सुप्रसिद्घ अभिनेता मनोहर सिंह की नाराजगी आज देखने लायक थी और उन में अभिनय नहीं था। वह रवींद्रालय की अव्यवस्था पर नाराज थे। बिलकुल बम-बम स्टाइल में। वह कहने लगे, ‘थिएटर करने वाला बगैर पैसे का कर रहा है। देश के चार बड़े ग्रुपों को सरकार ने बुलाया है। यहां सरकार पैसा लगा रही है। कहा जाता है यह पैसा?’ तब तक अभिनेता विजय कश्यप बोले, ‘यह थिएटर नहीं, धर्मशाला है। चारो तरफ शादियां हो रही हैं।’ मनोहर सिंह ने चिल्ला कर सांस्कृतिक कार्य विभाग के सचिव का फ़ोन नंबर मांगा। पर कोई फ़ोन नंबर बताने वाला नहीं था। विजय कश्यप फिर बोले, ‘मेरा पारा बहुत जल्दी चढ़ जाता है।’
पर मनोहर सिंह बोलते जा रहे थे। टूटी खिड़कियां, टूटे शीशे, फटे गद्दे, फटे सोफे, दीवारों पर पान की पीक, आग बुझाने वाले बाल्टियों में पान की पीक और रवींद्रालय में फैली चहुं ओर गंदगी को दिखाने के लिए मुझे पकड़ कर ग्रीन रूम में ले जाते हैं और वहां की गंदगी को दिखाते हुए पूछते हैं, ‘हम यहां क्या मेकअप करेंगे? क्या ध्यान करेंगे अभिनय का?’ वह कहते हैं कि, ‘अब मांगिए इन लोगों से जवाब। हम लोग जिन्होंने ज़िंदगी बिता दी, उन के नाम से थिएटर का पैसा बर्बाद कर रहे हैं यह लोग। यह जगह डांसर के लिए, संगीतकार के लिए, अभिनय के लिए बनाई गई थी। पर जब पंडित जसराज यहां गाने आएंगे तो क्या गाएंगे?’मनोहर सिंह रवींद्रनाथ ठाकुर की गंदी मूर्ति की ओर दि्खाते हैं और कहते हैं कि,‘बताइए कि क्या हो गया है आप के उत्तर प्रदेश को?’ वह कहते हैं, ‘यह वह जगह है जहां से कथक शुरू हुआ। वाजिद अली शाह ने क्या किया था और आज की आप की सरकार क्या कर रही है? उत्तर प्रदेश में संस्कृति रसातल में जा रही है। यह ड्रामा फ़ेस्टिवल सरकार ने सिर्फ़ नाम कमाने के लिए आयोजित किया है।’ वह दीवारों का चूना दिखाते हैं और महिला शौचालय के टूटे दरवाज़े भी। वह कहते हैं कि, ‘मैं पहले भी आता था तो अव्यवस्था रहती थी, पर अब तो बिलकुल ही बिगाड़ दिया है। जिस राज बिसारिया के नाते लखनऊ आता था, जिस राज विसारिया ने भारतीय नाट्य अकादमी का बीज डाला था, उसी को जलील कर के यहां की सरकार ने निकाल दिया है। सुना है भातखण्डे संगीत महाविद्यालय में इन दिनों पी.सी.एस. अफसर प्रिंसिपल है, कलाकार नहीं। सिर शर्म से झुक जाता है।’ कहते हुए वह सिर भी झुका देते हैं।
मनोहर सिंह की नाराजगी व दुख का कोई एक कारण नहीं है। वह कहते हैं कि,‘छ: बजे से रिहर्सल होनी थी पर सात बजे तक कोई सामान ही मुहैया नहीं कराया गया। माफ कीजिए आप यू.पी. के ही होंगे पाण्डेय जी पर यहां यू.