दयानंद पांडेय
जैसे मैं ने कहा
मैं भी देश का नागरिक हूं
बाजा बेताल हो गया।
रघुवीर सहाय की यह कविता देश के तमाम-तमाम नागरिकों की विवशता, सच्चाई और उस की त्रासदी की एक निर्मम सच्चाई और उस की त्रासदी को उकेरती है। और इस त्रासदी की एक निर्मम सच्चाई यह भी है कि रघुवीर सहाय खुद भी इन तमाम नागरिकों में से एक थे। उन के निजी जीवन में हमेशा ही कुछ ऐसा घटता रहा कि बाजा बजते-बजते बेताल हो जाता रहा।
उन की कुछ दिनमानीय टिप्पणियों को छोड़ दें तो मुझे उन की कविता से ज़्यादा प्रिय उन का गद्य लगता है। बहुत भाता है उन का सरल-सहज गद्य। उन की रचनाओं में हमें उन का काल, सहजता, सौंदर्य और जिस कठिन सरलता की जो छौंक मिलती है, खास कर उनके गद्य में गमकती है, छलकती है, नासूरों को फोड़ती, विसूरती हमें कहीं बांधती चलती है कि हम उसे पूरा बांचे बिना नहीं रह पाते।
जैसे :
नीचे घास
ऊपर आकाश
ऐसा ही होता यदि जीवन में विश्वास
बहुतेरे आज भी यह कहते अघाते नहीं कि रघुवीर सहाय जब तक दिनमान के संपादक रहे, तब तक वह दिनमान पढ़े बिना रह नहीं पाते थे, खाना ही हजम नहीं होता था। तो यह भी कहने वाले भी कम नहीं हैं कि रघुवीर सहाय के जमाने का दिनमान उनके पल्ले ही नहीं पड़ता था। ऐसा कहने वाले साक्षरों को तब का दिनमान क्यों नहीं आता था समझ में? क्या सिर्फ़ इस लिए कि रघुवीर सहाय का दिनमान नारी देह के ब्यौरे देने के बजाय स्त्री की आकुलता, विवशता के ब्यौरे देता था। उसके शरीर सौष्ठव पर सिसकारियां भरने के बजाय शरीर शोषण पर सरल और तल्ख टिप्पणियां देता था। इसी लिए?
इसी लिए कि राजनेताओं के बेडरूम और उन की गासिप के बजाय विकास योजनाओं का थोथापन, राजनेताओं के थेथरपन की थाह लेता और देता था, ‘पैनी नजर’ का स्वांग नहीं भरता था। भड़काऊ विज्ञापन और देह उभारू आवरण कथाएं नहीं परोस पाता था रघुवीर सहाय का दिनमान। इसी लिए कि इसी लिए रघुवीर सहाय का दिनमान आदिवासियों के अंतहीन शोषण, नक्सलियों का जुझारूपन, कामगारों के कठिन जीवन को जगह देता था। पंचसितारा होटल या बहुमंजिले भवनों में आग से ज़्यादा तबाही होती है कि दिल्ली की सीमापुरी और मंगोलपुरी की झुग्गियों में आग ज़्यादा तबाही की तरहें बताता था इस लिए? यह और ऐसे बहुतेरे कारण हैं दिनमान के इस या उस खोने में जाने के। या कहूं कि रघुवीर सहाय को इस या उस खाने में खोजने के।
अब कि जैसे वह घोषित लोहियावादी थे, लेकिन मंडल आयोग की सिफरिशों के खिलाफ भी खुल कर खड़े हुए थे। रघुवीर सहाय का स्पष्ट मानना था कि मंडल सिफारिशों में लोहिया जी की बात है ही नहीं। लोहिया जो साठा की बात करते थे। मतलब साठ प्रतिशत आरक्षण में सिर्फ़ पिछड़ी जातियां भर नहीं है। इस साठ में सभी जातियों के पिछड़े इस में शुमार थे। महिलाओं को स्पष्ट रूप से वह पिछड़ा मानते थे।
