दयानंद पांडेय
जब आचार्य परशुराम चतुर्वेदी की जन्म शताब्दी मनाई गई तो राजभवन के एक समारोह में अटल बिहारी बाजपेयी ने कहा था कि आचार्य परशुराम चतुर्वेदी को उन्हें पढ़ना पड़ा था। क्यों कि बिना उन्हें पढ़े वह इम्तहान पास नहीं कर पाते। पर इस के आगे उन्होंने आचार्य चतुर्वेदी को पढ़ा नहीं क्यों कि उन्हें पढ़ना बहुत कठिन था।
ऐसे ही कुछ समय पहले एक सुपरिचित कवि से आचार्य परशुराम की बात चली। आचार्य चतुर्वेदी भी बलिया के थे और यह कवि भी बलिया के हैं मैं ने उन से पूछा, ‘आचार्य परशुराम चतुर्वेदी को जानते हैं?’ वह लपक कर बोले, ‘हां, जानता हूं।’ कहा कि उन पर कुछ लिखेंगे? वह बोले ‘इतना नहीं जानता कि उन पर कुछ लिख सकू।’ पूछा कि, ‘उन का लिखा भी, कुछ नहीं पढ़ा है क्या?’ वह बात टालते हुए बोले, ‘इतने बड़े विद्वान हैं। मेरी क्या औकात!’ फिर मैं ने चुहुल की, ‘देखा तो होगा?’ वह बोले, ‘उन की बड़ी-बड़ी मूछों को देखा है। उसी से डर गया। पढ़ने की हिम्मत नहीं हुई।’
तो क्या प्रकांड पंडित होना इतना बड़ा पाप है कि कोई उसे याद भी नहीं करे? आचार्य परशुराम चतुर्वेदी के साथ यही हो रहा है। दो बरस पहले जब उन की जन्म-शताब्दी थी तब क्या सरकारी, क्या गैर सरकारी विश्वविद्यालयी और लोग जैसे उन्हें याद ही नहीं करना चाहते थे। हिंदी के बड़े-बड़े ठेकेदारों और और भारी भरकम संस्थानों को भी उन की सुधि नहीं आई। क्यों? यह सवाल जितना काटता है, उतना खाता भी है।
तब जब कि होना तो यह था कि उन के लिखे को ले कर एक गंभीर बहस होती, उन की स्थापनाएं अभी भी टटकी और अविरल हैं तो इस का डंका पीटा जाता। पर नहीं, यह सब किसी ने सोचा भी नहीं, करना तो बड़ी दूर की बात होती। यह सब इस लिए नहीं हुआ तो शायद इस लिए भी कि हिंदी की दुकानों और आचार्य परशुराम चतुर्वेदी के नाम पर चंदा नहीं मिलता और बिना चंदा और अनुदान के आयोजनों की परंपरा अब नहीं रही। तो कौन करे ये सब अपनी जेब से?
पर यह सुखद ही था कि उनके पोते असित चतुर्वेदी जो पेशे से वकील (आचार्य परशुराम चतुर्वेदी भी पेशे से वकील थे) हैं पर ‘लेखन कर्म’ से उन का दूर-दूर तक उन का नाता नहीं है। फिर भी उन्हों ने पूरे मनोयोग से कहूं कि तन-मन-धन से जन्म शताब्दी समारोह पूरी भव्यता से राजभवन में मनाया। अपने खर्च से एक किताब भी इस मौके पर छपवाई। तो यह असित चतुर्वेदी को अपने पितामह के प्रति अगाध प्रेम और आदर ही था और कुछ नहीं। वह इस बार भी हिंदी संस्थान को साथ ले कर सहकारिता भवन में आचार्य परशुराम चतुर्वेदी की जयंती मना रहे हैं।
पर हिंदी वाले?
हिंदी के भी पितामह थे आचार्य परशुराम चतुर्वेदी। तो जैसे असित चतुर्वेदी गैर लेखक हो कर भी अपने बाबा को समारोह पूर्वक याद कर सकते हैं। तो हिंदी वाले अपने पितामह को क्यों नहीं याद कर सकते?
