Monday, 24 February 2025

कामरेड समरेश बसु और फ़िल्मकार विमल रॉय का अमृत कुंभ !

दयानंद पांडेय 


बांग्ला भाषा के मशहूर लेखक कामरेड समरेश बसु का एक मशहूर उपन्यास है अमृता कुंभेर संधाने। यानी अमृत कुंभ की खोज। इस अमृत कुंभ उपन्यास का नायक ग़रीब है पर प्रयाग में कुंभ नहाने की बड़ी इच्छा है। पैसे के अभाव में कुंभ नहीं जा पाता। पर अगले कुंभ की प्रतीक्षा में प्रयाग जाने के लिए पैसा बटोरता रहता है। वृद्ध हो जाता है। बीमार हो जाता है। पर प्रयाग में कुंभ नहाने की उस की इच्छा जीवित रहती है। वह कुंभ नहाने प्रयाग जाता भी है। ट्रेन में बहुत कठिनाई उठाते हुए , संघर्ष करते हुए , कुंभ के दिन प्रयाग पहुंचता है। कुंभ के दिन ही उस की मृत्यु हो जाती है। प्रसिद्ध फ़िल्मकार विमल रॉय को समरेश बसु का यह उपन्यास , इस की कहानी बहुत पसंद आई।

विमल रॉय ने अमृत कुंभ नाम से इस पर फ़िल्म बनाने की योजना बनाई। वह फ़िल्म की तैयारी में ही थे कि बीमार रहने लगे। जांच में पता चला कैंसर है। फिर भी अमृत कुंभ फ़िल्म पर काम करना नहीं छोड़ा। प्रयाग जाने और वहां जा कर शूटिंग करने लायक़ नहीं रह गए। लेकिन अपने असिस्टेंट डायरेक्टर गुलज़ार और कैमरा मैन कमल बोस को प्रयाग भेजा प्रयाग में मेले की आऊटडोर शूटिंग के लिए। गुलज़ार प्रयाग गए और शूट कर लौटे। पर तब तक विमल रॉय की तबीयत और बिगड़ गई थी। लेकिन उठते - बैठते , सोते - जागते , विमल रॉय अपनी फ़िल्म अमृत कुंभ ही सोचते। अमृत कुंभ की ही बात करते। विमल रॉय कैंसर के बावजूद सिगरेट पीना नहीं छोड़ सके थे। डाक्टर आ कर बहुत सख़्ती से सिगरेट पीने के लिए मना कर जाता। पर डाक्टर के जाते ही वह सिगरेट सुलगा लेते।

सिगरेट सुलगाते और उन के भीतर अमृत कुंभ सुलगता रहता था। घर वाले , मित्र , शुभचिंतक और उन की टीम सिगरेट न पीने के लिए डाक्टर की हिदायत की उन्हें याद दिलाते रहते। विमल रॉय कहते , डाक्टर बेवकूफ है। वह कुछ नहीं जानता। उन दिनों विमल रॉय के स्वास्थ्य के बारे में एक जगह गुलज़ार ने लिखा है। विमल रॉय सोफे पर बैठे रहते। उन्हें देख कर लगता कि जैसे कोई कुशन रखा हो , सोफे पर। गरज यह कि विमल रॉय का वज़न बहुत कम हो गया था। बहुत दुबले हो गए थे। पर अमृत कुंभ और उस का नायक जैसे उन के भीतर बैठ गए थे। बाहर निकलते ही नहीं थे। विमल रॉय कहते थे कि इसे पढ़ कर लगता है, मानो समरेश के पात्रों के साथ मैं भी अमृत की तलाश में कुंभ पहुंच गया हूं। बावजूद इस के अमृत कुंभ का काम पिछड़ता ही गया। संयोग देखिए कि जैसे अमृत कुंभ का नायक सर्वदा कुंभ सोचते हुए प्रयाग में देह छोड़ गया , विमल रॉय भी 1966 में कुंभ शुरू होने के समय ही उपन्यास के नायक की तरह बीच कुंभ में ही देह त्याग गए। अमृत कुंभ उन के मन में इतना बस गया था l

क़ायदे से गुलज़ार को अपने गुरु की याद में , उन की इच्छा के सम्मान में अमृत कुंभ फ़िल्म बना कर पूरी करनी चाहिए थी। लेकिन जाने क्यों नहीं की। वही जानें। क्यों कि इस बारे में गुलज़ार ने न कभी कहीं लिखा , न कुछ कहा। काफ़ी समय बाद विमल रॉय के बेटे जॉय ने फ़िल्मकार यश चोपड़ा की मदद से गुलज़ार द्वारा शूट कराए गए फुटेज से ग्यारह मिनट की एक डॉक्यूमेंट्री तैयार की। हां , बांग्ला फ़िल्मकार दिलीप रॉय ने ‘अमृता कुंभेर संधाने’ नाम से ही बांग्ला में एक फ़िल्म बनाई। यह फ़िल्म 1982 में रिलीज़ हुई थी जिसमें शुभेंदु चटर्जी, अपर्णा सेन, भानु बंदोपाध्याय, रूमा गुहा ठकुरता और समित भांजा ने काम किया था।

विमल रॉय भारतीय सिनेमा के चुनिंदा फ़िल्म निर्देशकों में शुमार हैं। एक से एक क्लासिक फ़िल्में उन के खाते में दर्ज हैं। कहानी , अभिनेता आदि चुनने में वह बहुत सतर्क रहते थे। वाकये कई सारे हैं। पर अभी यहां एक क़िस्सा सुनाता हूं। पचास के दशक की बात है। विमल रॉय दो बीघा ज़मीन की तैयारी कर रहे थे। बलराज साहनी उन दिनों बड़े अभिनेता थे। रंगमंच में उन का बड़ा नाम था। बी बी सी में मशहूर एनाउंसर रहे थे। शांति निकेतन में पढ़ा चुके थे। विद्वान आदमी थे। उन को जब पता चला दो बीघा ज़मीन के बारे में तो वह विमल रॉय के पास पहुंचे। सूटेड-बूटेड , टाई बांधे बलराज साहनी को विमल रॉय ने सेकेंड भर में रिजेक्ट कर दिया। कहा कि इस फ़िल्म में तुम बिलकुल नहीं चलेगा। ग़रीब किसान और हाथ रिक्शा खींचने वाले की कहानी है यह। [ पश्चिम बंगाल में हाथ रिक्शा होता था , जिस में घोड़े की जगह आदमी ही रिक्शा खींचते हुए दौड़ता रहता था। ] तुम सूटेड - बूटेड उस में क्या करेगा ?

बलराज साहनी ने विमल रॉय की बात का बुरा नहीं माना। विमल रॉय की बात को चुनौती के रूप में लिया। कोलकाता चले गए। कुछ महीने नंगे पांव रह कर हाथ रिक्शा खींचा। किसान और मज़दूर के चरित्र को समझा। और एक दिन अचानक मुंबई में विमल रॉय के सामने रिक्शा वाला बन कर नंगे पांव उपस्थित हो गए। विमल रॉय उन्हें देखते ही उछल पड़े। बलराज साहनी को वह पहचान नहीं पाए पर बोले , बिलकुल ऐसा ही एक्टर चाहिए दो बीघा ज़मीन के लिए। विमल रॉय ने निर्देशन में और बलराज साहनी ने अभिनय में प्राण फूंक दिया दो बीघा ज़मीन में। निरुपा रॉय हीरोइन थीं। शैलेंद्र के दिलकश गीत थे। मीना कुमारी गेस्ट आर्टिस्ट। मीना कुमारी पर फ़िल्माया गया एक लोरी गीत जैसे आज भी मन में बसा हुआ है। आजा री आ निंदिया तू आ ! दुनिया है मेरी गोद में , पूरा हुआ सपना मेरा !

1953 में फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार से नवाजी गई दो बीघा ज़मीन। कान महोत्सव में भी सम्मानित हुई।

एक क़िस्सा बंदिनी का भी सुन लीजिए। बंदिनी के समय नूतन को जब विमल रॉय ने हीरोइन का ऑफर दिया तो वह गर्भवती थीं। मोहनीश बहल पेट में थे। नूतन ने मना कर दिया। विमल रॉय ने कहा कि सारी फ़िल्म ही तुम्हीं को सोच कर प्लान किया है। नूतन ने फिर भी मना कर दिया। तो विमल रॉय ने कहा , कोई बात नहीं , फिर हम भी यह फ़िल्म नहीं बनाएगा। और बड़ी गंभीरता से कहा। नूतन ने इस बात की चर्चा अपने पति से की। पति सोच में पड़ गए। फिर नूतन से कहा कि जब ऐसी बात है तो यह फ़िल्म कैसे भी कर लो। नूतन ने बंदिनी फ़िल्म की। 1963 में रिलीज हुई और आज तक चर्चा में है। नूतन की पहचान बहुत लोग बंदिनी से ही करते हैं। बंदिनी को भी फिल्म फेयर मिला।

देवदास , बंदिनी , सुजाता , मधुमती , परिणीता जैसी तमाम क्लासिक फिल्मों के निर्देशक विमल रॉय ही नहीं , अमृत कुंभ के लेखक समरेश बसु के बारे में भी थोड़ा सा जानिए। जानिए कि वह कम्युनिस्ट थे। फिर भी अमृत कुंभ जैसी कालजयी रचना लिखी। समरेश बसु दरअसल ट्रेड यूनियन नेता थे। ट्रेड यूनियन में काम करते हुए कम्युनिस्टों के साथ संपर्क में आए और कम्युनिस्ट हो गए। विचारों से ही नहीं कर्म से भी कम्युनिस्ट थे। मज़दूर आंदोलनों में जेल भी गए। जेल से निकल कर कहानी लेखक बन गए। उन की कहानियों पर बांग्ला ही नहीं , हिंदी में भी कई सफल फ़िल्में बनी हैं। एक बार एक बांग्ला पत्रिका के लिए कवरेज करने के लिए वह प्रयाग के कुंभ में आए। समरेश बसु की नियमित रिपोर्ट पढ़ - पढ़ कर ही विमल रॉय आनंदित थे। बाद में उन्हीं रिपोर्टों को आधार बना कर समरेश बसु ने बांग्ला में अमृता कुंभेर संधाने उपन्यास लिखा। जो ख़ूब चर्चित हुआ। आज तक चर्चित है। ख़ैर , एक कामरेड समरेश बसु को देख लीजिए , जो जनता - जनार्दन की नब्ज़ जानते थे। आस्था , परंपरा और विरासत भी जानते थे। आज के हिप्पोक्रेट वामपंथियों के तरह किसी मंगल ग्रह से तो आए नहीं थे। जन से जुड़े थे। जन को जानते थे। दूसरी तरफ आज नाली में पड़े कीड़ों की तरह बजबजाते वामपंथियों को देख लीजिए। कुंभ को ले कर क्या तो मातम है। क्या तो मुसलसल विष - वमन है।

लेखन क्या होता है , पत्रकारिता क्या होती है , विचार क्या होता है , कमिटमेंट क्या होता है , समझ आ जाएगा।

तथ्यों को छुपाने , भ्रामक सूचनाएं और नफ़रत फैलाना , विष - वमन करना ही आज के हिप्पोक्रेट वामपंथियों का पथ्य बन गया है। सेक्यूलरिज्म के फ़ैशन में श्वान बन चुके बाकियों का हाल और बुरा है।

देश की लगभग आधी आबादी कुंभ नहा चुकी है l पर कुंभ की सफलता को ले कर यह लोग इतने बौखलाए हुए हैं कि निरंतर प्रश्न पूछ रहे हैं कि अम्मा , हमारे पिता जी कौन हैं ? और अम्मा हैं कि मुसलसल चुप हैं, इन के इस बेहूदा सवाल से l अम्मा इस अपमानजनक प्रश्न से छुब्ध हैं l

सवाल ज़रूरी हैं , सत्ता और व्यवस्था से l पर इस तरह और इतना भी ज़रूरी नहीं कि माँ से पिता का सुबूत मांगना पड़ जाए l नाम पूछना पड़ जाए l

अरे कुंभ नहीं पसंद है , कोई बात नहीं l गोली मारिए , कुंभ को l पर नाग बन कर , फ़न काढ़ कर , नित्य प्रति , क्षण -क्षण खड़े रहना इतना ज़रूरी है ?

चुप रहना भी एक कला है l

हां , विमल रॉय भी कोई हिंदुत्ववादी नहीं थे। संघी आदि नहीं थे। जीनियस डायरेक्टर थे। दिलीप कुमार को मेथड एक्टिंग में मास्टर बनाने वाले विमल रॉय ही थे। गुलज़ार को गीतकार और डायरेक्टर बनाने वाले भी। उन के कई सारे असिस्टेंट बाद में नामी डायरेक्टर बने। यथा हृषिकेश मुखर्जी। अभिनेता , अभिनेत्री तो बहुत ही। विमल रॉय अपने आप में भारतीय सिनेमा के एक बड़े स्कूल हैं l

एक महत्वपूर्ण बात यह कि अगर यही
अमृता कुंभेर संधाने कामरेड समरेश बसु ने आज़ की तारीख़ में लिखा होता तो अब तक कब के कट्टर संघी , हिंदुत्ववादी आदि घोषित हो चुके होते l विमल रॉय भी नहीं बचते l

बचते क्या ?

