फ़ोटो : गौतम चटर्जी |
ग़ज़ल / दयानंद पांडेय
दुनिया बन गई है हथियार की बड़ी मंडी यह तू तू मैं मैं में उलझे हैं
ग्लोब्लाइज हो गए हैं बच्चे लेकिन यह लोग तो मनुस्मृति में उलझे हैं
तौलने के यह औजार भोथरे हो गए हैं पैमाने सारे इधर उधर हो गए
दुनिया हो गई अब दो क़दम की यह वामपंथ दक्षिणपंथ में उलझे हैं
सपने में भी वह विपन्न हैं विचार में भी दकियानूस लेकिन मानते कहां
अपनी सनक में हर किसी को मूर्ख समझने की बुद्धिमानी में उलझे हैं
यह वामी कह गरियाते रहते हैं तो वह संघी बता मुंह फुलाते रहते हैं
किसानों की हत्या होती रोज रोज लेकिन यह आत्महत्या में उलझे हैं
एक तरफ से आतंक डराता रहता दूसरी तरफ बेरोजगारी चिढ़ाती है
यह देशद्रोह देशभक्ति आज़ादी की मुकाबला कव्वाली में उलझे हैं
रोटी मंहगी होती जाती दिन ब दिन दाल सब्जी थाली में सपना सरीखा
लेकिन यह अफजल के समर्थन और विरोध की लफ्फाजी में उलझे हैं
संघर्ष लड़ाई और बदलाव के रास्ते और इन की लफ्फाजी के और
जाति मज़हब की दुकानदारी बड़ी है इसी मौकापरस्ती में उलझे हैं
कार्पोरेट आवारा पूंजी से बढ़ती जाती लड़ाई खाई बढ़ती ही जाती है
यह कुतर्क के मारे नक्सल और इशरत की नूरा कुश्ती में उलझे हैं
[ 14 मार्च , 2016 ]
सटीक चित्रण
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