फ़ोटो : शायक आलोक |
ग़ज़ल / दयानंद पांडेय
संसद बुरी अदालत बुरी और अब सेना भी उन्हें बहुत बुरी लगती है
जाने कौन सी बीमारी लग गई है उन को हर एक बात बुरी लगती है
चिढ़े हुए हैं इस कदर कि उन को बाग़ में बुलबुल का गाना भी नहीं भाता
सूरज से भी नफ़रत है रात का चांद भी जहर लगता चांदनी बुरी लगती है
सपने में भी वह चुप नहीं रहते चिल्लाते रहते हैं हरदम कि जैसे पागल
अपने घर में भी उन को सांप्रदायिकता की एक तलवार खड़ी दिखती है
विरोध ज़रुरी है व्यवस्था का रोका किस ने पर कठपुतली हो गए हैं
अब वह ख़ुद के ख़िलाफ़ खड़े हैं इस कदर कि मां भी बुरी लगती है
बहुत सेलेक्टिव हैं सो विरोध भी चुन कर करते हैं ब्रांडिंग में माहिर हैं
हवा को भी वह बांध लेना चाहते हैं हवा भी उन को लाल हरी लगती है
सेक्यूलरिज़्म के जाल में जो आए लपेट लेते हैं बख्शते नहीं किसी को
जो भी बात देश के ख़िलाफ़ जाती उन को वह बात बहुत भली लगती है
संस्कृत संत मंदिर नदी यह धरती भी उन के विरोध के एजेंडे में है शामिल
मनुष्यता से उन को चिढ़ बहुत उन की हर बात में कुतर्क की नदी बहती है
[ 12 मार्च , 2016 ]
वर्तमान परिस्थियों का चित्रण करती उम्दा ग़ज़ल
ReplyDeleteविरोध ज़रुरी है व्यवस्था का रोका किस ने पर कठपुतली हो गए हैं
अब वह ख़ुद के ख़िलाफ़ खड़े हैं इस कदर कि मां भी बुरी लगती है
बहुत सेलेक्टिव हैं सो विरोध भी चुन कर करते हैं ब्रांडिंग में माहिर हैं
हवा को भी वह बांध लेना चाहते हैं हवा भी उन को लाल हरी लगती है
जैसी अपनी भावनाएं वैसा सारा संसार लगता है ..
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति ..