Wednesday, 29 January 2025

मृत्यु की डुबकी

दयानंद पांडेय

आस्था में विभोर , भोर में ही मृत्यु की डुबकी के मारे लोग हमारी याद से कैसे जाएंगे भला ?

उन की याद में , कम से कम जिन की ज़िंदगी कुंभ स्नान की लालसा में मौनी अमावस्या ने लील कर अमावस घोल दिया , उन के दुःख , सम्मान और शोक में हेलीकाप्टर से पुष्प वर्षा की अश्लीलता से बचा जाना चाहिए था। हर हाल बचा जाना चाहिए था। मनुष्यता की मांग थी कि तीनों शंकराचार्य और संत जन भी आज शाही स्नान रद्द कर दिए होते। अखाड़ों की भव्यता और शोभा यात्रा का यह अश्लील प्रदर्शन लोगों की लाशों पर इतना ज़रूरी क्यों था ?

भावुक हो कर , गला भर आना , आंख भर आना , रोना , योगी के दुःख , संवेदना और निर्मल मन की थाह ज़रूर देता है पर शुचिता और नैतिकता का तकाज़ा तो यह भी है कि संगम की रेती पर कैबिनेट करने वाली योगी सरकार इस्तीफ़ा दे दे। कह सकते हैं कि जब गोविंद वल्लभ पंत ने , नेहरू ने नहीं दिया इस्तीफ़ा , हरिद्वार के कुंभ की भगदड़ में मरने वालों के शोक में वीर बहादुर सिंह ने नहीं दिया , अखिलेश यादव टाइप लोगों ने नहीं दिया इस्तीफ़ा तो योगी भी क्यों दें ?

कृपया मुझे यह कहने की अनुमति दीजिए कि उन लोगों ने भी राजनीतिक नैतिकता और शुचिता का परिचय नहीं दिया तो क्या आप को भी वही अधिकार है कि पतित पावनी गंगा में राजनीतिक नैतिकता और शुचिता को विसर्जित कर दें ? वह लोग तो संत नहीं थे , आप संत हैं। सचमुच के संत हैं। जिन निर्बल वर्ग के लोगों ने मृत्यु की डुबकी लगाई है , उसी निर्बल वर्ग से आते हैं। यह भी सच है कि आप की मंशा , आप की तैयारी और प्रयास में कोई कमी नहीं रही है पर प्रशासनिक चूक के लिए किसी के ख़िलाफ़ अभी तक कार्रवाई क्यों नहीं हुई ? आयोग भी क्या कर लेगा ? किस को फांसी दे देगा ? मीडिया भी नहीं बता रहा , न ही प्रशासन पर भगदड़ और मृत्यु मेले में सिर्फ़ एक नहीं , अनेक जगह हुई है। अल्ल सुबह से तमाम विघ्नसंतोषी तीन हज़ार से दस हज़ार तक की मृत्यु का पहाड़ा पढ़ते रहे। लेकिन शासन , प्रशासन कहता रहा कि अफ़वाहों पर ध्यान न दें।

यह क्या था ?

तीस की मृत्यु संख्या बताने में भी भोर से शाम क्यों हो गई ? गांव-गांव से शोक की चीत्कार जब आने लगी तभी नींद क्यों खुली , संख्या बताने के लिए। प्रधान मंत्री ने पूर्वान्ह में ही शोक जता दिया दिल्ली के चुनावी भाषण में पर मृतकों की संख्या तब भी क्यों नहीं बता दी गई। पारदर्शिता का यह क्षरण क्या कहता है भला ! मेला प्रशासन बता रहा है कि आज कोई वी आई पी मूवमेंट नहीं था। पर सुबह - सुबह ही स्नान करते हुए संगम से हेमा मालिनी की बाइट दिखी थी। तो क्या वह वी आई पी नहीं हैं ? जनता-जनार्दन की तरह झोला लिए संगम तक पैदल आई थीं ?

शासन से जुड़े लोगों का कहना है कि यह छोटी - मोटी घटना है। कोई शंकराचार्य , किसी अखाड़े का बड़ा संत , कोई मंत्री , कोई अफ़सर , कोई सांसद , विधायक भी अगर इसी तरह मृत्यु की डुबकी मार गया होता तब ? क्या तब भी यही कहा जाता कि छोटी - मोटी घटना है। केंद्रीय गृह मंत्री को जिस तरह संगम के जल में संतों ने निहुरे - निहुरे नहलाया , कोर्निश बजाई क्या वह भी छोटी - मोटी घटना थी ? मृत्यु की डुबकी की बुनियाद उसी दिन पड़ गई थी।

मान सिंह अकबर का दरबारी था। कहा जाता है कि मान सिंह ने अपनी बहन जोधा बाई का विवाह अकबर से किया था। यह सरासर गप्प है। जोधा बाई , अरे किसी भी नाम की कोई बहन मान सिंह की नहीं थी। मुग़लेआज़म फ़िल्म में कमाल अमरोही नाम के एक लेखक और फ़िल्म निर्देशक की कल्पना से उपजा एक चरित्र थी जोधा बाई। बस। मान सिंह को अपमानित करने के लिए यह कमाल अमरोही का कमीनापन था। अलग बात है कि बाद में निर्देशक आशुतोष गोवारिकर ने भी जोधा अकबर नाम की फ़िल्म बनाई और कि एकता कपूर ने टी वी सीरियल।

यही मान सिंह एक बार सोमनाथ मंदिर गया। पुजारियों ने मंदिर में प्रवेश पर रोक लगा दिया। मान सिंह पुजारियों से मिला और पूछा की कारण क्या है ? पुजारियों ने बताया कि तुम एक मलेच्छ की नौकरी करते हो , इस लिए तुम मंदिर में प्रवेश नहीं कर सकते। मान सिंह ने बताया कि नौकरी भले मलेच्छ की करता हूं। पर अपने धर्म से कभी कोई समझौता नहीं किया। मान सिंह ने बताया कि वह पूजा - पाठी है और कि सर्वदा गंगा जल का ही उपयोग करता है। देश के किसी भी हिस्से में हो , हरिद्वार से नियमित गंगा जल मंगवाता है। गंगा जल ही पीता है , उसी से स्नान करता है और भोजन भी उसी से बनाता है। मान सिंह की इस बात का परीक्षण किया पुजारियों ने और पाया कि मान सिंह सच बोल रहा है। मान सिंह को सोमनाथ मंदिर में प्रवेश और पूजा की अनुमति पुजारियों ने दे दी।

गंगा जल का नियमित सेवन करने वाला कोई शंकराचार्य , कोई संत , कोई राजनीतिज्ञ , कोई उद्योगपति , कोई फ़िल्मी , कोई इल्मी या कोई नागरिक आज की तारीख़ में दुर्लभ है। गंगा किनारे रहने वाले लोग भी नहीं गंगा जल का उपयोग अब नहीं करते। क्यों कि हम सब ने मिलजुल कर उसे प्रदूषित कर बस मैली ही कर रखा है। राम की गंगा ही नहीं , सभी नदियां अब पीने लायक़ तो छोड़िए , आचमन लायक़ भी कोई एक नदी नहीं रह गई है। आज देखा कि हरियाणा के मुख्यमंत्री बाबू सिंह सैनी , अरविंद केजरीवाल को राजनीतिक जवाब देने के लिए हरियाणा में यमुना के जल का आचमन कर रहे थे। मुंह में पानी लेते ही थूक दिया , घोंटा नहीं। क्यों कि वह जानते थे कि यमुना हरियाणा की ही सही , कितनी स्वच्छ है। हो सकता है मुंह में पानी ले लेने से जीभ या गाल में छाले पड़ गए हों।

कभी दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाने वाले , अब दिल्ली में रहने वाले , एक पाखंडी ब्राह्मण वामपंथी आलोचक , प्रोफ़ेसर इन दिनों अपने घर प्रयाग आए हुए हैं। लगभग रोज ही कुंभ पर एक-दो विष भरी पोस्ट फ़ेसबुक पर डालते रहते हैं। आज सुबह उन की बांछें खिल गईं। मुराद पूरी हो गई तो धकाधक पोस्ट लिखने लगे। ढाई हज़ार से अधिक की मौत सुबह आठ बजे ही बता गए। यह भी लिखा कि पत्नी बड़ी धार्मिक हैं आज अमावस्या स्नान के लिए उन्हें जाना था। आदि - इत्यादि। फिर यह भी लिखा कि संगम के गंदे पानी में नहाने के बाद बिना बाथरूम में नहाए रहा नहीं जाता। ऐसे विष भरी बातें लिखने के वह अभ्यस्त हैं। मथुरा के भी एक वामपंथी लेखक भी यही सब रोज करते हैं। राजनीतिक दलाली का गले में पट्टा बांधे ज़्यादातर लेखक , पत्रकार कुंभ को ले कर विष - वमन के आचार्य बने बैठे हैं। यह विष - वमन उन की ख़ुराक़ है। न करें खाना न पचे , पाख़ाना न हो। अखिलेश यादव , राहुल गांधी , पप्पू यादव टाइप के राजनीतिक लाखैरे टाइप के लोगों के तो ख़ैर क्या कहने !

मुख्य मंत्री योगी ने अपने अश्रु भरे उदबोधन में मृतकों के परिजनों को पचीस लाख रुपए के मदद की घोषणा की है। यह सुन कर अयोध्या के एक पंचकोसी परिक्रमा की याद आ गई है। कांग्रेस के वीर बहादुर सिंह तब मुख्यमंत्री थे। गोरखपुर के ही थे। पंचकोशी परिक्रमा की भगदड़ में कुछ लोग मर गए थे , ज़्यादातर घायल थे। एक ग्रामीण और ग़रीब वृद्ध की पत्नी की भी मृत्यु हो गई थी। दूरदर्शन के एक समाचार बुलेटिन में नंगी देह , मटमैली सी धोती लपेटे , रिपोर्टर से बात करते हुए वह बहुत ख़ुश था। कह रहा था कि बुढ़िया को तो मरना ही था। उम्र हो गई थी। पर बड़ी ख़ुशक़िस्मत थी। भाग्यशाली थी। आकाश की तरफ आंख और हाथ उठा कर बोला कि अयोध्या में मर कर ख़ुद स्वर्ग चली गई और जाते-जाते हमें भी पांच हज़ार रुपए मुआवज़े में दे गई। और का चाही ! यह 1986 या 1987 की बात है। रघुवीर सहाय याद आते हैं :

राष्ट्रगीत में भला कौन वह भारत-भाग्य-विधाता है

राष्ट्रगीत में भला कौन वह भारत-भाग्य-विधाता है फटा सुथन्ना पहने जिसका गुन हरचरना गाता है मखमल टमटम बल्लम तुरही पगड़ी छत्र चंवर के साथ तोप छुड़ाकर ढोल बजाकर जय-जय कौन कराता है पूरब-पश्चिम से आते हैं नंगे-बूचे नरकंकाल सिंहासन पर बैठा उनके तमगे कौन लगाता है कौन-कौन है वह जन-गण-मन अधिनायक वह महाबली डरा हुआ मन बेमन जिसका
बाजा रोज बजाता है

किसी ग़रीब के लिए तब पांच हज़ार बहुत था। आज पचीस लाख तो बहुत ही ज़्यादा है। लगते रहें कुंभ। परिक्रमा होती रहे। होती रहे भगदड़। मरते रहें लोग। मिलते रहें पचीस लाख। मृत्यु की डुबकी हरचरना लगाता रहेगा। किसी के बाप का क्या जाता है ! स्वर्ग का स्वर्ग , मुआवज़ा का मुआवज़ा !



