Friday 15 November 2013

विपदा की नदी से पार ले जाती, विलाप की बांसुरी में डूबी कविताएं

जैसे अच्छा खासा कोई शीशा हो, आप घर ले जा रहे हों और रास्ते में ही टूट जाए अचकचा कर। जैसे कोई सपना टूट जाए अटपटा कर। जैसे किसी बारिश में कोई दीवार भहरा जाए भदभदा कर। या ऐसे ही कुछ, बहुत कुछ। अचानक घट जाए। यह जो अचानक घटना है, गिरना है या टूटना है, यही नरेश सक्सेना की कविता है। उन की कविता में शीशे का टूटना सिर्फ़ शीशे का टूटना ही नहीं है, उन की किरिचों का मन में धंसते जाना और टीसते जाना भी है। बेतरह। और आह भी नहीं मिलती। टीस मिलती है। मुसलसल। बेआवाज़ ! नरेश सक्सेना की कविता का यही अंदाज़ है। भयानक रात में लोग कुत्तों का रोना देखते हैं। लेकिन वह दर्ज करते हैं कि, 'लेकिन उस से भी भयानक होती है रात/ जब कुत्ते हंसते हैं/ सुनो क्या तुम्हें सुनाई देती है/ किसी के हंसने की आवाज़।'

असल में जैसे कोई स्त्री स्वेटर बुनती है वैसे ही नरेश सक्सेना की कविता सांघातिक तनाव बुनती है। जैसे कोई स्त्री मटर छीलती है वैसे ही नरेश की कविता व्यवस्था के खाल छीलती है। वह कविता में खतरे के निशान गढ़ते है ऐसे जैसे वह बता रहे हों कि चीज़ें, सारी चीज़ें खतरे के निशान पार कर गई हों जैसे बाढ़ में उफ़नाई किसी शहर की कोई नदी  खतरे के निशान पार कर गई हो। जैसे कोई समाज अपनी ही असंगतियों से टूट रहा हो, और उस में फंसा व्यक्ति छटपटा रहा हो। जैसे कोई व्यवस्था अपनी ही हिप्पोक्रेसी से, अपने ही गुरुर से लोगों की नसों को तड़का रही हो और नरेश अपनी कविता की नाव लिए खड़े हों और कह रहे हों कि आओ  इस विपदा की नदी से तुम्हें पार ले चलूं। नरेश की कविता में यही तनाव बुलबुले की तरह आ कर फूट पड़ता है। और एक आश्वश्ति भी देता है :

क्या वह डर और लाचारी और शर्मिंदगी
शीशे की तरह उस के चेहरे में
आप ने नहीं देखी
जो उसे अपनी कविताओं के पीछे
छिपने पर मज़बूर करती है

जिस नदी में डूबो कर हत्याएं की गईं
क्या उस ने बहना बंद कर दिया
जिस पेड़ के नीचे बलात्कार हुए
क्या उस ने खिलना छोड़ दिया

देखिए यह प्यारा और मासूम चेहरा
कहीं किसी बहती हुई नदी
किसी फूलों भरे पेड़ का तो नहीं है

कभी-कभी गुर्राता
और उसी के साथ पूंछ हिलाता
यह आदमी का चेहरा है ही नहीं।

नरेश की कविता में बेचैनी है, छटपाहट है, लेकिन हाहाकार नहीं है। हां उम्मीद की कुछ सलवटें ज़रुर दस्तक देती मिलती हैं। अज्ञेय की कविता का औचक सौंदर्य उन की कविता में बड़े हौले से उतरता है जैसे किसी नवयौवना का पांव हो ठहरे हुए जल में उतरता हुआ। शमशेर की वह सरलता जैसे कोई पुरवा बह गई हो। और मुक्तिबोध की वह आग अपने ताप में जैसे झुलसा गई हो। नरेश की कविता में लोग तो लोग चट्टानें तक उड़ती और झुलसी मिलती हैं, अपनी खुशफ़हमी में जीती हुई, झुलस कर अपनी संवेदना में सिसकती हुई स्वर पाती हैं :

चट्टानें उड़ रही हैं
बारूद के धुंएं और धमाकों के साथ

चट्टानों के कानों में भी उड़ती-उड़ती
पड़ी तो थी अपने उड़ाए जाने की बात
वे बड़ी खुश थीं

उन्हें लगता था
उन्हें उड़ाने के लिए वे लोग
पंख ले कर आएंगे।

नरेश सक्सेना अपनी कविता में इसी तरह छोटे-छोटे व्यौरे के साथ एक बड़ी टीस बोते चलते हैं और पिन की तरह, किसी शीशे की किरिच की तरह चुभन टांक देते हैं। जो मन में निरंतर दरकती और किसी कपड़े की तरह मसकती रहती है। गश्त मारती रहती है यह चुभन। यह टीस। कि कविता से भले आप बाहर निकल आएं, इस टीस और चुभन से तो हरगिज़ नहीं। हां लेकिन उन की कविता में उम्मीद की एक थपकी भी निरंतर मिलती चलती है जो किसी सरदी की धूप सी मनुष्यता पर न्यौछावर भी होती चलती है। दरवाज़ा उन की ऐसी ही एक कविता है। जो तमाम ऊबड़-खाबड़ तय करती हुई इस राह तक ले आती है :

