Monday, 7 August 2023

हिप्पोक्रेट वामपंथी कबीले की कैफ़ियत

 दयानंद पांडेय 

अपनी एक टिप्पणी में विष्णु नागर जी ने मुझे इंगित करते हुए कहा है कि इसी लिए आपको इन्हीं सब कारणों से गंभीरता से नहीं लिया जाता। विष्णु जी कृपया मुझे यह पूछने की अनुमति दीजिए कि हिंदी पट्टी ही नहीं दुनिया भर में अब हिप्पोक्रेट वामपंथी कबीले के लेखकों को गंभीरता से कौन लेता है भला ! मैं तो नहीं ही लेता। कोई नहीं लेता। कोई लेता हो तो कृपया मुझे भी बताएं। मान्यता न मिलने की पीड़ा का भी ज़िक्र किया है विष्णु जी ने। बड़ी विनम्रता से कहना चाहता हूं कि हम किसी हिप्पोक्रेट वामपंथी कबीले के लेखक नहीं हैं , न उन से किसी मान्यता की तलब है ! क्या राहुल गांधी और कांग्रेस की दरबानी करने वाले वामपंथी हिप्पोक्रेट लेखकों की समाज में कोई हैसियत रह भी गई है ? कि वह किसी को मान्यता भी दे सकें ?

पश्चिम बंगाल को वामपंथियों ने जिस तरह ख़ूनी हिंसा में झोंका है , लोकतंत्र का खात्मा किया है और इस सब पर चुप रह जाने वाले हिप्पोक्रेट वामपंथी लेखकों की फ़ज़ीहत अब पुरानी बात हो चली है। लेकिन सवाल खत्म नहीं हुआ है। पश्चिम बंगाल में भद्रलोक के नाम पर जगह-जगह रवींद्रनाथ टैगोर की मूर्तियां तोड़ने वाले हिप्पोक्रेट अब किस मुंह से लेखकों की बात करते हैं। कविता लिखने वालों ने , कहानी लिखने वालों ने क्या बंगाल का वह मंज़र कभी याद किया , किसी रचना में कि जिस में बेटों को मार कर उन के ख़ून में भात सान कर खिलाया ? स्त्रियों से वामपंथियों ने सामूहिक बलात्कार किया। किसी रचना में आया कभी ? दिल्ली के सिख दंगों में कांग्रेसियों ने सिखों की हत्या की , लूटपाट की , किसी वामपंथी लेखक की रचना में आया ? क्या कोलकाता , मुंबई और कानपुर जैसे शहरों के उद्योगों को तबाह कर ख़त्म करने वाले वामपंथियों और इस पूरे मसले पर हिप्पोक्रेट वामपंथी लेखकों , बुद्धिजीवियों की ख़तरनाक चुप्पी आज भी उन के कोढ़ की शिनाख़्त करती है। मुंबई में बिल्डरों के दल्ले वामपंथियों ने कैसे तो तमाम कारखानों को हड़ताल कर-कर बंद करवा कर तमाम बहुमंज़िले अपार्टमेंट खड़ा करवा दिए उन कारखानों की ज़मीनों पर , यह तथ्य तो पुलिस में आन रिकार्ड है। मज़दूरों का हितैषी बन कर वामपंथियों ने कैसे तो लाखों मज़दूरों के घरों के चूल्हे ठंडे करवा दिए। वामपंथियों की मज़दूरों से दुश्मनी की अनूठी मिसाल है यह। 

बाल ठाकरे नाम के भस्मासुर को इंदिरा गांधी ने खड़ा ही किया था वामपंथियों की इसी अराजकता और दुश्मनी के मद्देनज़र। हड़ताल दर हड़ताल से आजिज आ गई थीं। इस के पहले नेहरू भी वामपंथियों से आजिज आ गए थे ख़ास कर चीन से पराजय के बाद वामपंथियों के ख़िलाफ़ मुहिम चला दी थी। इतना कि साहिर लुधियानवी जैसे लोग मारे डर के सार्वजनिक रूप से कहते फिर कि मैं कम्युनिस्ट नहीं हूं। क्यों कि इस के पहले मज़रूह सुल्तानपुरी  को नेहरू जेल भेज चुके थे। इस लिए कि मज़रूह नेहरू के ख़िलाफ़ एक नज़्म लिखने की हिमाकत कर बैठे थे : मन में जहर डॉलर के बसा के / फिरती है भारत की अहिंसा / खादी के केंचुल को पहनकर / ये केंचुल लहराने न पाए / अमन का झंडा इस धरती पर / किसने कहा लहराने न पाए / ये भी कोई हिटलर का है चेला / मार लो साथ जाने न पाए / "कॉमनवेल्थ का दास है नेहरू" / मार ले साथी जाने न पाए। तो बंटवारे में पाकिस्तान जा कर वहां की जेल से बच कर भाग कर भारत आए बिचारे साहिर लुधियानवी भारत में नेहरू की जेल में नहीं जाना चाहते थे। 

पश्चिम बंगाल में नंदीग्राम और सिंगूर मसले पर हिप्पोक्रेट वामपंथियों ने जो अत्याचार किसानों-मज़दूरों के साथ किया , वह तो अब राजनीतिक इतिहास है। पार्टी लाइन के चक्कर में तमाम हिप्पोक्रेट वामपंथी लेखकों की इस पर आज तक ख़तरनाक क़िस्म की चुप्पी है। क्यों है ? विष्णु जी कभी इस पर भी बात होनी चाहिए। क्यों कि आप तो अशोक वाजपेयी कैंप के हैं। अशोक वाजपेयी की पहचान सीरीज के हैं। अशोक वाजपेयी घोषित रूप से लगभग कांग्रेसी हैं , वामपंथी नहीं। इस आधार पर मान लेता हूं कि आप भी वामपंथी नहीं हैं। वामपंथियों से मित्रता हो सकती है , हो। मेरी भी कई वामपंथियों से मित्रता है। 

बहरहाल अब विष्णु नागर जी आप ने मुझ से यह कहा है , लिख कर कहा है तो निश्चित ही मुझे इस पर विचार करना चाहिए। विचार किया। ठीक से विचार किया। संयत हो कर किया। सो अब बात कर रहा हूं। और फिर से पूछ रहा हूं कि विष्णु नागर जी से , बहुत आदर भाव से पूछ रहा हूं कि वह कौन लोग हैं जो मुझे गंभीरता से नहीं लेते ? क्या वही सो काल्ड वामपंथी। हिप्पोक्रेट वामपंथी ?  राहुल गांधी और कांग्रेस की दरबानी करने वाले वामपंथी हिप्पोक्रेट ? 

विष्णु नागर जी , 1981 से हमारे आदरणीय मित्र हैं। हितैषी हैं। दिल्ली में हमारे संघर्ष के दिनों के साथी हैं। उन दिनों के उन के स्नेह-सहयोग को आज भी याद करता हूं तो मन भावुक हो जाता है। मन हरियरा जाता है। इब्बार रब्बी और विष्णु नागर दोनों ही उन दिनों सांध्य टाइम्स में थे। नवभारत टाइम्स के दफ़्तर पहुंचते ही , दोनों आदरणीय की आंखों में मेरे लिए स्नेह की चमक आ जाती थी। कैसे भूल सकता हूं भला उन दिनों की। रब्बी जी से अब भी कभी-कभार बात होती है। विष्णु जी अब भी स्नेह करते हैं। लखनऊ आते हैं तो कभी भेंट भी हो जाती है। विष्णु जी उसी स्नेह भाव से मिलते हैं। लेकिन अभी फ़ेसबुक पर प्रेमचंद पर मेरी एक टिप्पणी से वह इतना विचलित हुए , इतना दबाव में आ गए कि मेरे प्रति एक अप्रिय टिप्पणी लिख बैठे। सहमति-असहमति फ़ेसबुक पर आम बात है। पर संबंधों में भी इस की गांठ पड़े , इस का हामीदार मैं नहीं हूं। कभी नहीं रहा। कभी नहीं होऊंगा। 

संयोग से जब 2014 का लोकसभा चुनाव चुनाव आया। बतौर पत्रकार मुझे स्पष्ट दिख रहा था कि भाजपा स्पष्ट बहुमत के साथ सरकार बनाने जा रही है। नरेंद्र मोदी क्लीयरकट प्रधान मंत्री बनते हुए दिख रहे थे। और मैं लिख रहा था। हिप्पोक्रेट वामपंथी गिरोह ने सहसा मुझे भाजपाई और संघी कहना शुरू कर दिया। मुझे इस की कोई परवाह नहीं थी। मैं सच लिख रहा था। जो दिख रहा था लिख रहा था। बतौर पत्रकार और लेखक मैं एजेंडाधारी नहीं हूं। ऐसा मेरा कोई कमिटमेंट किसी से भी नहीं है कि समय की दीवार पर लिखी इबारत को मिटा कर अपनी इबारत लिखने का पाखंड करूं। लगभग उन्हीं दिनों बहुत से लेखक , कलाकार , पत्रकार बनारस पहुंचे थे। नरेंद्र मोदी को हराने की रणनीति बनाने के लिए। विष्णु खरे भी गए थे। बनारस से लौट कर विष्णु खरे ने साफ़ लिखा था कि आख़िर मैं बनारस गया ही क्यों था ? लेख श्रृंखला ही लिखी थी। विष्णु खरे ने भी नरेंद्र मोदी की जीत और प्रधान मंत्री का ऐलान चुनाव से पहले कर दिया था ? विवादित और सो काल्ड सेक्यूलर पत्रकार राजदीप सरदेसाई ने भी। और भी बहुतों ने। तो क्या विष्णु खरे और राजदीप सरदेसाई आदि-इत्यादि भी संघी और भाजपाई हो गए थे ? ऐसा हुआ भी तो क्या पूरा देश संघी और भाजपाई हो गया है ? 

