Saturday 3 September 2022

स्वयं को मिटा कर औरों के लिए होना ही है , पहले आप ! और यह लखनऊ सिखाता है

दयानंद पांडेय 

फ़ोटो : रवि कपूर 

अपनी नफ़ासत , नज़ाकत और लताफ़त के लिए जाने जाने वाले लखनऊ का नाम भर लीजिए और आप के अधर जैसे शहद में डूब जाते हैं। जुबान पर मिठास घुल जाती है। मन में मिसरी सी फूट जाती है। लखनऊ का  दशहरी आम और उस की मिठास की चर्चा दुनिया भर में होती है। लखनऊ की मोहब्बत के क्या कहने। मोहब्बत के फूल खिलते हैं यहां। सर्वदा। किसी शहर में शायद ही लव लेन हो। लखनऊ के हज़रतगंज में है। लखनऊ एक शहर नहीं , बांसुरी की मीठी तान है। किसी संतूर के मीठी धुन सी मिठास है लखनऊ में। शक़ील बदायूनी जैसे मशहूर शायर लखनऊ का दूसरा नाम ज़न्नत भी बताते रहे हैं अपने गीतों में। इस लिए भी कि लखनऊ पहले आप , पहले आप ! की तहज़ीब का शहर है। पहले आप का अर्थ है दूसरों के लिए सोचना। उन का खयाल रखना। पहले आप का एक यह अर्थ यह भी है कि अपने आप को मिटा देना। अपने आप को विसर्जित कर देना। स्वयं को मिटा कर औरों के लिए होना। औरों के लिए जीना अपने आप में बहुत बड़ी बात है। पहले आप , पहले आप कहते हुए नवाबों की ट्रेन छूट जाने के किस्से और गाने भी खूब लिखे गए हैं। लखनऊ में नवाबों की नज़ाकत का आलम तो कभी यह था कि एक बार किसी ट्रेन से दो नवाब लखनऊ स्टेशन पर उतरे। दोनों के पास कोई सामान नहीं था। एक नवाब बुजुर्ग थे सो उन के पास छड़ी थी। उन्हों ने एक कुली बुलाया। कुली को छड़ी दिया और कहा कि छड़ी ले चलो ! दूसरे नवाब नौजवान थे। सो उन के पास छड़ी भी नहीं थी। फिर भी उन्हों ने कुली बुलाया और उसे टिकट देते हुए कहा कि , टिकट ले चलो ! सुबहे बनारस , शामे अवध की कहावत में लखनऊ का ही ज़िक्र है। क्यों कि लखनऊ की शाम बड़ी रंगीन होती है। लखनऊ के हुस्न का आलम यह है कि कभी नवाब वाज़िद अली शाह ने कुल्लियाते अख्तर में लिखा था :

लखनऊ हम पर फ़िदा है हम फ़िदा-ए-लखनऊ 

आसमां की क्या हकीकत जो छुड़ाए लखनऊ। 

जैसे इटली के रोम शहर के बारे में कहा जाता है कि रोम का निर्माण एक दिन में नहीं हुआ वैसे ही लखनऊ का निर्माण भी कोई एक-दो दिन में नहीं हुआ। किसी भी शहर का नहीं होता। कहते हैं कि अयोध्या के राजा राम के छोटे भाई लक्ष्मण ने इस नगर को बसाया। इस नगर को लक्ष्मणपुरी से लक्ष्मणावती और लखनावती होते हुए लखनऊ बनने में काफी समय लगा। गो कि पुराने लखनऊ में कुछ लोग इसे आज भी नखलऊ कहते हुए मिलते हैं। प्रागैतिहासिक काल के बाद यह क्षेत्र मौर्य,शुंग, कुषाण, गुप्त वंशों और फिर कन्नौज नरेश हर्ष के बाद गुर्जर प्रतिहारों, गहरवालों, भारशिवों तथा रजपसियों के अधीन रहा है। इन सभी युगों की सामग्री जनपद में अनेक स्थानों से प्राप्त हुई है। लक्ष्मण टीले, गोमती नगर के पास रामआसरे पुरवा, मोहनलालगंज के निकट हुलासखेडा़ एवं कल्ली पश्चिम से प्राप्त अवशेषों ने लखनऊ के इतिहास को ईसा पूर्व लगभग दो हज़ार वर्ष पूर्व तक पीछे बढ़ा दिया है। ग्यारहवीं से तेरहवीं शताब्दी के बीच यहां मुसलमानों का आगमन हुआ। इस प्रकार यहां के पूर्व निवासी भर, पासी, कायस्थ तथा ब्राह्मणों के साथ मुसलमानों की भी आबादी हो गई। फ़्रांसीसियों ने कभी लखनऊ में घोड़ों और नील का व्यापार भी किया था। 