Monday, 13 January 2025

विपक्ष यू ट्यूबर्स को पैसा देना बंद कर दे , मोदी पराजित हो सकता है

 दयानंद पांडेय 

मज़रूह सुल्तानपुरी ने लिखा ही है :


ज़माने ने मारे जवाँ कैसे-कैसे
ज़मीं खा गई आसमाँ कैसे-कैसे l

जब जिस की सत्ता , तब तिस के अख़बार, तब तिस के चैनल l यह तो एक ज़माने से हो रहा है l ब्रिटिश पीरियड से l अब तो सोशल मीडिया है , लोग कह ले रहे हैं l उन दिनों की सोचिए कि जब सोशल मीडिया नहीं था , तब हम लोग कैसे जिये l दलाली का आलम यह कि हमारे साथ काम करने वाले लोग देखते-देखते अख़बारों और चैनलों के मालिक बन गए हैं l

जिन यू ट्यूबर्स का ज़िक्र किया है आप ने , यह लोग भी साफ़ सुथरी पत्रकारिता के लिए परिचित नहीं रहे हैं l न हैं l आज भी करोड़ो की पॉलिटिकल फंडिंग न मिले तो यह लोग यू ट्यूब चलाना भूल जाएं l सांस लेना भूल जाएं l भगत सिंह बनाना भूल जाएं l एजेंडा पत्रकारिता ने बहुत नुकसान किया है l दलाली पी आर और जुगाड़ वाली पत्रकारिता में हमारे जैसे लोग तो खड़े भी नहीं हो सके l सर्वदा हाशिए से भी बाहर रहे l और हम जैसे लोग ही क्यों तमाम लोग l मीर लिख ही गए हैं :

हम हुए तुम हुए कि मीर हुए
सब इसी ज़ुल्फ़ के असीर हुए l

रही बात मीडिया मालिकों की तो बड़े-बड़े रामनाथ गोयनका जो कभी ब्रिटिशर्स के आगे नहीं झुके , इंदिरा गांधी की इमरजेंसी में नहीं झुके , सहसा राजीव गांधी के आगे झुक गए l समर्पण कर गए l ट्रस्ट के थ्रू चलने वाला हिंदू झुक गया l टेलीग्राफ़ भी ममता बनर्जी के आगे सरेंडर है l आज अंबानी , अदानी की पूंजी हर छोटे-बड़े मीडिया हाऊस में लगी है l आप के आज तक , तक में भी l अब तो बिल्डर मीडिया मालिक भी हैं l प्रणव रॉय के एन डी टी वी तक में पोंटी चड्ढा और अन्य बिल्डर का पैसा लगा था l तहलका में भी l आऊटलुक है ही बिल्डर का l वायर आदि की कहानी भी कहां छुपी है l धूमिल की कविता पंक्ति है न , जिस-जिस की पूंछ उठाया , मादा पाया l शुरू तो किया था नेहरू ने कोआपरेटिव पर नेशनल हेराल्ड , नवजीवन , कौमी आवाज़ l क्यों कि नेहरू मीडिया पर पूंजी के ख़तरे को जानते थे l अफ़सोस कि वही नेशनल हेराल्ड अब घोटाला हेराल्ड बन कर उपस्थित है l

कितना और क्या-क्या बताएँ l मुख़्तसर में यह कि समूची मीडिया काले धन की गोद में बैठी हुई है l बाक़ी हम लोग हैं न आदर्श , नैतिकता और शुचिता वग़ैरह की आइस-पाइस खेलने के लिए l खेल रहे हैं l आत्म-वध के लिए अभिशप्त खेलते ही जा रहे हैं l

----------------

किसी भी सरकार की आलोचना करना पत्रकार का काम है l फिर संजय सिन्हा जो प्रश्न उठाए हैं , उन्हें ऐसे ही ख़ारिज नहीं किया जा सकता l सवाल तो हैं l अलग बात है , इन सवालों का जवाब या समाधान अब किसी के पास नहीं है l मर्ज बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की वाली स्थिति है l संविधान में किसी चौथे स्तंभ का ज़िक्र नहीं है l सिर्फ़ तीन ही स्तंभ हैं l विधायिका , न्याय पालिका और कार्यपालिका l मीडिया या प्रेस किसी भी शब्द का ज़िक्र भी नहीं है l यह चौथा खंभा पूंजीपतियों की सुविधा और दलाली का स्तंभ है l सत्तानशीनों से रिश्ते बनाए रखने और मिलने जुलने का प्लेटफार्म भर है l और कुछ नहीं l यह चैनल , यह अख़बार सब उन की दुकानें हैं l बिरला की तिजोरी हिंदुस्तान टाइम्स से नहीं भरती l तिजोरी भरने के लिए उन के पास और भी उपक्रम हैं l यही हाल अन्य मीडिया समूहों का भी है l अब तो तमाम बिल्डर मीडिया ग्रुप के स्वामी हैं l हिंदी पट्टी में आज और जागरण जैसे पुराने मीडिया समूह भी अब बिल्डर बन चुके हैं l और भी कई कारोबार हैं l कारपोरेट पत्रकारिता में ही करोड़ो का पैकेज मिल सकता है , मीडिया के कारिंदों को l

आप बताइए कि बीते तीन दशक में कोई एक ख़बर है , जिस का पर्दाफ़ाश किसी मीडिया हाऊस के खाते में हो ?

एक नहीं है l

आज की तारीख़ में एक मरा हुआ अख़बार है जनसत्ता l कभी सूर्य सा चमकता था l हम भी उस की पहली टीम में रहे हैं l जनसत्ता का एक स्लोगन था : सब की ख़बर ले , सब को ख़बर दे l

पर अब सारी मीडिया के लिए कहा जा सकता है : इन से ख़बर लो , उन को ख़बर दो l बस !

और यह यू ट्यूबर ?

आज की तारीख़ में सब से बड़े पोलिटिकल दलाल हैं l ध्रुव राठी से लगायत, अजित अंजुम , पुण्य प्रसून तक सभी राजनीतिक पार्टियों से उगाही करते हैं l करोड़ो की फंडिंग देती हैं सभी पार्टियां l सोरोस से ले कर सपा , कांग्रेस , जैसी पार्टियां इन्हें करोड़ो करोड़ रुपए देते हैं l

विपक्ष मोदी को पराजित इसी लिए नहीं कर पा रहा है कि यू ट्यूबर्स पैसा ले कर फर्जी माहौल बना देते हैं , मोदी के ख़िलाफ़ l विपक्ष इस माहौल के नशे में लड़खड़ा जाता है l विपक्ष आज इन यू ट्यूबर्स को पैसा देना बंद कर दे , मोदी कल पराजित हो सकता है l असली लड़ाई शुरू हो जाए l

लखनऊ में तो विधान सभा चुनाव में सपा के पेरोल पर रहने वाला एक यूट्यूबर जहां चुनाव नहीं हुआ रहता , वहां के चुनाव भी करवा कर सपा का पलड़ा भारी बता देता था l लंबा चौड़ा स्टाफ रखता है l लखनऊ, दिल्ली से लगायत मुंबई तक में शानदार आफिस खोल लिया है l जब देखिए तब किसी पहाड़ , किसी अन्य देश में घूमता दिखता है l पिछले विधान सभा चुनाव में उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव रहे एक आई ए एस अफ़सर को तमाम यू ट्यूबर और एन जी ओ को खुलेआम करोड़ो रुपए बांटने के लिए अखिलेश यादव ने तैनात कर दिया था l कांग्रेस भी इस काम के लिए परिचित है l

जवाब में मोदी ने अदानी , अंबानी के मार्फ़त मुख्य मीडिया को ख़रीद रखा है l इसी लिए लोग गोदी मीडिया बताते फिरते हैं l

मीडिया क्या है , सत्ता का अंकुश है l जैसे हाथी पर महावत का अंकुश l अफ़सोस कि अब हाथी ने इस अंकुश को नष्ट कर दिया है l कुचल कर रख दिया है l महावत और अंकुश दोनों को l मीडिया आज ठीक हो जाए , राजनीति आज ही ठीक हो जाए l

लेकिन अब यह सब एक कल्पना है l सपना है l पहले सोशल मीडिया पर पेड वर्कर होते थे , आज यू ट्यूबर हैं l क्यों कि तमाम इधर उधर के बावजूद मुख्य मीडिया के पास थोड़ी बहुत लोकलाज है l पर यू ट्यूबर के पास न लोक है , न लाज है l वनली एजेंडा !

[ एक मित्र की पोस्ट पर मेरे यह दो कमेंट ]

Sunday, 12 January 2025

जब प्यार किया तो डरना क्या को क्रांतिकारी गीत बताने वाले माता प्रसाद त्रिपाठी का जाना

दयानंद पांडेय 

मैं तब विद्यार्थी था। कालेज में कविता और कहानी की प्रतियोगिता थी। वार्षिक समारोह में अज्ञेय जी मुख्य अतिथि थे। अज्ञेय जी ने जब लगातार मुझे दो बार प्रथम पुरस्कार दिया तो दूसरा पुरस्कार देते हुए धीरे से कहा कि प्रतीक के लिए भी रचना भेजिए। रचना भेजिए तो समझ में आया , मन में गुदगुदी सी हुई भी पर कहां भेजें , समझ में नहीं आया। मेरे कालेज के प्राचार्य और हमारे हिंदी अध्यापक  भी मंच पर उपस्थित थे। बाद में डरते - डरते उन दोनों से भी पूछा , प्रतीक के बारे में। दोनों ही को नहीं मालूम था। अब रचना भेजें भी तो कहां भेजें। समझ नहीं आ रहा था। एक दिन माता प्रसाद त्रिपाठी से आकाशवाणी में भेंट हुई। वह कोई वार्ता रिकार्ड करवाने आए थे। और मैं कविता पाठ की रिकार्डिंग के लिए गया था। बहुत संकोच से उन से प्रतीक के बारे में पूछा। स्वभाववश हंसते हुए उन्हों ने बताया कि प्रतीक एक साहित्यिक पत्रिका है। अज्ञेय जी संपादक हैं इस के। फिर उन्हों पूछा कि क्या हुआ ? उन्हें पूरी घटना बताई। वह बोले , यह तो बहुत अच्छी बात है। रचना भेजिए। प्रतीक का पता पूछा तो वह बोले , याद नहीं है। कभी घर आइए। पत्रिका है मेरे पास। पता देख लीजिए। मैं ने कहा कि कभी क्यों , आज ही आप के साथ चलता हूं। उन के साथ उन के घर गया। आकाशवाणी कार्यालय से एक किलोमीटर पर ही अलहलादपुर में उन का घर था। किराए का। पत्रिका देखी। 

प्रतीक नहीं , नया प्रतीक थी। ख़ैर पता नोट किया। और दूसरे ही दिन पत्रिका के पते पर एक गीत पोस्ट कर दिया। बात ख़त्म हो गई। कोई पांच - छ महीने बीत गए। कोई जवाब नहीं आया नया प्रतीक से। मुझे लगा कि अब शायद ही नया प्रतीक में गीत छपे। एक दिन शाम को माता प्रसाद त्रिपाठी के घर गया तो वह धधा कर मिले। बहुत ख़ुश थे। गले लगाते हुए बोले , बहुत बधाई ! मैं ने पूछा कि हुआ क्या ? उन्हों ने पूछा , आप को कुछ मालूम ही नहीं ? मैं ने ना में सिर हिलाया। वह उछलते हुए बोले , नया प्रतीक में आप का गीत छप गया है। आप पता ले तो गए थे हम से ! मेरी ख़ुशी का कोई आरपार नहीं था। मैं ने कहा कि पत्रिका कहां मिलेगी ? वह बोले , मेरे पास है। उन्हों ने पत्रिका दिखाई और कहा कि लेकिन दूंगा नहीं। मेरे पास रहेगी। आप चाहिए तो वीनस बुक से ले लीजिए। पैसा न हो तो , पैसा देता हूं। ख़रीद लीजिएगा। लेकिन उस समय पत्रिका खरीदने भर के पैसे मेरे पास थे। मैं चलने लगा तो कहने लगे , मिठाई खा कर जाइए। मिठाई खाई और तुरंत साईकिल उठाई। पहुंचा वीनस बुक स्टोर पर। नया प्रतीक मिल गया था। फिर माता प्रसाद त्रिपाठी पूरे शहर में बताते फिरे नया प्रतीक और मेरे छपे गीत के बारे में। मुझ से ज़्यादा ख़ुशी उन को थी। वह यह भी बताते कि पता मैं ने ही दिया था। अयोध्या के स्वामीनाथ पांडेय के बड़े प्रशंसक थे। जब पूर्वी संदेश का काम देख रहा था तब अपने निबंध के साथ ही स्वामीनाथ पांडेय के निबंध भी छापने के लिए देते थे। एक समय था जब वह मुगलेआज़म फ़िल्म के बड़े प्रशंसक थे। शक़ील बंदायूनी के लिखे गीत जब प्यार किया तो डरना क्या को क्रांतिकारी गीत बताते नहीं थकते। कुछ लोग बड़े सलीक़े से उन से प्रतिवाद करते हुए कहते , क्या गुरुदेव ! लेकिन वह भिड़ जाते। एक से एक तर्क और उस गीत की व्याख्या परोसते हुए। लोग बिदक जाते। कहते कि पढ़ाते प्राचीन इतिहास हैं और गाथा मुग़लिया सल्तनत की गाते हैं। और वह भी इश्कबाज़ी के गाने पर खर्च होते रहते हैं। क्रांतिकारी बता देते हैं। जब कुछ नहीं मिलता तो उन के निजी जीवन में ताक-झांक करने लगते।  

