॉलेज के छात्रों पर युद्ध में उन्हें निर्णायक विजय मिली, और उसके बाद उन्होंने रामाधीन के कॉलेज पर भी हस्तक्षेप करके परिस्थिति को पूर्ण नियंत्रण में ले लिया।" तब तक भोजन सामने आ गया और हम दोनों ही बातचीत रोककर भोजन में लग गये। खाते-खाते मैंने पूछा: "रामाधीन कॉलेज पर रुप्पन बाबू ने कैसे हस्तक्षेप किया?" दंगनाथ मुस्कराया। "भूल गये रुप्पन बाबू का बेला-प्रकरण? रुप्पन बाबू युवा थे; वैद्यजी और बद्री पहलवान थक चुके थे, और उनके साथ रोक-टोक करने वाला कोई था नहीं; अवसर का लाभ उठाकर उन्होंने रामाधीन कॉलेज की एक मास्टरनी के साथ प्रेम की पींगें बढ़ाना शुरू किया जो रामाधीन भीखमखेड़वी की रिश्तेदार थी; बात खुल जाने पर उन्होंने उसके साथ शादी भी कर ली। वैद्यजी ने इस विवाह के लिए उसी प्रकार सहर्ष स्वीकृति दी जिस प्रकार आचार्य चाणक्य ने चन्द्रगुप्त मौर्य और सेल्यूकस की कन्या हेलेन के विवाह की स्वीकृति दी थी क्योंकि यह विवाह भी केवल दो व्यक्तियों के बीच नहीं दो साम्राज्यों के बीच था। इस विवाह का तात्कालिक प्रभाव यह हुआ कि दोनों कॉलेजों के छात्रों में लड़ाई-झगड़े हमेशा के लिए बंद हो गये, और रुप्पन बाबू रामाधीन इंजीनियरिंग कॉलेज की मैनेजिंग कमिटी के भी सदस्य हो गये। वैद्यजी ने भी शुभ मुहूर्त देखकर एक दिन छंगामल कॉलेज की मैनेजरी भी रुप्पन बाबू को सौंप दी, और रुप्पन बाबू ने वैद्यजी की जगह पूरी तरह से ले ली। वैद्यजी एक व्यक्ति नहीं एक संस्था है: वैद्यजी थे, हैं, और रहेंगे!"
तब तक खाना खत्म हो चुका था; हाथ धोने के बाद हमने कॉफी का ऑर्डर दिया, और बातचीत फिर शुरू हुई।
"दिलचस्प!" मैंने कहा: "पर आप यह बता रहे थे कि आप यहाँ कब और कैसे आये।"
लंबे मौन के बाद दंगनाथ ने फिर कहना शुरू किया: "ह्म, मैं यहाँ कैसे आया?!" कॉफ़ी के घूँट भरते हुए दंगनाथ ने बात को जैसे तौलते हुए आगे बोलना शुरू किया: "पिताजी तो शिवपालगंज आने के बाद शिवपालगंजमय हो गये थे, पर उन्होंने वैद्यजी और बद्री पहलवान से सम्बंध खराब कर लिए थे, इसलिए चाहते हुए भी उनकी दोबारा शिवपालगंज आने की हिम्मत नहीं हुई। उनकी इच्छा भी रही होगी कि में भी शिवपालगंज देखूँ, पर परिस्थितियाँ भी कुछ ऐसी बनीं कि मुझे यहाँ आना पड़ा, और मैं एक बार आया तो यहीं का होकर रह गया। एमए करने के बाद जब मुझे भी कोई नौकरी मिलने के आसार नहीं दिखे, तो पिताजी ने मुझे भी रिसर्च करने की सलाह दी; यही नहीं, उन्होंने मुझे अपने इंडॉलोजी के प्रॉजेक्ट को ही आगे बढ़ाने की सलाह भी दे डाली जिस पर उन्हें कई सालों के अथक परिश्रम के बाद भी डॉक्टरेट नहीं मिल सकी। बेचारे ज़िंदगी भर लंगड़ को न्याय दिलाने के लिए कॉफ़ीहाउसों और गोष्ठियों में लेक्चर देते रहे, पर कब वह खुद लंगड़ बन गये उन्हें पता ही नहीं चला। न जाने कितनी बार वह अपनी थीसिस लेकर गाइड के पास गये, पर गाइड हर बार उसमें कोई न कोई कमी बताकर उन्हें उसी तरह लौटा देता था जिस तरह नकलनवीस लंगड़ की दरख्वास्त में कमियाँ निकालकर उसे लौटा देता था। एक दिन थक-हार कर वह बैठ गये: पता नहीं लंगड़ का क्या हुआ होगा! अब वह चाहते थे कि उनका काम