दयानंद पांडेय
नाम भले उन का शैलनाथ चतुर्वेदी है पर मैं जब भी उन्हें याद करता हूं तो उन की छवि मेरे मन में श्रवण कुमार की उभरती है। हिंदी पट्टी में ऐसा कोई दूसरा श्रवण कुमार मैं ने नहीं देखा। आगे भी भला कहां देखूंगा। मेरा सौभाग्य है कि मैं ने इस परिवार की चार पीढ़ी को देखा है और कि पाया है कि यह समूचा परिवार ही श्रवण कुमार के सूत्र में निबद्ध है। यह श्रवण कुमार का सूत्र जैसे शैलनाथ जी अपने परिवार को विरासत के तौर पर सौंप गए हैं। पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी जिन्हें हिंदी समाज के लोग भैया साहब या भैया जी नाम से गुहराते हैं उन्हें भी मैं ने देखा है। उन के सुपुत्र पंडित शैलनाथ चतुर्वेदी को भी , फिर शैलनाथ जी के सुपुत्र अरविंद चतुर्वेदी को और अरविंद जी के सुपुत्र हेमंग चतुर्वेदी भी हमारे सामने हैं। शैलनाथ जी श्रवण कुमार के सूत्र जैसे अपने परिवारीजनों के बीच रोप गए हैं। इस की लताएं और इस की शाखाएं निरंतर पुष्पित और पल्ल्वित होते देखना सुखद है। दाऊ जी गुप्त शैलनाथ जी के बाल सखा हैं। वह अपनी बातचीत में अकसर शैल जी के साथ रबड़ी-मलाई खाने का ज़िक्र बड़ी नफ़ासत से ले आते हैं। बात कहीं की हो रबड़ी-मलाई उन के बीच उपस्थित हो जाती है। मैं अब जब शैल जी की याद करता हूं तो उन के व्यक्तित्व में इस रबड़ी-मलाई का स्वाद भी महसूस करता रहता हूं। वही मिठास , वही तरलता और वही सोंधापन। निर्मल और अविरल। जैसे मीठी नदी की धार हो। अमृत सरीखी।
एक बार अकबर ने बीरबल से पूछा कि किस नदी का पानी सब से अच्छा है। बीरबल ने छूटते ही जवाब दिया कि यमुना का पानी। अकबर ने बीरबल को टोका कि तुम ने गंगा का नाम नहीं लिया। बीरबल ने कहा , आप ने पानी के बारे में पूछा था , तो मैं ने पानी के बारे में ही बताया। रही बात गंगा की तो वह तो अमृत है , पानी नहीं। अकबर चुप हो गया। तो शैलनाथ जी वही अमृत थे। शैलनाथ जी के छोटे-छोटे काम बाद के दिनों में कितने तो बड़े होते गए। सोचिए कि इतिहास के विद्यार्थी , इतिहास के प्रोफेसर और इतिहास के शोधकर्ता रहे शैलनाथ जी ने हिंदी की जो अनन्य सेवा की है , कोई क्या करेगा। शैलनाथ जी अब खुद इतिहास भले हों गए हैं पर हिंदी में धड़कते मिलते हैं। अपनी पूरी त्वरा और ऊर्जा के साथ। ऐसी धड़कन दुर्लभ है , हिंदी में , जो अपनी ऐतिहासिकता में खनक कर धड़कती हो। इस लिए भी कि चतुर्वेदी परिवार का हिंदी में योगदान पीढ़ी-दर-पीढ़ी है। इटावा मूल के शैलनाथ जी इलाहाबाद में जन्मे , वहीँ स्कूलिंग के बाद वह लखनऊ आ गए इतिहास पढ़ने। कुछ दिन लखनऊ के क्रिश्चियन कालेज में पढ़ाने के बाद शैलनाथ जी गोरखपुर विश्वविद्यालय में इतिहास पढ़ाने पहुंच गए। उस गोरखपुर में जहां उन के पिता भैया जी पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी ने 1935-36 में तीन दिन तक लगातार हिंदी का कवि सम्मेलन करवाने का रिकार्ड बनाया था । शैलनाथ जी मेरे पैदा होने के एक वर्ष पूर्व ही गोरखपुर विश्वविद्यालय में पढ़ाने पहुंच गए थे। और जब मैं पढ़ने गया तब तक वह वहां गुरुदेव के रूप में विख्यात थे। बहुत कम लोगों को शैलनाथ जी का नाम लेते देखा मैं