ललित निबंध लिखने वाले गोरखपुर में विश्वविद्यालय में प्राचीन इतिहास पढ़ाने वाले माता प्रसाद त्रिपाठी लेकिन ऐसे ही थे। हरदम ख़ुश और मस्त रहने वाले। पुत्रवत था पर मित्रवत मानते और मिलते थे। ऐसे जैसे हमउम्र दोस्त हों। हंसी - मजाक से लबरेज। जवां दिल। किसी की बात का बुरा नहीं मानते थे। टाई बांधे , पान खाते , कूंचते , हंसते - बतियाते और हरदम प्रसन्न रहने वाले अकसर मेरी रचनाओं के छपने की सूचना सब को देते रहते। हर हफ़्ते एक बार उन के घर भेंट ज़रूर होती। कई और सूचनाएं देते रहते। क्या लिख रहे हैं , कहां क्या प्रकाशित हुआ पूछते रहते। प्रोत्साहित करते रहते। उन की मकान मालकिन उर्मिला शुक्ला दरवाज़ा खोलतीं। बड़े भाव से स्वागत करतीं। जब तब गीत सुनातीं। लोक गायिका थीं। आकाशवाणी पर भी जातीं। माता प्रसाद त्रिपाठी उन दिनों सक्रिय बहुत रहते। हर आयोजन में मिलते। उन के घर पर भी आयोजन होते रहते। गोरखपुर में कुछ लोग उन्हें तंज में माता जी कह कर पुकारते। माता जी कह कर ज़िक्र करते। पर वह बुरा नहीं मानते थे। बाद में दिल्ली चला गया। दिल्ली में एक बार विश्वहिंदी सम्मलेन हुआ। सम्मेलन में वह इंद्रप्रस्थ स्टेडियम में अचानक मिले। परेशान थे। हम ने पूछा , क्या हुआ ? वह बोले , बहुत दूर और ग़लत जगह आयोजकों ने ठहरा दिया है। साकेत में डी डी ए के किसी नए बने फ़्लैट में ठहरा दिया है , जिस की खिड़कियों में शीशा भी नहीं है। हवा और मच्छर दोनों ही तबाह किए हुए हैं। हम ने कहा , हमारे घर चले चलिए। विवाह नहीं हुआ था सो अकेले ही रहता था। कोई दिक़्क़त नहीं थी। पता बताने लगा। वह बोले , अकेले नहीं हूं। चार लोग और साथ हैं। मैं ने कहा कि सभी लोग साथ चलिए। वह अचानक ख़ुश हो गए। कहने लगे , जहां ठहरा हूं साथ चलिए। फिर आप के साथ आप के घर चलूंगा। दिल्ली में पता खोजना बहुत कठिन काम है। कार्यक्रम समाप्त होने पर हम उन के ठहरने की जगह पहुंचे। नीचे टेंट वाले रद्दी से गद्दे पर लोग पसरे हुए थे। एक-एक कमरे में चार - चार लोग। बुरी स्थिति थी। अव्यवस्था की चादर चहुं ओर पसरी पड़ी थी। खैर ले आया अपने मानसरोवर पार्क वाले घर। बहुत ख़ुश हो गए। मेरी कालोनी की तुलना इलाहाबाद के किसी मोहल्ले से करने लगे। कहने लगे कि  ऐसे ही खुला - खुला होना चाहिए। दो - तीन दिन रह कर वापस गोरखपुर चले गए। 

गोरखपुर लौट कर उन्हों ने एक बहुत भावुक सी चिट्ठी लिखी। चिट्ठी क्या लगभग निबंधात्मक संस्मरण कहिए। वह चिट्ठी अविस्मरणीय थी। पर दुर्भाग्य कि उसे सहेज कर नहीं रख सका। गोरखपुर जाने पर उन से भेंट होती। बाद में मैं लखनऊ आ गया। माता प्रसाद त्रिपाठी भी अपना घर बना कर अलहलादपुर वाला किराए का घर छोड़ गए। नया घर उन्हें सूट नहीं किया। उन का जवान बेटा नहीं रहा। वह टूट से गए। बाद में अयोध्या के अपने गांव में शिफ्ट हो गए। एक बार लखनऊ आए तो घर आए। बेटे की याद में खो गए। कहने लगे ज्योतिषीय गणना की जानकारी है मुझे। मुझे मालूम था कि उस की आयु ज़्यादा नहीं है। इसी लिए उस की शादी भी जल्दी कर दी। अब बहू है , पोता है तो जीवन है। जब सब रंग : लोक राग पुस्तक उन की छपी तब भी वह लखनऊ मेरे घर आए। किताब देने। वह जब भी कभी लखनऊ आते , पुरानी यादों में खो जाते। कभी खुश , कभी उदास। हां , अयोध्या में अपने गांव आने का न्यौता ज़रूर देते। कहते जब भी बाई रोड गोरखपुर जाइए तब मेरे घर भी आइए। रास्ते में ही है। फ़ोन करते तब भी बुलाते। कहते आइए , दो - चार दिन हमारे साथ भी रह जाइए। थोड़ा मेरा अकेलापन टूटेगा। हर बार जाने की सोच कर भी नहीं जा पाया। अब जब आज उन के जाने की सूचना मिली है तो बहुत अफ़सोस हो रहा है कि क्यों नहीं एक बार चला गया उन के साथ रहने। हमेशा उन से कुछ न कुछ मिलता ही था , जाता नहीं था। 



दिनमान और रघुवीर सहाय के बहाने कुछ पुराने तराने

दयानंद पांडेय 

दिनमान में भी रघुवीर सहाय का मूल पद सहायक संपादक का ही था। बस नाम भर प्रिंट लाइन पर संपादक के तौर पर छपता था। सहाय जी की मूल नौकरी भी नवभारत टाइम्स की ही थी। अज्ञेय जी जब संपादक हुए दिनमान के तो उन्हें दिनमान में बुला लिया। जाते समय प्रबंधन से कह कर सहाय जी को संपादक बनवा दिया। इतना ही नहीं कन्हैयालाल नंदन के साथ भी यही हुआ कि उन का मूल पद भी धर्मयुग में सहायक संपादक का था पर मुंबई से दिल्ली आ कर पराग के प्रिंट लाइन पर संपादक थे वह। नंदन जी एक समय 10 , दरियागंज के संपादक कहे जाते थे। दिल्ली से प्रकाशित टाइम्स की सारी पत्रिकाओं का कार्यालय 10 दरियागंज ही था। और कि एक समय नंदन जी इन सभी पत्रिकाओं के संपादक। सारिका , दिनमान , पराग , खेल भारती , वामा। इन सभी पत्रिकाओं के संपादक थे नंदन जी। बात - बेबात झाड़े रहो कलट्टरगंज कहने वाले नंदन जी से जब टाइम्स प्रबंधन नाराज हुआ तो उन के मूल पद  सहायक संपादक के तौर पर नवभारत टाइम्स में भेज दिया। सारी कलेक्ट्री हवा हो गई। उस समय सुरेंद्र प्रताप सिंह नवभारत टाइम्स में कार्यकारी संपादक थे। 

यही सुरेंद्र प्रताप सिंह एक समय मुंबई में धर्मयुग में टाइम्स अप्रैंटिस स्कीम के तहत अप्रैंटिस हुए थे। सुरेंद्र प्रताप सिंह और उदयन शर्मा दोनों ही। एम जे अकबर तब इलस्ट्रेटेड वीकली में खुशवंत सिंह के साथ थे। 35 साल की उम्र में अकबर जब आनंद बाज़ार पत्रिका की अंगरेजी पत्रिका संडे के संपादक हुए तो सब से युवा संपादक कहलाए। बाद में टेलीग्राफ जैसा शानदार अख़बार भी निकाला। एशियन एज भी। आनंद बाज़ार की हिंदी पत्रिका रविवार जब छपी तो एम जे अकबर की देखरेख में। अकबर धर्मयुग से सुरेंद्र प्रताप सिंह और उदयन शर्मा को रविवार ले आए। सुरेंद्र प्रताप सिंह कोलकाता में रविवार के संपादक हुए , उदयन दिल्ली में व्यूरो चीफ। बाद में धर्मयुग से योगेंद्र कुमार लल्ला को भी आनंद बाज़ार की बच्चों की पत्रिका मेला पत्रिका का संपादक बनवाया अकबर ने। रविवार ने हिंदी पत्रकारिता को एक नया तेवर दिया था जिसे बाद में जनसत्ता ने धार दी। बाद में यही सुरेंद्र प्रताप सिंह नवभारत टाइम्स , दिल्ली के फ़रवरी , 1985 में कार्यकारी संपादक हुए। और कि जो सुरेंद्र प्रताप सिंह , बरसों पहले धर्मयुग में सहायक संपादक कन्हैयालाल नंदन के साथ अप्रैंटिश रहे थे , उन्हीं सुरेंद्र प्रताप सिंह के अधीन नंदन जी को कर दिया गया। इतना ही नहीं , 10 दरियागंज के संपादक रहे नंदन जी के पास हर हफ़्ते रविवार को छपने वाले साप्ताहिक परिशिष्ट में क्वार्टर पेज पर छपने वाली पुस्तक समीक्षा का काम दे दिया गया। सहाय जी के पास भी यही काम रहा था नवभारत टाइम्स में। नंदन जी ने जब सर्वेश्वर दयाल सक्सेना को पराग का संपादक बनवाया तो यही सब देखते हुए सर्वेश्वर जी ने संपादक की जगह प्रिंट लाइन पर संपादन लिखवाया। सर्वेश्वर जी पराग में रहते हुए ही दिवंगत हो गए थे। हार्ट अटैक से। 

असल में जब कमलेश्वर सारिका के संपादक थे मुंबई में तब कांग्रेस की वफ़ादारी में जनता पार्टी सरकार से निरंतर पंगा लेते जा रहे थे। पत्रिका कहानी की थी पर सारिका की संपादकीय और अन्य टिप्पणियां राजनीतिक हो गई थीं। बहुत से विवाद हुए। आलमशाह ख़ान की एक कहानी किराए की कोख को ले कर बहुत विवाद हुआ। सुब्रमण्यम स्वामी ने विवाद उठाया कि यह किराए की कोख हिंदू स्त्री की ही क्यों है ? सुब्रमण्यम स्वामी को ले कर और भी विवाद हुआ। जैसे एक विवाद कमलेश्वर के उपन्यास काली आंधी को ले कर भी। सुब्रमण्यम स्वामी ने मुंबई में टाइम्स आफिस की लिफ्ट में कमलेश्वर से कहा कि बहुत अच्छा चित्रण किया है इंदिरा गांधी का। कमलेश्वर ने कहा कि यह चित्रण इंदिरा गांधी का नहीं , विजयाराजे सिंधिया का है। सारिका में इस बाबत विस्तार से लिखा। गो कि वह चरित्र इंदिरा गांधी का ही था। क्यों कि काली आंधी पर गुलज़ार ने आंधी नाम से फ़िल्म बनवाई तो संजय गांधी इतना नाराज हुए कि देश भर के सिनेमाघरों से फ़िल्म उतरवा दिया। प्रिंट जलवा दिया। 

एक बार कमलेश्वर ने सारिका में एक संपादकीय में लिखा कि यह देश किसी मोरारजी देसाई , किसी चरण सिंह , किसी जगजीवन राम भर का नहीं है। सारिका का यह अंक तो छप गया इस संपादकीय के साथ। पर टाइम्स प्रबंधन ने बाज़ार में सारिका का यह अंक नहीं आने दिया। कमलेश्वर बतौर संपादक तब इतने ताक़तवर हो गए थे , कांग्रेस लॉबी का इतना समर्थन था कि टाइम्स प्रबंधन कमलेश्वर को हटा नहीं पाया। बल्कि सारिका का दफ़्तर ही मुंबई से हटा कर दिल्ली कर दिया। टाइम्स प्रबंधन को मालूम था कि मुंबई में कमलेश्वर के पास फ़िल्म लिखने का ज़्यादा काम है , वह दिल्ली नहीं जाएंगे। कमलेश्वर गए भी नहीं। नंदन जी संपादक बना दिए गए। कमलेश्वर ने उक्त संपादकीय छापने के लिए कथायात्रा नाम से पत्रिका निकाली। तीन कि चार अंक बाद बंद हो गई। फिर वह गंगा के संपादक हुए। जागरण के , भास्कर के भी। ख़ैर बाद में जब इंदिरा सरकार लौटी तब कमलेश्वर भी दिल्ली लौटे। दूरदर्शन में अतिरिक्त महानिदेशक बन कर। जो उस समय आई ए एस का पद हुआ करता था। कांग्रेस की खासियत थी और कि है कि वह अपने समर्थन में लिखने वाले लेखकों , पत्रकारों को हमेशा उपकृत करती रहती है। सिर पर बिठा कर रखती है। दिनकर हों , बच्चन हों , श्रीकांत वर्मा , खुशवंत सिंह , चंदूलाल चंद्राकर से लगायत राजीव शुक्ल , मृणाल पांडे , आलोक मेहता , आदि - इत्यादि बहुतेरे नाम हैं। एक समय एन डी टी वी से एक ही साल में पांच लोगों को पद्म पुरस्कार मिल गए थे। तो क्या मुफ्त में ? भाजपा वाले इस मामले में अतिशय कृपण हैं। या कहिए कि उन के पास इस का विजन नहीं है। न अवकाश। 

