Sunday 10 February 2019

कथा विराट की विराटता


सुधाकर अदीब के कथारस में भींगे कथा विराट की कथा में इतनी सारी कथाएं हैं कि इसे पढ़ कर मन इनसाइक्लोपीडिया , इनसाइक्लोपीडिया होने लगता है। विलायत पलट एक कैरियरिस्ट वल्लभ भाई पटेल जो शानोशौकत से रहता है , क्लब की जिंदगी जीता हुआ , सिगार पीता हुआ , ब्रिज खेलता हुआ अहमदाबाद की कोर्ट में शानदार प्रैक्टिस करता हुआ अंगरेज जजों से लड़ते-लड़ते कब एक खेड़े की लड़ाई लड़ता हुआ किसानों की लड़ाई लड़ने लगा , पता ही नहीं चलता। किसानों की लड़ाई लड़ते-लड़ते गांधी के साथ जुड़ कर स्वतंत्रता संग्राम का योद्धा बन जाता है। गांधी का विश्वसनीय साथी बन जाता है। वह गांधी जिस की कभी वह बहुत नोटिस नहीं लेता था। गांधी अहमदाबाद क्लब में आते हैं , ब्रिज खेलते पटेल की मेज़ के पास से गुज़र जाते हैं और पटेल उन की नोटिस नहीं लेते। उन के सम्मान में खड़े नहीं होते । गांधी की सभा में भी नहीं जाते। बाद के दिनों में पटेल अपने एक दोस्त के साथ गांधी के आश्रम भी जाते हैं पर गांधी के लिए बहुत सम्मान नहीं जगा पाते अपने मन में। अनमनस्क रहते हैं तो क्या पटेल के प्रधान मंत्री न बन पाने का यह प्रस्थान बिंदु था। यही बीज बन गया गांधी के मन में और कि गुजराती होने के बावजूद , विश्वस्त होने के बावजूद गांधी एक भी वोट न पाने वाले नेहरू को प्रधान मंत्री बनाना क़ुबूल करते हैं ? सर्वाधिक 12 वोट पाने के बावजूद वह पटेल की बलि ले लेते हैं। सुधाकर अदीब के कथा विराट का यह निष्कर्ष भले न हो पर इस बात के पर्याप्त बीज वह ज़रूर कथा विराट में छोड़ गए हैं। 

कथा विराट पर मैं अपनी बात कहते हुए 
इसी लिए मैं कहता हूं कि सुधाकर अदीब एक तपस्वी रचनाकार हैं। सुधाकर अदीब जैसा तपस्वी और संत  लेखक हमारे समकालीन लेखकों में मुझे कोई दूसरा नहीं दीखता। सुधाकर अदीब वस्तुत: अमृतलाल नागर की परंपरा के लेखक हैं। कुछ लिखने के पहले इतना अध्ययन , इतना शोध , इतनी यात्राएं , इतना चिंतन-मनन एक तपस्वी के लिए ही संभव है , किसी सामान्य लेखक के वश का तो यह नहीं है। हर कथा लेखक ग्वाला होता है । मतलब दूध में कुछ पानी मिलाता ही मिलाता है । अब तो कुछ दूधिए केमिकल वगैरह भी मिलाने लगे हैं । कथा लेखक भी इस से अछूते नहीं हैं। तो सामान्य कथा में , प्रेम कथा में , सामाजिक , राजनीतिक या पारिवारिक कथा में भी यह मिलावट आम है। कहते ही हैं कि कहीं का ईंट , कहीं का रोड़ा , भानुमति ने कुनबा जोड़ा । तो जैसे ईंट के साथ बालू , सीमेंट , सरिया आदि मिला कर घर बनता है तो बहुत कुछ मिला कर ही कथा का घर भी बनता है । लेकिन अगर कथा ऐतिहासिक है , पौराणिक है , जीवनीपरक है तो उस में आप मिलावट की बहुत छूट नहीं ले पाते। तथ्य और विवरण सब के सामने होते हैं। तो बहुत छूट नहीं ले सकता लेखक। कल्पना कम मेहनत और तथ्य पर आप को एकाग्रचित होना पड़ता है । एक अनुशासन है , समय , काल और परिस्थितियों का जो लेखक को नदी के बांध की तरह बांधता चलता है । यह बंधना और बंध कर लिखना आसान नहीं होता। वह भी यायावर और गायक सुधाकर अदीब के लिए यह बंधना कितना कठिन होता होगा , यह मैं समझ सकता हूं। कहानी , उपन्यास का सहयात्री मैं भी हूं , सो जानता हूं कि एक फ्रेम में बंध कर , काल , पात्र , परिस्थितियों में बंध कर लिखना कितनी बड़ी तपस्या है । फिर सुधाकर अदीब तो निरंतर इसी कार्य में संलग्न दीखते हैं ।


लक्ष्मण की कथा के बहाने राम कथा का अमृतपान करवाते हैं वह रामकथा को जिस तरह सुधाकर अदीब मम अरण्य में बांचते हैं , ऐसे जैसे हम कोई कथा नहीं पढ़ रहे हों , सिनेमा देख रहे हों। तब जब कि राम कथा , लक्ष्मण की मुश्किलें हम अनगिन बार पढ़ और सुन चुके हैं , तब भी लगता है जैसे मम अरण्य में कुछ नए ढंग से बांच रहे हों। मम अरण्य का नशा अभी टूटा भी नहीं था कि सुधाकर अदीब शाने तारीख़ ले कर उपस्थित हो गए। भारत को पहला इंफ्रास्ट्रक्चर देने वाले अफगानी शासक शेरशाह सूरी की ज़िंदगी का रोजनामचा  , उस का संघर्ष , उस की सफलता और शान की जो रफ्तार परोसी है सुधाकर अदीब ने वह अदभुत है। शाने तारीख की शान और रफ्तार अभी जारी ही थी कि यह लीजिए मीरा दीवानी को गाते हुए रंग राची ले कर सुधाकर अदीब हाजिर हो गए। विश्वनाथ त्रिपाठी जैसे संत और मार्क्सवादी आलोचक रंग राची को देसी घी के लड्डू बताने लगे। रंग राची की दीवानगी और उस का जादू अभी उतरा भी नहीं था कि सरदार पटेल की कथा को बांचते हुए कथा विराट की कथा ले कर सुधाकर अदीब अब उपस्थित हैं। मतलब छह साल में चार कालजयी उपन्यास कोई तपस्वी लेखक ही लिख सकता है। इसी लिए कृपया मुझे फिर से कहने की अनुमति दीजिए कि सुधाकर अदीब एक तपस्वी लेखक हैं। 