मैं आगे बढ़ाऊँ। शायद लंगड़ का लड़का भी इसी तरह तहसील के धक्के खा रहा होगा! पीएचडी के प्रति मन में कोई उत्साह न होने के बावजूद पिताजी की इच्छा का मान रखने के लिए मैंने भी विश्वविद्यालय में रजिस्ट्रेशन करा लिया, और पिताजी की लिखी थीसिस लेकर गाइड जो शायद पिताजी के गाइड का ही लड़का या कोई रिश्तेदार हो, के आगे-पीछे घूमना शुरू किया। गाइड हर बार उसमें कोई कमी बताता था, और हर बार मैं थीसिस में बिना हेर-फेर किये फिर उसके पास पहुँच जाता था। गाइड की इतनी तारीफ तो करनी पड़ेगी कि वह हर बार उसमें नयी-नयी कमियाँ निकालता था! गाइड और स्कॉलर दोनों अपनी-अपनी रस्मों का पालन कर रहे थे: रिसर्च चल रहा था। मामला बिल्कुल आगे न बढ़ते देखकर पिताजी को शिवपालगंज की याद आयी। तब तक रुप्पन बाबू वैद्यजी की जगह स्थापित हो चुके थे। पिताजी के उनसे सम्बंध काफी अच्छे थे, और उसी सम्बंध का फायदा उठाकर पिताजी ने रुप्पन बाबू से उसी छंगामल विद्यालय में मास्टरी के लिए मेरी सिफारिश की, जिसमें वह खुद कभी नहीं जा सकते थे। छंगामल इंटर कॉलेज उसी साल छंगामल महाविद्यालय बना था जिसमें एमए तक की पढ़ाई शुरू हो रही थी; उन्हें भी मास्टरों की ज़रूरत थी, और रुप्पन मामा की कृपा से वहाँ मुझे नौकरी मिल गयी। दिन में दो लेक्चर लेता हूँ, कॉलेज का कुछ हिसाब-किताब देख लेता हूँ, और यहाँ में रोड पर एक दुकान खोल ली है, उसे भी सँभालता हूँ; दिन कट रहे हैं।"
"ओह!" मैंने कहा: "अच्छा; वैद्यजी और बद्री पहलवान का क्या हुआ? क्या यह लोग अभी हैं?" "नहीं। वैद्यजी ने तो अपने सामने रुप्पन बाबू को सबकुछ सँभालते और अपने साम्राज्य को अक्षुण्ण होते देख लिया था और जीवन से पूर्ण सन्तुष्ट थे; ऊपर से सनीचर जैसा सेवक उनके पास था; वह तो पूर्णायु होकर शान्ति के साथ मरे, पर बद्री पहलवान इतने भाग्यशाली नहीं थे। बेला-काण्ड के कारण रुप्पन बाबू ने उनको कभी माफ़ नहीं किया और मौके-बेमौके उनको जली-कटी सुनाया करते थे; रही-सही कसर उनकी 'हेलेन' ने पूरी कर दी, जिसने आने के बाद उनको घर के एक कोने में सीमित कर दिया। पहलवानों के बारे में ऐसे भी सुना है कि उनका बुढ़ापा बहुत कष्ट में बीतता है। बद्री पहलवान घर के एक कोने में पड़े-पड़े रुप्पन बाबू और अपने उस पालक-बालक जिसके कारण उन्हें जेल-यात्रा करनी पड़ी थी, को कोसते-कोसते और उनपर कलाजंग दाँव लगाने का संकल्प लेते-लेते एक दिन दादा दूरबीन सिंह की तरह शिवपालगंज की धरती को वीर-विहीन बनाते हुए अपने समय से काफ़ी पहले ही टें हो गये।" "और रामाधीन भीखमखेड़वी? उनका क्या हुआ?" "बाबू रामाधीन भीखमखेड़वी ज़िंदगी भर वैद्यजी से लो इन्टेन्सिटी कनफ्लिक्ट में उलझे रहे, और रुप्पन बाबू के विवाह के उपरान्त वैद्यजी से उनकी दोस्ती हो गयी जिसके बाद पहली बार उन्हें जीवन में शान्ति का अनुभव हुआ। वह अक्सर वैद्यजी के पास बैठते थे और उनके बीच लम्बी चर्चाएं होती थीं। वह भी सुक़ून से गये। उनकी अंतिम कविता मानो विश्व को शान्ति का संदेश देने के उद्देश्य से ही लिखी गयी थी:
'क्या मिला भीखमखेड़वी ताज़िंदगी लड़ कर? जब दोस्ती हुई तो जाकर सुकूँ मिला!'