लखनऊ गजेटियर में लक्ष्मण टीला के महत्व का वर्णन विस्तार से है। कहते हैं कि वर्तमान में दो सौ मीटर लंबे चौड़े लक्ष्मण टीला का विस्तार इस से कई गुना ज़्यादा था। मान्यता है कि अयोध्या के राजा राम के अनुज लक्ष्मण ने इसे बसाया। लखनऊ का शेष तीर्थ अर्थात लक्ष्मण टीला लखनऊ के सांस्कृतिक इतिहाहास का मूल केंद्र बिंदु है। इसी कारण लखनऊ का मूल नाम लक्ष्मणपुरी के पुरातात्विक सपदा की धरोहर है यह लक्ष्मण टीला। कुछ लोग इस लक्ष्मणपुरी को लखनपुरी भी कहते रहे हैं। टाल्वायज व्हीलर ने लक्ष्मण टीला को आर्यों की दस प्राचीनतम गढ़ियों में से एक बताया है। जब कि पुरातत्वविद डाक्टर सांकलिया के मुताबिक़ प्राचीनतम अवशेषों का अपार संग्रहालय है यह लक्ष्मण टीला। डाक्टर सांकलिया के मुताबिक़ ईसा पूर्व कई सदी से ले कर शुंग , कुषाण और गुप्तकालीन सभ्यता के तमाम प्रामाणिक अवशेष यहां से मिलते रहे हैं। जो भी हो अब लक्ष्मण टीला ही टीले वाली मस्जिद के रूप में लखनऊ में परिचित है। लक्ष्मण टीला की अराजी पर आसफी इमामबाड़ा , मच्छी भवन आदि बनाए गए। मच्छी भवन ही अब मेडिकल कालेज का विशाल परिसर है।  

लखनऊ के स्वाभाविक आचरण के अनुरुप यहां राजपूत तथा मुगल वास्तु-कला शैली के मिले-जुले स्थापत्य वाले भवन बड़ी संख्या में मिलते हैं। भवन निर्माण कला के उसी इंडोसिरेनिक स्टाइल में कुछ कमनीय प्रयोगों द्वारा अवध वास्तुकला का उदय हुआ था। लखौरी ईंटों और चूने की इमारतें जो इंडोसिरेनिक अदा में मुसकरा रही हैं, यहां की सिग्नेचर बिल्डिंग बनी हुई हैं। इन मध्यकालीन इमारतों में गुप्तकालीन हिंदू सभ्यता के नगीने जड़े मिलेंगे। दिल्ली में गुलाम वंश की स्थापना काल से मुगलों की दिल्ली उजड़ने तक शेखों का लखनऊ रहा। इन छ: सदियों में सरज़मींने अवध में आफ़तों की वो आंधियां आईं कि हज़ारों बरस पहले वाली सभ्यता पर झाड़ू फिर गई। नतीज़ा यह हुआ कि वो चकनाचूर हिंदू सभ्यता या तो तत्कालीन मुस्लिम इमारतों में तकसीम हो गई या फिर लक्ष्मण टीला, किला मौहम्मदी नगर और दादूपुर की टेकरी में समाधिस्थ हो कर रह गई और यही कारण है कि लखनऊ तथा उस के आस-पास मंदिरों में खंडित मूर्तियों के ढेर लगे हैं।