पी. बिहार में संस्कृति के नाम पर ऐसा ही है। आप कहेंगे बहुत चिड़चिड़ा आदमी है पर क्या कीजिएगा, हमने ज़िंदगी में बहुत सुचारु रूप से काम किया है, लोगों को यही सिखाया है और जो ऐसा ही था तो आज हमें बुलाया ही क्यों? कल ही सीधे आता। हमारा तो यहां आते ही माथा ठनका, शादियों के पंडाल देख कर। हमने कहीं और नहीं देखा कि थिएटर, संस्कृति की जगह, बारात, शादी में इस्तेमाल होती हो। पैसे कमाने की जगह ये थोड़े ही है। टैगोर थिएटर पैसा बनाने का स्रोत नहीं है। यह नेहरु की फिलास्फी से इतर बात है। अगर मेंटेनेंस के लिए पैसा चाहिए ही तो कितना स्टाफ़ चाहिए इस थिएटर को चलाने के लिए? उन के थिएटर कैसे साफ सुथरे रहते हैं वह कैसे चलाते हैं? ऐसे गंदे थिएटर में हम क्या परफारमेंस करेंगे? थिएटर में आते ही आदमी विदक जाएगा तो क्या अभिनय करेगा। सच कहूं यह थिएटर तो यहां शादी में आने वालों का पेशाब घर है। लोग पेशाब करने आते हैं यहां।’ मनोहर सिंह अपनी फ़िल्म ‘ये वो मंज़िल तो नहीं’ की याद करते हैं और कहते हैं कि देश को आज़ादी क्या इसी दिन के लिए मिली थी। वह बुरी तरह आहत हैं। ‘आग’ लिखी बाल्टियों में पान की पीकें भरी देख कर वह खीझते हैं। हमने जब उन्हें इस पर धूमिल की कविता की याद दिलाई तो वह बोले, ‘धूमिल की वह कविता दीजिए मैं कल स्टेज के बाद पढ़ूंगा मंच से।’
उल्लेखनीय है कि मनोहर सिंह उत्तर प्रदेश सांस्कृतिक कार्य विभाग द्वारा अयोजित नाट्य महोत्सव में एक नाटक में अभिनय करने आज लखनऊ आए। मनोहर सिंह से थिएटर के बावत जब बात करनी चाही तो वह बोले, ‘मन नहीं कर रहा कुछ बातचीत करने का।’ फिर भी बातचीत हुई। पेश है मनोहर सिंह से बातचीत:-
तो क्या रवींद्रालय की अव्यवस्था का कल आप के अभिनय पर भी असर पड़ेगा?
-बिलकुल पड़ेगा। पड़ सकता है ज़रूर। बताइए छ: बजे रिहर्सल होनी थी। नहीं हो पाई। पौने आठ हो रहे हैं, अभी तक लाइट नहीं आ पाई है।
इस नाट्य महोत्सव के बहाने लखनऊ में थिएटर की वापसी की बात चली है। आप की क्या राय है?
-ऐसे ही थिएटर की वापसी करेंगे आप? पहले तो जगह साफ देखनी चाहिए और थिएटर की वापसी सिर्फ़ फ़ेस्टिवल से नहीं होती। थिएटर की वापसी सरकार के पैसे से नहीं होती। चार बड़े नाट्य दलों को बुला देने से नहीं होती है। थिएटर की वापसी यहां के लोगों को काम करने का मौका देने से होगी। रैकेट खड़ा करने से नहीं। सही थिएटर वालों को प्रोत्साहित करने से होगी। उन्हें ढूंढना चाहिए। नाटकों को सब्सिडी देने से नहीं। और पहली बात तो यह जहां थिएटर होना है, भैया उस जगह को पहले सुधारो। बारात की म्यूज़िक बज रही है, अब मैं इस में क्या रिहर्सल करूंगा? तो थिएटर की वापसी फ़ेस्टिवल के बहाने सरकार द्वारा नाम कमाने की लिप्सा से नहीं होगी। बताइए यहां किसी का मन करेगा आने को? मच्छर, गंदा कारपेट, चूहा यह सब देखिए आप। सच ए जोक।
खैर यह सब तो है। पर क्या थिएटर सचमुच जा चुका है जो अब आप भी उस की वापसी की बात करने लगे हैं?
