Sunday, 26 February 2012

चनाजोर गरम वाले चतुर्वेदी जी

दयानंद पांडेय 

चनाजोर गरम वाले चतुर्वेदी जी चतुर्वेदी जी अपने बेटे की शादी के पंडाल में गेंदे के फूल की माला पहने ऐसे घूम रहे थे गोया बच्चे हों। लेकिन उनके चेहरे पर बच्चों का-सा उल्लास नहीं, एक फीकी-सी मुसकुराहट थी। फिर भी वह इधर-उधर फुदकने का जैसे अभिनय कर रहे थे। बारात की अगुवाई करते हुए दुल्हा बने बेटे की कार के आगे चलते हुए उनके गले में माला तो नहीं थी पर चाल में वह गमक और गरूर भी नहीं था जो शादी-ब्याह में दुल्हे के पिता में अमूमन देखा जाता है। और तो और उनके बगल में उनके साथ चले रहे कभी उनके कट्टर दुश्मन रहे माथुर साहब को देख कर कुछ लोगों के मुंह अचरज से खुले तो खुले ही रह गए। हां, माथुर साहब की चाल में जरूर गमक थी। गमक ही नहीं गुरूर भी साफ दिख रहा था माथुर साहब की चाल में और चेहरे पर कलफ लगी हंसी भी। माथुर साहब चतुर्वेदी जी से कद में भी लंबे थे और लकदक सूट में भी थे। पर चतुर्वेदी जी अपनी पुरानी रवायत के मुताबिक खादी की सफेद पैंट, खादी की ही एक प्लेन गेहुंए रंग का कोट, खादी की सफेद कमीज पर खादी ही की एक सिल्क टाई बांधे हुए थे। कद तो उनका माथुर साहब से दबा हुआ था ही, खुशी और चाल भी उनकी बहुत दबी-दबी थी। लगता ही नहीं था कि यह वही चतुर्वेदी जी हैं, खुर्रांट अफसर के रूप में कुख्यात ! सचिवालय के गलियारों में अपने छोटे कद के बावजूद लंबा-लंबा डग भरते हुए जब वह चलते तो उनके सख़्त कदमों से सचिवालय के बरामदों में जैसे सन्नाटा पसर जाता। चतुर्वेदी जी चाल में ही सख़्त नहीं थे, फाइलों पर लिए गए निर्णयों में भी कहीं, ज्यादा सख़्ती बरतते थे। भ्रटाचार और अनियमितता की परछाईं भी उन्हें छूते हुए डरती क्या कांपती थी। जब वह प्रशासनिक सेवा के लिए चुने गए तब से अब तक उनके ऊपर राई भर का भी आरोप नहीं लगा था। उनके जीवन-व्यवहार में सिद्धांत जैसे खून बन कर टपकता रहता था। इतना कि मातहत अफसर तो अफसर, वरिठ अफसर, मंत्री और मुख्यमंत्री तक उनसे घबराते। जब वह एक जिले में कलक्टर थे तो उनकी नेकनीयती और ईमानदारी का बखान करते, चनाजोर गरम बेचने वाले अपने गाने में उनका नाम ले कर गाते और चनाजोर गरम बेंचते। असर कहिए, असीर कहिए, उनमें उस ईमानदारी की तासीर भी अभी बाकी थी। अब वह प्रमुख सचिव पद तक आ पहुंचे थे लेकिन उनके घर से ज्यादा अच्छा फर्नीचर उनके दफ्तर के बाबुओं के घर पर था। ऐसा भी नहीं था कि ईमानदारी की कमाई से ही सही वह अच्छा फर्नीचर नहीं ख़रीद सकते थे, ख़रीद सकते थे पर फालतू और दिखावे के खर्च भी उन्हें तकलीफ देते थे। जब वह प्रशासनिक सेवा में आ गए तो एक बार उनके एक मुंह लगे दोस्त ने लगभग टांट करते हुए उनसे कहा कि, ‘अब तो तुम ख़ुदा हो गए हो।