"क्या कहने हैं!" मैं अपने को दाद देने से नहीं रोक सका। "और सनीचर का क्या हुआ? और प्रिंसिपल साहब? उनका क्या हुआ?"
-"वैद्यजी के मरने के बाद सनीचर का मन शिवपालगंज से उचट गया। सुना है वैद्यजी ने अपनी वसीयत में उसके नाम कुछ रकम छोड़ी थी; एक दिन अचानक रुप्पन बाबू से छुट्टी और वह रकम लेकर सनीचर शिवपालगंज से गया तो फिर नहीं लौटा।" -"और ग्राम प्रधान? सनीचर के बाद ग्राम कौन बना?" -"रामाधीन के भइया; और कौन? दोनों परिवारों के बीच सम्बंध स्थापित हो जाने के बाद प्रधानी का कोई झगड़ा ही न रहा।" -"और प्रिंसिपल साहब?" -"प्रिंसिपल साहब समय से रिटायर हो गये, यद्यपि रुप्पन बाबू के मैनेजर बनने के बाद उनको कुछ दिक्कतें हुईं, पर अपने अनुभव और वैद्यजी के आशीर्वाद के सहारे वह अपने दिन काट ले गये; आज भी वह कॉलेज की मैनेजिंग कमिटी के मेम्बर हैं। खन्ना मास्टर और मालवीय जी के कॉलेज छोड़ने के बाद प्रिंसिपल साहब ने कॉलेज को अपने चचेरे-ममेरे भाइयों से भर दिया, पर उन्हीं मास्टरों ने खन्ना मास्टर की परम्परा में एक प्रिंसिपल-विरोधी गुट बना लिया जिसे सुना था कि रुप्पन बाबू का आशीर्वाद प्राप्त था। गुटों में किचकिच चलती रही, पर प्रिंसिपल साहब किसी तरह पार हो गये।"
-"और गयादीन?"
-"गयादीन? उनका क्या होना था? जोगनाथ वाले मामले में कोर्ट में छोटे पहलवान की बेला को लेकर दिये गये बयान के बाद गयादीनजी की जो बदनामी हुई, वह उनके लिए असह्य थी। इसे लोकापवाद नहीं तो और क्या कहा जाएगा? जिस आदमी ने कभी चींटी तक नहीं मारी, जिसने घर में हुई चोरी को भगवान की मर्जी मान कर स्वीकार कर लिया था, उसके दुनिया के सामने कपड़े उतार दिये गये। गयादीन ने अगर आत्महत्या नहीं की, तो इसलिए नहीं कि वह कायर थे, बल्कि इसलिए कि उनके खानदान में किसी ने आत्महत्या नहीं की थी। बेला की बदनामी को ढकने के लिए उसकी शादी में गयादीनजी को अपनी भैंस तक बेचनी पड़ी, और बेला की विदाई के बाद भी शिवपालगंज में रहना उनके लिए असम्भव हो गया। अपनी सारी जायदाद बेचकर रायबरेली रोड पर उन्होंने एक दुकान खरीदी, और वहाँ नये सिरे से धन्धा शुरू किया। आज भी वह उड़द की दाल से परहेज करते हैं, पर शिवपालगंज का नाम सुनते ही गुस्सा होने से अपने को रोक नहीं पाते। यही हाल बेला और उसके पति का है। शिवपालगंज का नाम सुनते ही वह चुप हो जाते हैं।"
इन महापुरुषों का हाल जानने के बाद मैं तृप्त हो गया। अब बस छोटे पहलवान से मिलना बाकी था। मैंने अब दंगनाथ से कहा: "तो अब शिवपालगंज चला जाय?"
