अभी के दिनों तो वह लाफ़्टर चैलेंज या कामेडी सर्कस जैसे कार्यक्रमों में वह बात बेबात ठहाके लगाती बतौर जज दिखती रहती हैं चैनलों पर। पर एक समय ‘वाह क्या सीन है!’ ‘जुनून’ तथा ‘श्रीमान-श्रीमती’ धारावाहिकों से प्रसिद्वि पाने वाली सुपरिचित अभिनेत्री अर्चना पूरन सिंह ‘राजा हिन्दुस्तानी’ फ़िल्म में भी अपने अभिनय से चर्चा में रही थीं। उन्हें तब फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार के लिए नामनी भी बनाया गया था। अर्चना काफी चूजी हैं और बहुत गिनी-चुनी फ़िल्में और धारावाहिक करती हैं। पर वह मानती भी हैं कि ‘मैं बहुत एंबिशेस नहीं हूं। ज़्यादा काम करती, ज़्यादा पैसा कमाती, पर परिवार पर ध्यान देना मेरे लिए ज़्यादा ज़रूरी है। स्त्री होने के नाते भी।’ परदे पर अकसर ग्लैमरस भूमिकाएं करने वाली अर्चना पूरन सिंह के मन में इन दिनों गरीबों के लिए कुछ करने की भी छटपटाहट लगातर दिखती है। देहरादून की मूल निवासी अर्चना पूरन सिंह शुद्व शाकाहारी हैं, लेकिन किचन में अपनी भूमिका वह बिलकुल नहीं पातीं। वह मानती हैं कि अगर आप को दो वक्त का खाना बनाना हो तो आप कुछ और काम नहीं कर सकते। औरतों के विकास में वह सब से बड़ी बाधा खाना बनाने को ही बताती हैं। पेश है अर्चना पूरन सिंह से बेबाक बातचीतः
-एक दशक से भी ज्य़ादा समय से फ़िल्मों में रहने के बावजूद आप के पास एक दर्जन फ़िल्मों का भी ग्राफ नहीं है। धारावाहिक भी आप के पास गिने-चुने ही हैं?
-फ़िल्में मैं ने काफी पहले छोड़ दी थीं। तो भी दस फ़िल्में की हैं, लेकिन अब फिर फ़िल्में करने लगी हूं। राजा हिंदुस्तानी मेरी नई फ़िल्म है। अब मैं ने तय किया है कि अच्छी या बड़ी साल में सिर्फ़ एक ही फ़िल्म करूंगी। मेरा मानना है कि कम काम लेकिन अच्छा काम करूं। अब देखिए कि एक एक्टर कई- कई धारावाहिकों में काम करता जा रहा है। आप टी.वी. आन कीजिए तो हर सीजन में एक ही जैसा चेहरा दिखेगा। मेरे साथ ऐसा नहीं है। मेरा हर करेक्टर डिफ़रेंट है। दूसरे मेरा मोटो पैसा कमाना ही नहीं है। मेरा गोल पैसा नहीं है। सब को अच्छी एवं कंफ़र्टेबिल लाइफ़ अच्छी लगती है। मुझे भी। पर मैं चाहती हूं कि सिर उठा कर जी सकूं। मेरा परिवार है। पति-बेटा है। उन को मेरी ज़रूरत है। बेटे के लिए भी ज़्यादा समय चाहिए। इस लिए भी कम काम करती हूं।
-आप की एक्टिंग से दोस्ती कैसे हुई? आप जिस तरह की ग्लैमरस भूमिकाएं जीती हैं, जुनून जैसे निगेटिव एप्रोच धारावाहिकों में काम करती हैं, बल्कि कहूं कि आप के धारावाहिकों या फ़िल्मों में स्त्री की जो निगेटिव छवि पेश की जा रही है, क्या स्त्री सचमुच इतनी निगेटिव है?
-आफ़कोर्स। क्या स्त्री मर्डर नहीं कर सकती? चोर नहीं हो सकती? तो यही सब हम दिखा भी रहे हैं तो बुरा क्या है।
-पर औरतें तो पुरुषों को बेवकूफ बना ही रही हैं ?
-आप को आज पता चला कि औरतें पुरुषों को बेवकूफ बनाती हैं। हर पुरुष की इच्छा होती है कि अगर यह बीवी होती तो अच्छा होता। पर सच यह है कि वह मिल जाए, उस की बीवी हो जाए तो उसे अच्छा नहीं लगेगा। फिर भी मैं मानती हूं कि लाइनबाजी आसान है, मर्डर नहीं। अब यह बहस भी बेकार ही है कि सिनेमा की वजह से लाइफ़, कि लाइफ़ की वज़ह से सिनेमा? इस का कोई उत्तर नहीं दे सकता। यह सवाल वैसे ही है कि पहले मुर्गी कि अंडा?
-आप इतने कम सीरियल सिनेमा करती हैं, इस से बंबई में गुज़ारा चल जाता है?
-हां, चल जाता है। एक ही सीरीयल में आप अच्छा पैसा मांग लीजिए। लोग दे देते हैं? जैसे हर सब्जी में आलू पड़ता है, मैं वैसी नहीं हूं। आलू की तरह मैं हर सीरियल में नहीं होती। तो अच्छे पैसे मुझे मिल जाते हैं।
-आप अगर अभिनेत्री न होतीं तो?
-तो मैं टीचर होती। अंग्रेजी या इतिहास की।
-अगले जन्म में?
-इस जन्म में जो सोचा है वही नहीं कर पा रही हूं।
-क्या सोचा है?
-गरीबों और बच्चों के लिए अनाथालय खोलना चाहती हूं।
-दिक्कत क्या है?
-वक्त और पैसे की दिक्कत है। एटलिस्ट 10-15 लाख तो लगेगा ही। असल में वह अनाथालय नहीं, घर होगा। एक-एक बच्चे की एक-एक आदमी देखभाल करेगा। देहरादून के मेरे गांव दूधली नागल ज्वालापुर में पहले से ही मेरे पिता ने एक स्कूल खोल रखा है। उसमें 35० बच्चे पढ़ते हैं। इस स्कूल में सारी सुविधाएं हैं और गांव के तमाम गरीब बच्चे मुफ्त में पढ़ते हैं। मेरे पिता वकील थे। उन्हों ने अपनी सारी कमाई इस स्कूल में लगा दी। यह देहरादून से 40 कि.मी. राजाजी नेशनल पार्क के पास है। मैं भी अनाथालय खोलूंगी यह पक्का है। साल दो साल लग सकते हैं।
-आप की हॉबी क्या है?
-पढऩा। बेस्ट सेलिंग नावेल। वैसे मैं किसी भी तरह की पुस्तक पढ़ कर खुश हो सकती हूं।
-खाना भी बनाती हैं?
-बिलकुल नहीं। खाने का शौक है, बनाने का नहीं। हर कोई खाना नहीं बना सकता। हर कोई एक्टिंग नहीं कर सकता। मैं स्वेटर बुन लेती हूं, एम्ब्रायडरी कर लेती हूं, सिलाई- कढ़ाई, पेटिंग सब। टेलीफ़ोन खराब हो तो वो भी बना लेती हूं। पर खाना नहीं। आप मुझ से पहाड़ तुड़वा लीजिए पर खाना मत बनवाइए। कितनी सारी औरतें हैं जो सिर्फ़ खाना ही बना सकती हैं, कुछ और नहीं। वैसे सारी दुनिया में सब से अच्छा कुक पुरुष ही माना गया है। ढाबा, रेस्टोरेंट, फ़ाइव स्टार आप कहीं भी जाइए कोई लड़की खाना बनाते नहीं मिलेगी। हर जगह पुरुष हैं। और इन पुरुषों का बनाया खाना खाने के लिए लोग इतने पैसे दे कर जाते हैं। सिर्फ़ घर में ही औरतें खाना बनाती हैं, लेकिन मेरी जैसी औरतें घर में भी नहीं बनाती। इंदिरा गांधी, भण्डारनायके, श्रीदेवी और माधुरी दीक्षित जैसी महिलाएं किचन में खाना बनाती होतीं तो इस रूप में हमारे सामने नहीं आतीं।
-तो आप मानती हैं कि खाना बनाना औरतों के विकास में बाधा है?
