दयानंद पांडेय
सावन की शिवरात्रि है और कवि कालिदास के नगर में वह भीग रहा है। लाइन में लग कर भीग रहा है। अनायास और औचक। यह मनोहारी है। बारिश में भीगना उसे पसंद है। बेहद पसंद। बस भीगने के बाद होने वाले खांसी , जुकाम और बुख़ार से वह डरता है। बचपन में तो वह बारिश में भीगने पर मां से पिटता था। पर तब भी जब कभी बारिश होती तो किसी न किसी बहाने घर से निकल जाता बारिश में भीगने के लिए। तब मां पीटती थी , अब खांसी , जुकाम और बुखार मिल कर पीटते हैं। इन के पीटने में मां की मिठास नहीं होती। इस लिए भी बचता है अब बारिश में भीगने से। लेकिन अभी और बिलकुल अभी जयकारे और बारिश के बीच वह लाइन में है। भारी भीड़ में है। बचना , बारिश से बचना लगभग नामुमकिन है।
अमूमन वह लाइन में लगने से बचता है। भीड़ में जाने से बचता है। भारी भीड़ में जाने से तो डरता है। पर आदमी की जैसे प्रवृत्ति है कि भीड़ की तरफ दौड़ता है और चाहता है कि उसे रास्ता मिले। पर रास्ता मिलता नहीं है भीड़ में। कैसी भी लाइन हो , कैसी भी भीड़। इस लिए बेतरह बचता है। अकसर एकांत और निर्जन ढूंढता है। भक्ति में श्रद्धा तभी उमड़ती है। लंबी लाइन और भारी भीड़ सारी श्रद्धा छीन लेती है। आदमी थक कर चूर हो जाता है। टूट जाता है। सुविधाजीवी आदमी के लिए यह लाइन और भीड़ यातना बन जाती है। लेकिन जयकारे और बारिश के बीच वह लंबी लाइन में है। बहुत भारी भीड़ में है। लाइन भी अजगर की तरह है और भीड़ भी भक्तों की है। न आगे बढ़ा जा सकता है , न पीछे लौट कर वापस हुआ जा सकता है। लोहे की ख़ूब पतली ढाई - तीन फ़ीट चौड़ी बैरिकेटिंग ही कुछ ऐसी है लोगों को पंक्तिबद्ध करने ख़ातिर। बैरिकेटिंग भी मुड़ - मुड़ कर है। ऐसे जैसे कोई सर्प अपने को बटोर कर बैठा हो। यह बैरिकेटिंग चींटी की तरह आगे बढ़ने तो देती है , वापस लौटने नहीं देती। ऐसे जैसे किसी नदी की धार हो। आदमी उलटी तैराकी तो कर सकता है , नदी की धारा उलटी नहीं बह सकती। बरसते बादल से भरे आसमान के नीचे यह असहाय होना कितना तो रोमांचकारी भी है। इतना कि कुछ भी अपने हाथ में नहीं है। जैसे बारिश , बादल के हाथ नहीं। बादल का रिमोट जाने किस हाथ में। बारिश धीमी हो जाती है। तेज़ हो जाती है। थम जाती है। फिर अचानक बरस जाती है। बरसती ही जाती है। मुसलसल।
क्षणे रुष्टा: क्षणे तुष्टा: रुष्टा तुष्टा क्षणे-क्षणे।
अव्यवस्थित चित्तानाम् प्रसादोऽपि भयंकर:।।