कथा विराट पर बोलते लेखक सुधाकर अदीब 
कथा विराट की विराटता वैसी ही है जैसे महाभारत की कथा। पूरा उपन्यास सरदार पटेल और उन की बेटी मणिबेन की बातचीत में समाया हुआ है। लेखक जैसे महाभारत के संजय की तरह पूरी कथा बांचता मिलता है। ब्रिटिश जुल्म और स्वतंत्रता संग्राम के तमाम किस्से विराट कथा के पन्नों में बड़ी तरतीब से परोसे गए हैं। मंच और नेपथ्य की तमाम कथाएं अपनी पूरी त्वरा के साथ। पटेल हैं तो गांधी , मदन मोहन मालवीय राजेंद्र प्रसाद नेहरू , जयप्रकाश नारायण  , आचार्य कृपलानी , नेता जी सुभाष चंद्र बोस , मौलाना आज़ाद , मोहम्मद अली जिन्ना , माउंटबेटन , लेडी माउंटबेटन आदि सभी चरित्र अपनी-अपनी क्षमताओं , अपने-अपने स्वभाव , भाव-भंगिमा के साथ , अपने तेवर और ताव में उपस्थित हैं। घात-प्रतिघात , साज़िशें , सुलह-सफाई और विचारधारा की जंग। मतलब पूरा मयकदा है। और इस मयकदे में कोई किसी से कम नहीं है। ऐसा नहीं कि उपन्यास अगर सरदार पटेल को केंद्र में रख कर लिखा गया है तो बाक़ी चरित्र फिलर बन जाएं या बौने बना कर पेश किए जाएं। सुधाकर अदीब ने बड़ी कुशलता से अपने नायक के नायकत्व को सुरक्षित रखते हुए बाक़ी नायकों को भी उसी लय और उसी रिदम में बने रहने दिया है , जिस में उन्हें होना चाहिए। गरज यह कि केंद्रीय चरित्र सरदार पटेल को देवता नहीं बनने दिया है। उन की क्षमताएं , उन की ताकत , उन का स्वाभिमान और अपनी बात पर सर्वदा अडिग रहने वाले पटेल की राजनीतिक कुशलता , त्याग और बड़प्पन कथा विराट में पूरी तरह उभर कर सामने आती हैं पर गांधी आदि को दबा कर नहीं। कई मुद्दों पर गांधी से  उन की असहमति , उन की टकराहट , मतभेद आदि भी खुल कर दिखाई देती है। नेहरू से उन की अनबन और नेहरू द्वारा उन को निरंतर साइड लाइन किए जाने की साज़िश यहां तक कि इस के लिए लेडी माउंटबेटन का इस्तेमाल भी साफ दीखता है। एक बार तो लेडी माउंटबेटन मणिबेन से पटेल को गवर्नर जनरल बनने  का प्रस्ताव रखती हैं तो सतर्क मणिबेन उन से कहती हैं कि लेकिन यह प्रस्ताव तो सी राजगोपालाचारी को दिया जा चुका है। तो लेडी माऊंटबेटन सकपका कर निकल लेती हैं। गांधी को भी नेहरु , जयप्रकाश नारायण और मौलाना आज़ाद पटेल के खिलाफ भड़काते रहते हैं। नेहरू एक समय पटेल को हटा कर जयप्रकाश नारायण को गृह मंत्री बनाने की रणनीति पर भी काम करते हैं लेकिन सफल नहीं हो पाते। यहां तक कि पटेल का निधन हो गया है , मुंबई में उन की अंत्येष्टि होनी है। राजेंद्र प्रसाद भी वहां जाना चाहते हैं। लेकिन नेहरू उन्हें समझाते  हैं कि राष्ट्रपति को एक मंत्री की अंत्येष्टि में नहीं जाना चाहिए। लेकिन राजेंद्र प्रसाद और नेहरू एक ही जहाज से पटेल की अंत्येष्टि में जाते हैं। और राजेंद्र प्रसाद वहां रो पड़ते हैं। सुबकते हुए राजेंद्र प्रसाद को रोने के लिए नेहरू उन्हें अपना कंधा देते हैं। पटेल और राजेंद्र प्रसाद का साथ चंपारण आंदोलन से था। गुजरात के किसान आंदोलन में भी राजेंद्र प्रसाद और पटेल ने कंधे से कंधा मिला कर काम किया था। संयोग ही था कि नेहरू की राजेंद्र प्रसाद से भी नहीं बनती थी , न ही जयप्रकाश नारायण से। लेकिन पटेल के खिलाफ इन लोगों का इस्तेमाल नेहरू ज़रूर करते रहे। अरुणा आसफ अली भी पटेल के खिलाफ नेहरू की टूल बनी रहीं। बल्कि पूरी कम्यूनिस्ट लॉबी , समाजवादी लॉबी का इस्तेमाल भी नेहरू पटेल के खिलाफ करते मिलते हैं। पटेल को हिंदूवादी और मुस्लिम विरोधी साबित करने में नेहरू तमाम सारे यत्न करते मिलते हैं। तब जब कि सर्वाधिक 12 वोट मिलने के बावजूद पटेल ने गांधी की इच्छा का सम्मान करते हुए नेहरू का नाम प्रधान मंत्री पद के लिए प्रस्तावित कर दिया था। विराट कथा में नेहरू के  यह सारे घात-प्रतिघात , जोड़-तोड़ बिना किसी भेदभाव और रंजिश के पूरी सहजता के साथ सुधाकर अदीब ने परोसा है। और कि बिना लाऊड हुए। ऐसे जैसे किसी नदी में कल-कल जल बहे। 


कथा विराट पर संबोधित करते आर विक्रम सिंह 
तमाम सारे भाषण , चिट्ठियां और दृश्य सुधाकर अदीब ने विराट कथा में किसी जुलाहे की तरह बुना है और परोसा है , गोया कबीर की तरह झीनी-झीनी चदरिया बुन रहे हों। मणिबेन के साथ पटेल की बातचीत का तानाबाना कुछ इस तरह पेश करते हैं सुधाकर अदीब गोया कोई सिनेमा दिखा रहे हैं। उन के इस सिनेमा में फ्लैशबैक भी बहुत है और कब चुपके से आ जाता है , यह फ्लैशबैक पता ही नहीं चलता। सुशीला नैय्यर मणिबेन की दोस्त हैं और उन की आपसी बातचीत से भी तात्कालिक राजनीति की गंध मिलती है। कस्तूरबा गांधी और गांधी के ज़िद्दी होने के किस्से भी हैं कथा विराट में। कथा विराट में प्रेमचंद और उन के उपन्यास प्रेमाश्रम तथा रंगभूमि की भी चर्चा होती है। अंग्रेजों के जुल्म के बहाने। लखनऊ भी आता है कथा विराट में जब 1936 में कांग्रेस का सम्मेलन होता है। खिलाफत आंदोलन का भी ज़िक्र करते हैं सुधाकर अदीब और बताते हैं बंटवारे की बुनियाद की तफ़सील भी। मुस्लिम लीग से पटेल की अनबन की भी इबारतें बिखरी पड़ी हैं कथा विराट में। उन पर तलवार का जवाब तलवार से देने का आरोप भी लगता है। सुधाकर अदीब गांधी को 7 जनवरी , 1947 की लिखी लंबी चिट्ठी भी परोसते हैं इस बाबत। जिस में पटेल आहत हो कर लिखते हैं :

