वे जो हारे हुए (भाग एक)से आगे.....
हम तो समझे थे कि राजनीति में ही पलीता लगा है, पर पत्रकारिता वाले तो राजनीति से भी कहीं आगे निकल रहे हैं : हालांकि काफ़ी हाउस की न वो गंध रही, न वो चरित्र, न वो रंगत। फिर भी कुछ ठलुवे, कुछ थके नेता, बुझे हुए लेखक और कुछ सनकी पत्रकारों के अलावा कुछ एक दूसरे का इंतज़ार करते लोग अब भी ऊंघते-बतियाते, दाढ़ी नोचते दिख जाते हैं। कुछेक जोड़े भी। काफ़ी का स्वाद पहले भी तीखा था, अब भी है।
हां, सिगरेट के धुएं ज़रा बढ़ गए हैं। फिर भी काफ़ी की गंध और सिगरेट के धुएं की मिली जुली महक नथुनों में अभी भी बेफ़िक्री और बेलौसपना का स्वाद बिंदास अंदाज़ में सांस में भर जाती है। इतना कि रात शराब पर उसे मिनिस्टर मित्र द्वारा साइकेट्रिक के यहां जाने की मिली सलाह, तिस पर पत्नी का तुर्रा कि ‘आप ने ज़्यादा पी ली है सो जाइए!’ और फिर अभी भरी दोपहर में जावेद अख़्तर का कहा कि, ‘भई आप तो बहुत परेशान लगते हैं।’ या फिर उकता कर यह बोलना कि, ‘चलिए आप तो अभी हमें माफ़ कर दीजिए!’ जैसी बातें उस की नसें तड़का रही थीं। वह सोच रहा था कि कभी सब का प्रिय रहने वाला वह अब सब का अप्रिय कैसे होता जा रहा है। कहां तो वह सब को सलाह दिया करता था, अब लोग उसे सलाह देने लगे हैं। इतनी कि लोगों की सलाह उसे चुभने लगी है? या कि वह ही, उस की बातें ही लोगों को चुभने लगी हैं? सीने में उस के जलन बढ़ती जा रही है। और यह चुभन उसे मथती जा रही है। जावेद का ही लिखा राधा कैसे न जले! गाना उसे याद आ जाता है। तो क्या वह राधा है?
वह सिगरेट सुलगा लेता है।
काफ़ी हाउस में कश लेते-धुआं फेंकते वह एक नज़र पूरे हाल में दौड़ाता है। भीतर कोई परिचित नहीं दिखता। बाहर सड़क पर ट्रैफ़िक का शोर है। मन में उठ रहा शोर ज़्यादा है या ट्रैफ़िक का शोर ज़्यादा है? तय करने के लिए वह काफ़ी हाउस के हाल से निकल कर बरामदे में आ जाता है। नहीं तय कर पाता।
वह घर आ जाता है। आ कर सो जाता है।
एक फ़ोन से उस की नींद टूटी। एक इंजीनियर मित्र का फ़ोन था। सिंचाई विभाग में थे। विभागीय मंत्री से परेशान थे। चीफ़ इंजीनियर बनने की ख़्वाहिश थी। चाहते थे कि आनंद सिफ़ारिश कर दे। कहीं से परिचय सूंघ लिए थे और कह रहे थे कि, ‘मंत्री जी आप के पुराने दोस्त हैं। कह देंगे तो काम बन जाएगा।’ आनंद ने साफ़ बता दिया कि, ‘इस तरह के ट्रांसफर-पोस्टिंग जैसे कामों में उस की न तो कोई दिलचस्पी रहती है, न ही वह कोई सिफ़ारिश कर पाएगा। हां, कहीं किसी के साथ कोई नाइंसाफ़ी हो तो वह मसले को अपने ढंग से उठा ज़रूर सकता है। फिर भी समस्या का समाधान हो ही जाए, कोई गारंटी नहीं है।’
‘तो नाइंसाफ़ी ही तो हो रही है।’
‘क्या?’
‘मंत्री जी का भाव बहुत बढ़ गया है।’
‘मतलब?’
‘जिस काम के वह पहले पचीस-तीस लाख लेते थे, अब एक करोड़ रुपए मांग रहे हैं।’
‘तो आप देते ही क्यों हैं?’
‘अच्छा चलिए हम लोग कहीं बैठ कर बातचीत करें?’
‘हम लोग मतलब कुछ और लोग भी?’ आनंद ने पूछा।
‘हां।’
‘किस लिए?’
‘बातचीत करेंगे और कोई रास्ता निकालेंगे?’
‘चलिए ठीक है।’ आनंद बोला, ‘पर बैठेंगे कहां?’
‘जिमख़ाना क्लब में बैठें?’
‘ठीक है।’ इंजीनियर मित्र बोला, ‘शाम साढ़े सात बजे आज मिलते हैं।’
‘ठीक है।’
शाम को जब जिमख़ाना क्लब में बैठकी हुई तो आठ-दस इंजीनियर लोग हो गए। इधर-उधर की बात के बाद में जब दो-दो पेग हो गया तो इंजीनियर लोग बोलना शुरू हुए। एक इंजीनियर बहुत तकलीफ़ में थे, ‘बताइए इंजीनियरिंग में ग्रेजुएशन हमने किया, इतने साल नौकरी करते हो गए और एक मंत्री हम इंजीनियरों को बिठा कर कहता था कि तुम लोग क्या जानते हो सिंचाई के बारे में? सिंचाई विभाग के बारे में? कहता था कि तुम लोग साल-डेढ़ साल-दो साल के लिए चीफ़ इंजीनियर बनते हो। क्या जानोगे? मैं जानता हूं सिंचाई विभाग को। इतने सालों से विभाग का मंत्री हूं। सरकार किसी की आए-जाए-रहे। इस विभाग का मंत्री तो मैं ही हूं। रहूंगा। बताइए मिनिस्ट्री जैसे रजिस्ट्री करवा ली थी।’
‘हां भई, आखि़र मिली-जुली सरकारों का दौर था तब!’ एक इंजीनियर बोला, ‘बारगेनिंग पावर थी उस में। ’
‘पर अब तो बहुमत की सरकार है।’ एक दूसरा इंजीनियर बोला।
‘बहुमत की सरकार तो अब और ख़तरनाक हो गई है।’ यह तीसरा इंजीनियर था, ‘जो चाहती है, मनमाना करती है। कोई रोकने-छेंकने वाला नहीं।’
‘क्यों आनंद भइया आप की क्या राय है?’ वह इंजीनियर पूछ बैठा।
‘अव्वल तो यह कि बिना बहुमत के कोई सरकार नहीं बनती। पर यहां मैं समझ रहा हूं कि आप लोग एक दल के बहुमत की सरकार की बात कर रहे हैं। तो ऐसी बहुमत की सरकारें प्रशासनिक तौर पर क्या गड़बड़ करती हैं इस पर तो बहुत तफ़सील में मैं नहीं जा रहा। पर यह तो कह ही सकता हूं कि विकास के लिए एक दल के बहुमत की सरकार ज़रूरी है।’ आनंद बोला, ‘पर एक तथ्य और भी हमारे सामने है। कि जब एक दल के बहुमत की सरकारें बहुत ताक़तवर हो जाती हैं तो उन के निरंकुश होने के ख़तरे भी बहुत बढ़ जाते हैं। जैसे इंदिरा गांधी ने जब इमरजेंसी लगाई तब केंद्र में कांग्रेस बहुमत में ही थी। कल्याण सिंह ने जब बाबरी मस्जिद गिरवाई तब उत्तर प्रदेश में भाजपा बहुमत में ही थी। गुजरात में नरेंद्र मोदी ने दंगे करवाए। और अब जब मायावती की बसपा सरकार बहुमत में है तो वह भी दलितोत्थान के नाम पर मनमाना कर रही है।’
‘यही तो। यही तो!’ सारे इंजीनियर जैसे उछल पड़े।
सिगरेट का धुआं, शराब की गंध और उसकी बहक, तंदूरी चिकन से उड़ती भाप में घुल कर एक अजब ही नशा तारी कर रही थी। एक ग़ज़ब ही गंध परोस रही थी।
‘तो इस मिनिस्टर साले का क्या किया जाए?’ इसी धुएं और भाप में से एक आवाज़ अकुलाई।
‘अब तो आनंद भइया आप ही बताइए!’ इंजीनियर मित्र बोला।
‘मेरी बात मान पाएंगे आप लोग?’
‘बिलकुल!’ लगभग सभी आवाजें एक सुर में बोलीं।
‘इस मिनिस्टर को उसी की भाषा में सबक़ सिखाइए।’
‘अब उस की भाषा तो आप ही बताइए। आखि़र आप उस मिनिस्टर के दोस्त हैं!’
‘बिलकुल नहीं!’ आनंद बोला, ‘ऐसा व्यक्ति मेरा दोस्त नहीं हो सकता।
‘तब?’ सभी घबराए।
‘यह बताइए कि इस मिनिस्टर को एक करोड़ रुपए का भाव किस ने बताया? यहां तक उस को किस ने पहुंचाया?’ आनंद ज़रा रुका और सब को एकदम चुप देख कर धीरे से बोला, ‘आप ही लोगों ने।’ आनंद के यह कहते ही जैसे पूरी
महफ़िल में सन्नाटा छा गया। सो आनंद ज़रा रुक कर बोला, ‘अब आप ही लोग उस को ज़मीन पर लाएंगे। तय कर लीजिए कि अब से कोई भी उस मिनिस्टर के पास अपनी पोस्टिंग के लिए नहीं जाएगा। चीफ़ इंजीनियर आप ही के बीच से किसी को उस को बनाना मज़बूरी है। शासन बहुत दिनों तक इस पोस्ट को ख़ाली नहीं रख सकता। कोई पैसा दे तब भी, न दे तब भी चीफ़ इंजीनियर बनना ही है। तो आप लोग क्यों एक करोड़ रुपए का रेट खोले हुए हैं? यह रैट रेस बंद कीजिए। चीज़ें अपने आप तय हो जाएंगी।’
आनंद की इस बात पर इंजीनियरों में कुछ ख़ास रिएक्शन तो नहीं हुआ पर सन्नाटा टूटता सा लगा। सिगरेट के धुएं और बढ़ गए। किसी ने यह सवाल ज़रूर उछाला, ‘और जो कहीं वह डेप्युटेशन पर किसी को ले आया तो?’
‘
कुछ नहीं होगा। ऐसा नहीं कर पाएगा वह।’ और यह बात इधर-उधर हो गई। तभी एक इंजीनियर जो सिख था अचानक उछल कर बोला, ‘डन जी! अब कल से मंत्री के पास कोई नहीं जाएगा। इस की गारंटी मैं लेता हूं।’
‘तो देख लीजिएगा एक करोड़ का रेट ज़ीरो पर आ जाएगा।’ आनंद बोला।
पर महफ़िल का रंग तो उड़ चुका था। लोग जाने लगे। आनंद भी उठा और चलने लगा। चलते-चलते पीछे से उसे खुसफुसाहट सुनाई दी। कोई कह रहा था, ‘यार यहां रणनीति बनाने के लिए इकट्ठे हुए थे या जुगाड़ जमाने के लिए!’
फिर वही जोड़ भी रहा था, ‘आए थे हरि भजन को ओटन लगे कपास!’
आनंद भी हैरत में था और साथ चल रहे एक इंजीनियर से बोल रहा था, ‘यह अच्छा है कि इतना पीने के बाद भी आप इंजीनियरों को चढ़ी नहीं।’ उस ने ज़रा रुक कर सवाल सीधा करते हुए पूरा किया, ‘क्या इंजीनियरों को शराब नहीं चढ़ती?’
पर किसी ने आनंद को कोई जवाब नहीं दिया। सब का नशा शायद उतर गया था।
पर आनंद का नहीं।
हां, वह तब हैरत में ज़रूर पड़ा जब उसे पता चला कि इंजीनियरों ने उस रात के बाद सिंचाई मंत्री की ओर सचमुच रुख़ नहीं किया। नतीजा सामने था। ह़फ्ते भर में ही चीफ़ इंजीनियर की पोस्टिंग का रेट एक करोड़ से गिर कर पचास लाख रुपए पर आ गया था। उस ने अपने इंजीनियर मित्र को शाबाशी देते हुए कहा भी कि, ‘वेल डन! अब देखना ह़फ्ते-दस रोज़ में रेट ज़ीरो पर आ जाएगा।’ पर उस इंजीनियर ने कोई उत्साह नहीं दिखाया। धीरे से बोला, ‘देखिए कब तक यह यूनिटी क़ायम रहती है!’
‘क्यों?’
‘इंजीनियरों को आप नहीं जानते। यह साले अपने बाप को छोड़िए, अपने आप के भी नहीं होते।’
और सचमुच जिन सरदार जी ने सबसे आगे कूद कर गांरटी ली थी कि, ‘अब कल से कोई नहीं जाएगा। इसकी गारंटी मैं लेता हूं।’ वही सबसे पहले पहुंच गए और पचास लाख रुपए दे कर चीफ़ इंजीनियर पोस्ट हो गए। पूछने पर कहते, ‘कोई नहीं जी, रेट तो करोड़ से आधा कर दिया। यही हमारी फ़तह। रही बात पैसे देने की तो कोई न कोई देता ज़रूर। मैंने दे दिया। प्राब्लम क्या है?’
पर प्राब्लम तो थी।
आनंद को खीझ हुई थी कि वह इन भ्रष्ट इंजीनियरों के हाथों इस्तेमाल हुआ। और कि उस की रणनीति पर इन इंजीनियरों ने पूरी तरह अमल नहीं किया। दूसरे, उस मिनिस्टर तक भी यह बात पहुंच गई कि यह रणनीति इंजीनियरों ने आनंद के उकसाने पर बनाई थी। उस ने एक दिन फ़ोन पर तंज़ करते हुए कहा भी कि, ‘क्या भाई आनंद जी, अब इंजीनियर्स एसोसिएशन बना कर ट्रेड यूनियन की राजनीति करने का इरादा है क्या?’
‘ट्रेड यूनियन की राजनीति देश में अब बची भी है क्या?’ आनंद ने प्रति प्रश्न किया तो वह चुप हो गया।
उस मिनिस्टर की प्राब्लम यह थी कि उस को मिले पूरे पचास लाख रुपए में से एक भी पैसे उस के हिस्से नहीं आया था। सारा का सारा पैसा मुख्यमंत्री के खाते में चला गया था। बाक़ी उस के हिस्से का पचास लाख इंजीनियरों ने रेट गिरा कर गड़प कर लिया। उस की अपनी टीस थी।
टीस तो आनंद के सीने में भी थी। टीस ही टीस।
अपने सामाजिक जीवन में टूट-फूट को ले कर। अपने दांपत्य जीवन में टूट-फूट को ले कर। अपनी नौकरी में टूट-फूट को ले कर। और राजनीतिक पार्टियों में वैचारिक टूट-फूट तो जैसे उस के मन में सन्निपात ज्वर की तरह भारी उथल-पुथल मचाए थी यह टीस!
किस-किस से लड़े वह?
जो राजनीतिक मित्र थे। साथ जूझे थे, लड़े थे, पुलिस की लाठियां खाई थीं, बेहतर दुनिया के, दुनिया को बदलने के सपने देखे थे। सिद्धांतों के लिए जिए-मरे थे। अब वही लोग रास्ता बदल कर, सिद्धांतों को किसी नाबदान में बहा कर, समझौतों की रेलगाड़ी में बैठ कर सत्ता भोग रहे थे और आनंद को राजनीति का नया व्याकरण सिखा रहे थे। उस के स्वाभिमान को लगभग रौंदते हुए साइकेट्रिक के पास जाने की सलाह दे रहे थे, ट्रेड यूनियन की राजनीति में जाने की संभावनाएं टटोल रहे थे। लेटे होंगे भीष्म पितामह अर्जुन के वाणों से घायल हो कर शर शैय्या पर और पिलाया होगा अर्जुन के वाणों ने उन को पानी। पर गंगापुत्र भीष्म पानी के लिए तरसेंगे यह भी क्या किसी ने कभी सोचा है? उन की इस यातना की थाह ली है किसी ने?
बताइए गंगा का बेटा और प्यास से मरे?
भीष्म पितामह तो फिर भी धर्म अधर्म की लड़ाई में हस्तिनापुर के साथ वचनबद्धता के फ़रेब में अधर्म के साथ खड़े थे। जुआ, द्रौपदी का चीर हरण, निहत्थे अभिमन्यु का मरना देखते रहे। तो यह तो होना ही था! फिर वह एक बार सोचता है कि ऐसा तो नहीं कि कहीं हस्तिनापुर की वचनबद्धता की आड़ में सत्ता और सुविधा के आगे वह घुटने टेक रहे थे? चलिए हस्तिनापुर के साथ आप की वचनबद्धता थी। पर शकुनी, दुर्योधन और धृतराष्ट्र की धूर्तई के आगे घुटने टेकने की वचनबद्धता तो नहीं थी? पर आप तो जैसे वचनबद्ध ही नहीं, प्रतिबद्ध और कटिबद्ध भी थे!
अद्भुत!
तो क्या जैसे आज के राजनीतिज्ञ आज की राजनीति, आज की व्यवस्था, मशीनरी सत्ता और बाज़ार के आगे नतमस्तक हैं, वैसे ही भीष्म पितामह भी तो नतमस्तक नहीं थे? गंगापुत्र भीष्म! और पानी के लए तड़प रहे थे। और प्रायश्चित कर रहे थे कि दुर्योधन के द्वारा प्रस्तुत स्वर्ण पात्र का जल पीने के बजाए अर्जुन के वाणों से धरती की छाती चीर कर ही प्यास की तृप्ति चाहते थे? इच्छा मृत्यु का वरदान उन की इच्छाओं का हनन तो नहीं कर रहा था? सोचते-सोचते उसे एक गीत याद आ गया है- पल-छिन चले गए/जाने कितनी इच्छाओं के दिन चले गए!
शिखंडी, अर्जुन का वाण, शर-शय्या और इच्छा मृत्यु का झूला। कितना यातनादायक रहा होगा भीष्म के लिए इस झूले में झूलना। व्यवस्था-सत्ता और बाज़ार के आगे घुटने टेकने की यातना ही तो नहीं थी यह? तो क्या था गंगापुत्र भीष्म? फिर उसे एक गीत याद आ गया है- बादल भी है, बिजली भी है, सागर भी है सामने/मेरी प्यास अभी तक वैसी जैसे दी थी राम ने!
फिर वह पूछता है कि क्या यह सिर्फ़ भीष्म प्रतिज्ञा ही थी? पर आचार्य द्रोण? सत्ता-सुविधा के आगे वह क्यों घुटने टेके हुए थे? सिर्फ़ बेटे अश्वत्थामा को दूध उपलब्ध न करा पाने की हेठी ही थी? तो एकलव्य का अंगूठा क्या था?
दासी पुत्र विदुर? उन्हों ने तो सत्ता-व्यवस्था और तब के बाज़ार के आगे घुटने नहीं टेके थे? पर वह पांडवों के साथ भी कहां खड़े थे? गदा, धनुष या तलवार ले कर? जहां-तहां सिर्फ़ प्रश्न ले कर खड़े थे। तो क्या आनंद विदुर होता जा रहा है?
एक और विदुर?
आनंद भी जहां-तहां प्रश्न ले कर खड़ा हो जा रहा है आज कल। इतना कि अब ख़ुद प्रश्न बनता जा रहा है! यह तो हद है! वह बुदबुदाता है। उसे विदुर नहीं बनना। विदुर की सुनता कौन है? महाभारत में भी किसी ने नहीं सुनी थी तो अब कोई क्यों सुनने लगा? वह सोचता है क्या विदुर के समय में भी साइकेट्रिक होते रहे होंगे? और कभी किसी धृतराष्ट्र या उस के वंशज ने विदुर को किसी साइकेट्रिक के पास जाने की सलाह दी होगी? या फिर क्या उस समय भी ट्रेड यूनियनें रही होेंगी? और किसी ने तंज़ में विदुर को भी ट्रेड यूनियन की राजनीति में जाने का विमर्श दिया होगा?
और सौ सवाल में अव्वल सवाल यह कि क्या तब भी कारपोरेट जगत रहा होगा जहां तब के विदुर नौकरी बजाते रहे होंगे?
क्या पता?