वाली स्थिति है। गरज यह कि क्षण-क्षण में रुष्ट और तुष्ट होने वालों की प्रसन्नता भी अति भयंकर होती है.! बारिश और बादल के बीच यही चल रहा है। क्षणे रुष्टा: क्षणे तुष्टा: रुष्टा तुष्टा क्षणे-क्षणे। जाने यह ठीक बगल में मंद - मंद बह रही , क्षिप्रा नदी का अवसाद है या कालिदास का रुदन। कि कालिदास की प्रतीक्षा में बैठी उन की प्रेयसी मल्लिका के आंसू। वह नहीं जानता। पर वह भीग रहा है। आस्था में कम , अव्यवस्था में ज़्यादा। उस का मन बारंबार कह रहा है कि वह लाइन तोड़ कर भाग निकले। पर भागने का कोई रास्ता नहीं मिल रहा। भीड़ का अजगर चारो तरफ है। उज्जैन का काल भैरव मंदिर जैसे उस की परीक्षा का कुरुक्षेत्र बन गया है।
जगह-जगह से आए तरह-तरह के लोग हैं। वृद्ध भी , नन्हे बच्चे भी। एक नन्हा बच्चा रह-रह कर बम-बम भूले का जयकारा लगाता रहता है। उस की मम्मी बार-बार सुधारती रहती है बम-बम भोले ! वह बच्चा एक बार बम-बम भोले बोलता है फिर दुबारा बम-बम भूले ! यह भूले और भोले में उस का भोलापन उसे भा जाता है। बच्चा भी भीग रहा है और वह भी , बारिश में सभी भीग रहे हैं। लेकिन वह तो उस अबोध बच्चे के भूले की अबोधता में भीग रहा है। भीगता ही जा रहा है। बारिश में तो वह बहुत भीगा है , भीगता ही रहता है पर बम-बम भूले की अबोधता में ऐसे , इस तरह भीगने का कभी अवसर ही नहीं मिला था , जो आज मिल रहा है। यह अवसर भी अवर्णनीय है। वह शिशु इस भारी भीड़ में छटकते हुए , कूदते हुए चल रहा है। बम-बम भूले बोलता हुआ। बच्चा दरअसल शब्द नहीं , अर्थ समझ रहा है। भीग रहा है बारिश में भी , भोले की जय-जय में भी , भूले बोलता हुआ।
बनारस से भी कुछ युवा लड़कों का जत्था है। बिलकुल बनारसी अंदाज़ में हर-हर महादेव का जयकारा लगते हुए। ॐ नमः पार्वती पतये हर हर महादेव ! बोलते हुए। बिलकुल बम-बम अंदाज़ है। ग़रीब भी हैं , अमीर भी। महाराष्ट्रियन , राजस्थानी , गुजराती , मलयाली , तमिलियन , कन्नड़ , बिहारी हर कहीं से लोग हैं। कुछ अकेले हैं , दो लोग हैं , सपरिवार हैं तो कुछ जत्थे बनाए हुए हैं। स्त्री-पुरुष सभी के लिए एक ही लाइन है। सो कुछ लाइनबाज़ भी हैं। युवा स्त्रियों से अनायास का अभिनय करते हुए , सायास सटते हुए। कुछ स्त्रियां भीड़ के कारण बर्दाश्त कर ले रही हैं , कुछ बिदक कर भी चुप हैं तो कुछ भड़क भी रही हैं। अचानक एक लड़की किसी पर भड़कती हुई बोलती है , हिंदू हो कि जेहादी !
' हिंदू हूं बहन ! ' वह हाथ जोड़ते हुए हकलाता है , ' माफ़ करना ! ' कह कर वह ठिठक जाता है। लड़की अपने परिवारीजन के साथ आगे बढ़ जाती है। वह धीरे-धीरे चलते हुए पीछे होता जाता है। अचानक एक पेड़ मिलता है , बीच बैरिकेटिंग में। पेड़ के कारण वहां थोड़ी अतिरिक्त जगह भी है। दो-तीन लोग वहां भी प्रसाद बेचते मिलते हैं। पत्नी कहती हैं , ' हम लोगों ने प्रसाद तो ख़रीदा ही नहीं। '
' यहां का मुख्य प्रसाद क्या है जानती हो ? '
' नहीं। '
' शराब है। ' वह जोड़ता है , ' ले आऊं ?