दरवाज़ा होना तो किसी ऐसे घर का
जिस पर पड़ने वाली थपकियों से ही
समझ लेते हों घर के लोग
कि कौन आया है, परिचित या अपरिचित
और बिना डरे कहते हों हर बार
खुला है चले आइए।

ऐसी निडरता और निश्चिंतता, ऐसी थाप, ऐसी थपकी नरेश की कविताओं में भी पानी की तरह मिलती है। कभी-कभी पान की तरह भी। कि मुंह में जाते ही घुल जाए। ठीक ऐसे ही जैसे उन की पानी की इंजीनियरी,उन का फ़िल्मकार, उन का बांसुरी-वादक भी उन की कविताओं में जब-तब ऐसे झांकता फिरता है जैसे कोई बच्चा अपनी मां की गोद से झांक रहा हो। न सिर्फ़ झांक रहा हो बल्कि मचल रहा हो कि मां, हम अब गोद से उतरेंगे भी। नरेश की कविताओं में यह सब कुछ सायास नहीं अनायास घटता मिलता है। उन की कविता में शब्द के साथ लय और अर्थ भी एक साथ इसी लिए गूंजते हैं:

शिशु लोरी के शब्द नहीं
संगीत समझता है
बाद में सीखेगा भाषा
अभी वह अर्थ समझता है

वह भाषा से बाहर कविता में इसी बात को जैसे और आगे ले जाते हैं :

बेहतर हो
कुछ दिनों के लिए हम लौट चलें
उस समय में जब मनुष्यों के पास भाषा नहीं थी
और हर बात
कह के नहीं, कर के दिखानी होती थी।

पहले बच्चे के जन्म से पहले कविता में बात यही है पर उस की अर्थध्वनि बदल जाती है :

सांप के मुंह में दो जुबाने होती हैं
मेरे मुंह में कितनी हैं
अपने बच्चे को दुआ किस ज़ुबान से दूंगा

खून सनी उंगलियां
झर तो नहीं जाएंगी पतझर में
अपनी कौन-सी उंगली उसे पकड़ाऊंगा

सात रंग बदलता है गिरगिट
मैं कितने बदलता हूं
किस रंग की रोशनी का पाठ उसे पढ़ाऊंगा

आओ मेरे बच्चे
मुझे पुनर्जन्म देते हुए
आओ मेरे मैल पर तेज़ाब की तरह !

नरेश की यह या ऐसी और कविताओं से भी एक गहरी यातना, एक गहरा घाव बरबस छलक पड़ता है। यह कविताएं निश्चय ही एक तीक्ष्ण अनुभव से हमें गुज़ारती हैं। नरेश की कविता नारे वाली कविता नहीं है। वह जैसे संवेदना की कविता लिखते हैं और संवेदना की अनेक गुफाओं से, अनेक सुरंगों और अनेक रंगों  से गुज़ारते हुए हमें लिए चलते हैं। और भीतर ही भीतर झकझोर कर रख देते हैं:

नींद पलकों में सुलग कर बुझ गई जैसे
स्याह कड़ुवा धुंआं आंखों में घुमड़ता है
उजाले से घिरे इस गहरे धुंधलके में
एक घायल दृष्य चारों तरफ़ उड़ता है।

नरेश की कविताओं में एक ही चीज़ कई-कई बार और कई-कई तरह से उपस्थित होती रहती है। जैसे कि पुल, जैसे कि ईंट, जैसे कि प्रकृति, कौए, लालटेन, बरसात, पत्ते आदि। अब देखिए कि पार कविता में वह लिखते हैं :

पुल पार करने से
पुल पार होता है
नदी पार नहीं होती

नदी पार नहीं होती नदी में धंसे बिना

पर उन की दूसरी कविता सेतु में उन की ध्वनि बदल कर और घायल कर जाती है :

सेनाएं जब सेतु से गुज़रती हैं
तो सैनिक अपने कदमों की लय तोड़ देते हैं
क्यों कि इस से सेतु टूट जाने का खतरा
उठ खड़ा होता है

एक ईंट भी देखिए कि नरेश के यहां कितने-कितने तरह से उपस्थित होती है। और हर बार उस का अर्थ, उस की ध्वनि, यहां तक कि उस की काया, कार्य और धर्म भी बदलता जाता है :

ईंटों के चट्टे की छाया में
तीन ईंटें थीं एक मज़दूरनी का चूल्हा
दो उस के बच्चे की खुड्डी बनी थीं
एक उस के थके हुए सिर के नीचे लगी थी
बाद में जो लगने से बच गईं
उन को तो करने थे और बड़े काम

वह इसी कविता में जैसे पूछते फिरते हैं :

अगर लखनऊ की ईंटें बनी हैं
लखनऊ की मिट्टी से
तो लखनऊ के लोग क्या किसी और मिट्टी से बने हैं।

ईंटें दो में ईंट जैसे धधकने लगती है :

एक दिन सदियों पुराने अंधकार से
बाहर निकल आएंगी
रोशनी से भरी ईंटें
और बताएंगी अपने समय की
घृणा और हिंसा और सहिष्णुता के बारे में
हम तो होंगे नहीं
पता नहीं पृथ्वी पर जीवन भी होगा या नहीं
शायद आण्विक राख से सनी हुई
ईंटें ही कहेंगी कथा
और ईंटें ही सुनेंगी।

जाने यह अनायास है कि सायास कि क्या है नरेश सक्सेना की कविताओं में भवानी प्रसाद मिश्र की धमक भी जब-तब आती रहती है। उन की सरलता भी, उन का अंदाज़ भी, ध्वनि विन्यास भी और उन का वह प्रकृति से लगाव भी। भवानी प्रसाद मि्श्र लिखते हैं, ' अभी बैन, अभी बान, अभी बानों के सिलसिले !' तो नरेश लिखते हैं, ' अभी अभी पत्थर/ अभी अभी पानी/ अभी अभी जानवर/ अभी अभी आदमी/ वे कटे हुए होंठ/ टूटी हुई नाक और फूटी हुई आंखें।' समुद्र पर हो रही है बारिश में भी वह इस अंदाज़ को भूलते नहीं हैं, ' अभी-अभी बादल/ अभी-अभी बर्फ़/ अभी-अभी बर्फ़/ अभी-अभी बादल।' वह तो लिखते हैं, 'पूरी नदी पत्थरों से भरी है/ जैसे कि यह पानी की नहीं, पत्थरों की नदी हो/ अचानक शीशे की तरह कुछ चमकता है/ एक खास कोण पर/ हर पत्थर सूर्य हो जाता है।/ चंद्रमा हो जाता होगा, चांदनी रातों में,/ हर पत्थर ' इस लंबी कविता में वह एक जगह लिखते हैं, ' हम कितने जल्दी भूल जाते हैं/ अपने रिश्ते/ पत्थर नहीं भूलते।' कन्हैयालाल नंदन अपनी एक कविता में  सीधे ईश्वर से टकराते मिलते हैं. वह साफ कहते हैं कि 'लोग तुम्हारे पास प्रार्थना ले कर आते हैं/मैं ऐतराज़ ले कर आ रहा हूं.' तो नरेश सक्सेना भी अपनी सूर्य कविता में जैसे सूर्य को चुनौती ही नहीं देते, उसे खारिज़ भी कर देना चाहते हैं :

ऊर्जा से भरे लेकिन
अक्ल से लाचार, अपने भुवन भास्कर
इंच भर भी हिल नहीं पाते
कि सुलगा दें किसी का सर्द चूल्हा
ठेल उढ़का हुआ दरवाज़ा
चाय भर की ऊष्मा औ' रोशनी भर दें
किसी बीमार की अंधी कुठरिया में

सुना संपाती उड़ा था
इसी जगमग ज्योति को छूने
झुलस कर देह जिस की गिरी धरती पर
धुआं बन पंख जिस के उड़ गए आकाश में
हे अपरिमित ऊर्जा के शोत
कोई देवता हो अगर सचमुच सूर्य तुम तो
क्रूर क्यों हो इस कदर

तुम्हारी यह अलौकिक विकलांगता
भयभीत करती है।

दीवारें कविता में भी उन का स्वर यही है, ' ढहता है पूरा इतिहास/ देखो तो दिख जाए शायद/ किसी कोने में लिखी कोई तारीख/ कोई फ़ोन नंबर/ और उंगलियों से लिखा कोई नाम।' कई बार नरेश की कविताओं मे विलाप भी मिलता है। जैसे किसी स्त्री का विलाप हों उन की कविताएं। अधिकाधिक कविताओं में विलाप जुदा-जुदा कारणों में लिपटा और चुभता मिलता है। लेकिन यह विलाप दहाड़ में तब्दील होता भी नहीं मिलता है उन की कविताओं में। कई बार वह नीम की पत्तियों के झरने में दिखता है तो कभी किसी और बहाने। चुभता हुआ, टीस देता हुआ। देखना जो ऐसा ही रहा में यह विलाप ऐसे न्यस्त है जैसे वह किसी विलाप की कोई डाक्यूमेंट्री रच रहे हों, ' देखना जो ऐसा ही रहा तो, एक दिन/ पेड़ नहीं होंगे/ घोंसले नहीं होंगे/ चिड़िया ज़रुर होंगी, लेकिन पिंजरों में/ नदिया नहीं होंगी/ झीलें नहीं होंगी/ मछलियां ज़रुर होंगी लेकिन टोकरियों में।/ जंगल नहीं होंगे/ झाड़ियां नहीं होंगी/ खरगोश और हिरन ज़रुर होंगे/ लेकिन सर्कस में साइकिल चलाते हुए/ बस्तियां नहीं होंगी,/ मनुष्य नहीं होंगे,/ सिर्फ़ बाज़ार होंगे, जहां होंगी कविताएं/ पेड़ों, नदियों, चिड़ियों, मछलियों और खरगोशों का/ विज्ञापन करती हुई।' कितनी भयावह स्थिति को कल्पित करते हैं नरेश इस एक छोटी सी सरल कविता में। वह ऐसे नैरेट करते हैं इन  स्थितियों को जैसे मनुष्यता को रौंद गया हो कोई, प्रकृति बच गई हो किसी तरह। अपनी ताकत से। उन की इस कविता में यह जो विज्ञापन का बिंब है न बिलकुल मार डालने वाला है। लेकिन चुपके से। नीम की पत्तियां बहुत से कवियों की कविता में झरती मिलती हैं। खास कर केदारनाथ सिंह की कविता में तो वह उदासी का रुपक ले कर आती है।

झरने लगे नीम के पत्ते बढ़ने लगी उदासी मन की,

        उड़ने लगी बुझे खेतों से
        झुर-झुर सरसों की रंगीनी,
        धूसर धूप हुई मन पर ज्यों-
        सुधियों की चादर अनबीनी,

दिन के इस सुनसान पहर में रुक-सी गई प्रगति जीवन की ।

लेकिन नरेश के यहां नीम की पत्ती की जो खनक है, जो संगीत है और जो उस की गमक है एक आह्लादकारी विलाप का जो आस्वाद है वह कहीं और किसी कविता में उपस्थित नहीं है। वह लिखते हैं, ' कितनी सुंदर होती हैं पत्तियां नीम की/ ये कोई कविता क्या बताएगी/ जो उन्हें मीठे दूध में बदल देती है/ उस बकरी से पूछो/ पूछो उस मां से/ जिस ने अपने शिशु को किया है निरोग उन पत्तियों से/ जिस के छप्पर पर उन का धुआं/ ध्वजा की तरह लहराता है/ और जिस के आंगन में पत्तियां/ आशीषों की तरह झरती हैं।' एक और कविता में नीम के पेड़ के कटने का विलाप कैसे तो किसी स्त्री की रुदन की तरह वह दर्ज करते हैं, ' देखो कैसे कटी उस की छाल/ उस की छाल में धंसी कुल्हाड़ी की धार/ मेरे गीतों में धंसी मनौती में धंसी/ मेरे घावों में धंसी/ कुल्हाड़ी की धार।' नरेश के यहा अगर नीम की पत्तियां हैं तो चीड़ की भी हैं। बिलकुल निर्मल वर्मा की किसी कहानी की तरह भेद खोलती। असल में नरेश की कविताओं की एक अदा यह भी है कि वह धीरे-धीरे खुलती हैं, जैसे कोई स्त्री धीरे-धीरे खुलती हो ! स्त्री और प्रकृति ही नरेश की कविताओं की एक स्थाई छवि है।
जैसे स्त्री और प्रकृति मासूम, कोमल और अपनी नैसर्गिकता में उदात्त होती हैं नरेश सक्सेना की कविताएं भी उसी तरह, उसी मुलायमियत में तरबतर मिलती हैं। जैसे स्त्री और प्रकृति अपने त्याग और हरदम दाता रुप में ही मनुष्यता के सामने उपस्थित मिलती हैं, नरेश की कविताओं में भी उन का यह रुप अविकल रुप में हमारे सामने उपस्थित होता है। जैसे उन की एक कविता है पृथ्वी। पृथ्वी केदार के यहां भी है :

मुझे विश्वास है
यह पृथ्वी रहेगी
यदि और कहीं नहीं तो मेरी हड्डियों में
यह रहेगी जैसे पेड़ के तने में
रहते हैं दीमक
जैसे दाने में रह लेता है घुन
यह रहेगी प्रलय के बाद भी मेरे अंदर
यदि और कहीं नहीं तो मेरी ज़बान
और मेरी नश्वरता में
यह रहेगी

और एक सुबह मैं उठूंगा
मैं उठूंगा पृथ्वी-समेत
जल और कच्छप-समेत मैं उठूंगा
मैं उठूंगा और चल दूंगा उस से मिलने
जिस से वादा है
कि मिलूंगा।

पर नरेश की पृथ्वी तो जैसे अविरल है, अलौकिक है। ऐसी पृथ्वी की कल्पना शायद ही किसी कवि के यहां उपस्थित हो। नरेश की पृथ्वी तो स्त्री से भी नीचे है। स्त्री ऊपर है, पृथ्वी नीचे है नरेश की कविता में। स्त्री और पृथ्वी का यह रुपक वास्तव में एक संयुक्त विलाप का आख्यान है। स्त्री के विलाप में डूबी उन की कविताओं की जो बांसुरी है, उस की विपदा में नहाई जो आंच है न, वह जो अर्थ, जो ध्वनि, जो आग, जो संगीत रचती है, वह समूचा आप को लपेट लेती है अपने आप में और आप अबोले हो जाते हैं। नि:शब्द हो जाते हैं। थर-थर कांपते हुए। कविता जैसे कलपती हुई पूछती है पृथ्वी से :