फ़िलहाल तो आज की तारीख़ में वह अपना नामकरण करे तो प्रश्न बहादुर सिंह, या प्रश्नाकुल पंत या प्रश्न प्रसाद जैसा कुछ रख ही सकता है। कैसे छुट्टी ले वह इस प्रश्न प्रहर के दुर्निवार-अपार प्रहार से? सोचना उस का ख़त्म नहीं होता। अब इस टीस का वह क्या करे? यह एक नई टीस है। जिस का उसे अभी-अभी पता चला है।
‘बहुत दिन हो गए तुम ने मालपुआ नहीं बनाया।’ वह पत्नी से कहता है। ऐसे गोया इस टीस को मालपुए की मिठास और भाप में घुला देना चाहता है। और कहता है, ‘हां, वह गरी की बर्फ़ी और गाजर का हलवा भी। जो तुम पहले बहुत बनाया करती थीं, जब बच्चे छोटे थे।’ कह कर वह लेटे-लेटे पत्नी के बालों में अंगुलियां फिराने लगता है। पत्नी पास सिमट आती है पर कुछ बोलती नहीं। वह जानता है कि जब ऐसी कोई बात टालनी होती है तो पत्नी चुप रह जाती है। बोलती नहीं। वह जानता है कि पत्नी को मीठा पसंद नहीं। बच्चे भी पत्नी के साथ अब नमकीन वाले हो गए हैं। बड़े हो गए हैं बच्चे। जब छोटे थे तब मीठा खा लेते थे। अब नहीं। मीठा अब सिर्फ़ उसी को पसंद है। और वह डाइबिटिक हो गया है। सो पत्नी अब मालपुआ नहीं बनाती। नहीं बनाती गरी की बर्फ़ी और गाजर का हलवा भी। खीर तक नहीं। पत्नी ब्लडप्रेशर की पेशेंट है। पर ख़ुद नमक नहीं छोड़ती। उस का मीठा छुड़वाती है।
आफ़िस में भी पहले सहयोगी बहुत रिस्पेक्ट करते थे। बिछ-बिछ जाते थे। यह जान कर कि आनंद की पालिटिकल इंलुएंस बहुत है। रुटीन काम भी वह करवा ही देता था सब का। पर जब सब की उम्मीदें बड़ी होती गईं, मैनेजमेंट भी लायजनिंग करवाने की कोशिश में लग गया। उस ने पहले तो संकेतों में फिर साफ़-साफ़ मना कर दिया कि वह लायज़निंग नहीं करेगा। हरगिज़ नहीं। सहयोगियों को साफ़ बता दिया कि इतना ही जो पालिटिकल इंलुएंस उस का होता तो वह ख़ुद राजनीति नहीं करता? राजनीति छोड़ नौकरी क्यों करता? नौकरी में टूट-फूट शुरू हो गई। जो लोग पलक पांवड़े बिछाए रहते थे, देखते ही मुंह फेरने लगते।
यह क्या है कारपोरेट में राजनीति या राजनीति में कारपोरेट?
वह एक परिचित के घर बैठा है। घर के लोग किसी फंक्शन में गए हैं। घर में एक बुज़ुर्गवार हैं। घर की रखवाली के लिए। अकेले। बुज़ुर्गवार पेंशन या़ता हैं। आनंद का हाथ पकड़ कहते हैं, ‘भइया गवर्मेंट में एक काम करवा देते!’
‘क्या?’
‘जो पेंशन महीने में एक बार मिलती है, महीने में चार बार की हो जाती। या दो बार की ही हो जाती।’
‘ऐसा कैसे हो सकता है?’ आनंद मुसकुराता है, ‘क्या किसी को दो बार या चार बार तनख़्वाह मिलती है जो पेंशन भी दो बार या चार बार मिले?’
‘नहीं भइया आप समझे नहीं।’ बुज़ुर्गवार आंखें चौड़ी करते हुए बोले, ‘पेंशन का एमाउंट मत बढ़ता। वही एमाउंट चार बार में, दो बार में मिलता। हर महीने।’
‘इस में क्या है? आप को पेंशन तो बैंक के थ्रू मिलती होगी। आप चार बार में नहीं छह बार में यही एमाउंट निकालिए। दस बार में निकालिए!’
‘आप समझे नहीं भइया!’
‘आप ही समझाइए।’
‘निकालने की बात नहीं है। आने की बात है।’
‘ज़रा ठीक से समझाइए।’ आनंद खीझ कर बोला।
‘भइया अब आप से क्या छिपाना?’ बुज़ुर्गवार बोले, ‘घर की बात है। पेंशन की तारीख़ करीब आती है तो घर के सारे लोग मेरी ख़ातिरदारी शुरू कर देते हैं। क्या छोटे-क्या बड़े। पानी मांगता हूं तो कहते हैं पानी? अरे दूध पीजिए। पानी मांगता हूं तो दूध लाते हैं। खाने में सलाद, सब्ज़ी, दही, अचार, पापड़ भी परोसते हैं। ज़रा सी हिचकी भी आती है तो दवा लाते हैं। लेकिन जब पेंशन मिल जाती है तब नज़ारा बदल जाता है। घर का हर कोई दुश्मन हो जाता है। क्या छोटा, क्या बड़ा। पानी की जगह दूध देने वाले लोग पानी नाम सुनते ही डांटने लगते हैं। कहते हैं ज़्यादा पानी पीने से तबीयत ख़राब हो जाती है। बहुत पानी पीते हैं। मत पिया कीजिए इतना पानी। हिचकी की कौन कहे, खांसते-खांसते मर जाता हूं, दवा नहीं लाते। खाना भी रूखा-सूखा। हर महीने का यह हाल है। तो जब दो बार या चार बार पेंशन मिलेगी हर महीने तो हमारी समस्या का समाधान हो सकता है निकल जाए!’
‘पर ऐसा कैसे हो सकता है भला?’ बुज़ुर्गवार का हाथ हाथ में ले कर कहते हुए उन के दुख में भींग जाता है आनंद। कहता है, ‘अच्छा तो अब चलूं?’
‘ठीक है भइया पर यह बात हमारे यहां किसी को मत बताइएगा।’
‘क्या?’
‘यही जो मैं ने अभी कहा।’
‘नहीं-नहीं बिलकुल नहीं।’ कह कर आनंद उन के पैर छू कर उन्हें दिलासा देता है, ‘अरे नहीं, बिलकुल नहीं।’
बताइए इस भीष्म पितामह को महीने में चार बार पेंशन का पानी चाहिए।
एक डाक्टर के यहां अपनी बारी की प्रतीक्षा में वह बैठा है। डाक्टर होम्योपैथी के हैं सो वह सिमटम पर ध्यान ज़्यादा देेते हैं। एक ब्लड प्रेशर के मरीज़ से डाक्टर की जिरह चल रही है, ‘क्या टेंशन में ज़्यादा रहते हैं?’
‘हां, साहब टेंशन तो बहुत है ज़िंदगी में।’ पेशेंट मुंह बा कर बोला।
‘जैसे?’
‘द़तर का टेंशन। घर का टेंशन।’
‘द़तर में किस तरह का टेंशन है?’
‘नीचे के सब लोग रिश्वतख़ोर हो गए हैं। बात-बात पर फाइलें फंसाते हैं। पैसा नहीं मिलता है तो बेबात फंसाते हैं। मैं कहता हूं दाल में नमक बराबर लो। और सब नमक में दाल बराबर लेते हैं। यह ठीक तो नहीं है।’
‘आप का काम क्या है?’
‘बड़ा बाबू हूं।’ वह ठसके से बोला, ‘बिना मेरी चिड़िया के फ़ाइल आगे नहीं बढ़ती।’
‘चिड़िया मतलब?’
‘सिंपल दस्तख़त।’
‘ओह! इतनी सी बात!’
‘इतनी सी बात आप कह रहे हैं। अफ़सर बाबू मिल कर देश बेचे जा रहे हैं और आप इतनी सी बात बोल रहे हैं?’ वह तनाव में आता हुआ बोला, ‘मैं तो अब वी.आर.एस. लेने की सोच रहा हूं।’
‘अच्छा घर में किस बात का टेंशन है?’
‘घर में भी कम टेंशन नहीं?’ वह तफ़सील में आ गया, ‘एक लड़का नौकरी में आ गया है। दूसरा बिज़नेस कर रहा है। बिज़नेस ठीक नहीं चल रहा। तीसरा लड़का कुछ नहीं कर रहा। लड़की की शादी नहीं तय हो रही है।’
‘बस?’
‘बस क्या, घर में रोज़ झगड़ा हो जाता है मिसेज़ से।’
‘किस बात पर?’
‘मुझे हरी सब्ज़ी पसंद है। साग पसंद है। मिसेज़ को तेल मसाला पसंद है। बच्चों को भी मसालेदार पसंद है। इस पर झगड़ा बहुत है।’
‘ठीक है। आप अपनी सब्ज़ी अलग बनवाइए। तेल-घी मसाला और नमक बिलकुल छोड़ दीजिए। द़तर से लंबी छुट्टी ले लीजिए। ब्लड प्रेशर आप का चार सौ चला गया है। इस को रोकिए। नहीं मुश्किल में पड़ जाइएगा।’
‘जैसे?’
‘लकवा मार सकता है। आंख की रोशनी जा सकती है। कुछ भी हो सकता है।’ कहते हुए डाक्टर उस के परचे पर दवाइयां लिख देते हैं।
दूसरा मरीज़ शुगर का है। डाक्टर की मशहूरी सुन कर पटियाला से लखनऊ आया है। सिख है। सरदारनी को भी साथ लाया है। सरदारनी उस के शुगर से ज़्यादा शराब छुड़ाने पर आमादा है। सरदार डेली वाला है। डाक्टर भी समझा रहे हैं। पर वह कह रहा है, ‘नहीं साहब बिना पिए मेरा काम नहीं चलता। बिना इस के नींद नहीं आती।’ डाक्टर नींद की गोलियों की तजवीज़ करते हैं। पर वह अड़ा हुआ है कि, ‘बिज़नेस की टेंशन इतनी होती है कि बिना पिए उस की टेंशन दूर नहीं होती।’
‘तो बिना शराब रोके कोई दवा काम नहीं करेगी?’
‘कैसे नहीं करेगी?’ सरदार डाक्टर पर भड़क गया है, ‘पटियाला से लखनऊ फिर किस काम के लिए आया हूं।’ बिलकुल दम ठोंक कर कहता है, ‘दवा आप दो, काम करेगी मेरी गारंटी है।’
‘इस वक्त भी आप पिए हुए हैं।’ डाक्टर उसे तरेरते हुए मुसकुराते हैं।
‘हां, थोड़ी सी।’ वह हाथ उठा कर मात्रा बताता है।
‘इन को कल ले कर आइए। जब पिए हुए न हों।’ डाक्टर सरदारनी से कहते हैं। पर सरदार अड़ा है कि, ‘दवा आज ही से शुरू होगी। भले कल से बदल दो।’ वह जोड़ता है, ‘आखि़र इतना पैसा ख़र्च कर पटियाले से ख़ास इसी काम के लिए आया हूं। तो काम तो जी होना चाहिए ना!’ डाक्टर को चुप देख कर वह बड़बड़ाता है, ‘फ़ीस बाहर दे दी है, आप दवा दो!’
आनंद बिना दवा लिए क्लिनिक से बाहर आ गया।
सोचता है सिगरेट पिए।
पर सिगरेट नहीं है। आस पास कोई दुकान भी नहीं है। वह कई बार पाइप और सिगार पीने के बारे में भी सोच चुका है। सिगार तो मौक़े बेमौक़े पी लेता है। पर पाइप हर बार मुल्तवी हो जाता है। सोच-सोच कर रह जाता है। ख़रीद नहीं पाता। सिगार भी कभी-कभार ही। नियमित नहीं।
नियमित नहीं है काफ़ी हाउस में भी बैठना उस का। पर बैठता है जब-तब। पहले के दिनों में काफ़ी हाउस में बैठना एक नशा था। अब वहां बैठ कर नशा टूटता है। समाजवादी सोच को अब वहां सनक मान लिया गया है। समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आई/हाथी से आई घोड़ा से आई/समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आई।’ को अब वहां इसी शाब्दिक अर्थ में गूंथा जाता है। और लोग पूछते हैं, ‘का हो कब आई?’ इतना कि आनंद को ‘जब-जब सिर उठाया/चौखट से टकराया’ दुहराना पड़ता है। लगता है विद्यार्थी जीवन ख़त्म नहीं हुआ। विद्यार्थी जीवन याद आते ही उसे अपनी छात्र राजनीति के दिन याद आ जाते हैं। याद आते हैं पिता। पिता की बातें। वह अंगरेज़ी हटाओ आंदोलन के दिन थे। पिता कहते थे कि, ‘पहले अंगरेज़ी पढ़ लो, अंगरेज़ी जान लो फिर अंगरेज़ी हटाओ तो अच्छा लगेगा। नहीं ख़ुद हट जाओगे। कोई पूछेगा नहीं।’ लेकिन तब वह पिता से टकरा गया था। आंदोलन का जुनून था। कई बार वह पिता से टकराता था तो लगता था-व्यवस्था से टकरा रहा है। व्यवस्था से आज भी टकराता है। पर इंक़लाब ज़ि़दाबाद सुने अब ज़माना गुज़र गया है। जिंदाबाद-मुर्दाबाद के दिन जैसे हवा हो गए। ‘हर ज़ोर-जुलुम के टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है’ को जैसे सांप सूंघ गया है। आर्थिक मंदी के दौर में जगह-जगह से लोग निकाले जा रहे हैं, बेरोज़गार हो रहे हैं। पर अब यह सब सिर्फ़ अख़बारों की ख़बरें हैं। इन ख़बरों में हताशा की बाढ़ है। जोश और इंक़लाब का हरण हो गया है, हमारी रक्त कोशिकाएं रुग्ण हो गई हैं। नहीं खौलता ख़ून। बीस हज़ार-तीस हज़ार की नौकरी छूटती है तो दस हज़ार-पंद्रह हज़ार की नौकरी कर लेते हैं। लाख डेढ़ लाख की नौकरी छूटती है पचास हज़ार-साठ हज़ार की कर लेते हैं कंपनी बदल लेते हैं। शहर बदल लेते हैं। ज़मीर और ज़हन बदल लेते हैं। ‘एक खेत नहीं, एक बाग़ नहीं हम सारी दुनिया मांगेंगे’ गाना हम भूल गए हैं। भूल गए हैं यह पूछना भी कि एक ही आफ़िस में कुछ आदमी आठ लाख-दस लाख महीने की तनख़्वाह ले रहे हैं तो कुछ लोग दस हज़ार, बीस हज़ार, पचास हज़ार की तनख़्वाह ले रहे हैं। यह चौड़ी खाई क्यों खोद रहे हैं हुजू़र? यह कौन सा समाज गढ़ रहे हैं। क्यों नया दलित गढ़ रहे हैं? क्यों एक नए नक्सलवाद, एक नई जंग की बुनियाद बना रहे हैं? अच्छा बाज़ार है! चलिए माना। फिर ये बेलआउट पैकेज भी मांग रहे हैं।
यह क्या है?
मालपुआ खाना है तो बाज़ार की हेकड़ी है। भीख मांगनी है तो लोक कल्याणकारी राज्य की याद आती है? भई हद है!
काफ़ी हाउस में बैठा आनंद सिगरेट सुलगाता है और सोचता है कि इसी माचिस की तीली से बेल आउट देने और लेने वालों को भी किसी पेट्रोल पंप पर खड़ा कर के सुलगा दे। और बता दे कि जनता की गाढ़ी कमाई से भरा गया टैक्स, सर्विस टैक्स और दुनिया भर का ऊल जुलूल टैक्स का पैसा है। इस से बेलआउट के गड्ढे मत पाटो।
‘शिव से गौरी ना बियाहब हम जहरवा खइबौं ना!’ शारदा सिनहा का गाया भोजपुरी गाना कहीं बज रहा है। यह कौन सा कंट्रास्ट है?
वह रास्ते में है।
कोहरा घना है। और थोड़ी सर्दी भी। कोहरे को देख उसे सुखई चाचा की याद आ गई।
घने कोहरे में लिपटी वह रात सुखई चाचा के ज़र्द चेहरे को भी जैसे अपने घनेपन में लपेट लेना चाहती थी। लेकिन बार-बार डबडबा जाने वाली उन की निश्छल आंख छलछलाती तो जैसे वह कोहरे को ही अपने आप में लपेट लेती। उन के रुंधे कंठ से उन की आवाज़ भी स्पष्ट नहीं हो पा रही थी। तो भी उस घोर सर्दी में उन की यातना की आंच जलते हीटर की आंच से कहीं ज़्यादा थी।
यह यातना उन के मुसलमान होने की थी।
उन के नाती को पुलिस ने आतंकवादी घोषित कर दिया था। गांव की राजनीति और लोकल पुलिस का यह कमाल था। आतंकवाद की बारीकियों से बेख़बर आतंकवाद के आतंक की काली छाया में वह घुट रहे थे। आतंक से तो वह परिचित थे, पर आतंकवाद क्या बला है, इसे वह अब भुगत रहे थे, बल्कि उस में झुलस रहे थे।
झुलसते हुए ही वह तीन सौ किलोमीटर की दूरी नाप कर लखनऊ आनंद के पास आए थे अपने नाती को ले कर कि वह आतंकवाद की नंगी तलवार की फांस से उन के नाती को उबार देगा। यह सोच कर कि आनंद बड़का नेता है, जो चाहेगा, करवा देगा। वह यह उम्मीद जताते हुए थर-थर कांप रहे थे, उन की घबराई डबडबाई आंखें जब तब छलछला पड़ती थीं।
सुखई चाचा जो आनंद के जीवन के अनगिनत सुखों के साझीदार थे, अपने इस बुढ़ापे के दुख में आनंद को साझीदार बनाने पर आमादा ही नहीं आकुल-व्याकुल, हैरान-परेशान भयाक्रांत उस के पैरों में समा जाना चाहते थे।
उस ने उन्हें हाथ जोड़ कर रोका कि, ‘नहीं सुखई चाचा, ऐसा नहीं करें। आप मुझ से बहुत बड़े हैं।’
‘नहीं तिवारी बाबा! ओहदा में, जाति में, रसूख़ में तो रऊरा बड़ा बानी।’
‘अरे नहीं-नहीं बड़े तो आप ही हैं।’ कह कर मैं ने उन्हें उठा कर बैठा लिया। और कहा कि, ‘अभी आप खा पी कर आराम से सोइए। रात बहुत हो गई है। सुबह इत्मीनान से बात करेंगे। और इसे बचाने का इंतज़ाम भी। ड्राइंग रूम में ही उन के और उन के नाती के सोने की व्यवस्था करने के लिए पत्नी से कहा तो वह ज़रा बिदकी। पर जल्दी ही वह व्यवस्था करने में लग गई। वह कंबल खोजने लगी तो मैं ने कहा कि, ‘कंबल नहीं मेहमानों वाली रज़ाई दे दो ठंड बहुत है। और हीटर भी जला रहने देना।’
सुखई चाचा जो उस की पैदाइश से ही उसके साथ थे। बाजा बजाते हुए। दादी बताती थीं कि जब मैं आधी रात को पैदा हुआ तो शुभ साइत का नगाड़ा जब बजा तो मियां का बाजा भी बजा। मियां माने सुखई। तब जाड़े की रात थी लेकिन ख़बर मिलते ही सुखई चाचा अपना बिगुल बजाने अपने बेटे के साथ आ गए। सुखई बिगुल यानी ट्रम्पेट्स बजा रहे थे और उन का बेटा तासा। भाई उन का झाल बजाता रहा। अम्मा बताती थीं कि जब मेरा निकासन हुआ तब भी मियां ने बाजा बजाया। मेरा मुंडन हुआ तब भी मियां ने बाजा बजा कर दरवाजे़ की शोभा बढ़ाई। और मैं ने अपने यज्ञोपवीत तथा बाद में विवाह में भी मियां यानी सुखई चाचा को ट्रम्पेट्स बजाते देखा। ट्रम्पेट्स पर उन दिनों फ़िल्मी गानों की बहार आ गई थी पर सुखई चाचा के ट्रम्पेट्स पर कजरी और पुरबी गानों की बहार फिर भी बहकती झूमती छाई रहती। मेरे पैदा होने, निकासन, मुंडन, यज्ञोपवीत, विवाह आदि सभी मौक़े पर सुखई चाचा दरवाजे़ की शोभा बढ़ाते रहे बिगुल यानी ट्रम्पेट्स बजा कर। मुझे याद है कि जब मेरी दादी का देहांत हुआ और उन का पार्थिव शरीर शहर के अस्पताल से ट्रक से गांव ले जाया गया तो सुखई चाचा की बैंड पार्टी दादी की अंतिम विदाई में भी हाज़िर थी। दादी ने लंबी उम्र जी कर विदा ली थी तो ग़मी के बावजूद ख़ुशी का भी मौक़ा था सो उन्हें बाजे गाजे के साथ विदाई दी गई गांव से। घर की औरतें और लोग रो ही रहे थे, सुखई चाचा ने जाने कौन सी धुन या जाने कौन सा राग छेड़ा अपने ट्रम्पेट्स पर कि जो लोग नहीं रो रहे थे, वह लोग भी रोने लगे। सब की आंखें बह चलीं।
सुखई चाचा बैंड बाजे का सट्टा करते थे, पर हमारे घर से वह सट्टा नहीं लिखवाते जजमानी लेते। पहले वह लुंगी या धोती पहने ही ट्रम्पेट्स बजाते थे पर बाद के दिनों में उन की बैंड बाजा कंपनी में बैंड बाजा वाली लाल रंग की ड्रेस भी आ गई। पर वह ख़ुद ड्रेस नहीं पहनते थे। धोती या लुंगी खुंटियाए वह अलग ही दिखते थे। बाद में उन का बेटा बिस्मिल्ला भी तासा छोड़ कर ट्रम्पेट्स बजाने लगा पर सुखई चाचा जैसी तासीर वह अपने बजाने में नहीं ला पाया।
सुखई चाचा का नाम तो था सुख मुहम्मद लेकिन गांव में लोग उन को सुखई कहते थे। गांव की औरतें जो संस्कारवश या लाजवश पुरुषों का नाम नहीं लेती थीं, उन्हें मियां कहती थीं। और हम उन्हें सुखई चाचा कहते थे।
ब्राह्मणों की बहुतायत वाले गांव में चूड़िहारों के भी सात आठ घर थे। उन्हीं में से एक घर सुखई चाचा का भी था। सुखई चाचा का नाम भले सुख मुहम्मद था पर सुख उन के नसीब में शायद ही कभी रहा हो। हां, उन के चेहरे पर एक फिस्स हंसी जैसे हमेशा चस्पा रहती थी। चाहे वह हल जोत रहे हों, चाहे सिलाई मशीन चला रहे हों, चूड़ी पहना रहे हों या बाजा बजा रहे हों। सुखई चाचा जैसे हर काम में माहिर थे। या ऐसे कहूं कि वह हर किसी काम के लिए बने थे। उन के पास मुर्गि़यां भी थीं और बकरियां भी। लेकिन सब कुछ के बावजूद गुज़ारा उन का न सिर्फ़ मुश्किल बल्कि बेहद मुश्किल था।
हमारे घर में क्या गांव के किसी भी घर में शादी ब्याह होता, लगन लगते ही उस घर में सुखई चाचा का डेरा भी जम जाता। सगुन का जुआठा हरीश लगते ही उन की सिलाई मशीन भी जम जाती। घर भर के कपड़े, रिश्तेदारों के कपड़े सिलने वह शुरू कर देते। काज, तिरुपाई, बटन के लिए उन की बेगम, बेटियां, बहू बारी-बारी सभी लग जाते। तब के घर भी कोई दो चार दस सदस्यों वाले घर नहीं होते थे। सिंगिल फेमिली, ज्वाइंट फेमिली का कंसेप्ट भी तब गांव में नहीं था। बाबा की चचेरी बहनें तक घर का ही हिस्सा थीं। बूढ़ी फूफियां अपने नाती पोतों समेत अपनी ससुराल छोड़ शादी के दस रोज़ पहले ही बुला कर लाई जातीं और शादी के दस बारह रोज़ बाद ही वापस जातीं। एक-एक दो-दो कपड़े ही सही, सभी के लिए नए-नए सिले ज़रूर जाते। कोई कुछ कहे तो सुखई चाचा बस, ‘हां बाबा, हां तिवराइन’ कह कर काम समझ लेते और उस के मन मुताबिक़ काम कर देते।
अपने टीन-एज के दिनों में आनंद एक बार बेहद बीमार पड़ा। एक्यूट एनिमिया हो गया था। देह में ख़ून की बेहद कमी वाली इस बीमारी में डाक्टर ने पौष्टिक आहार में दूध और अंडा का भी ज़िक्र कर दिया। घर में मांस-अंडा का पूरी तरह निषेध था। मां को तुरंत सुखई चाचा याद आए। बुलाया उन्हें। उन के घर में दूध देती गाय भी थी और अंडा देती मुर्ग़ी भी। वह सहर्ष तैयार हो गए। और पूरी गोपनीयता के साथ दूध में कच्चा अंडा फेंट-फेंट पिलाते रहे। आनंद के स्वस्थ होने तक।
उसे याद है तब कार्तिक का महीना था। गेहूं की बुआई का समय था। सुखई चाचा के साथ खेत में वह जब-तब हेंगे पर बैठ जाता। रह-रह कर वह हल जोतने की भी ज़िद करता और वह इस के लिए सख़्ती से मना कर देते। एक बार वह हल लुढ़का कर पेशाब करने ज़रा दूर गए। आनंद ने मौक़ा पा कर हल चलाना शुरू कर दिया। ज़रा दूर चलते ही हल की मूठ टेढ़ी-मेढ़ी हुई और हल का फार बैल के पैर की खुर में जा लगा। बैल की खुर से ख़ून निकलने लगा। उस का चलना मुश्किल हो गया। बैल अचकचा कर बैठ गया। सुखई चाचा दौड़ते-हांफते आए। बोले, ‘इ का कै देहलीं बाबा!’ झटपट बैल के जुआठे से पहले हल निकाला फिर बैल के गले से जुआठा। और माथे पर हाथ रख कर बैठ गए। बोले, ‘कातिक महीना, बैल बइठ गइल। अब कइसे बोआई होई!’ वह रुके और बोले, ‘अब गोंसयां हम्मे छोड़िहैं नाईं। गारी से तोप दिहैं।’ हुआ भी वही बाबा ने उन्हें गालियों से पाट दिया। पूछा कि, ‘अब कइसे बुआई होगी?’
गेहूं की बुआई उस साल पिछड़ गई थी। बाद में उधार के बैल से बुआई हुई। पर सुखई चाचा ने एक बार भी बाबा से नहीं कहा कि आनंद ने हल चला कर बैल के पैर में घाव दिया है, आनंद की बेवक़ूफ़ी से बैल का खुर कटा है। भूल कर भी नहीं, सारी तोहमत अपने ऊपर ले ली। आनंद चाह कर भी अपनी ग़लती बाबा से नहीं बता पाया। क्यों कि फिर उसे अपनी पिटाई का डर था। और सुखई चाचा भी यह बात जानते थे सो सारी गालियां अपने हिस्से ले लीं, आनंद को पिटने नहीं दिया। आनंद के बाबा प्राइमरी स्कूल के हेडमास्टर रहे थे। सो पिटाई बड़ी बेढब करते थे। उन की पिटाई के क़िस्से उन के रिटायर होने और निधन के बाद भी ख़त्म नहीं हुए थे गांव से-जवार से।
अकसर जब वह खेत में बाबा के साथ होता तो लोग आते-जाते बड़ी श्रद्धा से उन के चरण स्पर्श करते। लोगों के जाने के बाद जब वह बाबा से पूछता कि, ‘ये कौन थे?’
‘अरे चेला है।’ वह जोड़ते, ‘पढ़ाया था इस को।’ बाबा बताते और लगभग हर किसी के लिए।
‘पर यह आदमी पढ़ा लिखा तो लग नहीं रहा था।’
‘तो ससुरा जब पढ़ा ही नहीं तो पढ़ा लिखा लगेगा कइसे?’
‘पर अभी तो आप कह रहे थे कि पढ़ाया था, चेला है।’
‘हां, पढ़ाया तो था। पर ससुर पढ़ा कहां। दो चार छड़ी मारा, भाग खड़ा हुआ। फिर स्कूल ही नहीं आया।’ अधिकांश लोगों की पढ़ाई बाबा की मार से छूट गई थी। वह अपने समय में मरकहवा मास्टर नाम से मशहूर थे। गणित और उर्दू दो उन के विषय थे। ख़ास कर गणित में वह अपने विद्यार्थियों को बहुत मारते। हाथ-पांव तक तोड़ डालते। नतीजतन तब के विद्यार्थी भैंस चराना मंज़ूर कर लेते पर मरकहवा मास्टर से पढ़ाई नहीं। लेकिन जो विद्यार्थी उन की मार बरदाश्त कर ले जाते वह अव्वल निकल जाते। डिप्टी कलक्टर और कलक्टर बन जाते। ऐसा बाबा ख़ुद बताते। कलक्टर या डिप्टी कलक्टर तो नहीं पर कुछ अच्छी जगहों पर जमे लोगों को बाद के दिनों में ज़रूर उस ने पाया। जो इन मास्टर साहब की पिटाई पर आह भरते और उन के पढ़ाने के गुण की वाह करते कुछ थोड़े से लोगों को पाया। पर अधिकांश पढ़ाई छोड़ कर भागने वाले ही मिले।
सुखई चाचा भी उन्हीं न भागने वालों में से थे। अलिफ़ बे उन्हों ने बाबा से ही सीखा था। पर घर की मजबूरियों ने उन्हें और आगे पढ़ने नहीं दिया। और वह इस उर्दू तालीम को अपनी दर्ज़ीगिरी में आज़माते। और आनंद के घर के सारे काम भी वह पूरी निष्ठा, श्रद्धा या यों कहिए कि पूरे विद्यार्थी धर्म के साथ निभाते। वह बाबा को और उन के पूरे परिवार को अपने श्रम की गुरु दक्षिणा जब-तब प्रस्तुत करते रहते। और अभी भी सुखई चाचा उसी कृतज्ञ भाव से आनंद के पास अपने नाती को पुलिसिया क़हर से, आतंकवाद की आंच और गांव की गिरी राजनीति से बचाने की गुहार भरी आस में नाती को ले कर लखनऊ आए थे।
उन के नाती का दोष सिर्फ़ इतना था कि आज़मगढ़ के एक लड़के से उस की दोस्ती थी। दोस्ती क्या थी, साथ पढ़ता था। टीन-एज में दोस्ती की ललक और उत्साह में वह गांव में सुखई चाचा के घर भी दो-चार बार आया आज़मगढ़ लौटते समय। वह आता और बाबरी मस्जिद के घाव की तफ़सील में जाता। गुजरात दंगों के नासूर गिनाता। देश में मुसलमानों के प्रति हो रहे अन्याय बतियाता। गांव के कुछ लोगों के कान खड़े हो गए। कहने लगे, ‘यह तो साला पाकिस्तानियों की तरह बात करता है।’ किसी ने कहा, ‘अभी नहीं रोका गया तो यह रहीमवा का बाप निकलेगा।’ और रहीम को यह लोग पहले ही सबक़ सिखा चुके थे।
रहीम भी पहले सुखई चाचा की बैंड बाजा टीम में ट्रम्पेट्स बजाता था। लगन के दिनों में। बाद के दिनों में मेहनत-मज़दूरी कर के परिवार चलाता। उन्हीं दिनों छोटे भाई को कमाने के लिए सऊदिया भेजने का जुनून अचानक उस पर सवार हो गया। इसी दौड़ धूप में कुछ लीगी टाइप मुसलमानों से भी उस का परिचय हो गया। बाद के दिनों में उस के बाक़ी दो भाई भी सऊदिया चले गए। रहीम ने छोटी-मोटी मज़दूरी करनी छोड़ दी। अब घर में न सिर्फ़ पैसा आ गया था, रहीम के बर्ताव में भी फ़र्क़ आ गया था। अब वह मौलानाओं की तरह छोटी-मोटी तक़रीर भी करने लगा। कांशीराम, मुलायम ने नब्बे के दशक में दलित, पिछड़ों और मुस्लिम का गठजोड़ बनाया और जल्दी ही तोड़-ताड़ भी बैठे। पर रहीम ने अपने गांव स्तर पर अस्सी के दशक में ही यह गठजोड़ बना लिया था। और इतना ज़बरदस्त गठजोड़ कि सवर्णों की आंख की वह किरकिरी बन बैठा।
उन दिनों खेती ट्रैक्टर और कंबाइन के भरोसे नहीं थी। हल-बैल की खेती थी। हालां कि ट्रैक्टर की आमद गांव में हो चुकी थी पर कंबाइन का कहीं दूर-दूर तक अता पता नहीं था। हां, थ्रेशर की धमक ज़रूर थी। ग़रज़ यह कि खेती बिना मज़दूरों के नहीं हो सकती थी। और मज़दूरों की रहनुमाई रहीम के हाथों धीरे-धीरे आ रही थी। इतना ही नहीं रहीम अब पैसा, और बुद्धि दोनों का खेल खेल रहा था। सब से पहले उस ने ग्राम समाज की ज़मीन पर नज़र गड़ाई। जो खलिहान और बरात के नाम पर सवर्णों के कब्जे़ में थी। उस ने बहुत होशियारी से गांव के नाऊ, कहार, ढांढ़ी, कोइरी आदि जातियों के भूमिहीनों को गोलबंद किया और ग्राम प्रधान को ग्राम समाज की उस ज़मीन को पट्टे पर देने की दरख़्वास्त डलवा दी। वह ख़ुद तो भूमिहीन नहीं था अब, पर न सिर्फ़ अपने बल्कि कुछ और मुस्लिम चूड़िहारों की भी दरख़्वास्तें डलवा दीं। ग्राम प्रधान एक पंडित जी थे। शुरू में उन्हों ने टाल-मटोल किया पर रहीम ने तब के दिनों में चंदा लगा कर पंडित जी को दस हज़ार रुपए रिश्वत में दे कर उन की टाल-मटोल बंद करवा दी। पंडित जी ने पट्टा जारी कर दिया। पर इस अनुरोध के साथ कि पट्टा ले कर साल-छ महीना तक सांस न लें। न ही उस ज़मीन पर नज़र डालें।
रहीम मान गया। ग्राम प्रधान की यह बात।
तो भी ग्राम समाज की इस ज़मीन पर पट्टे की खुसफुसाहट गांव में शुरू हो गई। सवर्ण सकते में आ गए। ग्राम प्रधान पंडित जी को पकड़ा गया। पर उन्हों ने पट्टा देने से साफ़ इंकार कर दिया। और सांस खींच ली। लेकिन रहीम जिस श्रद्धा से झुक कर ग्राम प्रधान पंडित के चरण स्पर्श करता लोगों के मन मंे सवाल उतने ही सुलग जाते। पर यह सुलगन चिंगारी बनती और चिंगारी शोला, ग्राम प्रधान पंडित प्रयाग चले गए। सपत्नीक कल्पवास पर। महीने भर के लिए।
उधर पंडित ग्राम प्रधान कल्पवास पर प्रयाग गए इधर कतवारू नाऊ ने ग्राम समाज से पट्टे पर मिली ज़मीन पर मड़ई डाल दी। रातो-रात। रहीम ने उसे समझाया बहुत पर वह नहीं माना। अंततः दूसरी रात उस की मड़ई में गांव के दबंगों ने आग लगा दी। मड़ई सिर्फ़ सांकेतिक थी, सो कोई उस में सोया नहीं था। इस लिए किसी की जान नहीं गई। कतवारू के पास पट्टे का काग़ज़़ भी नहीं था सो पुलिस ने रिपोर्ट भी दर्ज नहीं की। पट्टे का काग़ज़़ रहीम के पास था। लेकिन चूंकि वह ख़ुद पढ़ा लिखा नहीं था, और काग़ज़़ को ले कर सशंकित भी था, पंडित ग्राम प्रधान गांव में नहीं थे सो उस ने काग़ज़़ किसी को न दिया, न दिखाया। पर कतवारू का कहना था कि उस ने पांच सौ रुपए रिश्वत दे कर पट्टा लिखवाया है और कोने वाली ज़मीन उसी के नाम है। वह बस इतना जानता है। पर रहीम ने उस की किसी बात का जवाब नहीं दिया। ख़ामोश रहा। मौक़ा पा कर उस ने कतवारू को समझाया भी कि, ‘कैंची कपार पर चलाओ, मुंह की कैंची चकर-पकर मत चलाओ। और चुप रहो। पंडित जी आएंगे तो देखा जाएगा। नहीं सारा खेल बिगड़ जाएगा।’
कतवारू चुप हो गया।
लेकिन गांव चुप नहीं हुआ।
तरह-तरह की बातें, तरह-तरह के कयास। लोग कहने लगे कि यह पंडित तो कफ़न बेच कर खा जाने वाला है तो ग्राम समाज की ज़मीन क्या चीज़ है? बेच दिया होगा। लेकिन सारी बातें गुपचुप। कोई खुल कर सामने नहीं आ रहा था। कारण यह था कि ग्राम प्रधान का कारोबार सूदख़ोरी का भी था। विरले ही घर थे जिस का पुरनोट प्रधान के पास न हो। वक़्त-बेवक्त किसी को भी पैसे की ज़रूरत पड़ जाती। जीना-मरना हो या शादी-ब्याह, प्रधान के यहां से सूद पर आदमी पैसा लेता ही था। जो जल्दी ख़त्म होता नहीं था। आदमी सौ रुपए उधार ले कर हज़ार रुपए दे देता पर सब सूद में चला जाता, मूल नहीं ख़त्म होता था। हां, बीच-बीच में पुरनोट ज़रूर बदल जाता। सो लगभग एक दहशत सी थी गांव में ग्राम प्रधान की। बीच दहशत में खुसफुस सूचनाएं तैर रही थीं कि भूमिहीन लोगों को ग्राम समाज की ज़मीन पर पट्टा एक बार फिर भी समझ में आता है पर रहीम के पास तो अपना पक्का घर है दो बीघा ही सही खेत है, तो उस के नाम पर भी पट्टा कैसे हो सकता है भला?
‘तो रहीम को भी पट्टा कर दिया है पंडित ने?’ गांव के सवर्णों में यह सवाल सुलगने लगा। फिर बात यह भी आई कि न सिर्फ़ रहीम बल्कि रहीम ने अपने भाइयों, पट्टीदारों के नाम भी पट्टा करवा लिया है। यह सारी सूचनाएं कतवारू नाऊ के सौजन्य से गांव में फैल रही थीं। रहीम के लिए कतवारू नाऊ अब सिर दर्द होता जा रहा था। कतवारू की ‘होशियारी’ रहीम की ‘रणनीति’ में पलीता लगा रही थी।
गांव में अचानक नवयुवक मंगल दल गठित हो गया था। नवयुवक मंगल दल की ओर से गांव में चंदा लगा। फिर नवयुवक मंगल दल की ओर से एक दिन ग्राम समाज की उस ज़मीन को ले कर एक अदालत में मुक़दमा दाखिल हो गया। तर्क यह दिया गया कि ग्राम समाज की ज़मीन पर भूमिहीनों के बजाय जोतदारों को पट्टा दे दिया गया है। नतीजतन गांव में न सिर्फ़ शांति भंग बल्कि सांप्रदायिक तनाव भी बढ़ गया है। अदालत में इस बिना पर दरख़्वास्त दी गई कि सारे पट्टे तुरंत प्रभाव से निरस्त कर दिए जाएं। पर चूंकि पट्टे के काग़ज़़ साक्ष्य रूप में उपलब्ध नहीं कराए गए थे सो अदालत ने इस बिंदु पर सुनवाई से इंकार कर दिया। संबंधित लोगों को नोटिस जारी कर यथास्थिति बनाए रखने के आदेश ज़रूर जारी किए अदालत ने। साथ ही प्रशासन को क़ानून व्यवस्था बनाए रखने की हिदायत भी जारी कर दी।
मामला और भड़क गया।
रातों रात रहीम वग़ैरह की भी मड़ई पड़ गई। रहीम से लोगों ने पूछताछ की तो उस ने अदालत के स्टेटस-को का हवाला दिया। और एक अलग ही परिभाषा दे दी स्टेटस-को की। कहा कि स्टेटस-को का मतलब दोनों पक्षों का बराबर-बराबर कब्ज़ा। लोगों ने पूछा भी कि, ‘दोनों पक्ष मतलब नवयुवक मंगल दल का भी यहां कब्ज़ा होना चाहिए?’
‘नहीं, ग्राम समाज और पट्टा पाए लोगों का कब्ज़ा।’ रहीम ने जवाब दिया और कहा कि, ‘ई फ़र्ज़ी नवयुवक मंगल दल कौन होता है हम को रोकने वाला?’
