Friday 31 October 2014

अगर - मगर किंतु -परंतु करना छोड़िए भी बिटिया है नहीं है कोई जंतु

 सुनो, तुम्हें ही बदलना है
इस मंजर को, बस तुम्हें ही!

 शैलेंद्र 

यह तो जैसे मेरी ही पीड़ा है। बेटियों के सभी पिताओं की पीड़ा । बेटियों के प्रेम में भीगी और उन की तड़प में एक नया अर्थ भरती ऐसी निर्मल, सरल और निश्छल कविताएं लिखने के लिए शैलेंद्र जी को बहुत सलाम। काश कि बेटों  के पिता लोग अपने को खुदा मानना बंद करते। दिक्क़त यह है कि बेटा जी लोग जीवन साथी नहीं , जन्नत की हूर खोजते हैं, ऐश्वर्या राय खोजते हैं । और इन बेटा जी लोगों के पिता जी लोग अपने बेटे को किसी भैस , किसी बकरी , किसी भेड़  की तरह बाज़ार में बिकने के लिए उतार देते हैं । गोया यह वर नहीं , नीलामी का कोई सामान हों । कुंडली वगैरह की भूल भुलैया में घूमते-घुमाते किसी पुल , सड़क या किसी बिल्डिंग का टेंडर हों । इन्हीं और ऐसी ही तमाम प्रवृत्तियों पर चोट करती बेटी के प्यार में पगी पिता की बेचैनी को बांचती शैलेंद्र की यह छोटी-छोटी कविताएं बड़े-बड़े घाव ले कर जीती हुई कविताएं हैं । यह कविताएं इस समाज के मुंह पर एक बड़ा जूता भी हैं ।  शैलेंद्र की इन कविताओं पर सूरज महतो लिखते हैं , समकालीन संवेदनशील कवियों की यदि सूची बनाई जाए तो इसमें संदेह नहीं कि शैलेंद्र जी का नाम सूची में प्रथम स्थान में न हो । श्री शैलेंद्र जी का हृदय सेमल की रूई से भी बहुत कोमल व मुलायम है ।तभी तो उन का हृदय समाज के विसंगतियों से काफी प्रभावित होता है और उन की रचनाओं के माध्यम से हम पाठकों का हृदय भी प्रभावित होता है । अजय गुप्त की एक कविता है :

सूर्य जब-जब थका हारा मुझे ताल के तट पर मिला,
सच कहूं मुझे वो बेटियों के बाप सा लगा।

लेकिन शैलेंद्र की इन कविताओं में यही थका हुआ सूर्य अपने पूरे ताप में उपस्थित है । पर बौखलाया हुआ और जैसे समय की पड़ताल कुछ इस तरह करता हुआ गोया पांव में कील नहीं , कोई शूल चुभ गया हो । वह जब लिखते हैं

कि वे तुम्हें ‘दासी’ मानती हैं
और वे बस ‘देह’
खटती रहो दिन-रात
बिछती रहो मुफ्त में
यही तो है शानदार परंपरा हमारी
हर सोच-विचार पर भारी
हद है,इक्कीसवीं सदी में भी
जारी है, 19वीं की बीमारी
सुनो, तुम्हें ही बदलना है
इस मंजर को, बस तुम्हें ही!

और इस यातना के तार छूते पिता का मन कैसे तो किसी हिरणी की तरह बेटी के लिए व्याकुल भी हो जाता है शैलेंद्र की इन कविताओं में की मन किसी व्याघ्र की वेदना की तरह तरह छेद-छेद जाता है। पिता का घायल मन कैसे तो बेटी की तड़प में आर्तनाद करता फिरता है , ' मालूम नहीं आवाज कौए ने दी थी / किसी और ने, क्या बिटिया ने?' एक पिता बेटी के लिए तड़पता है किसी आशिक़ की तरह । बेटी के प्यार और उस के नेह में नत शैलेंद्र की कविताएं इस तरह भीगी और बेचैन मिलती हैं कि इस के लिए कोई और उपमा नहीं मिलती । 

ओह, इस ढलती रात में
न जाने किसने पुकारा मुझे
कहीं बिटिया ने तो नही,

और यह भीगना -भिगोना किसी एक स्तर पर नहीं है , चहुं और है , ' भीग चली थी आंखें / एक से उतारा चश्मा / दूसरे से पोंछा उनके कोर /  आ गई थी सपने में / सुबह -सुबह वह / जिस पर नहीं चलता /  अब अपना जोर..। भीतर कहीं गहरे तक रुलाती , समझाती शैलेंद्र की यह कविताएं मन में दुःख और गुस्से की ऐसी अमिट लकीर खींचती चलती हैं कि वह लकीर अविरल होती जाती है । यह लकीर एक ऐसी यातना की इबारत दर्ज करती है जिस के घाव पुरातन हैं लेकिन इन के अर्थ नए संदर्भों में निरंतर बदलते गए हैं । बाज़ार और वहशीपन के निहितार्थ मनुष्यता को नित नए ढंग से नष्ट करते गए हैं । शैलेंद्र की कविताओं की गूंज इसी अर्थ में अप्रतिम और निर्व्याज बन जाती है । मन में अविरल गंगा बन कर बेटी के प्यार में पुलकती और बिहसती मिलती है । शायद इसी लिए एक कविता में वह इस घाव को इस तरह पूरते  हैं :