ने। ज़्यादातर लोग उन्हें बहुत आदर के साथ गुरुदेव कह कर संबोधित करते। न सिर्फ़ इतिहास विभाग बल्कि दूसरे विभागों के लोग भी। उन की विद्वता , सरलता और विनम्रता के संगम में लोग नहा उठते। डुबकी मार कर जैसे तर जाते। उन के व्याख्यान , उन की शोध परक वृत्ति उन्हें बहुत से प्राध्यापकों से अलग पहचान देती। अपने पिता पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी की विद्वता और लोकप्रियता की विरासत पर कभी उन्हों ने अभिमान नहीं किया बल्कि सर्वदा सदुपयोग किया। अपने पितामह पंडित द्वारिका प्रसाद चतुर्वेदी की संस्कृत की विरासत का भी उन्हों ने भरपूर मान रखा। उन की हिंदी , अंगरेजी और संस्कृत पर समान पकड़ पर हम तो चमत्कृत थे , मोहित थे । हिंदी , अंगरेजी और संस्कृत में धाराप्रवाह बोलते देख लोग मंत्रमुग्ध हो जाते। पर शैलनाथ जी अपनी धोती संभाले फिर लोगों के बीच समरस हो जाते।
गोरखपुर में मेरे गांव के पास ही है आमी नदी के किनारे बसा सोहगौरा गांव। सोहगौरा गांव में शैलनाथ जी ने खनन करवा कर कई सारे मिथक तोड़ दिए थे। नवपाषाण काल की संस्कृति के तमाम सारे अवशेष तो खोजे ही शैलनाथ जी ने , धान की खेती के बिंदु भी खोजे। जिसे कबीर के मगहर तक वह ले गए। कुशीनगर के पास फाजिल नगर में की गई खुदाई ने भी उन्हें इतिहास में चर्चित किया। काबुल में मिले बुद्ध के भिक्षा पात्र पर भी अरबी फ़ारसी में कुछ लिखे जाने से बुद्ध का भिक्षा पात्र नहीं है की बात को नहीं माना। शैल जी का मानना था कि भिक्षा पात्र के कई स्थानों से हो कर गुजरने का उल्लेख मिलता है, इस लिए इस पर स्थानीय भाषाओं में कुछ उल्लेख मिलना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। इस भिक्षा पात्र पर स्वस्तिक के भी चिह्न उत्कीर्ण हैं जिस से यह निश्चित रूप से बौद्ध धर्म से संबंधित है ।
मैं ने कई बार पाया कि वह गोरखपुर से लखनऊ आ भले गए थे पर गोरखपुर उन के भीतर सर्वदा उपस्थित रहता था। बातचीत में वह किसी न किसी बहाने गोरखपुर ले ही आते थे। गोरखपुर में अपने सेवक को भी वह हमेशा याद करते थे। उस के परिवार को भी। मुझे भी गोरखपुर का होने के कारण बहुत स्नेह करते थे। अमूमन रिटायर हो जाने के बाद लोग निष्क्रिय हो जाते हैं। लेकिन शैलनाथ जी तो रिटायर होने के बाद और सक्रिय हो गए। रिटायर होने के बाद गोरखपुर से वह लखनऊ आ गए। और मेरा सौभाग्य देखिए कि तब तक मैं भी गोरखपुर से दिल्ली होते हुए लखनऊ आ गया। लखनऊ के खुर्शीद बाग़ जहां कि वह रहते रहे हैं उस खुर्शीद बाग़ का ऐतिहासिक गेट एक बिल्डर ने प्रशासन की मदद से तुड़वाना चाहा तो शैलनाथ जी किसी एक्टिविस्ट की तरह जूझ गए और इस गेट को न सिर्फ़ टूटने से बचा लिया बल्कि इस का जीर्णोद्धार भी करवाया। अमीनाबाद के इतिहास पर उन की किताब की ख़ूब चर्चा हुई। बाबू गंगा प्रसाद वर्मा की जीवनी भी शैलनाथ जी ने पूरे प्राण-प्रण से लिखी और चर्चित हुई। शैलनाथ जी थे तो प्राचीन इतिहास के प्रोफ़ेसर पर रिटायर होने के बाद मध्यकालीन और समकालीन इतिहास पर भी उन्हों ने काम किया। न सिर्फ़ काम किया इतिहास की समग्र दृष्टि को बदल दिया। गजनी का सुल्तान महमूद और मथुरा तथा अमीनाबाद का इतिहास जैसी पुस्तकों को मैं इसी दृष्टि से देखता हूं। गोरखपुर के अपने कार्यकाल के समय शैलनाथ जी ने पड़रौना में विवेकानंद सेवा केंद्र खुलवाया था और तमाम पिछड़े गांवों को अपनाया था। लखनऊ में भी हिंदी वांग्मय निधि बना कर लखनऊ के इतिहास और गौरव पर हमारा लखनऊ नाम से जो किताबों की सीरीज शुरू की और उसे परवान चढ़ाया है वह बहुत ही सैल्यूटिंग है। दस-पंद्रह रुपए में अब किसी किताब के मिलने की कल्पना भी नहीं की जा सकती। लेकिन शैलनाथ जी ने यह संभव किया है। पिता के नाम बढ़िया पुस्तकालय खोला। यह सुखद ही है कि उन के सुपुत्र अरविंद चतुर्वेदी ने शैलनाथ जी के इस महत्वपूर्ण काम को और बेहतर बनाते हुए जारी रखा है। न सिर्फ़ यह बल्कि शैलनाथ जी जिस तरह अपने पिता पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी की जयंती हर साल समारोहपूर्वक मनाते थे , अरविंद चतुर्वेदी भी शैलनाथ जी द्वारा शुरू किए गए पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी जयंती कार्यक्रम को समारोहपूर्वक मनाते आ रहे हैं। अब अरविंद चतुर्वेदी को एक और जयंती कार्यक्रम अपने पिता शैलनाथ चतुर्वेदी पर भी आयोजित करना चाहिए हर साल। शैलनाथ जी के काम भी बहुत महत्वपूर्ण हैं। यह ठीक है कि पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी हिंदी जगत के शीर्ष पुरुषों में हैं। शलाका पुरुष हैं। पितामह हैं। वटवृक्ष हैं। पर शैलनाथ जी भी अपने पिता से कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। शैलनाथ जी का काम भी बोलता है। उन के द्वारा पिता की सेवा बोलती है। पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी हिंदी सेवी थे , शैलनाथ जी भी हिंदी सेवी थे। उन के ऐतिहासिक और सामाजिक कार्य महत्वपूर्ण हैं। और इस सब से बढ़ कर वह पितृ सेवी भी थे। पितृ-ऋण का निर्वाह तो कोई उन से सीखे।
शैलनाथ जी का एक उज्ज्वल पक्ष उन का गायन , उन का संगीत भी है। शास्त्रीय संगीत की शिक्षा उन्हों ने कब और कहां से ली मुझे नहीं मालूम पर उन का गायन आत्मा को तृप्त करता था। उन का भजन गायन जैसे सुख में डुबो देता था। और उन का बांसुरी वादन तो पूछिए मत। उन की रबड़ी-मलाई की तरह ही मधुरिमा लिए मन में झंकृत होती , झूमती गाती हुई , मन को पुकारती हुई बांध लेती थी। वह जिस तन्मयता और जिस भंगिमा से बांसुरी बजाते थे , उसी तन्मयता और उसी भंगिमा में डूब कर लोग सुनते भी थे। शैलनाथ जी मेरे पिता तुल्य थे लेकिन बातचीत में , व्यवहार में कभी जेनरेशन गैप नहीं आने देते थे। सर्वदा दोस्ताना रवैया होता उन का। कहने पर तो वह हमेशा मदद करते ही थे , बिना कुछ कहे भी मदद करना उन की फितरत थी जैसे। अनेक घटनाएं और अनेक बातें हैं। किन-किन का ज़िक्र करूं। एक बार क्या हुआ कि उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान ने आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी पर व्याख्यान के लिए नामवर सिंह को बुलाया। नामवर सिंह ने हजारी प्रसाद द्विवेदी पर अदभुत व्याख्यान दिया। मंत्रमुग्ध कर दिया। उस व्याख्यान में नामवर ने पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी का भी ज़िक्र किया। सरस्वती के संदर्भ में। कि कैसे चतुर्वेदी जी ने श्रीराम चरित मानस की एक चौपाई पर विभिन्न विद्वानों से लिखवाया और कि उस एक चौपाई पर सरस्वती का विशेषांक निकाला। कार्यक्रम से वापस लौट कर रात में भोजन के बाद मन में आया कि नामवर जी के इस व्याख्यान पर अपने ब्लाग सरोकारनामा पर एक टिप्पणी लिखूं। कार्यक्रम के दौरान कुछ नोट तो किया नहीं था। बस स्मृतियों के सहारे लिखना था। लिखने लगा तो ऐन समय पर वह चौपाई ही भूल गया। प्रसंग तो याद था , घर में रामायण भी थी पर मानस में वह चौपाई कहां मिलेगी , तुरंत खोजना मुश्किल था। कुछ रामायण के जानकारों को फोन कर उस चौपाई के बारे में जानकारी मांगी , कोई नहीं दे पाया। देर रात हो गई थी। अकल काम नहीं कर रही थी। कि तभी शैलनाथ जी की याद आ गई। रात के कोई ग्यारह बज गए थे। संकोच में डूब कर ही सही उन को फोन किया। फ़ोन उन का उठ गया। मैं ने देर रात फोन करने के लिए क्षमा मांगी और नामवर जी के व्याख्यान का ज़िक्र करते हुए वह चौपाई जानने की अपनी जिज्ञासा जताई। शैलनाथ जी बिलकुल विह्वल हो गए। शैलनाथ जी ने न सिर्फ़ अयोध्या कांड की वह चौपाई मुझे लिखवाई बल्कि और भी बहुत सारी बातें बताते गए। और बताया कि सरस्वती का वह विशेषांक अस अदभुत बानी नाम से पुस्तक रूप में भी प्रकाशित है। बाद के दिनों में यह पुस्तक भी अरविंद चतुर्वेदी जी ने मुझे दी। वह चौपाई है :
एक बार अकबर ने बीरबल से पूछा कि किस नदी का पानी सब से अच्छा है। बीरबल ने छूटते ही जवाब दिया कि यमुना का पानी। अकबर ने बीरबल को टोका कि तुम ने गंगा का नाम नहीं लिया। बीरबल ने कहा , आप ने पानी के बारे में पूछा था , तो मैं ने पानी के बारे में ही बताया। रही बात गंगा की तो वह तो अमृत है , पानी नहीं। अकबर चुप हो गया। तो शैलनाथ जी वही अमृत थे। शैलनाथ जी के छोटे-छोटे काम बाद के दिनों में कितने तो बड़े होते गए। सोचिए कि इतिहास के विद्यार्थी , इतिहास के प्रोफेसर और इतिहास के शोधकर्ता रहे शैलनाथ जी ने हिंदी की जो अनन्य सेवा की है , कोई क्या करेगा। शैलनाथ जी अब खुद इतिहास भले हों गए हैं पर हिंदी में धड़कते मिलते हैं। अपनी पूरी त्वरा और ऊर्जा के साथ। ऐसी धड़कन दुर्लभ है , हिंदी में , जो अपनी ऐतिहासिकता में खनक कर धड़कती हो। इस लिए भी कि चतुर्वेदी परिवार का हिंदी में योगदान पीढ़ी-दर-पीढ़ी है। इटावा मूल के शैलनाथ जी इलाहाबाद में जन्मे , वहीँ स्कूलिंग के बाद वह लखनऊ आ गए इतिहास पढ़ने। कुछ दिन लखनऊ के क्रिश्चियन कालेज में पढ़ाने के बाद शैलनाथ जी गोरखपुर विश्वविद्यालय में इतिहास पढ़ाने पहुंच गए। उस गोरखपुर में जहां उन के पिता भैया जी पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी ने 1935-36 में तीन दिन तक लगातार हिंदी का कवि सम्मेलन करवाने का रिकार्ड बनाया था । शैलनाथ जी मेरे पैदा होने के एक वर्ष पूर्व ही गोरखपुर विश्वविद्यालय में पढ़ाने पहुंच गए थे। और जब मैं पढ़ने गया तब तक वह वहां गुरुदेव के रूप में विख्यात थे। बहुत कम लोगों को शैलनाथ जी का नाम लेते देखा मैं ने। ज़्यादातर लोग उन्हें बहुत आदर के साथ गुरुदेव कह कर संबोधित करते। न