‘कैसे ?’ मुसकुराते हुए चतुर्वेदी जी ने ‘संक्षिप्त’ में ही पूछा।

‘अरे भाई अपने देश में आई. ए. एस. अफसर ख़ुदा ही तो होता है।’ वह बोला, ‘अब तुम भी देश का भाग्य लिखोगे।’
‘भाग्य लिखू्गा तो नहीं।’ चतुर्वेदी जी जरा रुक कर बोले, ‘भाग्य लिखने वाला तो वह ऊपर वाला है पर हां, देश का भाग्य जिसे तुम कह रहे हो उसे जरा संवारूंगा जरूर।’

‘देखना डीयर याद रखना अपनी इस बात को।’ दोस्त बोला, ‘कहीं यह संवारने की बात भूल कर बाकी आई. ए. एस. अफसरों की तरह भैंस बन कर देश को चरने न लगना।’

‘निश्चिंत रहो, देश को संवारूंगा ही, चरूंगा नहीं।’ चतुर्वेदी जी ने दोस्त को ही नहीं अपने को भी आश्वस्त किया था।
और इस आश्वस्ति के दम पर सच बात पर वह बड़ों-बड़ों से टकरा जाते।

पहले कभी-कभी टकराते थे पर अब यह टकराना उनका कुछ ज्यादा ही बढ़ गया था। इतना कि बावजूद उनकी प्रशासनिक क्षमता, ईमानदारी के लोग उन्हें झक्की करार देने लगे। कुछ लोग उन्हें फ्रस्ट्रेटेड और बदतमीज भी बताने लगे। लेकिन चतुर्वेदी जी पर फिर भी फर्क नहीं पड़ता। वह किसी गलत बात के खि़लाफ अड़ते तो अड़े ही रहते। उनका यह अड़ना उनके तबादले से ही टूटता। पहले पांच साल वाली सरकारें जब होती थीं, बार-बार चुनाव नहीं होते थे, तब तबादले भी कम होते थे। पर अब जैसे बार-बार चुनाव और अस्थाई सरकारों का दौर शुरू हुआ वैसे ही प्रशासनिक अधिकारियों के तबादले भी बंबई की बरसात की मानिंद हो गए। कब और कैसे कौन कहां गिर जाए किसी को पता नहीं। हां, पैसों और जातियों के गणित में निपुण प्रशासनिक अधिकारियों का कोई कुछ नहीं बिगाड़ पाता। पर चतुर्वेदी जी इस गणित, इस हवा के खि़लाफ पड़ते। फिर उनकी ईमानदारी, देश को संवारने की जिद उन्हें झक्की और फ्रस्ट्रेटेड घोषित करवा देती। कोई मंत्री उन्हें अपने विभाग का प्रमुख सचिव बनाने से ही कतरा जाता। कहता, ‘अरे, चतुर्वेदी है तो बड़ा कड़ा अफसर। ईमानदार भी है। पर दिक्कत क्या है कि हर फाइल, हर आदेश वह घुमाता ही रहेगा। सरकार गिर जाएगी पर कभी कोई शासनादेश नहीं हो पाएगा।’ सो कभी अपने नाम की तूती बजवाने वाले चतुर्वेदी जी महत्वहीन होते गए। कभी महत्वपूर्ण विभागों में सालों साल गुजरने वाले चतुर्वेदी जी महत्वहीन विभागों में भी कुछ महीने नहीं गुजर पाते और तबादला आदेश पा जाते। उनकी आंखों के सामने उनके सपनों का देश चूर-चूर हो रहा था। बेईमान, भ्रट और चापलूस अफसरों का गिरोह उनका देश भैसों की तरह चर रहा था और वह झक्की तथा फ्रस्ट्रेशन के आरोपों में कैद मक्खियां मारने के लिए अभिशप्त हो गए थे। कभी बेहद लोकप्रिय अफसर के रूप में शुमार होने वाले चतुर्वेदी जी अब बेहद अलोकप्रिय अफसरों में शुमार क्या थे, भरसक इकलौते थे। लेकिन पानी सिर से आगे तब और गुजर गया जब पहले उनका एक बैचमेट चीफ सेक्रेटरी बन गया और फिर कुछ समय बाद उनसे दो बैच नीचे वाला भी उन्हें चीफ सेक्रेट्री की कुर्सी पर बैठा दिखा। कोई मुख्यमंत्री उन्हें अपना चीफ सेक्रेट्री बनाने के जिक्र भर से भड़क जाता। कहता, ‘अरे वह सनकी चतुर्वेदी! खुद भी ईमानदारी का कीड़ा खाएगा और हमें भी खिलाएगा। सरकार का एक काम-काज नहीं होने देगा। खुद तो पागल है ही, पूरी सरकार को पागल बना देगा। कोई बात सुनेगा ही नहीं। गुण-दो और नियमानुसार में सारी सरकार होम कर देगा। अरे, वह नहीं !’ आजिज आ कर वह भारत सरकार में सेक्रेटरी हो कर चले गए। पर मिला वहां भी उन्हें महत्वहीन विभाग। भारत सरकार में वह पहले भी डिप्टी सेक्रेट्री, ज्वाइंट सेक्रेट्री और एडीशनल सेक्रेट्री रह चुके थे पर महत्वपूर्ण विभागों में। तब उन्हें लगता था कि देश उनकी क्षमता का भरपूर सदुपयोग कर रहा है। योजनाएं बनाने और उनको इंपलीमेंट करवाने के वह मास्टर माने जाते थे तब।

पर अब वही चतुर्वेदी जी सबके लिए बोझ बन गए थे। जिस ईमानदारी, कर्तव्यनिठा ने उन्हें कभी लोकप्रियता के शिखर पर बिठाया था, उनके नाम से चनाजोर गरम तक बिकवाया था, आज वही ईमानदारी, वही कर्तव्यनिष्ठा उन्हें क्रेक डिक्लेयर कर उनके गले में मन भर का पत्थर बन लटक गई थी।

‘ओह रे देश !’ वह बुदबुदाते। और तब और आहत महसूस करते जब उनके ही कैडर के उनसे जूनियर अफसर भी उनकी खिल्ली उड़ाते। उनके अपने कैडर आई. ए. एस. छोड़िए, पी. सी. एस. अफसर भी अब उनका मजक उड़ाने लगे थे। भले ही पीठ पीछे सही। जैसे भारत सरकार में आई. ए. एस. अफसरों में नार्थ इंडियन वर्सेज साउथ इंडियन की जब तब तलवारें खिंची रहती हैं वैसे ही चतुर्वेदी जी के प्रदेश में एक समय आई. ए. एस. अफसरों में ब्राह्मण वर्सेज कायस्थ की तलवारें खिंची रहती थीं। तब चतुर्वेदी जी इस तलवारबाजी में अपने ऊपर एक दाग लगा बैठे थे। ब्राह्मण खेमे का अनायास ही एक बार उन्होंने नेतृत्व संभाल लिया। और खूब डट कर संभाल लिया। ब्राह्मण वर्सेज कायस्थ में तब तलवारबाजी बिलकुल कूल वे में चली पर ऐसी चली कि शासन के तमाम काम-काज पर लगभग ताला लग गया। फाइलें किसी न किसी खेमे द्वारा कहीं न कहीं, किसी न किसी कोयरी द्वारा लटक जातीं। जिसे शासकीय भाषा में ‘लंबित’ बताया जाता। अंततः तब के मुख्यमंत्री ने बड़ी होशियारी से इन ब्राह्मण-कायस्थ अफसरों की कूल तलवारबाजी के बीच हरिजन आई. ए. एस. अफसरों की ताजपोशी शुरू कर दी। और धीरे-धीरे लगभग इन की हवा निकाल दी।

तब की कूल तलवारबाजी में यही चतुर्वेदी जी और यही माथुर साहब अपने-अपने खेमों के सरदार थे। और बाद के दिनों में भी इन की तलवारें भोंथरी भले ही पड़ गईं पर म्यान में नहीं गईं। और आज यही माथुर साहब गुलाबी साफा बांधे चतुर्वेदी जी के बेटे की शादी में उनके बगलगीर बन किसी विजेता की तरह ऐसे कदम बढ़ाते चल रहे थे गोया समधी वही हों। चतुर्वेदी जी तो बस उनके साथ यूं ही चले आए हैं। हारे हुए कदमों से !

तो यह क्या था ? क्या चतुर्वेदी जी अपने परिवार में भी हार गए थे ?

नहीं !

चतुर्वेदी जी के जीवन का दरअसल यह भी एक द्वंद्व था। जो एक जातिवादी होने का एक दाग उन्होंने कुछ बरस पहले अपने दामन पर लगाया था संभवतः उस दाग से छुट्टी पाने के अनमन कश्मकश में वह थे। वह अपने बेटे की बारात एक कायस्थ की बेटी से ब्याहने के लिए ले कर आज आए थे। और यह माथुर साहब उनकी होने जा रही बहू के मामा हैं और वह बारात में चतुर्वेदी जी के साथ नहीं, वरन जनवासे से बारात रिसीव कर विवाह पांडाल तक लाने की भूमिका में हैं। सब कुछ भूल-भाल कर !

तो क्या चतुर्वेदी जी भी सब कुछ भूल-भुला गए हैं ?

ख़ैर द्वारचार, द्वारपूजा के बाद वह लगभग अकेले ही पूरे पांडाल में माला पहने इधर से उधर मेढक की तरह फुदक रहे थे। उन के गांव की बोली में कहें तो पलिहर के बानर की तरह ! इत्तफाक था कि यहां पांडाल में उन्हें पहचानने वाले कम ही लोग थे। इन्हीं थोड़े से लोगों में चतुर्वेदी जी का वह पुराना मुंहलगा दोस्त भी था जो अब यूनिवर्सिटी में फिजिक्स पढ़ाता था, जिसने प्रशासनिक सेवा में चुने जाने पर एक समय उनसे लगभग टांट करते हुए कहा था कि, ‘अब तो तुम ख़ुदा हो गए हो!’ पर वह उछल कर चतुर्वेदी जी के पास नहीं गया। दूर से ही देखता रहा। बारातियों की भीड़ डिनर वाले ब्लॉक में जल्दी ही छंट गई। क्यों कि बाराती ज्यादा आए ही नहीं थे। बारात में आई. ए. एस. बिरादरी के लोग ही नहीं दिखे तो वी. वी. आई. पी. टाइप लोगों की बात ही बहुत दूर थी। ख़ैर, जब घरातियों ने भी खाना खा लिया तो चतुर्वेदी जी ने सोचा कि बिना नाज-नखरे के वह भी भोजन खुद ही कर लें। यह सोच कर वह प्लेटों वाली टेबिल पर पहुंचे। जाने क्यों प्लेट उठाने के पहले वह आंखों से चश्मा उतार कर उसका शीशा पोंछ ही रहे थे कि उनका वह पुराना दोस्त अंततः उनके पास चल कर आया और उनका कंधा पकड़ कर हाथ मिलाते हुए बेटे के विवाह की बधाई दी। ‘अच्छा हुआ जो तुम खुद ही आ गए।’ बधाई स्वीकार कर चतुर्वेदी जी आंखों पर चश्मा चढ़ाते हुए बोले, ‘दरअसल मैंने किसी को बुलाया ही नहीं। व्यर्थ का तामझाम होता।’ वह बोले, ‘बस घर के लोग और रिश्तेदार ही आए हैं बारात में।’

‘मैं भी चतुर्वेदी बाराती बन कर नहीं आया हूं।’

‘तो अब बन जाओ।’ दोस्त की पीठ पर धौल जमाते हुए मुसकुरा कर चतुर्वेदी जी बोले।’

‘नहीं बन सकता !’

‘क्यों, इतना नाराज हो ?’

