Friday 21 May 2021

कृपया मुझे यह कहने की अनुमति दीजिए कि सुंदरलाल बहुगुणा का चिपको आंदोलन बुरी तरह फ्लॉप रहा है

 दयानंद पांडेय 


भारत में कई आंदोलन ऐसे रहे हैं जो दिखने में तो कई बार सफल दीखते रहे हैं पर अंतत :  मिला उन्हें बाबा जी का ठुल्लू ही है। वह चाहे विनोबा भावे का भूदान आंदोलन हो , जे पी का संपूर्ण क्रांति वाला आंदोलन हो , कांशीराम का दलित उत्थान का आंदोलन हो या अन्ना हजारे का भ्रष्टचार के खिलाफ आंदोलन हो। अन्ना हजारे का लोकपाल का सपना भी चकनाचूर ही है। भ्रष्टाचार भी ख़ूब फूल-फल रहा है। अलबत्ता अन्ना आंदोलन ने एक अरविंद केजरीवाल जैसा गज़ब का हिप्पोक्रेट और गिरगिट देश को गिफ्ट कर दिया है। जे पी के संपूर्ण क्रांति से इंदिरा गांधी की तानाशाही का अवसान ज़रूर हुआ और देश को इमरजेंसी से छुट्टी मिली। लेकिन अंतत: देश को मिले भ्रष्टाचार और वंशवाद के जहर वाले लालू यादव और मुलायम यादव सरीखे लोग ही। जिन की परिणति जातिवादी राजनीति में हुई। 

इसी तरह विनोबा भावे और जे पी का सर्वोदय भी डूब गया था। भूदान को तो सांस भी नहीं मिली। कांशीराम ने दलित उत्थान के लिए शुरू में बहुत ही निर्णायक आंदोलन चलाया। अंबेडकर की तरह विद्वान , कानूनविद और अध्ययनशील नहीं थे , न समझदार थे कांशीराम। पर संगठन खड़ा करने और दलितों को एकजुट करने के रणनीतिकार के रूप में कांशीराम , अंबेडकर से बहुत आगे थे। बहुत बड़े थे कांशीराम। लेकिन कांशीराम को मायावती नाम की एक विषकन्या मिल गई। मायावती ने अपनी महत्वाकांक्षा और पैसे के अथाह लालच तथा तानाशाही में कांशीराम के समूचे आंदोलन को डस लिया। कांशीराम पर कब्जा कर लिया। आंदोलन डूब गया। भ्रष्टाचार और तानाशाह की गंगोत्री में डूब कर मायावती ने समूचे दलित उत्थान को अपने उत्थान में कब तब्दील कर लिया , दलित समाज को यह जानने में भी बहुत समय लग गया है। अभी भी दलित लोग इस तथ्य को ठीक से समझ और स्वीकार नहीं पाया है। 

आज पर्यावरणविद सुंदरलाल बहुगुणा का निधन हुआ और उन के प्रति घनघोर श्र्द्धांजलियों  का असीमित तांता देख कर यह सब लोग और इन के आंदोलन यकबक याद आ गए। क्यों कि सुंदरलाल बहुगुणा और उन के चिपको आंदोलन के साथ भी यही कुछ घटा है। उन के आंदोलन का भी असमय ही गर्भपात हो गया। जिस को न कभी उन्हों ने स्वीकार किया , न उन के लोगों ने या किसी और ने भी यह बताने की ज़रूरत समझी। अन्य लोगों की अपेक्षा सुंदरलाल बहुगुणा का मीडिया मैनेजमेंट भी बहुत बढ़िया था। बहुगुणा का चिपको आंदोलन वृक्ष उत्तराखंड में वृक्ष को बचाने को ले कर वृक्ष कटान के खिलाफ शुरू हुआ था। फिर टिहरी आंदोलन में तब्दील हो गया। सुंदरलाल बहुगुणा न पर्वतों पर वृक्ष बचा पाए , न टिहरी। कांग्रेस की राजीव गांधी सरकार रही हो , नरसिंहा राव की सरकार रही हो , वी पी सिंह या चंद्रशेखर , अटल , देवगौड़ा आदि की सरकार रही हो , हर सरकार ने सुंदरलाल बहुगुणा का सम्मान सहित अपमान किया। राजीव गांधी की भी आज पुण्य-तिथि है आज संयोग से। विकास खातिर एक रुपए में 15 पैसे ही ज़मीन पहुंचने की शिनाख्त करते हुए , मेरा भारत महान बताते हुए , राजीव गांधी हर मसले का जवाब हम देखेंगे , हम देख रहे हैं के जुमले में निपटाने में अभ्यस्त रहे थे। 