विष्णु जी आप ने भी कुछ समय तक राजनीतिक रिपोर्टिंग की है। लोकसभा कवर किया है। भाजपा से तमाम असहमतियों और नापसंदगी के बावजूद ख़बर लिखते समय क्या लोकसभा से भाजपा का पक्ष हटा देते थे ? कोई बिल या विधेयक पास हो जाता और आप अख़बार की ख़बर में उसे गुम कर देते थे ? ज़बरदस्ती अपनी तरफ से कुछ और लिख देते ? फ़ेसबुक तो नहीं है न अख़बार या न्यूज़ चैनल कि अपने मन की ही लिखें और अपने मन का ही निर्णय लिख दें। मनोकामना ही लिखें। लिख ही रहे हैं कुछ लोग। लेकिन मैं ऐसा नहीं लिख पाता। कभी नहीं लिख पाऊंगा। बशीर बद्र का एक मिसरा है : ये ज़बाँ किसी ने ख़रीद ली ये क़लम किसी का ग़ुलाम है। मुझ पर अभी तक लागू नहीं है। आगे भी लागू नहीं होगा। बकौल फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे / बोल ज़बाँ अब तक तेरी है का क़ायल हूं। रहूंगा। इस लिए भी कि मेरा कोई एजेंडा नहीं है। किसी गिरोह , किसी कबीले का सदस्य नहीं हूं। किसी से कोई फंडिंग या कोई सुविधा नहीं लेता। निजी राय और ख़बर दोनों दो बात है। लिखने के मामले में कबीर का हामीदार हूं : कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर, / ना काहू से दोस्ती,न काहू से बैर। निष्पक्षता हमारी थाती है। हमारी आदत है। जिस दिन कामरेडों की सरकार बनती दिखेगी , खुल कर लिखूंगा कि कामरेडों की सरकार बन रही है। कामरेड जिस कांग्रेस की दरबानी में संलग्न हैं , उस कांग्रेस की सरकार बनती दिखेगी तो यह भी धूम-धड़ाके से लिखूंगा। अभी तो लेकिन ऐसा किसी सूरत नहीं दिख रहा तो कैसे लिख दूं ? अभी तो इंडिया नाम का गठबंधन जली माचिस की तीली सरीखा ही है। आप को या और किसी और को इस माचिस की तीली में आग की कोई संभावना दिखती हो तो ज़रूर बताएं। मनोकामना नहीं , तथ्य और तर्क की बुनियाद पर। मनोकामना से समय नहीं चलता , न राजनीति। न जनता जनार्दन। बिलकुल अभी तो ऐसा ही है। आगे कुछ बदल जाए तो अच्छी बात है।

पर देखता हूं कि फ़ेसबुक पर तमाम मित्र मोदी समर्थन , मोदी विरोध को ले कर अपनी बरसों की मित्रता में आग लगा बैठे हैं। संबंधों को स्वाहा कर बैठे हैं। यह ठीक नहीं है। वैचारिकी , प्रतिबद्धता , राजनीतिक समझ , राजनीतिक दृष्टि से संबंध नहीं चलते। फिर हम तो लेखक और पत्रकार हैं। जो राजनीतिक परिदृश्य सामने है , वैचारिकी के नाम पर उसे कैसे ढंक सकते हैं ? राजा का बाजा बजाने वाले हम नहीं हैं। न भाजपा का बाजा बजाते हैं , न कांग्रेस का , न कम्युनिस्ट का , न सपा , बसपा आदि-इत्यादि का। सिर्फ़ समय की दीवार पर लिखी इबारत को बांच देता हूं। गोरख पांडेय की कविता याद आती है :

राजा बोला रात है

रानी बोली रात है

मंत्री बोला रात है

संतरी बोला रात है

यह सुबह सुबह की बात है

तो हम वैचारिकी के नाम पर , कमिटमेंट के नाम पर , किसी एजेंडे के तहत सुबह को रात कहने के हामीदार नहीं हैं। न कभी होंगे। पाखंडी लोग कहते रहें , कुछ भी। संघी , भाजपाई। पार्टी लाइन पर चलने वाली भेड़ों की भीड़ में हम शामिल नहीं हैं। लोग चाहे जो कह दें। एक स्वतंत्रचेता पत्रकार और लेखक होने के नाते मेरे लिए यह बहुत ज़रूरी है। रचनाओं में ऐसी कोई बात हो तो कोई बताए भी। विष्णु जी आप ने अपनी टिप्पणी में मुझे प्रखर वामपंथ विरोधी लिखा है। कृपया मुझे यह कहने की अनुमति दीजिए कि आप ने यह ग़लत लिखा है। क्यों कि वामपंथ तो क्या मैं किसी पंथ का विरोधी नहीं हूं। मैं तो नाथ पंथ का भी ख़ूब सम्मान करता हूं। पंथ कोई भी ख़राब नहीं होता। पथ ख़राब होता है। 

हां , चुनी हुई चुप्पी , चुने हुए विरोध के कुटैव के मारे वामपंथियों में अब अधिकांश पथभ्रष्ट हैं। हिप्पोक्रेट हैं। हां , मैं इन पथभ्रष्टों और हिप्पोक्रेटों का प्रखर विरोधी हूं। रहूंगा। सर्वदा रहूंगा। आप को मालूम नहीं है क्या कि क्रांति के नाम पर कितने वामपंथी कहलाने वाले लेखक एन जी ओ चलाते हैं ? यहां-वहां से फंड बटोरते रहते हैं। यह जो तमाम सेमीनार होते हैं , व्याख्यान होते हैं , क्या आपसी चंदे से होते हैं ? तो शोषकों , वंचितों की लड़ाई लड़ने वाले को एयर टिकट , शानदार होटल आदि का इंतज़ाम करता कौन है ? बड़ी-बड़ी गाड़ियों से चलते कैसे हैं ? कारपोरेट के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ने वालों के बच्चे करोड़ों रुपए के पैकेज पर कारपोरेट की गुलामी क्यों करते हैं ? बाहर रोज लाल सलाम , घर में रोज घंटी बजा कर पूजा और आरती। ऐसी बहुतेरी बातें हैं। जिन का कोई अंत नहीं है। लेकिन मैं ऐसे ही हिप्पोक्रेट वामपंथियों का प्रखर और प्रबल विरोधी हूं। लाल सलाम बोल कर मोदी विरोध की घटिया कविता लिख कर ही अगर कवि हो जाना है , लेखक हो जाना है तो तौबा-तौबा ! ऐसे ही लोग तो आज की तारीख़ में वामपंथी लेखक , कवि हैं। वामपंथी कबीले में जगह-जगह ऐसे शोरूम सजे मिलते हैं। एन जी ओ चला कर क्रांति हो सकती है ? बदलाव हो सकता है ? तब तो एक समय फोर्ड फाउंडेशन से प्रति वर्ष बारह करोड़ पाने वाले गुजराती लेखक जी गणेश अब तक गुजरात में दशकों से चल रही भाजपा की सरकार को उखाड़ फेंके होते। यही तो लक्ष्य है उन का। समाज बदलता है लोगों के बीच काम करने से , एन जी ओ और सेमीनार से नहीं। किसान , मज़दूर धुरी हैं किसी समाज के बदलाव में। और वामपंथी अपने पाखंड के कारण यहीं से अनुपस्थित हैं। सिरे से अनुपस्थित हैं। बस गाल बजाने में आचार्य हैं। 

अच्छा क्या हिंदी हिंदुओं की भाषा है , कि उर्दू मुसलमानों की भाषा , कि  अंगरेजी अंगरेजों की भाषा , कि संस्कृत ब्राह्मणों की भाषा है ? सी पी आई के महासचिव डी राजा ने कुछ साल पहले सार्वजनिक रुप से हिंदी दिवस के दिन कहा था कि हिंदी , हिंदुओं की भाषा है ! आन रिकार्ड कहा। आप समेत किसी लेखक या वामपंथी लेखक ने डी राजा के इस हिंसक और अश्लील बयान की कभी भूल कर भी निंदा की ? दबी जुबान भी प्रतिकार किया ? क्यों नहीं किया ? क्या लेखक भी पोलित ब्यूरो से संचालित होते हैं , जो सब के सब सिरे से ख़ामोश रहे ? फिर यह कैसे लेखक हैं ? अच्छा एक मासूम सा सवाल पूछता हूं। क्या प्रेमचंद कम्युनिस्ट थे ? एक प्रगतिशील लेखक संघ की अध्यक्षता कर लेने से प्रेमचंद कम्युनिस्ट कैसे हो गए भला ? ज़रा बताइएगा। मैं समझता हूं प्रगतिशील लेखक संघ में प्रेमचंद का वह अध्यक्षीय भाषण ज़्यादातर वामपंथियों ने पढ़ा ही नहीं है। पढ़ा होता तो ऐसा कहने की ज़ुर्रत न करते कि प्रेमचंद कम्युनिस्ट थे। प्रेमचंद ने तब अपने भाषण में कहा था कि हर लेखक प्रगतिशील होता है। 

वैसे भी हम तो प्रेमचंद को गांधीवादी के नाते जानते और पहचानते हैं। गोरखपुर में गांधी को ही सुन कर प्रेमचंद ने सरकारी नौकरी छोड़ी थी , कार्ल मार्क्स को पढ़ कर नहीं। गोरखपुर में सरकारी नौकरी छोड़ कर कंधों पर खादी कपड़ों का गट्ठर लाद कर घूम-घूम कर बेचते थे प्रेमचंद। गीता प्रेस के महावीर प्रसाद पोद्दार उन की बहुत मदद करते थे। पोद्दार भी खादी के कपड़े कंधे पर लाद कर बेचते थे। गांधी और उन के खादी का जूनून था यह। गांधी अहिंसा के हामीदार थे। प्रेमचंद भी। प्रेमचंद के विचारों और रचनाओं में कहीं भी हिंसा के लिए जगह नहीं है। और गांधी के बारे में कम्युनिस्टों की क्या राय है , यह भी किसी से छुपा है क्या ? गांधी अहिंसा के पुजारी हैं , मार्क्स हिंसा के पैरोकार हैं। सशत्र क्रांति के पैरोकार। प्रेमचंद तो कहते थे साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है। फिर प्रेमचंद को वामपंथी कहने वाले हिप्पोक्रेट वामपंथी , राजनीति के पीछे-पीछे चलने के लिए अभिशप्त क्यों हो गए हैं ? गो कि प्रेमचंद गांधीवादी थे , वामपंथी नहीं। लेकिन हिप्पोक्रेट वामपंथियों ने प्रेमचंद को वामपंथी ही नहीं , गोर्की को उन के बराबर खड़ा कर दिया। 