अदालत में उस ने वस्तुस्थिति को जांचने के लिए कमिश्नर रिपोर्ट ख़ातिर दरख़्वास्त दे दी। एक मुस्लिम वकील ही कमिश्नर नियुक्त हुआ। कमिश्नर के आने के पहले रातो रात कई और झोंपड़ियां ग्राम समाज की इस ज़मीन पर सज गईं। पिछड़े, दलित और मुस्लिम अब खुल कर सवर्णों से आमने-सामने थे।
रहीम की नेतागिरी चमक गई थी।
नवयुवक मंगल दल की अगुवाई पहले परदे के पीछे से एक फ़ौजी पंडित जी कर रहे थे। जो उन दिनों दो महीने की छुट्टी पर गांव आए हुए थे। अब वह खुल कर सामने आ गए थे। रणनीति के तहत ही उन्हों ने नवयुवक मंगल दल में कुछ पिछड़े और दलितों को भी जोड़ा था। पर अब वह सब भी छिटक कर अपनी जमात में चले गए थे।
गांव जैसे जल रहा था।
जातिवादी और सांप्रदायिक उफान चरम पर था। इसी बीच ग्राम प्रधान कल्पवास पूरा कर प्रयाग से लौटे तो गांव के बाहर ही उन की घेराबंदी हो गई।
दूसरे दिन ग्राम समाज की ज़मीन की रिपोर्ट अदालत को देने के लिए कमिश्नर को आना था। ग्राम प्रधान के घर रात को सवर्णों की बैठक हुई। पूरी रणनीति पर चर्चा हुई। ज़्यादा तफ़सील में लोग जाते इस के पहले ही ग्राम प्रधान ने एक मंत्र फूंक दिया, ‘सारी मड़ई फूंक डालो, बाक़ी मैं दूख लूूंगा।’
नवयुवक मंगल दल के शोहदों ने फिर दूसरी रणनीति बनाई और तड़के ही सारी झोपड़ियों में आग लगा दी। रहीम अभी कुछ करता-कराता तब तक सारा मलबा साफ़ कर पोखरे में डाल दिया। और ज़मीन पर गोबर की लिपाई करवा दी। नवयुवक मंगल दल का एक बोर्ड भी द़ती पर गुलाबी रंग से लिखवा कर एक बल्ली पर टांग दिया।
कमिश्नर ने आ कर पहले तो पूरी ज़मीन की पैमाइश करवाई। फिर लोगों के बयान लिए। नक़्शा बनाया। ग्राम प्रधान से अलग से अकेले में बात की रहीम, कतवारू वगैरह से पूछा कि किस की मड़ई कहां थी?
‘किसी की कोई मड़ई कहीं नहीं थी।’ नवयुवक मंगल दल का एक शोहदा बीच में कूद कर बोला।
‘फिर यह गोबर की लिपाई-विपाई क्यों है?’
‘वो तो इस लिए कि नवयुवक मंगल दल की आज बैठक है।’ एक दूसरा शोहदा बोला।
‘उस के लिए इतनी बढ़िया लिपाई और सारी ज़मीन पर?’ कमिश्नर ने पूछा।
‘हां, खलिहान की भी तैयारी है।’
‘अच्छा? किस-किस का खलिहान यहां होता है?’ कमिश्नर ने पूछा।
‘गांव के लगभग सभी का?’
‘अच्छा?’ कमिश्नर ने पूछा, ‘सारे गांव का खलिहान इतनी सी ज़मीन में हो जाता है?’
‘नहीं कुछ लोग अलग भी करते हैं।’
‘कौन-कौन लोग यहां खलिहान करते हैं?’ कमिश्नर ने स्पष्ट रूप से लोगों का नाम जानना चाहा। पर किसी ने किसी के नाम का खुलासा नहीं किया। हां, सारा गांव, मुसल्लम गांव का पहाड़ा ज़रूर रटते रहे।
कमिश्नर ख़ानापूरी कर के चला गया।
दो दिन बाद फिर मड़ई सब की तन गईं। मड़ई लगते समय लड़ाई-झगड़ा भी हुआ। किसी का सिर फूटा, किसी का मुंह फूटा। पुलिस आई, एफ़.आई.आर. हुई। दो दर्जन से अधिक लोग 107/151 मंे बंद हुए। इस बीच मड़ई की फ़ोटोग्राफ़ी भी हो गई। दो दिन बाद सब की ज़मानत हो गई। कुछ-कुछ ख़ून सब का ठंडा हुआ।
अब दो मुकदमे थे। एक दीवानी में, एक फ़ौजदारी में।
उधर कमिश्नर ने ग्राम समाज की ज़मीन पर रहीम और उस के साथियों का क़ब्ज़ा दिखा कर उस के पक्ष में रिपोर्ट अदालत को दे दी थी। रहीम की बल्ले-बल्ले हो गई। कुछ दिन बाद अदालत में ग्राम प्रधान की ओर से जारी पट्टे के काग़ज़ात भी जमा हो गए।
अब नवयुवक मंगल दल ने रहीम और उस के भाइयों के खि़लाफ़़ मोर्चा खोला कि यह लोग भूमिहीन नहीं हैं, जोतदार हैं, गांव में पक्का मकान है तो इन को पट्टा कैसे मिल सकता है? रहीम अड़ा रहा कि वह और उस के भाई भूमिहीन हैं। और जो वह जोतदार है तो नवयुवक मंगल दल उस के नाम की खसरा खतौनी दिखाए।
खसरा खतौनी रहीम के अब्बू के नाम थी। और रहीम का कहना था कि, ‘अब्बू ने हम को और हमारे भाइयों को अपनी जायदाद से बेदख़ल कर दिया है।’ अपने अब्बू के इस हलफ़नामे की प्रतिलिपि भी उस ने अदालत में पेश कर दी थी। अदालत ने उसे तुरंत स्वीकार नहीं किया था। पर एक पेंच तो रहीम ने खड़ा ही कर दिया था।
अब गांव में यह सवाल उठा कि ऐसे तो गांव के दो तिहाई से अधिक लोग भूमिहीन बन सकते हैं। फिर ग्राम समाज की ज़मीन पर किस-किस को पट्टा मिल पाएगा? ग्राम समाज के पास ज़मीन है ही कितनी?
ख़ैर, मुक़दमे में तारीख़ पड़ती रही।
फ़ौजदारी का मुक़दमा समाप्त हो चुका था। दीवानी के मुक़दमे और ग्राम समाज की ज़मीन को ले कर गांव के अधिकांश सवर्णों की दिलचस्पी समाप्त हो चली थी। ग्राम प्रधान पंडित जी का टर्म अब ख़त्म होने को था। नए चुनाव की तैयारी थी। ग्राम प्रधान पंडित जी की थुक्का फ़ज़ीहत बहुत हो चुकी थी। खुले आम न सही पीठ पीछे सभी उन को गरियाते थे। क्या सवर्ण, क्या दलित, क्या पिछड़े, क्या मुस्लिम। सभी एक सुर से कहते कि इस ग्राम प्रधान पंडित ने गांव की हवा ख़राब कर दी। माहौल बिगाड़ दिया। खेतों से ज़्यादातर दलितों की छुट्टी हो चली थी। खेत की जुताई अब किराए के ट्रैक्टरों से ज़्यादातर लोग करवाने लगे थे। पिछड़ों का इस ग्राम समाज की ज़मीन से ज़्यादा लेना देना नहीं था। सवर्णों से उन का मेल जोल हो चला था। पर ग्राम प्रधानी के चुनाव में वह भी अब अपनी लाठियों में तेल मल रहे थे। पर सब से ज़्यादा टैंपो हाई था रहीम का। रहीम खुल्लमखुल्ला दम ठोंक रहा था। पंडितों में तीन चार दावेदार आ चुके थे। ख़ास कर एक युवा जो गांव के पोखरों में मछली पालन का पट्टा लिए था। और नवयुवक मंगल दल का ख़ास कर्ताधर्ता था। उसे लग रहा था कि अगर सवर्णों में से तीन चार उम्मीदवार हो जाएंगे तो रहीम की जीत पक्की है। सो पहले उस ने आपस में सब को समझाया। रहीम का डर भी दिखाया। पर कोई समझने को तैयार नहीं हुआ।
उन्हीं दिनों वह फ़ौजी पंडित फिर छुट्टी पर आए हुए थे। बिखरते जा रहे और लस्त-पस्त पड़े नवयुवक मंगल दल की बैठक करवाई। नवयुवक मंगल दल अब उन की निगहबानी में फिर से आते ही जोश में आ गया। रहीम को इस की भनक लगी। फ़ौजी पंडित की सक्रियता देख कर रहीम ने उन के एक पट्टीदार से मेल जोल बढ़ाना शुरू कर दिया। जिस से फ़ौजी पंडित की बातचीत तक बंद थी। वह उन की एक गाय जब-तब दूहने लगा।
इधर नवयुवक मंगल दल ने एक और शिगूफ़ा छोड़ा कि रहीम से अगर ग्राम समाज की ज़मीन न छुड़वाई गई तो वह उस पर मस्जिद बनवा देगा। इस बारे में प्रशासन और अदालत को भी नवयुवक मंगल दल ने चिट्ठी लिख कर सूचित किया।
गांव में मस्जिद बनने की ख़बर ने तूल पकड़ लिया। आस-पास के गांवों में भी यह ख़बर गई। एक मुस्लिम बहुल गांव ने इस ख़बर को कैच कर लिया। उस गांव में मस्जिद ईदगाह सब था। उस गांव के लोग इस गांव आने लगे। हिंदुओं के गांव में अलग एका हो गया। सब कहने लगे कि इस गांव में पाकिस्तान नहीं बनने देंगे। रहीम अब सफ़ाई पर आ गया। सब को बताता कि, ‘एक तो इस ज़मीन का मामला अदालत में है। दूसरे, मस्जिद बनाने भर का हमारे पास पैसा नहीं है। तीसरे अगर मस्जिद बन भी जाती है तो इस में पाकिस्तान बनाने की बात कहां से आ जाती है?’
लेकिन रहीम की यही बात कि, ‘अगर मस्जिद बन भी जाती है तो.......’ को लोगों ने पकड़ लिया। कहने लगे कि यह मस्जिद बनाएगा ज़रूर। इस आशय का एक पत्र भी प्रशासन को नवयुवक मंगल दल ने लिखा। पत्र में साफ़ आरोप लगाया गया कि रहीम के पास सऊदिया से पैसा आ रहा है। इस की जांच की जाए और गांव ही नहीं इलाक़े में भी सांप्रदायिकता सिर उठा रही है।
फिर जांच-पड़ताल का दौर शुरू हो गया। गांव का यह मामला शहर के अख़बारों की सुर्खियों में भी आने लगा। रहीम के बयान भी। अब रहीम की दाढ़ी में भी नूर छलकने लगा था।
नवयुवक मंगल दल के लोगों का तनाव बढ़ता जा रहा था।
फ़ौजी पंडित ने बेक़रार हो कर नवयुवक मंगल दल के शोहदों को इकट्ठा किया। पहले तो उन्हें धिक्कारा और कहा कि, ‘तुम लोगों का ख़ून पानी हो गया है। इतनी बातें हो गईं और तुम लोगोें का ख़ून नहीं खौला? कैसे जवान हो? धिक्कार है तुम लोगों की जवानी पर। चूड़ियां पहन कर घर में बैठो। अब जो करना होगा मैं ही करूंगा। सीमा पर पाकिस्तानियों को हिला कर रख देता हूं और अपने ही गांव का पाकिस्तान नहीं ख़त्म कर पा रहा। धिक्कार है मुझ पर भी!’
‘तो क्या किया जाए चाचा जी!’ नवयुवक मंगल दल के युवा फड़फड़ाए।
‘रहीम नाम की नागफनी को छांट डालो!’
‘पर नागफनी तो छांटने से और बढ़ती है।’ एक नौजवान ने तड़प कर कहा।
‘तो इस नागफनी को समूल नष्ट कर दो!’
‘जी चाचा जी!’ सभी युवा एक सुर में बोले।
फिर फूल-प्रूफ़ योजना बनाई गई।
उन्हीं दिनों फ़ौजी पंडित के पट्टीदार जिन से उन की बोल चाल बंद थी का एक बेटा जो महाराष्ट्र में एक पेपर मिल में काम करता था, छुट्टी पर आया हुआ था। वह थोड़ा नहीं ज़्यादा भावुक था। उस को भी इस टीम से जोड़ा गया। वह पट्टीदारी के लाख मन मुटाव के बावजूद गांव में पाकिस्तान नहीं बनने देने के बहकावे में आ गया और ऐलान कर बैठा कि, ‘मेरे जीते जी इस गांव में मस्जिद नहीं बन सकती।’
लेकिन उस के लाख उत्साह के बावजूद उसे सिर्फ़ इतना सा काम सौंपा गया कि वह रहीम को सिर्फ़ गाय दूहने के लिए अपने घर बुला कर लाए। गांव के पोखरों की मछली का ठेकेदार, जो नवयुवक मंगल दल का कर्ताधर्ता भी था, को रहीम पर कट्टे से फ़ायर करने की ज़िम्मेदारी दी गई। इसी कर्ताधर्ता का एक पट्टीदार होमगार्ड में था। उस को ज़िम्मेदारी दी गई कि कट्टा मारने के बाद रहीम को चेक करना कि मरा है कि नहीं। और जो न मरा हो तो उसे चाकू से मार-मार कर मार डाले। एक और लड़के को ज़िम्मेदारी दी गई कि वह होमगार्ड को कवरेज दे और जो रहीम ज़्यादा उछल कूद करे तो उसे पकड़ कर क़ाबू करे।
दूसरे दिन तड़के फ़ौजी पंडित के घर सभी फिर से इकट्ठे हुए। हवन पूजन हुआ। फ़ौजी पंडित ने चारो नौजवानों को तिलक किया, दही खिलाया। विजयी भव का आशीर्वाद दिया। सूरज निकल रहा था और फ़ौजी पंडित गांव से बाहर जा रहे थे। सब को बताते हुए कि, ‘शाम तक लौटूंगा।’
इधर चारो नौजवान अपने काम पर लग गए। फ़ौजी पंडित के पट्टीदार के घर आ कर बाहर के कमरे में छुप कर बैठ गए। फिर पट्टीदार का लड़का रहीम को गाय दूहने के लिए बुलाने चला गया। रहीम ने कहा कि, ‘पहले अपनी गाय तो दूह लूं।’
‘पर हमारी गाय तो रंभा रही है।’ लड़का बोला, ‘आफ़त किए है। लगता है खूंटा तोड़ा कर भाग जाएगी। अगर अभी नहीं दूही गई।’
‘अच्छा चलिए बाबा!’ कह कर रहीम फ़ौजी पंडित के पट्टीदार के यहां चल पड़ा। बोला, ‘अपनी गाय आ कर दूह लूंगा।’
पट्टीदार के घर आ कर बछड़े से गाय को पेन्हा कर बाल्टी लिए रहीम ने गाय को दूहना शुरू ही किया था कि उस की पीठ पर कट्टे का फ़ायर हो गया। वह उचक कर गिर पड़ा। दूसरा फ़ायर उस की बांह पर लगा। रहीम अब तक समझ गया कि उसे मारने के लिए गाय दूहने के बहाने बुलाया गया है। वह गरियाते हुए भागा। पर तब तक होमगार्ड और दूसरे लड़के ने उसे कस के पकड़ लिया। पकड़ कर पटक दिया। और चाकू से उसे जहां तहां तब तक मारते रहे, जब तक रहीम ने अंतिम सांस नहीं ली।
रहीम को मारने के बाद तीनों एक मोटरसाइकिल पर बैठ कर जय नवयुवक मंगल दल, जय शिव शंकर, जय काली, जय भवानी का उद्घोष करते गांव से बाहर निकल गए। पट्टीदार का लड़का अपने घर में ही छुप गया।
रहीम की हत्या की ख़बर पूरे गांव में सन्निपात की तरह फैली। ऐसे गोया गांव में बिजली गिर गई हो। जो जहां था, वहीं दुबक गया। पशु-पक्षी भी अवाक रह गए। रंभाती हुई गाय बैठ गई।
सुबह-सुबह पूरे गांव में सन्नाटा पसर गया।
यह सन्नाटा तब टूटा जब गांव में पुलिस आई। रमतल्ली चौकीदार ने भाग कर थाने पर इस घटना की सूचना दी। थाने ने वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों को। थोड़ी देर में पूरा गांव पुलिस छावनी में तब्दील हो गया।
मछली ठेकेदार, होमगार्ड उस के दूसरे साथी के खि़लाफ़ न सिर्फ़ एफ़.आई.आर. दर्ज हुई, हिस्ट्रीशीट भी खुल गई। रहीम की मड़ई जलाने और दो-एक और मामलों में भी इन सब के खि़लाफ़़ एफ़.आई.आर. थी। सो हिस्ट्रीशीट खोलने में पुलिस को दिक्क़त नहीं हुई। फ़ौजी पंडित ख़ुद शहर जा कर मिलेट्री हास्पिटल में भर्ती हो गए और उन के पट्टीदार का लड़का घर में ही था, भागा नहीं था सो उस को पुलिस ने दोषी नहीं माना। वह गिड़गिड़ा कर पुलिस अधिकारियों के पैरों पर बारी-बारी गिरता भी रहा। अब बात आई चश्मदीद गवाह की। गांव में कोई चश्मदीद गवाह नहीं मिल रहा था। फ़ौजी पंडित के पट्टीदार के लड़के ने कहा कि, ‘साहब तीनों लोग मुंह पर गमछा बांधे हुए थे और गोली चलते ही वह ख़ुद भी डर कर छुप गया था। अंततः रहीम की बीवी, बेटे और भाई को पुलिस ने गवाह बनाया। इस ग़रज़ से कि और कोई गवाह होगा तो टूट सकता है। यह लोग नहीं टूटेंगे।
पर पुलिस का यह क़यास ग़लत निकला।
रहीम का बेटा न सिर्फ़ मंदबुद्धि था, पैर से भी अपंग था। रह गया भाई और बीवी। भाई को भी दबंगों ने थोड़े दिनों बाद धमका लिया। कुछ समय बाद रहीम की बीवी को भी ‘समझा-बुझा’ कर शांत कर दिया। इस समझाने बुझाने में बेटे की अपंगता के नाम पर उस की देख-रेख ख़ातिर पचास हज़ार रुपए भी देने की बात की दबंगों ने। तय हुआ कि हर साल पांच हज़ार रुपए बच्चे की परवरिश के लिए इस पचास हज़ार रुपए में से दिया जाएगा। मतलब यह पचास हज़ार रुपए भी दस साल में।
सब के सब छूट गए। हाई कोर्ट से।
रहीम का रंग उतर गया धीरे-धीरे गांव से।
प्रधानी के चुनाव में फिर कोई दूसरा नहीं खड़ा हुआ। रहीम की हत्या के बाद सब का नशा उतर गया था। अंततः ग्राम प्रधान पंडित ही निर्विरोध चुने गए।
आनंद को याद है कि उन्हीं दिनों एक रोज़ शहर में टाउनहाल पार्क के पास कुछ दोस्तों के साथ खड़ा था कि ग्राम प्रधान पंडित उस रास्ते से पैदल ही गुज़र रहे थे। उस ने उन की बुज़ुर्गियत और पट्टीदारी का ध्यान रखते हुए आगे बढ़ कर उन के पांव छुए और साथ खड़े लोगों से उन का परिचय करवाया। बताया कि, ‘हमारे गांव के प्रधान हैं।’ साथ ही उन की और गांव की तारीफ़ में यह भी जोड़ा कि, ‘ख़ासियत यह कि इस घोर प्रतिद्वंद्विता के युग में भी निर्विरोध प्रधान चुने गए हैं।’ यह सुनते ही ग्राम प्रधान पंडित भड़क गए। तड़कते हुए गरजे। गांव भर के लोगों की मां बहन की तफ़सील में गए और मूछों पर ताव देते हुए कहा, ‘किस में इतना दम था जो मेरे खि़लाफ़ खड़ा होता!’
