दयानंद पांडेय
-लेखक का उत्तरदायित्व समाज के प्रति है क्यों कि वह समाज से अपनी सुरक्षा चाहता है। ऐसी हालत में समाज अरक्षित है, तो लेखक भी अरक्षित है। क्यों कि हम समस्त सुविधाएं समाज के माध्यम से पा सकते हैं।
दूसरे लेखक की ज़िम्मेदारी अपने पाठकों के प्रति भी है क्यों कि पाठक कोई भी कलाकृति-कविता, उपन्यास, कहानी या कुछ और ही सही। जब पढ़ता है तो अपने मनोरंजन के लिए पढ़ता है और कृतियों को खरीदता है। अगर उस को मनोरंजन प्राप्त नहीं होता, अगर उस में उस का मन नहीं लगता, तो वह उपन्यास, कहानी या कविता कत्तई नहीं पढ़ सकता है। हां! यह बात ज़रूर है कि हम कुछ चीज़ें ज़बरदस्ती भी पढ़ते हैं लेकिन वह भी या तो टेक्सट बुक हो या किसी चीज़ का ज्ञान प्राप्त करने के ही तहत। जैसे कि विज्ञान का अध्ययन या फिर ऐसे ही किसी और विषय का। और जहां शुद्घ भावनात्मक प्रभाव के लिए हम कोई भी चीज़ पढ़ते हैं तो महज़ अपने आनंद के लिए। और आनंद मनोरंजन के धरातल पर ही संभव है।
यह बात भी सच है, लेकिन मेरे प्रश्न से कुछ हट कर आप का जवाब है?
मेरा मकसद वैचारिक/आर्थिक स्वतंत्रता से है।
-वैचारिक और आर्थिक नाम की स्वतंत्रता कोई होती भी है, मैं नहीं जानता।
अच्छा असंतोष को किस सीमा तक सृजन की शक्ति मानते हैं?
-किसी भी हद तक नहीं। यह भी एकदम गलत है, कम से कम मेरे लिए।
भगवती बाबू! लोग कहते है कि आप हर दृष्टि से सफल आदमी हैं लेखक की दृष्टि से और दुनियादार आदमी की दृष्टि से भी।
-यों मैं अब तक अपने आप को सफल नहीं महसूस करता हूं। लेकिन असफल मान लूं तो मेरे जीवन में कोई रस नहीं रह जाएगा। चूंकि आदमी का अस्तित्व एक चिर स्थाई पिपासा में है। इस लिए आकांक्षाओं का कोई अंत नहीं और इस हिसाब से जीवन स्वयं आकांक्षाओं और इच्छाओं के लिए संघर्षरत है। बल्कि एक तरह से कह लें कि संघर्ष का नाम ही जीवन है। बहरहाल, कुल मिला कर मैं अपनी सफलता की बात न कर के यूं कहूं कि मैं अपने आप से अपने किए गए कार्यों से पूरा-पूरा संतुष्ट हमेशा रहा हूं।
आप के इस तरह संतुष्ट रहने का क्या कारण है?
-वह मेरा एक जीवन दर्शन है। नियतिवाद का कि जो कुछ होना है, हो चुका है और मैं अपनी ज़िंदगी में कभी असंतुष्ट नहीं रहा। क्यों कि असंतोष का दूसरा नाम है कुंठा। और कुंठाएं मनुष्य के जीवन को विकृत बना देती है। क्यों कि उस में उचित और अनुचित का बोध ज़्यादा रहता है।
कभी-कभी ऐसा भी होता है कि अपनी जिस कृति को लेखक अधिक श्रेष्ठ मानता है। पाठकों को वह अधिक प्रिय नहीं लगती है, वह लेखक को नहीं? क्या आप के साथ भी ऐसा हुआ है?
-मेरे साथ ऐसा कभी नहीं हुआ है। क्यों कि मैं ने अपने किसी कृति को दुबारा पढ़ा ही नहीं, फिर तो मेरे लिए एक तरह से यह प्रश्न ही नहीं खड़ा होता।
रोमांस के बगैर लेखन कार्य फीका प्रतीत होता है। क्या यह सही है?