कृपया मुझे यह कहने की अनुमति दीजिए कि गोर्की अच्छे लेखक हैं पर प्रेमचंद के आगे नहीं ठहरते। एक मुहावरे में कहूं कि कहां प्रेमचंद , कहां गोर्की ! वामपंथ धर्म को अफीम मानता है। लेकिन प्रेमचंद के गो - दान का नायक होरी तो ईश्वर की सत्ता में विश्वास रखता है और भाग्यवादी भी है। नामवर सिंह ने कहा था कि ‘होरी एक हिंदू किसान है और वह हिंदू किसान ही हिंदू प्रेमचंद है। प्रेमचंद गाय-बैल, खेत खलिहान, गोबर मिट्टी की बात करते हैं।‘ प्रेमचंद अपनी अंतिम कहानी रहस्य में मनुष्य में देवत्व की बात करते हैं। प्रेमचंद के उपन्यास प्रेमाश्रम में बलराज को भी जांच लेना चाहिए। प्रेमचंद वामपंथी हिप्पोक्रेटों की जैसे ख़बर लेते हैं गो-दान में। गो-दान का एक प्रमुख पात्र 'मेहता' 'राय साहब' के इसी ढकोसले को उद्घाटित करते हुए कहता है कि "मुझे उन लोगों से ज़रा भी हमदर्दी नहीं है जो बातें तो करते हैं कम्युनिस्टों की-सी मगर जीवन है रईसों का सा, उतना ही विलासमय, उतना ही स्वार्थ से भरा हुआ।” आगे वह और भी कहता है कि "मैं तो केवल इतना जानता हूँ, हम या तो साम्यवादी हैं या नहीं हैं। हैं तो उसका व्यवहार करें, नहीं हैं, तो बकना छोड़ दें। मैं नकली ज़िंदगी का विरोधी हूँ। ” अच्छा गो - दान नाम से छपा उपन्यास अब गोदान कैसे और क्यों हो गया ? कोई बताएगा भी ? आप ही बता दीजिए। 

ख़ैर। तो बकौल डी राजा क्या सचमुच हिंदी , हिंदुओं की भाषा है ? फिर तो आप जैसे तमाम आदरणीय मित्रों को हिंदी में लिखने का अपराध अब और नहीं करना चाहिए। मैं ऐसे ही पाखंडियों का प्रखर विरोधी हूं। 

अच्छा हिंदी के कुछ कवि यथा नागार्जुन , शमशेर और धूमिल कम्युनिस्टों के खिलाफ कविता लिखने लगे थे। शमशेर तो लिखने लगे थे मार्क्स को जला दो। लेनिन को जला दो। तो क्या यह सभी संघी थे कि जनसंघी , भाजपायी ? फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने अपनी मशहूर नज़्म हम देखेंगे पहली बार प्रयाग में पढ़ी थी। और मशहूर हो गई थी। उस समय फ़ैज़ को भारत अटल बिहारी वाजपेयी ने बुलाया था। तो क्या फ़ैज़ संघी हो गए थे कि भाजपाई ?

लखनऊ में यशपाल , भगवती चरण वर्मा , अमृतलाल नगर की एक त्रिवेणी भी थी कभी। जैसे कि प्रयाग में सुमित्रा नंदन पंत , सूर्यकांत त्रिपाठी निराला और महादेवी वर्मा की थी। यशपाल ने तो नाना जी देशमुख के अनुरोध पर पांचजन्य में नियमित कई लेख लिखे। तो क्या वह संघी हो गए थे कि जनसंघी ? कि उन का कम्युनिस्ट मर गया ? हां , झूठा सच में नेहरू की नीतियों की आलोचना के बाद ज़रूर वामपंथी खेमे ने उन्हें किनारे कर दिया। अब भी बहुत दबी जुबान बात करते हैं यशपाल पर। ख़ैर यह अलग विषय है। 

पंत , निराला और महादेवी में भी तमाम लेखकीय मतभेद थे। एक दूसरे की धज्जियां भी ख़ूब उड़ाते थे। लिख-लिख कर उड़ाते थे। पर कभी बिलो द बेल्ट नहीं जाते थे। निजी जीवन उन के आपस में बहुत ही मधुर थे। प्रयाग की यह त्रिवेणी कविता की थी पर और लखनऊ में कथा की एक त्रिवेणी थी। यशपाल , भगवती चरण वर्मा , अमृतलाल नागर की। गज़ब की ट्यूनिंग थी तीनों में। आपसी मतभेद भी थे पर मिठास उस से ज़्यादा। लखनऊ के महानगर में भगवती चरण वर्मा का घर चित्रलेखा बन चुका था। महानगर में ही ज़रा दूर पर यशपाल का घर बन रहा था। चित्रलेखा में यशपाल , नागर जी सहित कुछ लेखक बैठे हुए थे। बात ही बात में एक लेखक ने यशपाल से कहा कि आप भी अपने घर का नाम दिव्या रख लीजिए। यशपाल टाल गए। दो-तीन बार टाल गए। पर जब बहुत हुआ तो यशपाल मुस्कुरा कर बोले , मैं ने सिर्फ़ दिव्या ही नहीं लिखा है। लोग हंस कर रह गए। भगवती चरण वर्मा भी इन हंसने वालों में थे। यह वह दौर था जब लोग चिट्ठी लिख कर पता लिखते थे , श्री भगवती चरण वर्मा , चित्रलेखा के लेखक। बस। न कोई शहर , न प्रदेश , न मुहल्ला। और चिट्ठी भगवती चरण वर्मा के पास सकुशल पहुंच जाती थी। ऐसी प्रसिद्धि थी , चित्रलेखा और भगवती चरण वर्मा की। फिर सोचिए कि इसी त्रिवेणी की एक कड़ी अमृतलाल नागर तो किराए के घर में ही रह कर दुनिया से कूच कर गए। लेकिन यशपाल तो घोषित कम्युनिस्ट थे। विप्लव नाम से उन का अपना प्रेस और प्रकाशन भी था। बकौल मुद्राराक्षस भगवती चरण वर्मा , अमृतलाल नागर जनसंघी थे। अलग बात है कि इमरजेंसी के दिनों में इन्हीं भगवती चरण वर्मा के घर संजय गांधी के स्वागत में कई सारे लेखक बैठे थे। यह भी सुनिए कि यह त्रिवेणी लखनऊ में सरस्वती के संपादक रहे पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी के घर भी नियमित बैठकी करती थी। 

तब जब कि श्रीनारायण चतुर्वेदी नख से शिख तक ब्राह्मण थे। खुल्ल्मखुल्ला। ब्राह्मण तो यशपाल और अमृतलाल नागर भी थे। पर श्रीनारायण चतुर्वेदी के अर्थ में नहीं। मिलना-जुलना , मित्रता अपनी जगह है , बाक़ी चीज़ें अपनी जगह। खैर , लखनऊ में फिर कथा की एक दूसरी त्रिवेणी भी बही। श्रीलाल शुक्ल , मुद्राराक्षस और कामतानाथ की। यशपाल , नागर और भगवती बाबू वाली त्रिवेणी की तरह तो नहीं छनती थी इन तीनों की , आपसी मतभेद भी बहुत थे पर तीनों एक दूसरे का सम्मान बहुत करते थे। अपमान नहीं करते थे। कामतानाथ विवाद प्रिय नहीं थे , पर श्रीलाल जी की काट-पीट पर दबी ज़ुबान ही रहते थे। बहुत नहीं बोलते थे। विवाद की जगह लिखने-पढ़ने में अपनी ऊर्जा लगाते रहे। पर कैंसर ने असमय उन्हें हम से छीन लिया। लेकिन श्रीलाल शुक्ल और मुद्राराक्षस में गहरे मतभेद थे। काट-पीट भी बहुत। पर बिलो द बेल्ट कभी नहीं हुए। किसी भी तरह एक दूसरे पर हिंसक और अश्लील भी नहीं हुए। मुद्राराक्षस किसी के यहां किसी मांगलिक कार्य या मृत्यु आदि पर लगभग नहीं जाते थे। पर तीन लोगों की मृत्यु पर मुद्रा को मैं मैंने देखा है। एक अमृतलाल नागर , दूसरे राजेश शर्मा , तीसरे श्रीलाल शुक्ल की मृत्यु पर। श्रीलाल जी की चिता के पास खड़े मुद्रा की आंखों में आंसू देखे मैं ने। तब जब कि श्रीलाल जी ने मुद्रा को बहुत काटा था। यहां तक कि एक बार कथाक्रम के आयोजन में रसरंजन के समय मुद्रा को बाहों में भर कर श्रीलाल जी ने मुद्रा जी से कहा था कि अगर मैं ज्यूरी में रहा होता , तो इस बार का साहित्य अकादमी तुम्हें ही मिलता। पर बाद में पता चला कि श्रीलाल जी उस बार साहित्य अकादमी की ज्यूरी में थे और श्रीलाल शुक्ल के विरोध के कारण ही मुद्राराक्षस को साहित्य अकादमी नहीं मिल सका। यह व्यथा मुद्राराक्षस ने बाद में बोल कर भी और लिख कर सब के सामने परोसी थी। कभी इसी तरह जब श्रीलाल शुक्ल को रागदरबारी पर साहित्य अकादमी मिला था तो उन के मुकाबिल राही मासूम रज़ा का उपन्यास आधा गांव था। तब ज्यूरी में भगवती चरण वर्मा थे और उन्हों ने राही मासूम रज़ा के आधा गांव को काट कर श्रीलाल शुक्ल के रागदरबारी को साहित्य अकादमी दिलवाया था। 

एक बार डाक्टर नागेंद्र और रामविलास शर्मा के बीच किसी बात पर विवाद हो गया। नागेंद्र अपना आपा खो बैठे। राम विलास शर्मा से बोले , अपने जीते जी तुम्हें कभी भी दिल्ली यूनिवर्सिटी में घुसने नहीं दूंगा। डाक्टर नागेंद्र उन दिनों बहुत पावरफुल थे। हिंदी विभाग के अध्यक्ष थे। तत्कालीन केंद्रीय शिक्षा राज्य मंत्री सैय्यद नुरुल हसन बहुत चाहते थे कि जोधपुर विश्वविद्यालय से बर्खास्त नामवर सिंह को किसी तरह दिल्ली विश्वविद्यालय में एडजस्ट कर दिया जाए। नुरुल हसन भी बहुत पावरफुल थे। इंदिरा गांधी के करीबी थे। लखनऊ के रहने वाले थे। उन के नाना सर सैयद वज़ीर हसन , अवध के न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और फिर मुस्लिम लीग के जाने-माने अध्यक्ष रहे थे। उन के नाम पर लखनऊ में वज़ीर हसन रोड भी है अब। पॉश इलाक़ा है। आप खोजेंगे तो ऐसे बहुत से मुस्लिम लीग के लोग , पसमांदा मुसलमानों का शोषण करने वाले लोग वामपंथी बन गए मिलेंगे। सैय्यद लोग अभी भी अपने को अरब से आया हुआ मानते हैं। श्रेष्ठ मानते हैं। सैय्यद नुरुल हसन प्रसिद्ध वामपंथी लेखक सैयद सज्जाद ज़हीर के भांजे थे। सैय्यद सज्जाद ज़हीर तो बंटवारे के बाद पाकिस्तान चले गए थे। पर पाकिस्तान में जब रगड़े गए , जेल हो गई तो भाग कर वापस भारत आ गए। मुस्लिम लीग छोड़ कर कम्युनिस्ट बन गए। बहरहाल नुरुल हसन सैय्यद होने के बावजूद मामा सज्जाद ज़हीर की तरह वामपंथी भी थे। रामपुर के नवाब की बेटी से विवाह हुआ था। स्कूल ऑफ ओरिएंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज , लंदन में इतिहास के प्रोफ़ेसर रहे थे । अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में इतिहास विभाग में प्रोफेसर व अध्यक्ष भी रहे थे। रोमिला थापर और इरफ़ान हबीब जैसों को पावरफुल बनाने में नुरुल हसन का बड़ा हाथ था। नुरुल हसन बाद में राजनयिक भी हुए। पर ऐसे पावरफुल सैय्यद नुरुल हसन जो तब केंद्रीय शिक्षा राज्य मंत्री भी थे डाक्टर नागेंद्र के आगे उन की एक नहीं चली। और सैय्यद नुरुल हसन नामवर सिंह को दिल्ली विश्वविद्यालय में नियुक्त नहीं करवा सके थे। विवश हो कर नामवर सिंह को कम्युनिस्ट पार्टी के जनयुग अख़बार में संपादक बन कर दिल्ली में गुज़ारा करना पड़ा। राजकमल प्रकाशन के लिए भी काम किया। आलोचना के संपादक भी बने। बाद में जब जे एन यू खुला तो एक हिंदी विभाग क्या सभी भाषाओं के अध्यक्ष बने और उन्हें उत्कर्ष तक पहुंचाया। लेकिन तब के डाक्टर नागेंद्र ने नामवर सिंह को दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में नियुक्त नहीं होने दिया। 

और वही डाक्टर नागेंद्र , डाक्टर रामविलास शर्मा से कह रहे थे , तुम्हें दिल्ली विश्वविद्यालय में घुसने नहीं दूंगा। वैसे भी रामविलास शर्मा हिंदी में लिखते ज़रूर थे पर अंगरेजी के आदमी थे। अंगरेजी ही पढ़ाते थे आगरा में। उन्नाव के रहने वाले रामविलास शर्मा भी लखनऊ विश्वविद्यालय में पढ़े थे। अमृतलाल नागर के पारिवारिक और प्रिय मित्र थे। एक दिन डाक्टर नागेंद्र के एक शिष्य ने उन्हें बताया कि रामविलास शर्मा तो एक व्याख्यान में दिल्ली विश्विद्यालय में आ रहे हैं। इतिहास विभाग ने उन्हें बुलाया था। रामविलास शर्मा ने इतिहास पर भी पर्याप्त लिखा है। वामपंथी हिप्पोक्रेटों ने बाद के दिनों में कामरेड रामविलास शर्मा को भी हिंदू कह कर धकेल दिया। जैसे कभी राहुल सांकृत्यायन को हिंदू कह कर धकेल दिया था। तब के दिनों हिंदू नाम की ही गाली इन हिप्पोक्रेटों को मिल पाई थी। संघी , जनसंघी और भाजपाई नाम की गाली का तब तक अनुसंधान नहीं हुआ था। बाद के दिनों में निर्मल वर्मा को भी हिंदू कह कर धकियाया गया। तब जब कि निर्मल वर्मा भी वामपंथी रहे थे। कार्ड होल्डर रहे थे। खैर , रामविलास शर्मा तय तिथि पर दिल्ली विश्विद्यालय आए और जब आए तो उन का स्वागत करने के लिए डाक्टर नागेंद्र गेट पर न सिर्फ़ पहले से उपस्थित थे बल्कि धधा कर उन से गले मिले। रामविलास शर्मा भी डाक्टर नागेंद्र से उसी गर्मजोशी से मिले। ऐसे जैसे उन दोनों के बीच पहले कभी कुछ घटा ही न हो। इतना ही नहीं , पूरे कार्यक्रम में डाक्टर नागेंद्र उपस्थित रहे और रामविलास शर्मा को विदा कर के ही घर लौटे। लेखकीय सदाशयता और सदभाव का यही तकाज़ा है। पर आप ने क्या मुझ पर अपनी फ़ेसबुक पोस्ट पर की गई टिप्पणियों पर ध्यान दिया ?  कमेंट की भाषा पर ध्यान नहीं दिया ? दिया तो है। लाइक तो किया है। क्या आप ने किसी से अभद्र और अश्लील भाषा पर ऐतराज भी जताया क्या ? स्पष्ट है कि नहीं जताया। इतना ही नहीं  , मैं ने पाया कि आप ने दबाव में आ कर ही अपनी पोस्ट को कम से कम दो-तीन बार एडिट किया है। आप ने शुरू में लिखा कि भाजपा विरोधी , फिर लिखा शायद भाजपा विरोधी। फिर यह पूरा ही हटा दिया। आप की पोस्ट है। आप हज़ार बार संपादित कीजिए। क्या हटाइए , क्या जोड़िए , यह आप का अपना विवेक है। कोई हर्ज नहीं है ! लेकिन यह सब देख कर नामवर सिंह की बरबस याद आ गई है। 

एक समय दिल्ली पुस्तक मेले में राजेंद्र यादव के बीमार आदमी के स्वस्थ विचार किताब की सहयोगी लेखिका ज्योति कुमारी के कहानी संग्रह के विमोचन पर बतौर अध्यक्ष नामवर सिंह ने कहा कि दस्तखत पर मेरे दस्तखत नहीं हैं। यानि दस्तखत कहानी संग्रह में नामवर सिंह के नाम से छपी भूमिका , उन्हों ने नहीं लिखी है। फिर हफ्ते भर में नामवर सिंह का बयान आया कि दस्तखत में छपी भूमिका उन से बातचीत पर आधारित है। अगले हफ़्ते फिर नामवर सिंह की भूमिका पर सफाई आई। नामवर ने कहा , भूमिका मेरी ही है। तब के समय ठंड बहुत थी। हाथ कांप रहे थे। सो बोल कर लिखवाई है। सो हो जाता है विष्णु जी ऐसा भी कभी-कभार। कोई बात नहीं। पर चित्रकूट के रहने वाले वालीवुड के फ़िल्मकार कमल पांडेय के भतीजे राहुल पांडेय दिल्ली में रहते हैं। मेरे अनन्य पाठक और प्रशंसक हैं। कमल पांडेय भी , राहुल पांडेय भी। राहुल पांडेय ने कुछ कमेंट पर प्रतिवाद भी किया है। राहुल पांडेय ने बताया कि दस बरस पहले लिखे मेरे लेखों के लिंक भी आप की पोस्ट के कमेंट बॉक्स में बार-बार पोस्ट किए। आप ने बार-बार मिटाया। कोई बात नहीं। आप की वाल है , फ़ैसला आप का है। कोई आपत्ति नहीं। हर बिंदु पर हर कोई लोकतांत्रिक भी हो , ज़रूरी तो नहीं। बस ज़िक्र है बरक्स तुलसीदास , मैं बैरी सुग्रीव पियारा ,अवगुण कवन नाथ मोहि मारा ! ठीक है मैं बालि नहीं , और कोई सुग्रीव नहीं। फिर तुलसीदास से आप सहमत भी नहीं होंगे भरसक। आप का नहीं जानता , पर आप के कई मित्र तो तुलसी के घनघोर निंदक हैं। फिर भी अपनी अभद्र और अश्लील टिप्पणी में मुझे अपमानित करने के लिए आप को सलाह देते हुए तुलसीदास का ही सहारा लिया है : तजिये ताहि कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही। ऐसे नफ़रती और घृणा में डूबे व्यक्ति का ज़िक्र भी क्या करना। 

पूछिएगा कभी मन करे तो उन से भी कि उन की अश्लील और अभद्र टिप्पणी में कहीं दस बरस पहले उन पर लिखे चार लेखों की श्रृंखला का फोड़ा क्या अब फूटा है ? इस फोड़े का मवाद तो नहीं बह गया है ? क्या यह किसी पढ़े-लिखे आदमी की भाषा है ? वह आदमी जो ख़ुद को आलोचक भी मानता हो। क्या आलोचना ऐसे ही होती है ? पूछिएगा उन से कि दस बरस पहले लिखे उन पर लेखों में कहीं मैं ने तू-तकार भी किया है क्या ? कहीं अभद्र , अश्लील या बिलो द बेल्ट भी हुआ हूं क्या ? वैचारिकी और आलोचना के अलावा कुछ और पर भी बात की है क्या ? कोई निजी हमला भी किया है क्या उन पर ? निजी हमला , बिलो द बेल्ट होने का अभ्यास कभी नहीं रहा मुझे। अब भी ख़ैर क्या होगा। 

आदि शंकराचार्य और मंडन मिश्र के शास्त्रार्थ का प्रसंग याद आता है। मंडन मिश्र के बहुत दबाव के बाद आदि शंकराचार्य शास्त्रार्थ के लिए तैयार हुए। शस्त्रार्थ के लिए निर्णायक तय हुई मंडन मिश्र की पत्नी भारती। शास्त्रार्थ जब लंबा खिंच गया तो भारती दोनों के गले में ताज़े फूलों की माला पहना कर किसी काम से निकल गईं। कहा कि आप लोग शास्त्रार्थ जारी रखिए। मैं आ कर निर्णय सुना दूंगी। शास्त्रार्थ समाप्त होने के पहले ही वह वापस भी आ गईं। शस्त्रार्थ समाप्त होने पर भारती ने मंडन मिश्र को पराजित और आदि शंकराचार्य को विजेता घोषित किया। लोगों ने इस पर ऐतराज किया। मंडन मिश्रा ने सब से ज़्यादा। कहा कि पूरे समय रहीं भी नहीं और निर्णय भी ग़लत सुना दिया। यह तो ठीक बात नहीं है। भारती ने कहा कि , मैं पूरे समय उपस्थित नहीं थी , यह सत्य है। पर आप दोनों के गले में मैं ने ताज़ा फूलों की माला जो पहनाई थी , निर्णय उसी के आधार पर दिया है। इन फूलों ने निर्णय दिया है। उन्हों ने उन दोनों माला को दिखाते हुए बताया कि आदि शंकराचार्य के गले में पड़ी माला के फूल अभी भी ताज़ा हैं। जब कि मंडन मिश्र के गले की माला के फूल सूख गए हैं। क्यों कि शस्त्रार्थ के समय यह बार-बार क्रोधित और उत्तेजित हुए हैं। सो माला के फूल उस क्रोध और उत्तेजना के ताप में सूख गए हैं। जब तथ्य और तर्क नहीं होता तब ही आदमी क्रोध में आता है। उत्तेजित होता है। अलग बात है कि बाद में यही आदि शंकराचार्य इसी भारती से शास्त्रार्थ में पराजित हो गए थे। हो सकता है यह प्रसंग आप को और तमाम मित्रों को न पसंद आए। न समझ आए। हिंदू , संघी , भाजपाई आदि-इत्यादि कह कर नाक-भौं सिकोड़ लें। खारिज कर दें। पर अभद्र और अश्लील भाषा के मद्देनज़र मुझे यही प्रसंग याद आया। 