Thursday, 20 February 2025

दिल्ली में यमुना का तनाव तंबू

दयानंद पांडेय


वर्ष 1981 में दिल्ली रहने लगा था l नौकरी मिल गई थी l संयोग से शुरू -शुरू में यमुना पार यमुना नदी के किनारे ही बसे कैलाश नगर के श्याम ब्लॉक में रहता था l घर की छत से यमुना नदी साफ़ दिखती थी l पुराना लोहे का पुल भी l बांध से सटा हुआ घर था l सुबह मेरी तब भी थोड़ी देर से होती थी l तब भी गोरखपुर में रोज़ नदी नहाने और तैरने की आदत थी l एक सुबह रोक नहीं पाया पहुंच गया यमुना के तट पर l कुछ लोग नहा रहे थे l कुछ लोग पास ही अखाड़े में कुश्ती आज़मा रहे थे l कुश्ती भी जानता था तब l लेकिन मेरी दिलचस्पी नदी में तब तैरने में थी l सो आव देखा न ताव l कपड़े उतार कर सीधे नदी में कूद गया l नदी में कूदते ही अफ़नाया l पानी की बदबू ने जैसे प्राण ले लिए l पानी में तैरती गंदगी ने बेचैन कर दिया l तुरंत यमुना से बाहर निकल आया l

घर आ कर साबुन लगा कर रगड़-रगड़ कर बड़ी देर तक नहाता रहा l उस दिन दफ़्तर नहीं गया l बार-बार नहाता रहा l लेकिन दिल्ली के यमुना की दुर्गंध और गंदगी मन से नहीं गई l हफ़्ते भर तक बार-बार नहाता रहा l सब कुछ छोड़ नहाना ही सोचता रहा l भोजन करते नहीं बनता था l अभी भी जब यह पोस्ट लिख रहा हूं , वह दुर्गंध और गंदगी जैसे तैर कर मन में समा गई है l जब भी उस दिन को याद करता हूं , बेचैन हो जाता हूं l जैसे कोई दुःस्वप्न हो l फिर जा कर नहा लेता हूं।

एक बार एक मित्र के साथ तब की दिल्ली की यमुना में नौका विहार भी किया l मज़ा नहीं आया l कारण यमुना की गंदगी ही थी l नाव में बैठ कर न कुछ खाते बना , न कुछ करते बना l तय समय से पहले ही नाव छोड़ दिया l

कुछ अंतिम यात्रा में जब भी कभी दिल्ली के निगम बोध घाट गया , वहां भी गंदगी का साम्राज्य मिला l सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का शवदाह बिजली वाले शवदाह में हुआ l तो दिक़्क़त नहीं हुई l लेकिन तब के दिनों लोगों को इस का अभ्यास नहीं था l अपवाद ही थे विद्युत शवदाह गृह में जाने वाले l अब भी यह संख्या बहुत कम है l

तो दिल्ली में यमुना की गंदगी के जो किस्से और तराने चल रहे हैं , यह सिर्फ़ केजरीवाल की देन नहीं है l अब तक के सारे शासकों की कृपा है l केजरीवाल की चूक सिर्फ़ इतनी है कि वह सिर्फ़ माऊथ कमिश्नरी ठोंके रहा l किया कुछ भी नहीं l

रेखा गुप्ता भी मैली यमुना में सफ़ाई की कोई रेखा , कितनी खींच पाएंगी , यह देखना भी दिलचस्प होगा l इस लिए भी कि नाम भले रेखा का हो , असल काम तो यमुना की सफाई का , मोदी को ही करना है l क्यों कि साबरमती की सफाई अभी भी चुनौती बन कर उपस्थित है l यमुना तो बस बदनाम है l देश की सारी की सारी नदियां बहुत मैली हैं l लेकिन मां हैं l बस बहता पानी नहीं है l

करें भी तो क्या करें ? उद्योगपतियों के लिए कोई सख़्त क़ानून जो नहीं है l उद्योगपतियों ? अरे, नगर निगम और अस्पतालों के लिए भी नहीं है कोई सख़्त क़ानून l

आदमी तो ख़ामख़ा बदनाम है l असल पाप तो यही सब उद्योगपती धोते हैं नदियों में l और कभी पवित्र भी नहीं होते l न होंगे कभी l

रेखा गुप्ता के गले में प्रवेश वर्मा का पत्थर

दयानंद पांडेय


दिल्ली के रामलीला मैदान में आज शपथ ग्रहण से ले कर यमुना के वासुदेव घाट पर आरती तक के दृश्य देख कर लगता है कि प्रवेश वर्मा , रेखा गुप्ता के गले में बंधा पत्थर साबित हो सकते हैं l रेखा गुप्ता को लगातार ओवरटेक करते हुए नज़रअंदाज़ करने की उन की अदा बहुत शुभ नहीं है l

मंज़र बहुत मंगलमय नहीं दिखता l प्रवेश वर्मा को लगता है जैसे मुख्य मंत्री पद उन से रेखा गुप्ता ने छीन लिया है l जब कि छीना मोदी ने है l फिर सुपर चीफ़ मिनिस्टर होने का गुरूर उन के चेहरे पर साफ़ पढ़ा जा सकता है l

यह ख़तरे की घंटी है l

आरती में तो ताबड़तोड़ कंप्टीशन से वह आजिज आ कर पीछे खिसक गईं l फिर आहिस्ता से बीच में कोई और आ गया l रामलीला मैदान में भी प्रवेश वर्मा की उपेक्षा , रेखा गुप्ता के सामने ही थी l बिलकुल निकट , आमने सामने होने पर भी प्रवेश ने रेखा को नहीं देखने का भाव चेहरे पर बनाए रखा l ऐसे में देखना दिलचस्प होगा कि रेखा गुप्ता , इस जाट नेता के गले में घंटी बांध कर क़ाबू कैसे करती हैं l इस लिए भी कि मुख्य मंत्री रेखा गुप्ता के लिए उन के पास आदर भाव नदारद है l ओवरटेक भाव प्रबल है l

उत्तर प्रदेश में केशव मौर्य और बृजेश पाठक की याद आती है l

Tuesday, 18 February 2025

विभास के आंगन में अभिनय के प्रेम की चांदनी

दयानंद पांडेय 


राज बिसारिया के निर्देशन में अनिल रस्तोगी और वेदा राकेश के अभिनय की त्रिवेणी का कमाल आज देखने लायक़ था विभास में। असल में जब अभिनय के दो बड़े हस्ताक्षर बाकमाल निर्देशक के निर्देशन में काम करते हैं तो विभास की चमक , उस का तेज़ सूर्य की तरह ही हो जाता है। चंद्रमा सा सुकून देता हुआ। विभास के आंगन में अभिनय के प्रेम की चांदनी तभी खिलती है। जो कि आज खिली। लखनऊ के वाल्मीकि प्रेक्षागृह में। 

डाक्टर अनिल रस्तोगी और वेदा राकेश के अभिनय की युगलबंदी में निबद्ध दो वृद्धों के प्रेम का आख्यान विभास , सचमुच अपने नाम के अनुरूप सुबह के समय गाए जाने वाले भैरव राग की ही तरह था। अपनी पूरी चमक और निःशब्द हो गई वीणा की तरह बजती विभास की प्रेम कथा हमें एक गहरे जल में ले जाती है। प्रेम के गहरे जल में। जहां सिर्फ़ साथ की अकुलाहट है। बिना किसी याचना , बिना किसी वासना के। एक सेनेटोरियम में एक विधुर डाक्टर और एक मरीज लेकिन परित्यक्ता स्त्री की यह प्रेम कथा प्रेम के गहन छोर पर ही छोड़ती मिलती है। अपनी पूरी मिठास , स्निग्धता और सुवास के साथ।

शुरुआत हिंदी फ़िल्मों की तरह दोनों के झगड़े से होती है। लेकिन आहिस्ता से जैसे कोई ट्रेन पटरी बदल दे। किसी और शहर जाती हुई ट्रेन किसी और शहर की ओर चल दे। प्रेम के नगर की तरफ। विभास की कथा भी आहिस्ता से पटरी बदल लेती है। बदलती हुई चलती रहती है। प्रेम की यह पटरी निरंतर बदलती रहती है। कभी इस नगर , कभी उस नगर। ओर भी प्रेम है , छोर भी प्रेम। मुंबई की बरसात है। बरसात क्या है , प्रेम की बरसात है। छाता है। समंदर का किनारा है। डाक्टर और एक अभिनेत्री के प्रेम की छाया समूचे विभास में किसी जलतरंग सी बजती रहती है। किसी इंद्रधनुष की तरह खिलती हुई। मुड़-मुड़ कर मिलती हुई। ठहर - ठहर कर सुलगती हुई। जा - जा कर लौटती हुई। जैसे कोई लौ हो , दिपदिपाती हुई। प्रेम ऐसे ही तो खिलता है , किसी गुलाब की तरह। गुलाब से ही दोनों के प्रेम का पाग बनता है और मद्धिम - मद्धिम ख़ुशबू में तिरता हुआ किसी रातरानी की तरह। बेला की तरह महकता और गमकता हुआ। 

कहानी सशक्त हो , अभिनय सधा हुआ हो और निर्देशन कसा हुआ तो नाटक ही नहीं शाम भी सुंदर बन जाती है। आज की शाम इतनी दिलक़श और दिलफ़रेब होगी , नहीं मालूम था। विभास ने यह शाम सुंदर की। राज बिसारिया अब नहीं हैं पर उन के ही निर्देशन में खेला गया नाटक विभास आज फिर खेला गया। रूसी नाटककार अलेक्सी अर्ब्यूज़ोव के नाटक ओल्ड वर्ल्ड का हिंदी एडाप्टेशन वेदा राकेश ने विभास नाम से किया है। वेदा राकेश ने न सिर्फ़ नाटक का एडाप्टेशन बहुत ही सरल लेकिन मोहक ढंग से किया है बल्कि इस नाटक के संवाद भी बहुत शक्तिशाली और संप्रेषणीय लिखे हैं। ऐसे जैसे पानी। पानी पर तैरती नाव की तरह ही विभास के दृश्यबंध भी हैं। वेदा राकेश पुरानी अभिनेत्री हैं पर संयोग ही है कि उन्हें मंच पर आज पहली बार बतौर अभिनेत्री देखा है। निःशब्द करने वाला वेदा राकेश का अभिनय इतना टटका और इतना विस्मयकारी था कि मन रोमांचित हुआ जाता था। रीता चौधरी के अभिनय में प्राण डालना कठिन सा था। लेकिन वेदा ने रीता को सजीव ही नहीं किया प्राणवान और सम्माननीय भी बनाया। जगह - जगह गायकी में वह गामक नहीं थी पर अभिनय की तासीर ने संभाल-संभाल लिया। 

रीता चौधरी की भूमिका में वेदा के सामने डाक्टर की भूमिका में डाक्टर अनिल रस्तोगी के अभिनय ने जैसे विभास को वैभव दे दिया। अनिल रस्तोगी के अभिनय में सुरीलापन और लचीलापन का जो कोलाज है , वह बहुत आसान नहीं है। हर नाटक की हर भूमिका में वह अपने को ऐसे परोसते हैं , गोया अभिनय नहीं कर रहे हों , पात्र न हों , वह जीवन ही उन का हो। विभास में भी वह डाक्टर की भूमिका में नहीं , डाक्टर ही बन गए थे। शुचिता पसंद और अनुशासन का क़ायल डाक्टर जब प्रेम की नदी में नहाता है तो कैसे तो सारी बेड़ियां तोड़ कर किसी मछली की तरह फुदकने लगता है। मदहोश हो कर नाचने लगता है किसी मोर की तरह। ट्विस्ट डांस करते हुए युवा बन जाता है। कोई वृद्ध भी प्रेम करते हुए कैसे तो युवा बन जाता है , विभास में अनिल रस्तोगी के अभिनय में निहारा जा सकता है। तब जब प्रेम उन के अभिनय में शैंपेन की तरह छलकने लगता है। ह्विस्की की तरह सारी हिचक तोड़ कर , नदी की तरह सारे बांध तोड़ कर प्रेम का पान चबाने लगता है। इतना कि दर्शक भी इस प्रेम में पुलकित और मुदित हो जाता है।  

अस्सी बरस से अधिक की इस उम्र में भी न सिर्फ़ अभिनय बल्कि देह की लोच भी अनिल रस्तोगी की देखने लायक़ है। एक दृश्य में प्रेम में मगन वह जिस तरह उछल कर बच्चों की तरह उछल कर लेट जाते हैं , वह दृश्य तो अनिर्वचनीय था। आलौकिक और निर्मल था। एक वृद्ध के प्रेम में यह उछाह की , ललक और लगाव की अदभुत अभियक्ति थी। प्रेम से लबालब अभिनय की इस आंच में जल ही जाना था दर्शकों को। अनिल रस्तोगी का अभिनय बहुत सारे नाटकों और फिल्मों में देखने का संयोग मिला है। पर यह नाटक उन का कुछ अलग सा था। उन का अभिनय कुछ अलग सा और अनूठा था। फिर भी मेरे लिए यह कह पाना बहुत कठिन है कि अनिल रस्तोगी का अभिनय बीस था कि वेदा राकेश का। गरज यह कि दोनों ही बीस थे। नाटक के एक दृश्य में शैंपेन भले नहीं उछली , ह्विस्की भी नीट पी गई। पर अभिनय में प्रेम की आवाजाही गहरे समंदर जैसी थी। मन में ख़ूब सारा शोर करती हुई सी लहरें थीं। अभिनय के विन्यास में लरजती हुई सी। 

इस नाटक का मंचन राज बिसारिया की याद में थिएटर आर्ट्स वर्कशाप ने उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी के वाल्मीकि प्रेक्षागृह में किया। 






Monday, 17 February 2025

फ़ेसबुक के नशे की बहुरंगी दुनिया

दयानंद पांडेय


फ़ेसबुक नशा है। शराब और शबाब की तरह। फ़ेसबुक इश्क़ भी है। बक़ौल ग़ालिब दिल ढूंढता है फिर वही फुरसत के रात दिन वाले फुरसतिया लोगों का चौराहा है। दिलक़श चौराहा। कम्युनिकेशन का एक बड़ा मीडियम भी। ऊब और उमंग का कोलाज। शराफ़त भी , शरारत भी। अगर कहूं कि फ़ेसबुक अपने आप में एक प्रयाग भी है। तो ग़लत न होगा। जाने कितनी नदियों का संगम है।

इस की शोखी और शेखी दोनों ही का अपना रंग है। हर्ष , विषाद , बधाई , दुश्मनी , शोक , संवाद सब इसी पर। अच्छे और दिलचस्प लोग ज़्यादा हैं यहां। विष वमन के अभ्यस्त और अराजक लोग कम। बहुत कम। लेकिन यह कम लोग ही ज़्यादातर लोगों को हलकान करने के लिए बहुत हैं। फिर मोदी वार्ड के मरीजों के क्या कहने। बिना किसी शुल्क , बिना किसी टैक्स के मनोरंजन करते हैं। विष-वमन के नित्य व्यसन की इन की हसरत फ़ेसबुक पर ही पूरी होती है। कहीं और नहीं। पर मोदी समर्थक इन पर भारी हैं। फ़ेसबुक पर अगर एजेंडा न हो , एकपक्षीय राजनीतिक टिप्पणियां न हों , तो बहुत से विवाद स्वत: अंतर्ध्यान हो जाएं। दिलों की दूरियां स्वाहा हो जाएं।

कुछ कड़ाकुल टाइप की स्त्रियां भी रंग में भंग करने के लिए उपस्थित हैं। अपने स्त्री अहंकार में चूर। जैसे पृथ्वी और फ़ेसबुक पर इसी के लिए उपस्थित हैं। बावजूद इस के फ़ेसबुक पर दिल की लगी भी है और दिल्लगी भी। आप के हिस्से और नसीब में क्या आता है , आप ही जानिए। मदिरालय के इस आंगन में किसिम - किसिम के जीव-जंतु हैं। आत्ममुग्ध भी हैं , लफ़्फ़ाज़ भी। ह्वेन आई वाज की दुनिया भी है। चोर और चार सौ बीस भी हैं। फ़ेसबुक के इस हमाम में बहुत से लोग अनायास अपनी पैंट उतारे उपस्थित हैं। नंगई की कोई सीमा नहीं है।

और इन दिनों तो रील की दुनिया भी है। लिखने - पढ़ने से ज़्यादा देखने और सुनने की दुनिया। इस रील में ज्ञान की दुनिया , मनोरंजन की दुनिया। गीत - संगीत की दुनिया। रंग-रंग की दुनिया। ऐसी बहुरंगी दुनिया फ़ेसबुक पर ही मिलती है। ऐसी बहुरंगी दुनिया किसी एक प्लेटफ़ार्म पर मेरी जानकारी में कोई और नहीं है। हो तो बताइए भी। हम भी स्वाद ले लें !