सिर्फ़ इतिहास विभाग बल्कि दूसरे विभागों के लोग भी। उन की विद्वता , सरलता और विनम्रता के संगम में लोग नहा उठते। डुबकी मार कर जैसे तर जाते। उन के व्याख्यान , उन की शोध परक वृत्ति उन्हें बहुत से प्राध्यापकों से अलग पहचान देती। अपने पिता पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी की विद्वता और लोकप्रियता की विरासत पर कभी उन्हों ने अभिमान नहीं किया बल्कि सर्वदा सदुपयोग किया। अपने पितामह पंडित द्वारिका प्रसाद चतुर्वेदी की संस्कृत की विरासत का भी उन्हों ने भरपूर मान रखा। उन की हिंदी , अंगरेजी और संस्कृत पर समान पकड़ पर हम तो चमत्कृत थे , मोहित थे । हिंदी , अंगरेजी और संस्कृत में धाराप्रवाह बोलते देख लोग मंत्रमुग्ध हो जाते। पर शैलनाथ जी अपनी धोती संभाले फिर लोगों के बीच समरस हो जाते।
गोरखपुर में मेरे गांव के पास ही है आमी नदी के किनारे बसा सोहगौरा गांव। सोहगौरा गांव में शैलनाथ जी ने खनन करवा कर कई सारे मिथक तोड़ दिए थे। नवपाषाण काल की संस्कृति के तमाम सारे अवशेष तो खोजे ही शैलनाथ जी ने , धान की खेती के बिंदु भी खोजे। जिसे कबीर के मगहर तक वह ले गए। कुशीनगर के पास फाजिल नगर में की गई खुदाई ने भी उन्हें इतिहास में चर्चित किया। काबुल में मिले बुद्ध के भिक्षा पात्र पर भी अरबी फ़ारसी में कुछ लिखे जाने से बुद्ध का भिक्षा पात्र नहीं है की बात को नहीं माना। शैल जी का मानना था कि भिक्षा पात्र के कई स्थानों से हो कर गुजरने का उल्लेख मिलता है, इस लिए इस पर स्थानीय भाषाओं में कुछ उल्लेख मिलना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। इस भिक्षा पात्र पर स्वस्तिक के भी चिह्न उत्कीर्ण हैं जिस से यह निश्चित रूप से बौद्ध धर्म से संबंधित है ।
मैं ने कई बार पाया कि वह गोरखपुर से लखनऊ आ भले गए थे पर गोरखपुर उन के भीतर सर्वदा उपस्थित रहता था। बातचीत में वह किसी न किसी बहाने गोरखपुर ले ही आते थे। गोरखपुर में अपने सेवक को भी वह हमेशा याद करते थे। उस के परिवार को भी। मुझे भी गोरखपुर का होने के कारण बहुत स्नेह करते थे। अमूमन रिटायर हो जाने के बाद लोग निष्क्रिय हो जाते हैं। लेकिन शैलनाथ जी तो रिटायर होने के बाद और सक्रिय हो गए। रिटायर होने के बाद गोरखपुर से वह लखनऊ आ गए। और मेरा सौभाग्य देखिए कि तब तक मैं भी गोरखपुर से दिल्ली होते हुए लखनऊ आ गया। लखनऊ के खुर्शीद बाग़ जहां कि वह रहते रहे हैं उस खुर्शीद बाग़ का ऐतिहासिक गेट एक बिल्डर ने प्रशासन की मदद से तुड़वाना चाहा तो शैलनाथ जी किसी एक्टिविस्ट की तरह जूझ गए और इस गेट को न सिर्फ़ टूटने से बचा लिया बल्कि इस का जीर्णोद्धार भी करवाया। अमीनाबाद के इतिहास पर उन की किताब की ख़ूब चर्चा हुई। बाबू गंगा प्रसाद वर्मा की जीवनी भी शैलनाथ जी ने पूरे प्राण-प्रण से लिखी और चर्चित हुई। शैलनाथ जी थे तो प्राचीन इतिहास के प्रोफ़ेसर पर रिटायर होने के बाद मध्यकालीन और समकालीन इतिहास पर भी उन्हों ने काम किया। न सिर्फ़ काम किया इतिहास की समग्र दृष्टि को बदल दिया। गजनी का सुल्तान महमूद और मथुरा तथा अमीनाबाद का इतिहास जैसी पुस्तकों को मैं इसी दृष्टि से देखता हूं। गोरखपुर के