तुम्हारे सिर पर जब फेर रहा था हाथ
तब बिचलित दिमाग को भी
सहलाए जा रहा था होले-होले
समझाए जा रहा था कांपते नाजुक दिल को
कि अब तो हुई बिटिया पराई
संभाल खुद को मेरे भाई
पर सच-सच बताता हूं तुमको-
ऐ मेरी हृदयांश
कि न यह दिल मानता है न यह दिमाग
कि तुम हो गई पराई हो...
नहीं-नहीं, दिल के रिश्ते-
कभी बिलगाए नहीं जा सकते

शैलेंद्र की कविताओं में बेटी का यह होना और इस तरह होना एक गहरी आश्वस्ति देता है की हमारा समाज लाख सड़ -गल गया हो पर मनुष्यता कहीं गहरे अर्थ में अभी भी शेष है । यह भी कि बेटियां हैं तो यह जीवन है । कविताएं - कहानियाँ समाज को बदलने का एक मद्धिम माध्यम हैं ज़रूर पर यह काम बहुत भीतर तक करती हैं। किसी प्राकृतिक चिकित्सा के मानिंद । वह लिख ही रहे हैं :

धरती की तरह.
हर मौसम के थपेड़ों को
अब और नहीं
अब और नहीं
अब वह दौर नहीं
तुम कह दो सबसे बहना
बहुत सह लिया चुप-चुप
और नहीं सहना
ओ मेरी बेटी
ओ मेरी बहना..

शैलेंद्र की यह कविताएं अभी तुरंत-तुरंत न सही , आने वाले समय में बेटियों के जीवन को बदलने , बेहतर करने और उन्हें खूब सुंदर बनाने में अपना बिरवा ज़रूर रचेंगी , ऐसा मेरा निश्चित विश्वास है । उन की कविता कहती ही है :

उन्हें भरनी है उड़ान
बेड़िया न डालना
उनके पांवों में
पंख न कतरना उनके
न करना कैद पिंजरे में
यह पाप हो न हो
अपराध जरूर है
जिसकी कोई माफी नहीं
इक्कीसवीं सदी की बच्चियांं हैं
दान की बछिया नहीं
करेंगी हिसाब-किताब
पिछली सदियों की भी..

इस लिए भी कि. ' वे धड़कन हैं जिगर की / पराई नहीं / हरजाई नहीं / वे हिम्मत हैं / हौसला हैं / फासला नहीं / उन्हें चलना है / कदम से कदम मिला कर / उन्हें भरनी है उड़ान / बेड़िया न डालना / उनके पांवों में ।' बेटियों के जीवन को बदलने , उन्हें सुंदर बनाने और समाज की बीमार चूलों को हिलाने और नष्ट करने में यह कविताएं  रत्ती भर भी काम कर जाएं तो बहुत है । उन की कविता में ही जो कहें कि , ' तुम हो जीवन / तुम हो प्रेम / तुम हो विश्वास / स्पंदित होती रहो / उमड़ती रहो / कायम रहो। शैलेंद्र की कविताओं की कामयाबी इसी में है और की वह ज़रूर कामयाब भी होंगी , इसी भरोसे के साथ बेटियों से जुड़ी इन कविताओं का अविकल पाठ यहां  आप मित्रों के लिए हाजिर है , आप मित्रों को ही नाज़िर मान कर !


बेटियों के लिए कुछ कविताएं 

 1.

तलाश

पिता परेशान है
माता मायूस
भाई बेचैन
छिन गया है
सबका चैन
सुपात्र की तलाश जारी है
सबकी दुलारी के लिए...

2.

सुपात्रा

काली-सांवली
कम अक्ल बावली
किसे चाहिए
न लंगड़े को न लूले को
न लटकन को न झूले को
गोरी होना ही काफी नहीं
होनी चाहिए लंबी-छरहरी भी
नैन-नक्श भी तीखे हों
बोल-बात मीठे हों
पढ़ी-लिखी हो
हो स्मार्ट
बना लेती हो मसालेदार चाट
यानी कि सुपात्रा हो
सवर्गुण संपन्न
ऊपर से
माल भी लाए टनाटन।

3.