' नहीं-नहीं ! ' पत्नी बिदकती हुई बोलती है।
फिर भी वह इन युवाओं से प्रसाद का एक लड्डू वाला डब्बा और फूल ले लेता है। डलिया सहित। बिना मोलभाव के। यह युवा छाता भी बेच रहे हैं। पूछता है वह पत्नी से कि , ' छाता ले लें ? '
' बुरी तरह भीग तो गए हैं। अब क्या फ़ायदा ? '
फिर भी वह मोलभाव में लग जाता है। दो सौ वाला छाता , छ सौ का दे रहा है। कुछ भी कम करने को तैयार नहीं है। वह हाथ जोड़ लेता है। वापस मुड़ता है तो पाता है कि पत्नी आगे निकल गई है। दिखती नहीं। फूल और लड्डू के पैसे दे कर बिना छाता लिए वह आगे बढ़ता है। मद्धिम बारिश फिर तेज़ हो गई है। वह तेज़ी से आगे बढ़ना चाहता है। बारिश से भी ज़्यादा तेज़। लेकिन भीड़ है कि रोक-रोक लेती है। बढ़ने नहीं देती। भीड़ जैसे यकायक ठहर सी गई है। एक सूत नहीं बढ़ रही। बम-बम भोले , हर-हर महादेव का जयकारा तेज़-तेज़ शुरू हो जाता है। बारिश से भी ज़्यादा तेज़। लेकिन उसे न तेज़ बारिश की चिंता है , न जयकारे का जोश है। चिंता है पत्नी की। चिंता है कि भीड़ की भगदड़ में पत्नी कहीं चोटिल न हो जाए। कहीं फिसल कर गिर न जाए। भीड़ में कुचल न जाए। गुम न हो जाए। उस से उस के बुढ़ापे का सहारा न छिन जाए। बुढ़ापे की सब से बड़ी छड़ी , सब से बड़ा सहारा पत्नी ही तो होती है। वह इस लिए बहुत परेशान है। जयकारा लगा रही भीड़ से हाथ जोड़ता है कि उसे आगे जाने दिया जाए। जयकारा लगा रहे युवकों से हाथ जोड़ कर कहता है , ' मुझे आगे जाने दीजिए। मेरी पत्नी आगे निकल गई हैं। उन के पास तक जाना है ! '
' हां-हां अंकल आइए। ' एक युवक तिरछे खड़े हो कर रास्ता बनाते हुए कहता है , ' घबराइए नहीं आंटी मिल जाएंगी। ' वह ही नहीं , और भी युवा रास्ता बनाते हुए उसे आगे बढ़ने देते हैं। वह तेज़ी से आगे बढ़ता जाता है। थोड़ा और आगे जाते ही पत्नी दिख जाती हैं। वह चैन की सांस लेता है। मिलते ही कहता है , ' हम तो घबरा ही गए थे। चलो तुम मिल गई। अच्छा हुआ। '
' हम तो आप के साथ खड़े ही थे। अचानक भीड़ का रेला आया। मुझे भी आगे धकेल दिया। नहीं बढ़ती आगे तो लोग धकेल कर गिरा देते। भीड़ के पांव तले कुचल जाती। '
' अच्छा किया। ' वह बोला , ' पर बता कर आगे बढ़ी होती। '
' समय कहां मिला बताने के लिए ! ' वह बोली , ' भीड़ ने कुछ कहने-सुनने का समय कहां दिया ? '
' चलो कोई बात नहीं। '
भीड़ फिर ठिठक गई है। ऐसे कि जैसे बिजली चली गई हो। लाइट , पंखे , ए सी सब बंद। लेकिन बारिश बंद नहीं हुई है। बारिश और जयकारा दोनों ही ललकार रहे हैं। बम-बम भूले करते हुए वह अबोध बच्चा फिर दिख गया है। लोगों का जयकारा अलग है , उस का अलग। नितांत अलग। जब लोगों का जयकारा स्थगित होता है ज़रा देर के लिए , उस का बम-बम भूले सुनाई देने लगता है।
बीच बारिश भीड़ रुकी हुई है। कुछ लोगों के बीच बात शुरू हुई है। किसी ने पूछा है , ' कहां से ? '
' उत्तर प्रदेश। ' वह पूछता है , ' आप ? '
' हम भी उत्तर प्रदेश , बनारस से। और आप ?'
' अयोध्या से। ' कहते हुए वह तनिक सकुचाता है।
' लाज नहीं आती ?'
' आती तो है ! ' वह शर्म से धंस जाता है। कहता है , ' पर क्या करें ! जाने कैसे गड़बड़ा गया। '
' गड़बड़ा नहीं गया। ' बनारसी बिलकुल चढ़ाई करते हुए बोला , ' बेइज्जत करवा दिया देश को। नाक कटवा दिया सनातन का। '
' अब क्या कहें ? ' वह बुदबुदाया।
' तुम लोगों की हिम्मत कैसे होती है , कहीं जाने की और अयोध्या बताने की। '
वह दांत चियार कर चुप ही रहता है। लेकिन कोई एक तीसरा आदमी है जो अपने को मुंबई का बताता है। बनारस वालों को धौंसिया लेता है , ' तुम बनारस वालों ने भी कम पाप नहीं किया है। हराते - हराते रह गए पी एम को। ' बातचीत अब ज़्यादा बढ़ गई है। सभी पक्ष उत्तेजित हो चले हैं। लगता है अब हाथापाई हो जाएगी। कि तभी एक नया आदमी बहस में कूद पड़ा , ' कोई राजनीतिक बात नहीं। यहां बस बाबा की बात होगी। ' किसी न्यायाधीश की तरह निर्णय देते हुए वह हर-हर महादेव का जयकारा लगाने लगता है। चारो तरफ हर-हर महादेव का जयकारा होने लगता है। अचानक एक बनारसी जयकारा बदलते हुए बोलता है : ॐ नमः पार्वती पतये हर हर महादेव ! पार्वती पति महादेव को प्रणाम करने का यह जयकारा जैसे बारिश को समझ आ गया है।
बारिश अब मद्धिम हो कर रिमझिम-रिमझिम है। ऐसे जैसे कोई गीत गा रही हो। बूंदें ऐसे गिर रही हैं गोया गा रही हों : तनी धीरे खोलो केंवड़िया, रस की बूंदें पड़ें !
अयोध्या वाले युवा जानबूझ कर धीरे-धीरे पीछे होते गए हैं। ताकि बात और आगे न बढ़े। बनारसी युवा झुंड में थे। कई थे। अयोध्या वाले युवा दो ही थे। अगर मार पीट हो जाती तो इन्हें संभालने के लिए पुलिस भी पास नहीं थी। लोहे की बैरिकेटिंग पुलिस को जल्दी आने भी नहीं देती।
घूंघट काढ़े औरतों का एक झुंड गीत गाते हुए चल रहा है। लोकगीत गा रही औरतें भीगती हुई ऐसे गा रही हैं जैसे अपने गांव-घर से कोई संदेशा लाई हों और बाबा काल भैरव के मार्फ़त शिव जी को समर्पित कर देना चाहती हों। उन की सादगी , सरलता और समर्पण भाव अविरल है। मोहित करता है। वह सोचता है कि शहर चाहे जितना भी धावा गांव पर बोल ले , गांव इतनी जल्दी मरने वाला नहीं है।
कुछ नव विवाहित जोड़े हैं। अलग-अलग मिलते रहते हैं। दुल्हन चाहे कहीं की हो , उस का पहनावा , हाव-भाव बता ही देता है : ख़मोश लब हैं झुकी हैं पलकें दिलों में उल्फ़त नई नई है / अभी तकल्लुफ़ है गुफ़्तुगू में अभी मोहब्बत नई नई है। यह युवा जोड़े इस बात को छुपाना भी नहीं चाहते। कुछ माता-पिता के साथ दिखते हैं , कुछ बिना माता-पिता के। उन की चाहत , उन का इक़रार और इसरार