Monday 9 November 2015

लालू प्रसाद यादव को मिले राजनीतिक जनादेश के बहाने हाराकिरी करते , मिठाई बांटने वाले यह लेखक


लालू प्रसाद यादव और पप्पू यादव

दिल्ली से जब जनसत्ता शुरू हो रहा था तब वर्तनी , शब्द , वाक्य , भाषा आदि पर भी बैठकों में चर्चा होती थी । बहुत विस्तार से । चालू ढंग से नहीं । प्रभाष जोशी एक-एक की बात बहुत धैर्य से सुनते थे । अलग बात है किअख़बार में क्या छपेगा , अंतिम फ़ैसला उन का ही होता था । पर सुनते वह सब की थे । जो बात उन्हें जंच जाती थी , मान भी लेते थे ।

एक बार एक शब्द आया राजनैतिक । उन दिनों अख़बारों में यह शब्द धड़ल्ले से छपता था। प्रभाष जोशी ने साफ कहा कि यह शब्द हम नहीं लिखेंगे। क्यों कि राजनीति में अब कोई नैतिक नहीं रह गया है। फिर राजनैतिक की जगह राजनीतिक शब्द पर सहमति बनी और यही शब्द जनसत्ता में छपना शुरू हुआ। यह वर्ष 1983 की बात है । पर आज की तारीख़ में चारा घोटाले में एक सज़ायाफ़्ता व्यक्ति , राजनीति में जातिवाद , सामंतवाद, अभद्रता और जोकरई के लिए ख्यात लालू प्रसाद यादव जिसे चुनाव आयोग ने चुनाव लड़ने पर रोक लगा दिया है, उस की विजय पर जिस तरह तमाम लेखक झूम रहे हैं , यह लेखकों की जीत है , कह कर नाच रहे हैं , मिठाई बांट रहे हैं , यह देख कर उन पर तरस आता है । ऐसे में इन की नैतिकता पर अगर आप सवाल उठा देते हैं तो वह फुल बेशर्मी से आप को आर एस एस का स्वयं सेवक घोषित कर देंगे । भक्त बता देंगे । भाजपाई बता देंगे । सांप्रदायिक घोषित कर देंगे । पूरी बेशर्मी से ।

बिहार की जनता का सम्मान कीजिए, जनादेश का सम्मान भी कीजिए , मोदी का डट कर विरोध कीजिए , मोदी , भाजपा और आर एस एस की ईंट से ईंट बजा दीजिए पर इतना तो मत गिर जाईए कि लालू प्रसाद यादव जैसे अपराधी को कंधे पर बिठा कर घूमने लगिए। सांप्रदायिकता से लड़ने के लिए सारे यत्न किए जाने चाहिए पर ज़रुरी है कि ग़लत को ग़लत और सही को सही कहने की ताक़त भी आप गंवा दें ? गटर में गिर कर ही आप सांप्रदायिकता से लड़ने के लिए औजार खोजें ।  फिर आप लेखक भी हैं ? यह कोई नौकरी का प्रश्न है जो आप येन-केन-प्रकारेण बचाने के लिए सारे यत्न करेंगे ही । कि चुनाव लड़ रहे हैं कि जैसे भी हो जीतना ही है । इन्हीं औजारों से आप सांप्रदायिक शक्तियों से लड़ने का हौसला पाले हुए हैं ? इस तरह विवेक गंवा कर ,घुटने टेक कर ?

तिस पर आप वामपंथ के हामीदार भी हैं ? लालू प्रसाद यादव ने बिहार में वामपंथ की कैसे मिट्टी पलीद की है आप इतनी जल्दी भूल गए ? अजित सरकार को भी भूल गए हैं ? इस बिंदु पर भी हमारे कामरेड मित्र आंख मूंद लेने में अपनी कामयाबी खोज लेते हैं । ग़नीमत है कि बिहार की नई विधान सभा में सी पी आइ ( एम एल ) - लिबरेशन के तीन विधायक जीत कर आ गए  हैं ।