थोड़ी ही देर में हम शिवपालगंज की धरती पर थे। मैंने गाँव की मिट्टी को माथे पर लगाया और दंगनाथ के साथ छोटे पहलवान के घर जाकर उनका दरवाजा खटखटाया।
"कौन है बे?" अन्दर से आवाज़ आयी। छोटे की आवाज़ पहचान कर मैं मन ही मन मुस्कराया।
"मैं दंगनाथ।" दंगनाथ ने उतनी ही तेज़ आवाज़ में जवाब दिया।
"कौन दंगनाथ? बाप का नाम?"
"छोटे, गँजहापन मत झाड़ो; चुपचाप दरवाजा खोलो। तुम्हारे दादा से कोई मिलने आये हैं।"
शायद मेरे पिलाये ठण्डे को याद करके छोटे ने दरवाजा खोल दिया। सामने ही एक आरामकुर्सी पर कमर में लुंगी बाँधे नंगे बदन घुटे सिर और लम्बी मूँछों वाले एक बुजुर्ग व्यक्ति बैठे हुए थे, जो काफ़ी कमजोर दिख रहे थे, पर उनके शरीर की बनावट उनके जवानी में पहलवान होने का इतिहास बयान कर रही थी। पीछे दीवार पर एक पुरानी फोटो जिस पर हार चढ़ा हुआ था, और जिसमें एक व्यक्ति घुटा सिर, लम्बी मूँछ, कुर्ता, लुंगी और बूट धारण किये हुए चन्द्रशेखर आज़ाद स्टाइल में अपनी मूँछें उमेठता हुआ दिख रहा था। मैं समझ गया कि वह बद्री पहलवान के अलावा कोई दूसरा नहीं हो सकता। दंगनाथ ने झुक कर छोटे पहलवान के पैर छुए, तो मैंने उन्हें साष्टांग दण्डवत किया। छोटे पहलवान ने झुक कर मुझे उठाने की कोशिश की, तब मैंने गौर किया कि उनका एक हाथ स्लिंग में झूल रहा था, और उनके माथे पर एक घाव था जिस पर हल्दी का लेप लगा हुआ था।
छोटे पहलवान मेरा भक्तिभाव देखकर काफ़ी प्रसन्न हुए, और मेरी ओर देखते हुए बोले: "तुम आदमी ठीक जान पड़ते हो, पर तुम्हारी तंदुरुस्ती कुछ ढीली है।" फिर तुरंत ही वह दंगनाथ से मुखातिब हुए: "और तुम्हारे क्या हाल हैं दंगनाथ? चाय-वाय पियोगे?" दंगनाथ को जवाब देने का मौका दिये बिना वह कहते रहे: "पहिले के ज़माने में घर आये मिहमान का बादाम मिले दूध से स्वागत होता था, अब तौ ससुरी चाय मिल जाय वही बहुत है। बद्री गुरु के अखाड़े पर शुरू-शुरू में हम लोगों को गुड़-चने के साथ बादाम मिला दूध पिलाया जाता था, तब जाकर भूत जैसी ताकत देह में आती थी; आजकल वहाँ भी चाय-बिस्कुट खिलाया जा रहा है; ज़माने का हाल बुरा है!" "हम तो बिल्कुल फिट हैं चचा! दंगनाथ ने जवाब दिया: "अपनी सुनाइए; यह चोट कैसे लगी? क्या फिर जगेसर दादा से आपकी लड़ाई हुई? दादा हैं कहाँ?" में तुरन्त समझ गया कि जगेसर दादा छोटे पहलवान के सुपुत्र का नाम है; एक क्षण में छोटे पहलवान के खानदान की विशिष्ट परम्परा जिसमें बेटा बालिग होते ही बाप की धुनाई शुरू कर देता था, और कुसहर प्रसाद से लेकर बाबा भोलानाथ तक के छोटे पहलवान के पूर्वजों के नाम दिमाग में कौंध गये।
