अटल बिहारी वाजपेयी और फ़ैज़ |
फ़ैज़ का विरोध कर रहे लोगों को जान लेना चाहिए कि पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी फ़ैज़ के बड़े प्रशंसकों में थे। फ़ैज़ की यह नज़्म हम देखेंगे अटल जी की पसंदीदा नज़्म थी। फ़ैज़ के ही क्यों अटल जी तो मेंहदी हसन के भी मुरीद थे। याद कीजिए जब अटल जी ने मेहदी हसन का इलाज पाकिस्तान से बुला कर करवाया था। अटल जी को फैज़ की यह नज़्म हम देखेंगे इस लिए भी खूब पसंद थी तो इस के पीछे एक बड़ा कारण यह भी था कि फैज़ अहमद फैज़ ने 1977 में यह नज़्म तब लिखी थी जब पाकिस्तान में तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल जिया उल हक़ ने जुल्फिकार अली भुट्टो का तख्ता पलट दिया था। जिया उल हक़ को तब ज़बरदस्त विरोध झेलना पड़ा था। फैज़ को यह नज़्म लिखने के कारण तब पाकिस्तान छोड़ना पड़ा था। यह लगभग वही समय था जब भारत में भी इमरजेंसी बस विदा हो रही थी और नई सरकार की दस्तक थी। जब मोरार जी सरकार बनी तब अटल बिहारी वाजपेयी विदेश मंत्री बने। बतौर विदेश मंत्री जब अटल जी पाकिस्तान गए तो प्रोटोकॉल तोड़ कर वह फ़ैज़ से मिले थे। अटल जी कवि थे , कवि और कविता का मर्म भी समझते थे। बहरहाल अटल जी ने पाकिस्तान में फ़ैज़ की रचनाएं सुनीं और उन्हें भारत आने का निमंत्रण दिया। फ़ैज़ भारत आए भी और दिल्ली , इलाहाबाद , मुंबई समेत कई शहरों में घूमे। लोगों को यह भी जान लेना चाहिए कि पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के न्यौते पर फ़ैज़ ने यह नज़्म भारत में सब से पहले इलाहाबाद में पढ़ी थी। कोई चार दशक पहले इलाहाबाद के मुशायरे में यह नज़्म इस कदर पसंद की गई कि फैज़ को इसे बार-बार पढ़ना पड़ा था। हम देखेंगे तभी से भारत के लोगों के दिल-दिमाग में बस गई।
लेकिन क्या कीजिएगा जो लोग साहित्य नहीं जानते , कविता नहीं जानते , इस की पवित्रता नहीं जानते , वही लोग इस तरह की मूर्खता और कुटिलता की बात कर सकते हैं। नफरत और घृणा की राजनीति का हश्र यही होता है। फ़ैज़ और उन की इस मशहूर नज़्म के साथ यही हो रहा है। फ़ैज़ कम्युनिस्ट थे। और कम्युनिस्ट लोगों का एक मशहूर जुमला है कि धर्म अफीम है। लेकिन फ़ैज़ कम्युनिस्ट होने के बावजूद अल्ला में यक़ीन रखते थे। लगभग हर पढ़ा लिखा कम्युनिस्ट रखता है। वह भी मुसलमान पहले है कम्युनिस्ट , नागरिक वगैरह बाद में। फ़ैज़ भी इन्हीं में शुमार थे। हम देखेंगे नज़्म में आख़िरी बंद में लिखते ही हैं , बस नाम रहेगा अल्लाह का। बस विवाद इसी का है। अरे , आप अल्ला की जगह भगवान लिख लीजिए , भगवान पढ़ लीजिए। दिक्क्त क्या है। उट्ठेगा अन-अल-हक़ का नारा का मतलब आप अहम् ब्रह्मासि में तलाश लीजिए। लेकिन किसी कविता का , किसी शायर का फ़ैसला लेने वाले आप होते कौन हैं। इस अल्ला का मेटाफ़र अगर आप को नहीं समझ आता तो यह आप की बदकिस्मती है। फ़ैज़ की नहीं। फ़ैज़ से आप किसी बात पर , उन की नज़्म या किसी ग़ज़ल पर , किसी कहे पर असहमत हो सकते हैं। निंदा कर सकते हैं। यह आप का अधिकार है। लेकिन फ़ैज़ की किसी रचना पर कोई फ़ैसला देने वाले आप होते कौन हैं। लेकिन क्या है कि एक साइकिल है जो चल रही है। एक समय था कि यही कम्युनिस्ट लोग अपनी मूर्खता और नफ़रत में एक समय तुलसीदास को ले कर आक्रामक थे। अब भी हैं। तुलसीदास को ब्राह्मणवादी आदि , इत्यादि क्या-क्या नहीं कहते रहते हैं। बिना अर्थ , संदर्भ और भाषागत तथ्य और सत्य को जाने।
जैसे कि रामचरित मानस के सुंदरकांड में उल्लिखित ढोल, गंवार , शूद्र ,पशु ,नारी सकल ताड़ना के अधिकारी को लेते हैं। दलितों और स्त्रियों को भी इसी बहाने भड़का कर अनाप-शनाप लिखने बोलने लगते हैं। यह सिलसिला अनवरत जारी है।
अब सोचिए कि तुलसी के रामचरित मानस की जुबान क्या है ? अवधी। और अवधी में ताड़ना का अर्थ होता है , खयाल रखना , केयर करना। तो तुलसी ने क्या गलत लिखा है ? पहले जुबान समझिए , भाषा समझिए। भाषा का मिजाज समझिए। फिर कुछ कहिए और लिखिए। तुलसी दुनिया के सब से बड़े कवि हैं लेकिन लोग तो तुलसी को भी गाली देते हैं। निंदा करते हैं। नफरत करते हैं। तुलसी के यहां तो आलम यह है कि एक ही चौपाई में एक ही शब्द के अर्थ अलग-अलग हैं। देखिए यह एक चौपाई :
सुगम अगम मृदु मंजु कठोरे। अरथ अमित अति आखर थोरे॥
जिमि मुख मुकुर, मुकुर निज पानी । गहि न जाइ अस अदभुत बानी ॥
सोचिए कि इस एक चौपाई को ले कर एक समय पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी ने सरस्वती पत्रिका का एक पूरा विशेषांक निकाला था। जो बाद में अस अदभुत बानी नाम से पुस्तक रूप में भी छपी। लेकिन मूढ़ लोगों का क्या कहना , क्या सुनना।
अब इस के उलट कुछ लोग फ़ैज़ के साथ यही सुलूक कर रहे हैं। यह ग़लत है। यह सब कुछ-कुछ वैसे ही है जैसे कुछ मूढ़मति बंकिम बाबू की रचना वंदे मातरम को सांप्रदायिक रंग चढ़ा देते हैं। अपनी माटी , अपनी मातृभूमि की वंदना सांप्रदायिक कैसे हो सकती है भला। वंदे मातरम हमारा गौरव है। हमारा राष्ट्रगीत है। राष्ट्रगान जैसा ही सम्मान वंदे मातरम को भी निर्विवाद दिया जाना चाहिए।
सुगम अगम मृदु मंजु कठोरे। अरथ अमित अति आखर थोरे॥
जिमि मुख मुकुर, मुकुर निज पानी । गहि न जाइ अस अदभुत बानी ॥
सोचिए कि इस एक चौपाई को ले कर एक समय पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी ने सरस्वती पत्रिका का एक पूरा विशेषांक निकाला था। जो बाद में अस अदभुत बानी नाम से पुस्तक रूप में भी छपी। लेकिन मूढ़ लोगों का क्या कहना , क्या सुनना।
अब इस के उलट कुछ लोग फ़ैज़ के साथ यही सुलूक कर रहे हैं। यह ग़लत है। यह सब कुछ-कुछ वैसे ही है जैसे कुछ मूढ़मति बंकिम बाबू की रचना वंदे मातरम को सांप्रदायिक रंग चढ़ा देते हैं। अपनी माटी , अपनी मातृभूमि की वंदना सांप्रदायिक कैसे हो सकती है भला। वंदे मातरम हमारा गौरव है। हमारा राष्ट्रगीत है। राष्ट्रगान जैसा ही सम्मान वंदे मातरम को भी निर्विवाद दिया जाना चाहिए।
एक समय था कि कुछ लोगों को रवींद्रनाथ टैगोर के लिखे राष्ट्रगान जनगणमन में पंजाब सिंध मराठा पंक्ति में सिंध खटकने लगा। मांग करने लगे कि जब भारत में सिंध नहीं है तो इस राष्ट्रगान से सिंध शब्द हटा दीजिए। अजब मूर्खता थी। खैर साहित्य के ज़िम्मेदार लोगों ने इस विवाद में दखल दिया और स्पष्ट बता दिया कि किसी कविता में कोई और किसी तरह का बदलाव नहीं कर सकता। गनीमत थी कि इस विवाद के समय टैगोर जीवित नहीं थे। तब इतना हिंदू , मुसलमान भी नहीं था। सो विवाद पर पानी पड़ गया। बात ख़त्म हो गई। फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ भी अब जीवित नहीं हैं। लेकिन उन की गज़लें , नज़्म और लेख मौजूद हैं। सो हिंदू , मुसलमान का झगड़ा अपने वोट बैंक तक ही रखिए। साहित्य को इस दलदल में न घसीटिए तो बहुत बेहतर। फ़ैज़ को पढ़िए , गाईए और मौज कीजिए।
एक मशहूर फ़िल्मी गाने की याद कीजिए। तेरी आंखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है / ये उठें सुबह चले / ये झुकें / शाम ढ़ले मेरा जीना / मेरा मरना, इन्हीं पलकों के तले। 1969 में आई राज खोसला निर्देशित चिराग़ फ़िल्म के लिए यह गीत मज़रूह सुल्तानपुरी ने लिखा है। संगीत मदनमोहन का है। मोहम्मद रफ़ी और लता मंगेशकर ने अलग-अलग गाया है। सुनील दत्त और आशा पारेख पर फिल्माया गया है। कश्मीर में इस गाने की शूटिंग हुई है। आशा पारेख बताती हैं कि शूटिंग शुरू ही होने वाली थी कि अचानक सेट पर सुनील दत्त की पत्नी नरगिस आ गईं। नरगिस को देखते ही सुनील दत्त घबरा गए। भड़के भी। बोले , अरे इस समय यह कहां से आ गई ? असहज हो गए सुनील दत्त। खैर किसी तरह नरगिस को वहां से हटाया गया। तो सुनील दत्त कुछ सहज हुए और गाने की शूटिंग शुरू हुई।
इस गाने की शूटिंग की ही तरह इस गाने को लिखने का क़िस्सा भी कम रोचक नहीं है। हुआ यह कि जब इस मिसरे तेरी आंखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है पर गाना लिखने को मज़रूह सुल्तानपुरी से कहा गया तो वह मुश्किल में पड़ गए। डायरेक्टर और प्रोड्यूसर से कहा कि गाना तो मैं लिख दूंगा लेकिन फ़ैज़ से बग़ैर अनुमति लिए नहीं लिख सकता। इस लिए कि यह मिसरा फ़ैज़ की मशहूर नज़्म का है। फ़ैज़ की मशहूर नज़्म मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न मांग नज़्म का पहला बंद ही है :
मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न माँग
मैं ने समझा था कि तू है तो दरख़्शाँ है हयात
तेरा ग़म है तो ग़म-ए-दहर का झगड़ा क्या है
तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात
तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है
तू जो मिल जाए तो तक़दीर निगूँ हो जाए
यूँ न था मैं ने फ़क़त चाहा था यूँ हो जाए
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
