मैं कामेडियन नहीं करेक्टर एक्टर हूं। कहने वाले प्रसिद्घ अभिनेता युनूस परवेज़ अब प्रोडयूसर-डाइरेक्टर की भूमिका में हैं। बतौर प्रोडयूसर डाइरेक्टर उन की पहली फ़िल्म ‘पलकन क मेहमान’ बन कर तैयार है। यह भाजपुरी फ़िल्म है। इसे वह शीघ्र ही गोरखपुर और बनारस में एक साथ रिलीज करने जा रहे हैं।
‘पलकन का छवि’ को वह अनूठी भोजपुरी फ़िल्म बताते हैं। वह कहते हैं, ‘इस की खासियत इस का नयापन है। भोजपुरी में पहली बार म्यूज़िकल स्टोरी फ़िल्म मैं ने बनाई है। इसमें कोई ड्रामा नहीं, स्टंट नहीं। मैं ने इस फ़िल्म को प्यार में ही पगाया है। लगता है किसी गज़ल या शेर को उतार दिया है।’ वह बताते हैं, ‘इस फ़िल्म में सूरज चड्ढा, अभिषेक, कुणाल सिंह, मीरा माधुरी, भावना पंडित, सीमा वाज, सत्येन कप्पू मैक मोहन और मैं ने अभिनय किया है। फ़िल्म में करीब आठ युगल गीत हैं। जिन्हें पूर्णिमा, उदित नारायण, मुहम्मद अजीज, साधना सरगम आदि ने गाया है। फ़िल्म का बजट कोई २५-२६ लाख रुपए का है।
भाजपुरी फिल्मों के इधर लगातार पिटते जाने की बात चली तो वह बोले, ‘भोजपुरी फ़िल्मों के जो मेकर्स इधर आए वह कभी किसी कामयाब ग्रुप के साथ नहीं रहे। उन को भोजपुरी से भी कुछ लेना देना नहीं था। ‘इनवाल्वमेंट’ नहीं था उन का भेजपुरी के साथ। इस लिए भी ऐसा हुआ। गाज़ीपुर के मूल निवासी और इलाहाबाद विश्वविद्यालय से उूर्द में एम.ए. किे युनूस परवे्ज़ ने पहले थिएटर किया फिर फ़िल्मों मे आए। अमिताभ बच्चन कारपोरेशन लिमिटेड की ‘तेरे मेरे सपने’, ‘राजा की आएगी बारात’, ‘छोटे सरकार’ उन की ‘लेटेस्ट’ फ़िल्में हैं। ६-७ टीवी धारावहिकों के साथ कोई १७-१८ फ़िल्मों में अभी वह काम कर रहे हैं। अब तक कोई दो सौ फ़िल्मों में अभिनय कर चुके युनूस परवे्ज़ और अमिताभ बच्चन की फ़िल्मी यात्रा लगभग एक साथ शुरू हुई। अमिताभ की शुरुआत की कुछ फ़िल्में जो पिट गईं, उस में परवेज़ अमिताभ के साथ खलनायक भी रहे। जैसे ही अमिताभ बच्चन की फ़िल्में हिट हुईं, युनूस परवे्ज़ के दिन भी बहुर गए। जंजीर, दीवार, शान त्रिशूल जैसी फ़िल्मों में वह अमिताभ के साथ चरित्र अभिनेता रहे । वह कहते हैं, ‘मेरी ठीक-ठाक पहचान दीवार फ़िल्म से बनी।’ वह राजेश खन्ना के साथ ‘अवतार’ फ़िल्म की भी याद करते हैं। बात कामेडी की चली और जॉनी वाकर के इस कहे कि ‘आज की हिंदी फ़िल्मों में कामेडी वल्गर हो गई है।’ तो युनूस परवे्ज़ बोले, ‘कुछ फिल्मों में मैं ने कामेडी की तो है पर मैं कामेडियन नहीं, करेक्टर एक्टर हूं। पर यह सही है कि जॉनी वाकर ने कामेडी को बुलंदी पर पहुंचाया। महमूद ने उसे और आगे बढ़ाया। उस ज़माने में वह हीरो से ज़्यादा पैसा लेते थे। महमूद और जॉनी वाकर ने कामेडियन को ठीक उसी तरह बुलंदी पर पहुंचाया जैसे फ़िल्मों में लेखक को सलीम-जावेद ने पहुंचाया। नहीं पहले हिंदी फ़िल्मों का लेखक ‘मुंशी’ था। खैर एक पूरा दौर था कामेडी का। तब कम फ़िल्में फ़्लाप होती थीं। बाद में जब हीरो ही कामेडी करने लगे तो फ़िल्मों में कामेडी गायब हो गई। पहले की फ़िल्म में एक कामेडी का ट्रैक होता था। एक कलर मिलता था। पर अब वह कलर गायब है। आज की फ़िल्में आम आदमी की कहानी से दूर हो गई हैं। पर जब ‘हम आप के हैं कौन’ या ‘दिल वाले दलहनिया ले जाएंगे’ आती है तो हिट हो जाती है। क्यों कि मुहब्बत, लव यूनिवर्सल है। इसी लव स्टोरी के बूते दिलीप कुमार चले। लेकिन अब तो रातों-रात लोग स्टार बन जाते हैं और दूसरे दिन गायब हो जाते हैं। शायद इसी लिए स्टार्स भी आज फ़िल्मों से दूसरे-दूसरे धंधों में भी जाने लगे हैं। फ़िल्मों में वह असुरक्षित महसूस करते हैं। पर मैं ने कोई साइड वर्क नहीं किया। वैसे भी फ़िल्मों में मैं सिर्फ़ पैसा कमाने की गरज से नहीं आया। सिर्फ़ पैसा ही कमाना होता तो ‘स्मगलर’ बन जाता। ‘पोलिटिशियन’ बन जाता।’
बात ही बात में युनूस कहते हैं, ‘मैं तो आज का अभिनेता हूं।’ कला फ़िल्मों को वह खुश्क फ़िल्में बताते हैं। वह ‘दो बीघा जमीन’ जैसी फ़िल्मों की तारी्फ़ करते हैं और गुरुदत्त की फ़िल्मों की भी। वह कहते हैं, ‘आज सिनेमा एक शोर बन गया है।’ इन दिनों थिएटर नहीं कर पाने का सबब भी वह बताते हैं, ‘फ़िल्मों में काम कर के थिएटर की डिसीप्लीन नहीं खराब करना चाहता।’ टी.वी. के सिनेमा से बाज़ी मार ले जाने की बात चली तो वह बोले, ‘ऐसा इस लिए कि टीवी मुफ़्त है और सिनेमा टिकट ले कर देखना पड़ता है। दूसरे टी.वी. बेडरूम तक पहुंच गया है। बड़े-बड़े स्टार्स जिन के बारे में लोग सुनते और पढ़ते थे, वह टीवी के मार्फत लोगों से रूबरू हैं। टी.वी. पर प्रोग्राम भी अच्छे आ रहे हैं।’ तो क्या सिनेमा खत्म होने वाला है? पूछने पर उन का कहना था, ‘सिनेमा तो कभ खत्म हो ही नहीं सकता। फिर छोटे परदे की बड़ी सीमाएं हैं जो सिनेमा में नहीं हो सकतीं। पर यह ज़रूर है कि प्रोड्यूसर अब ‘कांशस’ है और टी.वी. सिनेमा को चुनौती दे रहा है।’ वह बोले, ‘वैसे टीवी के मार्फ़त बहुत से कलाकारों को काम मिला है और उन की प्रतिभा को पहचान भी।’ वह कहने लगे, ‘आधा गांव धारावाहिक की शूटिंग के दौरान सुलतानपुर में मैं ने देखा कि एक से एक आर्टिस्ट हैं। पर मुंबई जाना आसान नहीं है उन के लिए। मुंबई के थपेड़े आसान नहीं। इसी लिए फ़िल्म इंडस्ट्री दीवानों की मानी जाती है।’
