Saturday 5 April 2014

चुनावी बयार में बहते कुछ फ़ेसबुकिया नोट्स


  • तो क्या सामाजिक न्याय और धर्मनिर्पेक्षता की दुहाई सिर्फ़ और सिर्फ़ लफ़्फ़ाज़ी नहीं है? अगर नहीं है तो यह तमाम-तमाम राजनीतिक दल भाजपा और मोदी से लड़ने के लिए एक क्यों नहीं हो जाते? इस बिना पर दक्षिण में करुणानिधि-जयललिता, पश्चिम बंगाल में वाम और ममता, उत्तर प्रदेश में मायावती-मुलायम, बिहार में लालू-नीतीश आदि-आदि क्यों नहीं एक हो जाते? आखिर इन सब की धर्मनिर्पेक्षता और सामाजिक न्याय की हुंकार तो एक ही है। और हां, कांग्रेस से भी यह सब एक साथ क्यों नहीं मिल जाते और मिल कर चुनाव लड़ते। साथ में आम आदमी पार्टी और उस के नेता केजरीवाल को भी जोड़ लेते। सब का एजेंडा भी एक है। यह सब जो एक हो जाएं तो मोदी और उन की भाजपा से मुकाबला दिलचस्प हो जाए। आखिर सांप्रदायिक शक्तियों से देश को बचाना बहुत ज़रुरी है। बहुत मुमकिन है मोदी का रथ तो क्या एक पहिया भी न हिल पाए, आगे बढ़ना या विजय की तो बात खैर नहीं ही हो पाएगी। लेकिन इन लफ़्फ़ाज़ों को तनिक भी शर्म नहीं आती। खाने के और दिखाने के बहुतेरे हैं। इन का पाखंड और इन पाखंडियों का कुछ तो प्रतिकार और इलाज होना ही चाहिए।
 
  • इमर्जेंसी में लालू प्रसाद यादव जब मीसा के तहत जेल में बंद थे तब उन की एक बेटी हुई। उन्हों ने उस का नाम रखा मीसा। अब वही मीसा चुनाव लड़ रही हैं उसी कांग्रेस के समर्थन से जिस ने उन के पिता को मीसा कानून के तहत गिरफ़्तार किया था। रात गई, बात गई की रवायत राजनीति में कुछ ज़्यादा ही है। कोई क्या कर लेगा भला?
  • यह भी अदभुत है कि सांप्रदायिकता के आरोप वाली भाजपा या मोदी अयोध्या मुद्दे का नाम नहीं लेना चाहते हैं। इन के लिए यह मरा हुआ मुद्दा हो गया है। यह लोग विकास, महगाई, भ्रष्टाचार, गुड गवर्नेंस आदि की बात करने लगे हैं। लेकिन धर्मनिर्पेक्षता की दावेदार कांग्रेस या और पार्टियां अयोध्या मुद्दे को भूलने नहीं देना चाहतीं। इमाम बुखारी की अपील, कोबरा पोस्ट आदि के चोचले में फंसी पड़ी हैं। ऐसे ही कुछ समय पहले पश्चिम बंगाल में जब नंदीग्राम और सिंगूर में किसान आंदोलनरत थे तब वहां की तत्कालीन वामपंथी सरकार उन का दमन कर रही थी। लेकिन ममता बनर्जी के साथ-साथ भाजपा भी उन किसानों के साथ खड़ी थी। यह हो क्या रहा है? सेक्यूलर लफ़्फ़ाज़ों की मति आखिर क्यों मारी गई है?
  • मुलायम सिंह यादव का यह दावा निरंतर जारी है कि केंद्र में तीसरे मोर्चे की सरकार बनेगी। और फिर उन की मुलायमियत भी देखिए कि अमेठी में राहुल और रायबरेली में सोनिया के खिलाफ़ वह घोषित तौर पर उम्मीदवार भी नहीं उतार रहे। गरज यह कि आडवाणी और मुलायम दोनों ही के सपने प्रधानमंत्री की कुर्सी की डोर से जुदा नहीं होंगे। येन-केन-प्रकारेण गाते ही रहेंगे, हम तुम चोरी से, बंधे एक डोरी से, जइहो कहां ए हुजूर !
  • लफ़्फ़ाजों ने सेक्यूलर शब्द को चंदन की तरह घिस-घिस कर इतना चपटा बना दिया है कि अब की चुनाव में यह सेक्यूलर शब्द सिर्फ़ मजाक बन कर रह गया है। इतना कि इस की प्रासंगिकता खतरे में पड़ गई है। बेमानी सा हो गया है यह।
  • मैं देश नहीं झुकने दूंगा ! प्रसून जोशी की इस कविता को नरेंद्र मोदी के स्वर में हुंकार भरते हुए रेडियो पर सुनते हुए, इस आक्रामक प्रचार को देखते हुए तुलसीदास की चौपाई याद आ रही है, बार-बार याद आ रही है:
देखि विभीषण भयऊ अधीरा,
रावण रथी, विरथ रघुवीरा ।
नाथ न रथ नहीं पद-पद प्राणा
केहि विधि जितब वीर बलवाना।
ना-ना मैं यहां अरविंद केजरीवाल या किसी अन्य पार्टी या उम्मीदवार की नहीं, बल्कि अपनी और अपने तमाम वोटर मित्रों की बात कर रहा हूं। क्यों कि सिर्फ़ मोदी ही नहीं सारी की सारी पार्टियां और सारे उम्मीदवार आक्रामक ही नहीं पूरे छल और कपट के साथ हम सब वोटरों के सामने उपस्थित हैं। कोई एक भी इस छल कपट से बरी नहीं है। तो तय सचमुच यही करना है कि आखिर देश को झुकने नहीं देना है।