Friday, 14 February 2025

जुगानी भाई का जाना

दयानंद पांडेय 


भोजपुरी में वाचिक परंपरा के प्रबल और अनूठे वाहक , कभी आकाशवाणी गोरखपुर के स्टार रहे डाक्टर रवींद्र श्रीवास्तव जुगानी के विदा होने की ख़बर दुःखदाई है। बहुत दुःखदाई। गोरखपुर में जब आकाशवाणी का प्रारंभ हुआ तो गांव , किसान की पंचायत का चौपाल वाला कार्यक्रम शुरू हुआ। सुपरिचित कवि हरिराम द्विवेदी ने शुरू किया। उन के सहायक बने रवींद्र श्रीवास्तव। हरिराम द्विवेदी को यह नाम जम नहीं रहा था। कुछ लोगों ने उपनाम सुझाए। सभी नाम रद्द कर हरिराम द्विवेदी ने उन का नाम जुगानी रखा। जुगानी भाई ! जुगानी भाई नाम से रवींद्र श्रीवास्तव जम गए। ऐसा जमे कि वह ख़ुद भी भूल गए कि वह रवींद्र श्रीवास्तव भी हैं। बस आकाशवाणी के अपने कमरे के सामने लगे नेम प्लेट पर ही डाक्टर रवींद्र श्रीवास्तव रह गए। छा गए , भोजपुरी के आकाश पर जुगानी भाई। इतना कि हरिराम द्विवेदी भी उन से पीछे हो गए। नौकरी में वरिष्ठ थे हरिराम द्विवेदी पर लोकप्रियता में जुगानी भाई कोसों आगे निकल गए। युवा थे पर आकशवाणी पर किसी अनुभवी वृद्ध की तरह , पुरखे की तरह बतियाते थे। लोग उन्हें देखते थे , उन का पहनावा देखते थे तो चौंक जाते थे। सूटेड - बूटेड जुगानी भाई से लोग और प्यार करने लगते थे।

जुगानी भाई नाम की स्वीकार्यता ने उन्हें मान - सम्मान और भरपूर शोहरत , दौलत दी। नाम - इकराम दिया। फ़िल्म स्टारों जैसा ग्लैमर था उन का। लोग उन्हें देखने और सुनने के लिए तरसते थे। तड़पते थे। गांव में शाम को रेडियो खोल कर लोग जुगानी भाई को सुनने के लिए इकट्ठा हो जाते थे। खांटी भोजपुरी और उस के डिक्शन का खजाना और कि जैसे पैमाना बन गए थे जुगानी भाई। देखते ही देखते क्षेत्रीय कवि सम्मेलनों में भी उन की धाक जम गई। उन की भोजपुरी कविता में कोई ख़ास करंट नहीं था पर आकाशवाणी के जुगानी नाम में करंट बहुत था। 440 वोल्ट वाला। धुर देहात और कस्बों आदि के कवि सम्मेलनों में जुगानी भाई का नाम भीड़ खींच लेने की गारंटी था। विद्यार्थी जीवन में उन के साथ कुछ कवि सम्मेलनों में मैं भी सहभागी रहा हूं।

हालां कि उन दिनों भोजपुरी कविता और कवि सम्मेलन में त्रिलोकीनाथ उपाध्याय , कुबेरनाथ मिश्र विचित्र जैसे भोजपुरी के अनेक धुरंधर उपस्थित थे। त्रिलोकीनाथ उपाध्याय तो लाजवाब थे। कोई उन का शानी नहीं था। नौवो रस उन के पास थे। वह रेडियो भी थे और दूरदर्शन भी। पर भोजपुरी शब्दों का जो खजाना , ठसक और उस का इस्तेमाल जुगानी के पास था उस दौर में किसी भी के पास नहीं था। था भी किसी के पास था तो जुगानी ने छीन लिया था। उन की सहजता , सरलता और भोजपुरी की ठसक उन्हें सौ फ़ीसदी जुगानी भाई बना देता था।

वह सत्तर - अस्सी का दशक का ज़माना था। रेडियो का ज़माना था। वह जुगानी भाई का ज़माना था। भोजपुरिया स्वाभिमान का ज़माना था। जैसे कुछ लोग अंगरेजी में ही उठते -बैठते और सांस लेते हैं , ठीक वैसे ही जुगानी भाई सफारी सूट पहने भोजपुरी में ही उठते - बैठते , सांस लेते थे। अनपढ़ , किसान , मज़दूर जुगानी का दीवाना था। पढ़े - लिखे लोग भी जुगानी के जादू में खो जाते थे। उन के नाती - पोते भी अब सेटिल्ड हैं। उम्र हो गई थी , वाकर ले कर चलने लगे थे। जाना ही था। सब को जाना होता है। पर जाना किसी का भी हो , कैसे भी हो , दुःख देता है। जुगानी भाई का जाना भी दुःख दे गया है।

भोजपुरी में वाचिक परंपरा के लिए भी हम उन्हें याद रखेंगे।

फ़िराक़ गोरखपुरी के पट्टीदार थे जुगानी भाई । इतना ही नहीं , गोरखपुर शहर में भी फ़िराक के घर के पास ही उन का घर था। पर फ़िराक़ की तरह मुंहफट नहीं थे। भोजपुरी भदेसपन बहुत था जुगानी भाई में पर फ़िल्टर भी बहुत था उन के भीतर। कायस्थीय कमनीयता भी। सो सब से बना कर रहते थे। सब को साथ ले कर चलते थे। दहाड़ कर बोलते थे पर जितना बोलना चाहते थे , उतना ही बोलते थे। संयोग यह भी है कि जब उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान ने उन्हें लोकभूषण से सम्मानित किया तभी मुझे साहित्य भूषण मिला था। वह बहुत मगन थे। कार्यक्रम में हम लोग अगल - बगल ही बैठे थे। बतियाते रहे थे। बीते अगस्त , 2022 में गोरखपुर में यायावरी ने एक कार्यक्रम आयोजित किया था। यायावरी में जुगानी भाई को सम्मानित करने का सुअवसर मिला था। यह फ़ोटो तभी की है।

विनम्र श्रद्धांजलि !

Thursday, 13 February 2025

तो सूरमा भोपाली बनना छोड़ दें !

दयानंद पांडेय 


बहुत पहले फ़िराक़ गोरखपुरी से एक बार पूछा गया कि सब से बड़े दो शायरों के नाम बताइए। फ़िराक़ साहब बोले , सूरदास और तुलसीदास। और देखिए कि यह दोनों आज भी ख़ूब पढ़े जाते हैं। बिकते भी ख़ूब हैं। आप कह सकते हैं कि भक्ति में लोग पढ़ते हैं। पर क्या सचमुच ? सूर और तुलसी की रचनाएं , रचना नहीं धार्मिक हैं ? फिर कबीर , मीरा , मीर और ग़ालिब ? धूमिल और दुष्यंत के बारे में क्या राय है ? दिनकर , बच्चन और नीरज क्या नहीं पढ़े जा रहे ? पढ़े और सुने तो आप भी जाते हैं। अब अगर प्रकाशक बेईमान हों , चोर हों और लेखक कवि उन्हें पैसे दे कर किताब छपवाने लगें तो किसे दोषी मानेंगे ? बाइबिल मुफ़्त बांटी जाती है पर तुलसी की रामचरित मानस रोज बीस - पचीस हज़ार बिकती है। गीता प्रेस छाप नहीं पाता। चौबीसो घंटे छपाई चलती रहती है। डेढ़ सौ करोड़ की आबादी में अगर दस - बीस किताबों का संस्करण छपने की बात हो जाए तो यह क्या है ? पचीस - तीस बरस पहले किताबों की कुछ ख़रीद समितियों में रहा हूं। राजा राममोहन राय ट्रस्ट की ख़रीद समिति में भी। देखा है सारा गुणा भाग। उन दिनों प्रकाशक लेखकों को बहुत दुःख से बताते थे कि पांच सौ प्रतियों का संस्करण हो गया है। वह सही कहते थे। पर यह नहीं कहते थे कि यह पांच सौ प्रतियों का संस्करण सबमिशन एडिशन होता था। विभिन्न ख़रीद में सबमिशन के लिए यह पांच सौ प्रतियां भी कई बार कम पड़ जाती थीं। इस के बाद आर्डर का सिलसिला शुरू होता है। सैकड़ो , हजारो करोड़ की किताबें देश भर में सरकारें खरीदतीं हैं। प्रकाशक मालामाल होते रहते हैं। मनमोहन सरकार ने आर टी आई की सुविधा दी हुई है। कोई लेखक यह सुविधा इस्तेमाल क्यों नहीं करता। क्यों नहीं पूछता कि हमारी फला किताब कितनी खरीदी गई ? नियम है सरकारी खरीद में कि लेखक को न्यूनतम दस प्रतिशत रायल्टी दी जाए। लेखक से एन ओ सी दे प्रकाशक , तभी भुगतान होगा। लेकिन अस्सी प्रतिशत रिश्वत के रूप में कमीशन देने वाला प्रकाशक लेखक की एन ओ सी खुद ही दे देता है। भुगतान ले लेता है। लेखक को रायल्टी नहीं देता। 

निर्मल वर्मा ने अपने निधन के पहले एक लेख भी लिखा था इस मामले पर। इस लेख में उन्हों ने बताया था कि दिल्ली में हिंदी के कई प्रकाशकों को वह व्यक्तिगत रुप से जानते हैं। जिन के पास हिंदी की किताब छापने और बेचने के अलावा कोई और व्यवसाय नहीं है। और यह प्रकाशक कहते हैं कि किताब बिकती नहीं। फिर भी वह यह व्यवसाय कर रहे हैं। न सिर्फ़ यह व्यवसाय कर रहे हैं बल्कि मैं देख रहा हूं कि उन की कार लंबी होती जा रही है, बंगले बड़े होते जा रहे हैं, फ़ार्म हाऊसों की संख्या बड़ी होती जा रही है तो भला कैसे?

मेरा पहला उपन्यास जब छपा था तो कह सुन कर उस की समीक्षा कई जगह छपवा ली। अच्छी-अच्छी। कुछ जगह अपने आप भी छप गई। तो मेरा दिमाग थोड़ा खराब हुआ। मन में आया कि अब मैं बड़ा लेखक हो गया हूं। कोई  पचीस-छब्बीस साल की उम्र थी, इतराने की उम्र थी, सो इतराने भी लगा। प्रभात प्रकाशन के श्यामसुंदर जी ने इस बात को नोट किया। एक दिन मेरे इतराने को हवा देते हुए बोले, 'अब तो आप बड़े लेखक हो गए हैं! अच्छी-अच्छी समीक्षाएं छप गई हैं।' मैं ने ज़रा गुरुर में सिर हिलाया। और उन से बोला, 'आप का भी तो फ़ायदा होगा!'

'वो कैसे भला?'

'आप की किताबों की सेल बढ़ जाएगी !' मैं ज़रा नहीं पूरे रौब में आ कर बोला।

'यही जानते हैं आप?' श्यामसुंदर जी ने अचानक मुझे आसमान से ज़मीन पर ला दिया। अमृतलाल नागर, अज्ञेय, भगवती चरण वर्मा, विष्णु प्रभाकर आदि तमाम बडे़ लेखकों की किताबों के साथ मुझ जैसे कई नए लेखकों की कई किताबें एक साथ मेज़ पर रखते हुए वह बोले, 'इन में से सभी लेखकों की किताबें बेचने के लिए मुझे एक जैसी तरकीब ही लगानी पड़ती है।'

'क्या?' मैं चौंका।

'जी!' वह बोले, 'बिना रिश्वत के एक किताब नहीं बिकती। वह चाहे बड़ा लेखक हो या घुरहू कतवारु। सब को रिश्वत दे कर ही बेचना होता है। बाज़ार का दस्तूर है यह। बड़ा लेखक दिखाऊंगा तो दो चार किताबें खरीद ली जाएंगी। तो उस से तो हमारा खर्च भी नहीं निकलेगा।'

हकीकत यही थी। मैं चुप रह गया था तब।

किताबों की सरकारी खरीद में वैसे एक नियम है , खास कर राजा राम मोहन राय ट्रस्ट की किताबों की खरीद में तो है कि लेखकों को रायल्टी मिल गई है की एन ओ सी प्रकाशक सरकार को दें। प्रकाशक लेखक की यह एन ओ सी देते भी हैं , सरकार को। लेकिन फर्जी। लेखक को तो पता भी नहीं चलता कि कब कितनी और कौन सी किताब खरीदी गई और क्या रायल्टी बनी। इस बात की चर्चा मैं ने लखनऊ में एक आर टी आई एक्टिविस्ट नूतन ठाकुर से की जो एक आई पी एस अफ़सर अमिताभ ठाकुर की पत्नी हैं। तय हुआ कि वह हाईकोर्ट में इस बाबत एक याचिका दायर कर सरकार को निर्देश दिलवाएंगी कि लेखकों की रायल्टी सीधे लेखकों के खाते में सरकार भिजवाया करे। फिर बात आई कि इस बारे में कुछ लेखक लिख कर दें ताकि याचिका को बल मिले। तब के दिनों श्रीलाल शुक्ल , कामतानाथ , मुद्राराक्षस आदि लेखकों से इस बाबत मैं ने बात की। पर यह सभी लेखक दाएं-बाएं हो कर कतरा गए। अब यह लोग नहीं रहे। लेकिन उन्हीं दिनों मैं ने शिवमूर्ति और वीरेंद्र यादव जैसे कई लेखकों से भी बात की थी। एक शिवमूर्ति तैयार हुए । शिवमूर्ति ने इस बारे में दिल्ली में बलराम से चर्चा की। बलराम भी वीर रस में आए। लेकिन अफ़सोस कि आज तक एक भी लेखक की दस्तखत इस बाबत नहीं मिल सकी । आगे भी खैर क्या मिलेगी। मुद्राराक्षस ने तभी कहा था कि आधा-अधूरा ही सही कुछ रायल्टी तो यार मिल ही जाती है। अब ऐसा करेंगे तो यह प्रकाशक छापना ही बंद कर देंगे तो क्या करेंगे ? ऐसा ही और भी लेखकों ने घुमा-फिरा कर कहा। गरज यह कि लेखक चूहा हैं और प्रकाशक बिल्ली। फिर वही बात की बिल्ली के गले घंटी बांधे कौन ? 

