Saturday, 12 March 2016

संसद मीडिया अदालत अफ़सर सब सज धज कर तैयार खड़े हैं



ग़ज़ल 
  
कुछ बिक गए कुछ बाक़ी हैं पर बिकने को सारे होशियार खड़े हैं 
संसद मीडिया अदालत अफ़सर सब सज धज कर तैयार खड़े हैं

जंगल नदी समंदर धरती बेच चुके जाने किस मुगालते में हैं आप 
आप खरीदिए राष्ट्रपति भवन यह रजिस्ट्री करने को तैयार खड़े हैं  

लालीपाप आश्वासन का बांट बांट कर ज़न्नत में वह दिन काट रहे
आप का टिकट जहन्नुम का है क्यों जन्नत ख़ातिर बेकरार खड़े हैं 

ठाट बाट से रहते हैं तो आंख बंद सो  मुश्किल कभी नहीं दिखती
पांचों अंगुली घी में लेकिन सिर कड़ाही में तलने को तैयार खड़े हैं  
 
आप बहुत फ़ुर्सत में दिखते अच्छा दलाल हैं फिर तो आप की चांदी 
हम किसान हैं भगवान भरोसे रहने के आदी इसी लिए हैरान खड़े हैं

घुल मिल कर घाव कर रहे देश में आग लगा वह सुख सारा ताप रहे
कुत्ता बन फंडिंग चाट कर बहुत इत्मिनान से यह सारे बेईमान खड़े हैं 

आत्म मुग्धता भी बहुत बेशर्म होती है बेच खाती है यह तो बड़े बड़ों को 
कोई इन को यश दिला दे व्याकुल भारत बन कर बहुत परेशान खड़े हैं 


[ 13 मार्च , 2016 ]


2 comments:

  1. आपकी प्रत्येक रचना की प्रशंसक हूं । निवेदन है जनाब इमरान प्रतापगढ़ी पर भी कुछ लिखें आजकल YouTube पर मुशायरे में उनकी नज्में, मिसरे बहुत देखे जा रहें हैं।

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  2. सार्थक व प्रशंसनीय रचना...
    मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका स्वागत है।

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