-मैं नहीं मानता कि थिएटर जा चुका है। मैं ने देखा कि थिएटर पर कोई भी मुसीबत खड़ी होती है तो कोई नया आदमी खड़ा हो जाता है। सिनेमा आया तो लगा कि थिएटर चला जाएगा। पर थिएटर और मज़बूत हुआ। अब टेलीविजन ने ज़बरदस्त आक्रमण किया है। पर थिएटर फिर भी खड़ा है। टीवी पर ज़्यादातर थिएटर के लोग ही छाए हुए हैं। और लोग थिएटर में आते रहे हैं। अभी भी आ रहे हैं। दिल्ली, मद्रास हर कहीं तो थिएटर हो रहा है। पर हिंदी थिएटर ज़रूर कम हो रहा है। दर्शक कम आते हैं यह बात भी सही है। बावजूद इस सब के थिएटर डिफ़नेटली ज़िंदा रहेगा। यह हो सकता है कि बुरा दिन आए जैसे कि आज-कल आया हुआ है। पर थिएटर वापसी की बात लखनऊ वाले ही करते हैं, हम नहीं। वह लोग करते हैं जहां सब्सिडी के लिए लोग थिएटर करते हों।
आप ने कई फ़िल्मों में स्तरीय अभिनय किया है लेकिन कुछ ऐसी भी फ़िल्में है जिन में मनोहर सिंह को देख कर तरस आता है?
-मैं ने अब व्यावसायिक फ़िल्में करनी बंद कर दी है।
क्यों?
-क्यों कि बहुत खराब भूमिकाएं मिलने लगी थीं। और चुनाव इस लिए नहीं हो पाता था कि व्यावसायिक फ़िल्मों में कुछ पता नहीं हो पाता था कब क्या हो जाए। यहां तक कि ‘चांदनी’ में भी मेरे स्तर का रोल नहीं था। ऐसे ही महेश भट्ट की‘डैडी’ की। पर मेरा कुछ निकला नहीं। न्यू डेल्ही टाइम्स के रोल से मैं संतुष्ट था। पर भूमिका बहुत छोटी थी। सिर्फ पांच रील। ‘मैं आज़ाद हूं’ व्यावसायिक फ़िल्म थी पर उस की भूमिका से भी मैं संतुष्ट हूं। खोखला सीन नहीं था। ‘दामुल’ में मेरा रोल बिलकुल डिफ़रेंट था। और मैं उस से भी संतुष्ट हूं।
नीना गुप्ता के धारावाहिक ‘दर्द’ में अपनी भूमिका पर कया कहना चाहेंगे?
-‘दर्द’ का रोल कर के अच्छा लगा। ज़िंदगी को छूता हुआ वह चरित्र है।
‘तुगलक’ से लगायत फ़िल्मों, धारावाहिकों और थिएटर में भी आप की संवाद अदायगी लगभग एक जैसा ही कसैलापन कूटती है। कहूं कि जैसे धर्मेंद्र हर फ़िल्म में धर्मेंद्र ही होते हैं वैसे ही आप की संवाद अदायगी लगभग एक जैसी ही होती है। अमूमन संवाद भी लंबे-लंबे आप के हिस्से आते हैं। तो यह क्या है?
-गौर से देखिए तो दो चरित्रों का संवाद एक तरह से हो ही नहीं सकता है। आप के इस आरोप से मैं सहमत नहीं हूं। मैं हर जगह डिफ़रेंट हूं।
आप शायद थिएटर में ऐसे पहले अभिनेता हैं, जिस की नकल देशव्यापी है?
-मुझे तो मालूम नहीं। पहले व्यक्ति हैं आप जो यह कह रहे हैं।
जैसे राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय व दिल्ली में रेपेट्री के एक अभिनेता हैं वागीश सिंह। वह संवाद अदायगी में हूबहू मनोहर सिंह होते हैं।
-हो सकता है। मेरे शिष्य हैं वह।
कहा जाता है कि हिंदी थिएटर में ‘अभिनेता’ को आप ने मान दिलाया है?