अजित सरकार सिर्फ़ वामपंथी ही नहीं थे , अपने क्षेत्र के गरीब गुरबों के लिए दिन रात एक पांव पर खड़े रहते थे । जमींदारों की नाक में दम किए रहते थे । भूमिहीन दलितों को ज़मीन पर कब्ज़ा दिलाने के लिए वह निरंतर संघर्षरत थे । माकपा के विधायक थे और साधारण ढंग से जनता के बीच ही रहते थे। क्षेत्र के स्कूल में हर बार के कार्यक्रम में वह मुख्य अतिथि होते थे । पर एक बार वह उस स्कूल के कार्यक्रम में सिर्फ़ इस लिए नहीं गए क्यों कि उस बार उन के पुत्र को भी एक पुरस्कार मिलना था , जो बतौर मुख्य अतिथि उन्हें देना पड़ता । बेटे की उम्र कम थी , नादानी थी , घर आ कर नाराज हुआ और बोला कि मैं भी आप के चुनाव में काम नहीं करूंगा। अजित सरकार ने तब बेटे को अपनी मुश्किल और मर्यादा बताई । बेटा मान गया । पप्पू यादव ने दिन दहाड़े इन्हीं अजित सरकार की 14 जून, 1998 को पूर्णिया में  गोली मार कर हत्या कर दी थी। ज़मींदारों के इशारे पर । जमींदार नहीं चाहते थे कि भूमिहीनों को उन की ज़मीन पर अजित सरकार कब्ज़ा दिलवाएं । सीबीआई की विशेष अदालत ने 2008 में इस हत्याकांड में पप्पू यादव, राजन तिवारी और अनिल यादव को उम्रकैद की सजा सुनाई थी। बाद में पटना हाईकोर्ट ने 2008 में पप्पू को रिहा कर दिया था । 
 
लालू प्रसाद यादव , पप्पू यादव को आशीर्वाद देते हुए
बात 1986-87 की है। उन दिनों लालू यादव अपने राजनीतिक जीवन के चढ़ाव पर थे । वह बिहार में विरोधी दल के नेता बनाना चाहते थे।  उस समय उनके मकसद को कामयाब करने में पप्पू यादव ने उन की सब से ज्यादा मदद की थी। बिहार में राजनीति और अपराध के बीच पनपे इस शख्स को बाहुबली के रूप में जाना जाता है।  हालांकि पप्पू यादव अपनी इस छवि के लिए सीधे लालू को दोषी ठहराते हैं और पूछते हैं कि
पप्पू यादव को इस तरह अपराधी बनाया किस ने  ? ख़ुद पप्पू यादव से ही सुनिए :
मैं तो एक सीधा-सादा छात्र था।  लालू का प्रशंसक था। लालू प्रसाद यादव को अपना आदर्श मानता था, लेकिन लालू मेरे साथ बार-बार छल करते गए। मुझे बिना अपराध किए ही कुर्सी का नाजायज फायदा उठाते हुए कुख्यात और बाहुबली बना दिया। जब लालू विरोधी दल का नेता बनना चाहते थे, उस समय इस दौड़ में अनूप लाल यादव, मुंशी लाल और सूर्य नारायण भी शामिल थे।  मैं अनूप लाल यादव के घर में ही रहता था।

वह बताते हैं, 'इस के बावजूद मैं लालू का समर्थन कर रहा था।  मैंने नवल किशोर से बात कर लालू के लिए जमीन तैयार किया।  लालू के नेता विरोधी दल बनने के अगले ही दिन पटना के सभी अखबारों में एक खबर प्रकाशित हुई कि कांग्रेस नेता शिवचंद्र झा की हत्या करने के लिए पूर्णिया से एक कुख्यात अपराधी पप्पू यादव पटना पहुंचा है।  मैं इन सब से बेखबर था।  मेरे एक मित्र नवल किशोर मुझे पटना विश्वविद्यालय के पीजी हॉस्टल ले गए। '

पप्पू कहते हैं कि वहां जाकर उनको पता चला कि वह एक कुख्यात अपराधी बन चुके हैं।  वह आगे बताते हैं, 'मैं एक ऐसा कुख्यात अपराधी था, जिसके खिलाफ तब तक किसी थाने में कोई केस तक नहीं दर्ज था।  मैं तीन दिनों तक अपने एक मित्र गोपाल के कमरे में रहा।  वहां से कोलकता गया।  पुलिस मेरे पीछे पड़ गई।  मेरे घर की कुर्की हो गई।  मां-बाप को सड़क पर रात गुजारनी पड़ी।  मेरे पिता लालू से मिले, लेकिन उन्होंने मदद से इनकार कर दिया। '