बहुत कम लोग जानते हैं कि कबीर को जाहिलों की कोह में से निकाल कर विद्वानों की पांत में बैठाने का काम आचार्य परशुराम चतुर्वेदी ने ही किया था। कबीर के काव्य रूपों, पदावली, साखी और रमैनी का जो ब्यौरा, विस्तार और विश्लेषण आचार्य परशुराम चतुर्वेदी ने परोसा है, और ढूंढ ढूंढ कर परोसा है, वह आसान नहीं था। फिर बाद में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी सरीखों ने कबीर को जो प्रतिष्ठा दिलाई, कबीर को कबीर बनाया, वह आचार्य परशुराम चतुर्वेदी के किए का ही सुफल और विस्तार था, कुछ और नहीं।
हालां कि कबीर आचार्य परशुराम चतुर्वेदी के आदर्श थे पर कबीर ही क्यों? दादू, दुखहरन, धरनीदास, भीखराम, टेराम, पलटू जैसे तमाम विलुप्त हो चुके संत कवियों को उन्होंने जाने कहां-कहां से खोजा, निकाला और उन्हें प्रतिष्ठापित किया। संत साहित्य के पुरोधा जैसे विशेषण उन्हें यूं ही नहीं दिया जाता। मीरा पर भी आचार्य परशुराम चतुर्वेदी ने जो काम किया वे अविरल हैं। गांव-गांव, मंदिर-मंदिर जो वह घूमे, यहां तक कि मीरा के परिवार के महाराजा अनूप सिंह से भी मिले तो यह आसान नहीं था। कुछ लोग तो उन्हें गड़े मुर्दे उखाड़ने वाला बताने लगे थे पर जब उन की किताबें छप-छप कर डंका बजा गईं तो यह ‘गड़े मुर्दे उखाड़ने वाले’ की जबान पर ताले लग गए। उत्तरी भारत की संत साहित्य की परख, संत साहित्य के प्रेरणा स्रोत, हिंदी काव्य धारा में प्रेम प्रवाह, मध्य कालीन प्रेम साधना, सूफी काव्य संग्रह, मध्य कालीन श्रृंगारिक प्रवृत्तियां, बौद्ध साहित्य की सांस्कृतिक झलक, दादू दयाल ग्रंथावली, मीरा बाई की पदावली, संक्षिप्त राम चरित मानस और कबीर साहित्य की परख जैसी उन की किताबों की फेहरिस्त बहुत लंबी नहीं तो छोटी भी नहीं है। ‘शांत रस एक विवेचन’ में शांत रस का जो छोटा-छोटा ब्यौरा वह परोसते हैं वह दुर्लभ है।
पर यह भी अजीब संयोग है कि बलिया में गंगा के किनारे के गांव में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जन्मे और दूसरे किनारे के गांव जवहीं में आचार्य परशुराम चतुर्वेदी जन्मे। दोनों ही प्रकांड पंडित हुए। पर आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी प्रसिद्धि का शिखर छू गए। और आचार्य परशुराम चतुर्वेदी ने विद्वता का शिखर छुआ क्या पार कर गए। पर प्रसिद्धि जितनी उन्हें मिलनी चाहिए थी उतनी नहीं मिली। तो यह हिंदी वालों का ही दुर्भाग्य है, आचार्य परशुराम चतुर्वेदी का नहीं।
पंडित जी को पढ़ा मैंने भी नहीं है। ये मेरे लिए जितनी इमानदार स्वीकारोक्ति है उतनी ही लानत भी। फिर भी इस पोस्ट को पढने के बाद उन्हें पढने, समझने और गुनने की प्रबल इच्छा है। बहुत अच्छा लिखा है, और प्रभावी भी
ReplyDeleteबहुत अच्छा लगा इस लेख को बांचकर। आचार्य परशुराम के बारे में जानकारी भी मिली।
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर आपको पढ़ना आचार्य परशुराम चतुर्वेदी को पढ़ने जैसा लगता है।
ReplyDeleteमैने इन विद्वान का नाम पहली बार पढा है. कोशिश करूंगा कि उनकी कोई कृति भी पढूं
ReplyDeleteशेयर करने के लिए आपका धन्यवाद _/\_
ReplyDeleteहिन्दी साहित्य की मजबूत नींव की ईंट...
ReplyDeleteआखिर पक्षपात क्यों?
क्या इससे हिन्दी साहित्य की क्षति नहीं हुई?
ज़िम्मेदार कौन? क्या खुद हिन्दी साहित्य जगत?
शत शत नमन🙏🙏