आकाशवाणी के संवाददाता तथा कल्पना और प्रतीक के संपादक मंडल में रह चुके सहाय जी हमेशा ज़मीन के साथी रहे। वह अंग्रेजी में एम.ए. थे, लेकिन रोटी हिंदी की खाते थे। हिंदी के वह प्रखर प्रवक्ता थे। आजीवन हिंदी के लिए लड़ाई लड़ते रहे, लेकिन कभी-कभी दिक्कत भी हो जाती थी। जाने यह व्यवस्था का दोष था कि उन का खुद का कहना थोड़ा मुश्किल है। कुछ लोगों को जान कर शायद तकलीफ हो सकती है कि हिंदी के पहरुआ रघुवीर सहाय के संपादन में निकलने वाले दिनमान में भी ज़्यादातर अंग्रेजी अखबारों का उथला ही छपा करता था। क्या तो हिंदी मेंसोर्स नहीं था, लेकिन तब तो और हद हो जाती थी, जब दिल्ली की भी खबरें अंग्रेजी ही में लिखवा कर उस का हिंदी अनुवाद दिनमान में छपता था। लगता नहीं था यह वही रघुवीर सहाय हैं, जो हदें लांघते हुए हिंदी के लिए हुंकारते थे, लेकिन क्या कीजिएगा, बाजा बेताल हो जाने के क्रम में यह भी वही रघुवीर सहाय होते थे, लोहियावादी रघुवीर सहाय।
सहाय जी के जमाने में दिनमान में एक तो समाचार कम विचार ही ज़्यादा होते थे। तिस पर भी ज़्यादातर वैचारिक टिप्पणियां भी बिना किसी नाम के होती थीं। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना चरचे चरखे लिगते थे और श्यामलाल शर्मा पत्रकार संसद और नियमित, लेकिन तब नाम नहीं जाता था इन का। (बाद में जाने लगा स.द.स.) यह हाल बाकी स्तंभकारों, लेखकों और रिपोर्टरों का भी था। किंचित इक्का-दुक्का ही नाम जाता था किसी का सहाय जी के दिनमान में। परंपरा भी यही थी। बाद के दिनों में टाइम्स के प्रबंधकों से भी उन की खटक गई थी। बनवारी जिन को सहाय जी 10 इंक्रीमेंट दे कर ले आए थे, पहले ही समझ गए थे कि अब सहाय जी ज़्यादा दिन दिनमान में बने रहने वाले नहीं। सो वह सहाय जी से पहले ही दिनमान छोड़ सड़क पर चले गए। बाद के दिनों में बनवारी गांधी शांति प्रतिष्ठान होते हुए जनसत्ता चले गए। पर सहाय जी के जीवन में बाजा फिर बेताल हो गया था।
वह दिनमान के संपादक नहीं रहे, नवभारत टाइम्स के सहायक संपादक के अपने पुराने पद पर स्थानांतरित कर दिए गए थे। यह उन का स्थानांतरण नहीं, अपमान था। पर कहा न बाजा बेताल हो गया था। वह नौकरी से तुरंत इस्तीफा देना चाहते थे, पर ज़िम्मेदारियां विवश किए थीं, वह लंबी छुट्टी पर चले गए। बेटियों की शादी अभी नहीं हुई थी। प्रेस एंक्लेव वाले मकान की किश्तें। बेटा भी तब नौकरी में नहीं था। अजीब सी असंमजस में उन्हों ने छुट्टियां खत्म कर नवभारत टाइम्स ज्वाइन कर लिया। एक भरी-पूरी पत्रिका निकालने वाला एक प्रतिष्ठित संपादक अब चार पृष्ठों वाला रविवारीय नवभारत टाइम्स निकालने पर विवश था, फिर भी वह अपना प्रिय काम कविताओं का अनुवाद और पुस्तक समीक्षा लिखते रहे थे। फिर खबर आई कि वह स्टेट्समैन समूह से निकलने वाले हिंदी दैनिक ‘नागरिक’ के संपादक तय हो रहे हैं। फिर सुना कि वह लखनऊ से निकलने जा रहे नवभारत टाइम्स की कमान संभालेंगे। पर अंतत: हुआ यह कि वह नवभारत टाइम्स से इस्तीफा दे कर फ्रीलांसर हो गए। सहाय जी इस षडयंत्र के कोई अकले शिकार नहीं थे। इस