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फ़ोटो : स्मिता पांडेय |
ग़ज़ल
अभी शादी नहीं कैरियर चाहती है पढ़ना चाहती है
नए दौर की लड़की ग़ुलामी से निकलना चाहती है
कठपुतली काया से निकल बंधन के धागे तोड़ रही
नचाने वालों की सारी अंगुलियां तोड़ देना चाहती है
तोड़ रही है धीरे धीरे अपने ख़ातिर बने बनाए सारे ढांचे
सिस्टम तोड़ कर अपने दम पर खड़ा होना चाहती है
लड़ जाती है वह परिवार पिता और समाज सब से
मायका ससुराल की पेंडुलम को तोड़ देना चाहती है
बराबरी मांगती नहीं बढ़ कर बराबर होना सीख लिया
समझौते में फंस रोने धोने के बजाय जीना चाहती है
चाहती है अपनी धरती अपना आकाश अपनी सांस
फूल की तरह खिलना पक्षी की तरह उड़ना चाहती है
बदलती दुनिया में वह अब प्रोडक्ट नहीं फाईटर है
दुश्मनों को ज़मींदोज़ कर आकाश में हंसना चाहती है
[ 26 जून , 2016 ]
कमाल के शेर हैं ... जिन्दगी का सरोकार लिए ...
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (28-06-2016) को "भूत, वर्तमान और भविष्य" (चर्चा अंक-2386) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'