‘नहीं भाई, मैं लड़की पक्ष की ओर से आया हूं।’

‘ओ हो ! तो ये बात है।’ चतुर्वेदी जी एक फीकी मुसकान फेंकते हुए बोले।

‘श्रीवास्तव जी ने बेटी के ब्याह का निमंत्राण जब भेजा तो कार्ड पर लड़के के पिता के तौर पर तुम्हारा नाम पढ़ कर एक बार मुझे लगा कि तुम्हीं हो पर चूंकि नाम के साथ आई. ए. एस. नहीं लिखा था सो लगा कि तुम नहीं हो!’ दोस्त जरा रुका और बोला, ‘फिर तुम ठहरे चौबीस कैरेट के ब्राह्मण। सोचा कि तुम कहां कायस्थ की बेटी से अपना बेटा ब्याहोगे ?’

‘यहां कायस्थ ब्राह्मण की बेवकूफी मत झाड़ो !’ चतुर्वेदी जी जरा रुके और बोले, ‘देखो डीयर सच बात यह है कि बच्चों की खुशी में ही अपनी भी खुशी है।’

‘यह बात तो है।’

‘मेरा बेटा और श्रीवास्तव जी की बेटी साथ ही जॉब में हैं। श्रीवास्तव जी भी इंजीनियर जरूर हैं पर हैं ईमानदार। मेरे लिए इतना ही काफी है कि एक ईमानदार आदमी की बेटी मेरी बहू बन रही है जिसे कि मेरा बेटा पसंद करता है। बस !’

‘चलो चतुर्वेदी तुम थोड़ा ही सही बदल तो गए इसी जनम में।’

‘सवाल बदलने का नहीं है।’

‘तो?’

‘सवाल संवारने का है!’ चतुर्वेदी जी बोले, ‘तुम्हें दिए वादे के मुताबिक देश का भाग्य तो ठीक से नहीं संवार पाया, मौक ही नहीं मिला जातिवादी सरकारों की फजीहत में तो क्या करता भला ? सिनिकल मान लिया लोगों ने उलटे !’ कहते हुए चतुर्वेदी जी की आंखें छलछला आईं। वह बोले, ‘सोचा कि बेटे का ही भाग्य संवार दूं। उस की मर्जी ही से सही। हर जगह हवा के खि़लाफ होना जरूरी है ? सो बेटे की खुशी को अपनी खुशी मान मैं भी आ गया हूं बारात में। क्यों कि बच्चों की खुशी में ही अपनी खुशी है।’ वह बोले, ‘आखिर कहां-कहां खुशी होम करें ?’

‘भाभी जी नहीं दिख रहीं ?’ दोस्त ने बात को बदलते हुए पूछा।

‘आई कहां हैं जो दिखें ?’

‘क्यों ?’

‘कुढ़ी हुई हैं। हमारे कुछ रिश्तेदार वगशैरह भी नहीं आए हैं। समझ सकते हो।’ चतुर्वेदी जी बोले, ‘समझाऊंगा पत्नी को भी, लोगों को भी। धीरे-धीरे बताऊंगा कि जाति-पांति में कुछ नहीं धरा। बेटे की पसंद है। फिर ईमानदार आदमी की बेटी है।’ वह जरा रुके और बोले, ‘फिर कुंवारी लड़की की कोई जाति-पांति नहीं होती। वह तो पूरी तरह पवित्र होती है। शास्त्र भी शायद ऐसा बता गए हैं। और फिर समाज बदल रहा है, ग्लोबलाइज हो गया है।’ कहते हुए चतुर्वेदी जी अचानक दोस्त से बोले, ‘आओ आइसक्रीम भी खा लें।’ ‘हां-हां !’ कह कर दोनों दोस्त आइसक्रीम खाने लगे। भीड़ लगभग छंट गई थी। कि अचानक दो तीन लोग आ कर चतुर्वेदी जी से मुखातिब हो गए। बोले, ‘आप चतुर्वेदी जी हैं ?’