हिंदी लेखक एक कायर कौम है और हिंदी का प्रकाशक एक बेईमान कौम ! दुनिया भर में प्रतिरोध का डंका बजाने वाला हिंदी का लेखक हिप्पोक्रेट भी बहुत बड़ा है । पुरस्कारों , फेलोशिप और विदेश यात्राओं के जुगाड़ में नित अपमानित होता यह हिंदी लेखक शोषक और शोषित की बात भी बहुत करता है लेकिन अपने ही शोषण के खिलाफ बोल नहीं सकता । इस बाबत उकसाने पर भी कतरा कर आंख मूंद कर निकल जाता है। दुनिया भर के मजदूरों की बात बघारने वाला यह हिंदी लेखक अपनी ही मजदूरी की बात करना भूल जाता है । प्रकाशक से रायल्टी की बात तो छोड़िए उलटे प्रकाशक को पैसे दे कर किताब छपवाने की जुगत भी करता है। हिंदी का यह लेखक अकसर पाठक का रोना भी बहुत रोता है पर अपने बच्चों को वह पढ़ाता इंग्लिश मीडियम से ही है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों का विरोध भी यह हिंदी लेखक बहुत ज़ोर-शोर से करता है लेकिन उस के बच्चे लाखों के पैकेज पर इन्हीं बहुराष्ट्रीय कंपनियों की नौकरियां करते हैं। आलम यह है कि अगर कोई बहुत बड़ा फन्ने खां हिंदी लेखक अगर रायल्टी मिलने की बड़ी हुंकार भरता मिले तो उस की हुंकार सुन लीजिए लेकिन यह बात तो जान ही लीजिए कि सिर्फ़ लेखन के दम पर यह हिंदी लेखक अपना और अपने घर के लोगों की चाय का खर्च भी नहीं उठा सकता है। बाक़ी कविता , कहानी , लेख आदि और सेमिनारों, गोष्ठियों-संगोष्ठियों वगैरह में तो अवमूल्यन , पतन और हेन-तेन आदि-आदि की जलेबी छानने और अति बघारने के लिए वह पैदा हुआ ही है । आप तो बस प्रणाम कीजिए हिंदी लेखक नाम के इस जीव को यह सोच कर कि अब तक यह ज़िंदा कैसे है ? बल्कि जिंदा क्यों है ? यह बात भी आप शौक से पूछ सकते हैं। यकीन मानिए वह कतई बुरा नहीं मानेगा । हां यह ज़रूर हो सकता है कि यह सवाल सुन कर वह बहरा हो जाए , इस बात को अनसुना कर दे , कोई झूठ बोल दे , कतरा कर निकल जाए या शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सर घुसा ले ! यह अब उसी पर मुन:सर है। आप बस आज़मा कर देखिए।

बातें बहुतेरी हैं। जिन का विस्तार यहां मुमकिन नहीं है। 

रही बात सरकारी प्राइमरी स्कूलों के बंद करने की तो बहुत तलाश किया ऐसा आदेश अभी तक नहीं मिल सका है। आदेश नहीं हुआ है तो भी हो जाना चाहिए। जैसे मुफ्त अनाज , मुफ्त की बिजली आदि देना देश हित में नहीं है , यह प्राइमरी स्कूल भी नहीं हैं। कोई जाता नहीं। क्यों कि सभी लोग अपने बच्चों को इंग्लिश मीडियम में पढ़ाना चाहते हैं। हमारा गांव फोरलेन सड़क पर है। गोरखपुर -बनारस रोड पर। जब जाता हूं तो हालचाल लेता हूं। अब वहां सिर्फ़ एक  दाई है। जो बच्चों के लिए दलिया बनाती है। ग्राम प्रधान के निर्देशन में। कोई दो दशक पहले की बात है। स्कूल में अध्यापकों की कमी देख कर कई बार कह - सुन कर तैनाती करवाता रहता था। एक बार दो - तीन अध्यापिकाएं गांव में घर पर आईं। हाथ जोड़ कर बोलीं , आप हरदम यहां तैनाती करवा देते हैं। मत किया कीजिए। उन का कहना था कि एक तो पढ़ाने के लिए बच्चे नहीं हैं। दूसरे , सड़क पर गांव होने के कारण जो भी अधिकारी यहां से गुज़रता है , जांच करने आ जाता है। 

बाद में पता चला कि यह अध्यापिकाएं गोरखपुर शहर में रहती हैं। कार से आती - जाती  हैं। कहीं दूर देहात में तैनाती करवाती हैं। महीने में दो - चार बार स्कूल जा कर अटेंडेंस बना कर वेतन ले लेती हैं। सड़क वाले गांव में इसी लिए तैनाती नहीं चाहतीं। क्या - क्या बताऊं ? मनमोहन सरकार हो या नरेंद्र मोदी सरकार। अखिलेश सरकार हो या योगी सरकार। सब एक जैसी हैं। सब की सब जन विरोधी हैं। ऐसे में लेखकों , कवियों से उम्मीद की ही जा सकती है कि कम से कम जनता के साथ रहे। जनविरोधी न बने। इस सरकार , उस सरकार के खाने में न बंटे। सिर्फ़ विचारधारा ही नहीं , सच के साथ रहें । जन के साथ रहें। देश , जनता और सरकार में फ़र्क़ समझें और सीखें। सरकार का विरोध डट कर करें। ईंट से ईंट बजा दें। पर देश और जनता को इस में न पीसें। 

प्रकाशक से अपना हिसाब , अपने श्रम का मूल्य लेना सीखें। नहीं ले सकते अपनी रायल्टी तो सूरमा भोपाली बनना छोड़ दें। 

[ एक मित्र की पोस्ट पर मेरा प्रतिवाद। ]


Tuesday, 11 February 2025

चौंका देना ही हसरत है

दयानंद पांडेय 

सामान्य जन के लिए लिखिए , किसी गुट , किसी इको सिस्टम , किसी कट्टर विचारधारा के लिए नहीं l स्थितियां बदलेंगी l कविता पढ़ी जाएगी और बिकेगी भी। जनता की नब्ज़ भूल चुके हैं कविजन। मोदी की नब्ज़ ज़्यादा खोजते हैं , जनता जनार्दन की बिलकुल नहीं। 

रही बात सरकारी स्कूलों के बंद करने की तो यह अच्छा फ़ैसला है l बोझ बन गए हैं यह स्कूल l जो थोड़े बहुत बच्चे सरकारी स्कूल में जाते हैं , पढ़ने के लिए नहीं , दलिया खाने के लिए l इस में भी बड़ा भ्रष्टाचार है l दस बच्चे दलिया खाते हैं , दो सौ बच्चों का बिल बनता है l अध्यापक शिक्षा की जगह दूसरे काम करते हैं l यह सिलसिला कोई तीस चालीस बरस से देख रहा हूं। 

आप ही बताएं कि आप के या आप के मित्रों के बच्चे क्या इन सरकारी स्कूलों में पढ़े ? या आज भी पढ़ रहे हैं ?

सरकारी मेडिकल कालेज या इंजीनियरिंग कालेज में लोग पढ़ना चाहते हैं पर सरकारी स्कूल में नहीं l अर्थ और अध्ययन का यह गणित है l कुछ और नहीं l एम्स , पी जी आई जैसे कुछ शीर्ष अस्पतालों को छोड़ दीजिए तो यही हाल सरकारी अस्पतालों का है l आप क्या सरकारी अस्पताल में इलाज करवाते हैं ? हम भी नहीं करवाते l जब कि पत्रकार होने के कारण हंड्रेड परसेंट प्राइवेट वार्ड सहित सब कुछ फ्री है। वी आई पी ट्रीटमेंट भी l पर नहीं जाता l भूल कर नहीं जाता। जब कि अपेक्षतया सरकारी अस्पतालों के डाक्टर योग्यतम हैं। सुविधाएं बेहतर हैं। पर सर्विस निकृष्टतम। मृत्यु तक पहुंचाने वाली। 

हालां कि स्वीट्जरलैंड में एक स्कूल है जो पचास करोड़ सालाना फीस लेता है। फिर भी भारत में शिक्षा और अस्पताल दोनों ही लूट के अड्डे हैं l तो भी प्राइवेट स्कूल और प्राइवेट अस्पताल में ही जाते हैं l हम सभी l अगर हेल्थ इंश्योरेंस न हो , सरकारी कर्मचारियों को रिम्बर्समेंट न हो तो इन प्राइवेट अस्पतालों में दस परसेंट लोग भी जाने की हैसियत नहीं रखते है , निम्न वर्ग या मध्य वर्ग के लोग l 1991 में आए आर्थिक उदारीकरण और बाज़ार की देन है यह l सोचिए कि आयुष्मान कार्ड धारक भी अब प्राइवेट अस्पताल जा रहे हैं , सरकारी अस्पताल नहीं। 

सब के सोचने , रहने का तरीक़ा बदल गया है और आप सरकारी स्कूल को जाने क्यों चलाते रहने की चिंता में हैं l रोडवेज की बस में लोग चलना नहीं चाहते और आप सरकारी स्कूल चाहते हैं l जहां पढ़ाने वाले तो हैं , पढ़ने वाले नहीं l

विश्वविद्यालयों में लोग तीस हज़ार पर पढ़ा रहे हैं l डिग्री कालेज में दस हज़ार , पंद्रह हज़ार पर l जब कि सरकारी प्राइमरी स्कूल में लोग पचास हज़ार से अस्सी हज़ार तक वेतन ले रहे हैं , जहां बच्चे ही नहीं हैं पढ़ने के लिए l दलिया खिला रहे हैं। 

इंजीनियरिंग और एम बी ए कर के बच्चे दस पंद्रह हज़ार की नौकरी के लिए तरस रहे हैं l आप तो ख़ुद इंजीनियर हैं l पर आज के इंजीनियर ? एम टेक कर के भी सरकारी चपरासी बनने के लिए प्रयासरत हो जा रहे हैं l सरकारी सफ़ाई कर्मी बन जाते हैं ल

और अब तो सरकारी नौकरियों में भी आउट सोर्सिंग की बहार है l चपरासी , ड्राइवर , लिफ्ट मैंन , डी टी पी आपरेटर तक आऊट सोर्सिंग पर हैं l सचिवालय में भी l जहां से शासन चलता है। छोड़िए, रेलवे कोच फैक्ट्री में तमाम मैकेनिकल इंजीनियर आऊट सोर्सिंग पर ही हैं l और इस सब की शुरुआत आप के महान अर्थ शास्त्री मनमोहन सिंह ने अपने प्रधान मंत्री रहते की l मनमोहन सिंह प्राइवेट सेक्टर में आरक्षण पर बिल भी लाने वाले थे l लेकिन सारे उद्योगपति विरोध में खड़े हो गए l कहा कि फिर हम अपने उद्योग भारत से बाहर ले जाएंगे l सर्वदा चुप रहने वाले मनमोहन सिंह बिलकुल चुप रह गए ल

इस सब पर किस की नज़र है ?

लिखी आप ने कोई कविता ? लिखा किसी ने कोई जनगीत ?

सारा ज़ोर , नफ़रत , घृणा और एजेंडा सेट करना ही जब किसी कवि की कविता का लक्ष्य होगा तो उस की कविता कोई पढ़ेगा भी क्यों ? किताब क्यों ख़रीदेगा ?

आप ही की पुरानी कविता है :


दरवाज़ा होना तो किसी ऐसे घर का

जिस पर पड़ने वाली थपकियों से ही

समझ लेते हों घर के लोग

कि कौन आया है, परिचित या अपरिचित

और बिना डरे कहते हों हर बार

खुला है चले आइए।

अफ़सोस कि वैचारिकी की खोह में खोए आप ने भी अपनी कविता में अब जन को अनुपस्थित कर इन के लिए दरवाज़े बंद कर दिए हैं। एक कवि अपनी धरती और आकाश के किवाड़ सिर्फ़ वैचारिकी के अंधेरे के लिए ही कभी - कभार खोले और कहे कि लोग कविता नहीं पढ़ रहे। श्रमिकों के हक़ में खड़े होने का भ्रम पाले , अपने ही श्रम का हिसाब न ले पाए प्रकाशक से और कहे कि लोग किताब नहीं ख़रीद रहे , इस कहे का क्या मतलब ? क्या अर्थ है उस के इस क्रांतिकारी लबादे का ? 

सिर्फ़ कुंठा और आत्ममुग्धता। जैसे -तैसे चौंकाना। चौंका देना ही हसरत है। 

धंस कर कोई छिछली नदी तो पार हो सकती है। गहरी और वेगवती नदी नहीं। सिस्टम की नदी तो बिलकुल नहीं। क्यों कि गहरी और वेगवती नदी तैर कर , नाव से , स्टीमर से या पुल से ही पार होती है। लेकिन आप धंस कर पार कर लेने की सीख दे देते हैं। लोग लहालोट हो जाते हैं। मिट्टी में धंस जाना हुनर नहीं है। मिट्टी में काम करना हुनर है। यह ठीक है कि आप का काव्य-पाठ अदभुत रूप से अच्छा है , कविताएं अच्छी हैं पर इन का घेरा बहुत छोटा है। संकीर्ण है। आप ही के प्रदेश के महाकवि कालिदास की याद आती है। कालिदास जो कभी कश्मीर के शासक भी थे , कितने लोग जानते हैं ? रूपक , विवरण और उपमा ही नहीं , आकाश सा खुलापन , धरती सा ममत्व है उन की कविताओं में। कालिदास में करुणा भी बहुत है। पर चौंकाने के लिए नहीं। विगलित हो जाने के लिए। मल्लिका के आंसू हैं भोजपत्र पर तो महाकाव्य की तरह। कालिदास दरबारी कवि कहे जाते हैं। तो क्या हम उन्हें आज भी उन की कविता के लिए नहीं याद करते , उन के दरबारी कवि होने के कारण याद करते हैं ? विक्रमादित्य के भी बहुत विरोधी थे। कालिदास ने विक्रमादित्य के विरोधियों के लिए किस कविता में नफ़रत , घृणा और वैमनस्य परोसा है , तनिक बताइएगा। तुलसीदास से बहुतों की बहुतेरी असहमतियां हैं। तुलसी के रामायण में रावण खलपात्र है। तुलसी ने कितनी घृणा , कितनी नफ़रत , कितना वैमनस्य परोसा है रावण के लिए ? नहीं परोसा है। रावण का खुल कर विरोध किया है। पर नफ़रत की नागफनी नहीं बोई है। तो क्या लोग तुलसी के रावण को प्यार करते हैं ? अरे यह तुलसी के कवि की ताक़त है कि लोग हर बरस रावण जलाते हैं। इस लिए भी कि कवि का काम नफ़रत की नागफनी बोना नहीं है। लेकिन आप का पूरा गिरोह इसी कार्य में परिचित है। प्रतिरोध ही प्रतिरोध है कविताओं में , रचनाओं में। पर न कविता है , न रचना है। सिर्फ़ प्रतिरोध है। लिखते थे नागार्जुन भी प्रतिरोध की कविता :

आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी,

यही हुई है राय जवाहरलाल की

रफ़ू करेंगे फटे-पुराने जाल की

यही हुई है राय जवाहरलाल की

आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी!

परसाई , धूमिल , दुष्यंत ने भी प्रतिरोध ही रचा है। जन - जन की जुबान पर बसे हैं। पर आज ? कुंटल भर प्रतिरोध रोज लिखा जा रहा है। कितने प्रतिरोध हैं जुबान पर ? 