बनियातंत्र ने पहले भी कई को तार-तार किया था। इस तंत्र को देखते हुए ही सर्वेश्वर दयाल सक्सेना को सहायक संपादक बना कर जब पराग की ज़िम्मेदारी सौंपी गई, तो उन्हों ने प्रिंट लाइन पर बतौर संपादक अपना नाम देने से इंकार कर दिया। बाद में उन का नाम बतौर संपादन गया, संपादक नहीं। सहाय जी के बाद दिनमान का भार संभालने वाले नंदन जी के साथ भी बनियातंत्र ने फिर वही सुलूक दुहराया, जो सहाय जी के साथ किया था। सहाय जी तो खाली दिनमान के संपादक थे, पर नंदन जी तो एक समय, एक साथ दिनमान, सारिका, पराग तीनों के संपादक रहे थे, बल्कि 10, दरियागंज के वह संपादक कहे जाते थे। वह भी बाद में नवभारत टाइम्स में फीचर संपादक बना कर रविवारीय परिशिष्ट में डाल दिए गए। नंदन जी तो फिर संडे मेल के प्रधान संपादक हुए, पर सहाय जी ने फिर कोई नौकरी नहीं की, तो नहीं की। बीच में भारत भवन खातिर किसी पीठ पर अशोक बाजपेयी ने उन्हें बुलाया तो भी वह नहीं गए। कभी-कभार वह दिल्ली की सिटी बसों में धक्के खाते रहे, पर किसी पूंजीवादी या सरकारी प्रतिष्ठान की नौकरी में नहीं गए। लेकिन नौकरी की आकुलता वह समझते थे।
मुझे एक घटना याद आती है। अचानक दिल का दौरा पड़ने से सर्वेश्वर जी का निधन हो गया था। दिल्ली से निगम बोध घाट के शवदाह गृह पर सभी शोक में थे। हरिवंश राय बच्चन भी तेजी बच्चन के साथ उपस्थित थे। सर्वेश्वर जी बरसों सहाय जी के साथ काम कर चुके थे। सहाय जी में सर्वेश्वर जी के साथ का ताप पूरे घनत्व में उपस्थित था। वह बेचैन थे कि बच्चन जी से कुछ काम की बात हो जाए और इस के लिए वह कई लोगों को तैयार कर रहे थे। काम की बात यह थी कि बच्चन जी अपने प्रभाव से सर्वेश्वर जी की जगह उन की बड़ी बिटिया को टाइम्स संस्थान में तुरंत नौकरी दिलवा दें। बच्चन जी से कहा गया तो उन्हों ने हामी भर ली और सहाय जी निश्चिंत हो गए थे। नौकरी की आकुलता वह समझते थे, उस की ज़रूरत को तीव्रता से महसूस करते थे। अज्ञेय जी ने दिनमान का जो रूप रचा था, सहाय जी ने उसे और निखारा था। पर वह उसे बाज़ार में टिकाए रखने की गरज से बाजारू नहीं बना सके, बनाना ही नहीं चाहते थे वह उसे बाज़ारू। और दिनमान का बाजा बज गया। जैसे वह दिनमान का कलेवर बाज़ारू नहीं बना पाए। खुद भी बाजार लायक नहीं बन पाए। ‘व्यवहारिक’ होने के बावजूद वह सिद्धांत की लक्ष्मण रेखा को भी जीवन भर ढोते नहीं, जीते रहे। यह वही जी सकते थे। शायद तभी जिस दूरदर्शन पर उन की बिटिया मंजरी जोशी समाचार पढ़ती रही हैं, वहीं उन के निधन की खबर नदारद थी और तो और शहर लखनऊ में उन के ‘चले’ जाने के बाद परदेस बन गया। उस लखनऊ में जिसमें कृष्ण नारायाण कक्कड़ के नेतृत्व में रघुवीर सहाय ने गलियां छानीं, जीना और लिखना सीखा, उसी शहर के लोग उन्हें सही-सलामत अंजुरी भर फूल देने की तमीज भूल गए।
[३० दिसंबर, १९९० को रघुवीर सहाय के निधन पर ३१ दिसंबर, १९९० स्वतंत्र भारत में छपी श्रद्धांजलि]