पृथ्वी क्या तुम कोई स्त्री हो

तुम्हारी सतह पर कितना जल है
तुम्हारी सतह के नीचे भी जल ही है
लेकिन तुम्हारे गर्भ में
गर्भ के केंद्र में तो अग्नि है
सिर्फ़ अग्नि

पृथ्वी क्या तुम कोई स्त्री हो

नरेश की कविता में जो आर्द्रता और इस का जो गिरता-चढ़ता तापमान है वह कम से कम हिंदी कविता में बहुत जगह नहीं मिलता। उन की कविताओं में जो यत्र-तत्र अंतर्मन की आर्द्र पुकार है वह बार-बार दर्ज करने का अनकहा आग्रह करती चलती है :

कैसे पुकारे
मीठे पानी में रहने वाली मछलियों को
प्यासों को क्या मुंह दिखाए
कहां जा कर डूब मरे
खुद अपने आप पर बरस रहा है समुद्र
समुद्र पर हो रही है बारिश

कई बार नरेश अपनी कविताओं में व्यवस्था पर ऐसे चिकोटी काटते हैं गोया कोई चींटी हाथी के सूंड़ में काट रही हो :

लेकिन क्या किसी जज को दिखेंगे
लहराते हुए चाबुक और झुकी हुई पीठों पर
उभरती हुई धारियां इन धारियों में

क्यों कि जज साहब के पास भी तो
होगी एक मेज़
और उस पर बिछा होगा मेज़पोश।

नक्शे कविता में भी एक अजब छटपटाहट दिखती है :

नक्शे में जंगल हैं पेड़ नहीं नक्शे में नदियां हैं पानी नहीं
नक्शे में पहाड़ हैं पत्थर नहीं
समझ ही गए होंगे आप कि हम सब
एक नक्शे में रहते हैं

किले में बच्चे कविता में वह जैसे व्यवस्था की पोल ही नहीं खोलते, उस का खोखलापन ही नहीं बांचते, चोट भी भरपूर करते हैं :

अब वे पूछ रहे हैं सवाल
कि सुलतान के घर का इतना बड़ा दरवाज़ा
उस की इतनी ऊंची दीवारें
उन के चारो तरफ़ इतनी सारी खाइयां
इतने सारे तहखाने छुपने के लिए
और भागने के लिए इतनी लंबी सुरंगे
और चोर रास्ते
आखिर...
सुल्तान इतना डरपोक क्यों था !

नरेश के सवाल अपने कवि से भी हैं। परसाई जी के बहाने वह अपनी पड़ताल भी करते हैं और शायद समूचे कविता परिदृष्य की भी :

पैंतालिस साल पहले, जबलपुर में
परसाई जी के पीछे लगभग भागते हुए
मैं ने सुनाई अपनी कविता
और पूछा
क्या इस पर ईनाम मिल सकता है
"अच्छी कविता पर सज़ा भी मिल सकती है"
सुन कर मैं सन्न रह गया
क्यों कि उसी शाम, विद्यार्थियों की कविता प्रतियोगिता में
मैं हिस्सा लेना चाहता था
और परसाई जी उस की अध्यक्षता करने वाले थे।

आज जब सुन रहा हूं, वाह, वाह
मित्र लोग ले रहे हैं हाथों हाथ
सज़ा जैसी कोई सख़्त बात तक नहीं कहता
तो शक होने लगता है
परसाई जी की बात पर, नहीं
अपनी कविता पर।

नरेश की कविताओं में ६ दिसंबर भी ह, गुजरात भी है, कौए भी कई-कई बार हैं। रोशनी है, बारिश है, दीमक और चिड़िया हैं, पानी है, सीढ़ी है और बच्चे भी। फूल भी हैं और पत्ते भी। लेकिन इन सब में जो एक बात है, जो एक तत्व है वह है रुदन, वह है विलाप। फूल तक विलाप करते हैं उन की कविताओं में। पानी भी। पर पानी कैसे लड़ता भी है इस विलाप में एक यह स्वर यह भी देखें :

आज जब पड़ रही है कड़ाके की ठण्ड
और पानी पीना तो दूर
उसे छूने से बच रहे हैं लोग
तो ज़रा चल कर देख लेना चाहिए
कि अपने संकट की इस घड़ी में
पानी क्या कर रहा है.