‘पलकन का छवि’ को वह अनूठी भोजपुरी फ़िल्म बताते हैं। वह कहते हैं, ‘इस की खासियत इस का नयापन है। भोजपुरी में पहली बार म्यूज़िकल स्टोरी फ़िल्म मैं ने बनाई है। इसमें कोई ड्रामा नहीं, स्टंट नहीं। मैं ने इस फ़िल्म को प्यार में ही पगाया है। लगता है किसी गज़ल या शेर को उतार दिया है।’ वह बताते हैं, ‘इस फ़िल्म में सूरज चड्ढा, अभिषेक, कुणाल सिंह, मीरा माधुरी, भावना पंडित, सीमा वाज, सत्येन कप्पू मैक मोहन और मैं ने अभिनय किया है। फ़िल्म में करीब आठ युगल गीत हैं। जिन्हें पूर्णिमा, उदित नारायण, मुहम्मद अजीज, साधना सरगम आदि ने गाया है। फ़िल्म का बजट कोई २५-२६ लाख रुपए का है।
भाजपुरी फिल्मों के इधर लगातार पिटते जाने की बात चली तो वह बोले, ‘भोजपुरी फ़िल्मों के जो मेकर्स इधर आए वह कभी किसी कामयाब ग्रुप के साथ नहीं रहे। उन को भोजपुरी से भी कुछ लेना देना नहीं था। ‘इनवाल्वमेंट’ नहीं था उन का भेजपुरी के साथ। इस लिए भी ऐसा हुआ। गाज़ीपुर के मूल निवासी और इलाहाबाद विश्वविद्यालय से उूर्द में एम.ए. किे युनूस परवे्ज़ ने पहले थिएटर किया फिर फ़िल्मों मे आए। अमिताभ बच्चन कारपोरेशन लिमिटेड की ‘तेरे मेरे सपने’, ‘राजा की आएगी बारात’, ‘छोटे सरकार’ उन की ‘लेटेस्ट’ फ़िल्में हैं। ६-७ टीवी धारावहिकों के साथ कोई १७-१८ फ़िल्मों में अभी वह काम कर रहे हैं। अब तक कोई दो सौ फ़िल्मों में अभिनय कर चुके युनूस परवे्ज़ और अमिताभ बच्चन की फ़िल्मी यात्रा लगभग एक साथ शुरू हुई। अमिताभ की शुरुआत की कुछ फ़िल्में जो पिट गईं, उस में परवेज़ अमिताभ के साथ खलनायक भी रहे। जैसे ही अमिताभ बच्चन की फ़िल्में हिट हुईं, युनूस परवे्ज़ के दिन भी बहुर गए। जंजीर, दीवार, शान त्रिशूल जैसी फ़िल्मों में वह अमिताभ के साथ चरित्र अभिनेता रहे । वह कहते हैं, ‘मेरी ठीक-ठाक पहचान दीवार फ़िल्म से बनी।’ वह राजेश खन्ना के साथ ‘अवतार’ फ़िल्म की भी याद करते हैं। बात कामेडी की चली और जॉनी वाकर के इस कहे कि ‘आज की हिंदी फ़िल्मों में कामेडी वल्गर हो गई है।’ तो युनूस परवे्ज़ बोले, ‘कुछ फिल्मों में मैं ने कामेडी की तो है पर मैं कामेडियन नहीं, करेक्टर एक्टर हूं। पर यह सही है कि जॉनी वाकर ने कामेडी को बुलंदी पर पहुंचाया। महमूद ने उसे और आगे बढ़ाया। उस ज़माने में वह हीरो से ज़्यादा पैसा लेते थे। महमूद और जॉनी वाकर ने कामेडियन को ठीक उसी तरह बुलंदी पर पहुंचाया जैसे फ़िल्मों में लेखक को सलीम-जावेद ने पहुंचाया। नहीं पहले हिंदी फ़िल्मों का लेखक ‘मुंशी’ था। खैर एक पूरा दौर था कामेडी का। तब कम फ़िल्में फ़्लाप होती थीं। बाद में जब हीरो ही कामेडी करने लगे तो फ़िल्मों में कामेडी गायब हो गई। पहले की फ़िल्म में एक कामेडी का ट्रैक होता था। एक कलर मिलता था। पर अब वह कलर गायब है। आज की फ़िल्में आम आदमी की कहानी से दूर हो गई हैं। पर जब ‘हम आप के हैं कौन’ या ‘दिल वाले दलहनिया ले जाएंगे’ आती है तो हिट हो जाती है। क्यों कि मुहब्बत, लव यूनिवर्सल है। इसी लव स्टोरी के बूते दिलीप कुमार चले। लेकिन अब तो रातों-रात लोग स्टार बन जाते हैं और दूसरे दिन गायब हो जाते हैं। शायद इसी लिए स्टार्स भी आज फ़िल्मों से दूसरे-दूसरे धंधों में भी जाने लगे हैं। फ़िल्मों में वह असुरक्षित महसूस करते हैं। पर मैं ने कोई साइड वर्क नहीं किया। वैसे भी फ़िल्मों में मैं सिर्फ़ पैसा कमाने की गरज से नहीं आया। सिर्फ़ पैसा ही कमाना होता तो ‘स्मगलर’ बन जाता। ‘पोलिटिशियन’ बन जाता।’
बात ही बात में युनूस कहते हैं, ‘मैं तो आज का अभिनेता हूं।’ कला फ़िल्मों को वह खुश्क फ़िल्में बताते हैं। वह ‘दो बीघा जमीन’ जैसी फ़िल्मों की तारी्फ़ करते हैं और गुरुदत्त की फ़िल्मों की भी। वह कहते हैं, ‘आज सिनेमा एक शोर बन गया है।’ इन दिनों थिएटर नहीं कर पाने का सबब भी वह बताते हैं, ‘फ़िल्मों में काम कर के थिएटर की डिसीप्लीन नहीं खराब करना चाहता।’ टी.वी. के सिनेमा से बाज़ी मार ले जाने की बात चली तो वह बोले, ‘ऐसा इस लिए कि टीवी मुफ़्त है और सिनेमा टिकट ले कर देखना पड़ता है। दूसरे टी.वी. बेडरूम तक पहुंच गया है। बड़े-बड़े स्टार्स जिन के बारे में लोग सुनते और पढ़ते थे, वह टीवी के मार्फत लोगों से रूबरू हैं। टी.वी. पर प्रोग्राम भी अच्छे आ रहे हैं।’ तो क्या सिनेमा खत्म होने वाला है? पूछने पर उन का कहना था, ‘सिनेमा तो कभ खत्म हो ही नहीं सकता। फिर छोटे परदे की बड़ी सीमाएं हैं जो सिनेमा में नहीं हो सकतीं। पर यह ज़रूर है कि प्रोड्यूसर अब ‘कांशस’ है और टी.वी. सिनेमा को चुनौती दे रहा है।’ वह बोले, ‘वैसे टीवी के मार्फ़त बहुत से कलाकारों को काम मिला है और उन की प्रतिभा को पहचान भी।’ वह कहने लगे, ‘आधा गांव धारावाहिक की शूटिंग के दौरान सुलतानपुर में मैं ने देखा कि एक से एक आर्टिस्ट हैं। पर मुंबई जाना आसान नहीं है उन के लिए। मुंबई के थपेड़े आसान नहीं। इसी लिए फ़िल्म इंडस्ट्री दीवानों की मानी जाती है।’
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