Tuesday, 1 March 2016

अलीगढ़ अकेलेपन की आग में भीगी विद्रोह की नदी

दयानंद पांडेय 


अभिनय की कविता और निर्देशन की पेंटिंग का कोलाज देखना हो तो अलीगढ़ देखिए। अविरल अभिनेता हैं मनोज वाजपेयी। अलीगढ़ उन के अभिनय की , उन के फिल्मोग्राफ़ी की सर्वोत्कृष्ट फ़िल्म है। मन जैसे भीग-भीग जाता है अलीगढ़ में उन का अभिनय देख कर । अलीगढ़ में उन के अभिनय की नदी इतने पड़ाव और इतने डाईमेंशंस लिए हुई है कि अंतत: वह एक नदी से जीवन की नदी में तब्दील होती जाती है । अलीगढ़ में प्रोफ़ेसर सिरस के अकेलेपन की नदी है यह । और इस में समाई औचक समलैंगिकता जैसे समाज से विद्रोह का एक पाठ है । ख़ामोश विद्रोह के पाठ की अविकल नदी है यह । अकेलेपन की आग में भीगी विद्रोह की नदी ।

एक वृद्ध प्रोफ़ेसर के अकेलेपन की यातना के पर्वत से फूटी यह नदी दिखने में बहुत शांत , बहुत मंथर और बहुत क्लांत दिखती है । लेकिन इस नदी के भीतर-भीतर शोर बहुत है । अकेलेपन का शोर , अपमान और उपेक्षा का शोर । यूनिवर्सिटी में चलने वाली प्राध्यापकीय राजनीति का शोर । दिल्ली से अलीगढ़ , अलीगढ़ से इलाहबाद , नागपुर तक का शोर । लेकिन यह भीतर-भीतर अपनी पूरी ताक़त से मुंह उठाने वाला शोर मनोज वाजपेयी के अभिनय में इतना आहिस्ता से दाखिल होता है , इतनी संजीदगी और इतनी शाइस्तगी से सिर उठाता है कि मन हिल जाता है । अकेलेपन की शांत नदी में जैसे बाढ़ आ जाती है । जिस पृथ्वी पर बहती है यह नदी उस पृथ्वी में भूकंप आ जाता है । जिस समुद्र से मिलने को आकुल है यह नदी उस समुद्र में सुनामी आ जाती है । अपने आप में रहने-जीने वाला यह आदमी प्रोफ़ेसर सिरस एक ख़बर बन जाता है । जलती हुई ख़बर । बहुत मंथर गति से बहती इस अकेली नदी के अकेलेपन में कई  सारे शोर , कई सारे लोग गुज़रने लगते हैं । लेकिन इस बासठ साल के  प्रोफ़ेसर  श्रीनिवास रामचंद्र  सिरस का अकेलापन और-और बढ़ जाता है । 

मराठी भाषी , मराठी पढ़ाने वाला यह भाषा विज्ञानी , लिंग्विस्टिक डिपार्टमेंट का चेयरमैन अपनी इस तकलीफ का बयान किसी भी भाषा में नहीं कर पाता । टूट-टूट जाता है । इस टूटन , इस संत्रास को ही मनोज वाजपेयी ने अपने अभिनय की आंच में बांचा है । इस बेकली और इस ताप के साथ बांचा है , इतने शेड्स और इतने पक्केपन से बांचा है कि हम औचक रह जाते हैं । मनोज वाजपेयी के अभिनय में जैसे एक नदी ही नहीं , एक संगीत भी बस जाता है । एक करुणा पसर जाती है । कभी कविता बन कर , कभी पेंटिंग बन कर । कालिदास की किसी कविता की तरह , पिकासो की किसी पेंटिंग की तरह । पंडित भीमसेन जोशी के किसी गायन की तरह । इतना कि भारतीय फिल्मों के सारे उत्कृष्ट अभिनेताओं में से बीन कर मनोज वाजपेयी को एक तरफ कर दीजिए और मनोज वाजपेयी को एक तरफ । एक मनोज वाजपेयी सब पर भारी हैं । अलीगढ़ के बाद भारतीय फिल्मों में मनोज वाजपेयी जैसा सर्वश्रेष्ठ अभिनेता अभी तक तो दूसरा कोई एक मेरी नज़र में नहीं है । 

