फ़ोटो : विनोद शर्मा |
ग़ज़ल / दयानंद पांडेय
महत्वाकांक्षा इतनी बढ़ गईं कि देश को तमाशा बना दिया
सेक्यूलरिज़्म के शौक ने उन्हें पामेरियन कुत्ता बना दिया
आज़ादी लगता है कुछ ज़्यादा मांग ली देशद्रोही नारे लगा
इतना लगा दिया कि सिस्टम ने उन को तोतला बना दिया
प्राथमिकतायें बदली हैं बेतरह चीज़ें भी उलट पुलट हो गईं
क्रांतिकारी इस कदर हो गए वह घर का दिया बुझा दिया
मनबढ़ होना उन को ले डूबा बहुत बिन पानी की नदी में
रेत में सिर दिए पड़े हैं पर कड़ी धूप ने सनकी बना दिया
भाषाओं के इस झगड़े में आंगन जैसे कोई समंदर हो गया
खारापन इतना बढ़ा कि ख़ुद को पूरा नकचढ़ा बना लिया
कुतर्क जैसे बिजली का नंगा तार है दोस्ती में भी मारता है
लेकिन उन के गले ऐसे पड़ा है देश को गुस्सा दिला दिया
डिप्लोमेसी भी काम नहीं आई न रास आया वह कोलाहल
लोग खड़े हुए ख़िलाफ़ इतना कि भारी जनमत बना दिया
[ 15 मार्च , 2016 ]
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