आनंद यह सुन कर सकते में आ गया। उसे लगा कि उस ने अपने दोस्तों से बेवजह ही परिचय करवा दिया। उन के चरण स्पर्श कर के वह पछताया। पछताया इस पर भी काहे को उन के निर्विरोध चुने जाने की तारीफ़ की दोस्तों से।
खै़र, रहीम की हत्या ने गांव में अद्भुत सन्नाटा बो दिया था। फ़ौजी पंडित के पट्टीदार का वह लड़का वापस फिर नौकरी पर नहीं गया। गांव में खेती बारी भी वह नहीं करता। घर से बाहर भी नहीं निकलता। तब से ही वह गुमसुम रहने लगा। कभी कभार पत्नी से ही बात करता। खाता, सोता और लेटे-लेटे घर की छत निहारता रहता। एक ज़िंदा लाश, चलती फिरती लाश बन गया वह।
इसी बीच बोफ़ोर्स मामला सामने आ गया। इस की इतनी चर्चा हुई कि गांव में लोग ग्राम प्रधान पंडित का नाम बदल बैठे। अब उन का नाम बोफ़ोर्स प्रधान हो चला था। पहले गुपचुप फिर खुल्लमखुल्ला। क्यों कि उन के कारनामे दिन-ब-दिन बढ़ते जा रहे थे। राजीव गांधी की जवाहर रोज़गार योजना ने उन के बोफ़ोर्स प्रधान होने में और घी डाला। पर अब गांव में उन का भय, उन का रसूख़, उन का रंग फीका पड़ता जा रहा था। अब मछली ठेकेदार के भय का रंग लोगों में चटक हो रहा था। उस ने मछली पालन के साथ-साथ मुर्ग़ी पालन भी शुरू कर दिया था। और अब सुअर पालने की योजना बना रहा था। उस के पास अब बंदूक़ भी थी, पैसा भी। सो वह अब गांव में एक नई ताक़त था।
सुखई चाचा का यह नाती क़ासिम इन्हीं दिनों पैदा हुआ था।
उसके पैदा होते ही देश में मंडल कमंडल खड़खड़ाने लगे। ग्राम प्रधान पंडित भले ही बोफ़ोर्स प्रधान बन गए हों पर राजीव गांधी पैदल हो गए। बोफ़ोर्स विरोधी घोड़े पर सवार हो कर ‘राजा नहीं फ़कीर है, भारत की तक़दीर है’ का नारा गंूजते-गूंजते वी.पी. सिंह के हाथों देश की बागडोर आ गई थी। वह आए भी और मंडल को लाल क़िले से फहरा कर गए भी। और जैसे कि अपनी ‘लिफ़ाफ़ा’ शीर्षक कविता में वह कहते हैं, ‘पता उन का/पैग़ाम तुम्हारा/बीच में फाड़ा मैं ही जाऊंगा।’ फाड़ भी दिए गए। हालां कि टिप्पणीकारों ने माना कि नेहरू और इंदिरा के बाद अगर किसी ने देश की दिशा और राजनीति बदली तो वह वी.पी. सिंह ही हैं। खै़र, चंद्रशेखर आए। राजीव गांधी की हत्या हुई और फिर पी.वी. नरसिंहा राव आए। बाबरी मस्जिद गिरी। हर्षद मेहता कांड हो गया। देश तहस नहस हो गया। मंडल के चलते अभी जातियों के घाव सूखे भी नहीं थे कि सांप्रदायिक खाई भी गहरी हो गई। मुंबई ब्लास्ट इस की इंतिहा थी।
सुखई चाचा का यह नाती क़ासिम उन्हीं दिनों स्कूल जाने लगा था।
शिबू सोरेन और अजीत सिंह सरीखों के भरोसे नरसिंहा राव की अल्पमत सरकार ने पांच साल पूरे किए। न सिर्फ़ पूरे किए मनमोहनी आर्थिक उदारीकरण के बीज भी बोए। सुखराम जैसे भ्रष्टाचार के दुख बोए। तेरह दिन की अटल बिहारी सरकार के बाद देवगौड़ा और गुजराल आए। और अटल बिहारी फिर-फिर। लाहौर बस हुई, कारगिल हुआ, गोधरा और गुजरात हुआ। नरेंद्र मोदी की महक अब पूरे देश में थी। सरकार भी दंगा कराने लगे यह तो हद थी। हुक्मरान कुर्सी बांट रहे थे, देश टूट की ओर जा रहा था तो उन की बला से। लाल क़िला और फिर संसद भी बम विस्फोटों से दहला तो क्या हुआ। रंज लीडर को भी हुआ पर आराम के साथ। फ़ील गुड और शाइनिंग इंडिया के साथ प्रमोद महाजन, अमर सिंह और राजीव शुक्ला जैसे लोग भी राजनीति में शाइनिंग की छौंक मार रहे थे। राजनीति अब नीति से नहीं व्यापार से चलने को सज-धज कर तैयार खड़ी थी। राजनीति और भ्रष्टाचार दोनों के औज़ार बदल गए थे। मोबाइल, इंटरनेट और मीडिया समाज को दोगला बनाने की होड़ में खड़े हो चुके थे। और यह देखिए सोनिया गांधी की गोद में बैठे मनमोहन सिंह ने अमरीकी बीन पर ऐसा नाचा कि सारा समाज अब बाज़ार में ऊभ-चूभ हो गया। आटा के भाव भूसा बिकने लगा। सिंगूर और नंदीग्राम होने लगा। कामगारों और किसानों की पैरोकार वामपंथी सरकार किसानों और कामगारों के खि़लाफ़ उठ गई। और भाजपा जैसी पार्टियां उन के आंसू पोंछने पहुंच गईं।
सुखई चाचा का यह नाती क़ासिम उन्हीं दिनों कालेज जाने लगा।
कालेज से गांव आता और शेर सुनाता, ‘क़ब्रों की ज़मीनें दे कर हमें मत बहलाइए/राजधानी दी थी राजधानी चाहिए।’ इस शेर का भाव, इस की ध्वनि और इस का तंज़ तो गांव में लोग नहीं ही समझ पाते। परंतु यह ज़रूर समझ जाते कि सुखई के इस नाती जिस का नाम क़ासिम था को जो अभी नहीं रोका गया तो यह रहीम का भी बाप निकलेगा और गांव को चौपट कर देगा।
हालांकि गांव चौपट हो चला था।
भूख तो नहीं पर युवाओं की बेकारी और पट्टीदारी के झगड़े ने गांव की शांति पर झाड़ू चला रखा था। अहंकार का हिमालय पिघलने के बजाय दिन-ब-दिन और फैलता जाता। टैªक्टर से खेत की जुताई और कंबाइन मशीन से फसलों की कटाई ने गांव में खेतीबारी का महीनों का काम घंटों में बदल दिया था। ट्रैक्टर की जुताई के चलते बैल पहले विदा हुए फिर कंबाइन की कटाई से भूसा। सो गाय भैस भी विदा हो गईं। गांव में अब गोबर उठाने का काम भी नहीं रह गया था। त्यौहारों में भी चाव नहीं रह गया था। होली शराबियों और दीवाली जुआरियों के भरोसे ज़िंदा रह गई थी। छुप-छुपा कर पीने वाले अब खुल्लमखुल्ला शान, शेख़ी और हेकड़ी दिखा कर पीने लगे थे। गांव में अधिकांश आबादी बुजु़र्गों की थी जिन में कुछ नौकरियों से रिटायर्ड वह लोग भी थे जो शहर में मकान नहीं बनवा पाए थे, लड़के नाकारा हो चले थे और बेरोज़गार युवा जिन की पढ़ाई या तो पूरी नहीं हो पाई या फिर अधकचरी पढ़ाई के कारण नौकरी नहीं मिल पाई; और अब गांव में शोहदा बन कर घूमने के अलावा उन के पास कुछ ख़ास नहीं था। अगर था तो घर में आपस में लड़ना। कुछ ने तो मां बाप को पीटना ही अपना मुख्य काम बना लिया था। हां, नवयुवक मंगल दल की जगह हिंदू युवा वाहिनी ने ले ली थी। ग्राम प्रधान पंडित अब काफ़ी बुढ़ा गए थे। ग्राम प्रधान अब एक दलित हो गया था पर गांव में हिंदू युवावाहिनी के आगे किसी की कुछ नहीं चलती थी। दलित ग्राम प्रधान की भी नहीं। वह हिंदू युवा वाहिनी के आगे पूरी तरह समर्पण कर जवाहर रोज़ग़ार योजना और तमाम और विकास के मदों में आने वाले पैसों को डकारने में मगन था। फ़ौजी पंडित भी रिटायर हो कर गांव में ही बस गए थे और बी.डी.सी. मेंबर बन कर गांव की राजनीति में पूरा हस्तक्षेप किए हुए थे। जैसे पहले वह नवयुवक मंगल दल को आशीर्वाद देते थे वैसे ही अब वह हिंदू युवा वाहिनी को भी न सिर्फ़ आशीर्वाद देते थे बल्कि गांव स्तर पर हिंदू युवा वाहिनी के थिंक टैंक भी थे।
हिंदू युवा वाहिनी वैसे तो पूरी कमिश्नरी में अपना जाल फैला चुकी थी पर इस गांव में उस का हस्तक्षेप कुछ ज़्यादा ही था। इतना कि तमाम सारे हिंदू भी इस हिंदू युवा वाहिनी से आक्रांत थे। इस हिंदू युवा वाहिनी के खि़लाफ़ थाना-पुलिस में भी कोई सुनवाई नहीं थी। बल्कि थानेदार तो इन के आगे हाथ जोड़े, घिघ्घी बांधे खड़े रहते। कारण यह था कि हिंदू युवा वाहिनी के मुख्य अभिभावक और कर्ताधर्ता एक सासंद थे जो एक मंदिर के महंत भी थे। पूरे ज़िले क्या पूरी कमिश्नरी में उन की ही गुंडई चलती थी और प्रकारांतर से वह ही प्रशासन चलाते थे। शहर तो जैसे उन का बंधक था, गांवों में भी उन का आतंक कम नहीं था।
हालां कि एक बार अपनी गिऱतारी पर वह संसद में फूट-फूट कर रोए भी थे। पर वह राजनीतिक आंसू थे। अब उन की राजनीति भी विस्तार ले रही थी। न सिर्फ़ उन की राजनीति विस्तार ले रही थी बल्कि वह अपनी पार्टी के राष्ट्रीय नेताओं को भी उनकी औक़ात बताते हुए उन्हें चुनौती पर चुनौती दे रहे थे। ज़िले और प्रदेश के नेताओं को तो वह पिद्दी क्या, पिद्दी का शोरबा भी नहीं समझते थे। इलाक़े के कई विधायक उन की जेब में थे। यह विधायक भी पार्टी की कम इन सांसद महंत जी की ज़्यादा सुनते थे। पूर्वी उत्तर प्रदेश बनने पर वह मुख्यमंत्री बनने का सपना भी संजोये थे। मुस्लिम विरोध उन की राजनीतिक खेती थी। शहर के मुसलमानों को वह मुर्ग़ा बनाए हुए थे। अब छिटपुट गांवों के मुसलमानों की बारी थी। देवेंद्र आर्य जैसे कवि लिख रहे थे, ‘गोरख की सरज़मीं पर गुजरात का ख़याल/चेहरे की आइने से कहीं जंग होती है!’ पर जंग तो हो रही थी आइने से। और फिर इस शहर के मुसलमान तो गुजरात से चार दशक पहले ही से इस महंत के पूर्ववर्तियों द्वारा मुर्ग़ा बना कर टांग दिए गए थे। यह परंपरा इस महंत ने भी जारी रखी थी। हां, अब की बारी अटल बिहारी की तरह अब गांवों की बारी थी।
सुखई चाचा का नाती क़ासिम इसी बारी का नया शिकार था।
‘क़ब्रों की ज़मीनें दे कर हमें मत बहलाइए/राजधानी दी थी, राजधानी चाहिए।’ शेर जब क़ासिम की ज़ुबान से हिंदू युवा वाहिनी के लोगों ने सुना तो इस की तासीर, इस की आंच वह समझ गए। इस का मतलब समझाते हुए एक शोहदे ने जब फ़ौजी पंडित से यह तफ़सील बताई और कहा कि, ‘यह क़ासिम तो शहंशाह बनना चाहता है।’
‘मतलब?’ फ़ौजी पंडित ने खैनी मलते हुए पूछा।
‘मतलब ई चाचा कि अब ई राजा बनना चाहता है। राजधानी मांग रहा है।’
‘ए भाई तो इस गांव को हम उस की राजधानी नहीं बनने देंगे।’ फ़ौजी पंडित बोले, ‘इसके लिए उसको लखनऊ-दिल्ली जाना पड़ेगा। काहे से कि राजधानी तो वहीं है। इहां गांव में कहां राजधानी बन पाएगी?’
‘न हो तो इस क़ासिम को भी रहीम की तरह जन्नत भेज दिया जाए। जाए वहीं राजधानी-राजधानी खेले।’
‘ना!’ फ़ौजी पंडित ने खैनी थूकते हुए टोका, ‘यह ग़लती अब दुबारा नहीं। रहीम को जन्नत भेजने में तीन चार बच्चों की ज़िंदगी जहन्नुम हो गई। हिस्ट्रीशीट खुल गई। हत्या का पाप लग गया। गांव की बदनामी हो गई।’
‘तो?’ हिंदू युवा वाहिनी के शोहदों ने एक साथ पूछ लिया।
‘सोचते हैं।’ फ़ौजी पंडित बोले, ‘थोड़ा बुद्धि से काम लेना पड़ेगा। ब्लाक प्रमुख यादव के पास चलते हैं। मीटिंग करते हैं। फिर तय करते हैं।’
यादव ब्लाक प्रमुख भी हिंदू युवा वाहिनी के शुभचिंतकों में से था। फ़ौजी पंडित ने क़ासिम के इरादों, गांव को पाकिस्तान बनाने, मस्जिद बनाने, सऊदिया से पैसे आने जैसे तमाम ब्यौरे दिए और यह भी बताया कि आज़मगढ़ के एक
मुस्लिम लड़के से उस की बड़ी दोस्ती है।
‘आज़मगढ़?’ ब्लाक प्रमुख यादव की आंखों में चमक आ गई। बोला, ‘फिर तो पंडित जी इस का काम लग जाएगा।’
‘पर कैसे?’ फ़ौजी पंडित अकुलाए।
‘आज़मगढ़ और आतंकवाद पूरे देश में एक सिक्के के दो पहलू हो गए हैं। अख़बार-सख़बार, टीवी-सीवी नहीं देखते हैं का?’
‘तो आतंकवादी घोषित हो जाएगा क़ासिम?’ फ़ौजी पंडित की आंखों में चमक आ गई।
‘इनकाउंटर भी हो सकता है।’ यादव ब्लाक प्रमुख बोला, ‘बस थानेदार को थोड़ा क़ाबू करना पड़ेगा। पर है वह भी अपनी ही बिरादरी का। काम हो जाएगा। फिर भी दस पांच हज़ार पेशगी तो देनी ही पड़ेगी।’
‘हो जाएगा इंतज़ाम!’
‘फिर ठीक है।’ यादव ब्लाक प्रमुख बोला।
फ़ौजी पंडित यादव ब्लाक प्रमुख की इस बात से इतना प्रभावित हो गए कि उठ खड़े हुए उस का पैर पकड़ने के लिए। पर तुरंत ही बैठ गए यह सोच कर कि यह तो ससुरा यादव है और मैं पंडित।
दूसरे ही दिन पुलिस गांव में आ गई। क़ासिम घर पर ही था। पकड़ ले गई।
दो दिन की मारपीट और पूछताछ के बाद घर आया। आज़मगढ़ का वह लड़का भी पकड़ा गया था। उस के ही घर वालों ने पैरवी कर अपने बेटे और क़ासिम को छुड़वाया। काफ़ी पैसा ख़र्च करना पड़ा था। मामले की ख़बर लगते ही हिंदू युवा वाहिनी के लोग सक्रिय हो गए। उन की सक्रियता देख कर सुखई चाचा घबराए। क़ासिम को ले कर लखनऊ आनंद के पास आ गए।
सुबह उठ कर चाय नाश्ते के बाद बच्चे स्कूल, कालेज चले गए तो आनंद ने क़ासिम को अकेले में बैठाया और पूछा कि, ‘तुम्हारी प्राब्लम क्या है?’
‘मेरी कोई प्राब्लम नहीं है।’ वह बोला, ‘जो भी प्राब्लम है हिंदू युवा वाहिनी के लोगों को है। वही लोग मेरे पीछे पड़े हैं।’ क़ासिम बोला।
‘आखि़र क्यों वह लोग तुम्हारे पीछे पड़े हैं?’
‘वह लोग चाहते हैं कि मैं गांव में सिर झूका कर चलूं। जैसे कि अब्बू या बाबा चलते हैं। या और छोटी जातियों के लोग चलते हैं।’ वह जैसे तिड़का, ‘वह लोग नहीं चाहते कि मैं सिर उठा कर चलूं।’
‘ऐसा क्यों?’
‘वह कहते हैं कि तुम हमारे आसामी हो, हमारी प्रजा हो, हम ने अपनी ज़मीन पर तुम्हें बसाया सो अदब में रहो। अपनी औक़ात में रहो। और मैं इस से इंकार करता हूं।’
‘और कोई बात?’
‘हां, इधर एक घटना और हुई।’
‘क्या?’
‘रोडवेज़ बस स्टैंड का एक बोर्ड सड़क पर लगा था। काफ़ी मज़बूत था और बड़ा भी। इन लोगों ने उसे पेंट करवा कर बस स्टैंड की जगह हिंदू युवा वाहिनी लिखवा दिया। मैं ने इस का भी विरोध किया। रोडवेज़ में लिखित शिकायत की।’
‘कुछ हुआ?’ आनंद ने पूछा, ‘मेरा मतलब है इन लोगों के खि़लाफ़ कोई कार्रवाई हुई?’
‘कुछ नहीं।’ वह बोला, ‘उलटे आज़मगढ़ वाले मेरे दोस्त और मुझ को आतंकवादी बनवाने की साज़िश रच दी।’
‘आतंकवादियों से सचमुच तुम्हारे कोई संबंध नहीं हैं?’
‘होते तो पुलिस क्यों छोड़ती?’
‘मैं ने सुना है कि अभी जांच चल रही है।’
‘किस ने बताया?’
‘सुखई चाचा ने।’
‘ओह!’ वह बोला, ‘हो सकता है। मुझ से कुछ सादे काग़ज़ों पर पुलिस ने दस्तख़त करवाए हैं। कुछ भी बना सकते हैं, पुलिस वाले।’
‘तुम्हारे सचमुच किसी आतंकवादी से संबंध नहीं हैं?’
‘हैं न?’
‘क्या?’ आनंद के होश उड़ गए।
‘अब तो हिंदुस्तान का हर मुसलमान आतंकवादी है। और मेरे संबंध बहुत सारे मुसलमानों से हैं।’
‘ओह!’ आनंद ने सुकून की सांस ली। बोला, ‘देखो क़ासिम मेरी बात का बुरा मत मानो।’
‘बुरा क्या मानना आप तो थाने की पुलिस जैसे सवाल पूछ ही रहे हैं।’ उस ने जैसे हार मान कर सांस छोड़ी, ‘बाबा बहुत यक़ीन के साथ आप के पास ले आए थे।’
‘देखो क़ासिम अगर मर्ज़ ठीक से मालूम हो जाता है तो डाक्टर सही दवाई दे पाता है। नहीं फिर अंदाज़ा लगाता रह जाता है सो मरीज़ ठीक नहीं हो पाता।’
‘मैं बीमारी नहीं हूं। मरीज नहीं हूं।’ उस ने जोड़ा, ‘और आप भी डाक्टर नहीं हैं।’
‘मैं ने कब कहा कि मैं डाक्टर हूं?’ आनंद खीझ कर बोला।
‘मरीज़ दवाई जैसी बातें फिर क्यों कर रहे हैं?’
‘तुम बी.एस.सी. में पढ़ते हो?’
‘हां।’
‘क्या बनना चाहते हो?’
‘पता नहीं।’ वह बोला, ‘कोई नौकरी करना चाहता हूं। अगर ज़िंदा रहा।’
‘क्या मतलब?’
‘थाने वाले बोले हैं कि मेरा इनकाउंटर भी हो सकता है।’
‘तुम तो यार गले तक भरे हुए हो?’
‘तो क्या करूं?’
‘कम से कम मुझ से लड़ो तो नहीं।’ आनंद बोला, ‘मैं तुम्हारी मदद करना चाहता हूं और तुम हो कि हर बात का तिरछा जवाब दे रहे हो।’ आनंद ने उस के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, ‘अगर मैं तुम्हारे बारे में ठीक से नहीं जानूंगा तो तुम्हारी पैरवी, तुम्हारी सिफ़ारिश किसी से कैसे करूंगा?’
‘जैसे नेता लोग करते हैं।’ क़ासिम बेलाग हो कर बोला।
‘कैैसे करते हैं?’ आनंद उसे हैरत से देखते हुए बोला।
‘फ़ोन लगाते हैं और कहते हैं इसे छोड़ दो।’
‘कहां देखा, किस नेता को देखा?’
‘रियल में नहीं।’
‘फिर?’
‘फ़िल्मों में देखा है।’
‘ओह!’ इस खीझ में भी हंसी आ गई आनंद को। हंसी आ गई क़ासिम की इस मासूमियत पर। वह थोड़ी देर चुप रहा। फिर बोला, ‘तुम्हारे पास मोबाइल है?’
‘क्यों?’