-गलत बात है यह। सच यह है कि थिएटर ने मुझे मान दिया है। मैं कहीं भी रहूं थिएटर का ही हूं। चाहे फ़िल्म में होऊं, धारावाहिक में या थिएटर में। हां, यह ज़रूर है कि मुझे गुरूर दिया है इब्राहीम अल्काज़ी ने।
अगर अल्काज़ी न होते तो?
-तो यह थिएटर मूवमेंट नहीं होता।
लेकिन बीच में उन्हों ने थिएटर क्यों छोड़ दिया?
-थिएटर नहीं छोड़ा। फिर किया उन्हों ने। और फिर जो करना था उन्हें कर दिया उन्हों ने। अब कोई नहीं कर पाएगा।
आप रवींद्रालय की अव्यवस्था के बारे में इतने चिंतित हैं पर दिल्ली में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की अव्यवस्था के बारे में भी कुछ कहेंगे?
-कुछ नहीं कहना चाहता।
रेपेट्री क्यों छोड़ी आप ने?
-इस लिए कि बाहर काम करना चाहता था।
निर्देशक का अभिनेता, कि अभिनेता का निर्देशक जैसी बहस बराबर चलती रहती है। आप की क्या राय है?
-यह सब सेमिनार की बातें हैं। निर्देशक, निर्देशक है और अभिनेता, अभिनेता है। लेकिन निर्देशक नाम की अगर कोई चीज़ है तो उस की बात अभिनेता को माननी ही है।
तीन दशक की अपनी अभिनय यात्रा पर क्या बदलाव पाते हैं आप?
-किसी भी जगह अभिनय, लेखन, निर्देशन हर जगह साल-दर-साल आदमी पकता जाता है लगन से काम करता है तो ऐसी ही कोशिश मैं ने भी की है। सीखता रहा हूं।
थिएटर में क्या बदलाव आए हैं?
-साठ के अंत में अच्छे-अच्छे नाटक हुए। मोहन राकेश जैसे लेखक मिले। पर उस के बाद लेखन में कुछ कमी आई तो सब कुछ रिपीट होने लगा। अभिनेता के लिए तो मंच पर अच्छे नाटक चाहिए पर वह अब नहीं है।
कुछ हिंदी नाटककारों का कहना है कि हिंदी के निर्देशक दूसरी भाषाओं के नाटकों से ही छुट्टी नहीं पाते?
-जहां अच्छा नाटक मिलेगा, आदमी करेगा। लोग तरसते हैं कोई अच्छा नाटक मिले।
आप का अपना पसंदीदा नाटक कौन सा है?
-मेरे पसंदीदा सभी नाटक हैं। हम ऐसे आदमी नहीं हैं जो एक ही बच्चे से प्यार करे।
अगर थिएटर न होता तो आप क्या होते?
-अगर थिएटर न होता तो मैं जमादार होता। (कहते हुए हंसते हैं) पर यह तो मजाक की बात हुई। फिर भी कुछ होता। गालिब का एक शेर है न अगर होता तो क्या होता... अच्छा होता मैं ही न होता...बहरहाल कुछ नीयत भी होती है। तो जो है वही होता है। वैसे बचपन की स्मृतियां टटोलूं तो याद आता है कि मैं नेवी में जाना चाहता था पर नहीं जा पाया हालां कि कोशिश की थी।
आप को किस तरह की महिलाएं पसंद हैं?
-हमें किसी भी तरह की महिला पसंद नहीं है। कहते हुए वह फिर हंसते हैं। और कहते हैं कि यह भी कोई बताने की बात है?
