Saturday 12 January 2013

छीजती मानवीय संवदेना को सहेजती ‘मुनमुन’

- अशोक मिश्र

 महानगरों में भले ही महिला संगठन ‘महिला अधिकारों’ के लिए तख्तियां ले-कर सड़कों पर आती हों, लेकिन ग्रामीण-कस्बाई माहौल में आज भी महिला को अकेले ही समस्याओं से दो-चार होना पड़ता है। समस्याओं-तानों की पुरबा-पछुआ उसे अपने दम पर ही झेलनी पड़ती है और उसका समाधान भी तलाशना पड़ता है। पूर्वांचल में सामाजिक समस्याएं आज भी कैसी हैं, पलायनवादी सोच लोगों के सिर पर किस कदर चढ़कर बोलती है? इसका सीधा-सपाट चित्रण किया है दयानंद पांडेय ने अपने उपन्यास ‘बांसगांव की मुनमुन’ में।

यों तो पूर्वांचल में कई समस्याएं पुरातन काल से ही चली आ रही हैं। समय बीतने के साथ-साथ समस्याएं नहीं खत्म हुर्इं। कभी श्रीलाल शुक्ल ने राग दरबारी में ‘शिवपालगंज’ की क्षेत्रीय समस्याओं और गांव की तासीर को लोगों के सामने रखा था। दयानंद पांडेय ने अपने मानवीय, सामाजिक, साहित्यिक और पत्रकारीय सरोकारों को एक साथ समेटते हुए ‘बांसगांव’ का जिक्र किया है। बांसगांव की तासीर 21वीं सदी में कैसी है? दयानंद पांडेय ने बखूबी चित्रण किया है। उपन्यास की मुख्य पात्र मुनमुन के बचपन से लेकर उसकी किशोरावस्था की अल्हड़ता, यौवन का संघर्ष और समाज में उपजी नई सोच के तहत उत्पन्न पारिवारिक, सामाजिक को उन्होंने बेहतर तरीके से उठाया है। लेखक यह बताने से नहीं चूकते कि बांसगांव के बाबू साहब लोगों की दबंगई और गुंडई अभी अपनी शान और रफ़्तार पर है। और इसी झूठी शान और आपसी ईर्ष्या के कारण बांसगांव बसने की बजाय उजड़ रहा है। गिरधारी राय, मुनक्का राय का प्रसंग बार-बार लाकर और उनके जीवन, सोच को भी कर कथानक आगे है। उपन्यास के सभी पात्रों में न कोई पाशविक है, न कोई देवता। उपन्यासकार बताते हैं कि, ‘और ऐसे बांसगांव में मुनमुन जवान हो गई थी ... एक तो जज अफसर और बैंक मैनेजर की बहन होने का गरूर, दूसरे माता-पिता का ढीला अंकुश, तीसरे जवानी का जादू।... बांसगांव की सरहद लांघते ही राहुल के दोस्त की बाइक पर देखी जाती। कभी किसी मक्के के खेत में, कभी गन्ने या अरहर के खेत में साथ बैठी बतियाती दिख जाती। ‘अब हम कइसे चलीं डगरिया, लोगवा नजर लड़ा वेला’ से आगे बढ़ कर गुनगुनाने लगी थी, ‘सैंया जी दिलवा मांगे ले अंगौछा बिछाइ के।’

बेशक मुख्य पात्र मुनमुन है। ग्रामीण परिवेश में मुनमुन के बहाने और उसके मुखारविंदों से कई बार लेखक ने उस सच को कहलवाया है, जो हमें अपने आस-पड़ोस में नजर आ जाता है। किसी भी कस्बाई और ग्रामीण परिवेश में गिरधारी राय और मुनक्का राय जैसे चरित्र हमें मिल जाते हैं। गिरधारी राय भले ही ईर्ष्या-द्वेष के पुतले हों, लेकिन मुनक्का राय को इससे बरी नहीं किया जा सकता है। महज अपने अहं और बदला लेने की प्रवृत्ति के कारण बड़े बेटे रमेश का करियर तबाह करा कर उससे वकालत करवाने का निर्णय हो, मुनमुन की शिक्षा मित्र की नौकरी हो या फिर गिरधारी राय की मृत्यु के समय श्मशान प्रसंग और अंत में मुनमुन के पी.सी.एस. में चयन के समय का स्वगत कथन हो, सब हमारे आस-पास से ही तो लिए गए हैं। ग्रामीण परिवेश से निकल कर बड़े अफसर बने अनेक रमेश और धीरज हमारे समाज में आसानी से दिख जाते हैं।