आदमी के पास जब तर्क और तथ्य नहीं होते तो उत्तेजित और क्रोधित ही होता है। लगता है आप के मित्र  उसी उत्तेजना और क्रोध के वशीभूत ऐसी अभद्र और अश्लील भाषा पर उतर आए हैं। जाने कोई आलोचना लिखते वक्त किस उत्तेजना और क्रोध में रहते होंगे। कबीर को हिंदी में स्थापित करने वाले , नामवर सिंह जैसों के गुरुदेव आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि आलोचक को सहृदय होना चाहिए। लखनऊ में डाक्टर देवराज , श्रीलाल शुक्ल , मुद्राराक्षस जैसे अध्ययनशील लोग रहे हैं। सहमति-असहमति अपनी जगह है। पर भाषा को तो संपन्न ही रहना चाहिए। भाषा का वैभव आदमी को बड़ा बनाता है। श्रीलाल शुक्ल ऐसे ही बड़े लोगों में थे। श्रीलाल शुक्ल से एक बार किसी प्रसंग पर मुद्राराक्षस की चर्चा चली। मैं मुद्रा की विद्वता के तार छेड़ बैठा था। उन के अध्ययन का हवाला देने बैठ गया था। उन के संस्कृत , अंगरेजी , हिंदी अध्ययन का बखान करने लगा। ख़ास कर नाट्य शास्त्र का। श्रीलाल शुक्ल ख़ुद भी संस्कृत , अंगरेजी , हिंदी के बड़े जानकार थे। संगीत की ग़ज़ब जानकारी थी। कभी-कभी तो वह कोई टुकड़ा गाने भी लगते थे। पर मुद्रा की बात सुनते-सुनते श्रीलाल जी ने बड़े ठंडे भाव से कहा कि मुद्रा के अध्ययन का तो मैं भी क़ायल हूं। पर मुद्रा कर क्या रहे हैं इस अध्ययन का ? अध्ययन का ऐसा दुरुपयोग मैं ने कभी नहीं देखा। जैसा मुद्रा कर रहे हैं। दुर्भाग्य कि मैं ऐसा भी नहीं कह सकता। 

रामविलास शर्मा , नामवर सिंह , राजेंद्र यादव , मनोहरश्याम जोशी जैसे अध्ययनशील लोग भी ग़ज़ब थे। सहमति-असहमति होती रहती है। पर भाषा में इतना अश्लील , इतना अभद्र , इतना दरिद्र , इतना विपन्न होना क्या ज़रूरी होता है ? मुद्राराक्षस भी बहुत लोगों से बहुत मुद्दों पर अकसर नाराज रहते थे। मैं ने एक लंबा लेख भी लिखा है : हिंदी के चंबल का एक बाग़ी मुद्राराक्षस। पर मुद्रा ने कभी किसी के लिए ऐसी लंपट भाषा का इस्तेमाल नहीं किया। न बोलने में , न लिखने में। आप को याद ही होगा दिनमान में सर्वश्वर दयाल सक्सेना , श्रीकांत वर्मा की रघवीर सहाय से कितनी घोर असहमति थी। एक ही दफ़्तर में काम करते हुए कई बार युद्ध जैसी स्थिति आ जाती थी। लेकिन बोल कर या लिख कर किसी ने ऐसी कोई दरिद्रता नहीं दिखाई। न सहाय जी ने , न  श्रीकांत वर्मा और सर्वेश्वर जी ने। तब जब कि रघुवीर सहाय इन दोनों के बॉस थे , बतौर संपादक। धर्मयुग में कन्हैयालाल नंदन और धर्मवीर भारती के बीच एक साथ काम करते हुए लंबा शीतयुद्ध चला। पर दोनों ने कभी किसी से कोई बिलो द बेल्ट बात नहीं की , न कभी कहीं कुछ ऐसा लिखा। रवींद्र कालिया ने काला रजिस्टर जैसी कहानी लिखी , धर्मयुग के माहौल पर। पर भारती जी के लिए संकेतों में भी कुछ अभद्र नहीं लिखा। गो कि खलनायक वही थे कहानी के। बाद में ग़ालिब छुटी शराब में भी रवींद्र कालिया ने धर्मवीर भारती से और तमाम अन्य से अपनी मुश्किलों असहमतियों का वर्णन किया है। पर भाषा की मर्यादा बनाए रखी। रघुवीर सहाय के बाद कन्हैयालाल नंदन जब दिनमान के संपादक बनाए गए तो दिनमान में एक तरह से विद्रोह का मंज़र था। लेकिन नंदन जी ने अपनी विनम्रता से सारे विद्रोह को समाप्त कर दिया। तब जब कि पराग और सारिका के समय में उन से जल्दी किसी का मिल पाना कठिन हुआ करता था। पर दिनमान में वह सर्वेश्वर जी जैसों को अपने केबिन में बुलाने के बजाए , उन की टेबिल पर खुद पहुंच जाते थे। ऐसा अनेक बार देखा मैं ने। बाद में तो प्रबंधन से कह कर पराग का संपादक बनवा दिया सर्वेश्वर जी को। और भी बहुतेरी बातें हैं। फिर कभी।  

फिर विष्णु जी , आप किस मान्यता और मान्यता के कीड़े की बात कर रहे हैं ? अरे हम लोकतंत्र में जीते हैं। उस लोकतंत्र में जिस में संसद सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को बदल देती है। और पसंद न आने पर जनता संसद के लोगों को बदल देती है। विधानसभा के लोगों को बदल देती है। प्रधान मंत्री , मुख्य मंत्री बदल देती है। हम उसी जनता जनार्दन यानी अपने आदरणीय पाठकों के लेखक हैं। किसी हिप्पोक्रेट वामपंथी कबीले के लेखक नहीं हैं। आप की मुश्किल आसान करने के लिए बताता चलूं कि हमारे आदरणीय पाठकों ने हमें हमारा समुचित प्राप्य सर्वदा ही दिया है। दिल खोल कर दोनों हाथ से दिया है। हमारे लेखकीय अवदान को जो चाहिए , सब कुछ दिया है। कहीं ज़्यादा दिया है। इतना कि एक पोस्ट लिख देता हूं एक ग़रीब और बीमार बच्ची के इलाज के लिए तो हफ्ते-दस दिन में लोग थोड़ा-थोड़ा कर के तीस-लाख से अधिक रुपए उस बच्ची के पिता अकाऊंट में डाल देते हैं। बीच कोरोना की बात है यह। जानिए कि हमारे ब्लॉग सरोकारनामा , जिस में सिर्फ़ मेरा लिखा हुआ ही होता है , बारह लाख से अधिक की हिट है। दुनिया भर में लोग पढ़ते हैं। देश ही नहीं , दुनिया भर की लाइब्रेरियों में मेरे उपन्यास और अन्य किताबें उपस्थित हैं। तमाम अन्य साइटों पर भी। । 

तो क्या मुफ़्त में ? 

तेरह उपन्यास समेत विभिन्न विधाओं में छ दर्जन से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हैं मेरी। बिलकुल अभी-अभी वाणी प्रकाशन से विपश्यना में प्रेम उपन्यास छप कर आया है। जिस की ख़ूब चर्चा है। हां , वामपंथी कबीले के तमाम लेखकों की तरह  पैसे दे कर किताब नहीं छपवाता। गूगल पर एक बार मेरा नाम लिख कर देखिए , आप की तमाम शंकाओं का समाधान हो जाएगा। बहुत से प्रश्नों का उत्तर मिल जाएगा। अब और कैसी मान्यता खोज रहे हैं आप। कृपया बताएं। किसी हिप्पोक्रेट वामपंथी कबीले का ? तो पुन:-पुन: दुहराता हूं कि जानिए हम किसी हिप्पोक्रेट वामपंथी कबीले के लेखक नहीं हैं , न उन से किसी मान्यता की तलब है। 

हिंदी थिसारस के लिए जाने जाने वाले अरविंद कुमार घोषित कम्युनिस्ट थे। काफी समय तक पार्टी के कार्ड होल्डर भी रहे। लेकिन हिप्पोक्रेट वामपंथी नहीं थे। मैं ने उन के साथ सर्वोत्तम रीडर्स डाइजेस्ट में काम किया है। सर्वोत्तम रीडर्स डाइजेस्ट अमरीकी पत्रिका थी। अरविंद कुमार ने मेरे कई उपन्यासों पर विधिवत लिखा है। बिना कहे , अपने आप लिखा है। राजेंद्र यादव ने हंस में न सिर्फ़ मेरी कहानी छापी , किताबों की समीक्षा भी छापी। तेरी मेरी उस की बात के तहत चार पृष्ठ की संपादकीय भी मेरे लिए लिखी। बिना कुछ कहे लिखी। अरविंद कुमार से और विषैले लोग भले परिचित न हों पर आप तो विष्णु जी अच्छी तरह परिचित हैं। उन के लेखन , आचरण और व्यवहार से भी। अरविंद कुमार बहुत सहज और सरल थे ज़रूर पर लिखने- पढ़ने में बहुत सतर्क। आसानी से वह कुछ नहीं लिख सकते थे , किसी किताब पर। किसी दबाव में भी कभी नहीं आते थे आप की तरह। किसी के आगे झुकते नहीं थे। ख़ुद ही तय करते थे , क्या लिखना है क्या नहीं। हिंदी के चुनिंदा बेहतरीन संपादकों में शुमार हैं अरविंद कुमार। और भी कई आदरणीय लेखकों ने ख़ूब लिखा है , मेरी तमाम रचनाओं पर। मेरी आलोचना भी की है। लेकिन किसी कुंठा या हीन भावना के तहत मान्यता का कीड़ा किसी ने नहीं खोजा।  क्यों कि वह सहज ही मिली हुई है। 

फिर भी सुविधा के लिए देखें दयानंद पांडेय और उन का रचना संसार में लेखकों की सूची। यह किताब अरुण  प्रकाशन , दिल्ली ने 2015 में छापी है। जो इस लेख के साथ संलग्न है। मेरे कथा संसार पर दयानंद पांडेय का कथा संसार लंदन की शन्नो अग्रवाल ने पूरी एक किताब लिखी है। प्रेमनाथ एंड संस , दिल्ली ने 2017 में छापी है। कई विश्वविद्यालयों में पी एच डी और डी लिट् हुई है , मेरी रचनाओं पर। बहुत से शीर्ष सम्मान मिले हैं। दो लखटकिया सम्मान भी मिले हैं। जिन को पाने के लिए तमाम लोग नाक रगड़ देते हैं और नहीं पाते हैं। मुझे सहज ही मिले। कुछ लोग ऐसे ही एक सम्मान के लिए जातीय बन गए। लोहिया को फ़ासिस्ट बताते हैं , बोल कर भी और लिख कर भी। पर लोहियावादी सरकार से साहित्य भूषण पाने के लिए सारी वैचारिकी स्वाहा कर देते हैं। ख़ैर , यह उन का अपना विवेक है। उन का क्या ही ज़िक्र करना भला। 