"अरे नहीं; उसने तो मुझे पीटना कब का बंद कर दिया। वैसे भी आजकल के लौंडों में वह दम कहाँ? भरी जवानी माँझा ढील! एक हम थे जो सोलह साल की कच्ची उमर में ही अपने बाप कुसेहर प्रसाद को उठा कर पटक देते थे; जगेसरा के हाथ में अगर लाठी न हो, तो वह आज भी मुझे नहीं हरा सकता। यह चोट तो इस छोटे पहलवान की वजह से लगी है।" उन्होंने हँस का अपने पोते की ओर इशारा किया जो तुरन्त ही शरमा कर वहाँ से हट गया। छोटे पहलवान कहते रहे: "दिन भर टीवी पर डब्लूडब्लूयफ देखता रहता है और सब मेरे ऊपर आजमाता है, बाद में अपने बाप को उसी तरह पटकेगा।" यह कह कर छोटे पहलवान ठठाकर हँस पड़े। छोटे पहलवान का अपनी वंश-परम्परा के प्रति गर्व और समर्पण देखकर मैंने मन ही मन उनका नमन किया। पहलवान कहते रहे: पहले हर साल पचैयाँ पर कुश्ती के मुकाबले होते थे। एक बार हमारे गाँव में पता नहीं कहाँ से एक पहलवान आया: बिल्कुल काला भुजंग, नौगजा पीर जैसा; उसने आकर पूरे गाँव को चुनौती दे दी। भीखमखेड़ा के कल्लू पहलवान को उसने हँसी-हँसी में धोबीपाट दाँव से चित्त कर दिया था। बद्री वस्ताद उस दिन कहीं बाहर गये थे, और किसी की अखाड़े में उतरने की हिम्मत नहीं पड़ रही थी। मेरी अभी मसें भी नहीं भीगी थीं, पर अपने बाप को मैं पटकने लगा था। ऐसे में बैद महराज ने मजबूर होकर मेरी तरफ देखा। मैंने मन ही मन लाल लँगोटी वाले और अपने बद्री वस्ताद को याद किया, और अखाड़े की मिट्टी माथे पर लगा कर अखाड़े में उतर पड़ा। पहलवान ने पहले मेरे ऊपर जाँघिया दाँव लगाने की कोशिश की, पर मैं किसी तरह उसका हाथ अपने लँगोट उसके हाथ में आने से बचाता रहा। उसने मुझ पर धोबीघाट आजमाने की कोशिश की, पर मैं निकाल दाँव खेलकर उसकी टाँगों के बीच से निकल गया। अगर वह उतना भारी-भरकम न होता तो मैंने उसे कन्धे पर उठाकर पटक दिया होता, पर साला बहुत भारी था। थोड़ी देर जोड़ करने के बाद उसकी कलाई मेरे हाथ में आयी; मैंने तुरन्त साँडीतोड़ दाँव लगाया। वह दर्द से बिलबिला उठा। मैं मौका देखकर उसकी टाँगों के बीच से निकला, और बिना उसका हाथ छोड़े ही बैठे-बैठे ही मैंने उसे उलट दिया। दर्द के मारे वह खुद ही चित्त हो गया।बैद महराज ने खुश होकर मुझे गले से लगा लिया, और साल भर अपने घर से मेरे लिए रोजाना चार सेर दूध भिजवाने का एलान किया, जिसमें से आधा हमारे बाप पी जाते थे।"
तभी छोटे चाय लेकर आ गया। चाय के दौरान पहलवान ने दूसरा किस्सा शुरू किया जिसमें उन्होंने बद्री पहलवान को काँखी दाँव में उलझा लिया था, पर वस्ताद होने का लिहाज करते हुए चित नहीं किया था। दंगनाथ यह सब शायद पहले भी सुन चुका था; चाय खत्म होते ही उसने चलने के लिए छोटे पहलवान से आज्ञा माँगी। पहलवान ने मेरी ओर देखते हुए कहा: "कभी इन्हें लेकर अखाड़े पर आओ।"
-"ज़रूर; क्यों नहीं चाचाजी!" दंगनाथ ने छोटे पहलवान के पाँव छूते हुए कहा।
मैंने छुटकू पहलवान के हाथ में सौ रूपये का एक नोट रखा जिसे उसने इस तरह लपका जैसे छिपकली अपना भोजन लपक लेती है। मैंने दोबारा छोटे पहलवान को दण्डवत प्रणाम किया और हाथ जोड़े-जोड़े दंगनाथ के साथ घर से बाहर निकल गया। मन ही मन मैं उस मुकदमे के बारे में सोच रहा था जो कुसहर प्रसाद ने अपने पुत्र छोटे पहलवान के खिलाफ़ किया था, कि दंगनाथ ने कहा: "रुप्पन बाबू से नहीं मिलेंगे?"
वापस वर्तमान में आते हुए मैंने खुश होकर कहा: "क्यों नहीं?"
"पर ध्यान रहे!" दंगनाथ ने सावधान किया: "आज के रुप्पन बाबू में ५० साल पहले के रुप्पन बाबू को न ढूँढने लग जाइएगा, वर्ना आप निराश तो होंगे ही, आपकी बेइज्जती भी हो सकती है। रुप्पन बाबू अब छात्र-नेता नहीं, पूरे नेता हैं और वैद्यजी के तख़्त पर विराजमान हैं। वैद्यजी के अलावा वह रामाधीन भीखमखेड़वी का भी साम्राज्य सँभाल रहे हैं। उनके पास अब टाइम कहाँ है? जैसे छोटे पहलवान के यहाँ चुपचाप रहे, वैसे ही रुप्पन बाबू के यहाँ भी रहिएगा।"
जल्द ही हम बैठक के सामने थे। बाहर दो बन्दूकधारी गार्ड खड़े थे, जो दंगनाथ को पहचानते थे। बिना रोकटोक के हम अंदर पहुँच गये।
अंदर जो देखा उससे आँखें चौंधिया गयीं। वैद्यजी का दरबार लगा हुआ था। बीच में एक तख़्त पर जिसपर एक गद्दा बिछा हुआ था, एक गावतकिये के सहारे रुप्पन बाबू आधे बैठे और आधे लेटे थे। उनका मुँह पान से भरा हुआ था, और पान की पीक बंद मुँह से भी बाहर की ओर झाँक रही थी। एक आदमी उनके पैर दबा रहा था और दूसरा उनका हाथ। लोग एक-एक करके आ रहे थे और रुप्पन बाबू के चरण छूकर हाथ जोड़े हुए अपनी बात कह रहे थे। रुप्पन बाबू किसी की बात का जवाब न देकर बगल में खड़े एक आदमी को इशारा भर कर रहे थे जो उनके हर इशारे पर अपनी नोटबुक में कुछ लिखता जा रहा था। एक कोने में एक नौजवान पूरी ताकत से भंग पीसने पर लगा हुआ था। उसने अचानक सिल के चारो ओर से भंग को समेत कर सिल के बीच में उसे इकठ्ठा किया, और बट्टे को उसपर रख कर बट्टे के सहारे सिल को उठा लिया। प्रभु का यह चमत्कार देखकर कुछ गँजहे खुश होकर तालियाँ बजाने लगे। नौजवान ने पीसी हुई भंग का एक गोला बनाया और उसे एक भगोने में शिवलिंग के आकर में रखकर शिव-शिव करते हुए पानी मिले दूध से उसका अभिषेक करना शुरू किया; गँजहे और खुश होकर तालियाँ पीटने लगे, तभी दंगनाथ ने रुप्पन बाबू के पास पहुँच कर उनके पाँव छुए। रुप्पन बाबू ने पास खड़े एक युवक को इशारा किया जिसने तुरंत पीकदान उनके आगे कर दिया। पान थूककर रुप्पन बाबू बोले: "कैसे हो दंगनाथ? आज किसे साथ लाये हो?"