अपने कार्यकाल के समय शैलनाथ जी ने पड़रौना में विवेकानंद सेवा केंद्र खुलवाया था और तमाम पिछड़े गांवों को अपनाया था। लखनऊ में भी हिंदी वांग्मय निधि बना कर लखनऊ के इतिहास और गौरव पर हमारा लखनऊ नाम से जो किताबों की सीरीज शुरू की और उसे परवान चढ़ाया है वह बहुत ही सैल्यूटिंग है। दस-पंद्रह रुपए में अब किसी किताब के मिलने की कल्पना भी नहीं की जा सकती। लेकिन शैलनाथ जी ने यह संभव किया है। पिता के नाम बढ़िया पुस्तकालय खोला। यह सुखद ही है कि उन के सुपुत्र अरविंद चतुर्वेदी ने शैलनाथ जी के इस महत्वपूर्ण काम को और बेहतर बनाते हुए जारी रखा है। न सिर्फ़ यह बल्कि शैलनाथ जी जिस तरह अपने पिता पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी की जयंती हर साल समारोहपूर्वक मनाते थे , अरविंद चतुर्वेदी भी शैलनाथ जी द्वारा शुरू किए गए पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी जयंती कार्यक्रम को समारोहपूर्वक मनाते आ रहे हैं। अब अरविंद चतुर्वेदी को एक और जयंती कार्यक्रम अपने पिता शैलनाथ चतुर्वेदी पर भी आयोजित करना चाहिए हर साल। शैलनाथ जी के काम भी बहुत महत्वपूर्ण हैं। यह ठीक है कि पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी हिंदी जगत के शीर्ष पुरुषों में हैं। शलाका पुरुष हैं। पितामह हैं। वटवृक्ष हैं। पर शैलनाथ जी भी अपने पिता से कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। शैलनाथ जी का काम भी बोलता है। उन के द्वारा पिता की सेवा बोलती है। पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी हिंदी सेवी थे , शैलनाथ जी भी हिंदी सेवी थे। उन के ऐतिहासिक और सामाजिक कार्य महत्वपूर्ण हैं। और इस सब से बढ़ कर वह पितृ सेवी भी थे। पितृ-ऋण का निर्वाह तो कोई उन से सीखे।
शैलनाथ जी का एक उज्ज्वल पक्ष उन का गायन , उन का संगीत भी है। शास्त्रीय संगीत की शिक्षा उन्हों ने कब और कहां से ली मुझे नहीं मालूम पर उन का गायन आत्मा को तृप्त करता था। उन का भजन गायन जैसे सुख में डुबो देता था। और उन का बांसुरी वादन तो पूछिए मत। उन की रबड़ी-मलाई की तरह ही मधुरिमा लिए मन में झंकृत होती , झूमती गाती हुई , मन को पुकारती हुई बांध लेती थी। वह जिस तन्मयता और जिस भंगिमा से बांसुरी बजाते थे , उसी तन्मयता और उसी भंगिमा में डूब कर लोग सुनते भी थे। शैलनाथ जी मेरे पिता तुल्य थे लेकिन बातचीत में , व्यवहार में कभी जेनरेशन गैप नहीं आने देते थे। सर्वदा दोस्ताना रवैया होता उन का। कहने पर तो वह हमेशा मदद करते ही थे , बिना कुछ कहे भी मदद करना उन की फितरत थी जैसे। अनेक घटनाएं और अनेक बातें हैं। किन-किन का ज़िक्र करूं। एक बार क्या हुआ कि उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान ने आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी पर व्याख्यान के लिए नामवर सिंह को बुलाया। नामवर सिंह ने हजारी प्रसाद द्विवेदी पर अदभुत व्याख्यान दिया। मंत्रमुग्ध कर दिया। उस व्याख्यान में नामवर ने पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी का भी ज़िक्र किया। सरस्वती के संदर्भ में। कि कैसे चतुर्वेदी जी ने श्रीराम