-मेरे अधिकांश लेखन में रोमांस की कमी है और जैसे कि मेरी जो प्रसिद्घ कृतियां है उन में से 'सबहिं नचावत राम गोसाईं’ और ‘सामर्थ्य और सीमा’ आदि में एक तरह से रोमांस का आभाव ही है। इस तरह से मेरे विचार से बगैर रोमांस के लेखन कार्य फीका कतई नहीं होता।
अच्छा जो लोग रूमानी साहित्य लिख रहे हैं उन के बारे में आप की क्या धारणा है?
-ठीक है। क्यों कि जीवन में भूख प्रधान है। और वह भूख चाहे उदर की हो अथवा सेक्स की हो। प्राचीन साहित्य में रोमांस को महत्ता शायद इसी लिए मिली है। लेकिन आज की संघर्षवादी दुनिया में जब हम यथार्थ के धरातल पर आ गए हैं तब जीवन के अन्य भावनात्मक भूख भी हम अनुभव करने लगे हैं।
रोमांस और सौंदर्य को यथार्थ रूप में प्रकट करने वाला साहित्य अश्लील कहां पर हो जाता है?
-जिस समय लेखक सौंदर्य और प्रेम के किसी अंग को जीवन का साधारण भाग मान कर कहानी के क्रम में लिखता है, वह उस समय अश्लील नहीं होता, लेकिन जब लेखक उस में रस ले कर लिखता है, या इस इरादे से लिखता है कि पाठक कहानी की अपेक्षा उन वर्णनों में रस ले, उसी समय वह अश्लीलता के क्षेत्र में आ जाता है।
क्या नई पीढ़ी अश्लीलता के अर्थ में सामयिक दृष्टि से कुछ परिवर्तन ला रही है?
-अनादि काल से लोग अश्लील साहित्य लिखते आए हैं। आज भी लिख रहे हैं। क्यों कि अश्लीलता समाज की एक वितृष्णा है। लेकिन समाज विरोधी तत्व होने के कारण अश्लीलता हमेशा से समाज द्वारा दण्डनीय मानी गई है।
नई पीढ़ी के लेखन के बारे में आप का क्या दृष्टिकोण है?
-बेशक नई पीढ़ी में अच्छे लोग हैं। लेकिन अक्सर एक युग में एक आध ही प्रभावशाली कलाकार होते हैं। और बकिया सब समय के गर्त में डूब जाते हैं। जब कि आज साक्षरता के युग में हर एक आदमी लिखने लगा है। बल्कि ठीक ऐसे ही प्राचीन काल में कभी-कभी एक ही कस्बे में पचासों कवि कविता करने वाले मिलते थे। लेकिन उन में आज किसी का कोई अस्तित्व नहीं है।
अच्छा आप ने अपनी ज़िंदगी में कभी कहीं किसी प्रकार का समझौता किया है?
-बिल्कुल किया लेकिन कभी एक तरफा समझौता नहीं।
क्या रचना प्रक्रिया के तहत आप को किसी खास व्यक्ति से प्रेरणा मिली है?
-अपने रचनाकाल में बहुत से समकालीन और प्राचीन लोग प्रेरणास्रोत बने। खास कर पंत की कविता और योरोपीय साहित्य। बल्कि यूं कहूं कि जब तक मनुष्य स्वयं अपने व्यक्तित्व को पा नहीं लेता तब तक वह सहारे के लिए अपनी खोज के लिए अनजाने ही अपने समकालीन या प्राचीन या कवियों और लेखकों से प्रेरणा प्राप्त करता है।
अंत में-एक और प्रश्न, आप लेखन को अपने ज़िंदगी में क्या स्थान देते हैं। शौक, प्रतिबद्घता, व्यवसाय?
-इन में से कुछ भी नहीं बल्कि सच कहूं तो अब यह लेखन मेरी अजीविका है। क्यों कि बगैर आजीविका के मनुष्य जीवित ही नहीं रह सकता। फ़िलहाल मुझे इस बात का संतोष है। मैं भाग्यशाली हूं कि लेखन ही अब मेरी आजीविका हो गई है। और अच्छा भी है, मुझे कहीं झुकना या किसी फ़रेब में शामिल नहीं होना पड़ता।
[१९७८ में लिया गया इंटरव्यू]
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