इस बारिश से ज़्यादा है। उन्हें बारिश की नहीं , अपनी चाहत की चिंता है। उन के चाल में फुटबाल सी उछाल है। वालीबाल जैसी उछाह है। कोई - कोई तो गोल्फ़ की बॉल की तरह आसमानी उछाल लिए है। भीड़ , बारिश सब बेमानी है। आंखों में उमंग , हाथों में शराब की बोतल लिए यह विवाहित जोड़े जैसे कूद कर काल भैरव से मिल लेना चाहते हैं। भीड़ चलते-चलते जब-तब अचानक थम-थम जाती है। ऐसे जैसे कोई सेना की परेड हो और कमांडर बोल दे , ' परेड थम ! ' और लोग थम से जाते हैं। यह सिलसिला रह-रह चलता रहता है। तो भीड़ एक बार थम जाती है। एक अधेड़ आदमी सपत्नीक दर्शन के लिए आया है। फ़ोन पर किसी को बता रहा है , ' महाकाल में बहुत आसानी से दर्शन हो गया। एक दोस्त की मदद से प्रोटोकाल मिल गया था। पुलिस वाला बिना किसी लाइन के ले जा कर सीधे महाकाल के दर्शन करवा दिया। शिवलिंग के पास जा कर शिव जी को स्पर्श तो नहीं करने दिया गया। बेलपत्र आदि भी नहीं चढ़ाने दिया। शिवलिंग तक जाने की किसी को अनुमति अब नहीं है। पर शिवलिंग के सामने शिव जी के नंदी के पास बिठा दिया हम दोनों को। लगभग दस मिनट तक बैठ कर महाकाल के दर्शन कर विभोर हो गए। वह बता रहा था कि पर भैरव बाबा के यहां प्रोटोकाल की व्यवस्था ही नहीं है क्या करें। लाइन में फंसे पड़े हैं। लंबी लाइन। जब यहां आए तो लंबी लाइन देख कर दोस्त को बताया कि यहां भी प्रोटोकाल दिला दे। तो वह बोला कि ज़्यादा दिक़्क़त हो तो हाथ जोड़ कर वापस आ जाइए। लेकिन वाइफ बोलीं कि जब यहां तक आ गए हैं तो भैरव बाबा से मिल कर ही हाथ जोड़ते हैं। अब लगे हैं लाइन में। जैसे सारा देश ही आ गया है दर्शन को ! एक दूसरा आदमी बता रहा है , यहां तो कुछ भी नहीं है। तिरुपति गया था। आठ घंटे लाइन में लगे रहे , तब दर्शन हुआ। थक कर चूर हो गए। अनेक लोग हैं , अनेक क़िस्से। वैष्णो देवी से लगायत महाकुंभ तक के।
एक आदमी है लंबा सा। रेन कोट पहन कर आया है। सिर से ले कर पांव तक। उस के आगे-आगे चल रहा है। आगे एक कंधा पकड़ कर चल रहा है। कुछ भी हो जाए , उस का कंधा नहीं छोड़ता। उस की परछाईं की तरह चल रहा है। हिलोरें मारता हुआ। कई सारे जोड़े हैं जो चिपक कर चल रहे हैं। कुछ नवविवाहित हैं। लासा की तरह एक दूसरे से लिपटे हुए। चिपटे हुए। युवा स्त्रियों का पहनावा , हाथ में भरी चूड़ियां , लचक-लचक कर चलना , सिहरना और इस बारिश में भी बेख़बर चल रही हैं। मादकता ओढ़े हुई। पर लाज भी ओढ़े हुई हैं। उच्छृंखल नहीं हो रहीं। पर यह आदमी तो लासा नहीं , फेविकोल की तरह चिपका हुआ चल रहा है। वह पत्नी से बुदबुदा कर कहता भी है