यह सामाजिक विसंगति ही तो है कि एक तरफ हम शैक्षणिक और आर्थिक रूप से समृद्ध होते जा रहे हैं, वहीं हमारा मानवीय और सामाजिक सरोकार छीजता जा रहा है। बजबजाती व्यवस्था में बेटा लायक होने पर जब अपने वृद्ध माता-पिता को नहीं पूछता है, तो भला उसके जेहन में बहन का खयाल कहां से आएगा? महिला सशक्तीकरण की लाख बातें की जाएं, लाख नारे लगाए और लगवाए जाएं, फिर भी लोगों की सोच में तनिक भी फर्क नहीं आ रहा है। उपन्यास में पिता मुनक्का राय अपनी मुनमुन से कहते हैं, ‘महिलाओं के लिए बांसगांव की आबोहवा ठीक नहीं है।’ जवाब में मुनमुन कहती है, ‘महिलाओं के लिए तो सारे समाज की हवा ठीक नहीं है। बांसगांव तो उस का एक हिस्सा है।’ बेटा कितना भी नालायक हो, मां-बाप उसका मोह नहीं छोड़ पाते हैं। बेटी संघर्षशील और जुझारू हो, साथ में भाव प्रवीण भी, फिर भी वह अपने भाइयों से हमेशा ही कमतर ही आंकी जाती है। इस उपन्यास में एन.आर.आई. बेटा तपे हुए वकील जर्जर वृद्ध पिता से कहता है, ‘ऐसे मां-बाप को तो चौराहे पर खड़ा करके गोली मार देनी चाहिए।’ मां-बाप का कसूर यह है कि दिन-रात शराब पी कर पत्नी को पीटने वाले पति के घर बेटी को झोंटा पकड़ कर क्यों नहीं ठेल देते! बड़ा बेटा जब पढ़-लिखकर जज बन जाता है, तो वह भी संबंधों की मर्यादा भूल जाता है। जज साहब इसी कसूर के लिए फोन पर अपनी मां से बहन को ‘रंडी’ कह कर गाली देते हैं। मां शालीनता से कहती हैं, ‘जज हो, जज बने रहो। जानवर मत बनो।’ सच तो यह भी है कि दौलत-शोहरत सब कुछ कमाने वाले चार भाई बूढ़े लाचार मां-बाप को रोटी और दवा तक के पैसे नहीं भेजते।

ऐसे में किंकर्तव्यविमूढ़ हुआ एक वृद्ध पिता सिवाय, अफसोस, मलाल और चिंता के कर भी क्या सकता था? लोग समझते थे कि उनका परिवार प्रगति के पथ पर है, पर उनकी आत्मा जानती थी कि उनका परिवार पतन की पराकाष्ठा पर है। पिता सोचते हैं और अपने आप से ही कहते हैं, ‘भगवान बच्चों को इतना लायक भी न बना दें कि वह माता-पिता और परिवार से इतने दूर हो जाएं। अपने आप में इतना खो जाएं कि बाकी दुनिया उन्हें सूझे ही नहीं!’ बेटी मुनमुन ही थी, जिसने शिक्षा-मित्र की नौकरी की और किसी तरह अपने वृद्ध माता-पिता का पालन-पोषण किया। जब पिता पर आश्रित थी तो मुनमुन सोचती, ‘कैसे खर्च करे यह पैसा?’ शिक्षा मित्र बनने के बाद वह सोचती कि कैसे खर्च चलाए वह इन पैसों से ?’ चिंता अभाव और कठोर श्रम के कारण मुनमुन टी.बी. की मरीज बन बैठी। तब भी लगातार जूझती रही।