दंगनाथ ने मेरा परिचय कराया: "आप लखनऊ से शिवपालगंज देखने आये हैं; मैंने सोचा आपसे भी मिलवा दूँ।"
-"तुमने सोचा तो ठीक ही सोचा होगा।" रुप्पन बाबू ने मुस्करा कर कहा और उसी मुद्रा में मेरी ओर दृष्टि डाली; -"तो देख लिया आपने भी शिवपालगंज? क्या देखा?"
जवाब देने की कोशिश में मैं हकलाने लगा। यह देखकर रुप्पन बाबू अकस्मात् हँस पड़े।
-"दरअसल आप लोग शिवपालगंज को देखने-समझने नहीं, शिवपालगंज वालों पर हँस कर अपना मनोरंजन करने आते हैं! कभी-कभी तो श्रीलाल शुक्ल जी के ऊपर गुस्सा भी आता है; शिवपालगंज का नाम उन्होंने पूरी दुनिया में मशहूर तो कर दिया, पर इसका वर्णन इस तरह किया है जैसे हम सब सिर्फ़ जोकरई करने के लिए ही पैदा हुए हैं। इस जोकरई के पीछे की जो मजबूरियाँ हैं, उसे कोई-कोई ही देख पाता है! 'राग दरबारी' कोई मामूली सटायर नहीं-एक चीख है, जो अभी तक उसी तरह गूँज रही है।" रुप्पन बाबू के मुँह से इतनी गम्भीर बात सुनकर मेरी तो फूँक सरक गयी। मेरी हालत देखकर रुप्पन बाबू दोबारा हँस पड़े, और वातावरण को हल्का करने के लिए हँसते-हँसते ही बोले: "पूरा शिवपालगंज ही वेदना का मेटाफ़र है! कुछ याद आया?"
मैं भकुआ जैसा मुँह बाये रुप्पन बाबू की बातों का अर्थ निकालने की कोशिश करता रहा। रुप्पन बाबू बोले: "अभी तो मुझे कहीं जाना है; अपना पता और मोबाइल नंबर दंगनाथ को दे जाइए; किसी दिन इत्मीनान से आइए, तो इस पर बात हो कि शिवपालगंज को कैसे देखा जाय! और हाँ; शरबत पीकर जाइएगा।" तभी भंग पीसने वाले कलाकार ने भंग का गिलास रुप्पन बाबू के आगे बढ़ाया, उसे एक साँस में पीकर रुप्पन बाबू बाहर निकल गये।
शिवपालगंज को समझने के लिए गँजहों की तरह भंग पीने को आवश्यक जानकर मैंने बिना किसी संशय के मैंने भी शरबत का एक गिलास लिया और एक ही साँस में उसे खाली कर के सिर उठाने के बाद मैंने देखा कि दंगनाथ भी ऐसा ही कर रहा था। उसके बाद हम दोनों भी बाहर निकल गये।
थोड़ी देर तो वातावरण गम्भीर रहा, फ़िर मैंने बात शुरू की। "सबकी बात हो गयी, या कोई बचा है? जोगनाथ? पं राधेलाल?"