लौटते हैं आप के मूल सवाल रघुवीर सहाय पर। कि क्यों नहीं आप के इस बछड़ा उत्साह वाले प्रस्ताव पर विचार किया रघुवीर सहाय ने। क्यों कि आप का प्रस्ताव बहुत बचकाना था। आप आज भी तमाम अनुभव के बावजूद कई बार बचकानी बात करते मिलते हैं। कमलेश्वर आदि का हश्र देख रहे थे रघुवीर सहाय। कि कथायात्रा जैसी समृद्ध पत्रिका कैसे तीन अंक बाद बंद हो गई। तब जब कि कमलेश्वर के पास संसाधन थे। चंदा देने वाले भी बहुत। दूसरे , प्रेस इन्क्लेव वाले फ़्लैट की किश्तें शेष थीं रघुवीर सहाय की तब। बच्चे तब तक व्यवस्थित नहीं हुए थे। पढ़ रहे थे। नवभारत टाइम्स की नौकरी से सहसा इस्तीफ़ा देना मतलब आर्थिक हितों पर चोट थी। सहाय जी फिएट से चलते थे। पर उन दिनों सहाय जी को सिटी बस से चलते देखा। रिटायर होने में कुछ ही समय शेष था। रिटायर होने पर फंड , ग्रेच्युटी आदि पूरी मिल गई। बुढ़ापा आसान हो गया। नंदन जी भी इसी तरह रिटायर हुए फिर फंड , ग्रेच्युटी वगैरह ले कर संडे मेल के प्रधान संपादक बने। 

दूसरे , आप दिनमान की कथा शायद नहीं जानते। आप ही क्या बहुत लोग नहीं जानते। वह भी आज जान लीजिए। दिनमान शुरू में टाइम्स आफ इंडिया का प्रकाशन नहीं था। हरिद्वार के श्यामलाल शर्मा अच्छे फ़ोटोग्राफ़र थे। फ़ोटो खींचने के लिए दिल्ली आए। अपनी फ़ोटो छापने के लिए एक पत्रिका की योजना बनाई। तब के दिनों वह चांदनी चौक में रहते थे। पत्रिका निकाली। नाम रखा दिनमान। दिनमान की पूरी परिकल्पना श्यामलाल शर्मा की थी। उन्हों ने दिनमान के कुछ अंक बहुत शानदार निकाले। पर बाद के समय अर्थ की समस्या मुंह बा कर खड़ी हो गई। कब तक घर से या उधार से काम चलाते। मित्रों की सलाह पर वह उन दिनों टाइम्स प्रबंधन का काम देख रही रमा जैन से मिले। दिनमान के सारे अंक ले कर मिले। रमा जैन से कहा कि अर्थ के अभाव में यह पत्रिका चलाना कठिन हो गया है। आप अगर इसे टाइम्स का प्रकाशन बना लें तो अच्छा रहेगा। रमा जैन को दिनमान पत्रिका और उस की अवधारणा अच्छी लगी। श्यामलाल शर्मा का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। फिर श्यामलाल शर्मा से ही पूछा कि इस का संपादक किसे बनाया जाए ? श्यामलाल शर्मा संकोच में पड़ गए। नहीं कह पाए कि संपादक तो मैं हूं ही। बहुत सोच कर अज्ञेय जी का नाम प्रस्तावित कर दिया। यह सोच कर भी कि अज्ञेय जी कहीं ज़्यादा दिन टिकते नहीं। जल्दी ही चले जाएंगे। फिर मैं संपादक बन जाऊंगा। लेकिन संयोग देखिए कि अज्ञेय जी ने रमा जैन का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। दिनमान के संपादक बन गए। रघुवीर सहाय , श्रीकांत वर्मा , मनोहर श्याम जोशी , सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जैसे लोग वरिष्ठ पद पर आ गए। और बिचारे श्यामलाल शर्मा उसी दिनमान में संपादक से उप संपादक बन गए । दुर्योग देखिए कि लंबी सेवा के बाद दिनमान से उप संपादक के तौर पर ही रिटायर हो गए। उफ़्फ़ भी नहीं कह पाए। रघुवीर सहाय यह और ऐसे अनेक उदाहरण देख चुके थे। इसी लिए आप का भावनात्मक प्रस्ताव चुपचाप पी गए। पत्रिका या अख़बार निकलना , कोई चैनल चलाना पूंजी का काम है। पूंजीपति का काम है। लेखक या पत्रकार का नहीं। मिशनरी पत्रकारिता जब थी , तब थी। अब इस के बारे में सोचना आत्महत्या करने की सोचना है। हर जगह बछड़ा उत्साह ठीक नहीं होता। आप भाग्यशाली थे कि जवानी में संपादक बन गए। तमाम योग्यतम और श्रेष्ठ लोगों को टाइम्स ग्रुप से उप संपादक पद से ही रिटायर होते देखा है , जहां से रघुवीर सहाय या नंदन जी जैसे क़द्दावर संपादक बतौर सहायक संपादक अपमानित हो - हो कर रिटायर हुए। अंधा युग के रचनाकार और धर्मयुग के लंबे समय तक संपादक रहे , श्रेष्ठ संपादक धर्मवीर भारती की बहुत चलती थी एक समय , पर उन के रहते ही धर्मयुग कैसे बिका और किन - किन कामरेड लेखकों ने उस में दलाली की इस की भी बड़ी दारुण कथा है। फिर कभी। 

[ एक मित्र की पोस्ट पर यह मेरा कमेंट ]

श्रीनारायण चतुर्वेदी ने जब एक लाख का पुरस्कार ठुकरा दिया

दयानंद पांडेय 


तथ्य मत बदला करें l उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान ने श्री नारायण चतुर्वेदी को एक लाख रुपए का भारत भारती सम्मान देने का ऐलान किया था l कांग्रेस के नारायणदत्त तिवारी तब मुख्य मंत्री थे l प्रधान मंत्री राजीव गांधी के निर्देश पर उर्दू को दूसरी राजभाषा बनाने का ऐलान तिवारी जी ने किया था l

उर्दू राजभाषा के विरोध में श्रीनारायण चतुर्वेदी ने हिंदी संस्थान से जी पी ओ तक पैदल मार्च किया l भाषण में कहा कि इतने पैसे एक साथ कभी नहीं देखे पर यह भारत भारती सम्मान ठुकरा रहा हूं l जी पी ओ से जिलाधिकारी त्रिवेदी उन्हें मुख्य मंत्री के एनेक्सी आफिस ले गए l एनेक्सी के पांचवीं मंजिल पर मुख्य मंत्री का कार्यालय था पर नारायणदत्त तिवारी नीचे पोर्टिको में उन्हें रिसीव करने के लिए उपस्थित थे l

चतुर्वेदी जी के आते ही तिवारी जी ने झुक कर दोनों हाथ से उन के चरण स्पर्श किए l चतुर्वेदी जी ने पीठ ठोंक कर आशीर्वाद दिया l तिवारी जी सम्मान सहित उन्हें अपने कार्यालय में ले गए l चाय पिलाई l हाथ जोड़ कर निवेदन किया कि सम्मान स्वीकार करें l पर चतुर्वेदी जी ने मना कर दिया l कहा कि उर्दू को दूसरी राजभाषा का आदेश वापस लें l तिवारी जी ने हाथ जोड़ कर कहा , यह मेरे हाथ में नहीं है l

श्रीनारायण चतुर्वेदी चले गए l तिवारी जी वापस उन्हें नीचे पोर्टिको में छोड़ने आए l फिर चरण स्पर्श किया और जिलाधिकारी त्रिवेदी जी से कहा कि सम्मान सहित उन्हें घर छोड़ कर आएं l बतौर रिपोर्टर इन सारी घटनाओं का साक्षी रहा हूं l इस लिए दावे के साथ कह रहा हूं l

बाद में अटल बिहारी वाजपेयी ने लखनऊ के लोगों से एक-एक रुपया चंदा मांग कर चतुर्वेदी जी को एक लाख एक सौ एक रुपए ले कर उन के घर जा कर उन्हें सम्मानित किया l विद्यानिवास मिश्र जी ने नहीं l श्रीनारायण चतुर्वेदी बड़े शिक्षा अधिकारी रहे थे और कि बाद में सरस्वती के संपादक हुए थे l

अब तो लोग जुगाड़ कर सम्मान लेते हैं l और लेने नहीं जाते हैं l घर पर डाक से मंगवा लेते हैं l जयप्रकाश कर्दम ने इसी हिंदी संस्थान से चार लाख का लोहिया सम्मान का जुगाड़ किया और डाक से मंगवा लिया l योगी सरकार से विरोध भी दर्ज करवा लिया और पैसा भी ले लिया l इतना ही विरोध था तो पैसा भी ठुकरा देते l समारोह का ही बहिष्कार क्यों ? बीमारी की सूचना दी थी और दो दिन बाद ही लखनऊ के कथाक्रम के कार्यक्रम में उपस्थित दिखे l बिलकुल स्वस्थ थे l

ऐसे अनेक किस्से हैं लखटकिया पुरस्कारों के चोचलों के l विरोध करने के नाम पर यह कायर और नपुंसक लोग हैं l और अपने को लेखक भी बताते हैं l धिक्कार है l


[ एक मित्र की पोस्ट पर मेरा यह एक कमेंट। ]

Tuesday, 7 January 2025

गौरैया बन कर सार्थक रचनाएं अब फुर्र हो गईं



दयानंद पांडेय से दयाशंकर शुक्ल सागर की बातचीत 

नई सदी में साहित्‍य दिशाहीन हो चुका दिखता है। न अच्‍छा साहित्‍य लिखा जा रहा है और न पढ़ा जा रहा है। बाजार में ज्‍यादातर हल्‍के और औसत किस्‍म के लेखक हैं और कुछ फर्जी किस्‍म के बेस्‍ट सेलर किताबों के नाम हैं। फेसबुक पर नई पीढ़ी के कथित साहित्‍यकारों के कुछ गुट बन गए हैं जो एक दूसरे पर कीचड़ उछालने में व्‍यस्‍त हैं। पुरानी पीढ़ी के रचनाकार सोशल मीडिया की अराजकता से दूर अपनी दुनिया में बिला गए हैं। न अच्‍छी सहित्यिक पत्रिकाएं हैं और न राजेन्‍द्र यादव या रवीन्‍द्र कालिया जैसे साहित्‍य संपादक। आलोचना नाम की तो संस्‍था ही खत्‍म हो चुकी है। नई सदी भी पच्‍चीस साल की युवा हो गई  लेकिन साहित्‍य में वो ताजगी नदारद है। 21वीं सदी के लेखन पर चर्चित लेखक व उपन्‍यासकार दयानंद पांडेय से दयाशंकर शुक्‍ल सागर की बातचीत।   

 

सवाल- 21वीं सदी के पिछले ढाई दशक में हिंदी साहित्‍य के कथ्‍य, उसकी भाषा और शिल्‍प में किस तरह के बदलाव देखते हैं ? 

- कथ्य, भाषा और ट्रेंड में कोई आमूलचूल या आसमानी बदलाव नहीं है। हां, भटकाव बहुत बढ़ा है। बहुत ज़्यादा बढ़ा है। असहमति का पाखंड बढ़ा है। असल में हम साहित्य को संवाद के लिए जानते हैं। वाद के लिए नहीं। वाद कोई भी हो, आपको खूंटे से बांध देता है। वाद होता है तो प्रतिवाद भी होता है। तब संवाद की सांस फूलने लगती है। जब कि संवाद समय से मुठभेड़ करना सिखाता है। संवाद बहती नदी है, जो पानी को साफ़ करती बहती है। स्वस्थ समाज का निर्माण यही साहित्य करता है। इसी लिए साहित्य युग चिंतक ही नहीं, भविष्य द्रष्टा भी होता है

सवाल- राजेन्‍द्र यादव के युग में साहित्य पर वामपंथ का गहरा प्रभाव दिखता था। हंस पर स्‍त्री विमर्श और दलित विमर्श के नाम पर काफी अराजकता फैलाने के इल्‍जाम लगे। इसी कारण हंस हमेशा चर्चा में भी रहा। अब वामपंथ का ये प्रभाव कितना शेष है

 

-सच कहें तो वामपंथ और उसका प्रभाव कपूर की तरह उड़ता जा रहा है। वामपंथ हो, हिंदुत्व हो या कोई और विचारधारा। साहित्य में या रचना और आलोचना में जब भी कोई विचारधारा घुसती है, वह साहित्य, वह रचना, वह आलोचना कूड़ा हो जाती है। दो कौड़ी की हो जाती है। किसी दरबारी रचना से भी ज़्यादा ख़तरनाक है यह विचारधारा वाली रचना। फिर हिंदी में तो वामपंथ का बाक़ायदा इस्लामीकरण हो चुका है। मुस्लिम सांप्रदायिकता के ख़िलाफ़ हिंदी साहित्य में निल बटा सन्नाटा है। बल्कि कई दफा तो समर्थन में खड़ा दिखता है। रही बात राजेंद्र यादव की तो हिंदी में उन्होंने नामवर सिंह, अशोक वाजपेयी जैसों की तानाशाही को चुनौती दे कर नए खिड़की, दरवाज़े खोले। इस बहाने लोकतांत्रिक होने का भ्रम फैलाया। असल में राजेंद्र यादव को हम जब याद करते हैं तो पाते हैं कि बरास्ता हंस उन्‍होंने नए खिड़की, दरवाज़े खोलने के बहाने जातीय नफ़रत के बीज ज़्यादा बोए। साहित्य में नफ़रत के लिए कोई जगह नहीं होती।

 

सवाल- जातीय नफ़रत तो सदियों से मौजूद है, साहित्‍य ने सिर्फ उसे कुरेदने का काम किया। यही तो साहित्‍य का काम है?