‘हां, हां बताइए !’ विनम्र होते हुए चतुर्वेदी जी बोले।

‘आप ही के बेटे से श्रीवास्तव जी की बिटिया का ब्याह हो रहा है ?’

‘हां, हां हो रहा है। क्यों ?’

‘नहीं, नहीं वैसे ही पूछा क्यों कि कायस्थ की बिटिया और पंडित का बेटा!’

‘तो ?’

‘कुछ नहीं, कुछ नहीं!’

‘अरे, आप फलां जिले में कलक्टर थे ?’ एक दूसरा व्यक्ति कुछ याद करता हुआ-सा बोला।

‘हां, क्यों ?’

‘अरे, तब तो आप चनाजोर गरम वाले चतुर्वेदी जी हो!’

‘क्या?’ चतुर्वेदी जी अचकचा गए और फिर बोले, ‘हां, हां!’

‘फिर तो कवनो बाति नाहीं।’ वह निम्न मध्यवर्गीय व्यक्ति बाकी लोगों की तरफ मुड़ा और बोला, ‘ई चनाजोर गरम वाले चतुर्वेदी जी हैं। इन कुछ भी कर सकते हैं। काहें से कि बहुतै ईमानदार, बहुतै सख़्त!’

‘अच्छा-अच्छा ऊ चनाजोर गरम वाले कलक्टर साहब हैं, आप !’

‘और का ?’ कह कर सभी ने चतुर्वेदी जी के पांव छूने शुरू कर दिए। और हाथ जोड़ चले गए।

‘यह चनाजोर गरम तुमने कब बेंचा भाई।’ दोस्त ने पूछा।

‘तुम नहीं जानते ?’ चतुर्वेदी जी बिलकुल निश्छल हंसी हंसते हुए बोले, ‘अरे बेचा नहीं बिकवाया ?’

‘क्या ?’ मजा लेते हुए दोस्त बोला, ‘यह धंधा कब किया?’

‘मैं जब कलक्टर था तब मेरा नाम ले कर ईमानदारी की छौंक लगा कर सब चनाजोर गरम बेचते थे।’ चतुर्वेदी जी बोले, ‘चलो यह तो साबित हुआ कि कभी तो ऐसा दौर था जब मैं सिनिकल नहीं था, बोझ नहीं था सिस्टम पर।’

‘बोझ तो तुम आज भी नहीं हो। बस जैसे बेटे के लिए लचीले हुए हो, अपने ईमानदारी के पेंचों को भी थोड़ा लचीला कर दो।’

‘अब क्या ख़ाक मुसलमां होंगे ?’

‘क्या मतलब ?’

‘देखो यार एक तो जिंदगी की ए. बी. सी. अब फिर से शुरू नहीं हो सकती। दूसरे अब साल डेढ़ साल में रिटायरमेंट हो जाएगा। तो अब क्या मुसलमां होना और क्या हिंदू होना।’

तब तक चतुर्वेदी जी के समधी श्रीवास्तव जी गुलाबी साफा बांधे हाथ जोड़े हुए आ गए। बोले, ‘फेरे पड़ गए हैं भाई साहब ! बधाई हो।’ वह बोले, ‘आइए बाकी रस्में भी पूरी कर ली जाएं।’ ‘हां, हां क्यों नहीं।’ कह कर चतुर्वेदी जी श्रीवास्तव जी के साथ-साथ विवाह मंडप की ओर बढ़ चले।

बिस्मिल्ला खां के बजाए रिकार्ड से शहनाई की धुनें भीतर बज रही थीं। मंद-मंद और बाहर गाना बज रहा था, ‘डोला रे, डोला रे, डोला रे, दिल डोला रे....!’ तेज-तेज।

और नौजवान लड़के नाच रहे थे।


3 comments:

  1. अच्छी लगी..सच्ची कहानी।

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  2. अंतर्द्वंद को बहुत अच्छा पकड़ा है एवं उससे भी सुंदर लिखा है।
    व्यक्ति की कश्मकश को शब्दों में पिरोना आपके लेखन की USP है।

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