अरे ! वह तो शीर्षासन कर रहा है
सचमुच झीलों, तालाबों और नदियों का पानी
सिर के बल खड़ा हो रहा है

सतह का पानी ठण्डा और भारी हो
लगाता है डुबकी
और नीचे से गर्म और हल्के पानी को
ऊपर भेज देता है ठण्ड से जूझने

नरेश सक्सेना के यहां विलाप भी किसिम-किसिम के हैं। पानी का विलाप है तो मौसम का विलाप भी है। किसान का विलाप भी वह नहीं भूलते। किसान के विस्थापन की तफ़सील वह बारिश में बांचते हैं। इस बारिश में उन की ऐसी ही कविता है :

जिस के पास चली गई मेरी ज़मीन
उसी के पास अब मेरी
बारिश भी चली गई

अब जो घिरती हैं काली घटाएं
उसी के लिए घिरती है
कूकती हैं कोयलें उसी के लिए
उसी के लिए उठती है
धरती के सीने से सोंधी सुगंध

अब नहीं मेरे लिए
हल नही बैल नहीं
खेतों की गैल नहीं
एक हरी बूँद नहीं
तोते नहीं, ताल नहीं, नदी नहीं, आर्द्रा नक्षत्र नहीं,
कजरी मल्हार नहीं मेरे लिए

जिस की नहीं कोई ज़मीन
उस का नहीं कोई आसमान।


छोटी-छोटी कविता में बड़ी-बड़ी बात कह जाने वाले नरेश सक्सेना के नाम कुछ बड़ी-बड़ी कविताएं भी दर्ज हैं। गिरना उन की लंबी कविता है। लेकिन इस गिरना में भी एक आह्वान है, एक जद्दोजहद और जूझ है :


बचपन से ऐसी नसीहतें मिलती रहीं
कि गिरना हो तो घर में गिरो
बाहर मत गिरो
यानी चिट्ठी में गिरो
लिफ़ाफ़े में बचे रहो, यानी
आँखों में गिरो
चश्मे में बचे रहो, यानी
शब्दों में बचे रहो
अर्थों में गिरो

गिरना की तफ़सील इतनी है, उस का विस्तार इतना है कि बस पूछिए मत :


गिरो जैसे गिरती है बर्फ़
ऊँची चोटियों पर
जहाँ से फूटती हैं मीठे पानी की नदियाँ

गिरो प्यासे हलक में एक घूँट जल की तरह
रीते पात्र में पानी की तरह गिरो
उसे भरे जाने के संगीत से भरते हुए
गिरो आँसू की एक बूंद की तरह
किसी के दुख में
गेंद की तरह गिरो
खेलते बच्चों के बीच
गिरो पतझर की पहली पत्ती की तरह
एक कोंपल के लिये जगह खाली करते हुए
गाते हुए ऋतुओं का गीत
कि जहाँ पत्तियाँ नहीं झरतीं
वहाँ वसंत नहीं आता'
गिरो पहली ईंट की तरह नींव में
किसी का घर बनाते हुए

इसी कविता में वह लिखते हैं, 'चीज़ों के गिरने की असलियत का पर्दाफ़ाश हुआ/ सत्रहवीं शताब्दी के मध्य,' इस के मार्फ़त वह इतिहास के अंतर्विरोध भी टटोलते हैं। अज्ञेय की कविताओं में मॄत्यु का विलाप और विवरण बहुत मिलता है लेकिन नरेश के यहां इस की गूंज अलग तरह से विन्यस्त है। इसी कविता में वह कहते हैं :

गिर गए बाल
दाँत गिर गए
गिर गई नज़र और
स्मृतियों के खोखल से गिरते चले जा रहे हैं
नाम, तारीख़ें, और शहर और चेहरे...
और रक्तचाप गिर रहा है
तापमान गिर रहा है
गिर रही है ख़ून में निकदार होमो ग्लोबीन की

खड़े क्या हो बिजूके से नरेश
इस से पहले कि गिर जाए समूचा वजूद
एकबारगी
तय करो अपना गिरना
अपने गिरने की सही वज़ह और वक़्त
और गिरो किसी दुश्मन पर

गाज की तरह गिरो
उल्कापात की तरह गिरो
वज्रपात की तरह गिरो
मैं कहता हूँ
गिरो

कैलाश गौतम का एक गीत है, 'हंसो और धार-धार तोड़ कर हंसो !/ ओ मेरी लौंगकली पान में हंसो तुम/ गुबरीले आंगन, दालान में हंसो/ बरखा की पहली बौछार हंसो तुम !' इस कविता में कैलाश गौतम की यह ध्वनि-योजना भी गूंजती है, उस का मनुहार भी। रघुवीर सहाय की उजली हंसी के छोर पर के बिंब भी भी।  सुनो चारुशीला नाम से नरेश सक्सेना का एक संग्रह ही है। इस कविता को उन्हों ने अपनी पत्नी को संबोधित किया है। पत्नी वियोग में बहुतेरी कविताएं हैं हिंदी में और हिंदी से इतर भी। पर सुनो चारुशीला का जो अंतर्नाद है वह विरल है। ऐसे जैसे किसी सोते से फूट रहा निर्झर आंसू है :

तुम अपनी दो आँखों से देखती हो एक दृश्य
दो हाथों से करती हो एक काम
दो पाँवों से
दो रास्तों पर नहीं एक ही पर चलती हो