' ये सभी आरोप आप के कान में अवश्य मृदुला साराभाई द्वारा आप के कान में डाले गए होंगे , क्यों कि उन्हों ने मेरे ऊपर अपशब्दों की बौछार करने को अपना मन-बहलाव बना लिया है। वे यह जी मतलाने वाला प्रचार कर रही हैं कि मैं जवाहर से छुटकारा पाना चाहता हूं और एक नई पार्टी बनाना चाहता हूं। उन्हों ने बहुत सी जगहों पर इस ढंग से बातें की हैं। वे ऐसे किसी विचार को मानने के लिए बिलकुल तैयार नहीं हैं , जो जवाहरलाल के विचार से भिन्न हों। '

जिन्ना और माउंटबेटन के नित्य प्रति छल कपट के बीच पिसते लाचार गांधी की कथा को भी सुधाकर अदीब ने विराट कथा में गूंथा है। लाचार गांधी तो जिन्ना को देश सौंप देने की बात भी माऊंटबेटन से कर बैठते हैं। फिर दूसरे ही क्षण उन से अपना वीटो पावर लगाने को भी कह देते हैं।  सुधाकर अदीब लिखते हैं :

' माउंटबेटन हतप्रभ थे। एक तरफ तो यह बूढ़ा व्यक्ति हम से भारत से चले जाने को कह रहा है और दूसरी तरफ जिन्ना को देश की बागडोर थमा देने को कह रहा है। ऊपर से मुझ से वायसराय की वीटो-पावर के इस्तेमाल की बात कर रहा है। आखिर ये चाहता क्या है ? '

नेहरू और पटेल में बंटवारे को ले कर जद्दोजहद होती है। जिन्ना का अड़ियल रवैया नेहरू की सत्ता पिपासा में दोनों ही जीत जाते हैं। पटेल भी नेहरू को साफ़ बता देते हैं कि , अब विभाजन टालने का कोई औचित्य नहीं है। मुस्लिम लीग के मंत्रियों को विध्वंसक बताते हुए बता देते हैं कि ये लोग मुसलमानों को निरंतर भड़का कर देश में आग लगवाएंगे। एक जगह सुधाकर अदीब लिखते हैं :

' सरदार पटेल उठे। सिर पकड़े बैठे नेहरू जी को देख कर उन्हें तरस आया। एक बड़े भाई की तरह वे उठ कर नेहरू के पास गए। उन के कंधे पर अपना हाथ रखा। पंडित नेहरू रो पड़े। '

बंटवारे के बाद की त्रासदी को भी कथा विराट में बड़ी बेकली से बांचा गया है। रियासतों और राज्यों को भारत में विलीन करने के विवरण भी विराट कथा में विस्तार से उपस्थित हैं। सुधाकर अदीब ने विवरण देते हुए लिखा है कि भारत के संघ में तदनुसार 565 में से 555 रियासतों को विलीन होना था। अंत में एक ही दुखता दांत बचा हैदराबाद की रियासत। निजाम हैदराबाद की लुकाछुपी और संघर्ष के भी कई विवरण कथा विराट में उपस्थित हैं। नेहरू के तमाम विरोध के बावजूद सैन्य अभियान चला कर हैदराबाद के निजाम को 17 सितंबर , 1948 को फतह करने में पटेल ने कामयाबी हासिल की। रियासतों को भारत में मिलाने के क्रम में जयपुर में पटेल का भाषण अविस्मरणीय है। तमाम मोर्चों पर लड़ते हुए , एक नया भारत गढ़ते हुए सरदार पटेल 15 दिसंबर , 1950 को 75 बरस की उम्र में दिल का दौरा पड़ने से दुनिया छोड़ गए। चीन धोखा देगा , इस बाबत भी लिख कर  नेहरू को आगाह कर गए थे पटेल लेकिन नेहरू पटेल की बात मानते कहां  थे भला 