बहुत पहले महेश भट्ट ने मुझ से बड़ी भावुकता के साथ मनोज वाजपेयी को इंगित करते हुए कहा था कि यह बहुत बड़ा एक्टर है ! मनोज वाजपेयी साथ ही बैठे हुए थे । यह 1997 की बात है । मुझे लगा कि महेश भट्ट यों ही फ़िल्मी दिखावे में कह रहे हैं । बहुत गौर नहीं किया था तब मैं ने महेश भट्ट की इस बात पर । तब के दिनों पूजा भट्ट की फ़िल्म तमन्ना ले कर वह लखनऊ एक प्रीमियर में आए थे । मैं ने तब पूजा भट्ट का इंटरव्यू किया था , महेश भट्ट का इंटरव्यू किया था । मनोज वाजपेयी बड़ी सरलता से मेरे पीछे पड़ गए और भोजपुरी में पड़ गए , ' भैया , एक गो हमरो इंटरव्यू कैS लS न ! लेकिन मेरी मति मारी गई थी ।  मैं ने तब उन्हें अनसुना किया । जब बहुत पीछे पड़े तब मैं  बड़ी विनम्रता से उन से कहा भोजपुरी में ही कि , ' तुहार काम त हम देखले नाहीं बाड़ीं , का इंटरव्यू करीं ? ' तो उन्हों ने एक सीरियल स्वाभिमान का नाम लिया । मैं ने कहा कि मैं सीरियल वगैरह नहीं देखता । फिर उन्हों ने बैंडिट क्वीन का नाम लिया । मैं ने कहा , वोमे कहां  बाड़S ? तो वह बिलकुल बच्चों की तरह बोले , मान सिंह हमहीं त हईं ! मैं ने उन के काम की तारीफ़ की पर जाने क्यों टाल गया । फिर जब शूल देखी , सत्या देखी , पिंजर , रोड और जुबेदा देखी  तब पछताया कि अरे यह तो  मुझ से पाप हो गया , अपराध हो गया ।  अक्स , गैंग्स आफ वासेपुर , तेवर जैसी उन की फ़िल्में आती गईं , मैं देखता गया और पछताता गया । माथा पीटता रहा अपनी मूर्खता पर । 

और अब अलीगढ़ । अलीगढ़ की नदी में  मैं बह गया हूं । बहता ही जा रहा हूं । सत्या का लाऊड भीखू मात्रे अपनी कुड़ी से सपने में मिलते-मिलते अलीगढ़ में एकदम शांत से रहने वाले प्रोफ़ेसर सिरस से मिल गया है । एक मनोविज्ञान को मथ कर एक ख़ामोश विद्रोह की नदी रच गया है । 

मराठी में कविताएं लिखने वाला , हिंदी में लता मंगेशकर को दीवानगी की हद तक सुनने वाला , अपने काम से काम रखने वाला प्रोफ़ेसर सिरस अपने अकेलेपन से ऊब कर एक युवा रिक्शे वाले को अपना मित्र बना लेता है । फ़िल्म में बस यहीं होमो सेक्सुवल्टी की छौंक लग जाती है । लेकिन फ़िल्म का सब्जेक्ट यह होमो सेक्सुवल्टी नहीं है , इस से उपजा विवाद है , इस का संत्रास और इस की फांस है । इस फांस को ही मनोज वाजपेयी का अभिनेता अपने अभिनय के अंगार में लपेट कर जलाता मिलता है । रुढ़ियों को , साज़िश को राख-राख करता हुआ । चुपचाप । बिना कहीं एक भी रत्ती लाऊड हुए । बिना चीख़-पुकार के । बिना किसी लफ़्फ़ाज़ी या बौद्धिक आडंबर के । बिना किसी कुतर्क के । इस सब को जलाता चलता है मनोज वाजपेयी के अभिनय का अंगार । कि कई बार तो राख भी नहीं मिलती । यह जो व्यक्तिगत जीवन में , निजता की शालीनता को उघाड़ता मीडिया नाम का एक चोर , एक दलाल , एक ब्लैक मेलर आ घुसा है हमारे समाज में इस फ़िल्म की आग उसे भी जलाती है । बेपर्दा करती है । उस की साक्षरता की शिनाख्त करती है । 