सुनो चारुशीला !
एक रंग और एक रंग मिल कर एक ही रंग होता है
एक बादल और एक बादल मिल कर एक ही बादल होता है
एक नदी और एक नदी मिल कर एक ही नदी होती है

नदी नहीं होंगे हम
बादल नहीं होंगे हम
रंग नहीं होंगे तो फिर क्या होंगे
अच्छा ज़रा सोच कर बताओ
कि एक मैं और तुम मिल कर कितने हुए

क्या कोई बता सकता है
कि तुम्हारे बिन मेरी एक वसंत ऋतु
कितने फूलों से बन सकती है
और अगर तुम हो तो क्या मैं बना नहीं सकता
एक तारे से अपना आकाश

नरेश की कविता के आकाश में ऐसे कई बिंब हैं जो  अन्यत्र किसी और की कविता में नहीं मिलते :

टूटते तारों की आवाज़ें सुनाई नहीं देतीं
वे इतनी दूर होते हैं
कि उन की आवाज़ें कहीं
राह में भटक कर रह जाती हैं
हम तक पहुंच ही नहीं पातीं

कविता के नरेश कभी गीतों के भी राजकुमार हुआ करते थे यह बात लोग क्या शायद नरेश सक्सेना भी भूल चले होंगे। लेकिन यहां जो उन के उन गीतों की पुलक को, उस अनफूले कचनार को जो नहीं याद करेंगे तो शायद बात अधूरी मानी जाएगी:

वही शाम पीले पत्तों की
गुमसुम और उदास
वही रोज़ का मन का कुछ-
खो जाने का एहसास
टाँग रही है मन को एक नुकीले खालीपन से
बहुत दूर चिड़ियों की कोई उड़ती हुई कतार ।
फूले फूल बबूल कौन सुख, अनफूले कचनार ।

जाने; कैसी-कैसी बातें
सुना रहे सन्नाटे
सुन कर सचमुच अंग-अंग में
उग आते हैं काँटें
बदहवास, गिरती-पड़ती-सी; लगीं दौड़ने मन में-
अजब-अजब विकृतियाँ अपने वस्त्र उतार-उतार
फूले फूल बबूल कौन सुख, अनफूले कचनार ।

या फिर

सूनी संझा, झॉंके चाँद
मुड़ेर पकड़ कर आँगना
हमें, कसम से नहीं सुहाता---रात-रात भर जागना

और

तनिक देर को छत पर हो आओ
चांद तुम्हारे घर के पिछवारे निकला है।

नरेश सक्सेना का काव्यपाठ जिस भी किसी ने सुना है, वह जानता है कि कैसे तो वह अपने काव्यपाठ में अपनी कविताओं का विलाप भी बउरा-बउरा कर बांचते हैं। लेकिन वह चीखते-चिल्लाते नहीं हैं। आकुल भाव में जब वह अपनी कविता में बोलते हैं तो जैसे घटा घहरा जाती है। विलाप आर्तनाद बन कर फूट पड़ता है :

कहते हैं रास्ता भी एक जगह होता है
जिस पर ज़िंदगी गुज़ार देते हैं लोग
और रास्ते पांवों से ही निकलते हैं
पांव शायद इसी लिए पूजे जाते हैं
हाथों को पूजने की कोई परंपरा नहीं
हमारी संस्कृति में
ये कितनी अजीब बात है !

नरेश की कविताओं में कई बातें इतने चुपके से दर्ज़ होती हैं कि जैसे कोई हवा आप को छू कर निकल जाए और आप अचानक उस के स्पर्श के बाद जागें और उस की लपट में लिपट जाएं। मुर्दे कविता का पाठ ऐसे ही है :

मरने के बाद शुरू होता है
मुर्दों का अमर जीवन

दोस्त आएँ या दुश्मन
वे ठंडे पड़े रहते हैं

लेकिन अगर आपने देर कर दी
तो फिर
उन्हें अकडऩे से कोई नहीं रोक सकता

मज़े ही मज़े होते हैं मुर्दों के

बस इसके लिए एक बार
मरना पड़ता है ।

नरेश सक्सेना की कविता में यह मरना, यह अकड़ को तोड़ना जैसा मेटाफ़र बार-बार संभव बनता मिलता है। उन की एक कविता है धातुएं। उस का एक रंग देखिए :

अभी वे विचारों में फैल रही हैं लेकिन
एक दिन वे बैठी मिलेंगी
हमारी आत्मा में
फिर क्या होगा
गर्मी में गर्म और सर्दी में ठंडी
खींचो तो खिंचती चली जाएंगी
पीटो तो पिटती चली जाएंगी

ऐसा भी नहीं है
कि इस से पूरी तरह बेख़बर हैं लोग
मुझ से तो कई बार पूछ चुके हैं मेरे दोस्त
कि यार नरेश
तुम किस धातु के बने हो!