अच्छा हिंदी में या भारतीय भाषाओं में कितने लेखक हैं जिन्हों ने हाईकोर्ट में किसी उपन्यास या किसी और रचना के लिए कंटेम्प्ट आफ कोर्ट का मुकदमा झेला हो ? पता कीजिएगा। मैं ने बरसों झेला है , कंटेम्प्ट आफ कोर्ट अपने-अपने युद्ध उपन्यास के लिए। और रवायत के मुताबिक़ माफ़ी भी नहीं मांगी। अपने-अपने युद्ध में न्याय व्यवस्था और न्याय पालिका की जिस तरह धज्जियां उड़ाई हैं , वामपंथी हिप्पोक्रेट लेखक कभी सोच नहीं सकते। साहस भी नहीं कर सकते। बीते दिनों में पाता हूं कि उदय प्रकाश के ख़िलाफ़ कोई कुछ अप्रिय लिख देता था तो उदय प्रकाश सिर्फ़ एक लीगल नोटिस भेज देते थे। और यह हिप्पोक्रेट वामपंथी घुटने के बल आ कर उदय प्रकाश से माफी मांग लेते रहे हैं। लिखे को वापस ले लेते रहे हैं। लिखना बंद कर देते रहे हैं। ऐसे तो हैं हमारे हिप्पोक्रेट वामपंथी लेखक गण। अपनी पीठ ख़ुद ठोंकना गुड बात नहीं है , जानता हूं। पर आप के प्रश्नों का शमन कहिए , समाधान कहिए ज़रूरी है। करूं भी तो क्या करूं। आप हमारे आदरणीय हैं। हमारे हितैषी हैं। 

वैसे भी विष्णु जी , बताऊं आप को कि हमें इस हिप्पोक्रेट वामपंथी कबीले की मान्यता की दरकार हरगिज नहीं।  है। बार-बार यह बात इस लिए कह रहा हूं क्यों कि वामपंथी हिप्पोक्रेटों ने साहित्य का बहुत नुकसान किया है। बर्बाद किया है। एक पाखंड गढ़ा है कि जो वामपंथी नहीं , वह लेखक नहीं। लेखन में जो वामपंथी नहीं , वह लेखक नहीं , इस भय का बड़ी धूर्तता के साथ व्यूह रचा है। वामपंथी , ग़ैर वामपंथी लेखक का फ्राड रचा है। नतीज़ा सामने है। बहुतेरे रीढ़हीन लेखक , जिन्हें लेखन का शऊर भी नहीं है , समझ भी नहीं , संवेदना से शून्य हैं , क ख ग भी नहीं मालूम , लाल सलाम बोल-बोल कर बड़े लेखक बने घूम रहे हैं। पैसा दे कर किताब छपवा रहे हैं। लेकिन रचना नहीं है इन के पास। अपने आस-पास देखिएगा तो ऐसे लाल सलामी लेखक झुंड के झुंड लहराते हुए मिलेंगे। संकोच में इन को आप कुछ कह भी नहीं सकते। कृपया सोचिएगा कि हिंदी के वामपंथी समाज को आज भी अपना कोई ब्रेख्त , कोई नेरुदा क्यों नहीं मिल सका है। उन्हीं के गीत गा कर सारा क्रांतिकारी माहौल बनाते हैं , हिंदी में। कभी इस पर भी सभी वामपंथी हिप्पोक्रेट लेखकों , कवियों को सोचना चाहिए। दुष्यंत कुमार के एक शेर में जो कहूं : तुम्हारे पाँव के नीचे कोई ज़मीन नहीं / कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यक़ीन नहीं। वामपंथी कबीले के पास सेक्यूलरिज्म का असली रचनाकार एक कबीर क्यों नहीं है। जो दोनों तरफ की सांप्रदायिकता पर प्रहार करे। सांप्रदायिकता क्या एकतरफा होती है ? इकहरी होती है ? तुलसीदास को गाली देने वाले तो बहुत हैं वामपंथियों के पास पर रामचरित मानस लिखने वाला तुलसीदास जैसा कोई जनप्रिय और लोकप्रिय रचनाकार नहीं है। महाभारत लिखने वाला वेद व्यास जैसा कथाकार नहीं है। वार एंड पीस लिखने वाला टालस्टाय भी नहीं। टालस्टाय जमींदार थे , गोर्की मज़दूर। यानी शोषक और शोषित। फिर भी टालस्टाय और गोर्की की मित्रता मशहूर है। आपस में सदभाव था। मतभेद ज़रूर थे पर नफ़रत और घृणा नहीं थी उन के बीच। हिंदी में कोई महाश्वेता देवी , अरुंधती राय भी क्यों नहीं है ? राहुल सांकृत्यायन , रामविलास शर्मा , निर्मल वर्मा जैसों को धकिया कर उन्हें शर्मशार करने वाला यह बंद हिंदी वामपंथी समाज तो हिंदी में एक ही नामवर सिंह का भी अपमान करने के लिए अब परिचित है।   

तमाम वामपंथी पद्म सम्मान लेने से अकसर इंकार करते रहे हैं। इंदिरा गांधी के समय से मोदी के समय तक। श्रीपाद डांगे से लगायत बुद्धदेव भट्टाचार्य तक। किस बुनियाद पर ? क्या भारतीय नहीं मानते ? तो तमाम अन्य पदों का रसगुल्ला कैसे खाते रहते हैं ? यह भी अनबूझ है। 

मालूम है वामपंथी अब सिर्फ़ इस्तेमाल होने के लिए ही रह गए हैं। वर्ष 2002 में जब अमरीका ईराक़ युद्ध हो रहा था तब अमरीका का बहुत दबाव था कि भारत अपनी सेना अमरीका की मदद के लिए ईराक भेजे। तब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधान मंत्री थे। वह भारतीय फ़ौज ईराक नहीं भेजना चाहते थे। लेकिन दबाव जब ज़्यादा बढ़ गया तो उन्हों ने एक दिन कामरेड हरिकिशन सिंह सुरजीत को घर पर चाय पर बुलाया। सोमनाथ चटर्जी जैसे कुछ और कामरेडों को भी । कामरेड लोग जब अटल जी की चाय पर पहुंचे तो अटल जी ने खुद चाय बना कर परोसी। कामरेड लोग चौंके। सुरजीत ने कहा कि पंडत कोई ख़ास बात है क्या ? अटल जी ने कहा , हां कामरेड ! अमरीका - ईराक युद्ध में आप लोग कर क्या रहे हैं ? कामरेड लोग बोले , हम कर ही क्या सकते हैं ? अटल जी ने कहा , बहुत कुछ। कामरेडों ने पूछा , वह कैसे ? अटल जी ने कहा , सड़क से संसद तक अमरीका के ख़िलाफ़ आवाज़ तो उठा ही सकते हैं। यह काम सिर्फ़ आप ही लोग कर सकते हैं। कामरेड लोग दूसरे दिन से ही संसद से सड़क तक स्टार्ट हो गए। माहौल बनाने में वामपंथियों का आज भी जवाब नहीं है। भले खत्म हो गए हों पर माहौल बनाना नहीं भूले हैं। फिर क्या था अटल जी ने अमरीका को बता दिया कि हमारे देश में अमरीका के ख़िलाफ़ माहौल बहुत है। सेना नहीं भेज सकते। सेना भेजने पर भारत में माहौल ख़राब हो जाएगा। 

कामरेड हरिकिशन सिंह सुरजीत एक समय मुलायम सिंह यादव के पेरोल पर किस तरह काम कर रहे थे , लोग भूल गए हैं क्या ? मुलायम को प्रधान मंत्री बनाने के लिए कामरेड हरिकिशन सिंह सुरजीत ने जाने कितने शीर्षासन किए, लोग जानते हैं। वह तो वी पी सिंह ने लालू यादव को साथ ले कर मुलायम का पत्ता काट दिया। ऐसे अनेक क़िस्से हैं वामपंथियों के इस्तेमाल के। वी पी सिंह की ही एक कविता है जो वामपंथियों पर बड़ी फिट बैठती है। शीर्षक है लिफ़ाफ़ा : पैग़ाम उन का / पता तुम्हारा / बीच में फाड़ा मैं ही जाऊंगा। देखिए न बहुत तेज़ भभकने वाले जे एन यू फ़ेम कामरेड कन्हैया कैसे तो इस्तेमाल हुए। कश्मीरी आतंकियों ने इस्तेमाल किया। जेल यात्रा की। दिल्ली के वकीलों से बुरी तरह पिटे। जेल से ज़मानत पर निकले तो महत्वाकांक्षा ने अंगड़ाई ली। महाभ्रष्ट लालू के तलवे चाटने लगे। पांव छूने लगे। लोगों ने लालू को बताया कि कन्हैया आ गया पार्टी में तो तेजस्वी का क्या होगा। लालू ने कन्हैया को गेट आऊट कर दिया। कन्हैया राहुल शरणम गच्छामि हो गए। अब क्या हो गए ? वह सारी ऊर्जा , वह धार कहां बिला गई। कि चुनाव में ज़मानत ज़ब्त हो गई। तमाम कामरेडों का यही हाल है। हिंदी पट्टी से तो संसदीय राजनीति से विदा हुए दशकों हो गए वामपंथियों को। अपने गढ़ पश्चिम बंगाल में भी सिफ़र हो गए। लोग विषैला वामपंथ लिखने और कहने लग गए हैं। 

क्यों ?