छोटे-छोटे सहज संवाद फ़िल्म को ताकतवर बनाते हैं । कथ्य को , अभिनय को आकाश देते हैं । अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में घटी एक सच्ची घटना पर आधारित इशानी बनर्जी की इस कहानी में बहती धार और तेवर को अपूर्वा असरानी की पटकथा और संवाद एक गुरुर , एक शान और रफ़्तार देती है। दृश्य और संवाद इतने कसे हुए हैं कि एक भी कामा , फुलस्टाप अनावश्यक नहीं लगता । अलीगढ़ में मेटाफर का इस्तेमाल इतनी बार , इतनी तरह से किया गया है कि कई बार अनकहा भी कहा हो जाता है । कुछ दृश्य तो मन में तसवीर की तरह टंग जाते हैं , टंगे रह गए हैं । ऐसे जैसे दीवार पर कोई तसवीर टंग गई हो । अलीगढ़ यूनिवर्सिटी प्रशासन ने प्रोफ़ेसर सिरस से हफ्ते भर की नोटिस पर घर खाली करवा लिया है । अब वह किसी मुहल्ले में किराए के घर में हैं । चारो तरफ सामान तितर-बितर पड़ा है । एक कुर्सी पर बैठ कर वह ड्रिंक ले रहे हैं । पसंदीदा लता मंगेशकर को सुनते हुए । अचानक उन के माथे पर कोई मच्छर काटता है ,  हथेली से माथे पर पीटते हैं , हाथ चला-चला कर पीटते हैं । गोया मच्छर नहीं , सिस्टम को पीट रहे हों और टूट रहे हों । लेकिन जल्दी ही उन की शोहरत पहुंच जाती है सो वह घर भी मकान मालिक खाली करवा लेता है । क्या तो वह फेमिली वाले नहीं हैं । बार-बार बताते हैं लाचारी और संकोच में डूब कर बताते हैं कि वह बैचलर नहीं हैं है फेमली है , बाहर है । पर वह मकान मालिक नहीं सुनता । अब वह एक दूसरे घर में शिफ्ट कर गए हैं । खिड़की , दरवाज़ा सब बंद कर ऐन दरवाज़े पर कुर्सी लगा कर पीठ टिका कर ऐसे बैठ जाते हैं गोया ख़ुद को किसी डर से सुरक्षित कर रहे हों । बिना किसी अतिशय नाटकीयता के । पूरी फ़िल्म गुज़र जाती है और नाटकीयता नहीं मिलती इस फ़िल्म में । सिर्फ़ जीवन मिलता है । वृद्ध जीवन में समाया एक सहज खुरदुरापन अपने पूरे ठाट में उपस्थित मिलता है । मनोज वाजपेयी के अभिनय का जो ठाट इस में अर्थ भरता है वह अनन्य है । 