बड़ी बात यह भी है कि सुधाकर अदीब ने विराट कथा को जाति , धर्म , क्षेत्रीयता और सांप्रदायिक पचड़ों में पड़ने से अनायास बचा लिया है। इस के लिए उन्हें कोई बहुत कोशिश नहीं करनी पड़ी है तो इस लिए भी कि सरदार पटेल के जीवन में उन की राजनीति में इन सब चीज़ों के लिए कोई जगह नहीं थी। अलग बात है आज की राजनीति  में पटेल जातिवादी खाने में बंट चुके हैं। 

सरदार पटेल भाग्यशाली थे कि उन के पास एक विदुषी बेटी मणिबेन थी जो उन के संघर्ष में कंधे से कंधा मिला कर खड़ी थी , सहयोग और सेवा के लिए सर्वदा उपस्थित। पर सरदार पटेल  इस मामले में भी भाग्यशाली हैं कि उन के पास सिर्फ मणिबेन जैसी साहसी बेटी ही नहीं एक तपस्वी और साधक लेखक सुधाकर अदीब भी है। जिस सुधाकर अदीब ने कथा विराट में सरदार पटेल की अनन्य कथा लिख कर उन की लौह कथा को इस तरह जीवंत कर दिया है कि यह कथा सोने की कथा बन गई है। इतनी कि विराट कथा की तमाम कथाएं आने वाले दिनों में दंत कथा बन कर दिग दिगंत में झूमेंगी। विचरेंगी जानी-पहचानी कथा को रोमांचक और दिलचस्प अंदाज़ में 536 पृष्ठों में लिखना आसान नहीं है। सरदार पटेल का जीवन इतना विराट और अनुभव इतना विस्तृत है , स्वतंत्रता संग्राम इतना विस्तार लिए है कि इसे पांच लाख पन्नों में भी लिखा जाए तो कम है । लेकिन बिना कुछ छोड़े , सब कुछ समेटते हुए 536 पृष्ठ में कथा विराट को लिखना भी एक साधना ही है।

मैं तो चाहता हूं कि अपने अगले उपन्यास का विषय सुधाकर अदीब अपने वतन कश्मीर को बनाएं। अपने कश्मीरी पंडितों के विस्थापन की व्यथा पर लिखने के लिए जिस शोध , अध्ययन , मेहनत और भावनात्मकता की लौ की ज़रूरत है , उसे मैं सिर्फ़ और सिर्फ़ सुधाकर अदीब में ही देखता हूं , किसी और में नहीं।  

 [ 9 फ़रवरी , 2019 को लखनऊ पुस्तक मेले में बतौर मुख्य अतिथि , कथा विराट की चर्चा में दिया गया मेरा भाषण  ]




समीक्ष्य पुस्तक :

कथा विराट

लेखक

सुधाकर अदीब

प्रकाशक
लोकभारती प्रकाशन
पहली मंजिल , दरबारी बिल्डिंग , महात्मा गांधी मार्ग , इलाहाबाद – 211001
मूल्य – 450 रुपए

पृष्ठ – 536


3 comments:

  1. पांडेय जी ने कथा विराट पर एक सुंदर ललित निबन्ध लिखा है ,यह काव्यात्मक आनंद देने वाली समीक्षा है । यह रचना की पुनर्रचना है । आखिर आलोचना को रचना की पुनर्रचना ही तो कहा गया है । एक रचनाकार द्वारा ही ऐसा कर पाना संभव है । यह एक रिपोर्ताज की तरह भी है आखिर एक पत्रकार की लिखनी का कमाल है । कथा विराट की यह विराट समीक्षा है , यह सहृदय द्वारा रचना के आस्वाद की फलश्रुति है । सदानंद गुप्त ।

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  2. कथा विराट से इतना सुंदर परिचय करवाने के लिए बहुत बहुत आभार, पुस्तक पढ़ने की उत्सुकता समीक्षा पढ़ते-पढ़ते ही बढ़ती जा रही थी. हमारे सभी जननायक आखिर तो मनुष्य ही थे, ईर्ष्या, द्वेष आदि के शिकार वे भी होते होंगे. वे सभी हमारे लिए परम आदरणीय हैं.

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  3. आपकी इस सारगर्भित समीक्षा ने मेरा काम सहज कर दिया। आपने उपन्यास का मर्म स्पर्श किया है और उसे यथावत अभिव्यक्त किया है। सचमुच एक सच्चा कथाकार दूसरे कथाकार के श्रम के महत्त्व और सोच के सूत्र को बेहतर ढंग से समझ सकता है। अत्यंत आभार।

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