अब तो पप्पू यादव को सब लोग जानते हैं । बिहार के बाहुबलियों में एक हैं । वह लालू की मदद से ही सपत्निक सांसद हैं । नामवर सिंह जैसे लोग उन की किताब का लोकार्पण करते हैं । राजेंद्र यादव जैसे लोगों ने इन पप्पू यादव की आत्म कथा लिखवा कर लेखक भी बना दिया । अब यही पप्पू यादव इस चुनाव के पहले बिहार में यादव राजनीति की कमान संभाल कर लालू यादव का उत्तराधिकारी बनने का सपना देखने लगे थे । लालू ने इनकार कर दिया तो वह लालू के ख़िलाफ़ हो गए ।  


लालू प्रसाद यादव और शहाबुद्दीन

फिर पप्पू यादव ही क्यों शहाबुद्दीन जैसे और भी तमाम अपराधी भी लालू ने पाल पोस कर खड़े किए हैं बिहार में। अपहरण उद्योग क्या बिहार में वैसे ही खड़ा हो गया था , बिहार में ? लालू प्रसाद यादव ने इस अपहरण उद्योग को खड़ा किया था और वह इस के मुखिया थे । बिहार को विकास से लगातार पटरी से उतार कर पीछे ले जाने वाले लालू और उन के सालों का प्रताप देखना हो तो प्रकाश झा की फिल्म अपहरण देख लीजिए। बहुत कुछ साफ हो जाएगा। पटना हाईकोर्ट ने एक आदेश में आखिर हवा में तो बिहार में जंगल राज है नहीं कहा था ? लालू यादव सारी मर्यादा भूल कर शहाबुद्दीन से मिलने जेल तक जाते रहे हैं । क्यों कि शहाबुद्दीन अपहरण , हत्या आदि मामलों के चलते जेल में हैं । उन की पत्नी को अपनी पार्टी का टिकट देते हैं । लोग यह सब भी भूल गए हैं क्या ? हां शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सिर धंसाए हमारे कुछ लेखक मित्र ज़रूर भूल गए हैं । जोश में होश गंवा बैठे हैं ।

और इन्हीं लालू प्रसाद यादव को हमारे लेखक मित्र अपना हीरो मान चुके हैं । उन की जीत को लेखकों की जीत बता कर झूम रहे हैं , मिठाई बांटने जैसे अश्लील काम में फुल बेशर्मी से लग गए हैं । यह बेशर्मी इन को मुबारक़। और हां रही बात जनादेश की तो एक वाकया जनादेश का भी सुन लीजिए बरास्ता प्रभाष जोशी और जनसत्ता । यह वाकया मैं ने प्रभाष जोशी पर लिखे संस्मरण हमन इश्क मस्ताना बहुतेरे में भी लिखा है । वह उतना हिस्सा वहां से उठा कर जस का तस यहां परोस रहा हूं :

अख़बार छपने के शुरुआती दिनों की बात है। जोशी जी जनरल डेस्क पर बैठे कोई ख़बर लिख रहे थे। उन की आदत सी थी कि जब कोई ख़ास घटना घटती थी तो वह टहलते हुए जनरल डेस्क पर आ जाते थे और ‘हेलो चीफ सब!’ कह कर सामने की एक कुर्सी खींच कर किसी सब एडीटर की तरह बैठ जाते थे। संबंधित ख़बर से जुड़े तार मांगते और ख़बर लिखने लगते। लिख कर शिफ्ट इंचार्ज को ख़बर देते हुए कहते, ‘जैसे चाहिए इस का इस्तेमाल करिए।’ हां, तब वह अपने संबोधन में ‘हेलो चीफ सब’ कहते ज़रूर थे पर तब तक जनसत्ता में सिर्फ़ एक ही चीफ़ सब एडीटर थे मंगलेश डबराल। और वह रविवारीय देखते थे, शिफ़्ट नहीं। जोशी जी की आदत थी कि जब वह कोई ख़बर लिख रहे होते या कुछ भी लिख रहे होते तो डिस्टरवेंस पसंद नहीं करते थे। लेकिन तभी एक फ़ोन आया। मनमोहन तल्ख़ ने रिसीव किया। और जोशी जी से बताया कि, ‘मोहसिना किदवई का फ़ोन है।’