मुकदमा शुरू हो गया है । इलाहाबाद बस से आना-जाना , थकान और नींद में ग़ाफ़िल दृश्य भी तनाव के तंबू को और विस्तृत करते हैं , फिल्म के फलक को बड़ा करते हैं । हाईकोर्ट में जिरह , बहस , आरोप , प्रत्यारोप से बेखबर वह सो रहे हैं भरी अदालत में । कि जैसे अब इस सब से कुछ लेना-देना ही नहीं रहा हो । वह बोटिंग करते हुए संगम के आसपास घूम रहे हैं दीपू नाम के पत्रकार के साथ जो उन की मिजाजपुर्सी में है । घर-परिवार के बारे में बतियाते हुए । गोया संबंधों में कोई संगम तलाश रहे हों । जो नहीं मिलता । वह खाना खा रहे हैं होटल में । दीपू कहता है , आप दाल नहीं ले रहे ? प्रोफ़ेसर सिरस कहते हैं , तुम ने छू दिया है , नॉनवेज ले रहे हो । हम ब्राह्मिन लोग हैं । बताइए कि प्रेम में छुआछूत गायब है , एक मुस्लिम युवक से संबंध के लिए सारी फ़ज़ीहत । लेकिन भोजन में वह संस्कार नहीं टूटा और छूटा है । सब्जी और शराब खरीदते , रिक्शे पर घूमते प्रोफ़ेसर सिरस के दो चार ही दृश्य हैं पर इतना जीवंत हैं , टटकेपन से इस कदर भरपूर हैं कि मनोज वाजपेयी के अभिनय में वह थकन , वह तनाव छटपटाता मिलता है । जल बिन किसी मछली की तरह । कई सारी और भी बातें हैं जो यह फ़िल्म एक अभिन्न छटपटाहट के साथ कहती जाती है । अकेडमिक छल प्रपंच और इस से झांकती नीचता भी सतह पर मिलती है । दीपू से बातचीत में एक जगह प्रोफेसर सिरस कहते हैं कि रिटायरमेंट के बाद वह अमरीका जा कर बसेंगे । यहां अब रहने लायक नहीं है । सोचिए कि तीन महीने में रिटायर हो जाने वाले प्रोफ़ेसर सिरस को किस कदर साजिशन बदनाम कर दिया जाता है । सस्पेंड कर दिया जाता है । बिना किसी जवाब के , बिना किसी जांच के । तो ऐसे में कौन नहीं टूट जाएगा ? मनोज वाजपेयी टूटन की इसी किरिच को , इसी टूटे दर्पण की चुभन को अपने अभिनय में दर्ज करते हैं । दोस्त बन कर लोग कैसे तो खंजर मारते हैं । एक प्रोफ़ेसर दोस्त बन कर वाइस चांसलर के नाम प्रोफ़ेसर सिरस से शर्मिंदगी भरा माफ़ीनामा लिखवा लेता है यह तर्क दे कर कि मामला ख़त्म करने के लिए यह ज़रूरी है । 


लेकिन बाद में हाईकोर्ट में उन के इस माफीनामे को उन की स्वीकारोक्ति के रुप में हथियार के तौर पर इस्तेमाल कर लिया जाता है । बाद में जब प्रोफ़ेसर सिरस उस दोस्त प्रोफ़ेसर के घर जा कर इस बाबत पूछते हैं तो वह बात ही करने को तैयार नहीं होता । पत्नी बताती है अचानक कि खाना तैयार है पर वह उसे इशारे से रोक देता है । भोजन तो दूर प्रोफ़ेसर सिरस से वह पानी के लिए भी नहीं पूछता और टरका देता है । एक बात और जो बिन कहे बड़ी तल्खी के साथ उभर कर आती है कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में एक हिंदू प्रोफ़ेसर किस कदर अल्पसंख्यक है , किस कदर अकेला है । लोग किराए पर उन्हें घर तक देने में मुश्किल खड़ी करते हैं । लोकल मीडिया उन के ख़िलाफ़ है । मिर्च मसाले के साथ । यूनिवर्सिटी का एक भी आदमी प्रोफ़ेसर सिरस के साथ नैतिक या व्यावहारिक तौर पर खड़ा नहीं मिलता । न ही शहर का कोई एक व्यक्ति । उन के साथ हैं लता मंगेशकर के गाए गीत । प्रोफ़ेसर सिरस जब पूरी तन्मयता से लता मंगेशकर को अपने एकांत में सुनते हैं , पूरे हाव-भाव और भावुकता के साथ तो देखते बनता है । उन का सारा तनाव जैसे विगलित हो जाता है लता के गाए गीतों में । शराब की चुस्कियां इस में इज़ाफ़ा भरती हैं । हां साथ खड़ा होता है तो दिल्ली के एक अख़बार इंडियन पोस्ट का एक पत्रकार दीपू । वह दिल्ली से आ कर उन को रिपोर्ट करता रहता है । अपनी व्यक्तिगत दिलचस्पी ले कर । उन से आत्मीयता बरतता है । बाइज़्ज़त बात करता है । जैसे सहारा बन जाता है प्रोफ़ेसर सिरस का । दिल्ली से ही होमो सेक्सुवल कम्युनिटी के लोग भी उन्हें संबल देते हैं । जो दिल्ली से आ कर उन की लड़ाई के लिए खड़े होते हैं । उन्हें क़ानूनी लड़ाई के लिए नैतिक और मनोविज्ञानिक रुप से तैयार करते हैं । बताते हैं लोग कि आप अकेले नहीं हैं । हम सब लोग साथ हैं । वह क़ानूनी मदद की पेशकश भी करते हैं । नहीं-नहीं करते हुए प्रोफ़ेसर सिरस किसी तरह क़ानूनी लड़ाई के लिए तैयार होते हैं । हाईकोर्ट में बतौर वकील आशीष विद्यार्थी का अभिनय भी गौर तलब है । अलीगढ़ यूनिवर्सिटी की तरफ से वकील बनी नूतन सूर्या भी अभिनय में आशीष विद्यार्थी से दबती नहीं हैं । दीपू की भूमिका में राजकुमार राव फिलर की तरह ही हैं । पर खल चरित्र शादाब कुरैशी की भूमिका में सुमन वैद्य का अभिनय अपने पूरे कमीनेपन के साथ उपस्थित हैं । निर्देशक हंसल मेहता की इस नायाब फिल्म में बस एक ही कसर बार-बार तोड़ती है । वह है सत्यराय नागपाल की सिनेमेटोग्राफी । काश कि हंसल मेहता ने थोड़ी मेहनत कैमरे और इस के तकनीकी पक्ष पर भी कर ली होती । ख़ैर । 