मैं भी देश का नागरिक हूं
बाजा बेताल हो गया।
रघुवीर सहाय की यह कविता देश के तमाम-तमाम नागरिकों की विवशता, सच्चाई और उस की त्रासदी की एक निर्मम सच्चाई और उस की त्रासदी को उकेरती है। और इस त्रासदी की एक निर्मम सच्चाई यह भी है कि रघुवीर सहाय खुद भी इन तमाम नागरिकों में से एक थे। उन के निजी जीवन में हमेशा ही कुछ ऐसा घटता रहा कि बाजा बजते-बजते बेताल हो जाता रहा।
उन की कुछ दिनमानीय टिप्पणियों को छोड़ दें तो मुझे उन की कविता से ज़्यादा प्रिय उन का गद्य लगता है। बहुत भाता है उन का सरल-सहज गद्य। उन की रचनाओं में हमें उन का काल, सहजता, सौंदर्य और जिस कठिन सरलता की जो छौंक मिलती है, खास कर उनके गद्य में गमकती है, छलकती है, नासूरों को फोड़ती, विसूरती हमें कहीं बांधती चलती है कि हम उसे पूरा बांचे बिना नहीं रह पाते।
जैसे :
नीचे घास
ऊपर आकाश
ऐसा ही होता यदि जीवन में विश्वास
बहुतेरे आज भी यह कहते अघाते नहीं कि रघुवीर सहाय जब तक दिनमान के संपादक रहे, तब तक वह दिनमान पढ़े बिना रह नहीं पाते थे, खाना ही हजम नहीं होता था। तो यह भी कहने वाले भी कम नहीं हैं कि रघुवीर सहाय के जमाने का दिनमान उनके पल्ले ही नहीं पड़ता था। ऐसा कहने वाले साक्षरों को तब का दिनमान क्यों नहीं आता था समझ में? क्या सिर्फ़ इस लिए कि रघुवीर सहाय का दिनमान नारी देह के ब्यौरे देने के बजाय स्त्री की आकुलता, विवशता के ब्यौरे देता था। उसके शरीर सौष्ठव पर सिसकारियां भरने के बजाय शरीर शोषण पर सरल और तल्ख टिप्पणियां देता था। इसी लिए?
इसी लिए कि राजनेताओं के बेडरूम और उन की गासिप के बजाय विकास योजनाओं का थोथापन, राजनेताओं के थेथरपन की थाह लेता और देता था, ‘पैनी नजर’ का स्वांग नहीं भरता था। भड़काऊ विज्ञापन और देह उभारू आवरण कथाएं नहीं परोस पाता था रघुवीर सहाय का दिनमान। इसी लिए कि इसी लिए रघुवीर सहाय का दिनमान आदिवासियों के अंतहीन शोषण, नक्सलियों का जुझारूपन, कामगारों के कठिन जीवन को जगह देता था। पंचसितारा होटल या बहुमंजिले भवनों में आग से ज़्यादा तबाही होती है कि दिल्ली की सीमापुरी और मंगोलपुरी की झुग्गियों में आग ज़्यादा तबाही की तरहें बताता था इस लिए? यह और ऐसे बहुतेरे कारण हैं दिनमान के इस या उस खोने में जाने के। या कहूं कि रघुवीर सहाय को इस या उस खाने में खोजने के।
अब कि जैसे वह घोषित लोहियावादी थे, लेकिन मंडल आयोग की सिफरिशों के खिलाफ भी खुल कर खड़े हुए थे। रघुवीर सहाय का स्पष्ट मानना था कि मंडल सिफारिशों में लोहिया जी की बात है ही नहीं। लोहिया जो साठा की बात करते थे। मतलब साठ प्रतिशत आरक्षण में सिर्फ़ पिछड़ी जातियां भर नहीं है। इस साठ में सभी जातियों के पिछड़े इस में शुमार थे। महिलाओं को स्पष्ट रूप से वह पिछड़ा मानते थे।
