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1. एक औरत की जेल डायरी
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आत्म-कथ्य


पीड़ित की पैरवी:

कहानी या उपन्यास लिखना मेरे लिए सिर्फ़ लिखना नहीं, एक प्रतिबद्धता है। प्रतिबद्धता है पीड़ा को स्वर देने की। चाहे वह खुद की पीड़ा हो, किसी अन्य की पीड़ा हो या समूचे समाज की पीड़ा। यह पीड़ा कई बार हदें लांघती है तो मेरे लिखने में भी इसकी झलक, झलका (छाला) बन कर फूटती है। और इस झलके के फूटने की चीख़ चीत्कार में टूटती है। और मैं लिखता रहता हूं। इस लिए भी कि इस के सिवाय मैं कुछ और कर नहीं सकता। हां, यह जरूर हो सकता है कि यह लिखना ठीक वैसे ही हो जैसे कोई न्यायमूर्ति कोई छोटा या बड़ा फैसला लिखे और उस फैसले को मानना तो दूर उसकी कोई नोटिस भी न ले। और जो किसी तरह नोटिस ले भी ले तो उसे सिर्फ कभी कभार ‘कोट’ करने के लिए। तो कई बार मैं खुद से भी पूछता हूं कि जैसे न्यायपालिका के आदेश हमारे समाज, हमारी सत्ता में लगभग अप्रासंगिक होते हुए हाशिए से भी बाहर होते जा रहे हैं। ठीक वैसे ही इस हाहाकारी उपभोक्ता बाजार के समय में लिखना और उससे भी ज्यादा पढ़ना भी कहीं अप्रासंगिक हो कर कब का हाशिए से बाहर हो चुका है तो भाई साहब आप फिर भी लिख क्यों रहे हैं ? लिख क्यों रहे हैं क्यों क्या लिखते ही जा रहे हैं ! क्यों भई क्यों ? तो एक बेतुका सा जवाब भी खुद ही तलाशता हूं। कि जैसे न्यायपालिका बेल पालिका में तब्दील हो कर हत्यारों, बलात्कारियों, डकैतों और रिश्वतखोरों को जमानत देने के लिए आज जानी जाती है, इस अर्थ में उसकी प्रासंगिकता क्या जैसे यही उसका महत्वपूर्ण काम बन कर रह गया है तो कहानी या उपन्यास लिख कर खुद की, व्यक्ति की, समाज की पीड़ा को स्वर देने के लिए लिखना कैसे नहीं जरूरी और प्रासंगिक है? है और बिलकुल है। सो लिखता ही रहूंगा। तो यह लिखना भी पीड़ा को सिर्फ जमानत भर देना तो नहीं है ? यह एक दूसरा सवाल मैं अपने आप से फिर पूछता हूं। और जवाब पाता हूं कि शायद ! गरज यह कि लिख कर मैं पीड़ा को एक अर्थ में स्वर देता ही हूं दूसरे अर्थ में जमानत भी देता हूं। भले ही हिंदी जगत का वर्तमान परिदृश्य बतर्ज मृणाल पांडेय, ‘खुद ही लिख्या था, खुदै छपाये, खुदै उसी पर बोल्ये थे।’ पर टिक गया है। दरअसल सारे विमर्श यहीं पर आ कर फंस जाते हैं। फिर भी पीड़ा को स्वर देना बहुत जरूरी है। क्यों कि यही मेरी प्रतिबद्धता है।किसी भी रचना की प्रतिबद्धता हमेशा शोषितों के साथ होती है। मेरी रचना की भी होती है। तो मैं अपनी रचनाओं में पीड़ितों की पैरवी करता हूं। हालांकि मैं मानता हूं कि लेखक की कोई रचना फैसला नहीं होती और न ही कोई अदालती फैसला रचना। फिर भी लेखक की रचना किसी भी अदालती फैसले से बहुत बड़ी है और उसकी गूंज, उसकी सार्थकता सदियों में भी पुरानी नहीं पड़ती। यह सचाई है। सचाई यह भी है कि पीड़ा को जो स्वर नहीं दूंगा तो मर जाऊंगा। नहीं मर पाऊंगा तो आत्महत्या कर लूंगा। तो इस अचानक मरने या आत्महत्या से बचने के लिए पीड़ा को स्वर देना बहुत जरूरी है। यह स्वर देने के लिए लिखना आप चाहें तो इसे सेफ्टी वाल्ब भी कह सकते हैं मेरा, मेरे समाज का ! बावजूद इस सेफ्टी वाल्ब के झलके के फूटने की चीख़ की चीत्कार को मैं रोक नहीं पाता क्यों कि यह झलका तवे से जल कर नहीं जनमता, समयगत सचाइयों के जहर से पनपता है और जब तब फूटता ही रहता है। मैं क्या कोई भी नहीं रोक सकता इसे। इस लिखने को।