दीपू दिल्ली से चल कर आया है फ़ोटोग्राफ़र के साथ प्रोफ़ेसर सिरस से बात करने , उन की रिपोर्ट लिखने । वह अभी अपने परिचय में ही लगा है कि फ़ोटोग्राफ़र स्मार्ट बनते हुए फ़ोटो खींचने लगता है , फ़्लैश चमकाने लगता है । प्रोफ़ेसर सिरस भड़क जाते हैं । बरामदे से उठ कर भीतर कमरे में जाते हैं । छाता ले कर लौटते हैं । और पीटने दौड़ते हैं दीपू को यह कहते हुए , सर्कस बना दिया है मुझ को ! उन की यातना जैसे इस एक शब्द में समुद्र की तरह छलक पड़ती है । सर्कस ! यूनिवर्सिटी ने निलंबन के बाद हफ़्ते भर में घर ख़ाली करने की नोटिस दे कर बिजली भी काट दी है । वह घर ख़ाली कर ठेले पर अपना कुछ सामान ले कर निकल रहे हैं । कुछ जाहिल और साक्षर किस्म की मीडिया का झुंड टपक पड़ता है । प्रोफ़ेसर सिरस को अपने सामान के साथ जबरिया शिफ़्ट कर पूछने लगता है पत्रकार कि , ' आप को कैसा महसूस हो रहा है ? ' वह जैसे पिंड छुड़ाते हुए हंसते हुए बोलते हैं , जाने दो बाबा ! और चल देते हैं । दिल्ली में कुछ लोगों ने प्रोफ़ेसर सिरस के लिए एक गेट टुगेदर रखा है । पहुंचते हैं प्रोफ़ेसर सिरस पार्टी में जहां उन का स्वागत उन की ही कविता के अंगरेजी अनुवाद से होता है । वह हर्ष मिश्रित कौतुहल में पड़ जाते हैं । 