-बिलकुल। अगर आप को रोज दो वक्त का खाना बनाना हो तो कुछ और काम आप नहीं कर सकते। कम से कम कोई क्रिएटिव काम। यह खाना बनाना आप को खा जाएगा। मैं यह भी नहीं कहती हूं कि यह गलत है या सही है। पर हर औरत के लिए सही नहीं है। आप हाउस वाईफ हैं तो भी नहीं। हालां कि मैं भी खाना बनाना जानती हूं पर बनाती नहीं हूं।
-तो क्या आप के पति परमीत सेठी खाना बनाते हैं ?
-कुक आता है, एक दायी भी है। आप कुएं से पानी रोज ले सकते हैं। पर क्यों जाएं? मैं सीढ़ियां चढ़ सकती हूं, पर अगर लिफ्ट है तो सीढ़ियां क्यों चढूं? कपड़ा धो सकती हूं पर वाशिंग मशीन है तो क्यों धोऊं? तो मैं खाना भी बना सकती हूं, पर कुक है तो क्यों बनाऊं।
[१९९६ में लिया गया इंटरव्यू]
-एक दशक से भी ज्य़ादा समय से फ़िल्मों में रहने के बावजूद आप के पास एक दर्जन फ़िल्मों का भी ग्राफ नहीं है। धारावाहिक भी आप के पास गिने-चुने ही हैं?
-फ़िल्में मैं ने काफी पहले छोड़ दी थीं। तो भी दस फ़िल्में की हैं, लेकिन अब फिर फ़िल्में करने लगी हूं। राजा हिंदुस्तानी मेरी नई फ़िल्म है। अब मैं ने तय किया है कि अच्छी या बड़ी साल में सिर्फ़ एक ही फ़िल्म करूंगी। मेरा मानना है कि कम काम लेकिन अच्छा काम करूं। अब देखिए कि एक एक्टर कई- कई धारावाहिकों में काम करता जा रहा है। आप टी.वी. आन कीजिए तो हर सीजन में एक ही जैसा चेहरा दिखेगा। मेरे साथ ऐसा नहीं है। मेरा हर करेक्टर डिफ़रेंट है। दूसरे मेरा मोटो पैसा कमाना ही नहीं है। मेरा गोल पैसा नहीं है। सब को अच्छी एवं कंफ़र्टेबिल लाइफ़ अच्छी लगती है। मुझे भी। पर मैं चाहती हूं कि सिर उठा कर जी सकूं। मेरा परिवार है। पति-बेटा है। उन को मेरी ज़रूरत है। बेटे के लिए भी ज़्यादा समय चाहिए। इस लिए भी कम काम करती हूं।
-आप की एक्टिंग से दोस्ती कैसे हुई? आप जिस तरह की ग्लैमरस भूमिकाएं जीती हैं, जुनून जैसे निगेटिव एप्रोच धारावाहिकों में काम करती हैं, बल्कि कहूं कि आप के धारावाहिकों या फ़िल्मों में स्त्री की जो निगेटिव छवि पेश की जा रही है, क्या स्त्री सचमुच इतनी निगेटिव है?
-आफ़कोर्स। क्या स्त्री मर्डर नहीं कर सकती? चोर नहीं हो सकती? तो यही सब हम दिखा भी रहे हैं तो बुरा क्या है।
-पर औरतें तो पुरुषों को बेवकूफ बना ही रही हैं ?
-आप को आज पता चला कि औरतें पुरुषों को बेवकूफ बनाती हैं। हर पुरुष की इच्छा होती है कि अगर यह बीवी होती तो अच्छा होता। पर सच यह है कि वह मिल जाए, उस की बीवी हो जाए तो उसे अच्छा नहीं लगेगा। फिर भी मैं मानती हूं कि लाइनबाजी आसान है, मर्डर नहीं। अब यह बहस भी बेकार ही है कि सिनेमा की वजह से लाइफ़, कि लाइफ़ की वज़ह से सिनेमा? इस का कोई उत्तर नहीं दे सकता। यह सवाल वैसे ही है कि पहले मुर्गी कि अंडा?
-आप इतने कम सीरियल सिनेमा करती हैं, इस से बंबई में गुज़ारा चल जाता है?
-हां, चल जाता है। एक ही सीरीयल में आप अच्छा पैसा मांग लीजिए। लोग दे देते हैं? जैसे हर सब्जी में आलू पड़ता है, मैं वैसी नहीं हूं। आलू की तरह मैं हर सीरियल में नहीं होती। तो अच्छे पैसे मुझे मिल जाते हैं।
-आप अगर अभिनेत्री न होतीं तो?