वही हिप्पोक्रेसी ! अभी बहुत ज़्यादा समय नहीं बीता है साहित्य अकादमी अवार्ड वापसी के नाटक को। अशोक वाजपेयी और ओम थानवी कम्युनिस्ट नहीं हैं। पर साहित्य अकादमी के तत्कालीन अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी से विश्व कविता समारोह का अपना निजी खुन्नस निकालने के लिए कितना तो ख़ूबसूरत इस्तेमाल किया वामपंथी लेखकों का अशोक वाजपेयी ने। सब कुछ एकतरफ कर के आधार पत्र में नाम न होने के बावजूद , मैनेजर पांडेय के भरपूर विरोध के बावजूद उदय प्रकाश को साहित्य अकादमी दे दिया। यह उन का अधिकार था। कोई बात नहीं। अशोक वाजपेयी ने उदय प्रकाश से साहित्य अकादमी अवार्ड की वापसी की शुरुआत करवाई। फिर तो वामपंथी भेड़ों की कतार लग गई। कहीं पे निगाहें , कहीं पे निशाना के तर्ज़ पर देश भर में मोदी विरोध का जो माहौल बनवाया बरास्ता साहित्य अकादमी विश्वनाथ प्रसाद तिवारी को हटवाने के लिए वह तो न भूतो , न भविष्यति ! पर न विश्वनाथ प्रसाद तिवारी हटे , न सचमुच किसी ने अवार्ड वापस किया। न मोदी का कुछ हुआ। नियमत : साहित्य अकादमी अवार्ड कोई लौटा ही नहीं सकता। साहित्य अकादमी के संविधान में है यह। लोग इस बाबत लिखित सहमति भी देते हैं , साहित्य अकादमी को कि वह यह अवार्ड कभी लौटाएंगे नहीं। यह बात अशोक वाजपेयी भी जानते थे और उसे लौटाने वाले भी। पर ऐलान करने में , माहौल बनाने में क्या जाता है। अख़लाक़ की हत्या गाज़ियाबाद में हुई थी। क़ानून व्यवस्था उत्तर प्रदेश सरकार के जिम्मे थी। सब जानते थे। सभी यह भी जानते हैं कि सरकार कोई भी हो , साहित्य अकादमी में उस की एक नहीं चलती। पर वामपंथी हिप्पोक्रेट लेखक इस बात को कैसे नहीं जानते थे , आज तक समझ से बाहर है। वामपंथी गिरोह के लोग अपने को बहुत बड़ा इंटेलेक्चुवल मानते-मनवाते हैं पर हर बार , हर किसी से इस्तेमाल क्यों होते रहते हैं , समझना कुछ कठिन नहीं है। बशीर बद्र का एक शेर याद आता है :

चाबुक देखते ही झुक कर सलाम करते हैं 

शेर हम भी हैं सर्कस में काम करते हैं। 

तो आजकल यह वामपंथी शेर मोदी विरोध के बुखार में कांग्रेस के सर्कस में काम कर रहे हैं। जैसे यह वामपंथी हिप्पोक्रेटों के लिए ही इक़बाल लिख गए हैं :

'वतन की फ़िक्र कर नादां

मुसीबत आने वाली है

तेरी बरबादियों के मशविरे हैं आसमानों में

तुम्हारी दास्तान भी न होगी दास्तानों में।'

अब आते हैं आप की नाराजगी के मूल पर। प्रेमचंद पर मेरी एक पुरानी पोस्ट थी कोई चार लाइन की। बीते कई साल से वह मेरी वाल पर उपस्थित है। अभी भी है। साल दर साल। इस बार भी रिपोस्ट की। प्रेमचंद के स्त्री प्रसंग पर वह पोस्ट थी। जिस में प्रेमचंद की दूसरी पत्नी शिवरानी देवी की पुस्तक प्रेमचंद घर में के हवाले से प्रेमचंद का स्त्री प्रसंग का ज़िक्र है। शिवरानी देवी की यह किताब मैं ने विद्यार्थी जीवन में गोरखपुर की रेलवे लाइब्रेरी में पढ़ी थी। जब प्रेमचंद व्यक्तित्व और रचना दृष्टि किताब संपादित की तो अमृतलाल नागर ने जो लेख लिख कर दिया इस किताब के लिए , वह प्रेमचंद घर में किताब को ही आधार बना कर लिखा है। इस लेख में नागर जी ने भी प्रेमचंद के स्त्री प्रसंग का विवरण दिया है। जिस में प्रेमचंद की स्वीकारोक्ति है। सुविधा के लिए नागर जी के उस लेख को भी इस लेख के साथ नत्थी कर रहा हूं। 

अलीगढ़ यूनिवर्सिटी के शैलेश ज़ैदी ने तो अपनी एक किताब प्रेमचंद की उपन्यास यात्रा नवमूल्यांकन , जो अलीगढ़ यूनिवर्सिटी के अनुदान से प्रकाशित है ,  में इस प्रसंग को बहुत आगे बढ़ाया है। वेश्यागमन तक ले गए हैं। बहुत से तथ्य हैं , तर्क हैं प्रेमचंद के स्त्री प्रसंग के बाबत इस पुस्तक में। लेकिन आप जैसे मित्र इस बात पर भी उबाल खा गए। हमेशा संघी साज़िश देखने की बीमारी से पीड़ित इस बात में भी संघी एंगिल खोज लिया। ग़ज़ब है। जब आपत्ति और ऐतराज की बाढ़ आ गई तो जवाब में कुछ और पोस्ट लिखी। दिलचस्प यह कि इन पोस्टों की इतनी रिपोर्ट कर दी वामपंथी कबीले ने की और खट-खट सारी पोस्ट फेसबुक ने मिटा दी। सो इस बार यह लेख अपने ब्लॉग पर लिख रहा हूं। इस लिए भी कि जिन भी कबीलाई लोगों ने फेसबुक पर ब्लॉक कर रखा है , वह भी पढ़ना चाहें तो अपनी सुविधा से पढ़ लें। इन से , उन से मांगने का परिश्रम न करें। फिर यह लंबा लेख ब्लॉग में ही लिख पाना मुमकिन है। फ़ेसबुक पर नहीं। हो सकता है जल्दी ही एक किताब में भी हो। 

क्या इस तथ्य से कि प्रेमचंद के जीवन में कुछ स्त्री प्रसंग हैं , इस से प्रेमचंद का लेखक छोटा हो जाएगा ? सब का ज़िक्र हो सकता है तो प्रेमचंद का क्यों नहीं ? कालिदास , तुलसीदास से भी बड़े रचनाकार हैं क्या प्रेमचंद ? क्या कालिदास , तुलसीदास के स्त्री प्रसंगों की चर्चा नहीं होती ? किस की नहीं होती ? तुलसीदास के स्त्री प्रसंगों पर क्या-क्या नहीं लिखा गया है ? एक धारावाहिक तक में उन के स्त्री प्रसंग दिखाए गए हैं ? तुलसीदास आख़िरी समय में एक कोढ़ी स्त्री के साथ रहने लगे , ऐसा एक धारावाहिक में दिखाया गया। किसी ने ऐतराज किया ? कोई दंगा फ़साद हुआ क्या ? कि तुलसी को लोगों ने पढ़ना , छापना , गाना बंद कर दिया। स्त्री प्रसंग जीवन का हिस्सा है। लोहिया कहते थे अगर ज़बरदस्ती और शोषण नहीं है तो कोई संबंध अनैतिक नहीं है। सब जायज है। 

पाठ्यक्रमों में पढ़ाया गया कि लाश को नाव बना कर , नदी पार की। सांप को रस्सी समझ कर पत्नी से मिलने घर में घुस गए तुलसीदास। तो क्या तुलसीदास को पढ़ना और गाना छोड़ दिया लोगों ने ? तुलसीदास ने भारतीय जन-मानस को जितना संपन्न किया है , लगातार बदला है , तुलसीदास का जो प्रभाव है जन-मानस पर , ऐसा किसी और एक रचनाकार का हो तो कृपया बताइएगा। तुलसी के प्रशंसक , आलोचक और निंदक भी उन की रचना के आगे एक छोटी सी लकीर नहीं खींच सके हैं अभी तक। कालिदास के स्त्री प्रसंग पर तो मोहन राकेश ने आषाढ़ का एक दिन जैसा शानदार नाटक ही लिख दिया है। तो क्या कालिदास को पढ़ना लोगों ने बंद कर दिया। उन के जैसा नाटककार , वर्णन का रचनाकार ढूढे नहीं मिलता। कहते हैं कालिदास के बहाने अपनी व्यथा-कथा लिखी मोहन राकेश ने। नामवर सिंह बताते थे कि गुरुदेव तुलसीदास पर एक उपन्यास लिखना चाहते थे और तुलसीदास के बहाने अपनी व्यथा-कथा लिखना चाहते थे। गुरुदेव मतलब हजारी प्रसाद द्विवेदी। वह हजारी प्रसाद द्विवेदी जिन की भाषा का स्तर , वह लालित्य अभी तक किसी और हिंदी लेखक के हिस्से नहीं आई। थोड़ा बहुत एक अज्ञेय छू पाए हैं। पर वह भी छू कर बस निकल गए हैं। निर्मल वर्मा भी नहीं पहुंच पाए। मुक्तिबोध एक साहित्यिक की डायरी में अभ्यास ज़रूर करते हैं पर वह भी असफल हैं। 

भारतेंदु हरिश्चंद्र के स्त्री प्रसंगों के तमाम क़िस्से जन-मानस में हैं। भारतेंदु के स्त्री प्रसंगों पर तमाम किताबें लिखी गई हैं। उपन्यास लिखे गए हैं। नाम ले-ले कर लिखे गए हैं। मनीषा कुलश्रेष्ठ ने अभी हाल ही मल्लिका नाम से बहुत ही दिलचस्प और नायाब उपन्यास लिखा है। न मल्लिका का नाम छुपाया , न भारतेंदु हरिश्चंद का। भारतेंदु के वेश्या गमन का भी विस्तार से ज़िक्र है। इतना कि वेश्याओं के यहां सज-धज कर जाने के लिए अपने वस्त्र भी वह मल्लिका के घर ही रखते हैं। नीरजा माधव ने भी मल्लिका को ले कर लिखा है। वह मल्लिका जो बंकिम बाबू की ममेरी बहन थीं। बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय उस वक़्त बड़े रचनाकार ही नहीं , वंदे मातरम लिखने वाले ही नहीं , आई सी एस अफ़सर थे। तो क्या लोगों ने भारतेंदु के लिखे अंधेर नगरी , चौपट राजा और नाटकों का बहिष्कार कर दिया ? कि निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल / बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल। को बिसार दिया। शरत चंद्र चट्टोपाध्याय के भी तमाम स्त्री प्रसंग हैं। अमृता प्रीतम के पुरुष प्रसंग हैं। रमणिका गुप्ता के तमाम पुरुष प्रसंग हैं। अजीत कौर के पुरुष प्रसंग हैं। खुद ही इन स्त्रियों ने लिखे हैं। राजेंद्र यादव ने अपने तमाम स्त्री प्रसंग लिखे हैं। इस बाबत दो-दो किताब लिख गए हैं। मुड़-मुड़ के देखता हूं तथा एक बीमार आदमी के स्वस्थ विचार। जो कुछ छूट गया था मन्नू भंडारी ने पूरा कर दिया यह लिख कर कि तो यह भी देखा होता। कमलेश्वर की आत्मकथा में तो स्त्री प्रसंगों की भरमार है। मन्नू भंडारी ने कमलेश्वर की स्त्री कथा को भी और धार दे दिया। तो क्या कमलेश्वर का लेखक छोटा हो गया कि राजेंद्र यादव का ? मोहन राकेश , कमलेश्वर और राजेंद्र यादव की तिकड़ी थे। मोहन राकेश के भी तमाम स्त्री प्रसंग हैं। मोहन राकेश की चौथी पत्नी अनीता औलक राकेश ने अपनी आत्मकथा चंद सतरें और में अपनी मां से भी उन के संबंधों की और संकेत किया है। अपनी मां से जैनेंद्र , अज्ञेय तक को जोड़ दिया है। तो इन सब का लेखक क्या ख़त्म हो गया ? जैनेंद्र कुमार तो कहते ही थे कि लेखक को पत्नी के अतिरिक्त प्रेयसी भी चाहिए। ऐसे अनेक विवरण हैं। फ़िराक़ जैसे शायर और निराला जैसे कवियों के स्त्री प्रसंग के अलावा समलैंगिक प्रसंग भी हैं। तो क्या इस से उन का शायर , उन का कवि छोटा हो जाता है ? बंद दिमाग को खोलिए। दुनिया भर के बहुतेरे लेखकों , कवियों , राजनीतिज्ञों , अभिनेताओं , अभिनेत्रियों के जीवन यह और ऐसे तमाम प्रसंगों से भरे पड़े हैं। तो क्या उन का क़द , उन का काम घट जाता है ? प्रेमचंद भी मनुष्य थे , देवता नहीं। अच्छा देवताओं के यहां भी क्या तमाम स्त्री प्रसंग नहीं हैं ? क्या लोग उन की पूजा बंद कर चुके हैं। 