चरित मानस की एक चौपाई पर विभिन्न विद्वानों से लिखवाया और कि उस एक चौपाई पर सरस्वती का विशेषांक निकाला। कार्यक्रम से वापस लौट कर रात में भोजन के बाद मन में आया कि नामवर जी के इस व्याख्यान पर अपने ब्लाग सरोकारनामा पर एक टिप्पणी लिखूं। कार्यक्रम के दौरान कुछ नोट तो किया नहीं था। बस स्मृतियों के सहारे लिखना था। लिखने लगा तो ऐन समय पर वह चौपाई ही भूल गया। प्रसंग तो याद था , घर में रामायण भी थी पर मानस में वह चौपाई कहां मिलेगी , तुरंत खोजना मुश्किल था। कुछ रामायण के जानकारों को फोन कर उस चौपाई के बारे में जानकारी मांगी , कोई नहीं दे पाया। देर रात हो गई थी। अकल काम नहीं कर रही थी। कि तभी शैलनाथ जी की याद आ गई। रात के कोई ग्यारह बज गए थे। संकोच में डूब कर ही सही उन को फोन किया। फ़ोन उन का उठ गया। मैं ने देर रात फोन करने के लिए क्षमा मांगी और नामवर जी के व्याख्यान का ज़िक्र करते हुए वह चौपाई जानने की अपनी जिज्ञासा जताई। शैलनाथ जी बिलकुल विह्वल हो गए। शैलनाथ जी ने न सिर्फ़ अयोध्या कांड की वह चौपाई मुझे लिखवाई बल्कि और भी बहुत सारी बातें बताते गए। और बताया कि सरस्वती का वह विशेषांक अस अदभुत बानी नाम से पुस्तक रूप में भी प्रकाशित है। बाद के दिनों में यह पुस्तक भी अरविंद चतुर्वेदी जी ने मुझे दी। वह चौपाई है :
सुगम अगम मृदु मंजु कठोरे। अरथ अमित अति आखर थोरे॥
जिमि मुख मुकुर, मुकुर निज पानी । गहि न जाइ अस अदभुत बानी ॥
सच कहूं तो इस चौपाई में कई बार मैं शैलनाथ जी को भी हेरता रहा हूं। उन के व्यक्तित्व में यह तत्व भी थे। शैलनाथ जी कम बोलते थे लेकिन अदभुत बोलते थे। उन में आलस तनिक भी न था। प्रचार और आत्म-मुग्धता आदि से भी कोसों दूर रहते थे। पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी के जयंती समारोह में वह और उन की टीम के लोग इस सामूहिकता और तन्मयता से काम करते थे जैसे उन की मीठी बांसुरी बज रही हो। वह प्रेस आदि को भी नहीं बुलाते थे। कहते थे जिस को आना हो आए , स्वागत है , न आना हो न आए। पंडित श्रीनारयण चतुर्वेदी खुद भी तमाशा अदि से हमेशा दूर रहने वालों में थे। शायद उन्हीं की इच्छा का मन और मान रखने के लिए उन के परिवारीजन प्रेस आदि के तमाशे आदि से इस कार्यक्रम को दूर रखते हैं। एक बार शैलनाथ चतुर्वेदी जी से बात चली तो वह कहने लगे कि हम तो प्रेस विज्ञप्ति भी कहीं नहीं भेजते छपने के लिए । पिता जिंदगी भर हिंदी के प्रचार में लगे रहे पर वहीं पुत्र शैलनाथ चतुर्वेदी ने प्रचार के तमाशे से अपने को सर्वदा दूर रखा। यह आसान बात नहीं थी। आसान नहीं था उन का इतनी सक्रियता के बावजूद रबड़ी-मलाई जैसी मिठास लिए गंगा जैसा अमृत बन कर हमारे बीच निरंतर बहना , बहते रहना। वह आज भी उसी कल-कल भाव से उसी निर्मल आनंद से , निश्छल भाव से हमारे मन में बहते रहते हैं। हमारे बीच शैलनाथ जी सर्वदा इसी भाव से उपस्थित हैं , रहेंगे। वह गए कहां हैं भला।
[ सारस्वत परंपरा के संवाहक : प्रो शैलनाथ चतुर्वेदी पुस्तक में प्रकाशित ]
बढिया प्रस्तुति पाण्डेय जी मै इस विमोचन समारोह में उपस्थित था
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