Sunday 30 July 2017

मैं ज़फ़र ता-ज़िंदगी बिकता रहा परदेस में अपनी घरवाली को एक कंगन दिलाने के लिए


अजी बड़ा लुत्फ़ था जब कुंआरे थे हम तुम , या फिर धीरे धीरे कलाई लगे थामने , उन को अंगुली थमाना गज़ब हो गया ! जैसी कव्वालियों की उन दिनों बड़ी धूम थी ।  उस किशोर उम्र में ज़फ़र की यह दोनों कव्वाली सुन कर जैसे नसें तड़क उठती थीं , मन जैसे लहक उठता था । उन दिनों हम पढ़ते थे और प्रेम की नीम बेहोशी में कविताएं लिखते थे । उन्हीं दिनों ज़फ़र गोरखपुरी से गोरखपुर में ही भेंट हुई गोरखपुर के शायर एम कोठियावी राही के उर्दू अख़बार इश्तराक के दफ़्तर में । ज़फ़र गोरखपुरी की शान में राही ने एक नशिस्त आयोजित की थी । जिस में हम भी गए थे कविता पढ़ने । उस नशिस्त के बाद ज़फ़र गोरखपुरी से एक इंटरव्यू भी किया था जो एक साप्ताहिक अख़बार उत्तरी हेराल्ड में पूरे पेज पर छपा था । अपने संघर्ष , जद्दोजहद और शायरी पर उन्हों ने खूब बतियाया था । शुरुआती दिनों में बंबई में उन्हों अपनी मज़दूरी का ज़िक्र किया था । सड़क निर्माण में मिट्टी ढोने जैसे काम किए थे उन्हों ने । तब वह बहुत पढ़े-लिखे नहीं थे । लेकिन गांव से वह कमाने गए थे बंबई । घर चलाने के लिए ।  मज़दूरी करते हुए ही पढ़ाई की और फिर यह देखिए वह बंबई नगर निगम के एक स्कूल में पढ़ाने भी लगे । शायरी करने लगे। मुशायरों में जाने लगे , रिसालों में छपने लगे । वह आनरेरी मजिस्ट्रेट भी बन गए ।  शायरी में शोहरत हुई तो अभिनेता और संवाद लेखक कादर खान से भेंट हो गई । 

कादर खान ही उन्हें फ़िल्मी दुनिया में ले गए । गाने लिखवाने के लिए लोगों से मिलवाया । ज़फ़र गोरखपुरी ने फिल्मों में लिखना शुरु किया तो जल्दी ही उन की लिखी कव्वालियां सिर चढ़ कर बोलने लगीं । जैसे धूम मच गई उन की । शोहरत के उन्हीं दिनों में उन से मिलना हुआ था । बाद के दिनों में उन्हों ने एक से एक नायाब गाने लिखे । उर्दू शायरी में भी उन्हों ने अपनी शानदार उपस्थिति दर्ज की । वह हिंदी लेखकों को भी खूब पढ़ते थे । धर्मवीर भारती के गुनाहों का देवता के जवाब में लिखी उन की पहली पत्नी कांता भारती के उपन्यास रेत की मछली उन्हीं दिनों छप कर आई थी । रेत की मछली की वह बड़ी देर तक चर्चा करते रहे । कहने लगे कि भारती को नंगा कर के रख दिया है कांता ने । बंबई की बातें , गांव और संघर्ष की बातें । वह गोरखपुर नियमित आते थे तब के दिनों । उन का परिवार तब गांव में ही रहता था । संयोग है कि उन का गांव मेरे गांव के पास ही है । हमारी तहसील एक ही है बांसगांव । उन के गांव और मेरे गांव का नाम भी संयोग से एक ही है - बैदौली । बस उन के गांव के नाम के आगे भटौली शब्द लग कर भटौली बैदौली हो जाता है । भटौली बैदौली बाबू साहब लोगों का गांव है तो कुछ लोग उसे बाबू बैदौली भी कहते हैं । खैर आज जब उन के निधन की ख़बर मिली तो जी धक् से रह गया । मन उदास हो गया । बहुत खोजा उन का वह पुराना इंटरव्यू लेकिन नहीं मिला । तो भी उन का पूरा इंटरव्यू मन में जैसे पूरा का पूरा अभी भी उसी तरह बसा हुआ है । तमाम सफलता के बावजूद उन के चेहरे पर संघर्ष की इबारत साफ पढ़ी जा सकती थी । ज़फ़र गोरखपुरी का एक शेर है :


देखें क़रीब से भी तो अच्छा दिखाई दे
इक आदमी तो शहर में ऐसा दिखाई दे

ज़फ़र गोरखपुरी अब जब भी याद आएंगे तो वह अपने इस शेर को साबित करते हुए ही याद आएंगे । ज़फ़र के और हमारे दोस्त रहे एम कोठियावी राही का एक शेर है :

मुफ़लिसी में किसी से प्यार की बात ज़िंदगी को उदास करती है 
जैसे किसी ग़रीब की औरत अकसर सोने चांदी की आस करती है 

तो ज़फ़र जैसे राही की बात को और उन के इस शेर के आंच की इस इबारत को और गाढ़ा करते हुए लिखते हैं : 

मैं ज़फ़र ता-ज़िंदगी बिकता रहा परदेस में
अपनी घरवाली को एक कंगन दिलाने के लिए

3 comments:

  1. क्या बात है। शायर और कवि शायद अलग मिट्टी के ही बने होते हैं। आपने जिस तरह उनके व्यक्तित्व का ख़ाका खींचा वह भी कोई शायर मिजाज़ ही कर सकता है। दिवंगत ज़फ़र गोरखपुरी को मेरे श्रद्धा सुमन। लगता है 'रेत की मछली'अब पढ़नी पढ़ेगी।

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  2. श्रद्धासुमन अर्पित करता हूं।गर्व है आप पर कि आपने इनको क़रीब से देखा सुना है।इस व्यवहार में मौन किन्तु लेखनी में मुखर शायर को सलाम।

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