दयानंद पांडेय ने मुनमुन को एक उम्मीद की किरण के रूप में दिखाया है। उसकी शादी के वक्त उसके भाइयों को इतनी फुर्सत नहीं थी कि उसके वर की तहकीकात करते! कमासुत भाई आए, जैसे-तैसे पैसा दिया और मेहमानों की तरह अगले दिन चलते बने। एक शराबी पति से तंग आकर जब मुनमुन मायके आ गई, तो किसी ने सुध नहीं ली। हां, ममेरे भाई दीपक के रूप में लेखक ने यह बताने की पुरजोर कोशिश की है कि नाउम्मदी मत पालिए। कोई न कोई वर्तमान व्यवस्था में भी इतना संवदेनशील है कि आपकी समस्याओं के लिए तत्पर होगा। पूरे उपन्यास में दीपक के अलावा किसी को भी मुनमुन के जीवन की चिंता नहीं है। विशेष कर स्त्री पात्र, चाहे नायिका मुनमुन की बहनें हों या भाभियां। मुनमुन के पति द्वारा बवाल काटने पर अड़ोस-पड़ोस की महिलाएं और चनाजोर गरम बेचने वाले तिवारी जी भले ही अपने गीतों से मुनमुन के साहस को संबल देते हैं, लेकिन परिवार की किसी भी महिला की संवेदना मुनमुन के पक्ष में नहीं है। नायिका मुनमुन की मां भी पशोपेस में रहती है।

यह लिखित तो नहीं है, लेकिन परिपाटी जैसी बन गई है कि भारतीय साहित्य सृजन में कथा का अंत सुखांत ही होता है। नारी अस्मिता, उसके संघर्ष को बखूबी बड़े कैनवास पर रखने में सफल रहने वाले दयानंद पांडेय ने भी उसी परिपाटी का निर्वाह किया है और मुनमुन को शिक्षा मित्र से पीसीएस अफसर बनने तक का सफर दिखाया है। अपने पैरों पर खड़ी होते ही बेटी पहली पोस्टिंग में ही मां-बाप को साथ ले कर जाती है। लेखक बड़ी साफगोई से यह कहने में सफल हुए हैं कि सामर्थ्यवान होने पर ऐसे पुत्र मां-बाप का जीवन नरक करते हैं, बेटियां नरक से उन का उद्धार करती हैं। शिल्प और भाषा की दृष्टि से उपन्यास की कसावट ऐसी है कि यह पहले पन्ने से आखिरी पन्ने तक पाठक को बांधे रखती है। पाठक लाख कोशिश करे, फिर भी 176 पृष्ठों तक बिना रुके-लगातार पढ़ने को विवश होता है। 21वीं सदी में मुनमुन का जुझारूपन किसी के लिए उम्मीद की किरण बन सकती है। जिस प्रकार से उसने कई दूसरी महिलाओं को उसके दांपत्य और सामाजिक समस्याओं से निजात दिलाने में मदद की, उससे मुनमुन की मां भी आह्लादित दिखी। यूं तो पूरे कथानक में मां का चरित्र बहुत अधिक उभर कर नहीं आ सका है, मानो वह ग्रे शेड में हों। फिर भी मुनमुन की मां जब उस से एक जगह दूसरा विवाह कर लेने को कहती है, तो मुनमुन मां से कहती है - ‘साथ घूमने-सोने के लिए तो सभी तैयार रहते हैं हमेशा! पर शादी के लिए कोई नहीं।’ यह चंद शब्द आशावादी उपन्यास को पूर्णता दे कर स्त्री की अपनी शर्तों पर जीने की जिजीविषा को जगाए रखने में सफल रहते हैं।


समीक्ष्य पुस्तक:
बांसगांव की मुनमुन
पृष्ठ सं.176
मूल्य-300 रुपए

प्रकाशक
संस्कृति साहित्य
30/35-ए,शाप न.2, गली नंबर- 9, विश्वास नगर
दिल्ली- 110032
प्रकाशन वर्ष-2012


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