कि यह तो अति किए हुए है। लेकिन पत्नी ऐसी बातें नहीं सुनतीं। टाल जाती हैं। सर्वदा की तरह यहां भी टाल गई हैं। पत्नी को लगता है कि ऐसी बातें करने और सुनने से पाप पड़ता है। और जब अति की भी अति हो जाती है तो वह किसी तरह उस व्यक्ति से आगे निकल लेता है। थोड़ी देर बाद वह पीछे मुड़ कर उसे देखता है तो पाता है कि जिस के कंधे से चिपका वह लंबा व्यक्ति चल रहा है , वह भी स्त्री नहीं , पुरुष ही है। फिर थोड़ी देर बाद वह पाता है कि वह लंबा व्यक्ति मज़बूरी में उस के कंधे से चिपका चल रहा है। उस के एक पांव में कुछ समस्या है। यह देख कर वह ख़ुद को धिक्कारता भी है। और जगह मिलते ही पत्नी का हाथ पकड़ कर धीरे से आगे , और आगे बढ़ जाता है। भीड़ अच्छे अच्छों को अंधा बना देती है।
बारिश अचानक तेज़ हो गई है। मोटी - मोटी बूंदें आवाज़ भी बहुत तेज़ कर रही हैं। सावन भले है पर क्षिप्रा नदी के तट पर यह घनघोर बारिश आषाढ़ के दिन की याद दिलाती है। कालिदास की प्रेयसी मल्लिका की याद दिलाती है। आषाढ़ के पहले दिन की बारिश में भीगते हुए ही सहसा दोनों प्रेम में पड़ जाते हैं। वह सोचता है कि कालिदास और मल्लिका दोनों बारिश में न भीगते तो क्या प्रेम में नहीं पड़ते ? क्या तो प्रेम था। कि मल्लिका कालिदास के लिए अपने हाथ से सिल कर कोरे भोजपत्र का एक ग्रंथ तैयार करती है कि जब कालिदास से मिलेगी तो उन्हें देगी कि इस पर वह अपना कोई महाकाव्य लिखें। पर मिलन की प्रतीक्षा लंबी है। मिलते भी हैं कालिदास मल्लिका से तो तब तक वह भोजपत्र जगह-जगह से कटने और फटने लगा है। मल्लिका अफ़सोस से यह बात बताती है। लेकिन कालिदास देखते हैं कि भोजपत्र जगह - जगह स्वेद कण से मैले हो गए हैं। पानी की बूंदें पड़ी हैं। फूलों की सूखी पत्तियों ने अपने रंग छोड़ दिए हैं। कई जगह मल्लिका के दांत गड़ने के निशान हैं। कालिदास कहते हैं मल्लिका से कि यह पृष्ठ कोरे नहीं हैं। यह जो जगह - जगह पानी की बूंदें हैं , पानी की बूंदें नहीं , तुम्हारे आंसुओं की बूंदे हैं। तुम्हारे आंसुओं की बूंदों ने , आंखों की कोरों ने कई-कई सर्ग लिख दिए हैं। अनंत सर्गों के साथ तुम इन पर महाकाव्य की रचना कर चुकी हो। यह पृष्ठ कोरे नहीं हैं। महाकाव्य की रचना हो चुकी है।
तो अपने ग्राम प्रांतर में बैठी क्या मल्लिका अभी भी महाकाव्य रच रही है , उन भोजपत्रों पर अपने आंसुओं से। यह बारिश नहीं , मल्लिका के आंसू हैं ? जो उज्जैन तक आ रहे हैं। जहां कालिदास उपस्थित हैं। क्या कश्मीर भी जा रहे होंगे यह बादल बरसने के लिए जहां कालिदास ने शासन किया।
क्या पता ?