‘यह कौन हैं?’ जोशी जी ने बिदक कर पूछा।

‘यू.पी. में बाराबंकी से एम.पी. हैं।’ मनमोहन तल्ख़ ने अपनी आदत और रवायत के मुताबिक़ जोड़ा, ‘बड़ी खूबसूरत महिला हैं।’

‘तो?’ जोशी जी और बिदके। बोले, ‘कह दीजिए बाद में फ़ोन करें।’

लेकिन पंद्रह मिनट में जब कोई तीन बार मोहसिना किदवई ने फ़ोन किया तो जोशी जी को फ़ोन पर आना पड़ा। मोहसिना किदवई के खि़लाफ जनसत्ता में बाराबंकी डेटलाइन से एक ख़बर छपी थी। उसी के बारे में वह जोशी जी से बात कर रही थीं। वह उधर से जाने क्या कह रही थीं, जो इधर सुनाई नहीं दे रहा था। पर इधर से जोशी जी जो कह रहे थे वह तो सुनाई दे रहा था। जो सभी उपस्थित लोग सुन रहे थे। जाहिर है मोहसिना किदवई उधर से अपने खि़लाफ ख़बर लिखने वाले रिपोर्टर की ऐसी तैसी करती हुई उसे हटाने की तजवीज दे रही थीं। पर इधर से जोशी जी अपनी तल्ख़ आवाज़ में उन्हें बता रहे थे कि, ‘रिपोर्टर जैसा भी है उसे न आप के कहने पर रखा गया है, न आप के कहने से हटाया जाएगा। रही बात आप के प्रतिवाद की तो उसे लिख कर भेज दीजिए, ठीक लगा तो वह भी छाप दिया जाएगा।’ उधर से मोहसिना किदवई ने फिर कुछ कहा तो जोशी जी ने पूरी ताकत से उन से कहा कि, ‘जनादेश की बात तो हमें आप समझाइए नहीं। आप पांच साल में एक बार जनादेश लेती हैं तो हम रोज जनादेश लेते हैं। और लोग पैसे खर्च कर, अख़बार ख़रीदते हैं और जनादेश देते हैं। बाक़ी जो करना हो आप कर सकती हैं, स्वतंत्र हैं।’ कह कर उन्हों ने फ़ोन रख दिया।

तो लेखक भी , उस की रचना भी अपने पाठक से निरंतर जनादेश पाता रहता है । लगता है हमारे कुछ लेखक मित्र अपने पाठकों से इस कदर कट गए हैं , अपने पाठकों के जनादेश से इतना वंचित हो गए हैं कि एक सज़ायाफ्ता अपराधी के राजनीतिक जनादेश को अपना जनादेश मान कर मिठाई बांट रहे हैं , अपने को और मार रहे हैं । हाराकिरी कर रहे हैं । जापान में हाराकिरी आत्म हत्या का एक ऐसा तरीक़ा है जिस में आदमी अपने को छुरे से आहिस्ता-अहिस्ता मारता रहता है , अपने को तकलीफ़ देता हुआ । 

आप सोचिए कि चेहरा नीतीश कुमार थे ,  सीट ज्यादा लालू की आई हैं । अगर एक सीट भी नीतीश की लालू से ज़्यादा होती तो सरकार उन के हाथ में होती । अब तो नीतीश कुमार सरकार की ड्राइविंग ज़रूर करेंगे पर लालू का ड्राइवर बन कर। कितना सुशासन उन के हाथ में रहेगा ,यह आने वाला वक्त बताएगा । इस लिए भी कि वह तो भुजंग हैं , पर यह चंदन नहीं हैं। आमीन !

1 comment:

  1. वह तो भुजंग हैं , पर यह चंदन नहीं
    गहरी बात कही सर आपने

    ReplyDelete