तो ? 

अभिनेता ओम पुरी के जो तमाम स्त्री प्रसंग उन की पत्रकार पत्नी ने किताब में लिखे , उसे ओम पुरी ने ही उन्हें बताए थे। इसी तरह प्रेमचंद की दूसरी पत्नी शिवरानी देवी ने जो प्रेमचंद के स्त्री प्रसंग लिखे हैं , आख़िरी समय में प्रेमचंद ने ही उन्हें बताए थे। कुछ और प्रसंगों पर पूछा शिवरानी देवी ने तो उन्हों ने हामी भरी। पत्नी ऐसी शय होती है , जो पति का रग-रग जानती है। शिवरानी देवी के हवाले से अगर प्रेमचंद के स्त्री प्रसंग का मैं ने अनायास ज़िक्र कर दिया है तो क्या अपराध कर दिया है ? 

फिर प्रेमचंद क्या मिट्टी के माधो हैं , जो इस स्त्री प्रसंग का ज़िक्र करते ही बह कर नष्ट हो जाएंगे ? ऐसे ही होता तो टालस्टाय का वार एंड पीस तो लोग भूल ही गए होते। क्यों कि टालस्टाय के पास भी स्त्री प्रसंग बहुत हैं। तमाम रचनाकारों के यहां स्त्री प्रसंगों की बाढ़ है। तो यह सब के सब तो अब तक बह ही गए होते। नीरज जैसे गीतकारों को लोग कच्चा चबा जाते। क्यों कि स्त्री प्रसंगों का उन के पास तो समंदर है। जखीरा है। इसी लखनऊ में भी अनेक स्त्रियां हैं। जीवित हैं। अब नीरज नहीं हैं तो वह दूसरों के साथ नत्थी हैं। नीरज के रहते ही इधर-उधर हो गईं। क्यों कि नीरज से जितना पाना था , पा चुकी थीं। नाम ले लूं क्या ? नीरज के जीते जी ही , उन के सामने ही उन के क़िस्से सुना देते थे लोग। उन स्त्रियों का हालचाल पूछ लेते थे। नीरज मुस्कुरा कर बात ख़त्म कर देते थे। 

कारवां ऐसे ही नहीं गुज़र जाता है और ग़ुबार देखना पड़ जाता है। नीरज का यह कारवां , कानपुर में सालों पहले गुज़रा था जब वह जवान थे और वह ग़ुबार देखते रह गए थे। वह उन्हें शूल सा चुभ गई थी। कानपुर समेत समूचा देश यह कारवां गुज़रने का क़िस्सा जानता है। तो क्या नीरज के गीतों की मिठास विलुप्त हो गई ? क्या-क्या कहूं , क्या-क्या न कहूं। कई सारे वामपंथी लेखक हैं , जो जीवित हैं और उन के अनेक स्त्री प्रसंग हैं। लिखना शुरू कर दूं क्या ? 

पर एक आप ही नहीं कुछ और भी मित्र ऐतराज की गठरी ले कर उपस्थित हैं। लखनऊ में एक मित्र से  मैं ने कहा कि कृपया आप शिशुओं जैसी बातें मत कीजिए। सूखे-सूखे लोगों के साथ उठना-बैठना आदमी को शिशु बना देता है। हरी-भरी दुनिया में निकलिए। दुनिया बहुत सुंदर है। सुंदर स्त्रियों से भी ज़्यादा सुंदर ! प्रेमचंद हिंदी और उर्दू के भारतीय लेखक हैं। बड़े लेखक हैं। उन को एक कुएं में क़ैद करने से भरसक बचिए ! शेक्सपीयर के बाद एक प्रेमचंद ही हैं जो प्राइमरी से लगायत एम तक पढ़ाए जाते हैं। कोई एक दूसरा भारतीय लेखक , ऐसा नसीब नहीं पा सका है। 

तुलसीदास जब बतौर रचनाकार उभर रहे थे तो उन से बहुत लोग ईर्ष्या करने लगे थे। उन की विनय पत्रिका तब तक आ गई थी। आचार्य लोग मानते हैं कि कविता के मानदंड पर विनय पत्रिका रामचरित मानस से बीस है। बस उतनी लोकप्रिय नहीं है। ख़ैर लोग तुलसीदास से जलने-भुनने लगे थे। अवसर तलाशते थे कि कैसे तुलसीदास को अपमानित किया जाए। कविता में वह भक्ति काल का समय था , तब यह हाल था। तो कानपुर में संतों का जमावड़ा हुआ। तुलसीदास भी आमंत्रित थे। व्याख्यान आदि के बाद जब भोजन का समय आया तो पंक्ति में तुलसीदास को सब से आख़िर में बैठाया गया था। भोजन के लिए पात्र भी नहीं दिया गया। रोटी परोसी गई तो तुलसीदास ने रोटी हाथ में ले लिया। पर जब दाल आई तो परोसने वाले से तुलसी ने कहा कि पात्र तो है नहीं , दाल कैसे लूं। दाल परोसने वाले उन के पास रखे जूते को इंगित करते हुए कहा कि , पात्र है न ! तुलसी ने फिर भी पूछा कि कहां ? तो उस ने स्पष्ट रूप से बगल में रखा जूता दिखा दिया। तुलसी ने चुपचाप जूते में दाल ले कर खा लिया। बाद में जब अन्य लोगों को पता चला तो लोगों ने प्रतिवाद करते हुए तुलसी से कहा कि आप को तुरंत विरोध करना चाहिए था। अब से विरोध कीजिए। हम लोग साथ हैं। तुलसीदास ने छूटते ही कहा , यही तो यह लोग चाहते हैं कि मैं लिखना-पढ़ना छोड़ कर जूते में दाल की लड़ाई लड़ूं। मुझे यह सब नहीं करना। आप लोग लड़िए। और तुलसीदास कानपुर से चले गए। यह वही तुलसीदास हैं जिन्हें अकबर ने क़ैदी बना कर अपने दरबार में बुलवाया था और नवरत्न बनने का प्रस्ताव दिया था। क़ैद में रहने के बावजूद तुलसीदास ने बड़ी विनम्रता से नवरत्न बनने का प्रस्ताव ठुकरा दिया था। लेकिन वामपंथियों ने तमाम अकादमी , संस्थान , विश्विद्यालय , प्रतिष्ठान आदि पर कब्ज़ा करने के लिए,  पाठ्यक्रम में रहने आदि-इत्यादि के लिए क्या-क्या यत्न किए हैं , कहां-कहां नाक रगड़ी है , आत्मा गिरवी रखी है , सारी कथा अब पब्लिक डोमेन में हैं। कुछ शेष हैं , वह भी आ जाएंगी। मोदी विरोध के बुखार के बावजूद अभी भी अधिसंख्य जगहों पर वामपंथी काबिज हैं। क्यों कि देश में लोकतंत्र है। और यह देश किसी नरेंद्र मोदी के पिता जी भर का नहीं है। 

































4 comments:

  1. सरोकारनामा में आपका ये ज्ञानवर्धक उम्दा लेख पढ़कर स्तब्ध हो गया।इतना बेजोड़ गद्य लेखन जो पूर्णतः बिजुवली है।साथ ही भाषा की लावण्यता ऐसी है कि वह चित्र सा उपस्थित करती चलती है। आप हिंदी जगत में गद्य लेखन में आज के दौर के सबसे बड़े लेखक हैं जो सबसे ज्यादा पढ़े जाते हैं।आपने कबीर की तरह समदर्शी लेखन को अपनाया है।आपने कबीर, तुलसीदास,कालिदास और प्रेमचंद पर गहरी पड़ताल की है।साथ ही अनेक हिदी संसार के लेखकों को रेखांकित कर साहित्यिक सदव्यवहार की लक्ष्मण रेखा खींची है।जो स्वस्थ्य साहित्यिक जीवन के लिए अनुकरणीय है।आपसे बहुत कुछ सीखने का मिलता है। अंत में आप जैसे विद्वान लेखक ने मुझे लेख में स्थान देकर मेरी खूबसूरत अनुभूतियों को ऐतिहासिक बना दिया है। आपका सादर वंदन।।

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  2. उत्कृष्ट लेखन

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  3. लाजवाब !
    किस कंपनी का जूता पहनते हैं ? कितना भिगोया, कितना पीटा पर जूते को खरोंच नहीं आने दी है।
    मजे की बात यह है कि मुझे पूरा विश्वास है कि इतना सब कुछ पढ़ने के बाद भी उनकी मोती चमड़ी पर दाग नहीं पड़ा होगा।
    मेरी भी अपनी सीमाएं हैं, इससे ज्यादा नहीं लिख सकता।
    कृपया इसे मिटाएगा नहीं।
    सादर।

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  4. गज़ब का लेख लिखा है आपने। इसका जवाब किसी भी हिपोक्रेट वामपंथी के पास हो ही नहीं सकता। विष्णु जी को धन्यवाद कि उन्होंने आपको छेड़ दिया। मेरे पास शब्द नहीं है इस लेख का आकलन करने के लिए। ढेर सारी जानकारियाँ मिलीं, समृद्ध हुआ।

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