आकाशवाणी के संवाददाता तथा कल्पना और प्रतीक के संपादक मंडल में रह चुके सहाय जी हमेशा ज़मीन के साथी रहे। वह अंग्रेजी में एम.ए. थे, लेकिन रोटी हिंदी की खाते थे। हिंदी के वह प्रखर प्रवक्ता थे। आजीवन हिंदी के लिए लड़ाई लड़ते रहे, लेकिन कभी-कभी दिक्कत भी हो जाती थी। जाने यह व्यवस्था का दोष था कि उन का खुद का कहना थोड़ा मुश्किल है। कुछ लोगों को जान कर शायद तकलीफ हो सकती है कि हिंदी के पहरुआ रघुवीर सहाय के संपादन में निकलने वाले दिनमान में भी ज़्यादातर अंग्रेजी अखबारों का उथला ही छपा करता था। क्या तो हिंदी मेंसोर्स नहीं था, लेकिन तब तो और हद हो जाती थी, जब दिल्ली की भी खबरें अंग्रेजी ही में लिखवा कर उस का हिंदी अनुवाद दिनमान में छपता था। लगता नहीं था यह वही रघुवीर सहाय हैं, जो हदें लांघते हुए हिंदी के लिए हुंकारते थे, लेकिन क्या कीजिएगा, बाजा बेताल हो जाने के क्रम में यह भी वही रघुवीर सहाय होते थे, लोहियावादी रघुवीर सहाय।
सहाय जी के जमाने में दिनमान में एक तो समाचार कम विचार ही ज़्यादा होते थे। तिस पर भी ज़्यादातर वैचारिक टिप्पणियां भी बिना किसी नाम के होती थीं। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना चरचे चरखे लिगते थे और श्यामलाल शर्मा पत्रकार संसद और नियमित, लेकिन तब नाम नहीं जाता था इन का। (बाद में जाने लगा स.द.स.) यह हाल बाकी स्तंभकारों, लेखकों और रिपोर्टरों का भी था। किंचित इक्का-दुक्का ही नाम जाता था किसी का सहाय जी के दिनमान में। परंपरा भी यही थी। बाद के दिनों में टाइम्स के प्रबंधकों से भी उन की खटक गई थी। बनवारी जिन को सहाय जी 10 इंक्रीमेंट दे कर ले आए थे, पहले ही समझ गए थे कि अब सहाय जी ज़्यादा दिन दिनमान में बने रहने वाले नहीं। सो वह सहाय जी से पहले ही दिनमान छोड़ सड़क पर चले गए। बाद के दिनों में बनवारी गांधी शांति प्रतिष्ठान होते हुए जनसत्ता चले गए। पर सहाय जी के जीवन में बाजा फिर बेताल हो गया था।
वह दिनमान के संपादक नहीं रहे, नवभारत टाइम्स के सहायक संपादक के अपने पुराने पद पर स्थानांतरित कर दिए गए थे। यह उन का स्थानांतरण नहीं, अपमान था। पर कहा न बाजा बेताल हो गया था। वह नौकरी से तुरंत इस्तीफा देना चाहते थे, पर ज़िम्मेदारियां विवश किए थीं, वह लंबी छुट्टी पर चले गए। बेटियों की शादी अभी नहीं हुई थी। प्रेस एंक्लेव वाले मकान की किश्तें। बेटा भी तब नौकरी में नहीं था। अजीब सी असंमजस में उन्हों ने छुट्टियां खत्म कर नवभारत टाइम्स ज्वाइन कर लिया। एक भरी-पूरी पत्रिका निकालने वाला एक प्रतिष्ठित संपादक अब चार पृष्ठों वाला रविवारीय नवभारत टाइम्स निकालने पर विवश था, फिर भी वह अपना प्रिय काम कविताओं का अनुवाद और पुस्तक समीक्षा लिखते रहे थे। फिर खबर आई कि वह स्टेट्समैन समूह से निकलने वाले हिंदी दैनिक ‘नागरिक’ के संपादक तय हो रहे हैं। फिर सुना कि वह लखनऊ से निकलने जा रहे नवभारत टाइम्स की कमान संभालेंगे। पर अंतत: हुआ यह कि वह नवभारत टाइम्स से इस्तीफा दे कर फ्रीलांसर हो गए। सहाय जी इस षडयंत्र के कोई अकले शिकार नहीं थे। इस बनियातंत्र ने पहले भी कई को तार-तार किया