नहीं है कोई जंतु

अगर-मगर किंतु-परंतु
बिटिया को मान लिया
खर-पतवार
किस्मत की मार
अगर-मगर
किंतु-परंतु
कितनी बार
कितनी बार
सुनेगी वह
क्या-क्या देखोगे-देखेंगी
श्रीमन,श्रीमती जी?
रंग गोरा
रूप सलोना
बदन छहरा
कद-काठी भी
हो ठीक-ठाक
हों चमकते दांत
नुकीली नाक
कुंदन से कान
नाजुक-नर्म
हाथ-पांव
क्या-क्या जानोगे?
डिग्री-चाकरी
फ्रेंच-इंगरेजी
चाल-ढाल
और कितने सवाल
कितने गुण
कितने गुण
यानी कितनी गुणवती
बन पाई है वह?
अगर-मगर
किंतु-परंतु
करना छोड़िए भी
बिटिया है
नहीं है कोई जंतु।


4.

तुम्हें ही...

धन तो ले ही जाती हो साथ अपने
जांगर खटाने को
मुफ्त में तन भी
तुम क्या इसे समझती हो
जरूर समझती होंगी
कि सारे अर्जित ज्ञान
आते ही नहीं काम
आचार-विचार-संस्कार नाम की बेड़ियां
टूटती ही नहीं,टूटती ही नहीं...
सचमुच तुम कितनी निरीह हो
तुम यह जरूर जानती होंगी
या फिर अनुभव से अपने जान ही जाती हो
कि वे तुम्हें ‘दासी’ मानती हैं
और वे बस ‘देह’
खटती रहो दिन-रात
बिछती रहो मुफ्त में
यही तो है शानदार परंपरा हमारी
हर सोच-विचार पर भारी
हद है,इक्कीसवीं सदी में भी
जारी है, 19वीं की बीमारी
सुनो, तुम्हें ही बदलना है
इस मंजर को, बस तुम्हें ही!


5.
तुम बिन

कल
खुशी टहल रही थी
घर में
आज
उदासी
बाकी के
सारे किस्से
वही
बासी के बासी...

6.
बेबसी

अभी-अभी हुई थी भोर
तेज हवा, शीत का जोर
मची हुई थी खलबली
मचा हुआ था शोर
कहीं अंदर पुरजोर
भीग चली थी आंखें
एक से उतारा चश्मा
दूसरे से पोंछा उनके कोर
आ गई थी सपने में
सुबह -सुबह वह
जिस पर नहीं चलता
अब अपना जोर..

7.
न जाने किसने...

न जाने किसने फेंका पत्थर
सतह पर मच गई हलचल
उचट गई नींद
चांद घबरा गया
झिलमिलाते तारे भी
अभी तो सूरज चादर ताने हुआ था
झींगुर तक फरमा रहे थे आराम
शांति इतनी शांत थी
कि थर्रा उठा मन का प्रशांत
ओह, इस ढलती रात में
न जाने किसने पुकारा मुझे
कहीं बिटिया ने तो नहीं...

8.
दिल के रिश्ते

तुम्हारे सिर पर जब फेर रहा था हाथ
तब बिचलित दिमाग को भी
सहलाए जा रहा था होले-होले
समझाए जा रहा था कांपते नाजुक दिल को
कि अब तो हुई बिटिया पराई
संभाल खुद को मेरे भाई
पर सच-सच बताता हूं तुमको-
ऐ मेरी हृदयांश
कि न यह दिल मानता है न यह दिमाग
कि तुम हो गई पराई हो...
नहीं-नहीं, दिल के रिश्ते-
कभी बिलगाए नहीं जा सकते

9.
मालूम नहीं

न मालूम क्यों आज किसी कौए ने दी आवाज
दूसरे पखेरू अब भी नहीं निकले थे नीड़ से
अंधेरा अभी छंटा ही नहीं था पूरी तरह
किसी लोकल ट्रेन की आवाज भी नहीं पड़ी थी कानों में
न रिक्शे की टुनटुन, न अखबार वाले की साइकिल का ट्रन-ट्रन
खिड़की खोल कर देखा तो कटा हुआ चांद लटक रहा था-
कहीं दूर पश्चिम के क्षितिज के करीब
सारे के सारे तारे लगभग हो गए थे नदारद
मंजर कुछ उलट-पलट -सा लगा न जाने क्यों
दिल के साथ-साथ पांव भी चहलकदमी के लिए-
हो गए बेचैन तो छत ने बुला लिया
मालूम नहीं आवाज कौए ने दी थी
कि किसी और ने, क्या बिटिया ने?

10
दिल से पूछा तो...