- न प्रेमचंद , रेणु या राही मासूम रज़ा ने जातीय नफ़रत के बीज नहीं बोए। कहीं किसी रचना में नहीं।      

 

सवाल- तो साहित्‍य से आप मुहब्‍बत की दुकान चलाने की उम्‍मीद कर रहे हैं

-नहीं, इसे समझें। आप पुराने पन्ने पलटें तो पाएंगे कि रामायण हो, महाभारत हो गीता हो यह सभी अपनी फिलोसॉफी के लिए जाने जाते हैं।  विष वमन या नफ़रत के लिए नहीं। आप आधुनिक युग में आएं तो पाएंगे कि टालस्टाय हों या टैगोर यह सभी भी अपनी रचनाओं में फिलोसॉफी के लिए, मनुष्यता से प्यार और पूजा के लिए ही जाने जाते हैं। पर बाद के समय में वामपंथ के विष ने साहित्य में आइडियोलॉजी की नर्सरी लगा दी। राजेंद्र यादव सरीखे लोगों ने इस नर्सरी को लपक लिया। अंतत: साहित्य में नफ़रत की रोशनाई छिड़क कर विचारधारा का विष बो कर साहित्य को कूड़ेदान बना दिया। 

 

सवाल- इसे आप इतने कंविक्‍शन से कैसे कह सकते हैं ?

आप देखिए न। राजेंद्र यादव के हंस ने ऐसी कोई कालजयी रचना नहीं पेश की जैसी टालस्‍टाय या टैगौर की रचनाओं ने की। हंस में समुद्र की लहरों की तरह उछलती हुई रचनाएं आईं और समुद्र में ही डूब गईं। दुष्यंत और धूमिल की रचनाओं की तरह लोगों के दिल दिमाग पर छा नहीं सकीं। मुहावरा बन कर ज़ुबान पर चढ़ नहीं सकीं। प्रेमचंद, हजारी प्रसाद द्विवेदी , रेणु, अज्ञेय , मोहन राकेश , निर्मल वर्मा , मनोहर श्याम जोशी की रचनाओं की तरह तरह मन में बस नहीं सकीं। प्रेमचंद जब पूड़ी तरकारी लिखते हैं तब पढ़ते समय आप के मुंह में भी पूड़ी तरकारी आ जाती है। प्रेमचंद की यही ताक़त है। शरतचंद जब किसी स्त्री की कथा लिखते हैं तो वह स्त्री आप के दिल में आ कर बस जाती है। कथा का मर्म यही होता है। 

 

सवाल- पिछले कोई दस बारह साल में जैसे हिन्‍दुत्‍व का उफान आया है उसका वर्तमान साहित्‍य पर कोई ज्‍यादा असर नहीं दिखता। तो राजनीति में वामपंथ हाशिए पर आने के बाद साहित्य किस रास्‍ते चल निकला है?

- साहित्य में हिंदुत्व ही नहीं आया। उफान की बात तो बहुत दूर की बात है। अब अगर राम कथा , कृष्ण कथा या विवेकानंद की कथा लिखने को कोई हिंदुत्व मान लेता है तो उस की बुद्धि पर मुझे तरस आता है। 

 

सवाल- क्‍या ये दौर उत्‍तर आधुनिक युग का एक्‍स्‍टेंशन है

- साहित्य सर्वदा आधुनिक होता है। अद्यतन होता है। उपेक्षित और वंचित के पक्ष में होता है। शोषक के खिलाफ, शोषित के पक्ष में होता है। यह उत्तर आधुनिक वगैरह यूरोपीय शब्दावली है। बहुत खोखली है। ढकोसले बाजी है। पाखंड है। 

 

सवाल- कागज पर छपने वाली साहित्यिक पत्रिकाओं का दौर गुजर चुका है। डिजिटल पत्रिकाओं के इस दौर में क्‍या नए साहित्‍य का सही मूल्‍यांकन हो पर रहा है?

- साहित्यिक पत्रिकाएं सर्वदा हाशिए पर ही रही हैं। डिजिटल हो या प्रिंट में। अभी भी हाशिए पर हैं। जो भी हो प्रिंट का समय सर्वदा जीवित रहेगा। लेकिन यह सही है कि तकनीक ने बहुत कुछ बदल दिया है। सूचना और प्रसार की इस की ताक़त अनूठी है। एक क्लिक पर पूरी दुनिया उपस्थित है। पर कोई मोटी किताब, कोई महत्वपूर्ण रचना को प्रिंट में पढ़ना ही सुविधाजनक होता है। सुखद और सुखकर होता है। डिजिटल में नहीं। 

 

सवाल- ये आपके निजी विचार हो सकते हैं। नई पीढ़ी के लिए डिजिटल पर पढ़ना ज्‍यादा आसान है। सारा का सारा सोशल मीडिया डिजिटल है और खूब पढ़ा जा रहा है

- हां , यह मेरा निजी विचार ही है। बहुत से पाठकों ने मुझे भी बताया है और बारंबार बताया है कि मेरे कई उपन्यास यात्राओं में मोबाइल पर पढ़े हैं। लेकिन क्या कोई पूरी रामायण या महाभारत या फिर टालस्टाय का वार एंड पीस डिजिटल पर पढ़ सकता है ? गीता पढ़ सकता है ? हो सकता है पढ़ लेता हो। पर मुझे मुश्किल लगता है। सत्यनारायण की कथा नहीं हैं यह रचनाएं कि आप डिजिटल पर पढ़ लें या सुन लें। यह सिर्फ उदाहरण है। ऐसी अनेक रचनाएं हैं। जो पढ़ने के लिए एक निश्चित अवकाश मांगती हैं। मन मांगती हैं। हजारी प्रसाद द्विवेदी की वाणभट्ट की आत्मकथा , मुक्तिबोध की एक साहित्यिक की डायरी , यशपाल का झूठा सच आदि अनेक रचनाएं हैं जिन्हें आप डिजिटल पर संजीदा हो कर पढ़ने में सहज न पाएं ख़ुद को। बाक़ी नई पीढ़ी का क्या है , वह तो मोबाइल पर सात घंटे , आठ घंटे की वेब सीरीज भी देख ही रही है। 

 

सवाल-  नई सदी के बीते दो दशकों की कहानियों, उपन्‍यासों, कविताओं के बारे में आप क्‍या कहेंगे ?

- दुनिया भर की सभी भाषाओं में बहुत महत्वपूर्ण रचा गया है। रचा जा रहा है। फिर भी अगर आप हिंदी साहित्य की बात कर रहे हैं तो इस दो दशक में ऐसी कोई बड़ी रचना मेरी नज़र में नहीं आई है जिसे लोग लपक कर, खोज कर पढ़ें। न गद्य में, न पद्य में। ऐसी रचना, जिस को पढ़ने के लिए लोग बेचैन हों मेरी जानकारी में कोई एक नहीं है, इस बीते दो दशक में। जो पढ़ने के लिए लोगों को बेक़रार करे। तड़पा दे। एक समय था कि चंद्रकांता संतति पढ़ने के लिए लोगों ने हिंदी सीखी थी। ख़ुद प्रेमचंद उर्दू छोड़ कर हिंदी में आए थे। राही मासूम रज़ा उर्दू प्रकाशकों की तंगदिली से आजिज आ कर हिंदी में आए। राही ने आधा गांव उपन्यास उर्दू में लिखा था। पाकिस्तान विभाजन के ख़िलाफ़ स्वर था आधा गांव का। लेकिन कोई उर्दू प्रकाशक इसे छापने को तैयार नहीं हुआ। क्यों कि उर्दू प्रकाशक भी सांप्रदायिक ही हैं। बहरहाल आज कथ्य और पठनीयता का ज़बरदस्त अभाव है हिंदी में। ख़ास कर इन दस बरसों में रचनाओं में प्रतिरोध इतना ज़्यादा हो गया है कि प्रतिरोध ही प्रतिरोध रह गया है। रचना गुम हो गई है। रचना गौरैया हो गई है। गौरैया बन कर फुर्र हो गई है।

सवाल-  प्रकाशन के नए विकल्‍प सामने हैं। तमाम सोशल मीडिया प्‍लेटफार्म हैं। लेखन में एक तरह का खुलापन आया है

- खुलापन पहले भी था। लिखना पहले भी बहुत था पर सोशल मीडिया ने लेखन के ग्राफ़ को, खुलेपन को बेहिसाब उछाल दे दिया है। अब हर कोई लेखक है। कवि है। जिसे देखिए, पैसा खर्च कर किताब छपवा ले रहा है। लेखक हो, न हो। अब तो जनवादी लेखक संघ भी बढ़िया पुस्तक विमोचन कार्यक्रम पांच सितारा होटलों में करवा रहा है। ख़ूब बढ़िया समीक्षाएं छप रही हैं। लेखक को बहुत कुछ मिल रहा है। उस की आत्म-मुग्धता, उस के ईगो मसाज में ग़ज़ब का इज़ाफ़ा हुआ है। पर पाठक ? पाठक तो ख़ाली हाथ दीखता है। प्रकाशक पैसे कमा रहा है। लेखक नाम और यश। लेकिन पाठक चातक प्यास लिए मुंह बाए बैठा है। 

सवाल-  राजेंद्र यादव, कमलेश्वर, रवींद्र कालिया सरीखे लेखक अब नहीं रहे। नए लेखकों में इनके करीब किन्हें पाते हैं?

- नए लेखकों में कोई इन के क़रीब नहीं दिखता है। राजेंद्र यादव और रवींद्र कालिया को हम लेखक के लिए कम, उन के संपादक के लिए ज़्यादा जानते हैं। संस्मरण लेखक के लिए जानते हैं। रवींद्र कालिया की ग़ालिब छुटी शराब लाजवाब है। इसी तरह राजेंद्र यादव की 'मुड़-मुड़ कर देखता हूं' भी लाजवाब है। लेकिन इस के प्रतिवाद में जब मन्नू भंडारी ने लिखा कि मुड़-मुड़ कर देखा तो यह भी देखा होता, लिख कर राजेंद्र यादव का सारा गुरुर छीन लिया था। राजेंद्र यादव निरुत्तर थे। बतौर कथाकार राजेंद्र यादव और रवींद्र कालिया बहुत कमज़ोर कथाकार हैं। हां, संपादक दोनों सफल थे। कमलेश्वर कथाकार भी क़ामयाब थे और संपादक भी। अजब औरा था उन का। एक समय था कि मोहन राकेश, कमलेश्वर और राजेंद्र यादव की तिकड़ी बहुत मशहूर थी। इन की दोस्ती मशहूर थी। पर इस की सब से कमज़ोर कड़ी राजेंद्र यादव थे। अगर राजेंद्र यादव की ज़िंदगी में हंस न होता, औरतें न होतीं तो कोई उन्हें आज याद भी नहीं करता। औरतें और पत्रिकाएं मोहन राकेश और कमलेश्वर की ज़िंदगी में भी बहुत थीं। सारिका जैसी साधन संपन्न पत्रिका के संपादक रहे दोनों। बारी - बारी। पर हम इन दोनों को इन की कथा, उपन्यास के लिए भी बहुत जानते हैं। मोहन राकेश तो नाटकों के लिए भी बहुत परिचित हैं। यह तीनों साहित्य और ज़िंदगी में रिस्क लेने के लिए भी बहुत परिचित हैं। 

 

सवाल- आज के दौर में आपकी नजर में दो अच्छे उपन्यासकार कौन हैं। और उनके लेखन में ऐसा क्या है?

- एक शिवमूर्ति , दूसरे सुधाकर अदीब। दोनों की कथा भूमि नितांत अलग है। दोनों का कथ्य और कैनवस भी बहुत अलग है। फ़र्क़ यह भी है कि शिवमूर्ति के पास गांव, किसान ही बरसों से हैं। शुरू से हैं। किसी कोल्हू के बैल की तरह वह इसी का फेरा लगाने के लिए अभिशप्त हैं। वह इस से बाहर आने की ज़रूरत भी नहीं समझते। कोशिश भी नहीं करते। अभी उन का सौ पात्रों वाला मोटा उपन्यास अगम बहै दरियाव आया है। जो कभी ज्ञानोदय में आख़िरी छलांग के नाम से प्रकाशित उपन्यास का एक्सटेंसन है। जब कि सुधाकर अदीब हर बार अपना ही बनाया सांचा तोड़-तोड़ देते हैं। वह चाहे लक्ष्मण के बहाने मम अरण्य में राम कथा हो, शाने तारीख़ के बहाने शेरशाह सूरी की कथा हो, कथा विराट के बहाने सरदार पटेल और आज़ादी की कथा, रंग रांची के बहाने मीरा की कथा या फिर आदि शंकराचार्य की कथा के लिए  महापथ हो या कश्मीर की ख़ूनी कथा का बयान करती बर्फ़ और अंगारे। 

 

सवाल- और दो कहानीकार ?