छोटी सी छोटी चीज़ को भी बड़े औकात का दर्जा देना लखनऊ का मिजाज है। यहां लखौरियों से महल बन जाता है। कच्चे सूत का कमाल है, चिकन ! है किसी शहर में यह लियाकत? जादू सरसो पे पढ़े जाते हैं, तरबूज पर नहीं। लखनऊ वही सरसो है। लखनऊ वही जादू है। आप दुनिया के किसी शहर में चले जाइए, कुछ दिन रह जाइए या ज़िंदगी बिता दीजिए पर वहां के हो नहीं पाएंगे। पर लखनऊ में आ कर कुछ समय ही रह लीजिए आप यहां के हो कर रह जाएंगे। आप लखनऊवा हो जाएंगे। यह अनायास नहीं है कि दुनिया भर से आए लोग लखनऊ के हो कर रह गए। कुछ तो ऐसे भी लोग हैं जो लखनऊ से लौटे तो अपने-अपने देशों में जा कर लखनऊ नाम से नया शहर ही बसा बैठे। बहुत कम लोग जानते हैं कि कम से कम दुनिया के पांच और देशों में भी लखनऊ नाम के शहर हैं। जैसे अमरीका के हैरिसबर्ग में। कनाडा , सूरीनाम , त्रिनिदाद और गोयना में। लोग आए और लौट कर लखनऊ की मोहब्बत में नए-नए लखनऊ बसाए अपने-अपने देश में। इस लिए भी कि लखनऊ बेस्ट कंपोज़िशन सिटी आफ़ द वर्ड है। लखनऊ का दुनिया में कोई जोड़ नहीं है। बेजोड़ है लखनऊ। ईस्ट इंडिया कंपनी के दौर में जाने आलम वाजिद अली शाह ने कलकत्ते में अपनी नज़रबंदी के दौरान कहा था कि, ' कलकत्ता मुल्क का बादशाह हो सकता है लेकिन रुह का बादशाह लखनऊ ही रहेगा क्यों कि इंसानी तहज़ीब का सब से आला मरकज़ वही है।' आला मरकज़ मतलब महान केंद्र। लखनऊ के लिए वाज़िद अली शाह के ही एक शेर में जो कहें कि :

 दर-ओ-दीवार पे हसरत से नज़र करते हैं

ख़ुश रहो अहल-ए-वतन हम तो सफ़र करते हैं

कभी नवाबी रंग में डूबे लखनऊ की मिट्टी से एक तूफ़ान उठा जिस ने नई नवेली विदेशी सत्ता की एक बार जड़ें हिला दीं। इस तूफ़ान का नाम गदर था। बेगम हज़रतमहल ने जी-जान से सन सत्तावन की इस आग को भड़काया था। लखनऊ ने हंस के शमाएं वतन के परवानों को इस आग में जलते देखा है। राजा जिया लाल सिंह को फांसी पर चढ़ते देखा है और मौलवी अहमदुल्ला उर्फ़ नक्कारा शाह की जांबाज़ी के नमूने देखे हैं, मगर मुद्दतों से मराज और मोहताज़ हिंदुस्तानी एक अरसे के लिए गोरों की गिरफ़्त में आ गए। अंगरेजों द्वारा कैसरबाग लूट लिया गया। करोड़ों की संपदा कौड़ी के मोल बिक रही थी। जिन के पांवों की मेंहदी देखने को दुनिया तरसती थी, वह बेगमात अवध नंगे सिर बिन चादर के महल से निकल रही थीं। जो नवाबज़ादे घोड़ी पर चढ़ कर हवाखोरी करते थे वे फ़िटन हांकने लगे थे। 

कभी तवायफ़ रहीं बेग़म हज़रतमहल ने अपने पति और लखनऊ के नवाब वाजिदअली शाह को छुड़ाने के लिए लखनऊ में ही तलवार निकाली थी। लड़ते-लड़ते वह कोलकोता तक पहुंची थीं। जहां वाजिदअली शाह नज़रबंद थे। कहते हैं कि बड़ा इमामबाड़ा में जब ब्रिटिश सेना ने हमला किया तो सब लोग भाग गए। नवाब वाजिदअली शाह इस लिए नहीं भाग पाए क्यों कि उन को जूता पहनाने वाला कोई नहीं था। यह उन का नवाबी ठाट था। अंगरेज जब उन्हें गिरफ़्तार कर ले जाने लगे और उन के सिर से उन का ताज उतार लिया तो वह बहुत रोए। रोते हुए ही उन्हों ने बाबुल मोरा नइहर छूटो ही जाए जैसा मार्मिक गीत लिखा। जिसे कालांतर में मशहूर गायक कुंदन लाल सहगल ने गाया। यह गीत इतना मशहूर हुआ कि कुंदन लाल सहगल का सिग्नेचर गीत बन गया। कुंदन लाल सहगल इस गीत को फिल्म में गाने के लिए इसे सीखने मुंबई से लखनऊ आए थे। भातखण्डे संगीत विद्यालय में रह कर इसे गाना सीखा। वाजिदअली शाह नृत्य और संगीत के बेहद जानकार थे। सौ से अधिक पुस्तकें हैं उन की इस विषय पर। 