इलाहाबाद हाईकोर्ट से मुकदमा जीत गए हैं प्रोफ़ेसर सिरस।  किसी से बिन कुछ कहे वह जैसे निश्चिंत हो गए हैं । रात फुल वॉल्यूम में टी वी खोल कर सोते हैं । अपना परिचित कंबल ओढ़ कर । उन के सोने की मुद्रा , वह आहट बता देती है कि वह अब सुख की लंबी नींद लेने जा रहे हैं । एक फ़ोन से नींद टूटती है । फ़ोन दिल्ली से दीपू का है । वह बधाई दे रहा है मुकदमा जीतने का । टी वी की आवाज़ तेज़ है । कुछ स्पष्ट सुनाई नहीं देता । वह कहते हैं रुको ज़रा आवाज़ धीमी कर दूं टी वी की । बधाई ले लेते हैं और कहते हैं कि आदेश लेने भेजा है भांजे को इलाहाबाद । दीपू मिलने की बात करता है । प्रोफ़ेसर सिरस कहते हैं कल नहीं , परसों डिपार्टमेंट में ही मिलते हैं । फिर बताते हैं , नींद बहुत आ रही है । सो रहा हूं । सोने दो मुझ को । यह कह कर प्रोफ़ेसर सिरस जैसे विजेता की नींद सो जाते हैं । पता लग जाता है उन के इस सोने की अकुलाहट से कि अब वह फिर नहीं उठने वाले हैं । वह नहीं उठते हैं । उठाती है पुलिस उन की मृत देह । पोस्टमार्टम रिपोर्ट बताती है कि नींद की ज़्यादा गोलियां खा लेने से वह नहीं रहे । लेकिन फ़िल्म की अनकही इबारत में एक यह बात दर्ज होती मिलती है कि प्रोफ़ेसर सिरस एक विजेता की मौत मरे । अकेडमिक दुनिया के इस अंधेरे में जाने कितने प्रोफ़ेसर सिरस बेनाम और हारे हुए मरे होंगे । पर अलीगढ़ के प्रोफ़ेसर सिरस को ख़बरों वाली मौत , विजेता वाली मौत नसीब होती है । 

फ़िल्म के शुरु में दीपू उन से इंटरव्यू कर रहा है । अनौपचारिक । वह ऊब गए हैं घात-प्रतिघात से । बात कविता की चल पड़ी  है । प्रोफ़ेसर सिरस की कविताएं मराठी में हैं । वह अपना कविता संग्रह भेंट देते हैं । भाषागत विवशता की बात आई है । तो प्रोफ़ेसर सिरस इतनी सरलता और इतनी सहजता से धीरे से मुसकुराते हुए कहते हैं , कविता शब्दों में कहां होती है ? जो इस संवाद का ही सहारा ले कर कहूं कि अभिनय , अभिनय में कहां होता है ? प्रोफ़ेसर सिरस के व्यक्ति का अनुवाद मनोज वाजपेयी के अभिनय में लेकिन हो गया है । उन के व्यक्तित्व का , टूटन , जद्दोजहद , संघर्ष और उन के अकेलेपन का अनुवाद । सच इस अलीगढ़ में मनोज वाजपेयी का अभिनय शब्दों के पार है । अनिर्वचनीय है ।चुनौती है यह फ़िल्म ख़ुद मनोज वाजपेयी के लिए भी । अपनी फ़िल्मोग्राफ़ी में वह शायद ही अपने अभिनय के इस आकाश को दुबारा छू सकें । शायद ही वह दुबारा दुहरा सकें अपने अभिनय की इस श्रेष्ठता को । 

मनोज वाजपेयी बाबू हमरो बधाई ले लS ! ख़ूब-ख़ूब बधाई और ख़ूब बड़का वाला सैल्यूट ! कबो अईह लखनऊ त बतइह भेंट करब और लेब तुहार इंटरव्यू ! खूब नीक इंटरव्यू । जवने से जिनगी में कवनो मलाल न रहे । 



 

2 comments:

  1. behad darshnik andaaz mein review ke liye sadhuwad ! aap kalam ke asli sipahi hain.

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  2. Maine n jane kitne is type k review padhe.lekin aaj is review ko padh kar jo ehsaa hua,dil pe ek amit chhap chorti hai.
    Is k likhne me shabdo k sagar se kuch shabd chunkar jis prakar piroya gya hai ye man k atal gahraio me le jata hai.ye lekh khud me ek ehsas hai.vakai khubsurat hai.prasansniye hai.
    Aakash bhar subhkamnaye....

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