- नवनीत मिश्र और हरिचरन प्रकाश। दोनों ज़मीनी लेखक हैं। अपने लेखक को कभी प्रमोट नहीं करते। न किसी संगठन या गैंग में शुमार हैं। नारी मन के अजब चितेरे हैं नवनीत मिश्र। 

 

सवाल- दो नए युवा लेखक जिनमें आपको संभावनाएं दिखती है? उनके लेखन में क्या अलग है?

- योगिता यादव, प्रज्ञा पांडेय। दोनों ही कथ्य और भाषा के स्तर पर बहुत तोड़फोड़ करती मिलती हैं। स्त्री ही नहीं, पुरुष मनोविज्ञान को भी बहुत बारीकी से समझती और समझाती हैं।

सवाल- इस सदी में आलोचना का क्या हाल है? क्‍योंकि आलोचनाएं अब दिखती नहीं।    

- हिंदी में अब आलोचना नाम की संस्था समाप्त है। कह सकते हैं कि एक थी आलोचना। 

सवाल- आप वर्तमान साहित्‍य के सम्‍पर्क में हैं। नामवर सिंह के जाने के बाद आलोचना के क्षेत्र में उनकी जगह कौन ले सकता है?

- किसी ने नहीं। हिंदी में नामवर इकलौते हैं। न भूतो, न भविष्यति। न मौखिक में, न लिखित में। 

सवाल- मौजूदा सदी के आने वाले सालों में डिजिटल साहित्यिक पत्रिकाओं का क्या भविष्य है?

- अब डिजिटल का ज़माना है। ऐसे जैसे हसीनों का ज़माना। लेकिन साहित्य पढ़ने का बेस्ट मीडियम प्रिंट ही है, प्रिंट ही रहेगा। डिजिटल नहीं।

सवाल- हिंदी साहित्य के मौजूदा दौर में स्त्री विमर्श को लेकर आपकी क्या राय है?

- भारतीय वांग्मय में स्त्री सर्वदा से सर्वश्रेष्ठ मानी गई है। बावजूद इस के यह स्त्री विमर्श फर्जी का विमर्श है। षडयंत्र है, स्त्रियों के ख़िलाफ़। स्त्री को कमज़ोर करने का विमर्श है। स्त्री-पुरुष समानता की बात होनी चाहिए। लेकिन वामपंथियों द्वारा स्त्रियों के शोषण के लिए यह फ़ेमनिस्ट विमर्श साज़िशन चलाया गया। स्त्रियों की देह को गुलाम बनाने के लिए , भोगने के लिए चलाया गया। इस विमर्श की साज़िश में स्त्रियों की देह जितनी उघाड़ी जा सकती थी, उघाड़ी गई है। उघाड़ी जा रही है। इस का शिकार बनी स्त्रियां ख़ुद अपनी देह उघाड़ने को उद्धत मिलती हैं। 

सवाल- बेशक ये पहलू ज्‍यादा हाईलाइट और चर्चित हुआ पर हिंदी साहित्य में स्त्री विमर्श पर गंभीर काम भी हुए?

- सहमत हूं। लेकिन मैं कुछ और कहना चाहता हूं। यह कहने, सुनने में बहुत अच्छा लगता है कि पुरुष और स्त्री बराबर हैं। पर क्‍या सचमुच ? पुरुष प्रधान समाज का बड़ा हल्ला मचाया जाता है। निगेटिव अर्थ में। पितृसत्तात्मक समाज की निंदा का जैसे फैशन सा है। पर निर्मम सच यह जानिए कि पुरुष प्रधान समाज में ही स्त्री सुरक्षित मिलती है। इसलिए भी कि किसी हिंसा का जवाब स्त्री प्रति हिंसा से नहीं दे सकती है। पुरुष के मुक़ाबले स्त्री मानसिक रूप से मज़बूत है। शारीरिक रूप से नहीं। आप कल्पना कीजिए कि स्त्री प्रधान समाज में क्या स्त्री इसी तरह सुरक्षित और संरक्षित मिलेगी? फेमनिस्ट आंदोलन और स्त्री पुरुष समानता दोनों दो बात हैं। पुरुष प्रधान समाज की जगह स्त्री प्रधान समाज की बात पौरुषहीन और कायर समाज के निर्माण की बात करना है। स्त्री विमर्श का पहाड़ा पढ़ने वाले मित्रों से पूछने का मन करता है कि क्या वह जानते हैं कि क़ुरआन में औरतों को पुरुषों की खेती बताया गया है। दुर्भाग्य से मुस्लिम समाज का पुरुष इसे पूरी तरह मानता भी है। इंज्वाय करता है। कोई ऐतराज नहीं है उसे। पुरुषों की इस खेती के ख़िलाफ़ बोलने का साहस किसी स्त्री विमर्शकार में है भला ! नहीं है तो स्त्री विमर्श का यह बेहूदा विमर्श बंद कीजिए। सोचिए कि रानी पद्मावती को बीस हज़ार स्त्रियों के साथ जौहर व्रत क्यों करना पड़ा था। आज भी क्या आधी रात को हम अपनी बेटी, बहन,पत्नी या मां को अकेली सड़क पर छोड़ सकते हैं ? सच तो यह है कि साहित्य में भी नहीं छोड़ सकते। 

सवाल- सिर्फ स्‍त्री लेखिकाएं क्‍यों आप जैसे पुरुषवादी मानसिकता के लेखक भी तो यही कर रहे हैं। आपकी कहानी उपन्‍यासों में क्या स्त्रियों की देह कम उघाड़ा गया है

- ग़लत बात। स्त्री से प्रेम का वर्णन स्त्री की देह उघाड़ना नहीं है। प्रेम में स्त्री का मन भी होता है हमारी कथाओं और उपन्यासों में। प्रेम एक पवित्र शब्द है। इस प्रेम में मन और देह दोनों ही समाहित हैं। बिना देह के प्रेम पूर्ण नहीं होता। प्रेम एक स्वाभाविक क्रिया है। हमारे यहां इस प्रेम का नैसर्गिक वर्णन है। भावानुभूति है। जीवन है। इस का चटखारा नहीं है। लेकिन अगर कोई लेखिका या लेखक अपनी आत्मकथा में निरंतर अनेक संबंधों का आख्यान रचता जा रहा है , रस ले ले कर चटखारे लेता जा रहा है तो यह उघाड़ना है। 

सवाल- तो आप मान रहे हैं कि हंस का स्त्री विमर्श का पूरा आंदोलन ही बेमानी था ?

 बिलकुल, आप देखिए न खुद हंस के राजेन्द्र यादव उसका शिकार हो गए। बीमार आदमी के स्वस्थ विचार संस्मरणात्मक किताब उन्होंने ज्योति कुमारी के साथ लिखी थी। उसके बाद हुए तमाशे ने राजेंद्र यादव का मान सम्मान तो छीना ही,  वे पुलिसिया फंदे में भी आ गए और अंतत: इसी सदमे में जान से हाथ धो बैठे।

सवाल-  मौजूदा दौर में दलित चिंतन अचानक से इतना दरिद्र कैसे हो गया?

- हिंदी में यह संपन्न भी कब था। सर्वदा दरिद्रता और कुपोषण ही इस की ज़िंदगी रही। रहेगी। सर्वदा आग मूतने के लिए परिचित है यह दलित चिंतन। आरक्षण के संरक्षण के लिए मनुष्यता, समाज और देश को सर्वदा ठेंगे पर रखने के लिए जाना गया है। कोई अपने घर को आग लगाता है भला ? यह तो बात-बेबात देश जलाने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं। चिंतन के नाम पर हिंसा ही हथियार है इन का। साहित्य में भी आरक्षण के तलबगार लोग कोई चिंतन कैसे कर सकते हैं। साहित्य में भीख मांग कर कोई बड़ा रचनाकार नहीं बन सकता। कोई बड़ी रचना नहीं लिख सकता। एक उदाहरण हैं सुदामा। ब्राह्मण थे पर सर्वदा विपन्न थे। कृष्ण उन के बाल सखा थे। सहपाठी थे। राजा थे। बावजूद इस के वह कृष्ण को मित्र नहीं , परमात्मा मानते थे। लोग भगवान से मांगते हैं पर सुदामा ने कृष्ण नाम के परमात्मा से कभी कुछ मांगा नहीं। मिलने गए भी तो अपने सामर्थ्य भर चावल की पोटली ले कर गए। तो साहित्य भी देने की चीज़ है। मांगने और लेने की नहीं। कि हम तो दलित हैं, हमें अलग से ट्रीट कीजिए। हम प्रवासी हैं, हमें अलग से ट्रीट कीजिए। हमें ज़्यादा दीजिए। हम स्त्री हैं, हमें कुछ ज़्यादा दीजिए। क्यों भाई ? ग़लत बात है यह। भारतीय वांग्मय के आदि कवि वाल्मीकि क्या दलित नहीं थे ? वेदव्यास क्या दलित नहीं थे ? कबीर, रैदास दलित नहीं थे ? इन्होंने मांगा कभी अलग से ट्रीटमेंट ? उन्हें हम बड़े रचनाकार के कारण जानते हैं कि दलित होने के कारण ? साहित्य और समाज उन्हें सम्मान नहीं देता ? दरअसल दलित चिंतन के पाखंड ने बहुत नुकसान किया है। साहित्य का भी , समाज का भी। नफ़रत और विष बेहिसाब भरा गया है समाज में दलित चिंतन के नाम पर। हिंसक और अश्लील बनाया है। साहित्य सर्वदा मनुष्यता के पक्ष में होता है। वंचित , उपेक्षित और शोषित के पक्ष में होता है। बाक़ी लोहिया की मानें तो स्त्री भी दलित होती है। किसी भी जाति , धर्म या समाज की हो। लेकिन कितने दलित चिंतक इस बात को स्वीकार करते हैं ?

 सवाल- लेकिन दलित चिंतन एक रिएक्‍शन है आप ये क्‍यों भूल जाते हैं ? आरक्षण का पूरा फलसफा अलग ट्रीटमेंट पर ही तो आधारित है?

- आरक्षण का फलसफा ही ग़लत है। नौकरी और राजनीति में ही इस नरक को रहने दीजिए। साहित्य को इस से बख़्श दीजिए। 

सवाल- क्यों, बख़्श दें? आखिर नौकरी और राजनीति समाज का हिस्सा है और समाज साहित्य का आइना  है? आप उस सवर्ण और सुविधा सम्पन्न वर्ग से आते हैं जिन्होंने वह सब नहीं झेला है ?

- इस लिए कि साहित्य सब कुछ के बावजूद अभी भी शुचिता पसंद है। नैतिक और मूल्यों को संवर्धित करने के लिए परिचित है। जब कि आरक्षण राजनीति का गंदा खेल है। बहुत गंदा खेल। आप ही बताइए कि क्या अंबेडकर संविधान निर्माता हैं ? 389 सदस्यों की संविधान सभा थी। पहले सच्चिदानंद सिन्हा , फिर राजेंद्र प्रसाद इस संविधान सभा के अध्यक्ष थे। तो अगर अंबेडकर संविधान निर्माता हैं तो क्या यह बाक़ी 389 लोग घास छील रहे थे ? लेकिन आज हर राजनीतिक पार्टी अंबेडकर को संविधान निर्माता बताते नहीं अघाती है। संविधान सभा की विभिन्न 22 कमेटियां थीं। जिन में एक ड्राफ्ट कमेटी के चेयरमैन थे अंबेडकर। बस। लेकिन दलित वोट की लालच ने अंबेडकर को संविधान निर्माता बता कर पूरी संविधान सभा का अपमान करने का सिलसिला सा चल पड़ा है। अंबेडकर तो इस्लाम को कलंक मानते थे। पर मुस्लिम वोट बैंक की लालच में इस बात पर यही राजनीतिक पार्टियां ख़ामोश हैं। इसी लिए कह रहा हूं कि साहित्य को इस से बख्शिए। इस लिए भी कि यूरोपीय साहित्य में सबार्लटन साहित्य की मुहिम आलरेडी पिट चुकी है। 

 [ दस्तक टाइम्स में प्रकाशित ]


कृपया इस लिंक को भी पढ़ें :


1 - सिर्फ़ लाल सलाम के भरोसे रचना और आलोचना के दिन हवा हो चुके हैं: दयानंद पांडेय