1857 की जंगे-आज़ादी में लखनऊ की जो भूमिका रही है वो किसी की नहीं है। ईस्ट इंडिया कंपनी के 4 दुर्दांत सेना नायकों में से सिर्फ़ एक कालिन कैंपबेल ही यहां से सही सलामत लौट पाया था। लखनऊ का कातिल हेनरी लारेंस, कानपुर का ज़ालिम जनरल नील, दिल्ली का धूर्त नृशंस मेजर हडसन तीनों लखनऊ में यहां के क्रांतिकारियों द्वारा मार गिराए गए। और लखनऊ का मूसाबाग, सिकंदरबाग, आलमबाग, दिलकुशा, कैसरबाग, रेज़ीडेंसी के भवन हमारे पूर्वजों की वीरता के गवाह हैं। साइमन कमीशन का जैसा विरोध लखनऊ ने किया , किसी ने नहीं। जहां साइमन कमीशन की बैठक चल रही थी , वहां पूरी किलेबंदी थी। ऐसी कि हवा भी न जा सके। पर लखनऊ के लोगों ने पतंग पर अपना विरोध दर्ज कर पतंग उड़ाते हुए उस बैठक में पतंग गिरा कर अपना विरोध दर्ज करवाया था। काकोरी कांड को लोग कैसे भूल सकते हैं भला। काकोरी की ऐतिहासिक घटना ने भारतीय क्रांतिकारियों के साहस और देशप्रेम की कथा को आज भी लोग याद कर के पुलकित हो जाते हैं। चलती ट्रेन से अंगरेजों का खजाना लूटने वाले रामप्रसाद बिस्मिल , अशफाकुल्ला खां , राजेंद्र लाहिड़ी , रोशन सिंह , चंद्रशेखर आज़ाद जैसे क्रांतिकारियों की कीर्तिगाथा आज भी मन में ताज़ा है। बीते कारगिल युद्ध में भी लखनऊ के परमवीर चक्र विजेता मनोज पांडेय , महावीर चक्र विजेता सुनील जंग , युद्धवीर केवलानंद द्विवेदी तथा कीर्तिवीर ऋतेश शर्मा ने अपने प्राणो की आहुति दे कर लखनऊ का मस्तक ऊंचा किया। 

लखनऊ का कथक घराना विश्वविख्यात है। महाराज बिंदादीन और कालकादीन के कथक नृत्य कौशल की कथाएं लोक  में ही नहीं तमाम पुस्तकों में भी दर्ज हैं। कुदऊ सिंह ने पखावज वादन में और अहमदजान थिरकुआ ने तबला वादन में प्रसिद्धि पाई थी। नृत्य के क्षेत्र में ननहुआ , बचुआ और बड़ी जद्दन , छोटी जद्दन ने भी खूब ख्याति बटोरी थी। अल्लारक्खी का मुजरा सुनने तो निराला जी भी जाया करते थे। बेगम अख्तर की ग़ज़ल गायकी लखनऊ में ही परवान चढ़ी थी। 