आप ही की कविता है :

मुझे एक सीढ़ी की तलाश है

सीढ़ी दीवार पर चढ़ने के लिए नहीं

बल्कि नींव में उतरने के लिए


मैं क़िले को जीतना नहीं

उसे ध्वस्त कर देना चाहता हूँ।


नफ़रती कविता का क़िला ध्वस्त है। बेईमान और चोर प्रकाशक का क़िला ध्वस्त होना शेष है। शेष है , इसी लिए किताब नहीं बिकती। पैसा दे कर छपती है , इस लिए भी किताब नहीं बिकती। कवि की कविता का क़िला ध्वस्त है। 

क्यों है ? 


[ एक मित्र की पोस्ट पर मेरा यह कमेंट ]


Monday, 10 February 2025

अच्छा भाजपा की जगह कांग्रेस ने आम आदमी पार्टी को हराया होता तो भी यही सहानुभूति होती आप की आप के लिए ?

दयानंद पांडेय


तमाम पूर्वाग्रह के बावजूद आप ठीकठाक टिप्पणीकार हैं। तमाम आग्रह , कमिटमेंट और रिजर्वेशन के बावजूद अध्ययन और तर्क के साथ भी बात करते हैं। पर एक कुटिल , धूर्त और लफ्फाज भ्रष्टाचारी के लिए इतनी सहानुभूति ठीक नहीं। अफ़सोस कि सौरभ भारद्वाज और राखी बिड़लान में भी आप को कभी मासूमियत दिखी। कितने तो कुटिल और अभद्र हैं दोनों। बोलने का सलीक़ा तक नहीं। सिर्फ़ फरेब जानते हैं और केजरीवाल की हां में हां। संसदीय राजनीति का स नहीं पता इन्हें। समस्या के समाधान ख़ातिर विपक्ष के विधायक के पैरों में एक मंत्री के लेट कर , नाटक करने से राजनीति होती है ?

केजरीवाल की गिरफ़्तारी पर दिल्ली विधानसभा का अध्यक्ष किस बेशर्मी से केजरीवाल के घर विरोध में कार्यकर्ता बन कर उपस्थित था। यह संसदीय गरिमा थी ? किसी ने निंदा की ? किसी मीडिया ने सवाल खड़े किए ? शराब घोटाला , शीशमहल क्या अपराध की श्रेणी में नहीं आएंगे ? फंसाने के लिए बनाए गए हैं यह आरोप ? कोई सत्यता नहीं है इन आरोपों में ? कोरोना में केजरीवाल के करतब मीडिया के लोग भूल गए हैं , लोग नहीं। कैसे आक्सीजन के अभाव में लोग मरे। दिल्ली से पैदल ही लोग अपने गांव जाने के लिए मज़बूर किए गए। यमुना किनारे भिखारियों की तरह रहने वाले लोग कौन थे ? सिर्फ़ केंद्र की ज़िम्मेदारी थी ? राज्य सरकार की नहीं ? मोहल्ला क्लिनिक की उपयोगिता कोरोना में कुछ थी ?

झाग भरी यमुना क्या है ? है किसी और शहर में ऐसी झाग भरी यमुना या कोई और नदी है क्या। देश की सभी नदियां दूषित हैं। प्रदूषित हैं। पर पर दिल्ली की यमुना जैसी कोई नहीं। छठ के अलावा दिल्ली की बिकाऊ मीडिया ने कभी यमुना पर गंभीरता से रिपोर्टिंग की ? हवा हर शहर की ख़राब है। पर दिल्ली जितनी ? चौतरफा सीवर चोक। बरसात में समूची दिल्ली झील। मंत्रियों के बंगलों तक में पानी। गंदगी , कूड़े का पहाड़। पीने का साफ़ पानी नहीं देश की राजधानी में।

शीला दीक्षित के समय में तो ऐसी विपन्न नहीं थी हमारी दिल्ली। फिर भ्रष्टाचार का पहाड़। मुख्य सचिव , मुख्य मंत्री आवास में पिट जाता है। फिर पैसा ले कर अपनी ही जाति के लोगों को राज्य सभा में भेजना क्या था ? किस मीडिया हाऊस ने सवाल उठाया ? स्टिंग किया ?

अच्छा भाजपा की जगह कांग्रेस ने आम आदमी पार्टी को हराया होता तो भी यही सहानुभूति होती आप की आप के लिए ?

पढ़े - लिखे लोगों को राजनीति में आना चाहिए की बात पर अरविंद केजरीवाल ने कालिख पोत दी है। वह एक ही सांस में नास्तिक और आस्तिक दोनों बन जाता है। खालिस्तानियों और लीगियों दोनों को साध लेता है। आंख में धूल झोंकने के लिए हनुमान मंदिर भी। विज्ञापन दे कर मीडिया का मुंह बंद किया जा सकता है , करोड़ो रुपए की फंडिंग से यूट्यूबरों से माहौल अपने पक्ष में बनवाया जा सकता है। जनता को मुफ़्तख़ोरी का अभ्यास कराया जा सकता है पर लंबी राजनीति नहीं। गाना पुराना है आनंद बख्शी का लिखा हुआ : ये पब्लिक है सब जानती है ! वह पब्लिक जो कभी राम को नहीं बख्शती , इंदिरा गांधी को भी कूड़े में फेंक देती है। वह अरविंद केजरीवाल को छोड़ देती ? यह कैसे सोच लेते हैं आप और आप जैसे टिप्पणीकार।

इतनी आह !

उस के लिए जिस ने दिल्ली की यमुना ही नहीं , देश की राजनीति को प्रदूषित कर दिया वह भी साफ़ - सुथरी राजनीति के नाम पर। जिस ने साफ़ सुथरी राजनीति के सपने तोड़ दिए। पढ़े - लिखे लोग अब किस मुंह से राजनीति में आने को सोचेंगे ?

सचमुच कितना तो क्षरण हो गया है।

[ एक मित्र की पोस्ट पर मेरा यह कमेंट। ]

आतिशी का फ़्लाइंग किस और कमरिया लपालप

दयानंद पांडेय


आतिशी जब दिल्ली की घोषित खड़ाऊं मुख्य मंत्री बनी थीं तब मुख्य मंत्री कार्यालय में जिस कुर्सी पर अरविंद केजरीवाल बैठते थे तब उस पर नहीं बैठीं। क्या तो इस कुर्सी पर अरविंद जी ही बैठेंगे। दूसरी कुर्सी लगा कर बैठीं। मेज वही थी। ऐसी बात तो पतिव्रता राबड़ी यादव ने भी बिहार में नहीं किया था। लालू की कुर्सी पर ही बैठीं। इतना ही नहीं जब आतिशी मुख्य मंत्री बनीं तो कहा कि कोई मुझे माला न पहनाए। कोई जश्न नहीं। सार्वजनिक रूप से ऐसा देखा भी नहीं गया। पर अभी एक वीडियो देखा जो विधायक का चुनाव जीतने पर आतिशी के विजय जुलूस का है। गले में ख़ूब मालाएं हैं। धूम धड़ाका है। मेरा रंग दे वसंती चोला वाला गीत है। खुली कार में खड़ी , गीत-संगीत पर लहरा कर थिरकती आतिशी फ़्लाइंग किस की बरसात किए हुई हैं।

ऐसे कि जैसे मेनका !

सुंदर तो हैं ही आतिशी तिस पर लचक - लचक कर फ़्लाइंग किस ! गोया रंग दे वसंती नहीं कमरिया करे लपालप लॉलीपॉप लागेलू , बज रहा हो। गोया अरविंद केजरीवाल , मनीष सिसोदिया आदि जीत कर सरकार बनाने जा रहे हों ! जो भी हो कमरिया लपालप तो है ही आतिशी की। इस उतरती उम्र में उन की देह में लोच भी ख़ूब है। लावण्य भी। सुदर्शना भी हैं। कब कैसे , किस का दीदार देना है , ख़ूब जानती हैं। बीते दिनों में जब कभी वह बन - ठन कर अरविंद केजरीवाल के पीछे - पीछे ठुमक - ठुमक कर चलती थीं तब देखते ही बनता था। अब अगर आतिशी आप को सुंदर नहीं दिखती तो उसे कभी केजरीवाल की नज़र से देख लीजिए। फिर जब जानिएगा कि विजय जुलूस निकाल कर वह केजरीवाल की हंसी उड़ा रही है , इस पर ध्यान दीजिएगा तो सुंदर लगेगी। बहुत सुंदर। केजरीवाल को दिल्ली में चुनौती दे रही है , दिल्ली की सड़क पर। और क्या चाहती हैं ? उस की इस बहादुरी की सुंदरता को सलाम कीजिए !

जानिए भी कि हर स्त्री मधुबाला नहीं होती।

मिले हैं मुझे ऐसे भी लोग जिन्हें मधुबाला भी अच्छी नहीं लगती।

पर अब विजय जुलूस में उन के नाचने पर अब स्वाति मालीवाल को बुरा लगे या किसी और को। आतिशी को क्या ! मीना कुमारी पर फ़िल्माया गया , मज़रूह सुल्तानपुरी का लिखा एक पुराना गाना है : अपने सैंय्या से नैना लड़इबे हमार कोई का करिहैं !

जीत तो जीत ही होती है। आतिशी ने शायद नीरज का यह गीत पढ़ या सुन रखा है :

छिप-छिप अश्रु बहाने वालों, मोती व्यर्थ बहाने वालों
कुछ सपनों के मर जाने से, जीवन नहीं मरा करता है।

सपना क्या है, नयन सेज पर
सोया हुआ आँख का पानी
और टूटना है उसका ज्यों
जागे कच्ची नींद जवानी
गीली उमर बनाने वालों, डूबे बिना नहाने वालों
कुछ पानी के बह जाने से, सावन नहीं मरा करता है।

माला बिखर गयी तो क्या है
खुद ही हल हो गयी समस्या
आँसू गर नीलाम हुए तो
समझो पूरी हुई तपस्या
रूठे दिवस मनाने वालों, फटी कमीज़ सिलाने वालों
कुछ दीपों के बुझ जाने से, आँगन नहीं मरा करता है।

खोता कुछ भी नहीं यहाँ पर
केवल जिल्द बदलती पोथी
जैसे रात उतार चांदनी
पहने सुबह धूप की धोती
वस्त्र बदलकर आने वालों! चाल बदलकर जाने वालों!
चन्द खिलौनों के खोने से बचपन नहीं मरा करता है।

लाखों बार गगरियाँ फूटीं,
शिकन न आई पनघट पर,
लाखों बार किश्तियाँ डूबीं,
चहल-पहल वो ही है तट पर,
तम की उमर बढ़ाने वालों! लौ की आयु घटाने वालों!
लाख करे पतझर कोशिश पर उपवन नहीं मरा करता है।

लूट लिया माली ने उपवन,
लुटी न लेकिन गन्ध फूल की,
तूफानों तक ने छेड़ा पर,
खिड़की बन्द न हुई धूल की,
नफरत गले लगाने वालों! सब पर धूल उड़ाने वालों!
कुछ मुखड़ों की नाराज़ी से दर्पन नहीं मरा करता है!

इस कठिन समय में जीत की बहुत बधाई आतिशी ! उस विजय जुलूस में अगर उपस्थित होता तो लपालप कमरिया देखते हुए आप का वह फ़्लाइंग किस कम से कम मैं ने रिसीव किया होता।

नरेंद्र मोदी ड्राईक्लीनर्स दुनिया का बेस्ट ड्राईक्लीनर्स

 दयानंद पांडेय


राज्य सभा में राष्ट्रपति के अभिभाषण के जवाब में नरेंद्र मोदी ड्राईक्लीनर्स ने आज कांग्रेस की जो धुलाई की है , डेढ़ घंटे से अधिक की है , कलफ़ लगा-लगा कर की है , कि पंजा चीथड़े-चिथड़े हो गया है l वामपंथी साथी लेखक , पत्रकार इस पंजे की रफ़ू कैसे करेंगे भला ! सेवा कैसे करेंगे ?

यह एक प्रश्न है l

एक समय था कि कांग्रेस की धुलाई लोहिया किया करते थे l लोहिया के नेतृत्व में सारे समाजवादी भी करते थे l लेकिन कांग्रेस की धुलाई मामले में लोहिया को बहुत पीछे छोड़ चुके हैं नरेन्द्र मोदी l रही बात समाजवादियों की तो लोहिया की नाक कटवाते हुए समाजवादी के नाम पर लालू यादव , अखिलेश यादव जैसे लोग नमाज पढ़ते हुए कांग्रेस की सेवा में वामपंथियों से कंधे से कंधा मिला कर खड़े हैं l कौन किस से आगे की प्रतिस्पर्धा है l

वामपंथी तो खैर शुरू से ही क्रांति के नाम पर कांग्रेस का चरण चुंबन करते हुए कोर्निश बजाने के अभ्यस्त हैं l वामपंथी लेखक और पत्रकार अपने पोलित व्यूरो से भी मीलों आगे हैं l यह जैसे उन का व्यसन भी है , व्यवसाय भी l लाइसेंस राज के रणबांकुरे वामपंथियों ने पश्चिम बंगाल का लाल क़िला इसी में तो ध्वस्त कर दिया l उन का लाल सलाम वाला हफ़्तराज , विरोधियों की हत्या और गुंडई आज भी गूंजती है l ममता बनर्जी ने भले वामपंथियों को धूल चटा कर दादा राज से पश्चिम बंगाल को दीदी राज में तब्दील कर दिया हो , वामपंथियों की गुंडई अभी भी बीस मालूम पड़ती है l

जो भी हो नरेंद्र मोदी ड्राईक्लीनर्स दुनिया का बेस्ट ड्राईक्लीनर्स है l इस में किसी को रत्ती भर भी संदेह हो तो कृपया बता दे !

हथकड़ी और बेड़ी ही नहीं , मुंह भी काला कर के भेजना चाहिए था

 दयानंद पांडेय


अच्छा सोचिए कि हम आप के बहुत गहरे मित्र हैं l आप के घर का ऐश्वर्य और समृद्धि देखते हुए आप के घर में चोरी से घुस जाते हैं l आप के घर की चीज़ों का उपयोग करने लगते हैं l आप हमें पकड़ लें l तो हमारे साथ क्या आप दोस्ताना व्यवहार करेंगे ? हमें अपराधी नहीं मानेंगे ?