 .  जुनून की इंतिहा थी यह  : दयानंद पांडेय 


 .  बाहर साहित्य , भीतर उर्फी जावेद है


 . जिस दिन ,जिस क्षण लिखना ख़त्म , समझिए कि मैं मर गया : दयानंद पांडेय 











अब बाज़ार से है ज़िंदगी

दयानंद पांडेय 


तेज़ाब की तरह बरसती यह जीवन शैली

हम जब छोटे थे तब बहुत समय तक नहीं जान सके कि हमारे पिता कौन हैं। संयुक्त परिवार था तो सब कुछ संयुक्त था। ज़िम्मेदारियां भी संयुक्त थीं। पितामह को ले कर भी मुश्किल थी और नाना जी को ले कर भी। अम्मा , इया यानी दादी और नानी आदि को ले कर लेकिन कभी कोई मुश्किल नहीं थी। हां , चाची को बड़की माई कहते थे। पिता जी के बड़े भाई को उन के बच्चे बाबूजी कहते थे। हम भी बाबूजी कहते थे। बाबूजी की सभी बच्चे हमारे पिता को बबुआ कहते थे , हम भी बबुआ कहते थे। और तो और पितामह जिन को हम बाबा कहते थे , बाबूजी और बबुआ दोनों उन्हें चाचा कहते थे। और तो और नाना जी को हमारी अम्मा और सभी मामा और मौसी भइया कहते थे। बड़ा घालमेल था। यह संयुक्त परिवार की ख़ासियत कहिए , खूबी कहिए , कमज़ोरी कहिए या ताक़त कहिए , थी तो थी। हाई स्कूल में जब बोर्ड का फार्म भरना हुआ तब यह मुश्किल आसान हुई। हमारा कन्फ्यूजन देख कर स्कूल में पिता का खाना ख़ाली रखा गया। कहा गया कि कल घर में पूछ कर आना , तब लिखना। हमारा ही सिलसिला पूरे घर में था। बाबूजी , बबुआ के पिता को उन के बड़े भाई के बच्चे चाचा कहते थे तो यह लोग भी चाचा कहते थे। इसी तरह नाना के छोटे भाई लोग उन्हें भइया कहते थे तो अम्मा और मामा , मौसी लोग भी उन्हें भइया कहते थे। और तो और एक परिवार में हम ने देखा कि लोग अपनी मां को भौजी कहते थे। उन के बच्चे भी दादी नहीं भौजी ही कहते थे। तो यह संयुक्त परिवार की कैफ़ियत थी। हमारे यहां तो और सुनिए। हमारे पिता जी यानी बबुआ को भी हमारे बाबूजी ने पढ़ाया-लिखाया और हम को भी। और तो और एक अध्यापक भी मुझे ऐसे मिल गए जिन्हों ने मेरे पिता जी को पढ़ाया था और मुझे भी पढ़ाया। तो यह तब की तस्वीर थी। तब की पृथ्वी थी। घर में कभी कोई बीमार पड़ता था , कोई विपदा आती थी तो किसी एक के कंधे पर नहीं भार पड़ता था। कई बार तो यह पारिवारिक एकता देखते हुए विपदा भी घर का रास्ता मोड़ लेती थी। पता ही नहीं लगता था कि कोई विपदा आई भी थी कि आने वाली थी। किसी हारी - बीमारी में घर में भोजन बनाने के लिए किसी को बाहर से नहीं आना पड़ता था। पता ही नहीं चलता था घर के कामकाज में किसी अवरोध का। पर यह संयुक्त परिवार कई बार तनाव और सांघातिक तनाव भी रोपता था। ख़ास कर स्त्रियों के बीच। आहिस्ता - आहिस्ता संयुक्त परिवार सिरदर्द बन गए। ज़िम्मेदारियों का तंबू जिस के मत्थे मढ़ गया , मढ़ गया। निकम्मेपन का पहाड़ा जिस ने पढ़ लिया , पढ़ता ही गया। परिणाम सामने था। संयुक्त परिवारों में दरार पड़ने लगी। झगड़े बढ़ते गए। त्याग और बर्दाश्त से लोगों की कुट्टी होने लगी। संयुक्त परिवार आहिस्ता - आहिस्ता टूट गए। टूटते ही गए। अब एकल परिवार भी संकट में दीखते हैं। 

जब मेरा बेटा छोटा था तब उसे देहरादून के दून स्कूल में पढ़ाने के लिए सोचा। सारा जुगाड़ कर लिया था। उत्तराखंड नया - नया बना था। उत्तराखंड में राज्यपाल के सचिव एक आई एस अफसर थे। लखनऊ से गए थे। हमारे अच्छे दोस्त थे। उन्हों ने राज्यपाल कोटे से न सिर्फ़ नाम लिखवाने की गारंटी ले ली थी बल्कि फ़ार्म भी भेज दिया था। फार्म जिस दिन आया हम बहुत ख़ुश हुए। ड्राइंग रूम की मेज़ पर फ़ार्म रखा था। कि तभी एक मित्र आए। फ़ार्म देखा। वह भी ख़ुश हुए। कहने लगे कि फ़ार्म आ गया है तो आप नाम भी लिखवा ही लेंगे। मैं ने अपना जुगाड़ भी उन्हें ख़ुशी-ख़ुशी बता दिया। वह और ख़ुश हुए। थोड़ी देर बाद अचानक कहने लगे कि आप बेटे को दून स्कूल भेज ही क्यों रहे हैं ? क्या लखनऊ में अच्छे स्कूल नहीं हैं ? उन्हों ने एक बड़ी बात कही कि पहले के समय में लखनऊ जैसे शहरों में अच्छे स्कूल नहीं थे। तो लोग दून भेजते थे। कुछ बड़े लोग थे दिल्ली , मुंबई में जिन के पास समय नहीं था तो बच्चों को दून जैसे स्कूलों में भेजते थे। अब लखनऊ में अच्छे स्कूल बहुत हैं। दून भेजने की क्या ज़रूरत है ? फिर मित्र ने एक और बात कही कि वैसे भी इंटर की पढ़ाई के बाद बच्चे आगे की पढ़ाई के लिए दूसरे बड़े शहरों में चले जाते हैं। पढ़ाई के बाद नौकरी करने लगते हैं। तो बच्चों को वैसे भी मां - बाप से दूर हो जाना है। आप अभी से क्यों बेटे को दूर कर देना चाहते हैं। कुछ तो समय उस के साथ बिता लीजिए। नहीं फिर साथ रहने का अवसर मिले न मिले। 

मित्र की बात मेरी समझ में आ गई। बेटे को दून स्कूल नहीं भेजा। सचमुच कैरियर की आंधी ने बच्चों को भी अब माता - पिता से दूर कर दिया है। घर में साथ रहते भी हैं तो अजनबी की तरह। कभी मिलते हैं , कभी नहीं। बहुएं भी अब सास ससुर के साथ नहीं रहना चाहतीं। समस्याएं बड़ी जटिल होती जा रही हैं। एकल परिवार भी अब ख़तरे की घंटी बजा रहे हैं। 

हालां कि परिवार का हो चाहे ब्रह्मांड सूरज तो वैसा ही है लेकिन पृथ्वी बदल गई है। बहुत ज़्यादा बदल गई है। बदलती ही जा रही है। ठीक वैसे ही जीवन तो वैसा ही है पर शैली बदल गई है। बहुत ज़्यादा बदल गई है। बदलती ही जा रही है। तुलसीदास ने लिखा ही है :

छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित अति अधम सरीरा॥

तो जीवन में , इस शरीर में कोई छठी चीज़ अलग से उपस्थित नहीं हुई है फिर भी जीवन शैली बीते बीस सालों में क्या अब तो पाता हूं हर साल कई बार बदलती जाती है। बल्कि सदियों - सदियों से क्षण - क्षण बदलती जाती है। इतना कि पहले ज़िंदगी से बाज़ार था , अब बाज़ार से ज़िंदगी है। आधुनिकता और तकनीक ने जीवन को बहुत फास्ट , बहुत व्यस्त पर बहुत निकम्मा और बहुत अकेला कर दिया है। इतना कि अब लगभग हर कोई तनहा है। बहुत तनहा। वह जो मीना कुमारी ने लिखा है न :

 चाँद तन्हा है आसमाँ तन्हा

दिल मिला है कहाँ कहाँ तन्हा


बुझ गई आस छुप गया तारा

थरथराता रहा धुआँ तन्हा


ज़िंदगी क्या इसी को कहते हैं

जिस्म तन्हा है और जाँ तन्हा


तो जब जिस्म और जां तन्हा हो जाएं तो सोचिए कि आदमी और कितना तन्हा हो गया है। बताने की ज़रूरत नहीं है। संयुक्त परिवार में जीना एक समय त्रासदी बन कर , बोझ बन कर उपस्थित हुआ। तब जब कि भारतीय समाज की सब से बड़ी ताक़त था संयुक्त परिवार। पर संयुक्त परिवार का टूटना बहुत बड़ी दुर्घटना बन गई। जीवन शैली ही क्या राजनीति , समाज , सिनेमा , साहित्य सब कुछ बदल गया। पहले ज़्यादातर फ़ैशन बदलता था , अब आदमी ही बदल गया। आदमी की संवेदना , सिसकी और आंसू तक बदल गया है। आर्थिक उदारीकरण से उपजी आवारा पूंजी ने सारा कुछ तहस-नहस कर दिया है। कई बार सोचता हूं कि जीवन भी है कहीं जो जीवन शैली पर बात करूं। मुक्तिबोध याद आते हैं :

अब तक क्या किया,

जीवन क्या जिया,

ज़्यादा लिया और दिया बहुत-बहुत कम

मर गया देश, अरे जीवित रह गये तुम..."


कंप्यूटर , मोबाइल जैसे कम पड़ रहा था आदमी को अकेला कर उस की जीवन शैली में खोखलापन भरने के लिए कि अब ए आई भी उपस्थित हो गया है। एकल परिवार की तन्हाई ने जैसे उसे तोड़ दिया है। हमारे एक आई ए एस मित्र हैं। रिटायर हो गए हैं। शानदार बंगले में रहते हैं। नौकर - चाकर हैं। पर कुछ समय पहले बुढ़ापे की साथी जीवन संगिनी का निधन हो गया। एक बेटा है। अमरीका में कहीं सेटिल्ड है। जब कभी बेटे का फ़ोन आता तो हालचाल के बाद अपने अकेलेपन का गाना गाने लगते। एक बार बेटा आया और उन्हें अपने साथ अमरीका ले गया। अमरीका में बेटा , बाप से भी ज़्यादा शानदार ढंग से रहता है। पर अमरीका जाने के दस दिन बाद अचानक ही बेटे ने पिता को एक होटल में शिफ़्ट कर दिया। कहा कि , ' कुछ दिन यहां रहिए। हम आप से मिलने आते रहेंगे। फिर जल्दी ही घर ले चलेंगे। ' कोई पंद्रह दिन बीत गया। बेटा होटल आया ही नहीं। न कोई फ़ोन किया। पिता ने ख़ुद टिकट कटाया। होटल का बिल चुकता किया और लखनऊ वापस आ गए। महीने भर बाद बेटे का फ़ोन आया कि , ' पापा , जल्दी ही आप से मिलने आ रहा हूं। ' पापा ने कहा , ' मत आओ , मैं लखनऊ वापस आ गया हूं। ' वह बोले , ' तुम्हारे और बच्चों के साथ रहने गया था। होटल से अच्छा तो हमारा लखनऊ का घर है। इस लिए वापस चला आया। ' बेटे ने उन से सॉरी भी नहीं कहा। बोला , ' इट्स ओके ! '

ऐसे कई जीवन हैं जिन की शैली बेतरह बदल गई है। बदरंग हो गई है। शहरों में तो तमाम मंहगे-मंहगे वृद्धाश्रम हैं। लोग पचास - पचास हज़ार रुपए महीने दे कर वहां रह रहे हैं। गरीबों के लिए अनाथालय , यतीमख़ाने और रैन  बसेरे हैं। पर भारतीय गांवों का अजब आलम है। गांव के गांव वृद्धाश्रम में तब्दील हैं। बच्चे भौतिकता की अगवानी में शहर के हो कर रह गए हैं। वृद्ध शहर जाने को तैयार नहीं। शहर ? अरे छोटे शहरों में रहने वाले वृद्ध भी मुंबई , बैंगलौर , हैदराबाद , दिल्ली जाने को तैयार नहीं। क्या तो वह शहर जा कर , फ़्लैट में क़ैद हो कर , खुली हवा वाली अपनी जीवन शैली बदलने को तैयार नहीं। ग़नीमत है कि आधुनिकता की आंधी में मिले स्मार्ट फ़ोन और वाट्स अप की सुविधा ने रोज देखने और बतियाने की सुविधा दे दी है। आप दुनिया में कहीं भी हों , संबंधों में कितना भी बेगानापन क्यों न हो , गुफ़्तगू भी हो जाती है और दीदार भी। 