परिचय

















दयानंद पांडेय

कोई 12 उपन्यास , 10 कहानी-संग्रह समेत कविता , ग़ज़ल , संस्मरण , लेख , इंटरव्यू , सिनेमा सहित दयानंद पांडेय की विभिन्न विधाओं में 48 पुस्तकें प्रकाशित हैं। अपनी कहानियों और उपन्यासों के मार्फ़त लगातार चर्चा में रहने वाले दयानंद पांडेय का जन्म 30 जनवरी, 1958 को गोरखपुर ज़िले के एक गांव बैदौली में हुआ। हिंदी में एम.ए. करने के पहले ही से वह पत्रकारिता में आ गए। वर्ष 1978 से पत्रकारिता। सर्वोत्तम रीडर्स डाइजेस्ट , जनसत्ता , नई दिल्ली , स्वतंत्र भारत , नवभारत टाइम्स , राष्ट्रीय समाचार फीचर्स नेटवर्क तथा राष्ट्रीय सहारा लखनऊ और दिल्ली में विभिन्न पदों पर कार्यरत रहे दयानंद पांडेय के उपन्यास , कहानियों , कविताओं और ग़ज़लों का विभिन्न भाषाओँ में अनुवाद भी प्रकाशित हुआ है। लोक कवि अब गाते नहीं का भोजपुरी अनुवाद डा. ओम प्रकाश सिंह द्वारा प्रकाशित। बड़की दी का यक्ष प्रश्न , सुमि का स्पेस का अंगरेजी में, बर्फ़ में फंसी मछली का पंजाबी में और मन्ना जल्दी आना का उर्दू में अनुवाद प्रकाशित। कुछ कविताओं , ग़ज़लों और कहानियों का प्रिया जलतारे द्वारा मराठी में अनुवाद ।

सम्मान
उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा प्रतिष्ठित सम्मान क्रमशः लोहिया साहित्य सम्मान और साहित्य भूषण । उत्तर प्रदेश कर्मचारी संस्थान द्वारा साहित्य गौरव । लोक कवि अब गाते नहीं उपन्यास पर उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का प्रेमचंद सम्मान , कहानी संग्रह ‘एक जीनियस की विवादास्पद मौत’ पर यशपाल सम्मान तथा फ़ेसबुक में फंसे चेहरे पर सर्जना सम्मान कई अन्य सम्मान मिल चुके हैं ।

प्रकाशित पुस्तकें

उपन्यास
दयानंद पांडेय के तीन चर्चित उपन्यास , एक औरत की जेल डायरी , बांसगांव की मुनमुन, वे जो हारे हुए , हारमोनियम के हज़ार टुकड़े , लोक कवि अब गाते नहीं , अपने-अपने युद्ध , मैत्रेयी की मुश्किलें , मन्ना जल्दी आना , मुजरिम चांद , दरकते दरवाज़े , जाने-अनजाने पुल , लोक कवि अब गाते नहीं भोजपुरी में।

कहानी-संग्रह
ग्यारह प्रतिनिधि कहानियां , व्यवस्था पर चोट करती सात कहानियां , ग्यारह पारिवारिक कहानियां , सात प्रेम कहानियां , बर्फ़ में फंसी मछली , सुमि का स्पेस , एक जीनियस की विवादास्पद मौत , सुंदर लड़कियों वाला शहर , बड़की दी का यक्ष प्रश्न , संवाद (कहानी संग्रह) ,

कविता-संग्रह
प्रिया का जनकपुर , यह घूमने वाली औरतें जानती हैं [ कविता-संग्रह]

ग़ज़ल-संग्रह
मन यायावर है , मुहब्बत का जहांपनाह

संस्मरण
नीलकंठ विषपायी अम्मा , दीप्तमान द्वीप में सागर से रोमांस , हम पत्ता, तुम ओस , यादों का मधुबन

सिनेमा, साहित्य, संगीत और कला क्षेत्र के लोगों के इंटरव्यू
कुछ मुलाकातें , कुछ बातें

लेख-संग्रह
पैसा , औरत और अदालतों के फ़ैसले , , रचनाओं का रिसिया जाना , वैचारिकी से पलटी , मीडिया तो अब काले धन की गोद में

राजनीतिक लेखों का संग्रह
एक जनांदोलन के गर्भपात की त्रासदी

फ़िल्मी लेख और इंटरव्यू
सिनेमा-सिनेमा

बच्चों की कहानियां
सूरज का शिकारी

संपादन
प्रेमचंद व्यक्तित्व और रचना दृष्टि तथा पॉलिन कोलर की 'आई वाज़ हिटलर्स मेड' के हिंदी अनुवाद 'मैं हिटलर की दासी थी' का संपादन प्रकाशित

विशेष
कथा-लखनऊ के 14 खंड तथा कथा-गोरखपुर के 6 खंड का संपादन

अनुवाद
सुनील गावस्कर की प्रसिद्ध किताब ‘माई आइडल्स’ का हिंदी अनुवाद ‘मेरे प्रिय खिलाड़ी’











अन्य प्रकाशन :

दयानंद पांडेय का रचना संसार संपादक : अशोक मिश्र
दयानंद पांडेय का कथा संसार लेखिका - शन्नो अग्रवाल


सरोकारनामा ब्लाग
sarokarnama.blogspot.com


संपर्क :

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1 -

5/7, डालीबाग आफ़िसर्स कालोनी,
लखनऊ- 226001

तथा

2 -

टावर - 1 / 201 श्री राधा स्काई गार्डेंस
सेक्टर 16 बी , ग्रेटर नोएडा वेस्ट - 201306

मोबाइल 9335233424

dayanand.pandey@yahoo.com









उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा प्रेमचंद सम्मान से सम्मानित करते कन्हैयालाल नंदन साथ में सोम ठाकुर और उदय प्रताप सिंह

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