[१९९६ में लिया गया इंटरव्यू]
मनोहर सिंह की नाराजगी व दुख का कोई एक कारण नहीं है। वह कहते हैं कि,‘छ: बजे से रिहर्सल होनी थी पर सात बजे तक कोई सामान ही मुहैया नहीं कराया गया। माफ कीजिए आप यू.पी. के ही होंगे पाण्डेय जी पर यहां यू.पी. बिहार में संस्कृति के नाम पर ऐसा ही है। आप कहेंगे बहुत चिड़चिड़ा आदमी है पर क्या कीजिएगा, हमने ज़िंदगी में बहुत सुचारु रूप से काम किया है, लोगों को यही सिखाया है और जो ऐसा ही था तो आज हमें बुलाया ही क्यों? कल ही सीधे आता। हमारा तो यहां आते ही माथा ठनका, शादियों के पंडाल देख कर। हमने कहीं और नहीं देखा कि थिएटर, संस्कृति की जगह, बारात, शादी में इस्तेमाल होती हो। पैसे कमाने की जगह ये थोड़े ही है। टैगोर थिएटर पैसा बनाने का स्रोत नहीं है। यह नेहरु की फिलास्फी से इतर बात है। अगर मेंटेनेंस के लिए पैसा चाहिए ही तो कितना स्टाफ़ चाहिए इस थिएटर को चलाने के लिए? उन के थिएटर कैसे साफ सुथरे रहते हैं वह कैसे चलाते हैं? ऐसे गंदे थिएटर में हम क्या परफारमेंस करेंगे? थिएटर में आते ही आदमी विदक जाएगा तो क्या अभिनय करेगा। सच कहूं यह थिएटर तो यहां शादी में आने वालों का पेशाब घर है। लोग पेशाब करने आते हैं यहां।’ मनोहर सिंह अपनी फ़िल्म ‘ये वो मंज़िल तो नहीं’ की याद करते हैं और कहते हैं कि देश को आज़ादी क्या इसी दिन के लिए मिली थी। वह बुरी तरह आहत हैं। ‘आग’ लिखी बाल्टियों में पान की पीकें भरी देख कर वह खीझते हैं। हमने जब उन्हें इस पर धूमिल की कविता की याद दिलाई तो वह बोले, ‘धूमिल की वह कविता दीजिए मैं कल स्टेज के बाद पढ़ूंगा मंच से।’
उल्लेखनीय है कि मनोहर सिंह उत्तर प्रदेश सांस्कृतिक कार्य विभाग द्वारा अयोजित नाट्य महोत्सव में एक नाटक में अभिनय करने आज लखनऊ आए। मनोहर सिंह से थिएटर के बावत जब बात करनी चाही तो वह बोले, ‘मन नहीं कर रहा कुछ बातचीत करने का।’ फिर भी बातचीत हुई। पेश है मनोहर सिंह से बातचीत:-
तो क्या रवींद्रालय की अव्यवस्था का कल आप के अभिनय पर भी असर पड़ेगा?
-बिलकुल पड़ेगा। पड़ सकता है ज़रूर। बताइए छ: बजे रिहर्सल होनी थी। नहीं हो पाई। पौने आठ हो रहे हैं, अभी तक लाइट नहीं आ पाई है।
इस नाट्य महोत्सव के बहाने लखनऊ में थिएटर की वापसी की बात चली है। आप की क्या राय है?
-ऐसे ही थिएटर की वापसी करेंगे आप? पहले तो जगह साफ देखनी चाहिए और थिएटर की वापसी सिर्फ़ फ़ेस्टिवल से नहीं होती। थिएटर की वापसी सरकार के पैसे से नहीं होती। चार बड़े नाट्य दलों को बुला देने से नहीं होती है। थिएटर की वापसी यहां के लोगों को काम करने का मौका देने से होगी। रैकेट खड़ा करने से नहीं। सही थिएटर वालों को प्रोत्साहित करने से होगी। उन्हें ढूंढना चाहिए। नाटकों को सब्सिडी देने से नहीं। और पहली बात तो यह जहां थिएटर होना है, भैया उस जगह को पहले सुधारो। बारात की म्यूज़िक बज रही है, अब मैं इस में क्या रिहर्सल करूंगा? तो थिएटर की वापसी फ़ेस्टिवल के बहाने सरकार द्वारा नाम कमाने की लिप्सा से नहीं होगी। बताइए यहां किसी का मन करेगा आने को? मच्छर, गंदा कारपेट, चूहा यह सब देखिए आप। सच ए जोक।
खैर यह सब तो है। पर क्या थिएटर सचमुच जा चुका है जो अब आप भी उस की वापसी की बात करने लगे हैं?