चीन में एक कहावत है कि आप इतने उदार भी मत बनिए कि किसी को अपनी बीवी गिफ़्ट कर दीजिए l

पर यह जो अमरीका ने अवैध नागरिक भारत को लौटाए हैं , उस पर जो हलचल और विरोध दिख रहा है , असल में सारी लड़ाई भारत में रह रहे अवैध नागरिकों को बचाने की रणनीति है l पेशबंदी है l कुछ और नहीं l

रही बात हथकड़ी और बेड़ी की तो ट्रंप ने ग़लती की l इन अवैध नागरिकों के मुंह पर हथकड़ी के साथ मास्क नहीं , मुंह काला कर के भेजना चाहिए था l हथकड़ी , मुंह काला ज़रूरी था l भले भारतीय ही क्यों न हों , अवैध नागरिकों में भय लाना ज़रूरी है l बहुत ज़रूरी ! अमरीका ने कोई पहली बार अवैध नागरिकों को भारत नहीं भेजा है l अकसर भेजता रहता है l जो बाइडेन के समय भी अवैध नागरिक , भारत भेजे गए हैं l बस भारत में ही यह काम मुश्किल दिखता है l भारत अवैध नागरिकों को दामाद बना कर रखता है l

नरेंद्र मोदी में हाला कि इतना साहस नहीं है पर ट्रंप के रास्ते चलते हुए मोदी को भी भारत में रह रहे अवैध नागरिकों के साथ यही सुलूक करना चाहिए l विपक्ष और मुट्ठी भर लोगों के विरोध की परवाह बिल्कुल नहीं करनी चाहिए l

ज्ञानी , मनमोहन और खड़गे की कैफ़ियत

दयानंद पांडेय


कभी राष्ट्रपति रहे ज्ञानी जैल सिंह राष्ट्रपति रहते हुए खुलेआम कहते थे कि इंदिरा गांधी अगर झाड़ू लगाने के लिए कहें तो वह झाड़ू भी लगाएंगे। राजीव गांधी , राष्ट्रपति ज्ञानी का फ़ोन नहीं उठाते थे। इग्नोर करते थे। खुशवंत सिंह ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि सिख दंगों के समय राष्ट्रपति भवन में देश की तीनों सेनाओं के सर्वोच्च कमांडर ज्ञानी जैल सिंह डर के मारे पत्ते की तरह कांप रहे थे। कि कहीं उन की भी हत्या न हो जाए।

लेकिन मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री रहते हुए सोनिया गांधी और राहुल की झाड़ू भी लगाई और कोर्निश भी बजाई। सर्वदा कांपते रहे। सोनिया , राहुल को देखते ही बतौर प्रधान मंत्री उठ कर खड़े हो जाते थे। यह लोग बैठे रहते थे , और मनमोहन हाथ जोड़े खड़े रहते थे। राहुल कैबिनेट का फ़ैसला फाड़ देते थे और मनमोहन कैबिनेट के उस फ़ैसले को तुरंत रद्द कर देते थे।

कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे भी देखते ही खड़े हो जाते हैं। राहुल के बैठने के लिए कुर्सी छोड़ देते हैं। प्रियंका गांधी के नामांकन के समय बच्चों की तरह झांकते हुए बाहर खड़े रहते हैं। इतना अपमानित और बेशर्म अध्यक्ष , कांग्रेस का कभी नहीं रहा। खड़गे झाड़ू , कोर्निश सहित इन का ट्वायलेट भी साफ़ कर रहे हैं। और यह कांग्रेस अब दिल्ली में केजरीवाल को हरा कर दिल्ली प्रदेश सरकार पर कब्ज़ा करने का मंशा रखती है। ग़ज़ब है।

धन्य हो यह कांग्रेस !

Saturday, 8 February 2025

भस्मासुर बनाने और निपटाने में भाजपा की कैफ़ियत

दयानंद पांडेय 

अरविंद केजरीवाल को भस्मासुर बनाने वाली भाजपा ही थी। यह बात कम लोग जानते हैं। अलग बात है कि इस भस्मासुर को भस्म करने में भाजपा को बहुत समय लग गया। लेकिन ज़रा रुकिए। यह एक फ़ोटो पहले देखिए फिर आगे बात करते हैं। भाजपा को जितना लोग समझते हैं , उतनी है नहीं। एक पुरानी कहावत है कि यह आदमी जितना दीखता है , उस से ज़्यादा धरती के भीतर है। भाजपा वही है। धरती के भीतर कुछ ज़्यादा ही है। भाजपा को  कांटे से कांटा निकालने का पुराना अभ्यास है। धैर्य और टाइमिंग का भी। याद कीजिए कि कांग्रेस को अकेले दम पराजित करना जनसंघ के लिए भी आसान नहीं था। भाजपा के लिए भी नहीं थी। बहुत कंप्रोमाइज और अपमान सही हैं भाजपा ने। छुआछूत का सामना किया है। तब यहां तक पहुंची है। इमरजेंसी के पहले ही जनसंघ ने बहुत आहिस्ता से जय प्रकाश नारायण को अपने पक्ष में मोहित कर लिया। जय प्रकाश नारायण की लंबी सेवा की। संघ परदे के पीछे से उपस्थित था। इस के पहले जनसंघ ने लोहिया को भी साध लिया था। उत्तर प्रदेश में लोहिया पुल से होते हुए ही संविद सरकार बनी। दो बार बनी और जनसंघ उस में शामिल था। चरण सिंह मुख्य मंत्री और जनसंघ के राम प्रकाश गुप्त उप मुख्य मंत्री। पर यह लंबी कहानी नहीं बनी। 

इंदिरा गांधी की तानाशाही से आजिज जय प्रकाश नारायण के साथ जनसंघ पूरी ताक़त से खड़ी हो गई थी। संघ का कवच कुण्डल लिए हुए। एक फ़ोटो इंडियन एक्सप्रेस में छपी थी। पुलिस जय प्रकाश नारायण पर लाठियां बरसा रही है। और जय प्रकाश नारायण पर नानाजी देशमुख बिलकुल छाता बन कर लेटे हुए हैं। पुलिस की लाठियां अपने सीने पर खाते हुए। भूल से भी जो कोई एक लाठी जय प्रकाश नारायण पर पड़ गई होती तो जय प्रकाश नारायण वहीं प्राण छोड़ देते। उन की देह में तब कुछ था ही नहीं। खड़े हो कर भाषण देने लायक़ नहीं थे। कृशकाय देह किसी तरह चल लेती थी। बहुत ज़ोर से बोल नहीं पाते थे। पर इंदिरा गांधी की नाक में दम कर रखा था। इंदिरा ने जब कोई रास्ता नहीं देखा तो जय प्रकाश नारायण को सी आई ए एजेंट कहना शुरू कर दिया। पर राजनारायण की याचिका पर जस्टिस जगमोहन सिनहा ने जनसंघ की लंबी लड़ाई को बहुत छोटा कर दिया। इंदिरा गांधी का चुनाव अवैध घोषित किया। 

इंदिरा ने फिर से चुनाव लड़ने के बजाय तानाशाही की आदत के चलते रातोरात इमरजेंसी लगा दी। यह काला इतिहास है और सभी इस से परिचित हैं। जय प्रकाश नारायण ही नहीं बहुत से लोग जेलों में भर दिए गए। ख़ूब कूटे गए। हज़ारों लोगों के पृष्ठ भाग में लाल मिर्च , लाठी सब हुए। भारी अत्याचार हुए। इस में जनसंघ और संघ के लोग सर्वाधिक थे। भयभीत हो कर सर्वदा नकली संघर्ष के योद्धा वामपंथी तो इमरजेंसी के पक्ष में खड़े हो गए। विभिन्न जेलों में जनसंघियों की दोस्ती समाजवादियों से प्रगाढ़ हुई। इमरजेंसी ख़त्म होने और जेल से बाहर आने के बाद जनता पार्टी बनी। जनसंघ इस में महत्वपूर्ण रूप से उपस्थित हुई। 1977 के चुनाव में कांग्रेस का सफाया हुआ। जनता सरकार में अटल बिहारी वाजपेयी , लालकृष्ण आडवाणी विदेश और सूचना प्रसारण मंत्री हुए। चरण सिंह की महत्वाकांक्षा और अराजकता ने मोरारजी देसाई सरकार का ढाई बरस में ही पतन करवा दिया। चरण सिंह खुद प्रधान मंत्री बने। बाद में इंदिरा कांग्रेस फिर सत्ता में लौटी। इंदिरा की हत्या हुई। राजीव प्रधानमंत्री बने। बोफोर्स की हवा में राजीव गांधी उड़ गए। विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधान मंत्री बने। दिलचस्प यह कि भाजपा और वामपंथियों के संयुक्त समर्थन से बने। उत्तर प्रदेश में तभी भाजपा के समर्थन से मुलायम सिंह यादव मुख्य मंत्री बने। गोया भाजपा न विश्वनाथ प्रताप सिंह के लिए सांप्रदायिक थी , न मुलायम के लिए। फिर जैसे इन दिनों भाजपा को रोकने का फ़ैशन और बीमारी है , उन दिनों कांग्रेस को रोकने का फ़ैशन और बीमारी थी। पर भाजपा अपना लक्ष्य साधने में लगी रही। 

आडवाणी की रथ यात्रा निकली और बिहार में रोक कर उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया। विरोध में भाजपा ने केंद्र में विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार से और उत्तर प्रदेश में मुलायम सरकार से समर्थन वापस ले लिया। केंद्र में राजीव गांधी सक्रिय हुए। कांग्रेस के समर्थन से चंद्रशेखर प्रधान मंत्री बने। उत्तर प्रदेश में भाजपा की जगह कांग्रेस का समर्थन प्राप्त कर मुलायम मुख्यमंत्री बने रहे। कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में अपनी बरबादी का पहला तीर तभी लिया। फिर निरंतर लेती ही गई। इतना कि अब कोई और तीर लेने लायक़ नहीं रही। ख़ैर राजीव गांधी की हत्या , नरसिंहा राव का प्रधान मंत्री बनना। फिर अटल बिहारी वाजपेयी का एन डी ए का प्रधान मंत्री बनना। देवगौड़ा , गुजराल आदि भी आए गए। अटल के शाइनिंग इण्डिया के गर्भपात के  बाद मनमोहन सिंह का प्रधान मंत्री बनना सब कुछ एक सिलसिला सा है। इस के पहले की बात आगे की कहूं एक ब्रेकर है बीच में। अटल बिहारी वाजपेयी जब प्रधान मंत्री थे तब बड़े यत्न से उन्हों ने एक ममता बनर्जी को कांग्रेस से निकाल कर उपस्थित किया। पश्चिम बंगाल में वामपंथियों का कांटा निकालने के लिए। ममता बनर्जी की मां अटल बिहारी वाजपेयी से बहुत बड़ी नहीं थीं , छोटी ही रही होंगी पर ममता का ईगो मसाज करने के लिए ममता बनर्जी के घर जा कर सार्वजनिक रूप से उन की मां का चरण स्पर्श कर रहे थे। क्या तो पश्चिम बंगाल में वामपंथियों को दुरुस्त करने के लिए। भाजपा सीधे वामपंथियों से लोहा लेने में अक्षम पा रही थी। संयोग से नंदीग्राम और सिंगूर हो गया। भाजपा ने ममता को अपने कंधे पर बैठा लिया। गोया भाजपा हाथी हो और ममता शिकारी। वामपंथियों का शिकार करने में ममता बनर्जी सफल हो गईं। भाजपा ने कांटे से कांटा निकाल दिया था। पर ममता बनर्जी सफल हो कर भस्मासुर बन गईं। भाजपा को ही आंख दिखाने लगीं। भाजपा को ही भस्म करने लगी हैं। पर भूल गई हैं भाजपा अपना लक्ष्य पाने के लिए लंबी रेस की क़ायल है। हड़बड़ी नहीं करती। 

ख़ैर अब आगे के दिनों में कांग्रेस को दिल्ली से भी उखाड़ना मुश्किल लगने लगा भाजपा को। जैसे पश्चिम बंगाल में नंदीग्राम , सिंगूर हुआ था , दिल्ली में टू जी , कोयला , आदि शुरू हो गया। भाजपा फिर सक्रिय हुई। जैसे कभी जनसंघ के समय जे पी मिले थे जनसंघ को , भाजपा ने महाराष्ट्र से अन्ना हजारे खोजा। दिल्ली में रामलीला मैदान सज गया। माहौल कांग्रेस के ख़िलाफ़ बन गया। मिट्टी तैयार थी। भाजपा को अपने ही बीच से एक कुम्हार मिल गया नरेंद्र मोदी। सूपड़ा साफ़ हो गया कांग्रेस का। मोदी प्रधान मंत्री। अब अन्ना आंदोलन के गर्भ से निकले लोगों में एक महत्वाकांक्षी अरविंद केजरीवाल निकला। महत्वाकांक्षी कई थे। किरन बेदी , प्रशांत भूषण , योगेंद्र यादव , आशुतोष , कुमार विश्वास आदि इत्यादि। अन्ना रोकते रहे सब को कि राजनीति कीचड़ है। पर कोई नहीं माना। अन्ना को लात मार कर सब सत्ता पिपासा में लग गए। अरविंद केजरीवाल सब से आगे निकल गया। कांग्रेस की शीला दीक्षित का कांटा निकालने के लिए भाजपा ने अरविंद केजरीवाल की पतंग उड़ा दी। अब जीत के बाद केजरीवाल भी भस्मासुर बन कर उपस्थित था। कमीनगी में भाजपा - कांग्रेस सहित अन्य अनेक राजनीतिक दलों को पानी पिलाते हुए सत्ता का घोड़ा दौड़ाने में अव्वल निकल गया। भस्मासुर बन गया। पर सत्ता और दौलत बहुत जल्दी आदमी को पतन के द्वार पर उपस्थित कर देती है। तानाशाह , झूठा , भ्रष्टाचारी और मक्कार बना देती है। फिर अरविंद केजरीवाल तो भस्मासुर बन गया। पर भ्रष्टाचार की बेल लताएं इस क़दर इस भस्मासुर पर चढ़ गईं , दिल्ली हमारी है कहने की ज़िद इस क़दर चढ़ गई कि मुगलेआज़म का सलीम जैसे कहता है , अनारकली हमारी है की धुन में बदल गई। और दिल्ली वालों का क्या है। उन को जब पता चला कि मुफ्त की सारी रेवड़ियां भाजपा का मोदी भी देगा , पलट गए। मोदी ने कांटे से कांटा निकाल कर अरविंद केजरीवाल को कहीं का नहीं छोड़ा। कंगाल बना दिया। अरविंद केजरीवाल नाम का भस्मासुर निपट गया है। राजनीति शंकर जी का नृत्य नहीं है। सो भस्मासुर को निपटाने में थोड़ा वक़्त तो लगता है। बतर्ज़ हस्तीमल हस्ती प्यार का पहला ख़त लिखने में वक़्त तो लगता है। तो क्या अब अगला नंबर पश्चिम बंगाल का है। कभी जो लोग वामपंथियों की दादागिरी से भयाक्रांत थे , अब ममता बनर्जी की दीदीगिरी से वही लोग त्राहिमाम करने लगे हैं। भाजपा इस बार लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश की तरह पश्चिम बंगाल में भी धूल चाट गई है। पर अयोध्या के मिल्कीपुर में आज सपा को चारो खाने चित्त कर आगे की राह खोल ली है। बाक़ी उपचुनाव में भी ठीक कर लिया था। आप ने गौर किया कि बात - बेबात भड़कने वाली ममता अप्रत्याशित रूप से इन दिनों ख़ामोशी का अभ्यास करने लगी हैं। तो क्या मुफ़्त में ? 

