Saturday 14 April 2012

आज की स्त्री की जिजीविषा - अपने लिए अपनों के खिलाफ

- सुधा शुक्ला

'बांसगांव की मुनमुन' दयानंद पांडेय का नवीनतम उपन्यास है। बांसगांव पूरी बंसवारी की महक ले कर उपन्यास में उपस्थित हुआ है। जो बांस व्याह के मंडप में वंश वृद्धि के लिए गाड़ा जाता है, जो बांस परिवार के सिर पर छप्पर के रुप में उपस्थित रहता है, वही हाथ में आते ही 'लाठी' बन जाता है। बांस की समस्त उपयोगिताओं की भांति दयानंद का यह उपन्यास आरंभ से ही 'थ्री डाइमेंशन अप्रोच' ले कर चलता है। ग्रामीण समाज में शिक्षा और स्त्री शिक्षा को ले कर चलने वाला यह उपन्यास आज के ग्रामीण समाज के यथार्थ का आइना है। एक तरफ शिक्षा परिवार में प्रगति समृद्धि ले कर आती है वहीं कई ईर्ष्या-द्वेष का साधन भी बन जाती है। यह जानना ही काफी नहीं है जैसे। बांसगांव की मुनमुन का कथानक इसे पूरी तरह यथार्थ के धरातल पर ला कर पाठक के सम्मुख परोस देता है। स्त्री-शिक्षा के ग्रामीण परिवेश में कैसे आयाम उपस्थित हो रहे हैं, इस से अधिक समाज के दोमुंहेपन को लेखक ने उजागर किया है। जो शिक्षा लड़कों के लिए उन्नति-प्रगति और समृद्धि की राहें खोल देती है, वही शिक्षा लड़कियों के लिए 'कैसा और कितना स्पेस' समाज में बना पाती है? यह एक चुभता हुआ सवाल है। लेखक के इस प्रयास को वही पाठक पूर्णत: ग्रहण कर पाएगा जो स्वयं उस ग्रामीण परिवेश और उस के 'सामाजिक परपंच' से जुड़ा रहा हो या फिर उस का सामना हुआ हो। जब शिक्षा की डिग्री नायिका मुनमुन को शिक्षा मित्र की नौकरी दिलाती है, तब उस के अफ़सर भाइयों को कोई खास ऐतराज नहीं होता है। लेकिन जब वही शिक्षा मित्र की नौकरी उसे स्वावलंबन और 'अपनी ज़िंदगी अपनी शर्तों पर जीने की सोच दे देती है' तब सारे नाते-रिश्ते उस की सोच के खिलाफ आ खड़े होते हैं। सर झुका कर बिना जांचे परखे वर से ज़बरदस्ती की कर देते हैं जिस बहन की, इस बहन पर भाइयों का स्नेह उमड़ा पड़ता था। वही बहन जब ससुराल की नरक छोड़ हमेशा के लिए मायके में रहने का तय करती है तब वह पूरे परिवार की नाक कटवाने वाली दुशमन बन जाती है। यहां तक कि निराश्रित बहन के आसरे पर जीवन काटते माता-पिता भी उस बहन का साथ देने के कारण निकृष्ट हो जाते हैं। यह उपन्यास जहां एक तरफ शिक्षित लड़की की अस्मिता के संघर्ष को ले कर चलता है, वहीं छोटे शहर या ग्रामीण समाज की मानसिकता को भी उजागर करता चलता है। शहर में रहने वाले अफ़सर भाई हों या विदेश में रहने वाला, सब बहन की शादी में लाखों रुपए खर्च करने का जुगाड़ तो कर लेते हैं लेकिन बहन की इच्छा-अनिच्छा या फिर वर को देखने-समझने के लिए समय नहीं जुटा पाते हैं। लड़की की शादी कर गंगा स्नान करने वाली परंपरा की सोच अभी भी बची हुई है। चाहे वह गंगा कितनी भी प्रदूषित क्यों न हो गई हो।

दयानंद पांडेय के पूर्व उपन्यास राजनीति और मीडिया के अंतरंग जगत को उजागर करने वाले रहे हैं। पूर्व उपन्यासों के स्त्री पात्र पीड़ित, शोषित और भोग्या रुप में ही अधिकता से आते रहे हैं। स्त्री-संवेदना और आज की ग्रामीण लड़की का अपनी अस्मिता, अपने अस्तित्व का संघर्ष और विजयी होने वाली नायिका मु्नमुन का चरित्र उन के अन्य स्त्री पात्रों से बहुत अलग है। ग्रामीण परिवेश की हलचल, सामाजिक पारिवारिक ईर्ष्या-द्वेष, चालें-कुचालें और उस अंचल की विवशता में 'बझे' पात्रों का जितना अच्छा मनोवैग्यानिक विशलेषण दयानंद ने प्रस्तुत किया है, वह काफी समय की मांग करता है। लेकिन जिस तीव्र गति से वे हर साल लगभग दो किताबें प्रकाशित करवा रहे हैं वह प्रशंसनीय है।