  • चंचल बी एच यू कांग्रेस के कोल्हू के नए बैल हैं सो घेरे में बहुत तेज़ी से घूम रहे हैं बिना कुछ देखे-समझे। बहुत तेज़ी से भूसा की जगह प्याज खा रहे हैं। खा क्या रहे हैं, खाए ही जा रहे हैं। लोगबाग डट कर उन की धुलाई भी करते रहते हैं उन की ही वाल पर लेकिन उन की आंख पर जो ढक्कन लगा है पंजे का वह उन्हें कुछ देखने ही नहीं देता। एक तो थेथरई दूसरे, इस वृद्धावस्था में भी उन की छात्र बुद्धि का कमाल सोने पर सुहागा का काम करता है। या कहिए कि करेला और नीम चढ़ा वाला हाल हो जाता है। हालां कि एक महीने पहले ही उन्हों ने लफ़्फ़ाज़ी झोंकी थी कि वह बनारस से चुनाव लड़ेंगे। पर अब वह सांस नहीं ले रहे और कांग्रेस के लिए चंदरवरदाई बन कर अपने अहंकारी मन पर खाद-पानी, फूल-पत्ता चढ़ा-चढ़ा कर अपनी ही पूजा में न्यस्त हैं। लफ़्फ़ाज़ चंचल बी एच यू की जय हो !

  • मोदी के प्रधान मंत्री पद की राह में सिर्फ़ तीन अड़ंगे हैं। एक उन का सांप्रदायिक चेहरा, दूसरे अरविंद केजरीवाल, तीसरे भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह। बा्की दो से वह पार भले पा लें पर राजनाथ सिंह उन के दुर्योधन पर शकुनी की तरह सवार हैं। लगता है उन को कहीं का नहीं छोड़ेंगे। आडवाणी की आह अपनी जगह है। जसवंत सिंह, सूर्य प्रताप शाही तक खुले आम रोते,आंसू बहाते घूम रहे हैं। दल बदलुओं के लाक्षा्गृह अलग हैं।

  • मोदी विरोध अभी तक फ़ैशन था, अब स्टेटस सिंबल है !

  • बताइए कि टेलीविजन पत्रकारिता का कितना पतन हो गया है ! राजनीति का पतन जो है सो अलग है, उस का ड्रामा अलग है। अब अरविंद केजरीवाल का इस्तीफ़ा होना है। आज तक पर अंजना ओम कश्यप कह रही हैं कि सारे मंत्री इस्तीफ़ा देंगे और पुण्य प्रसून वाजपे्यी कह रहे हैं कि पूरी कैबिनेट का इस्तीफ़ा होना है। बताइए कि क्या दिन आ गए हैं पत्रकारिता के। टेलीविजन पत्रकारिता के इन सितारों को कोई यह बताने वाला नहीं है कि प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री के इस्तीफ़े के बाद समूची सरकार स्वत: समाप्त हो जाती है। एक-एक मंत्री या कैबिनेट के इस्तीफ़े की ज़रुरत नहीं होती। लेकिन इन की मूर्खता का कोई क्या करे ! पत्रकारिता में ऐसी साक्षरता की भी एक हद होती है।

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