था। इस तंत्र को देखते हुए ही सर्वेश्वर दयाल सक्सेना को सहायक संपादक बना कर जब पराग की ज़िम्मेदारी सौंपी गई, तो उन्हों ने प्रिंट लाइन पर बतौर संपादक अपना नाम देने से इंकार कर दिया। बाद में उन का नाम बतौर संपादन गया, संपादक नहीं। सहाय जी के बाद दिनमान का भार संभालने वाले नंदन जी के साथ भी बनियातंत्र ने फिर वही सुलूक दुहराया, जो सहाय जी के साथ किया था। सहाय जी तो खाली दिनमान के संपादक थे, पर नंदन जी तो एक समय, एक साथ दिनमान, सारिका, पराग तीनों के संपादक रहे थे, बल्कि 10, दरियागंज के वह संपादक कहे जाते थे। वह भी बाद में नवभारत टाइम्स में फीचर संपादक बना कर रविवारीय परिशिष्ट में डाल दिए गए। नंदन जी तो फिर संडे मेल के प्रधान संपादक हुए, पर सहाय जी ने फिर कोई नौकरी नहीं की, तो नहीं की। बीच में भारत भवन खातिर किसी पीठ पर अशोक बाजपेयी ने उन्हें बुलाया तो भी वह नहीं गए। कभी-कभार वह दिल्ली की सिटी बसों में धक्के खाते रहे, पर किसी पूंजीवादी या सरकारी प्रतिष्ठान की नौकरी में नहीं गए। लेकिन नौकरी की आकुलता वह समझते थे।
मुझे एक घटना याद आती है। अचानक दिल का दौरा पड़ने से सर्वेश्वर जी का निधन हो गया था। दिल्ली से निगम बोध घाट के शवदाह गृह पर सभी शोक में थे। हरिवंश राय बच्चन भी तेजी बच्चन के साथ उपस्थित थे। सर्वेश्वर जी बरसों सहाय जी के साथ काम कर चुके थे। सहाय जी में सर्वेश्वर जी के साथ का ताप पूरे घनत्व में उपस्थित था। वह बेचैन थे कि बच्चन जी से कुछ काम की बात हो जाए और इस के लिए वह कई लोगों को तैयार कर रहे थे। काम की बात यह थी कि बच्चन जी अपने प्रभाव से सर्वेश्वर जी की जगह उन की बड़ी बिटिया को टाइम्स संस्थान में तुरंत नौकरी दिलवा दें। बच्चन जी से कहा गया तो उन्हों ने हामी भर ली और सहाय जी निश्चिंत हो गए थे। नौकरी की आकुलता वह समझते थे, उस की ज़रूरत को तीव्रता से महसूस करते थे। अज्ञेय जी ने दिनमान का जो रूप रचा था, सहाय जी ने उसे और निखारा था। पर वह उसे बाज़ार में टिकाए रखने की गरज से बाजारू नहीं बना सके, बनाना ही नहीं चाहते थे वह उसे बाज़ारू। और दिनमान का बाजा बज गया। जैसे वह दिनमान का कलेवर बाज़ारू नहीं बना पाए। खुद भी बाजार लायक नहीं बन पाए। ‘व्यवहारिक’ होने के बावजूद वह सिद्धांत की लक्ष्मण रेखा को भी जीवन भर ढोते नहीं, जीते रहे। यह वही जी सकते थे। शायद तभी जिस दूरदर्शन पर उन की बिटिया मंजरी जोशी समाचार पढ़ती रही हैं, वहीं उन के निधन की खबर नदारद थी और तो और शहर लखनऊ में उन के ‘चले’ जाने के बाद परदेस बन गया। उस लखनऊ में जिसमें कृष्ण नारायाण कक्कड़ के नेतृत्व में रघुवीर सहाय ने गलियां छानीं, जीना और लिखना सीखा, उसी शहर के लोग उन्हें सही-सलामत अंजुरी भर फूल देने की तमीज भूल गए।
[३० दिसंबर, १९९० को रघुवीर सहाय के निधन पर ३१ दिसंबर, १९९० स्वतंत्र भारत में छपी श्रद्धांजलि]
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