इस लिए कि शिकारी अपने शिकार पर है। दबे पांव। भस्मासुर को नृत्य के लिए न्यौता देने की तैयारी में है। दिल्ली विजय की ख़ुशी में पार्टी कार्यालय के भाषण में मोदी ने एक मूर्ख और एक धूर्त का ज़िक्र किया है। धूर्त अरविंद केजरीवाल है और मूर्ख राहुल गांधी। धूर्त निपट चुका है। कांग्रेस को चाहिए कि जल्दी से जल्दी अपने मूर्ख से छुट्टी ले। तभी उस का कल्याण है। लेकिन कांग्रेस ऐसा करेगी , मुझे बिलकुल यक़ीन नहीं है। 

बहरहाल यह जो फ़ोटो प्रस्तुत है यह मेरी खोज से नहीं आई है। कांग्रेस के पेड कलमकार सौरभ वाजपेयी खोज कर लाए हैं। कांग्रेस का शोकगीत गाने के लिए , अरविंद केजरीवाल की लानत-मलामत करने के लिए। यह फ़ोटो वह पहले भी क्यों नहीं ले कर उपस्थित हुए। फ़ोटो में तब भाजपा के तब के आचार्य और वोटिंग प्राइम मिनिस्टर लालकृष्ण आडवाणी हैं। उन के आजू - बाजू सुषमा स्वराज , अरुण जेटली। एक तरफ मुरली मनोहर जोशी , वेंकैया , जसवंत सिंह , राजनाथ सिंह भी हैं। दूसरी तरफ अन्ना हजारे , अरविंद केजरीवाल और किरन बेदी हैं। फ़ोटो में अरविंद केजरीवाल , किरन बेदी से किसी रामायण , महाभारत की कथा पर तो नहीं बात कर रहे। जाहिर है कांग्रेस को ध्वस्त करने की रणनीति पर ही बात केंद्रित हैं। इस फ़ोटो में नरेंद्र मोदी का दूर - दूर तक कोई अता - पता नहीं है। क्यों कि उन का पता तब गुजरात के मुख्य मंत्री का था। प्रधान मंत्री पद के लिए तब उन की कोई चर्चा भी नहीं थी। बाक़ी कुछ कहने की ज़रूरत नहीं है। क्यों कि भाजपा वन मैन आर्मी या डायनेस्टी की गुफा में जाने से अभी तक वंचित है। लेकिन ढील दे कर पतंग काटने में चैंपियन है। इस ढील का सर्वाधिक ख़ामियाजा कांग्रेस के हिस्से आता है। पर कांग्रेस को इस में आनंद बहुत आता है। कोई करे भी तो क्या करे !

Wednesday, 5 February 2025

विपश्यना, वासना और प्रेम का द्वंद्व: एक मनोवैज्ञानिक यात्रा 

पायल लक्ष्मी सोनी

पायल लक्ष्मी सोनी 

दयानंद पांडेय जी का उपन्यास  'विपश्यना में प्रेम' एक गहरी और मानसिक यात्रा का दस्तावेज है, जो पाठकों को मौन और ध्यान की अव्यक्त गहराई में ले जाता है। यह उपन्यास विपश्यना के शिविर से शुरू होता है, जो एक चुप की राजधानी के रूप में प्रस्तुत किया गया है। यह वाक्य पाठकों के मन में मौन और उसकी शक्ति को समझने के लिए एक नया दृष्टिकोण पैदा करता है।

उपन्यास का माहौल और उसकी कथा में गहराई से जुड़ी एक चुप्पी है,जहां न केवल शब्दों की अनुपस्थिति है, बल्कि सभी क्रियाएं, विचार और भावनाएं भी शांत और संयमित हैं। हालांकि, यह मौन एक जीवित संसार की तरह है, जिसमें हवाओं की सरसराहट, पानी की कलकलाहट और चांदनी की मृदुलता की आवाजें हैं। इन शोरों को सुनते हुए पाठक महसूस करता है कि मौन के भीतर एक अलग ही संगीत और ताजगी है। यह अपूर्व शांति,जो स्थिर दिखती है,असल में जीवन की गहरी धारा को परिलक्षित करती है।

कहानी की एक और महत्वपूर्ण परत है,जहां स्त्री के देह और मन की विनय और वासना का काव्यात्मक रूप सामने आता है। विपश्यना शिविर में मौन के बीच पुरुष और स्त्री की यौन और मानसिक इच्छा दोनों ही एक प्रकार से संघर्ष करती हैं। इस संघर्ष के परिणाम स्वरूप स्त्री का मां बनना, एक नए जीवन की उत्पत्ति की ओर इशारा करता है। यह ममस्पर्शी परिवर्तन उपन्यास को एक सुखद अंत की दिशा में मार्गदर्शन करता है।

उपन्यास में "विपश्यना" को न केवल ध्यान या साधना के रूप में प्रस्तुत किया गया है, बल्कि यह हमारे मानसिक और शारीरिक इच्छाओं के साथ सामंजस्य और संतुलन की खोज भी है। जहां वासना अपनी परिणति की ओर बढ़ती है, वहीं उपासना हमें उच्चतम सत्य की ओर ले जाती है। इस मानसिक द्वंद्व में, उपन्यास पाठक से सवाल करता है कि असल में कौन है जो मौन में आवाज़ दे रहा है—क्या यह हमारी इच्छाओं की पुकार है या आत्मा की पुकार? विपश्यना में प्रेम एक दिलचस्प, मनोवैज्ञानिक और अस्तित्ववादी यात्रा है, जो जीवन और मृत्यु, प्रेम और वासना, मौन और शब्द के बीच के सशक्त संतुलन को दर्शाता है। यह उपन्यास न केवल एक कथा है, बल्कि पाठकों को आत्मनिरीक्षण के लिए प्रेरित करता है।

यह उपन्यास एक सशक्त मनोवैज्ञानिक यात्रा है,जिसमें अतीत और वर्तमान के बीच झूलते हुए, पात्रों की आंतरिक दुनिया और बाहरी घटनाओं का अद्भुत मेल है। उपन्यासकार ने जिस तरह से अतीत और वर्तमान के बीच संबंध स्थापित किया है, वह न केवल कथा को समृद्ध बनाता है, बल्कि पाठकों को भी आत्ममंथन के लिए प्रेरित करता है। यह प्रयोग, जो अक्सर फिल्मों में भी देखा जाता है, उपन्यास को एक गतिशील और प्रभावी रूप प्रदान करता है, जिसमें समय की सीमाएं मिट जाती हैं और पात्र के मनोविज्ञान की गहरी परतें उभरकर सामने आती हैं।

विनय, जो उपन्यास का नायक है, वर्तमान में भले ही जीवन के नए मोड़ों से गुजर रहा हो, लेकिन उसका अतीत लगातार उसकी सोच, व्यवहार और निर्णयों को प्रभावित करता है। वह अपनी आंतरिक यात्रा में इतनी दूर निकल चुका है कि उसे अपने अतीत की स्थाई छाप का सामना करना पड़ता है। खास कर उसकी मां के प्रति सम्मान, जो एक स्त्री है, यह दिखाता है कि उस की यात्रा न केवल मानसिक और आध्यात्मिक है, बल्कि सामाजिक और मानवीय मूल्यों से भी जुड़ी हुई है। इस उपन्यास में स्त्री के सम्मान की बात बार-बार उठाई गई है, और यह स्त्री के सम्मान को केवल एक विषय नहीं, बल्कि एक जरूरी मूल्य के रूप में प्रस्तुत किया गया है।

उपन्यास में मनोविज्ञान का एक महत्वपूर्ण प्रयोग भी दिखाया गया है—अनुबंधन और अनानुबंधन का। यह प्रयोग एक कुत्ते पर आधारित है, जिसे रोज एक ही समय पर भोजन दिया जाता था और घंटी बजने पर भोजन का संकेत मिलता था। जैसे-जैसे यह प्रक्रिया जारी रहती है, कुत्ते के मन में घंटी की आवाज के साथ भोजन की आदत बैठ जाती है। एक दिन जब घंटी नहीं बजती, तो कुत्ता भोजन की मांग नहीं करता, बल्कि बाद में उसे खुद खोज कर खा लेता है। यह प्रयोग मनुष्य के मानसिक अनुबंध और उसके आंतरिक आग्रहों को भी उजागर करता है। उपन्यास में यह प्रयोग विनय के जीवन के साथ समानांतर चलता है, जो अपने मानसिक बंधनों और इच्छाओं के प्रति सचेत है और उन्हें समझने की कोशिश करता है।

इस उपन्यास की सब से बड़ी ताकत यह है कि यह मनुष्य की आंतरिक दुनिया को और उस के समाजिक संबंधों को बहुत ही सूक्ष्मता से चित्रित करता है। विनय का मानसिक संघर्ष, उस की मां के प्रति सम्मान और स्त्री के प्रति उस की संवेदनशीलता, पूरी कहानी में मुख्य रूप से जुड़े हुए हैं। यही कारण है कि उपन्यास न केवल एक प्रेम कथा है, बल्कि यह मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी एक गहरी और विचारशील यात्रा है।

विपश्यना में प्रेम एक सशक्त उपन्यास है, जो पाठकों को मानवीय संबंधों, मानसिक बंधनों और आध्यात्मिक यात्रा के महत्व पर विचार करने का अवसर देता है। लेखक ने अनुबंधन और अनानुबंधन का यह विचार विनय के जीवन के साथ जुड़ कर एक गहरे संवाद की तरह उभारा है, जो उस के मानसिक स्थिति और इच्छाओं को समझने में मदद करता है।

जैसे उस कुत्ते ने घंटी बजने पर भोजन की अपेक्षा की और फिर उसी के आधार पर अपने समय का पुनर्निर्माण किया, वैसे ही विनय का जीवन भी एक आदतों और मानसिक कनेक्शनों से प्रभावित है। शुरुआत में,विनय को किसी स्त्री की आवश्यकता महसूस नहीं होती, शायद यह विपश्यना के कारण हो सकता है, क्यों कि वह अपनी साधना में पूरी तरह से डूबा होता है। लेकिन जैसे-जैसे रात गहरी होती है और ठंड बढ़ती है, एक अप्रत्यक्ष इच्छा उसे बाहर जाने के लिए मजबूर करती है। यह उस कुत्ते की आदत की तरह है, जहां घंटी बजने पर भूख का एहसास होता है। विनय भी एक उम्मीद, एक आंतरिक आकर्षण के कारण बाहर निकलता है और उसे वहां एक रशियन महिला मिलती है।

यह घटना विनय के जीवन में एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित होती है, जहां वह अपनी आध्यात्मिक साधना से निकल कर प्रेम की ओर बढ़ता है। यह संकेत करता है कि विपश्यना न केवल मानसिक शांति और आत्मनिरीक्षण का माध्यम है, व्यक्ति की आंतरिक यात्रा, चाहे वह किसी भी मार्ग पर हो, अंततः प्रेम और मानवीय संबंधों की ओर ही अग्रसर होती है। उपन्यास में वासना और विपश्यना के बीच का संतुलन एक अनूठे तरीके से पेश किया गया है, जहां लेखक ने इन दोनों मानसिक अवस्थाओं को इस तरह से जोड़ा है कि वे एक दूसरे के बिना अधूरी प्रतीत होती हैं। उपन्यास में मिलन की दैहिक स्थितियों का चित्रण अलंकारों और उपमाओं के माध्यम से बहुत ही निपुणता से किया गया है, जो लेखक के कौशल का बेहतरीन उदाहरण प्रस्तुत करता है।

लेखक ने जिस तरह से रशियन लड़की के शारीरिक गठन, उम्र और उसके सौंदर्य का वर्णन किया है, वह न केवल दृश्यात्मक रूप से जीवंत है, बल्कि पाठक को शारीरिक आकर्षण और भावनाओं के बीच की जटिलताओं को महसूस करने का अवसर भी देता है। जो पाठकों को मानसिक रूप से एक सटीक चित्र तैयार करने के लिए प्रेरित करता है। इस प्रकार का दृश्यात्मक विवरण उपन्यास में एक अलग ही ऊंचाई का निर्माण करता है और वासना की छाया को प्रभावी रूप से प्रकट करता है।

उपन्यास में विपश्यना और वासना के बीच का द्वंद्व बहुत दिलचस्प तरीके से बुना गया है। विनय के जीवन में विपश्यना और वासना दोनों ही एक दिनचर्या बन चुकी हैं, जैसे एक उपहार जिसे वह नियमित रूप से प्राप्त करता है। लेखक यह कहता है कि ध्यान के पश्चात विनय को वासना का जैसे एक अलग उपहार मिलने वाला होता है। यह विचार वासना को एक मानसिक व्यसन के रूप में प्रस्तुत करता है, जो विपश्यना के साथ उस की आत्मिक यात्रा में एक अप्रत्यक्ष योगदान करता है। 

उपन्यास एक शारीरिक आकर्षण की कथा है, विपश्यना के माध्यम से विनय अपनी आंतरिक शांति की खोज करता है, लेकिन इस के साथ ही उस की मानसिक स्थिति वासना के प्रति आकर्षित भी रहती है, जो उसे बाहरी दुनिया से जोड़ती है। यह द्वंद्व विनय के जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन जाता है और पाठकों को यह सोचने पर मजबूर करता है कि आत्मनिर्वासन और भौतिक इच्छाओं के बीच संतुलन कैसे बनाया जा सकता है। यह मानवता,आंतरिक संघर्ष और आध्यात्मिकता के बारे में भी एक गहन मंथन है। उपन्यास में विनय के माध्यम से लेखक ने मनुष्य के अस्तित्व की जटिलताओं, वासना और विपश्यना के द्वंद्व को प्रस्तुत किया है। 

विपश्यना शिविर के अंत में विनय की मानसिक स्थिति इस बात की ओर इशारा करती है कि आधुनिक मनुष्य की पहली आवश्यकता आत्म-साक्षात्कार और ध्यान नहीं, बल्कि वासना बन चुकी है। यह विचार उपन्यास के केंद्रीय संदेश को रेखांकित करता है, कि कैसे मनुष्य की इच्छाएं और बाहरी आकर्षणों ने उस की मानसिक और आध्यात्मिक दिशा को बदल दिया है। बुद्ध, रहीम, राम, यशोधरा, मीरा और कृष्ण जैसे महान व्यक्तित्वों का उल्लेख उपन्यास को एक ऐतिहासिक और आध्यात्मिक गहराई देता है। इन पात्रों के माध्यम से लेखक ने प्रेम और आत्मिक उन्नति की अवधारणाओं को प्रकट किया है। विशेष रूप से, मीरा और कृष्ण का संदर्भ प्रेम के आध्यात्मिक पहलू को रेखांकित करता है, जहां देह से परे प्रेम की एक उच्चतम अवस्था को दिखाया गया है।

विनय न केवल यह महसूस करता है कि देह के बिना प्रेम की परिकल्पना, जो एक उच्च और आध्यात्मिक प्रेम का रूप है, असल में एक विचार का पलायन है—एक ऐसा प्रेम जो केवल भौतिक नहीं, बल्कि आत्मिक संबंधों से जुड़ा हो।