सुंदरलाल बहुगुणा को भी राजीव गांधी हम देखेंगे , हम देख रहे हैं का लेमनचूस चुसवाते रहे। उन के बाद बोफोर्स की तोप पर सवार हो कर आए वी पी सिंह ने भी यही किया। फिर चंद्रशेखर और नरसिंहा राव , अटल बिहारी वाजपेयी , देवगौड़ा आदि ने भी सुंदरलाल बहुगुणा को विचार करने का आश्वासन थमाया। इन आश्वासनों के भंवर में सुंदरलाल बहुगुणा लेकिन कभी नाखुश नहीं हुए। सर्वदा प्रसन्नचित्त रहे और मुस्कुराती हुई फ़ोटो खिंचवाते रहे। वृक्षों से लिपट-लिपट कर फ़ोटो खिंचवाते हुए सुंदरलाल बहुगुणा अखबारों में लेख लिखते रहे। इंटरव्यू देते रहे अखबारों से लगायत टी वी तक। पर इधर वृक्ष कटते रहे। निपटते रहे। मनमोहन सरकार ने 2009 में सुंदरलाल बहुगुणा को पद्मविभूषण से सम्मानित किया। जमनालाल बजाज पुरस्कार भी सुंदरलाल बहुगुणा को 1986 में मिल चुका था। उत्तर प्रदेश से अलग हो कर अलग उत्तराखंड बन गया लेकिन सुंदरलाल बहुगुणा का चिपको आंदोलन गति नहीं पकड़ सका। 

लेकिन यह देखिए कि इन सारे सम्मानों और इस सब के बावजूद टिहरी तो डूब गया। बांध भी बन गया। जाइए न कभी उत्तराखंड। अधिकतम पर्वत वृक्ष विहीन मिलते हैं। पहाड़ नंगे हो गए हैं। हरियाली छिन गई है उन से। सीमेंट समेत तमाम फैक्ट्रियों और लकड़ियों के कारोबारियों ने उत्तरखंड के लोगों को शराबी बना दिया। पर्वतों को वृक्ष विहीन बना दिया। उत्तराखंड में सुंदरलाल बहुगुणा के चिपको आंदोलन के बावजूद पर्यावरण घायल हो गया। जिस का अंजाम अब हर साल आए दिन बादल फटने की आपदा , ग्लेशियर पिघलने और सरोवरों के टूटने में हम भुगत रहे हैं। आए दिन भूकंप के झटके अलग हैं। उत्तराखंड के पर्यावरण को घायल करने में टूरिज्म के नाम पर बिल्डरों ने भी खूब किया है। पर किसे क्या कहें। जब विभिन्न दलों और विचारधारा वाली सभी सरकारें ही इस एक बिंदु पर सर्वदा एकराय रहती रही हों , रहती ही हैं , रहती ही रहेंगी तो किसी बिल्डर , किसी अफ़सर , किसी माफिया , किसी इस-उस पर आरोप लगाने का कोई मतलब नहीं है। 

कृपया मुझे यह कहने की अनुमति दीजिए कि इस अर्थ में सुंदरलाल बहुगुणा का चिपको आंदोलन बुरी तरह फ्लॉप रहा है। उत्तराखंड के पर्वतों पर वृक्ष और पर्यावरण को सदा असहाय रहे हैं। उन का व्यक्तित्व ज़रूर निखरा , लेकिन मकसद पूरा नहीं हुआ। उन का आंदोलन जहां से शुरू हुआ , आज भी वहीँ खड़ा है। उसी मोड़ पर है। पहाड़ नंगे हो गए हैं। हरियाली छिन गई है उन से। पर्वत वृक्ष विहीन हो चुके हैं। वृक्ष विहीन ही नहीं , मनुष्य विहीन भी। गांव के गांव खाली हो चुके हैं। घरों में ताले लग गए हैं। कभी-कभार लोग पिकनिक करने चले जाते हैं। आस-पास के शहर में ठहरते हैं। सिसकते गांव में ताला लगे घर की फोटो खींचते हैं , सेल्फी लेते हैं। सोशल मीडिया पर खुशी-खुशी चिपका देते हैं। ऐसे में सुंदरलाल बहुगुणा का चिपको आंदोलन भी दीवार पर चिपके पोस्टर की तरह चिपक जाता है। खुद सुंदरलाल बहुगुणा ही अब पर्वत पर कम रहते थे। अकसर यात्रा पर ही रहते थे। अपने आंदोलन की चर्चा वह मैदानों में ही करते थे। 

