Wednesday, 16 March 2016

हम बहुत रश्क से जावेद अख्तर अनुपम खेर देखते हैं



ग़ज़ल

बदलती दुनिया में कभी अंधेर तो कभी सबेर देखते हैं
हम बहुत रश्क से जावेद अख्तर अनुपम खेर देखते हैं

वह फ़िल्मी हो कर भी ज़मीन भावना और सच देखते हैं
लेकिन यह लेखक हैं आकाश नफ़रत और छल देखते हैं

असहिष्णुता अफजल कन्हैया ओवैसी आते जाते रहते
लेकिन हमारे लेखक अपने ही कुतर्क का ढेर देखते हैं

अजब है यह संकट भी वह अपने से हर असहमत में
वैचारिकी का चश्मा लगा संघी होने का फ़रेब देखते हैं

इन की शब्दावली में एक शब्द फासिस्ट भी आता है
अपने ड्राइंगरूम में बैठ अफजल को शहीद देखते हैं

कोई इन को पढ़ता नहीं है यह ख़ुद को पढ़ते रहते हैं
नफ़रत  की गोद में बैठ यह तो झूठ की रेल देखते हैं 

जहाज में बैठ कर यह क्रांति का सुनहरा सपना दिखाते
भूल जाते हैं जीवन हरदम हिप्पोक्रेसी की जेल देखते हैं

मुस्लिम दलित में जहर भर उन से यारी करते कराते 
एनजीओ संगठनों के चंदे से भरी अपनी जेब देखते हैं

समय कभी सदा एक सा नहीं रहता बदलता रहता है
दुःख हो सुख हो सब गुज़र जाता महात्मा बुद्ध कहते हैं

[ 16 मार्च , २०१६ ]

2 comments:

  1. सुन्दर व सार्थक रचना प्रस्तुतिकरण के लिए आभार!

    मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका स्वागत है...

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (18-03-2016) को "दुनिया चमक-दमक की" (चर्चाअंक - 2285) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ

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