हालां कि उर्दू में एक परंपरा सी है कि किसी एक मिसरे पर कोई भी नज़्म , गीत या ग़ज़ल लिख सकता है। लिखा ही जाता है। लेकिन मज़रूह की दलील थी कि फ़ैज़ जैसे शायर का मिसरा उठाने के लिए बिना उन से इज़ाज़त लिए मेरे लिए लिखना मुश्किल है। उन दिनों फोन आदि इतना आसान नहीं था। सो मज़रूह सुल्तानपुरी ने फ़ैज़ को चिट्ठी लिख कर अनुमति मांगी। फ़ैज़ ने उन्हें लिखा कि कोई और इज़ाज़त मांगता तो शायद नहीं देता। लेकिन इज़ाज़त चूंकि मज़रूह मांग रहा है तो मुझे कोई मुश्किल नहीं है। जानता हूं कि मज़रूह इसे संभाल सकता है। फिर मज़रूह सुल्तानपुरी ने यह गीत लिखा और देखिए कि आज भी यह गीत कितना लोकप्रिय है। और मकबूल भी। संयोग ही है कि फ़ैज़ भी इंकलाबी शायर हैं और पाकिस्तानी हुक्मरानों को वह सर्वदा खटकते रहे , जेल भुगतते रहे। पाकिस्तान निकाला भुगतते रहे। इधर मज़रूह सुल्तानपुरी भी नेहरू के खिलाफ लिखने पर जेल भेज दिए गए थे। मज़रूह ने लिखा था : मार लो साथ जाने न पाए / कॉमनवेल्थ का दास है नेहरू / मार ले साथी जाने न पाए। फ़ैज़ ने भी पाकिस्तानी हुक्मरानों के खिलाफ लिखा था : हम देखेंगे / लाज़िम है कि हम भी देखेंगे। इन दिनों इसी पर कोहराम मचा हुआ है। दरअसल फैज़ की यह नज़्म एक ज़माने से भारत में वामपंथी अपने विरोध प्रदर्शनों में गाते आ रहे हैं। हम ने भी बहुत गाया और पढ़ा है। सब ताज उछाले जाएंगे / सब तख़्त गिराए जाएंगे। गाते हुए नसें फड़कने लगती हैं। पर इस नज़्म को ले कर अभी तक तो कभी कोई विवाद नहीं हुआ था । विवाद अब हुआ है जब भारत में हिंदू , मुसलमान का विवाद अपने चरम पर आ गया है। हिंदुस्तान-पाकिस्तान आमने-सामने खुल्ल्मखुल्ला हैं। सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा लिखने वाले मोहम्मद इकबाल हिंदूवादियों को पहले ही से खटकते रहे हैं। लेकिन पहले दबी जुबान थे , अब खुली जुबान हैं। अब फ़ैज़ इकबाल की राह पर हैं। बीती बातें सोच कर भी आज हैरत होती है। एक समय था कि मंटो की मशहूर कहानी ठंडा गोश्त के खिलाफ पाकिस्तान में अश्लीलता का मुकदमा चला। फ़ैज़ ने कोर्ट में मंटो के खिलाफ सिर्फ़ इस लिए गवाही दे दी कि मंटो प्रगतिशील लेखक संघ के सदस्य नहीं थे। फ़ैज़ ने मंटो की कहानी ठंडा गोश्त को नान लिटरेरी भी होने का फ़तवा जारी कर दिया। मंटो को जेल तो हुई ही। मंटो टूट भी गए , फ़ैज़ के इस रवैये से। जेल से जब छूटे तो बाहर आ कर फ़ैज़ के रवैए से अवसाद में आ गए। खूब पीने लगे। पीते-पीते ही मर गए। भारत , पाकिस्तान विभाजन पर टोबा टेक सिंह जैसी लाजवाब और सैल्यूटिंग कहानी लिखने वाले मंटो मर मिटे , फ़ैज़ की एक उपेक्षा से।
कहा न साईकिल है जो चल रही है। एक समय था कि अवसाद से घिरे नेहरू जब वामपंथियों से नाराज होते थे तब उन्हें कहते थे कि तो आप सोवियत संघ चले जाइए। हिंदी के कुछ कवि यथा नागार्जुन , शमशेर और धूमिल कम्युनिस्टों के खिलाफ कविता लिखने लगे थे। शमशेर तो लिखने लगे थे मार्क्स को जला दो। लेनिन को जला दो। खैर , अब नेहरू की तर्ज पर ही जब भाजपाई कहते हैं कि तब आप पाकिस्तान चले जाइए तो कांग्रेसी भड़क जाते हैं। भूल जाते हैं कि यह रवायत तो नेहरू ने शुरू की थी। वैसे ही दुनिया के सब से बड़े और लोकप्रिय कवि तुलसी को गालियां देने वाले वामपंथी साथी अब फ़ैज़ का विरोध बर्दाश्त नहीं कर पा रहे।