सुंदरलाल बहुगुणा एक समय पत्रकार थे। उन दिनों मैं स्वतंत्र भारत , लखनऊ में नया-नया आया था। एक दिन पाया कि सुंदरलाल बहुगुणा आए हुए हैं। लपक कर उन से मिला। वह भी ऐसे ही मिले। पता चला वह स्वतंत्र भारत के संवाददाता भी हैं। और खुशी हुई। यह 1985 की बात है। फिर पता चला कि लखनऊ से प्रकाशित अमृत प्रभात के भी संवाददाता थे। दिल्ली के कई अखबारों के संवाददाता थे। सुन कर चकित हुआ। पर चुप रहा। वह घुमते-घामते अकसर लखनऊ आते रहते थे। चिपको की चर्चा करते रहते थे। लेकिन सेमिनारों , अखबारों में चर्चा के बूते कोई आंदोलन कितना कामयाब होता। उन दिनों बल्कि हो यह गया  था कि कोई पुरुष अगर किसी स्त्री के फेरे मारता दीखता तो लोग मजा लेते हुए कहते कि अरे , यह तो चिपको आंदोलन का सदस्य हो गया है। ऐसे ही चिपको शब्द का कई अर्थ में प्रयोग होने लगा था। 

खैर ,  उत्तराखंड ही क्यों पूरे देश में सुंदरलाल बहुगुणा ने चिपको आंदोलन की लौ जगाई। एक दृष्टि बताई। एक राह दिखाई। जिस से लोगों ने देशव्यापी सहमति भी जताई। अलग बात है सुविधा संपन्न सरकारों , अफसरों और माफियों के आगे जनता तन कर कभी खड़ी नहीं हुई। न ही सुंदरलाल बहुगुणा तन कर खड़े हुए। नहीं , यह वही उत्तराखंड है जहां के लोगों को वी पी सिंह द्वारा लागू मंडल सिफारिशों के खिलाफ तन कर खड़े होते , गोली खाते हुए , मरते हुए मैं ने देखा है। उत्तराखंड आंदोलन के दौरान भी तन कर खड़े होते , लोगों को गोली खाते देखा है। बलात्कार का अपमान भुगतते देखा है। पर नहीं देखा कि चिपको आंदोलन में कोई वृक्ष बचाने के लिए , टिहरी को बचाने के लिए भी इन्हीं आंदोलनों की तरह तन कर खड़ा हो। गोली खा कर भी खड़ा हो। जो भी हो हर आंदोलन की सीमा होती है और सफलता के अपने मानक भी। गांधीवादी रास्ते पर चलने वाले , अहिंसा और सादगी के पथ पर चलने वाले सुंदरलाल बहुगुणा अब 94 वर्ष के हो चुके थे। जाने का समय हो गया था। पर कोरोना से असमय जाएंगे , किस को पता था भला। विनम्र श्रद्धांजलि !

4 comments:

  1. आदरणीय दयानंद जी ,आपके बेबाक लेखन की मुरीद तो पहले से हूँ पर आज के लेख से निशब्द हूँ | आखिर सुन्दरलाल बहुगुणा के चिपको आन्दोलन का नाम बहुत हुआ पर ना जंगल बचे ना बाँध स्थगित हुए | खंड- खंड हिमालय गिरता रहा | आखिर अकेला चना भाड़ कैसे फोड़ सकता था ? बहुगुणा जी के बहाने कई चींजों से साक्षात्कार हुआ | सच में एक आन्दोलन अच्छी नियत से शुरू हो भी जाए , सूत्रधार भले इमानदार हो पर पिच्छलग्गू कभी निस्वार्थी नहीं होते | भले केल्रिवाल हो , मायावती हो और जे पी के सिपाहासालर लालू , मुलायम | सब के सब सत्तालोलुपता की गर्त में गड़े हुए और आँख अर्जुन के निशाने की तरह कुर्सी पर टंकी हुई | बहरहाल , माननीय बहुगुणा जी ने एक मौलिक चेतना से जड़ समाज को जगाने का प्रयास तो इमानदारी से किया था , ये बात इतिहास में दर्ज रहेगी | अगर प्रकृति बचाने में आम लोगों का योगदान होता तो आज पर्यावरण की बिगड़ी सेहत से देश और समाज पर मंडराते खतरे कुछ तो कम होते | सादगी की प्रतिमूर्ति, एक चिन्तक दिवंगत सुन्दरलाल बहुगुणा जी को विनम्र श्रद्धांजली और सादर नमन | आपको आभार इतने बेबाक लेखन के लिए |

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  2. विनम्र श्रद्धांजलि

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  3. आपके ज्ञान और विश्लेषण का मुझे आदर्श बनाने में सफलता हुई है। आपने स्पष्टता से विवरण दिया है और सभी पहलुओं को समझाया है। आपका शोधपूर्ण लेखन और उदाहरणों का उपयोग मुझे प्रेरित करता है। चिपको आंदोलन उत्तराखंड

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