हिंदी की पहली कहानी रानी केतकी की कहानी यहीं लखनऊ के लाल बारादरी भवन के दरबार हाल में सैय्यद इंशा अल्ला खां इंशा द्वारा लिखी गई। उर्दू का विश्वविख्यात उपन्यास उमराव जान अदा यहां मौलवीगंज में सैय्यद इशा अल्ला खां इंशा द्वारा लिखा गया। हिदुस्तान का पहला ओपेरा इंदर-सभा यहां गोलागंज में मिर्ज़ा अमानत द्वारा लिखा गया। मामूली से मामूली को बडा़ से बडा़ रुतबा देना लखनऊ का मिजाज है। दूर-दूर के लोगों तक को अपना बना लेने का हुनर लखनऊ के पास है। उर्दू शायरी का लखनऊ स्कूल आज भी दुनिया में लाजवाब है। मीर तकी मीर , मजाज लखनवी जैसे शायर , नौशाद , मदनमोहन जैसे संगीतकार , तलत महमूद , अनूप जलोटा जैसे गायक लखनऊ की ही देन हैं। मुंशी नवलकिशोर प्रेस द्वारा प्रकाशित उर्दू , अरबी ,फ़ारसी , आदि भाषाओँ की पुस्तकें दुनिया भर में मशहूर हुईं। तमाम फ़िल्मों की कथाओं और लोकेशन में लखनऊ खूब शुमार है। उमराव जान जैसी नायाब फिल्म के निर्देशक मुज़्ज़फ़्फ़र अली लखनऊ में ही रहते हैं। यशपाल , भगवती चरण वर्मा और अमृतलाल नागर जैसे उपन्यासकारों की त्रिवेणी लखनऊ में ही रहती थी। अमृतलाल नागर चौक में रहते थे और अपने को चौक यूनिवर्सिटी का वाइस चांसलर कहते थे। इस लिए भी कि अपनी कहानियों , उपन्यासों में वह लखनऊ उस में भी चौक की कथा ही कहते थे। प्रेमचंद , निराला और पंत जैसे लेखकों और कवियों ने लखनऊ में अपनी रचनाधर्मिता के कई पाठ लिखे हैं। सरस्वती के संपादक रहे पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी लखनऊ के खुर्शीदबाग़ में ही रहे। प्रधानमंत्री रहे अटल बिहारी वाजपेयी की कर्मभूमि रही है लखनऊ। अटल बिहारी वाजपेयी ने अपनी पत्रकारिता , कविता और राजनीति का लंबा समय लखनऊ में जिया। यहीं से चुनाव लड़ कर , जीत कर वह तीन बार प्रधान मंत्री बने। 

गोमती नदी के किनारे बसा लखनऊ अब गोमती नदी के दोनों तरफ इस तरह बसा दीखता है गोया आजू-बाजू दो भुजाएं हों उस की। गरज यह कि गोमती नदी अब लखनऊ के बीच से बहती है। लखनऊ कभी बागों का शहर था। चारबाग़ , आलमबाग़ , मूसाबाग़ , कैसरबाग़ , विलायतीबाग़ , ऐशबाग़ , ख़ुर्शीदबाग़ , सिकंदरबाग़ , बनारसीबाग़ , डालीबाग़ जैसी जगहें अभी भी इस की गवाही देती हैं। अपने नवाबी अंदाज़ , सलीक़े , मुग़लिया खाना , किसिम-किसिम के कबाब  , चिकन के कपड़ों , जरदोजी के काम के लिए जाने जाना वाला यह लक्ष्मणपुरी से लखनऊ बनने वाला लखनऊ अब नवाबों की नगरी से आगे अब आई. टी. हब बनने की ओर बड़ी तेज़ी से अग्रसर है। बड़े-बड़े कारपोरेट हाऊस हैं यहां । आधुनिक शिक्षा का बड़ा केंद्र भी है अब लखनऊ । दर्जनों विश्वविद्यालय , मेडिकल कालेज , इंजीनियरिंग कालेज हैं। उत्तर प्रदेश की राजधानी होने के कारण राजनीति का बड़ा केंद्र है लखनऊ । बड़ी-बड़ी आलीशान हवेलियों के लिए जाने जाने वाले इस लखनऊ में भी अब गगनचुंबी इमारतों की इफरात है। मेट्रो की रफ़्तार है। योगेश प्रवीन लखनऊ के बारे में लिखते हैं :

लखनऊ है तो महज़, गुंबदो मीनार नहीं

सिर्फ़ एक शहर नहीं, कूच और बाज़ार नहीं

इस के आंचल में मुहब्बत के फूल खिलते हैं

इस की गलियों में फ़रिश्तों के पते मिलते हैं


कृपया इस लेख को भी पढ़ें 


1 - लखनऊ का रंग और रुआब 

3 comments:

  1. वाह! यह महज़ लेख नहीं लखनऊ पर एक अत्यंत संतुलित शोध पत्र है। बहुत कुछ जानने को मिला। सादर आभार!

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  2. लखनऊ के मूल, इतिहास और वर्तमान की छटा दिखाता सुंदर आलेख

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  3. बहुत सुन्दर 🙏

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