लेकिन मल्लिका के आंसू हैं कि ख़त्म ही नहीं होते।
अब तक तमाम पड़ाव पार करते हुए वह मंदिर की सीढ़ियों पर उपस्थित है। हर - हर महादेव का जयकारा ज़ोर पकड़ चुका है। मल्लिका के आंसू और महादेव के जयकारे में जैसे होड़ सी लगी हुई है। सीढ़ियों के ऊपर छत है। लेकिन सीढ़ियां पानी से भीगे हुए लोगों के निरंतर आते जाने से गीली हो गई हैं। फिसलन हो गई है। बहुत संभल-संभल कर वह चल रहा है। पत्नी का हाथ पकड़ लिया है। अपने से ज़्यादा पत्नी को संभालने की फ़िक्र है। पत्नी की हड्डियां बहुत कमज़ोर हैं। गिर गई तो कठिनाई बढ़ जाएगी। अलग बात है पत्नी को इस की फ़िक्र नहीं है। भक्ति की भावना , महादेव का जयकारा और मंदिर में पहुंच जाने का उत्साह है। गिरने - पड़ने की कोई चिंता नहीं। दर्शन करने का नंबर लगभग आ चुका है। स्त्री और पुरुष की लाइन मंदिर के कार्यकर्ताओं ने अलग - अलग करवा दी है। लोगों के हाथ में शराब की बोतलें हैं। हमारे हाथ में पुष्प और मिष्ठान। चढ़ाने के लिए सर्वदा की तरह पुष्प और लड्डू की डलिया पत्नी को थमा देता है। हाथ में शराब की बोतल न देख कर पुजारी मुस्कुराता है। शीश झुकाने पर पीठ पर आशीष जमा कर माथे पर टीका लगा देता है। हाथ में प्रसाद दे देता है। एक कार्यकर्त्ता धीरे से सब को आगे की तरफ बढ़ा देता है। भीड़ का दबाव बहुत है। ज़रा नीचे और मंदिर हैं। वहां दर्शन आसान है। भीड़ कम है। मंदिर से निकल कर लोग पीछे की सीढ़ियों से नीचे उतर रहे हैं। सीढ़ियों के बाद नीचे सड़क नई बनी हुई है। उखड़ी हुई सड़क की छोटी-छोटी गिट्टियां पांव में चुभ रही हैं। नंगे पांव चलते नहीं बन रहा है। अभ्यास नहीं है इस तरह , नंगे पांव चलने का। तब तक ड्राइवर दिख गया है। कहता है सर , यहीं रुकें। कार यहीं ले आता हूं। वह कार ले कर आता है। पर चप्पल एक दुकान पर हैं। जा कर लाता है। मल्लिका के आंसू सहसा थम गए हैं। पूरा बाज़ार भीग कर जैसे सहमा हुआ सा दिखता है। लेकिन लोगों में उल्लास है। मंदिर जाने वालों का तांता अभी भी लगा हुआ है। महादेव के जयकारों का सिलसिला बढ़ता ही जा रहा है। बुरी तरह भीगा हुआ एक आदमी कह रहा है , शिव जी ने सारी गंगा यहीं उतार दी है। यह भीगना भी अलग - अलग है। आंसू है , बारिश है और गंगा भी। वह भी पौराणिक नदी क्षिप्रा के तट पर। कुंभ ऐसे ही लगता है। दुनिया ऐसे ही जगमग होती है। इस जगमग में भीगना ही महत्वपूर्ण है। कोई प्रेम में भीग रहा है , कोई भक्ति में। कोई दोनों में। बरसे कंबल भीजे पानी वाली बात भी है। सुख बहुत है इस भीगने में।
जय हो बाबा कालभैरव !
सहसा वह नन्हा बच्चा भी दिख गया है जो भरी भीड़ में अकसर बम-बम भोले की जगह बम-बम भूले का जयकारा लगा रहा था। उसे देखते ही वह प्यार से बोलता है : बम-बम भूले ! उस की मां मुस्कुराने लगती है। हंसने लगती है अपने बच्चे के भोलेपन पर। मां की यह नैसर्गिक हंसी अनमोल है।
[ पाखी , फ़रवरी-मार्च , 2025 अंक में प्रकाशित ]