दंगनाथ भी हँस पड़ा। "आपकी याददाश्त की दाद तो देनी पड़ेगी। आपको यह सब भी याद हैं! सनीचर के जाने के बाद उसकी दुकान पर जोगनाथ ने कब्ज़ा कर लिया; दूकान का सारा सामान बेचकर वह दारू पीने के एकसूत्रीय कार्यक्रम में लगा है; आज भी की मात्रा में कोई अंतर नहीं आने देता, और सर्फ़री बोली बोलता है। और पण्डित राधेलाल! उनका चेला बैजनाथ-अरे वही जिसने जोगनाथ की ओर से गयादीन के यहाँ चोरी वाले मामले में गवाही दी थी: उनकी घरवाली जो उसके पहले उनके साथी चौकीदार की घरवाली थी, को लेकर भाग निकला, और उसके बाद पण्डित राधेलाल भी कहीं भाग निकले।" मोबाइल में समय देखते हुए दंगनाथ ने आगे कहा: "काफ़ी देर हो गयी; अब आप मुझे अपनी दुकान पर छोड़ दीजिए, जिसकी ऊपरी मंज़िल पर मैं रहता हूँ; वहाँ मैं आपको एक कप चाय पिलाऊँगा, उसके बाद आप भी वापस जा सकते हैं।"
चाय पीते-पीते मैंने दंगनाथ से कहा: "आपके पिताजी कुछ महीने शिवपालगंज में रहे, और उन्होंने राग दरबारी लिख डाली; आप इतने सालों से यहाँ हैं, आप उसकी उत्तरकथा क्यों नहीं लिखते?"
दंगनाथ हँस पड़ा: "आप बहुत बड़ी भूल कर रहे हैं। 'राग दरबारी' रंगनाथ ने नहीं- श्रीलाल शुक्ल जी ने लिखी थी। दरअसल 'राग दरबारी' लिखने के लिए शिवपालगंज आना भी ज़रूरी नहीं है; शुक्ल जी ने लिखा भी है- 'जो यहां है वही सब जगह है, और जो यहाँ नहीं है, वह कहीं नहीं है!' रुप्पन बाबू ने भीम कहा था: 'मुझे तो लगता है दादा पूरे मुल्क में शिवपालगंज ही फैला हुआ है!' 'राग दरबारी लिखने के लिए चाहिए श्रीलाल शुक्ल जी की पैनी दृष्टि, जो मुझमें तो नहीं है, पर मुझे लगता है आपमें है, तो आप ही लिख डालिए 'राग दरबारी' का सीक्वल। मुझसे जो मदद हो सकेगी, मैं करूँगा।"
अनिल सिंह |
मन ही मन मैंने श्रीलाल शुक्ल जी को एक बार और श्रद्धा-सुमन अर्पित किये। मैं समझ गया कि 'राग दरबारी का सीक्वल लिखना मेरे बस की बात नहीं, पर दंगनाथ से मैंने कहा: "अभी तो मेरे पास फुरसत नहीं, रिटायरमेंट के बाद सोचूँगा।"
दंगनाथ बिना कहे ही मेरे मन की बात समझ गया, और ठठा कर हँस पड़ा।
इसके बाद हमने एक दूसरे से विदा ली, और मैं वापस लखनऊ की ओर चल पड़ा।
बहुत खूब ,काल्पनिकता को भी सत्य का आवरण देना अनिल जी से सीखना होगा।रोचक और प्रभावपूर्ण लेख।रागदरबारी को बिना कई बार पढ़े ऐसा लिख पाना कतई सम्भव नहीं।
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (28-05-2018) को "मोह सभी का भंग" (चर्चा अंक-2984) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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मातृ दिवस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
शानदार ज्योरदार जबर्दस्त जिंदाबाद राग दरबारी :D :D :)
ReplyDeleteबहुत बढ़िया
ReplyDeleteभईया अब तो आप रिटायर हो गए ,अब सीक्वल लिख ही डालिए। क्या पता वह भी किसी के लिए महाकाव्य के समान वन्दनीय हो जाए? जैसे रागदरबारी आपके लिए है🙏🙏
ReplyDeleteबहुत सहज लेखन शैली में यह आत्म वृतांत या ट्रैवलॉग लिखा गया है। बहुत सारे लोग इसको कथा समझने की भी भूल करेंगे। आपके मन की ज्योग्राफी का शिवपालगंज मुझे जीता जागता दिख रहा है। मुझे न जाने क्यों लगता है कि इसका सीक्वल आप ने जिया है, इसलिए लिख भी सकते हैं।
ReplyDelete"शिवपाल गंज की सैर" एक अनोखी साहित्यिक रचना है और इसकी सहज लिखावट में बहुत सारी शैलियों का फ्यूजन है। आपको धन्यवाद कि ऐसी रचना से मेरा परिचय कराया।