नरेश के यहां यह अंदाज़ कई बार और कई कविताओं में मिलता है और गुमसुम कर देता है। आदमी ही नहीं मछली , बच्ची और पर्यावरण का बारीक संघर्ष कैसे तो तिल-तिल कर सामने आता जाता है, चुपचाप :

पापा, इस पर मछली बना दो
मैं ने उसे छेड़ने के लिए काग़ज़ पर लिख दिया- मछली
कुछ देर राखी उसे गौर से देखती रही
फिर परेशान हो कर बोली- यह कैसी मछली !
पापा, इस की पूँछ कहाँ और सिर कहाँ
मैं ने उसे समझाया
यह मछली का म
यह छ, यह उस की ली
इस तरह लिखा जाता है- म...छ...ली
उसने गंभीर हो कर कहा- अच्छा ! तो जहाँ लिखा है मछली
वहाँ पानी भी लिख दो

तभी उस की माँ ने पुकारा तो वह दौड़ कर जाने लगी
लेकिन अचानक मुड़ी और दूर से चिल्ला कर बोली-
साफ़ पानी लिखना, पापा !

नरेश की कविता में यह अचानक जो चोट है न वह  हिलाती भी है और उकसाती भी है। नरेश हालां कि स्त्री संवेदना को परिभाषित करने वाले, स्त्री के विलाप की तरह कविता में अपने रंग के लिए जाने जाते हैं। पर उन की एक कविता है मोनोपाज़। इस कविता में जो उन का एक डर है, उन का जो संशय है कुछ स्त्रियों को वह आपत्तिजनक  लगा है। बावजूद इस के उस कविता का भय, संशय और मानी गौरतलब है :

मोनोपाज के निकट पहुंचती स्त्रियों को
डराते हैं धर्मग्रंथ
जिन में स्त्रियों को
पुरुषों की खेतियां बताया जाता है

स्त्रियां जानती हैं
बंजर ज़मीनों का हश्र, जिन्हें
उन के मालिक
बेच देना चाहते हैं
लेकिन ग्राहक ढूंढे नहीं मिलता

हालां कि नरेश की यह कविता उन के किसी संग्रह में नहीं मिलती है लेकिन इस कविता पर स्त्री विरोधी कविता होने का प्रतिवाद तो दर्ज है। ठीक वैसे ही जैसे धूमिल की एक कविता में , जिस-जिस की पूंछ उठाया, मादा पाया, को भी स्त्री विरोधी होने का प्रतिवाद अब दर्ज होने लगा है। नरेश के कविता संग्रह में कुछ कविताओं के पाठ भी बदल गए हैं। बिना किसी नोट के। हालां कि नरेश सक्सेना बहुत कम लिखने वाले कवियों में शुमार हैं पर उन की नोटिस हिंदी कविता में बहुत ज़्यादा लिखने वाले से कहीं ज़्यादा ली जाती है। हालां कि उन के चित्ताकर्षक गीतों का कोई संग्रह नहीं है तो शायद उन के आलस में ही वह कहीं दुबका हुआ है। या किसी अहिल्या की तरह उसे किसी राम रुपी  सुशीला पुरी की प्रतीक्षा है जो नरेश सक्सेना के गीतों की सुधि ले और उसे किसी संग्रह की शक्ल दे। या कोई ज्ञानरंजन उन्हें फिर कोई पहल सा सम्मान दे ताकि उन के गीतों और बची हुई कविताओं की बांसुरी हम सब को सुनाए। उन की कविताओं में गुथी विलाप की बांसुरी। विपदा की नदी से पार ले जाती कविताओं की बासुरी !

2 comments:

  1. vaah ek yatra ho gai Naresh ji ki kavitaon ke sath aapko bahut sadhuvad

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  2. असल में जैसे कोई स्त्री स्वेटर बुनती है वैसे ही नरेश सक्सेना की कविता सांघातिक तनाव बुनती है। जैसे कोई स्त्री मटर छीलती है वैसे ही नरेश की कविता व्यवस्था के खाल छीलती है। वह कविता में खतरे के निशान गढ़ते है ऐसे जैसे वह बता रहे हों कि चीज़ें, सारी चीज़ें खतरे के निशान पार कर गई हों जैसे बाढ़ में उफ़नाई किसी शहर की कोई नदी खतरे के निशान पार कर गई हो। जैसे कोई समाज अपनी ही असंगतियों से टूट रहा हो, और उस में फंसा व्यक्ति छटपटा रहा हो। जैसे कोई व्यवस्था अपनी ही हिप्पोक्रेसी से, अपने ही गुरुर से लोगों की नसों को तड़का रही हो और नरेश अपनी कविता की नाव लिए खड़े हों और कह रहे हों कि आओ इस विपदा की नदी से तुम्हें पार ले चलूं। नरेश की कविता में यही तनाव बुलबुले की तरह आ कर फूट पड़ता है। और एक आश्वश्ति भी देता है ...
    waah kya baat hai . kavitaon ke sagar beech painth kar kya moti dhundhte shabd. naresh ji jo swayam shabdon ke keemiyaagar hain unki kavitaon ki adbhut sameeksha . sadhu sadhu.

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