लेखक ने इस उपन्यास के माध्यम से यह संदेश दिया है कि भौतिक इच्छाएं और वासना एक मानसिक व्यसन बन सकती हैं, जो व्यक्ति को विपश्यना और आत्मसाक्षात्कार के मार्ग से भटका सकती हैं। हालांं कि, यह उपन्यास इस बात को भी स्वीकार करता है कि मनुष्य की खोज अंततः प्रेम और आत्मिक उन्नति की ओर ही अग्रसर होती है, चाहे वह किसी भी रास्ते से हो।

उपन्यास का एक महत्वपूर्ण तत्व है—"प्रेम मुकम्मल नहीं होता है"। यह वाक्य सीधे तौर पर प्रेम की परिभाषाओं और उस पर विचार करने के विभिन्न दृष्टिकोणों को चुनौती देता है। यहां लेखक ने दो पक्षों को आमने-सामने ला कर विचारशीलता का निर्माण किया है, जो पाठक को आत्मनिरीक्षण के लिए प्रेरित करता है। एक ओर, कृष्ण और मीरा के सात्विक और आध्यात्मिक प्रेम का पक्ष प्रस्तुत किया गया है, जो शुद्ध और दिव्य प्रेम की ओर इंगित करता है। यह प्रेम देह के परे, आत्मा के गहरे और ऊंचे संबंधों का प्रतीक है। दूसरी ओर, उपन्यास यह भी संकेत करता है कि केवल आत्मिक प्रेम ही प्रेम का संपूर्ण रूप नहीं है। प्रेम वह है जो अनुभव और आंतरिक खोज के साथ परिपूर्ण हो, चाहे वह भौतिक हो या मानसिक। यहां तक कि वासना और इच्छाएं भी प्रेम का हिस्सा हो सकती हैं, बशर्ते वे एक मानसिक संतुलन और जागरूकता से जुड़ी हों।

उपन्यास के इस विरोधाभासी दृष्टिकोण को देखना बहुत दिलचस्प है। दयानंद जी ने इस कथा में प्रेम के विभिन्न रूपों को एक साथ लाकर यह दिखाया है कि प्रेम की संपूर्णता किसी एक पहलू से नहीं आती। उपन्यास में यह संदेश है कि प्रेम का असली रूप एक समग्र अनुभव है, जो शारीरिक और मानसिक इच्छाओं के बीच संतुलन बनाने से होता है।

लेखक ने समाज के उस भय को भी चित्रित किया है, जो मनुष्य को उसकी आंतरिक इच्छाओं और भौतिक जरूरतों से जूझने पर मजबूर करता है। विशेष रूप से, दयानंद जी ने रहीम के दोहे—"खैर खून खांसी खुशी बैर प्रीति मदपान, रहिमन दाबे ना दबे , जानत, सकल सुजान"—के संदर्भ में, विनय के मानसिक संघर्ष और वासना के साथ उस की आध्यात्मिक यात्रा को जोड़ते हुए यह संदेश दिया है कि मनुष्य अपने आंतरिक भय और इच्छाओं को न तो दबा सकता है, न छुपा सकता है। 

विनय के जीवन में यह संघर्ष रोज़ की दिनचर्या का हिस्सा बन गया है। जैसे एक ओर विपश्यना उसे शांति और स्थिरता की ओर ले जाती है, वहीं दूसरी ओर वासना उसे एक आकर्षण की ओर खींचती है, जो उस के मन को कभी स्थिर करती है, तो कभी बेचैन कर देती है। यह दोनों संवेदनाएं—वासना और विपश्यना—एक साथ परस्पर चलती हैं और विनय के जीवन का हिस्सा बन चुकी हैं। इस द्वंद्व को पाठक में गहरी समझ उत्पन्न करने के लिए दयानंद जी ने बहुत कुशलता से उन का चित्रण किया है।

विनय का चरित्र इस संघर्ष का प्रतीक है, जिसमें वह एक तरफ विपश्यना के मार्ग पर चलने की कोशिश करता है, तो दूसरी तरफ वासना की खामोश आवाज़ उसे अपनी ओर खींचती है। उपन्यास में यह स्थिति उस समय से जुड़ी है जब वह बचपन में पिता की डांट खाता था, क्योंकि वह "बेशर्म" था। यह सजीव उदाहरण इस बात को दर्शाता है कि कैसे विनय की मानसिकता और सामाजिक भय दोनों उसे इस आंतरिक यात्रा में बाधित करते हैं।

लेखक ने इस भावनात्मक और मानसिक यात्रा को बहुत ही सूक्ष्म और विचारशील तरीके से प्रस्तुत किया है, जिस में विनय की इच्छाओं और आध्यात्मिकता के बीच का अंतर दिखाई देता है। साथ ही, समाज द्वारा लगाए गए भय और स्टीरियोटाइप्  की उपस्थिति विनय के मन में एक स्थाई संघर्ष उत्पन्न करता है।

विपश्यना, जिस का उद्देश्य भूत और भविष्य की चिंताओं से मुक्त हो कर वर्तमान में जीने का अभ्यास कराना है, विनय इस साधना को केवल आध्यात्मिक या आत्मनिरीक्षण की यात्रा के रूप में नहीं देखता, बल्कि इसे अपने भौतिक सुख और दैहिक आकांक्षाओं की पूर्ति के माध्यम के रूप में अपनाता है।

लेखक ने विपश्यना केंद्र को "चुप की राजधानी" कहा है, जहां बाह्य आवाज़ें मौन हैं, परंतु मन और शरीर की इच्छाएं मौन नहीं हैं। यह मौन केवल वाणी का मौन है, न कि आंतरिक इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं का। उपन्यास के अनुसार, आत्मशुद्धि की यह साधना केवल मानसिक अनुशासन तक सीमित नहीं है; यह शरीर और मन के बीच के जटिल रिश्तों को भी उजागर करती है। विनय, जो अपने अतीत और भविष्य से खुद को अलग करने की कोशिश करता है, अंततः आत्मिक शांति की खोज के बजाय देह-आकर्षण और मानसिक उथल-पुथल में उलझ जाता है।

उपन्यास का एक और महत्वपूर्ण पक्ष विवाहेतर संबंधों पर विचार है। लेखक ने स्पष्ट रूप से यह तर्क दिया है कि विवाहेतर संबंध स्थाई नहीं होने चाहिए, क्यों कि वे पारिवारिक कलह और अपराध की ओर ले जाते हैं। विवाह, जो स्थायित्व और शाश्वतता का प्रतीक है, उस के सामने क्षणिक, अल्पकालिक और सहमति-आधारित संबंधों का कोई विशेष महत्व नहीं है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा विवाहेतर संबंधों को कानूनी मान्यता देने के बावजूद, लेखक इसे नैतिकता की दृष्टि से एक चुनौतीपूर्ण विषय मानते हैं। उपन्यास में इस विषय पर तटस्थ लेकिन विचारोत्तेजक दृष्टिकोण अपनाया गया है, जहां यह दिखाया गया है कि ऐसे संबंधों में भी मर्यादा और नैतिकता का होना आवश्यक है।

दयानंद जी ने इस कथा को केवल एक आधुनिक प्रेम-यात्रा तक सीमित नहीं रखा है, बल्कि इसमें कृष्ण, द्रौपदी, पांडव, विश्वामित्र, मल्लिका और अमेरिका तक के संदर्भ समाहित किए हैं। यह पौराणिक और ऐतिहासिक संदर्भ उपन्यास को एक दार्शनिक गहराई देते हैं, जो प्रेम, विवाह, वासना और विपश्यना जैसे विषयों को केवल व्यक्तिगत दृष्टिकोण तक सीमित नहीं रखते, बल्कि उन्हें एक व्यापक सामाजिक और सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करते हैं।

विनय के प्रेम को लेखक ने साधना के रूप में प्रस्तुत किया है, जहां वह स्त्री को केवल उपभोग की वस्तु के रूप में नहीं देखता, बल्कि उसमें लीन हो कर उसे आत्मिक अनुभव का हिस्सा बनाता है। यह विचार प्रेम और वासना के बीच की महीन रेखा को धुंधला कर देता है, जिस से पाठक के सामने यह प्रश्न खड़ा होता है कि क्या यह प्रेम की ऊंचाई है या केवल दैहिक आकर्षण का एक नया रूप?

निष्कर्ष

विपश्यना में प्रेम केवल एक प्रेमकथा नहीं है, बल्कि यह प्रेम, विपश्यना, वासना और विवाहेतर संबंधों पर एक गहरा विमर्श है। लेखक ने न केवल मानवीय इच्छाओं और सामाजिक संरचनाओं की पड़ताल की है, बल्कि आत्मिक खोज और मानसिक द्वंद्व को भी बड़ी संजीदगी से प्रस्तुत किया है। यह उपन्यास पाठकों को आत्मनिरीक्षण के लिए बाध्य करता है और यह सोचने पर मजबूर करता है कि प्रेम, वासना और आध्यात्मिकता के बीच का सही संतुलन क्या है।

लेखन शैली

दयानंद पांडेय की लेखन शैली विचारप्रधान, विश्लेषणात्मक और गहरी दार्शनिकता से परिपूर्ण है। विपश्यना में प्रेम केवल घटनाओं का क्रमिक वर्णन नहीं करता, बल्कि यह मनोवैज्ञानिक विश्लेषण और दार्शनिक विमर्श का एक उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करता है। लेखक की भाषा सहज और प्रवाहमयी है, लेकिन उसमें गहराई है, जो पाठकों को आत्ममंथन के लिए प्रेरित करती है।

इस उपन्यास की सब से प्रमुख विशेषता इस का आत्मचिंतनपरक दृष्टिकोण है। हर स्थिति, हर संबंध, और हर मनःस्थिति को लेखक ने गहराई से विश्लेषित किया है। उपन्यास में बार-बार भूत, भविष्य और वर्तमान के बीच आवाजाही होती है, जिस से कथा की शैली फिल्मी फ्लैशबैक जैसी प्रतीत होती है। यह तकनीक पाठकों को मुख्य पात्र विनय के मानसिक द्वंद्व को अधिक गहराई से समझने में मदद करती है।

इस के अलावा, शैली में एक प्रकार की काव्यात्मकता भी मौजूद है, विशेष रूप से तब जब देह मिलन को "देह संगीत" के रूप में प्रस्तुत किया गया है। उपन्यास में कई स्थानों पर रूपक, उपमा और अलंकारों का प्रयोग हुआ है, जिस से यह भाषा अधिक सजीव और चित्रात्मक हो जाती है। लेखक ने प्रेम, वासना और विपश्यना जैसे जटिल विषयों को बेहद सधे हुए शब्दों में प्रस्तुत किया है, जिससे उनकी लेखनी की परिपक्वता झलकती है।

वातावरण

उपन्यास का वातावरण मुख्यतः मनोवैज्ञानिक और आत्मविश्लेषण से भरा हुआ है। यह न केवल भौतिक परिवेश का चित्रण करता है, बल्कि मानसिक और भावनात्मक परिवेश को भी उजागर करता है।

1. विपश्यना केंद्र का वातावरण – उपन्यास का एक बड़ा हिस्सा विपश्यना केंद्र के भीतर घटित होता है, जिसे लेखक ने "चुप की राजधानी" कहा है। यहां एक गहरा सन्नाटा है, जहां बाहरी आवाज़ें नहीं हैं, लेकिन मन और इच्छाओं की हलचल थमने का नाम नहीं लेती। यह मौन और चुप्पी केवल बाहरी स्तर पर है, लेकिन भीतर इच्छाओं और भावनाओं का प्रवाह चलता रहता है। यह वातावरण पाठकों के भीतर एक बेचैनी उत्पन्न करता है और उन्हें सोचने पर मजबूर करता है कि क्या वास्तविक मौन केवल बाहरी ही हो सकता है?

2. रात्रि का वातावरण – उपन्यास में रात्रि का विशेष महत्व है। जब दिन में विनय विपश्यना के नियमों में बंधा होता है, तो रात में उस की इच्छाएं उसे बेचैन कर देती हैं। लेखक ने चांदनी रात, ठंडी हवाओं और गहरी नीरवता का बहुत सुंदर चित्रण किया है, जिस से एक रहस्यमयी और रोमांटिक वातावरण बनता है।

3. शहर का वातावरण – जब कथा विपश्यना केंद्र से बाहर जाती है, तो वहां का वातावरण खुला और सामाजिक होता है। लेखक ने इस में पटना और अन्य स्थानों के जीवन को भी छुआ है, जिस से यह कहानी केवल एक बंद वातावरण तक सीमित नहीं रहती, बल्कि एक व्यापक सामाजिक परिप्रेक्ष्य में फैलती है।

शिल्प और संरचना

विपश्यना में प्रेम की संरचना काफी सशक्त है। इसमें कई परतें हैं—प्रेम, वासना, विपश्यना, समाज, नैतिकता और दर्शन। उपन्यास की कथा रेखा रैखिक नहीं है, बल्कि यह समय के साथ अतीत और वर्तमान के बीच घूमती रहती है।

1- फ्लैशबैक टेक्निक 

कहानी में बार-बार अतीत और वर्तमान के बीच स्विच किया जाता है। यह तकनीक न केवल कथा को रोचक बनाती है, बल्कि पात्रों की मानसिक स्थिति को बेहतर समझने में भी मदद करती है।

2. संवाद और आत्ममंथन 

उपन्यास में संवादों से अधिक आत्मचिंतन का प्रयोग किया गया है। विनय का अधिकांश संवाद स्वयं से ही होता है, जिस से पाठक सीधे उसके मनोभावों और आंतरिक संघर्षों से जुड़ जाता है।

3. पौराणिक और ऐतिहासिक संदर्भ 

लेखक ने कृष्ण, मीरा, द्रौपदी, विश्वामित्र और अन्य पौराणिक पात्रों का उल्लेख कर कहानी को एक गहरी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि दी है। इस से कथा केवल व्यक्तिगत संघर्ष तक सीमित नहीं रहती, बल्कि एक व्यापक दार्शनिक विमर्श का हिस्सा बन जाती है।

निष्कर्ष

लेखन शैली गहरी, विचारोत्तेजक और आत्मविश्लेषणात्मक है। उपन्यास का वातावरण रहस्यमयी, आत्ममंथन से भरा और भावनात्मक उथल-पुथल को दर्शाने वाला है। लेखक ने भाषा में प्रवाह और काव्यात्मकता बनाए रखी है, जिस से यह उपन्यास न केवल पठनीय बनता है, बल्कि पाठकों को आत्ममंथन की यात्रा पर भी ले जाता है। इस के शिल्प में गहराई और परतें हैं, जो इसे एक उत्कृष्ट दार्शनिक और मनोवैज्ञानिक कृति बनाती हैं।






समीक्ष्य पुस्तक :

प्रेम में विपश्यना 
लेखक : दयानंद पांडेय 
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन 
4695 , 21 - ए दरियागंज , 

नई दिल्ली - 110002 


आवरण पेंटिंग : अवधेश मिश्र 
पृष्ठ : 106 
हार्ड बाऊंड : 499 रुपए 
पेपरबैक : 299 रुपए 

अमेज़न (भारत)
हार्डकवर : https://amzn.eu/d/g20hNDl


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विपश्यना में प्रेम