सच तो यह है कि रचनाकार कोई भी हो , किसी भी भाषा , किसी भी धर्म और किसी भी देश या विचारधारा का हो , उन्हें साहित्य की कसौटी पर साहित्यकारों को ही कसने दें। रचनाकारों की किसी रचना पर किसी गैर साहित्यिक संस्था , राजनीतिक पार्टी आदि को जजमेंटल होने की ज़रूरत नहीं होना चाहिए। आई आई टी , कानपुर ने फ़ैज़ की नज़्म पर अपनी जांच कमेटी बैठा कर बहुत बड़ी गलती की है। समय रहते उसे कुछ सकारात्मक सोचना चाहिए। सहूलियत के लिए फ़ैज़ की इस उर्दू नज़्म का हिंदी अनुवाद यहां पढ़ लीजिए एक बार। सारा भ्रम दूर हो जाएगा।
हम देखेंगे / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
हिंदी अनुवाद : बोधिसत्व
।। हम देखेंगे।।
पक्का है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिसका है वचन मिला
जो "विधि विधान" में है कहा गया
जब पाप का भारी पर्वत भी
रुई की तरह उड़ जाएगा
हम भले जनों के चरणों तले
जब धरती धड़ धड़ धड़केगी
और राजाओं के सिर ऊपर
जब बज्जर बिजली कड़केगी
जब स्वर्गलोक के देव राज्य से
सब पापी संहारे जाएँगे
हम मन के सच्चे और भोले
गद्दी पर बिठाए जाएँगे
सब राजमुकुट उछाले जाएँगे
सिंहासन ढहाए जाएँगे
बस नाम रहेगा "परमेश्वर" का
जो साकार भी है और निराकार भी
जो कर्ता भी है दर्शक भी
उठेगा “मैं ही ब्रह्म" का एक नारा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
और राज करेगा "पूर्णब्रह्म"
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
और उर्दू पाठ भी पढ़ लीजिए :
हम देखेंगे / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
हम देखेंगे
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिसका वादा है
जो लोह-ए-अज़ल में लिखा है
जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गरां
रुई की तरह उड़ जाएँगे
हम महक़ूमों के पाँव तले
ये धरती धड़-धड़ धड़केगी
और अहल-ए-हक़म के सर ऊपर
जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी
जब अर्ज-ए-ख़ुदा के काबे से
सब बुत उठवाए जाएँगे
हम अहल-ए-सफ़ा, मरदूद-ए-हरम
मसनद पे बिठाए जाएँगे
सब ताज उछाले जाएँगे
सब तख़्त गिराए जाएँगे
बस नाम रहेगा अल्लाह का
जो ग़ायब भी है हाज़िर भी
जो मंज़र भी है नाज़िर भी
उट्ठेगा अन-अल-हक़ का नारा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
और राज़ करेगी खुल्क-ए-ख़ुदा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
बेहतरीन सामयिक और जरूरी पोस्ट।
ReplyDeleteबहुत सुंदर आलेख । सारा भ्रम दूर हो जायेगा उनलोंगों का जो हर बात पर शंका करते हैं और अपनी गंदी मानसिकता से समाज और देश में अराजक स्थिति पैदा कर अपने मंसूबों को कामयाब बनाते रहे हैं ।
ReplyDeleteसुंदर आलेख। फेसबुक में शेयर किया हूँ।
ReplyDeleteशानदार धारदार!
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