-तो मैं टीचर होती। अंग्रेजी या इतिहास की।
-अगले जन्म में?
-इस जन्म में जो सोचा है वही नहीं कर पा रही हूं।
-क्या सोचा है?
-गरीबों और बच्चों के लिए अनाथालय खोलना चाहती हूं।
-दिक्कत क्या है?
-वक्त और पैसे की दिक्कत है। एटलिस्ट 10-15 लाख तो लगेगा ही। असल में वह अनाथालय नहीं, घर होगा। एक-एक बच्चे की एक-एक आदमी देखभाल करेगा। देहरादून के मेरे गांव दूधली नागल ज्वालापुर में पहले से ही मेरे पिता ने एक स्कूल खोल रखा है। उसमें 35० बच्चे पढ़ते हैं। इस स्कूल में सारी सुविधाएं हैं और गांव के तमाम गरीब बच्चे मुफ्त में पढ़ते हैं। मेरे पिता वकील थे। उन्हों ने अपनी सारी कमाई इस स्कूल में लगा दी। यह देहरादून से 40 कि.मी. राजाजी नेशनल पार्क के पास है। मैं भी अनाथालय खोलूंगी यह पक्का है। साल दो साल लग सकते हैं।
-आप की हॉबी क्या है?
-पढऩा। बेस्ट सेलिंग नावेल। वैसे मैं किसी भी तरह की पुस्तक पढ़ कर खुश हो सकती हूं।
-खाना भी बनाती हैं?
-बिलकुल नहीं। खाने का शौक है, बनाने का नहीं। हर कोई खाना नहीं बना सकता। हर कोई एक्टिंग नहीं कर सकता। मैं स्वेटर बुन लेती हूं, एम्ब्रायडरी कर लेती हूं, सिलाई- कढ़ाई, पेटिंग सब। टेलीफ़ोन खराब हो तो वो भी बना लेती हूं। पर खाना नहीं। आप मुझ से पहाड़ तुड़वा लीजिए पर खाना मत बनवाइए। कितनी सारी औरतें हैं जो सिर्फ़ खाना ही बना सकती हैं, कुछ और नहीं। वैसे सारी दुनिया में सब से अच्छा कुक पुरुष ही माना गया है। ढाबा, रेस्टोरेंट, फ़ाइव स्टार आप कहीं भी जाइए कोई लड़की खाना बनाते नहीं मिलेगी। हर जगह पुरुष हैं। और इन पुरुषों का बनाया खाना खाने के लिए लोग इतने पैसे दे कर जाते हैं। सिर्फ़ घर में ही औरतें खाना बनाती हैं, लेकिन मेरी जैसी औरतें घर में भी नहीं बनाती। इंदिरा गांधी, भण्डारनायके, श्रीदेवी और माधुरी दीक्षित जैसी महिलाएं किचन में खाना बनाती होतीं तो इस रूप में हमारे सामने नहीं आतीं।
-तो आप मानती हैं कि खाना बनाना औरतों के विकास में बाधा है?
-बिलकुल। अगर आप को रोज दो वक्त का खाना बनाना हो तो कुछ और काम आप नहीं कर सकते। कम से कम कोई क्रिएटिव काम। यह खाना बनाना आप को खा जाएगा। मैं यह भी नहीं कहती हूं कि यह गलत है या सही है। पर हर औरत के लिए सही नहीं है। आप हाउस वाईफ हैं तो भी नहीं। हालां कि मैं भी खाना बनाना जानती हूं पर बनाती नहीं हूं।
-तो क्या आप के पति परमीत सेठी खाना बनाते हैं ?
-कुक आता है, एक दायी भी है। आप कुएं से पानी रोज ले सकते हैं। पर क्यों जाएं? मैं सीढ़ियां चढ़ सकती हूं, पर अगर लिफ्ट है तो सीढ़ियां क्यों चढूं? कपड़ा धो सकती हूं पर वाशिंग मशीन है तो क्यों धोऊं? तो मैं खाना भी बना सकती हूं, पर कुक है तो क्यों बनाऊं।
[१९९६ में लिया गया इंटरव्यू]
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