न जाने कौन पुकारता है
न जाने कितनी दूर से
आवाज इतनी धीमी
कि पता ही नहीं चलता
कानों से पूछता हूं-
तुमने सुना?
सुना तुमने किसी पुकार को
वह बस मुस्करा कर रह जाता है
आंखों से पूछता हूं तुमने देखा किसी को-
आस-पास मंडराते हुए
खिड़की से झांका था न अभी-अभी तुमने?
आंखें भी भला क्या बोलतीं
वह तो खुद भींगी-भींगी थी-
उदास-उदास
दिल से पूछा तो वह धड़कने लगा बेतरह
झरने लगा आंखों के रास्ते बन कर आंसू

11.
अब भी 

यह इक्कीसवीं सदी का
दूसरा दशक है
बंद दिमागों में
अब भी मौजूद
बीसवीं का ठसक है

12.
करेंगी हिसाब-किताब...

नहीं उन्हें मासूम
बछिया नहीं समझिए
न दान-दक्षिणा की वस्तु
उन्हें मिहनत ने सींचा है
उम्मीदों ने पाला-पोसा है
वे धड़कन हैं जिगर की
पराई नहीं
हरजाई नहीं
वे हिम्मत हैं
हौसला हैं
फासला नहीं
उन्हें चलना है
कदम से कदम मिला कर
उन्हें भरनी है उड़ान
बेड़िया न डालना
उनके पांवों में
पंख न कतरना उनके
न करना कैद पिंजरे में
यह पाप हो न हो
अपराध जरूर है
जिसकी कोई माफी नहीं
इक्कीसवीं सदी की बच्चियांं हैं
दान की बछिया नहीं
करेंगी हिसाब-किताब
पिछली सदियों की भी..

13.
अब और नहीं सहना

सहती रही हो
न जाने कितने युगों से
अनगिनत यातनाओं को
धरती की तरह
हर मौसम के थपेड़ों को
अब और नहीं
अब और नहीं
अब वह दौर नहीं
तुम कह दो सबसे बहना
बहुत सह लिया चुप-चुप
और नहीं सहना
ओ मेरी बेटी
ओ मेरी बहना...

14.
समय तुम ही करना न्याय

वह न खंजर था
न चाकू
न बर्छी, न तीर, न भाला
पर वार उसकी इतनी गहरी
कि बिलबिला उठे कई बेबस एक साथ
जख्म इतना गहरा कि जब-तब हरा हुआ जाता है
वह प्रहार एक जुबान की थी
और वह जुबान थी एक स्त्री की
और उसकी जद में थी एक स्त्री
समय तुम ही करना न्याय
भरते जाना हर जख्म को
और कम से कम यह अहसास जरूर दिलाना उस जुबान को
कि उसके हठ का नहीं था कोई तार्किक आधार...

15.
तुम हो जीवन

न हो जलावन
न भेंट
न कोई खजाना
जलना नहीं
चढ़ना नहीं
लुटना नहीं।
न हो आंसू
न दुर्भाग्य
न बिस्तर
नाहक बहना नहीं
न कोसना खुद को
न मानना बिछने की कोई शर्त
तुम हो जीवन
तुम हो प्रेम
तुम हो विश्वास
स्पंदित होती रहो
उमड़ती रहो
कायम रहो।

16.
जो कर रहें हैं तुम्हारा इंतजार...

कि जैसे जमाना हो गया देखे तुम्हें
सुने तुम्हारे पदचाप
कि जैसे कहीं गुम गई-
ठहाके में तब्दील होती जाती तुम्हारी हंसी
तुम्हारी मिश्री सी मिठी झिड़की-डांट
पापा-पापा की वह प्यारी पुकार
कि जैसे टूट-बिखर गए-
जीवन के छंद
रह गई गहरी उदासी
कभी न भरने वाला खालीपन
बन गया सहचर-सा
तुम आती रहना बिटिया
उस नए घर से
जब भी जी चाहे
जहां जाना ही होता है-
हर बिटिया को
धन्य होंगी सड़कें, सीढ़ियां,
राह के धूल
और हम सभी
जो कर रहें हैं तुम्हारा इंतजार...

[ आरा ( बिहार) से प्रकाशित होने वाली लोकप्रिय पत्रिका ' जनपथ ' के अक्टूबर अंक 2014 में शैलेंद्र जी की एक साथ कुल यह 16 कविताएं प्रकाशित हुई हैं ।]


2 comments:

  1. bahut-bahut shukriya-aabhar aapaka daya ji! aapane kavitaon men gahraee se utarane kee n keval koshish kee, balki gusse aur peeda ko bantane kee jarurat mahsus kiya. aapakee tippni se is nacheej ke andar kulbulate kavi ko thodi takat bhee mili hai!!

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  2. बहुत अच्छी प्रस्तुति!

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