गोरखपुर में एक वकील साहब हैं। बहुत पैसा कमाया। डोनेशन दे कर बेटे को इंजीनियर बनवाया। जुगाड़ लगा कर नोएडा में नौकरी लगवाई। गाज़ियाबाद में एक नहीं , तीन घर ख़रीद कर बेटे को दे दिया। दो घर से बढ़िया किराया भी आता है। इस के पहले बेटियों की भी बढ़िया शादी कर दी बारी - बारी। सब सुखी और संपन्न हैं। पर वकील साहब को सब अब भूल गए हैं। बेटा , बेटी सभी। वकील साहब अब न बोल सकते हैं , न लिख सकते हैं। न अपने हाथ से खा सकते हैं। ख़ुद बाथरूम भी नहीं जा सकते। वृद्ध पत्नी अकेले सेवा करती रहती हैं। वीडियो काल पर बच्चे न बात करते हैं , न देखते हैं। बोल - लिख नहीं सकते सो तकलीफ भी नहीं बता सकते। बिस्तर ख़राब हो - हो जाता है। यह भी नहीं बता पाते। पत्नी ख़ुद को नहीं संभाल पातीं। पति को कैसे संभालें। दिन में नौकर आता है। रात में नहीं रहता। जो कर पाता है , कर देता है। ज़्यादा कहने पर काम छोड़ देने की धमकी देता है। 

एक तहसील में 85 साल की वृद्ध स्त्री अकेले रहती हैं। पति वकील थे। अब नहीं रहे। बेटे बड़े - बड़े पदों पर रहे। न्यायिक अधिकारी और प्रशासनिक अधिकारी रहे हैं। लेकिन मां को भूल गए। झुक गई कमर लिए यह मां अपना भोजन ख़ुद बनाती है। किसी तरह जीवन चल रहा है। लोग मजाक उड़ाते हैं पर अब उन का दिल पत्थर का हो गया है। किसी की किसी बात का बुरा नहीं मानतीं। मोबाइल पर कभी कोई बात करता था तो कर लेती थीं। अब फ़ोन नहीं आते तो मोबाइल को एक झोले में रख कर झोला , खूंटी पर टांग दिया है। 

छोटे शहर में रहने वाले एक पिता ने लाखों रुपए खर्च कर बेटे का एडमिशन एक बड़े शहर के बड़े इंजीनियरिंग कालेज में करवा दिया। जमा पूंजी लगा दी। हॉस्टल , कालेज फीस सब एक साथ भर दिया। पहला साल बढ़िया रहा। दूसरे साल कालेज से फ़ोन आया कि फीस जमा कर दीजिए नहीं , बेटा इम्तहान नहीं दे सकेगा। पिता भागा - भागा कालेज पहुंचा। पता चला कि बेटे ने कोई फीस जमा ही नहीं किया था। पिता द्वारा भेजे पैसे शराब , अय्यासी और शेयर बाज़ार में झोंक दिया। वापस आ कर पिता ने किसी तरह कर्ज ले कर फीस भर दिया। बेटा इम्तहान में फिर भी फेल हो गया। फिर फीस जमा किया। फिर वही हाल। कालेज ने नाम काट कर घर भेज दिया। पिता परेशान है। पर बेटे पर मस्ती सवार है। 

दिल्ली में एक संपन्न आदमी ने अस्सी साल की उम्र में अपनी अधेड़ नौकरानी से कोर्ट मैरिज कर लिया। यह मालूम होने पर बाहर रह रहे बच्चों ने बारी - बारी पिता से फ़ोन पर ऐतराज जताया कि , ' यह क्या कर दिया ? ' पिता ने कहा , ' तुम लोगों ने कभी ख़बर ली हमारी ? ' इस औरत ने , इस के बच्चों ने हमारी निःस्वार्थ सेवा की और ख़ूब की। हमारा टट्टी , पेशाब किया। अब मैं कब मर जाऊंगा , नहीं जानता। तो मेरे मरने के बाद इस का क्या होगा , यह सोच कर विवाह कर लिया। क़ानूनी दर्जा दे दिया। ताकि मेरे मरने के बाद हमारी पेंशन इसे मिल सके। इस का गुज़ारा चल सके। प्रापर्टी तुम्हीं लोगों की रहेगी। वसीयत कर दिया है। बस इसे पेंशन मिलती रहे , इस लिए शादी की। इस उम्र में अय्यासी करने के लिए शादी नहीं की है। 

एक मित्र हैं। जवानी में जब पैसे आए तो दिल्ली के साऊथ एक्सटेंशन जैसी आलीशान जगह में कोई पचास साल पहले ज़मीन ख़रीद कर बढ़िया घर बनवाया। एक बेटा था , उसे पढ़ाया - लिखाया। पढ़ - लिख कर बेटा अमरीका गया नौकरी करने। वहीं सेटिल्ड हो गया। बड़े ख़ुश हुए बेटे की इस सफलता पर। शुरू में हरदम चिट्ठियां लिखता था। लैंडलाइन पर फोन करता था। रिटायर होने पर पैसे भी भेजता था। बहुत ख्याल रखता था। आता - जाता रहता था। पर बाद के दिनों में तकनीक बदली तो चिट्ठी पोस्ट से नहीं , मेल पर आने लगी। लैंड लाइन पर नहीं , मोबाइल पर फोन आने लगा। धीरे - धीरे मेल आना बंद हुआ। फ़ोन भी। पैसा आना तो पहले ही बंद हो गया था। एक बार मिलने गया था। देखा कि आलीशान घर , भुतहा घर में तब्दील था। पूछा कि , ' क्या हुआ ? ' तो सारा क़िस्सा एक सांस में मित्र बता गए। क़िस्सा बताते रहे , रोते रहे। रोटी दाल का खर्च चलाना कठिन हो गया था। दवा की मुश्किल हो गई थी। क़र्ज़ पर क़र्ज़ चढ़ चुका था। घर भी ऐसा बनाया था कि उस में एक ही परिवार रह सकता था। किराए पर देने की स्थिति नहीं थी। हम ने उन्हें सलाह दी कि , ' दो रास्ते हैं। या तो इस घर को किराए पर उठा कर किसी छोटे घर में किराए पर रहें। या इसी घर को बैंक में गिरवी रख कर हर महीने का अपना खर्च निकालें। सीनियर सिटीजन को ऐसी तकलीफों से उबारने के लिए बैंकों ने यह स्कीम बनाई है। ' वह दोनों ही प्रस्ताव से सहमत नहीं थे। दो डर थे उन के। कि कहीं किराएदार मकान पर कब्ज़ा कर ले और किराया भी न दे तब ? दूसरा डर था कि बैंक का कर्ज़ा फिर कैसे उतरेगा ? ' हम ने उन्हें बताया कि आप लोगों के मरने के बाद बैंक जाने और बेटा जाने। आप को इस से क्या लेना - देना ? ' कुछ दिन बाद उन्हों ने घर बैंक में गिरवी रख कर हर महीना पैसा लेना शुरू कर दिया। ऐसा उन्हों ने फ़ोन कर के बताया। सभी क़र्ज़ निपटा कर अब आराम से रह रहे हैं। बेटे को मेल लिख कर सब कुछ बता दिया। पर बेटे का कोई जवाब फिर भी नहीं आया। 

यह और ऐसे अनेक क़िस्से हैं। कितने सुनाऊं ?

लेकिन क्या कीजिएगा जीवन शैली अब ऐसी ही हो गई है। सोशल मीडिया ने सब को आत्म - मुग्ध कर निरा अकेला कर दिया है। लोग ख़ुशी हो या ग़म सोशल मीडिया पर ही निपटा देते हैं। कहीं आने जाने की ज़रूरत भूल गए हैं। शादी आदि का निमंत्रण भी वाट्सअप पर। गए लिफ़ाफ़ा दिया। खाना खाया। घर वापस। न दूल्हे को देखने की ललक , न दुल्हन को देखने की ख़ुशी। घर के अगल - बगल के लोग भी एक दूसरे को जानने समझने की ज़रूरत नहीं समझते। घर के भीतर भी यही हाल है। वह एक पाकिस्तानी शायर आली का दोहा है : 

तह के नीचे हाल वही जो तह के ऊपर हाल 

मछली बच कर जाए कहां जब जल ही सारा जाल। 

घर में भले सन्नाटा हो पर मॉल और बाज़ार ख़ूब सजे हैं। स्त्रियां भी। स्त्रियों का भी बड़ा बाज़ार सजा हुआ है। ख़ूब भीड़ है। आफ लाइन भी और आन लाइन भी। तो एक जाल बाज़ार का भी है। कोई चाह कर भी बच नहीं सकता। भीड़ मंदिरों , मस्जिदों , गिरिजाघरों में भी है , कथा आदि सुनाने वाले कारोबारियों के यहां भी। ट्रेनों , जहाजों और सड़कों पर भी। रियल स्टेट की मारी धरती पर कहीं जगह नहीं है। सब जगह जाम है। बस मन की धरती ख़ाली है। हां , संबंध में अगर स्वार्थ है , ज़रूरत है तो बड़ी गरमाई है। धरती हरी - भरी है। सुर नर मुनि सब कै यह रीती। स्वारथ लागि करहिं सब प्रीति। तुलसीदास की कही यह बात तो सदियों से तारी है। पर अब इस के निहितार्थ कुछ ज़्यादा ही अश्लील हो गए हैं। बाक़ी लोगों का मन उलझाने के लिए बोल्ड फ़िल्में हैं। ओ टी टी हैं। बिग बॉस , कौन बनेगा करोड़पति है , कपिल शर्मा शो आदि तमाम गोरखधंधे हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर पाखंड का अंबार है। सेक्यूलरिज्म का विनाशकारी संसार है। गलाकाट दिखावा है। सोरोस और अडानी है। राजनीति का इस पार , उस पार है। जाने क्या - क्या है। 

एक पुरानी कथा है नदी इस पार , नदी उस पार की। कि एक नदी थी , जिस में पानी कम था। सो नाव के बिना भी पार करना आसान था। घुटना भर पानी था सो लोग पैदल ही पार कर लेते थे। संयोग से एक आदमी को उस दिन नदी को तीन - चार बार पार करना पड़ा। और हर बार एक वृद्ध स्त्री उसे यह कहती मिली कि , ' भइया उस पार करवा दो !' वह उसे गोद में उठाता और पार करवा देता। इस पार भी मिलती और उस पार भी। अंतत: आख़िरी बार उस आदमी ने उस वृद्ध स्त्री से पूछ लिया कि , ' आख़िर तुम्हें जाना कहां है ? हर बार मुझे मिल जाती हो , नदी इस पार , उस पार करती रहती हो  ! ' वह स्त्री थोड़ी सकुचाई और बोली , ' जाना तो कहीं नहीं है पर क्या करूँ लाचारी है और बीमारी भी। ' आदमी चकित हुआ और पूछा , ' लाचारी और बीमारी ? ' वृद्ध स्त्री बोली , ' देखो भइया , हम हैं पुरानी रंडी। पुरुषों से छूने , छुलाने की आदत हो गई है। बूढ़ी हो गई हूं पर तलब लगी रहती है। लेकिन कोई छूता नहीं , मिलता नहीं। तो यह तरकीब निकाली। लोग गोद में उठा कर नदी इस पार , नदी उस पार करवा देते हैं। हमारी तलब मिट जाती है। हमारा काम हो जाता है। ' तो हमारी जीवन शैली भी अब नदी इस पार , नदी उस पार की तलब में कुछ भी कर लेने को अभिशप्त हो गई है। नरेश सक्सेना एक कविता में इसी लिए लिखते हैं :

पुल पार करने से
पुल पार होता है
नदी पार नहीं होती

नदी पार नहीं होती नदी में धंसे बिना

तो जीवन शैली ऐसी ही है जो बिना जीवन में धंसे जीवन नहीं पाती। एक बड़ी टीस बोती चलती है यह जीवन शैली और पिन की तरह, किसी शीशे की किरिच की तरह चुभन टांक देती है। जो मन में निरंतर दरकती और किसी कपड़े की तरह मसकती रहती है। गश्त मारती रहती है यह चुभन। यह टीस। जीवन शैली की टीस। जीवन की मैल पर तेज़ाब की तरह बरसती है यह जीवन शैली। हमारे जीवन में गुथी विलाप की बांसुरी की तरह बजती यह शैली , यह जीवन शैली लेकिन बहुत मोहक और अर्थवान भी तो है। इसी लिए हम जीवित हैं और जवान भी। जैसे बर्फ़ गिरता है पर्वत पर और पुष्प खिलता है पृथ्वी पर। ठीक वैसे ही जैसे कोई स्त्री खिल उठती है किसी पुरुष की बाहों में। जैसे पृथ्वी की सतह पर जल है , ठीक वैसे ही हमारे जीवन में , हमारी जीवन शैली है। किसी हाइवे की तरह मोड़ लेती हुई। औचक सौंदर्य में डूबी हुई। आप इसे प्यार करें या ठुकरा दें , यह आप पर मुन:सर है। पृथ्वी और जीवन शैली चाहे जितना बदलें , सूरज का अपना प्रकाश है। यह जाने वाला नहीं है। इस प्रकाश में नहाते रहिए। जीवन शैली चाहे जैसी हो , इसे प्रणाम कीजिए !

[ दस्तक टाइम्स में प्रकाशित ]