-मैं नहीं मानता कि थिएटर जा चुका है। मैं ने देखा कि थिएटर पर कोई भी मुसीबत खड़ी होती है तो कोई नया आदमी खड़ा हो जाता है। सिनेमा आया तो लगा कि थिएटर चला जाएगा। पर थिएटर और मज़बूत हुआ। अब टेलीविजन ने ज़बरदस्त आक्रमण किया है। पर थिएटर फिर भी खड़ा है। टीवी पर ज़्यादातर थिएटर के लोग ही छाए हुए हैं। और लोग थिएटर में आते रहे हैं। अभी भी आ रहे हैं। दिल्ली, मद्रास हर कहीं तो थिएटर हो रहा है। पर हिंदी थिएटर ज़रूर कम हो रहा है। दर्शक कम आते हैं यह बात भी सही है। बावजूद इस सब के थिएटर डिफ़नेटली ज़िंदा रहेगा। यह हो सकता है कि बुरा दिन आए जैसे कि आज-कल आया हुआ है। पर थिएटर वापसी की बात लखनऊ वाले ही करते हैं, हम नहीं। वह लोग करते हैं जहां सब्सिडी के लिए लोग थिएटर करते हों।
आप ने कई फ़िल्मों में स्तरीय अभिनय किया है लेकिन कुछ ऐसी भी फ़िल्में है जिन में मनोहर सिंह को देख कर तरस आता है?
-मैं ने अब व्यावसायिक फ़िल्में करनी बंद कर दी है।
क्यों?
-क्यों कि बहुत खराब भूमिकाएं मिलने लगी थीं। और चुनाव इस लिए नहीं हो पाता था कि व्यावसायिक फ़िल्मों में कुछ पता नहीं हो पाता था कब क्या हो जाए। यहां तक कि ‘चांदनी’ में भी मेरे स्तर का रोल नहीं था। ऐसे ही महेश भट्ट की‘डैडी’ की। पर मेरा कुछ निकला नहीं। न्यू डेल्ही टाइम्स के रोल से मैं संतुष्ट था। पर भूमिका बहुत छोटी थी। सिर्फ पांच रील। ‘मैं आज़ाद हूं’ व्यावसायिक फ़िल्म थी पर उस की भूमिका से भी मैं संतुष्ट हूं। खोखला सीन नहीं था। ‘दामुल’ में मेरा रोल बिलकुल डिफ़रेंट था। और मैं उस से भी संतुष्ट हूं।
नीना गुप्ता के धारावाहिक ‘दर्द’ में अपनी भूमिका पर कया कहना चाहेंगे?
-‘दर्द’ का रोल कर के अच्छा लगा। ज़िंदगी को छूता हुआ वह चरित्र है।
‘तुगलक’ से लगायत फ़िल्मों, धारावाहिकों और थिएटर में भी आप की संवाद अदायगी लगभग एक जैसा ही कसैलापन कूटती है। कहूं कि जैसे धर्मेंद्र हर फ़िल्म में धर्मेंद्र ही होते हैं वैसे ही आप की संवाद अदायगी लगभग एक जैसी ही होती है। अमूमन संवाद भी लंबे-लंबे आप के हिस्से आते हैं। तो यह क्या है?
-गौर से देखिए तो दो चरित्रों का संवाद एक तरह से हो ही नहीं सकता है। आप के इस आरोप से मैं सहमत नहीं हूं। मैं हर जगह डिफ़रेंट हूं।
आप शायद थिएटर में ऐसे पहले अभिनेता हैं, जिस की नकल देशव्यापी है?