उपन्यास भले ही मुनमुन के जीवन संघर्ष को साथ ले कर चलता है लेकिन उस के साथ ही गिरधारी राय, मुनक्का राय के जीवन, सोच और चालों की उठा-पटक को भी ले कर चलता है। उपन्यास के सभी पात्र 'ग्रे शेड' वाले हैं। न कोई पाशविक है, न कोई देवता। बल्कि उपन्यास पढ़ते समय उस के पात्रों से पाठक अपने आस-पास के पात्रों से जोड़ता चल सकता है। ग्रामीण परिवेश से निकल कर बड़े अफ़सर बने अनेक रमेश, धीरज हमारे समाज में आसानी से दिख जाते हैं। वहीं गिरधारी राय और मुनक्का राय जैसे चरित्र भी दुर्लभ नहीं हैं। गिरधारी राय भले ही ईर्ष्या-द्वेष के पुतले हों लेकिन मुनक्का राय भी उस से अछूते नहीं हैं। बड़े बेटे का करियर तबाह करा उनका वकालत करवाने का निर्णय हो, मुनमुन की शिक्षा मित्र की नौकरी हो या फिर गिरधारी राय की मृत्यु के समय श्मशान प्रसंग और अंत में मुनमुन के पी.सी.एस. में चयन के समय का स्वगत कथन हो। वहीं रमेश का चरित्र है जो पिता के एक आदेश पर अपना कैरियर खराब कर समाज-परिवार में उपेक्षित होता है। लेकिन जज बनते ही उसी माता पिता और बहन के लिए उस के पास न समय होता है, न धन। धीरज यानी 'निश्चित प्रसाद' 'अनिश्चित प्रसाद' जो शिक्षक की नौकरी में माता-पिता ही नहीं पूरे परिवार का पालन करता है। वह अंत में माता-पिता से फ़ोन पर भी बात तक नहीं करता, उन के पालन-पोषण, देख-भाल तो दूर की बात है। बैंकाक में रहने वाले भाई राहुल का चरित्र पूर्वांचल के भाइयों की मानसिकता का सही आकलन करता है। जो अच्छे दोस्त के साथ भी बहन के प्रेम को बर्दाश्त नहीं कर सकता है। बहन की जबरदस्ती की गई शादी में लाखों भर ही नहीं खर्चता बल्कि हंसी-मजाक कर शादी की रौनक में खोया रहता है। उसे अपनी बहन मुनमुन की ज़िंदगी और खुशी अपने थोथे सम्मान और खर्चे गए पैसे के मुकाबले कुछ नहीं लगती है। रमेश 'मेरे घर आई एक नन्हीं परी' गीत को सुन कर संवेदनशील तो होता है, यानी घर में नन्हीं परी तो अच्छी है लेकिन पंखों से उस का उड़ान भरना मना है। बैक ग्राउंड में रहने वाले चनाजोर गरम वाले तिवारी जी का चरित्र भारतीय समाज के उस पक्ष पर प्रकाश डालता है जो भले ही झंडा ले कर नहीं चलते लेकिन सच्चाई और अच्छाई का साथ देते हैं, देना चाहते हैं।

उपन्यास के अंत में आए नायिका के फुफेरे भाई दीपक के माध्यम से लेखक पूरे सामाजिक ताने-बाने के खोखलेपन को उधेड़ कर रख देता है। हर भाई जानता है कि उन की जल्दबाज़ी और गैर-ज़िम्मेदारी के कारण नायिका मुनमुन की शादी गलत घर में गलत व्यक्ति से हुई है, फिर भी हर कोई मुनमुन से उस पति और परिवार से 'एडजस्ट' करने की उम्मीद रखता है। जिस परिवार का मुखिया घनश्याम राय अपने लड़के राधेश्याम राय की नाकाबिलियत को मानते हुए भी मुनमुन की विदाई और नौकरी छुड़ाने की ज़िद पर अड़ा है। यहां तक कि बेटे के नाकारापन की जगह वह स्वयं 'भरने' को तैयार है और पूरी बेशर्मी से।

पूरे उपन्यास में दीपक के अलावा किसी को भी मुनमुन के जीवन की चिंता नहीं है। विशेष कर स्त्री पात्र, चाहे नायिका मुनमुन की बहनें हों या भाभियां। मुनमुन के पति के द्वारा बवाल काटने पर अड़ोस-पड़ोस की महिलाएं और चनाजोर गरम बेचने वाले तिवारी जी भले ही अपने गीतों से मुनमुन के साहस को संबल देते हैं, लेकिन परिवार की किसी भी महिला की संवेदना मुनमुन के पक्ष में नहीं है। नायिका मुनमुन की मां भी पशोपेश में रहती है। कभी बेटी की तरफ होती है, तो कभी बेटों की तरफ हो जाती है, तो कभी समधी को भला-बुरा कहती है, तो कभी मुनमुन से दूसरी शादी के लिए भी कहती है।

बांसगांव की मुनमुन उपन्यास का कहन इतना गठा हुआ है कि उपन्यास एक बैठक में पढ़ा जा सकता है। व्यंग्य का पैनापन शुरु से आखिर तक उपन्यास में बना रहा है। परित्यकता स्त्री के प्रति समाज के नज़रिए को उघारने में लेखक ने कोई संकोच नहीं किया है। मुनमुन की मां जब उस से एक जगह दूसरा विवाह कर लेने को कहती हैं तो मुनमुन मां से कहती है कि, 'साथ घूमने-सोने के लिए तो सभी तैयार रहते हैं हमेशा ! पर शादी के लिए कोई नहीं।' उस का यह संवाद उस की सारी दबंगई, उच्छृंखलता के खोल में छुपी स्त्री मानस की व्यथा को बखानता है। आशावादी अंत कहानी को पूर्णता दे कर स्त्री की अपनी शर्तों पर जीने की जिजीविषा को जगाए रखने में सफल रहता है। दरअसल अपने लिए अपनों के खिलाफ लड़ती हुई मुनमुन आज की भारतीय स्त्री का एक दारुण सच है।

समीक्ष्य पुस्तक:

बांसगांव की मुनमुन
पृष्ठ सं.176
मूल्य-300 रुपए

प्रकाशक
संस्कृति साहित्य
30/35-ए,शाप न.2, गली नंबर- 9, विश्वास नगर
दिल्ली- 110032
प्रकाशन वर्ष-2012

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