-मुझे तो मालूम नहीं। पहले व्यक्ति हैं आप जो यह कह रहे हैं।
जैसे राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय व दिल्ली में रेपेट्री के एक अभिनेता हैं वागीश सिंह। वह संवाद अदायगी में हूबहू मनोहर सिंह होते हैं।
-हो सकता है। मेरे शिष्य हैं वह।
कहा जाता है कि हिंदी थिएटर में ‘अभिनेता’ को आप ने मान दिलाया है?
-गलत बात है यह। सच यह है कि थिएटर ने मुझे मान दिया है। मैं कहीं भी रहूं थिएटर का ही हूं। चाहे फ़िल्म में होऊं, धारावाहिक में या थिएटर में। हां, यह ज़रूर है कि मुझे गुरूर दिया है इब्राहीम अल्काज़ी ने।
अगर अल्काज़ी न होते तो?
-तो यह थिएटर मूवमेंट नहीं होता।
लेकिन बीच में उन्हों ने थिएटर क्यों छोड़ दिया?
-थिएटर नहीं छोड़ा। फिर किया उन्हों ने। और फिर जो करना था उन्हें कर दिया उन्हों ने। अब कोई नहीं कर पाएगा।
आप रवींद्रालय की अव्यवस्था के बारे में इतने चिंतित हैं पर दिल्ली में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की अव्यवस्था के बारे में भी कुछ कहेंगे?
-कुछ नहीं कहना चाहता।
रेपेट्री क्यों छोड़ी आप ने?
-इस लिए कि बाहर काम करना चाहता था।
निर्देशक का अभिनेता, कि अभिनेता का निर्देशक जैसी बहस बराबर चलती रहती है। आप की क्या राय है?
-यह सब सेमिनार की बातें हैं। निर्देशक, निर्देशक है और अभिनेता, अभिनेता है। लेकिन निर्देशक नाम की अगर कोई चीज़ है तो उस की बात अभिनेता को माननी ही है।
तीन दशक की अपनी अभिनय यात्रा पर क्या बदलाव पाते हैं आप?
-किसी भी जगह अभिनय, लेखन, निर्देशन हर जगह साल-दर-साल आदमी पकता जाता है लगन से काम करता है तो ऐसी ही कोशिश मैं ने भी की है। सीखता रहा हूं।
थिएटर में क्या बदलाव आए हैं?
-साठ के अंत में अच्छे-अच्छे नाटक हुए। मोहन राकेश जैसे लेखक मिले। पर उस के बाद लेखन में कुछ कमी आई तो सब कुछ रिपीट होने लगा। अभिनेता के लिए तो मंच पर अच्छे नाटक चाहिए पर वह अब नहीं है।
कुछ हिंदी नाटककारों का कहना है कि हिंदी के निर्देशक दूसरी भाषाओं के नाटकों से ही छुट्टी नहीं पाते?
-जहां अच्छा नाटक मिलेगा, आदमी करेगा। लोग तरसते हैं कोई अच्छा नाटक मिले।
आप का अपना पसंदीदा नाटक कौन सा है?
-मेरे पसंदीदा सभी नाटक हैं। हम ऐसे आदमी नहीं हैं जो एक ही बच्चे से प्यार करे।
अगर थिएटर न होता तो आप क्या होते?
-अगर थिएटर न होता तो मैं जमादार होता। (कहते हुए हंसते हैं) पर यह तो मजाक की बात हुई। फिर भी कुछ होता। गालिब का एक शेर है न अगर होता तो क्या होता... अच्छा होता मैं ही न होता...बहरहाल कुछ नीयत भी होती है। तो जो है वही होता है। वैसे बचपन की स्मृतियां टटोलूं तो याद आता है कि मैं नेवी में जाना चाहता था पर नहीं जा पाया हालां कि कोशिश की थी।
आप को किस तरह की महिलाएं पसंद हैं?
-हमें किसी भी तरह की महिला पसंद नहीं है। कहते हुए वह फिर हंसते हैं। और कहते हैं कि यह भी कोई बताने की बात है?
[१९९६ में लिया गया इंटरव्यू]
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