‘वैसे ही पूछ रहा हूं।’
‘थाने वाले भी पूछ रहे थे।’ क़ासिम खिन्न हो कर बोला, ‘आतंकवादियों का मोबाइल पर बातचीत का रिकार्ड होता है, इसी लिए आप पूछ रहे हैं? अरे चाचा जी हमारे पास सही सलामत कपड़े तक हैं नहीं। मोबाइल कहां से होगा?’ वह ज़रा रुका, उठा और आनंद के दोनों पैर पकड़ कर बैठ गया रोते हुए बोला, ‘बचा लीजिए चाचा जी हम को। लगाइए फ़ोन। नहीं पुलिस वाले हमारा इनकाउंटर कर देंगे।’ वह जैसे पूरी ताक़त से रोते हुए चिल्लाया, ‘मैं आतंकवादी नहीं हूं।’ और उस ने अपना सिर उस के पैरों पर रख दिया।
‘उठो बेटा, उठो।’ आनंद ने उसे ढाढ़स बंधाया, ‘घबराओ नहीं क़ासिम उठो।’ उसे उठा कर फिर से कुर्सी पर बैठाया। फिर दुबारा पूछा, ‘मैं मानता हूं कि तुम आतंकवादी नहीं हो। पर बेटा कई बार अनजाने में भी आदमी इस्तेमाल हो जाता है इन के हाथों और उसे इस का पता नहीं चल पाता।’ वह बोला, ‘सो बेटा कम से कम मुझे सब कुछ विस्तार से बता दो ताकि तुम्हें बचाने की हर तरह से मुकम्मल तैयारी कर सकूं। नहीं अगर हमें पूरी जानकारी नहीं होगी और पुलिस या और लोग अचानक कोई बात बनाएंगे तो हम उस का क्या जवाब देंगे? और जो पूरी बात मालूम होगी तो उस का माकू़ल जवाब दे देंगे। बेटा मेरी बात समझो।’
‘बाबरी मस्जिद, गुजरात दंगों पर हम कुछ दोस्त आपस में बात तो करते हैं। गुस्सा भी होते हैं, गांव में भी और कालेज में भी। पर जैसा कि आतंकवादी लोग करते हैं कोई तोड़ फोड़, विस्फोट वग़ैरह तो हमने कभी नहीं किया, कभी सोचा भी नहीं। न ही ऐसे किसी लोग के साथ हमारी दोस्ती है, न ही कभी मिलना जुलना।’
‘फिर ठीक है।’
‘तो चाचा जी पुलिस को फ़ोन लगाएंगे?’
‘किस लिए?’
‘कि हम को छोड़ दे!’
‘नहीं।’
‘क्यों?’
‘हम वैसे नेता नहीं हैं।’
‘फिर?’
‘कुछ नहीं। हम लोग फ़िल्म में काम नहीं कर रहे। यह ज़िंदगी है। और तुमने जैसा बताया है, अगर सब कुछ वैसा ही है तो तुम्हारा कोई कुछ नहीं बिगाड़ पाएगा!’
सुखई चाचा भी तब तक इस कमरे में आ गए थे और पूछ रहे थे, ‘बाबा हमारा नाती बच जाएगा न?’
‘कोशिश तो यही है।’ आनंद यह कह कर किचेन में पत्नी के पास गया और बोला, ‘मैं आफ़िस जा रहा हूं। इन लोगों को ठीक से खाना वाना खिला देना।’
‘कब तक रहेंगे यह लोग यहां?’ पत्नी ने अफना कर पूछा।
‘यह तो मुझे भी नहीं पता।’ कह कर आनंद आफ़िस के लिए निकल गया।
आफ़िस आ कर उस ने कुछ रुटीन काम अपनाए। फिर सोचा कि कैसे क़ासिम को इस कठिनाई से निकाला जाए। उस ने लगातार इस बारे में सोचा। सोचा कि किसी राजनीतिक मित्र से इस बारे में मदद ली जाए। फिर ख़याल आया
कि कहीं मामला सांप्रदायिकता में न रंग जाए। सो यह इरादा उस ने छोड़ दिया। क्यों कि गांव में तो हिंदू युवा वाहिनी पहले ही से इस काम में लगी थी। सो उस ने सोचा कि क्यों ने किसी सीनियर पुलिस अफसर से इस बारे में बात की जाए। दो एक पुलिस अफसरों के मोबाइल मिलाए भी उस ने पर वह स्विच आफ़ मिले। फिर सोचा कि क्यों इधर उधर वह भटक रहा है? क्यों न सीधे-सीधे प्रमुख सचिव गृह से मिल कर मामला निपटाया जाए। वह पहले से थोड़ा परिचित भी थे। उस के शहर में कभी डी.एम. भी रहे थे। सो उस ने सीधे उन्हीं को फ़ोन मिलाया और बताया कि एक व्यक्तिगत काम के लिए उन से आज ही मिलना चाहता है। वह बोले, ‘आज तो मीटिंग-सीटिंग बहुत हैं। ख़ैर, शाम पांच बजे रोज़ प्रेस ब्रीफिंग होती है, आज भी होगी। आप उसी समय आ जाइए।’
‘नहीं-नहीं, प्रेस के साथ नहीं। अकेले मिलना चाहता हूं।’
‘भले अकेले मिलिएगा। पर आ उसी समय जाइएगा।’
‘ठीक बात है।’
तय समय के मुताबिक़ शाम पांच बजे वह एनेक्सी पहुंच गया प्रमुख सचिव गृह से मिलने। प्रेस ब्रीफिंग में कुछ ख़ास था नहीं सो दस मिनट में रुटीन की तरह चाय-बिस्किट में ख़त्म हो गई। प्रेस के लोग जब चले गए तो उस ने प्रमुख सचिव गृह से सुखई चाचा के नाती क़ासिम के बारे में तफ़सील से बताया। यह भी बताया कि इस परिवार को चूंकि वह बचपन से जानता है, सो कुछ भी इफ़-बट होने पर वह इस की पूरी ज़िम्मेदारी लेता है। पर प्रमुख सचिव ने कहा कि बिना मामले की जांच करवाए वह कुछ नहीं कह सकते। और कि मामला चूंकि आज़मगढ़ से लिंक हो गया है इस लिए वह भी अपने को इस मामले से अलग कर ले।
‘क्या बात कर रहे हैं आप?’
‘मैं क़ानूनी रूप से जो ठीक लग रहा है, वही कह रहा हूं।’ प्रमुख सचिव ज़रा रुके और बोले, ‘मैं समझता हूं आप साफ़ ख़यालों वाले समाजवादी हैं, सूडो सेक्यूलरिस्ट नहीं।’
‘आप तो अपनी जांच रिपोर्ट आए बिना ही उस मासूम लड़के को दोषी सिद्ध कर दे रहे हैं।’
‘मैं ने कब कहा कि वह दोषी है अथवा नहीं है।’
‘आप की बात से बू तो यही आ रही है।’ आनंद बोला।
‘बिलकुल नहीं आप ने डिटेल दे दी है मैं इस की दो चार रोज़ में जांच करवा कर बताता हूं।’
‘लोकल पुलिस जांच करेगी और उस ने उसे दोषी मान रखा है, बिना किसी सुबूत के।’
‘लोकल पुलिस नहीं एटीएस से जांच करवाता हूं। और जो लोकल पुलिस दोषी हुई तो उसे दंडित किया जाएगा।’
‘तो ठीक है। वह लड़का अभी मेरे घर पर है। अगर आप की जांच कहती है कि वह दोषी है तो मैं ख़ुद आप की एटीएस को सौंप दूंगा। और जो दोषी नहीं है तो उस का इनकाउंटर नहीं होगा इस की गारंटी आप लीजिए!’
‘बिलकुल!’ प्रमुख सचिव गृह ने कहा, ‘क़ानून को अपना काम करने दीजिए!’
‘यही तो मैं भी कह रहा हूं।’
‘पर हां, चूंकि आप मेरे जानने वाले हैं इस लिए बिन मांगी एक राय देना चाहूंगा।’
‘क्या?’
‘उस लड़के को आप अपने घर से हटा दीजिए।’
‘क्या कह रहे हैं आप?’
‘ठीक कह रहा हूं।’ वह बोले, ‘आज कल बाप को नहीं पता पड़ पाता कि उस का बेटा गुंडा, मवाली या आतंकवादी हो गया है। आप तो फिर भी उस के गांव वाले हैं। और रहते भी लखनऊ में हैं, गांव में नहीं। कितना जान पाएंगे उस के
बारे में।’ वह बोलते जा रहे थे, ‘फिर आप एक भावुक आदमी हैं। पूरे तथ्य आप के सामने हैं नहीं। सिर्फ़ उस की कही बातें और आप की उस परिवार से जुड़ी संवेदनाएं-भावनाएं हैं। और सिर्फ़ इसी बिना पर चीज़ें तय नहीं होतीं।’
‘पर वह बातचीत में तो पूरी तरह मासूम और निर्दोष दिखता है।’
‘इसी लिए तो!’ ये टेररिस्ट गैंग ऐसे ही मासूम और निर्दोष लोगों को गुजरात और अयोध्या इशू की फ़ीलिंग्स की अफ़ीम में बहका कर अपना कैरियर बना ले रहे हैं, अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं। जिहादी बना रहे हैं और ये मासूम बच्चे कुछ समझ ही नहीं पाते। उन का औज़ार बन जाते हैं। दस-बीस को मार कर ख़ुद मर जाते हैं, यह सोच कर कि यह ख़ुदा का काम है। और ख़ुदा का काम कर उन्हें जन्नत नसीब होगी। ऐसा ही उन्हें समझाया जाता है।’
‘यह सब तो ठीक है। पर अगर वह मेरे घर पर ही रह जाता है तो बुरा क्या है?’
‘अब इतने नादान तो आप नहीं हैं।’ प्रमुख सचिव बोले, ‘अगर ख़ुदा न ख़ास्ता उस के कहीं से लिंक जुड़ गए और आप के घर से उस की अरेस्ट होती है तो आप कहां के रहेंगे?’ वह बोले, ‘बदनामी नहीं होगी आप की?’
‘अब आप की पुलिस जबरिया उसे टेररिस्ट प्रूव कर ले तो और बात है पर वह टेररिस्ट है यह तो मानने को मैं तैयार नहीं हूं फ़िलहाल!’
‘चलिए यह आप जानिए!’
‘मैं फिर दुहरा रहा हूं और रिक्वेस्ट पूर्वक दुहरा रहा हूं कि उस का इनकाउंटर नहीं किया जाए। दूसरे अगर वह दोषी पाया जाता है तो मुझे बताइए मैं ख़ुद उसे पुलिस को सौंप दूंगा।’
‘ऐसी नौबत न ही आए तो अच्छा। पर एक बात तो आप जान ही लीजिए कि एटीएस को ज़रा भी सुबूत मिलेंगे उस के खि़लाफ़ तो वह मेरी और आप की बात बाद में सुनेंगे, फ़ौरन अरेस्ट करेंगे।’
‘चलिए ठीक है।’ आनंद ने कहा, ‘जो भी कुछ हो मेरिट पर ही हो।’
‘बिलकुल।’ कह कर प्रमुख सचिव ने हाथ मिलाने के लिए अपना हाथ बढ़ा दिया। आनंद ने हाथ मिलाते हुए कहा, ‘हां, मेरे घर छापा मत डलवा दीजिएगा।’
‘अरे नहीं!’
वह घर आ गया।
घर आ कर एक वकील मित्र से फ़ोन पर क़ासिम की बाबत क़ानूनी पक्ष जानना चाहा। साथ ही प्रमुख सचिव गृह से हुई पूरी बात तफ़सील से बताई। वकील ने छूटते ही कहा, ‘तो भइया पहले तो उस लड़के को अपने घर से फ़ौरन से पेश्तर हटाइए।’
‘क्यों?’
‘आप को होम सेक्रेट्री को यह तो बताना ही नहीं था कि वह आप के घर है। दूसरे, इस बारे में पहले मुझ से ही बात करनी थी फिर कहीं जाना था।’
‘अब तो जो हुआ सो हुआ। आगे बताइए।’
‘बताना क्या है। हाई कोर्ट में एक रिट फ़ाइल कर देते हैं कि पुलिस फ़र्जी ढंग से फंसा रही है और इनकाउंटर की धमकी दे रही है।’
‘फिर?’
‘फिर क्या? पुलिस के हाथ पांव बंध जाएंगे। अगर वह निर्दोष होगा तो पुलिस परेशान नहीं करेगी वरना वह जेल जाएगा। का़नून अपना काम करेगा।’
‘अरे भाई, आप तो क्लाइंट बनाने में लग गए। उन सब के पास हाई कोर्ट में मुक़दमा लड़ने भर का पैसा नहीं है। और न ही मैं इस समय इतना पैसा ख़र्च करने की स्थिति में हूं।’
‘अब या तो उस की जान बचा लीजिए या पैसा। यह आप को ही तय करना है। पर हां, उसे अपने घर से हटा तो दीजिए ही अगर अपनी इज्ज़त प्यारी है।’
‘घर से हटा कर कहां रखूं?’
‘अरे किसी सस्ते मंदे होटल, धर्मशाला या फिर फु़टपाथ पर ही सुला दीजिए। पर अपने घर तो हरगिज़ नहीं। क्यों कि मौक़ा आने पर ये पुलिस वाले किसी के नहीं होते। आप को भी घसीट लेंगे तो आप क्या कर लेंगे?’
‘चलिए देखता हूं।’
‘क्या?’
‘यही कि क्या कर सकता हूं?’
‘ठीक। जैसा हो बताइएगा।’ कह कर वकील ने फ़ोन काट दिया।
आनंद बड़े असमंजस में पड़ गया। एक तरफ़ संभावित मुश्किलें थीं दूसरी तरफ़ सुखई चाचा से जुड़ी भावनाएं थीं, उन का उस पर अगाध विश्वास था। न तो वह उन का विश्वास तोड़ना चाहता था न ही आपनी भावनाओं को छलना चाहता था।
इस मुश्किल में उस ने मुनव्वर भाई को फ़ोन किया। क़ासिम की कहानी बताई, प्रमुख सचिव गृह और वकील से हुई बातचीत का ब्यौरा बताया और अपनी मुश्किल भी। मुनव्वर भाई ने साफ़ कहा कि, ‘आनंद जी अगर आप को यक़ीन है कि वह आतंकवादी नहीं है तो अपने घर पर ही रखिए और जो ज़रा भी शक-शुबहा हो तो हाथ जोड़ लीजिए।’
‘नहीं मुझे तो ज़रा भी शक-शुबहा नहीं है।’
‘तो फिर आप जैसा आदमी इतना क्यों डर रहा है?’
‘डर नहीं रहा हूं, रास्ता ढूंढ रहा हूं कि कैसे क़ासिम को आतंकवाद के बिच्छू से डंसने से बचाऊं?’
‘वक़्त पर छोड़ दीजिए।’ मुनव्वर भाई बोले, ‘कुछ बातें वक़्त अपने आप तय कर देता है।’
‘ठीक बात है।’ कह कर उस ने फ़ोन रख दिया।
सुखई चाचा से फिर बात की। उन को ढाढस बंधाया। और कहा कि अब दो तीन दिन में कुछ बता पाऊंगा।
‘अब का बताऊं बाबा आप ही हमारे मीर मालिक हैं।’ सुखई चाचा हाथ जोड़ कर बोले।
‘मीर मालिक तो वह ऊपर वाला है।’ आनंद ने कहा और तैयार हो कर एक शादी में शरीक होने चला गया। सपत्नीक।
दूसरी शाम उस ने प्रमुख सचिव गृह से फ़ोन पर पूछा कि, ‘कुछ फ़ीड बैक मिला क्या?’
‘अभी तो नहीं।’
आनंद ने निश्चिंतता की सांस ली। उस ने मान लिया कि अगर क़ासिम आतंकवादी होता या आतंकवादियों से उस के कोई लिंक होते तो एटीएस चौबीस घंटे क्या चार घंटे में ही उसे अरेस्ट कर लेती। पर जब ऐसा था नहीं तो एटीएस ऐसा करती भी तो कैसे भला?
दो दिन बाद अंततः प्रमुख सचिव गृह ने आनंद को बता दिया कि क़ासिम के खि़लाफ़़ एटीएस को कुछ भी हाथ नहीं लगा है। पर साथ ही यह भी कहा कि किसी ऐसे वैसे या किसी आज़मगढ़ी कनेक्शन से वह बाज़ आए। नहीं आगे दिक़्क़त हो सकती है।
आनंद ने यह बात सुखई चाचा और क़ासिम को बताई। कहा कि निश्चिंत होकर वह दोनों वापस जाएं। फिर सुखई चाचा से कहा कि, ‘एक तो गांव में किसी भी से यह न बताएं कि वह मेरे पास आए थे और कि क़ासिम बच गया है। दूसरे क़ासिम को दो-एक साल के लिए गांव से दूर रखें। नहीं हो सकता है कि मुंह की खाने के बाद गांव के शरारती तत्व या हिंदू युवा वाहिनी से जुड़े लोग उसे किसी दूसरे मामले में फंसाने की कोशिश करें। सो गांव से कुछ दिन दूरी बना कर रखने में कोई हर्ज नहीं है।’
क़ासिम थोड़ा अकबकाया कि, ‘काहे अपनी ज़मीन, अपना घर, अपना गांव छोड़ दें?’ पर सुखई चाचा समझदार और अनुभवी थे। वह मान गए। आनंद ने भी क़ासिम को समझाया और कहा कि, ‘कोई पूरे घर को तो गांव छोड़ने को कह नहीं रहा। सिर्फ़ तुम्हीं कुछ दिन शहर में रह जाओ। कोई दिक्क़त हो तो बताओ मैं तुम्हारे रहने आदि का बंदोबस्त शहर में करवा दूं?’
मान गया क़ासिम भी।
उस ने मुनव्वर भाई को फ़ोन कर बताया पूरा मामला और कहा कि, ‘आप का पता और फ़ोन नंबर दे दिया है। कोई बात होगी तो वह आप से कांटेक्ट करेगा। आप देख लीजिएगा।’
‘बिलकुल-बिलकुल।’ मुनव्वर भाई ने कहा, ‘वैसे भी आप उस को ठीक से समझा दीजिएगा। इस लिए भी कि अगर आप के गांव में हिंदू युवा वाहिनी के बिच्छू हैं तो शहर में मंदिर के महंत और उस के नाग हैं। और महंत जी की मुस्लिम विरोधी राजनीति से आप वाक़िफ़ ही हैं। हम लोग आज कल कैसे जी रहे हैं, हमीं जानते हैं। फ़ासीवाद की इंतिहा है यहां इस शहर में।’
‘क्या कह रहे हैं आप?’
‘बिलकुल ठीक कह रहा हूं।’ मुनव्वर भाई बोले, ‘यहां तो आलम यह है कि वो दोहा है न कि जाट कहे सुन जाटनी इसी गाम में रहना है, ऊंट बिलैया लै गई हां जी, हां जी कहना है।’
‘ऐसा?’
‘हां, भई, यहां कमोबेश सभी ने घुटने टेक रखे हैं। शासन प्रशासन सब ने।’ उन्हों ने जैसे जोड़ा, ‘और मैं ने भी। हालात बहुत ख़राब हैं।’
‘चलिए यह एक बड़ा मसला है। इस पर मिल कर बात करते हैं।’ कह कर आनंद ने फ़ोन काट दिया।
सुखई चाचा भी क़ासिम को ले कर रात की गाड़ी से चले गए।
बाद में पता चला कि वह थानेदार भी लाइन हाज़िर हो गया। गांव में खुसफुसाहट शुरू हो गई कि आखि़र कैसे हो गया यह सब। समाधान ब्लाक प्रमुख यादव ने किया कि, ‘वह आज़मगढ़ वाली पार्टी काफ़ी पैसे वाली है। सो कप्तान यानी एस.एस.पी. को पैसे दे कर दोनों लड़कों को बचाया है और थानेदार को लाइन हाज़िर करवाया है।’ उस ने बड़ी हेकड़ी से कहा कि, ‘आतंकवादियों के पास पैसे की कमी तो है नहीं। बहा दिया पानी की तरह।’
पानी को लेकर लखनऊ में एक सेमिनार में वह उपस्थित है। पर्यावरणविद हैं, अफ़सर हैं, समाजसेवी हैं, आयोजक हैं, आयोजक के कारिंदे हैं। लंच है, नाश्ता है, कवरेज के लिए प्रेस है। बस श्रोता नहीं हैं और लोगों की आंखों में पानी भी। फिर भी आनंद बता रहा है कि नदियों के पानी पर पहला हक़ समुद्र का है। ये नहरें, ये डैम, ये बिजली परियोजनाएं सभी पर्यावरण और पानी को नष्ट कर रही हैं। नदियों में मछलियां मर रही हैं। बताइए अब गंगा का पानी पी कर लोग मर रहे हैं। कछुवा, मगरमच्छ ग़ायब हो रहे हैं। कैसे पानी साफ़ हो? तिस पर फ़ैक्ट्रियों का कचरा, शहरों के नाले, सीवर। जली-अधजली लाशें। सारी पर्यावरण एजेंसियां, सरकारी मशीनरी सो रही है। लोग कहते हैं कि तीसरा विश्व युद्ध पानी को ले कर होगा। मैं कहता हूं हरगिज़ नहीं। अरे पानी होगा तब न इस के लिए युद्ध या विश्व युद्ध होगा? तो मसला पानी नहीं हमारी सोच है। हम अगर यह जानते हैं कि बच्चे को फ़लां स्कूल में भेजेंगे तो अच्छा पढ़ेगा। अगर फ़लां ट्रेन से फ़लां जगह जाएंगे तो जल्दी पहुंचेंगे। फ़लां से मिल लेंगे तो फ़लां काम जल्दी हो जाएगा। तो हम यह क्यों नहीं सोच पाते कि साफ़ पानी हमारे जीवन को सुंदर बनाएगा? जल ही जीवन है हम आखि़र कैसे भूल गए? अब तो एक व्यवसायी टुल्लू बेचता है और टुल्लू के विज्ञापन में बड़ा-बड़ा लिखता है कि पानी बचाइए! सेव वाटर! हद है आप टुल्लू भी चलाएंगे और पानी भी बचाएंगे? यह दोगलापन विज्ञापन में चले तो चले हमें अपने जीवन में आने से रोकना होगा। शहरों में भू-जल स्तर लगातार गिर रहा है। खेतों में डाली जा रही खाद हमारी फ़सलों को तो बीमार कर ही रही हैं, पानी को भी ज़हरीला बना रही है। शहरों में तो आप एक्वागार्ड छोड़ कर आर.ओ. लगा रहे हैं। बताइए अब एक्वागार्ड भी पानी को साफ़ नहीं कर पा रहा तो आप आर.ओ. लगा रहे हैं शहरों में। पर गांवों में? और शहरी गरीबों के यहां? वहां क्या करेंगे? वहां कैसे बचाएंगे लोगों की किडनी और लीवर? हमें सोचना होगा कि हम लोक कल्याणकारी राज्य में रह रहे हैं कि व्यवसायी राज्य में? यह एक साथ आबकारी विभाग और मद्य निषेध विभाग क्यों चल रहे हैं? चोर से कहो चोरी करो और सिपाही से कहो पकड़ो! यह खेल कब तक चलेगा? क्या यह लोक कल्याणकारी राज्य है? गांधी का चश्मा, घड़ी, चप्पल, कटोरी जैसी चीजें नीलाम होती हैं और अख़बारों में ख़बर छपती है कि विजय माल्या ने बचा ली देश की लाज! यह क्या है? गांधी को कभी मुन्ना भाई के भरोसे हम छोड़ देते हैं कभी शराब सम्राट विजय माल्या के भरोसे? गांधी क्या इतनी गिरी और बिकाऊ वस्तु हो गए हैं? आप सभी को याद होगा कुछ बरस पहले तालिबानियों ने जेहाद के नाम पर अफ़गानिस्तान में बुद्ध की विशाल प्रतिमा डायनामाइट लगा कर तोड़ डाली थी क्रमशः। पूरी दुनिया ने गुहार की, निंदा की तालिबानों और अफ़गानिस्तान से। पर उन्हों ने किसी की नहीं मानी। चीन जो अपने को बौद्धिस्ट मानता है और दुनिया का महाबली भी, वह भी इस पूरे मामले की सिर्फ़ निंदा कर के रह गया।
थाईलैंड, अमरीका, भारत आदि सभी निंदा कर के रह गए। लड़े नहीं। प्रतिहिंसा नहीं की। तो यह बुद्ध की जीत थी, उन की अहिंसा की जीत थी। विजय माल्या भी गांधी की यह प्रतीकात्मक चीजें न ख़रीदते तो अच्छा होता। गांधी बाज़ारवाद के खि़लाफ़ थे। गांधी को बाज़ार के हवाले कर दिया हम लोगों ने। हम हार गए, यह गांधी की हार है। तो आदरणीय मित्रो हमें अपने पानी को भी बाज़ार से निकालना होगा। ठीक वैसे ही जैसे आज की राजनीति और बाज़ार ने हमारी लोकशाही को खा लिया है। संवैधानिक संस्थाएं धूल चाटती नष्ट हो रही हैं। खरबपतियों की गिनती नौ से बढ़ कर छप्पन हो गई है और नब्बे करोड़ लोगों की कमाई बीस रुपए रोज़ की भी नहीं रह गई है। महात्मा गांधी कहते थे कि हम हर गांव का आंसू पोछेंगे। क्या ऐसे ही? हम पानी से हर चीज़ को बदलने की शुरुआत क्यों न करें? पानी जो बाज़ार के चंगुल से हम नहीं निकाल पाएंगे तो हम समूची मानवता को लगातार ज़हरीले पानी के हवाले कर दुनिया को नष्ट कर डालेंगे। लोग अब साफ़ पानी नहीं पाते तो कोक पीते हैं। यह कोक भी सोख रहा है पानी को। चेतिए। पिघलते ग्लेशियर को ग्लीसरीनी आंसुओं से धोने के बजाय हिमालयी कोशिश करनी होगी। बचाना होगा हिमालय, प्रकृति और पानी, तभी हम बचेंगे!
सेमिनार का लंच हो गया है और चर्चा चल रही है गांवों में आ गए बाघ की जो अब आदमख़ोर होता जा रहा है। चर्चा इस पर भी है कि मंत्री जी भी बाघ खोज रहे हैं। आनंद कहता है यही तो दुविधा है कि मंत्री शिकारी का काम कर अख़बारों में फ़ोटो छपवा रहे हैं। अब मंत्री शिकारी तो हैं नहीं कि बाघ पकड़ लेंगे? शिकारी का काम मंत्री करेंगे तो मंत्री का काम कौन करेगा? लोग अपना-अपना काम भूलते जा रहे हैं। मंत्री जी को तो यह सोचना चाहिए कि जंगलों की कटान वह कैसे रोक सकते हैं ताकि बाघ जंगल छोड़ कर मैदान में न आएं। पर नहीं आप हिरन मार कर खाएंगे तो बाघ आप को नहीं तो किस को खाएगा?
‘भाई साहब यह दुविधा तो आप के साथ भी है।’ आनंद का कंधा पकड़ कर एक आदमी कहता है।
‘माफ़ कीजिए मैं ने आप को पहचाना नहीं।’ आनंद अचकचा गया।
‘कैसे पहचानेंगे आप?’ वह बोला, ‘आप वक्ता हैं, मैं श्रोता हूं।’
‘नहीं-नहीं यह बात नहीं है।’
‘आप शायद भूल रहे हैं, मैं आप का वोटर रहा हूं।’
‘क्या बात कर रहे हैं?’ आनंद बोला, ‘आप किसी और को ढूंढ रहे हैं। मैं और चुनाव? नहीं-नहीं।’
‘अरे आप आनंद जी हैं आप हमारी यूनिवर्सिटी में.........’
‘अच्छा-अच्छा छात्र संघ के चुनाव की बात कर रहे हैं आप!’ आनंद सकुचाया, ‘वह तो बीते ज़माने की बात हो गई। बाई द वे आप लखनऊ मंे ही रहते हैं?’
‘हां।’ वह बोला, ‘यहीं सचिवालय में डिप्टी सेक्रेट्री हूं।’
‘अच्छा अच्छा!’
‘आप को नहीं लगता कि आप भी दुविधा में जी रहे हैं? अंतर्विरोध में जी रहे हैं?’
‘ऐसा लगता है आप को?’
‘हां।’
‘कैसे?’
‘आप को लोकसभा या विधानसभा में होना चाहिए था। चुनावी सभाओं में होना चाहिए था। पर आप हैं कि सेमिनारों में जिं़दगी ज़ाया कर रहे हैं। यह आप की दुविधा और आप का अंतर्विरोध नहीं है तो क्या है?’
‘अरे आप तो ऐसे कह रहे हैं कि जैसे कोई अपराध कर रहा हूं मैं?’
‘जी बिलकुल!’
‘आप को लगता है कि आज की राजनीति में मैं कहीं फ़िट हो सकता हूं?’
‘एक समय आप ही कहा करते थे कि राजनीति में पढ़े लिखे लोगों को आना चाहिए।’
‘अरे वह सब बातें तो अब किताबी बातें हो गई हैं।’ आनंद बोला, ‘अब हमारे जैसे लोग जी ले रहे हैं इस समाज में यही बहुत है।’
‘तो मैं मान लूं कि मैं अब एक पराजित आनंद से मिल रहा हूं।’
‘इस में भी कोई संदेह बाक़ी रह गया है क्या?’ आनंद ने धीरे से कहा।
‘आप ने तो आज निराश कर दिया?’
‘कैसे?’ आनंद ने प्रति प्रश्न किया, ‘आप अपने को पढ़ा लिखा मानते हैं?’
‘हां, मानता तो हूं।’ वह व्यक्ति बोला।
‘और आप यह भी चाहते हैं कि पढ़े लिखे लोग राजनीति में रहें।’
‘हां।’
‘तो अपनी नौकरी छोड़ कर क्यों नहीं आ जाते राजनीति में?’
‘राजनीति मेरा कैरियर नहीं है। न कभी की राजनीति। तो अब कैसे राजनीति कर सकता हूं?’
‘क्यों ये अतीक़ अहमद, मुख़्तार अंसारी, डी.पी. यादव, हरिशंकर तिवारी, तसलीमुद्दीन, पप्पू यादव, शहाबुद्दीन, अमरमणि त्रिपाठी जैसों ने तो कभी यह सवाल नहीं पूछा, बबलू श्रीवास्तव और गावली जैसों ने नहीं पूछा कि कभी राजनीति नहीं की, कैसे करूं?’
वह चुप रहा।
‘अपनी बीवी के साथ सोने के पहले किसी और औरत के साथ सोए थे कभी। ली थी कभी सेक्स की ट्रेनिंग?’
‘नहीं तो!’ आनंद के ऐसे सवालों से वह अचकचा गया।
‘तो फिर?’ आनंद बोला, ‘राजनीति आप क्यों नहीं कर सकते?’
‘नहीं कर सकता।’
‘तो मित्र यही बात मैं कह रहा हूं तो आप को पराजित आनंद मुझ में दिखाई दे रहा है।’ वह बोला, ‘सच यही है कि हम सभी पराजित हैं।’
‘नहीं मैं पराजित नहीं हूं।’ वह व्यक्ति बोला, ‘बस पारिवारिक ज़िम्मेदारियां ख़त्म हो जाएं। बच्चे पढ़ लिख लें, शादी ब्याह हो जाए तो सोचता हूं।’
‘यह भी जोड़िए न कि ज़रा रिटायर हो जाऊं, पी.एफ़, ग्रेच्युटी और पेंशन हो जाए तब सोचता हूं।’
‘हां-हां, यह भी।’
‘तब आप राजनीति के लायक़ बचेंगे भी?’ आनंद बोला, ‘बचेंगे भी तो राजनीति पर बतियाने और नाक भों सिकोड़ने के लिए ही।’
सेमिनार का दूसरा सत्र शुरू होने का समय हो गया। सो आनंद ने उन सज्जन का नाम, पता, नंबर लिया, अपना पता, नंबर दिया और कहा कि, ‘मेरी बात का बुरा मत मानिएगा हम लोग फिर मिलेंगे-बतियाएंगे।’ उस ने जैसे जोड़ा, ‘दरअसल ज़िम्मेदारियों और सुविधाओं में जीने की आदत आदमी को नपुंसक बना देती है। और कायर भी।’
‘बिन पानी सब सून’ की अनंत कथा फिर शुरू हो जाती है। बीच पानी की कथा में उसे प्यास लग जाती है। वह पानी पीने के लिए उठ कर बाहर आ जाता है। और देखता है कि भीतर हाल से अपेक्षाकृत ज़्यादा लोग बाहर हैं। यह तो खै़र हर सेमिनार में वह पाता रहा है कि भीतर एक सेमिनार चल रहा होता है और बाहर कई-कई।
पानी पीते समय वह सोचता है आखि़र वह इस तरह क्यों पराजित हो गया है? क्या यह सत्ता की प्यास की पराजय है? वह ख़ुद से ही पूछता है। या ज़िम्मेदारियों और सुविधाओं में जीने की आदत ने उसे भी नपुंसक बना दिया है? वह राजनीति में सर्वाइव नहीं कर पाया और पीछे रह गया? या फिर उस में राजनीति के जर्म्स नहीं थे सिर्फ़ बोलने के जर्म्स थे सो वह सेमिनारी वक्ता बन कर रह गया। राजनीति में भी होता तो शायद पार्टी का प्रवक्ता बन कर रहता या थिंक टैंक हो जाता किसी बरगदी नेता का? राजनीतिक माफ़िया तत्व उस में कभी थे ही नहीं। उसे जब भी सूझा विचारक तत्व ही सूझा। और इस विचारहीन राजनीति के दौर में वह पराजित नहीं होगा तो कौन होगा। उस का सिर चौखट से नहीं टकराएगा तो क्या मुलायम, मायावती, सोनिया, आडवाणी, मोदी और राहुल का टकराएगा?
बताइए क्या रंग हो गया है राजनीति का? विद्यार्थी जीवन के समय का एक फ़िल्मी गाना उसे याद आ गया है- पानी रे पानी तेरा रंग कैसा, जिस में मिला दो लगे उस जैसा! अब तो राजनीति ही नहीं पानी भी बदरंग हो चला है। कैसे और किस में मिलाया जाए जो राजनीति भी साफ़ हो और पानी भी। क्या पानी और राजनीति का भी कोई आपसी रिश्ता है? साफ़-साफ़ होने का और फिर बदरंग-बदरंग होने का?
ज़रूर होगा।
वह फिर से आ कर हाल में बैठ गया है। एक साइंटिस्ट पानी में प्रदूषण के आंकड़ों की फ़ेहरिस्त परोस रहे हैं जो बहुत ही भयावह तसवीर पेश कर रही है। वह डर जाता है। डर जाता है और पूछता है अपने आप से कि क्या राजनीति में भी प्रदूषण के आंकड़े कोई समाजिक या राजनीतिक विज्ञानी बटोर रहा होगा? जल प्रदूषण मापने के लिए तो वैज्ञानिकों के पास निश्चित विधि और साज़ो सामान हैं। पर राजनीतिक प्रदूषण मापने के लिए कोई वैज्ञानिक तरीक़ा है क्या हमारे पास?
नहीं है।
यह सोच कर ही वह माथा पीट लेता है।
यह कौन सी प्यास है? भीष्म पितामह वाली तो नहीं है। सिगरेट के धुएं, डोसे की तीखी गंध और काफ़ी के गर्म भाप की तासीर में आज काफ़ी हाउस में कुछ समाजवादी इकट्ठे हो गए हैं। आनंद का एक पत्रकार मित्र सुजीत उस से धीरे से कहता है कि, ‘आज तो हम भी मेढ़क तौलने का मज़ा लेंगे!’
‘क्या मतलब?’
‘अरे, जहां चार-छह-दस समाजवादी इकट्ठे हो जाएं वहां उन को किसी बिंदु पर एक कर लेना तराज़ू में मेढक तौलना ही तो है। एक मानेगा, दूसरा उछलेगा, तीसरा मानेगा, चौथा मानेगा पांचवां उछल जाएगा। कभी कोई दसो मेढक एक साथ नहीं तौल पाएगा।’
‘तो तुम हम सब को मेढक समझते हो?’ आनंद किंचित मुसकुरा कर पूछता है और सिगरेट का धुआं फिर धीरे-धीरे छोड़ता है।
‘मेढ़क?’ वह पलटते हुए कहता है यह तो मैं ने नहीं कहा। और हंसने लगता है? और कहता है, ‘छोड़िए भी। अभी मैं कहीं पढ़ रहा था कि राम मनोहर लेाहिया ने कहीं लिखा है भारत के तीन स्वप्न हैं; राम, कृष्ण और शिव!’
‘हां, लिखा तो है!’
‘पर आज के समाजवादी मुलायम सिंह यादव के तो लगता है तीन स्वप्न हैं; सत्ता, पैसा और औरत।’
‘ना।’ एक दूसरे समाजवादी ने हस्तक्षेप किया, ‘मुलायम सिंह यादव के तीन नहीं चार स्वप्न हैं; सत्ता, पैसा, औरत और अमर सिंह।’
‘फिर अमिताभ बच्चन को क्यों छोड़ दे रहे हो भाई!’ राय साहब जो नियमित काफ़ी हाउस का सेवन करते हैं सिगरेट फूंकते हुए बोले।
‘ऐसे तो फिर कई स्वप्न उन के जुड़ते जाएंगे।’ वर्मा जी जो कभी मुलायम सिंह के बहुत क़रीबी होने का दावा करते फिरते थे बोले।
‘अरे यार बात लोहिया जी की कर रहे थे वही करो। कहां राजनीतिक व्यवसायियों की बात ले बैठे।’ मधुसूदन जी भनभनाए। मधुसूदन जी सुलझे हुए लोगों में से जाने जाते हैं और बहुत कम बोलते हैं। अनावश्यक तो हरगिज़ नहीं। वैसे भी वह बोलने के लिए नहीं सुनने के लिए जाने जाते हैं। अकसर उकताए हुए लोग, आजिज़ आए लोग उन के पास आ कर बैठ जाते हैं और जितनी भड़ास, जितना फ्रस्ट्रेशन उन के दिल में होता है मधुसूदन जी के पास जा कर दिल का गु़बार तो निकाल देते हैं और मधुसूदन जी उन गु़बारों को गु़ब्बारे की तरह उड़वा देते हैं। आदमी शांत हो जाता है। ऐसे जैसे कोई नटखट बच्चा सो जाता है, ठीक वैसी ही शांति! निर्मल शांति। और आज मधुसूदन जी ऐसी बात पर सिर्फ़ ऐतराज़ नहीं जता रहे, एक शेर भी सुना रहे हैं; ‘रंग-बिरंगे सांप हमारी दिल्ली में/क्या कर लेंगे आप हमारी दिल्ली में।’
‘क्या बात है मधुसूदन जी! आज तो आप ने कमाल कर दिया।’ आनंद बोला।
‘कमाल मैं नहीं, आप लोग कर रहे हैं। फ़ालतू लोगों के बारे में बात कर के क्यों समय नष्ट कर रहे हैं?’
‘मधुसूदन जी हम लोग अपनी राजनीति और अपने समाज की व्याधियों-बीमारियों के बारे में अब बात भी नहीं कर सकते?’ वर्मा जी ने पूछा।
‘किस-किस बीमारी के बारे में बात करेंगे आप लोग?’ मधुसूदन जी जैसे फटे पड़े जा रहे थे, ‘पाखंडी, नक़ली और भ्रष्ट जब हमारा समूचा समाज ही हो चला हो तो किस-किस बीमारी के बारे में बात करेंगे? बीमारी के बारे में बात करने से पूरा माहौल बीमार हो जाता है। मत कीजिए!’
‘तो क्या अगर हमारे हाथ में कोढ़ हो गया है तो उसे कपड़े से ढंक देने से वह ठीक हो जाएगा?’ वर्मा जी ने मधुसूदन जी को लगभग घेर लिया।
‘नहीं ठीक होगा। पर सिर्फ़ कोढ़ है, कोढ़ है कहने से भी ठीक नहीं होगा।’ मधुसूदन जी बोले, ‘दवा देनी होगी।’
‘तो मधुसूदन जी, हम लोग यही कर रहे हैं। बीमारी का ब्यौरा बटोरने के बाद ही तो दवा तजवीज़ करेंगे?’
‘यहां काफ़ी हाउस में बैठ कर?’ मधुसूदन जी ने तरेरा सभी को, ‘कि ड्राइंगरूम में बैठ कर या सेमिनारों में बोल कर? क्यों आनंद जी?’
आनंद चुप रहा। समझ गया कि मधुसूदन जी आज कहीं गहरे आहत हैं। वरना वह आज यूं न बोलते। शेर नहीं सुनाते रंग बिरंगे सांप हमारी दिल्ली में/क्या कर लेंगे आप हमारी दिल्ली में। आनंद ने ग़ौर किया कि वह ही नहीं मधुसूदन जी के तंज़ पर सभी के सभी चुप हैं। पर मधुसूदन जी चुप नहीं थे, ‘अरे जाइए आप लोग जनता के बीच। यह कहने से काम नहीं चलेगा कि राजनीति पर अब अपराधियों और भ्रष्ट लोगों का क़ब्ज़ा है सो हम लोग दुबके पड़े हैं। यह हिप्पोक्रेसी बंद कीजिए आप लोग।’ वह बोलते जा रहे थे, ‘बताइए भ्रष्ट ब्यूरोक्रेट्स तक लाइन से रिटायर हो कर राजनीति में दाखि़ला ले रहे हैं, चुनाव लड़ रहे हैं। और आप लोग हैं कि काफ़ी हाउस में बैठ कर चोर-सिपाही खेल रहे हैं। अरे जाइए जनता में बताइए इन सब की करतूत।’
‘क्या बताएं मधुसूदन जी?’ बड़ी देर से चुप बैठे वर्मा जी बोले, ‘कि जिस संचय के खि़लाफ़ थे लोहिया जी, उन्हीं का अनुयायी अब खरबपति बन कर सी.बी.आई. जांच फेस कर रहा है। और सी.बी.आई. कहीं लटका न दे इस लिए गै़र कांग्रेसवाद का नारा भूल कर सारे अपमान पी कर कांग्रेस के आगे घुटने टेके हुए है। भीख मांग रहा है। एक दल्ले अमर सिंह के फंदे में फंस कर फ़िल्मी हीरो हीरोइनों को चुनाव लड़वा रहा है, सारे समाजवादियों को पार्टी से बाहर धकेल चुका है? ख़ुद भी कभी हिस्ट्रशीटर था, सारे गवाहों, पक्षकारों को मरवा कर अब पोलिटिकल हो गया है। पिछड़ों को एक करने के नाम पर बाबरी मस्जिद गिराने वालों को अपने बगल में बिठा कर घूम रहा है। अमरीका परस्त हो चला है?’
‘बिलकुल!’ मधुसूदन जी ने बड़े ठसके से कहा।
‘अरे मधुसूदन जी निरे बबुआ हैं आप?’ वर्मा जी बोले, ‘अभी जितनी और जो बातें मैं ने आप से कहीं क्या कोई नई बात कही क्या? हम आप यह सब जानते हैं और आप समझते हैं कि आप की यह महान जनता कुछ नहीं जानती?’
अब मधुसूदन जी चुप थे।
‘अरे जनता सब जानती है।’ वर्मा जी चालू थे, ‘ये मोटी खाल वाले सिर्फ़ तमाम पार्टियों के नेता भर नहीं हैं। यह जो हमारी महान जनता जो है न उस की खाल इन नेताओं से भी ज़्यादा मोटी है। जानती वह सब है फिर भी इन्हीं भ्रष्ट और गुंडों को वोट दे कर विधानसभा और लोकसभा भेजती है। और नतीजे में हम आप शेर सुनाते हैं-रंग-बिरंगे सांप हमारी दिल्ली में/क्या कर लेंगे आप हमारी दिल्ली मंे। यह रंग-बिरंगे सांप हमारी जनता ही पालती पोसती है। और दोष मढ़ती रहती है दूसरों पर।’
‘अच्छा राजनीति छोड़िए। सिनेमा पर आइए। एक से एक बे सिर पैर की कहानियां, चार सौ बीसी से भरे डिटेल्स वाली फ़िल्में सुपर-डुपर हुई जा रही हैं तो अपनी इसी महान जनता की ही तो बदौलत!’ वर्मा जी अब पूरा नहा-धो कर मधुसूदन जी पर पिल पड़े थे, ‘फ़िल्में भी छोड़िए इलेक्ट्रानिक चैनलों पर आइए। अवैध संबंधों और बे सिर पैर की कामेडी से भरे सीरियलों की कहानियां साल भर बाद भी वहीं की वहीं खड़ी मिलती हैं और हमारी महान जनता उन्हें देख-देख उन की टी.आर.पी. बढ़ाती रहती है। न्यूज़ चैनलों की तो महिमा और बड़ी है। न्यूज़ नहीं है, उन के यहां बाक़ी सब है। भूत प्रेत है, अपराध है, सीरियलों के झगड़े हैं और दिन रात चलने वाली चार ख़बरों का न्यूज़ ब्रेक है। तो यह सब किस की बदौलत है?’ वर्मा जी बोले, ‘हमारी महान जनता की बदौलत है मधुसूदन जी!’
‘क्या तभी से मधुसूदन जी, मधुसूदन जी लगा रखा है वर्मा जी। अब इस में बेचारे ये क्या करें?’ राय साहब बोले।
मधुसूदन जी कुछ बोले नहीं। चुपचाप उठे और काफ़ी हाउस से जाने लगे।
‘कोई रोको भी उन्हें।’ आनंद खुसफुसाया।
पर किसी ने उन्हें रोका नहीं। वह चले गए।
‘तो बात मीडिया की हो रही थी।’ वर्मा जी पत्रकार सुजीत की ओर मुख़ातिब थे, ‘और तुम चुप थे?’
‘तो क्या करता?’
‘मीडिया का बचाव करते।’
‘क्या ख़ाक करता।’ सुजीत भन्नाया, ‘मीडिया को तो जितना भी कोसा जाए कम है।’
‘क्या?’ राय साहब ने जैसे मुंह बा दिया।
‘हां राय साहब!’ सुजीत बोला, ‘मीडिया अब मीडिया नहीं, एक डिपार्टमेंटल स्टोर है, जाइए जो चाहिए ख़रीद लीजिए।’
‘मतलब?’
‘यह जो तमाम तांत्रिक, ज्योतिषी चैनलों पर आ रहे हैं, आप क्या समझते हैं यह सब सचमुच अपने सबजेक्ट के एक्सपर्ट हैं?’
‘हां तो?’
‘कोई एक्सपर्ट-वोक्सपर्ट नहीं हैं। सब टाइम और स्लाट ख़रीदते हैं चैनल वालों से। वह चाहे किसी धार्मिक चैनल पर हों या न्यूज़ चैनल पर। अपने ख़र्चे से पूरा प्रोग्राम शूट करते हैं, चैनल वालों से टाइम बुक करते हैं। वह चाहे कोई
बापू हो, कोई स्वामी हों, कोई तांत्रिक या कोई ज्योतिषी।’
‘यह क्या हो रहा है मीडिया में?’ वर्मा जी खदबदाए।
‘यही नहीं आज कल तो तमाम नेता, अभिनेता, खिलाड़ी अपना इंटरव्यू करवाने या अपनी फ़ोटो वाली फ़ुटेज दिखाने के लिए भरपूर पैसा ख़रचते हैं।’
‘मतलब सब कुछ प्रायोजित!’ राय साहब ने फिर मुंह बा दिया।
‘जी हां, प्रायोजित!’ सुजीत बोला, ‘आज कल की सेलीब्रेटी आखि़र कौन है? अमिताभ बच्चन, शाहरुख, अमर सिंह, सचिन तेंदुलकर, राखी सावंत जैसे फ़िल्मी लोग या खिलाड़ी।’ सुजीत बोला, ‘‘आखिर यह सेलीब्रेटी हमारे चैनल ही तो गढ़ रहे हैं? पैसा ख़र्च कीजिए राय साहब आप अमर सिंह से बड़े नेता बन जाइए।’
‘क्या बात कर रहे हो?’ राय साहब बिदके, ‘अब यह दिन आ गया है कि मैं पैसा ख़र्च कर के नेता बनूंगा। अरे गांव जा कर खेती-बाड़ी कर लूंगा। मूत दूंगा ऐसी नेतागिरी पर!’
‘अरे राय साहब आप और आप जैसे लोग अगर ऐसे ही अड़े रहे तो लोग आप की राजनीति पर अभी छुप छुपा कर मूत रहे हैं, बाद में खुल्लमखुल्ला मूतने लगेंगे।’ सुजीत मुसकुराते हुए बोला, ‘सुधर जाइए राय साहब और अपने साथियों को भी सुधारिए।’
‘तो अब तुम हम को राजनीति का ककहरा सिखाओगे?’ राय साहब फिर बिदके।
‘हम नहीं ये चैनल सिखाएंगे।’
‘इन चैनलों से देश तो नहीं चल रहा?’
‘फ़िलहाल तो चल रहा है राय साहब!’ सुजीत बोला, ‘अच्छा आप अभिनव बिंद्रा को जानते हैं?’
‘क्यों?’
‘नहीं, जानते हैं कि नहीं?’
‘कौन है यह?’
‘देखिए मैं जानता हूं कि आप नहीं जानते होंगे। सुजीत बोला, ‘देश का गौरव है अभिनव बिंद्रा लेकिन चैनलों का गढ़ा सेलीब्रेटी नहीं है।’
‘बताओगे भी कि कौन है?’ राय साहब भनभनाए, ‘कि पहाड़ा ही पढ़ाते रहोगे?’
‘पिछले ओलंपिक में निशानेबाज़ी में गोल्ड मेडल लाया था।’ सुजीत बोला, ‘देश में पहला व्यक्ति जो गोल्ड मेडल ओलंपिक से लाया। लेकिन आप या बहुतायत लोग नहीं जानते क्यों कि चैनल वाले इस का खांसी ज़ुकाम नहीं दिखाते।
क्यों कि यह सब दिखाने के लिए वह चैनलों को पैसा नहीं परोसता।’
‘तो बात यहां तक पहुंच गई है।’ वर्मा जी ने अंगड़ाई लेते हुए पूछा।
‘अच्छा आप यह बताइए कि एक अभिनेता अपने घर से नंगे पांव मंदिर जा रहा है, या नैनीताल अपने पुराने स्कूल जा रहा है या ऐसे ही कुछ और कर रहा है और चैनल वाले आधे-आधे घंटे का स्पेशल कार्यक्रम दिखाते हैं तो कैसे? क्या सपना देख कर? आप मंदिर जा रहे हैं कि स्कूल? भाई लोग मीडिया टीम अरंेज करते हैं, लाद के अमुक जगह तक ले जाते हैं, पैसा ख़र्च कर स्लाट ख़रीदते हैं, देख रही है जनता। क्यों कि आप यह दिखाना चाह रहे हैं। पर आप के बेटे की शादी होती है वह फु़टेज नहीं दिखाते चैनल वाले क्यों कि आप नहीं देते। पर चैनल वाले एक फ़िल्म की शादी वाली क्लिपिंग दिखा-दिखा कर अपने श्रद्धालु दर्शकों का पेट भरते हैं। हद है!’ सुजीत बोल रहा है, ‘क्या तो आप सदी के महानायक हैं। तो महात्मा गांधी, नेहरू, पटेल क्या हैं? अच्छा अभिनेताओं वाले महानायक हैं? तो मोती लाल, अशोक कुमार, दिलीप कुमार, राज कपूर, देवानंद, संजीव कुमार जैसे लोग घास छीलते रहे हैं जो आप सदी के महानायक बन गए?’ सुजीत ऐसे बोल रहा था गोया प्रेशर कुकर की सीटी। सीटी न हो तो कुकर फट जाए। पर वह फट भी रहा था और बोल भी रहा था। वह बोल रहा था, ‘इस महानायक के खांसी जु़काम वाली ख़बरों सहित तमाम इंटरव्यू भी जब तब चैनलों पर आते ही रहते हैं। अच्छा महानायक और रेखा की कहानी कौन नहीं जानता? पर किसी चैनल वाले के पास रेखा से जुड़ा कोई प्रश्न नहीं होता। क्यों कि महानायक को यह पसंद नहीं। हालत यह है कि कवि पिता का निधन होता है तो चैनलों पर श्रद्धांजलि कोई कवि, आलोचक नहीं अमरीशपुरी, सुभाष घई जैसे लोग देते हैं। यह क्या है?’ कह कर सुजीत ज़रा देर के लिए रुका।
पूरी महफ़िल पर ख़ामोशी तारी थी।
‘तुम भड़ास डॉट कॉम पर क्यों नहीं जाते?’ आनंद ने सन्नाटा तोड़ते हुए सुजीत से कहा, ‘इस में तुम क्या नया बता रहे हो? अरे लोग रिएक्ट करना अब भूल गए हैं। कुछ कहते नहीं तो इस का मतलब यह तो नहीं ही है कि कोई कुछ जानता ही नहीं। ब्लॉगिए इस से ज़्यादा लिख रहे हैं। मीडिया के बारे में समाज के बारे में।’
‘नहीं आनंद ऐसा नहीं है।’ वर्मा जी बोले, ‘इन बातों को इस तरह हम लोग तो नहीं जानते। कम से कम इतनी बेपर्दगी के साथ।’
‘इस से बेहतर तो फिर प्रिंट मीडिया ही है।’ राय साहब बोले।
‘ख़ाक बढ़िया है।’ सुजीत फिर भड़का, ‘वहां भी ऐडवोटोरियल शुरू हो गया है।’
‘एडिटोरियल तो सुना है, ये ऐडवोटोरियल क्या बला है?’ आनंद ने पूछा।
‘क्यों यह किसी ब्लॉग या भड़ास डॉट कॉम पर नहीं है क्या?’ सुजीत ने पूछा।
‘अभी तक तो मेरी नज़र से नहीं गुज़रा।’
‘अरे भाई साहब, कोई पांच-छः साल से यह फ्रॉड चल रहा है।’ वह बोला, ‘आप अपने बारे में जिस अख़बार में चाहें उस अख़बार में मय तमाम फो़टो के जो चाहें बतौर राइट-अप छपवा सकते हैं पैसा दे कर। और उस पर विज्ञापन भी नहीं लिखा रहेगा। आप चाहें तो अपने को अकबर और अशोक का बाप लिखवा लीजिए। धर्मात्मा या ओबामा लिखवा लीजिए अपने आप को। चाहिए तो ओबामा के साथ अपनी फ़ोटो भी छपवा लीजिए। भले आप उस से कभी नहीं
मिले हों। मल्लिका शेरावत या बिपाशा बसु की भले परछाई न देखी हो पर उस के साथ डांस करती अपनी फ़ोटो छपवा लीजिए!’
‘ओह तो इतना पतन हो चला है?’ राय साहब गंभीर हो गए। बोले, ‘अरे भई छपे अक्षरों से फिर तो लोगों का यक़ीन उठ जाएगा।’
‘उठता है तो उठे। पर उन की तो तिजोरी भर रही है।’
‘चलो अख़बार तो माना कि पूंजीपतियों, उद्योगपतियों के हैं। उन का कोई एथिक्स नहीं है। बाज़ार और पैसा ही उन का सब कुछ है। अख़बारों में तो पहले भी दबी ढंकी प्रायोजित और पीली ख़बरें छपती रही हैं पर ये न्यूज़ चैनल कई एक पत्रकारों के ही स्वामित्व में हैं?’ आनंद ने सुजीत से पूछा, ‘फिर ये सब भी ऐसा कैसे कर ले रहे हैं। चीख़-चीख़ कर, भविष्यवाणियां कर-कर के आतंकवाद, राजनीति से संबंधित असली फ़र्जी ख़बरें परोसते हैं। कि नाटक फे़ल हो जाएं। नाट्य रूपांतरण कर के अपराध की ख़बरें ऐसे परोसते हैं कि कई बार माथा पीट लेना पड़ता है। और हद तो तब होती है जब ये चैनल नाट्य रूपांतरण कर छोटे-छोटे शहरों में भी वाइफ़ स्वैपिंग की ख़बरें कमेंट्री मार कर परोस देते हैं, सनसनीखे़ज़ ढंग से। ये फ़र्जी स्टिंग आपरेशन ठोंक देते हैं? यह काम तो पत्रकारों के स्वामित्व में नहीं होना चाहिए!’
‘आनंद जी, ये चैनल चलाने वाले पत्रकार होंगे आप की नज़र में अब भी पत्रकार! पर हक़ीक़त यह है कि अब यह पत्रकार नहीं सैकड़ों हज़ारों करोड़ की कंपनियों के मालिक हैं। व्यवसायियों से बढ़ कर व्यवसायी हैं।’ सुजीत बोला, ‘और आप एथिक्स की बात कर रहे हैं? अरे हालत यह है कि इन को अगर पता चल जाए कि इन की मां के बिकने की ख़बर चला कर पैसा मिल जाएगा तो ये सब ताबड़तोड़ अपनी-अपनी मां बेच-बेच कर ख़बरें चला देंगे। और बताते रहेंगे चीख़-चीख़ कर कि सब से पहले मैं ने अपनी मां बेची। देखें सिर्फ़ इसी चैनल पर। और फिर इस ख़बर के असर पर भी दो चार स्टोरी चला देंगे। और आप हैं कि देश और समाज की चिंता इन के कंधों पर डाल देना चाहते हैं!’
‘क्या बेवकू़फ़ी की बात कर रहे हो?’ राय साहब फिर भड़के।
‘नहीं हो सकता है भाई!’ आनंद बोला, ‘नोएडा वाला आरुषी हत्याकांड ऐसे ही तो सारे चैनलों ने दिखाया था। जिस बेशर्मी से वह आई.जी. लेविल का पुलिस अफ़सर प्रेस कांफ्रेंस कर उस चौदह साल की मासूम आरुषी की हत्या के बाद भी उस की चरित्र हत्या कर रहा था, और उस के पूरे परिवार की पैंट उतार कर बेचारे डाक्टर बाप को क़ातिल ठहरा रहा था और सारे के सारे चैनल इस प्रेस कांफ्ऱेंस को लाइव दिखा रहे थे, और फिर बाद में भी पंद्रहियों दिन उस बेचारी मासूम और उस के परिवार को बेइज़्ज़त करते रहे सारे के सारे चैनल, ऐसे जैसे उन के पास और देश में कोई और ख़बर ही न हो तो इस से तो लगता है ऐसा भी हो सकता है।’ आनंद माथे पर हाथ फिराते हुए बोला, ‘सुजीत तुम ठीक कह रहे हो। हो सकता है ऐसा भी!’
‘हम तो समझे थे कि राजनीति में ही पलीता लगा है। पर पत्रकारिता वाले तो राजनीति से भी कहीं आगे निकल रहे हैं।’ वर्मा जी हताश हो कर बोले।
‘नहीं वर्मा जी!’ आनंद बोला, ‘पतन के मामले में पत्रकारिता राजनीति से आगे नहीं जा पाएगी। पर हां, मैं यह ज़रूर मानता हूं कि पत्रकारिता का अगर इतना पतन नहीं हुआ होता तो राजनीति इतनी पतित नहीं होती। पत्रकारिता का इतना पतन हुआ; इसी लिए राजनीति भी पतन के पाताल में, रसातल में, चाहे जो कहिए, चली गई।’ वह बोलता रहा, ‘वैसे भी अब मीडिया चाहे इलेक्ट्रानिक हो या प्रिंट मारवाड़ियों के हाथ से निकल कर बिल्डरों और माफ़ियाओं के हाथ में चला गया है। कुछ चैनल और अख़बार तो सीधे-सीधे बिल्डरों के हाथ में तो कुछ साझे में पत्रकारों के स्वामित्व में। सोचिए कि डी.पी. यादव और मनु शर्मा जैसे लोग अख़बार निकाल रहे हैं और पत्रकारिता के बड़े-बड़े चैंपियन और जीनियस उन के संपादक हैं।’
‘तो ये प्रेस काउंसिल वग़ैरह क्या कर रही है?’ राय साहब ने मुंह उठा कर सुजीत की ओर देखा।
‘नख-दंत विहीन संस्थाएं क्या कर सकती हैं भला?’ सुजीत बोला, ‘खांसी जु़काम तो अख़बारों का ठीक नहीं कर सकती ये प्रेस काउंसिल तो यह सब एड्स और कैंसर जैसी बीमारियां हैं, ये कैसे ठीक करे? और फिर इलेक्ट्रानिक मीडिया के लिए तो अभी तक कोई नार्म्स संसद तक नहीं तय कर पाई। जब-जब संसद में कोई बात आई या सरकार ने कुछ करना चाहा, सारे चैनल गिद्धों की तरह ऐसा गोलबंद हो जाते हैं कि सरकार और संसद की घिघ्घी बंध जाती है। ये चैनल तो सिर्फ़ टी.आर.पी. के तबले पर नाचना जानते हैं। और सरकार कहती है कि ये टी.आर.पी. भी एक धोखा है, एक साज़िश है, मैन्युपुलेशन है। पर बात बयानबाज़ी तक ही रह जाती है। मंत्री अस्पताल चला जाता है। चुनाव का ऐलान हो जाता है, बात ख़त्म हो जाती है।’ वह आजिज़ हो कर बोला, ‘जैसे पुराने समय में लड़ाई हार रहा राजा गायों का झुंड आगे खड़ा कर देता था और अपनी जान बचा लेता था वैसे ही यह चैनल वाले भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नाम की एक गाय संविधान में से निकाल कर खड़ी कर देते हैं। सरकार, संसद, पक्ष-विपक्ष सभी ख़ामोश हो जाते हैं।’
‘पर हमारा देश क्या संविधान और क़ानून से चलता है?’ राय साहब मुनमुनाए।
‘तो फिर देश कैसे चलता है?’ सुजीत ने प्रति प्रश्न किया।
‘संविधान और नियम क़ानून मूर्खों के लिए है। जैसे अदालतों में गीता-कु़रान-ईश्वर या सत्य की क़सम।’ राय साहब बोले, ‘हमारा देश चलता है धर्म से, भ्रष्टाचार से, जाति से, गंुडई से। लोग संसदीय राजनीति की बात करते ज़रूर हैं पर यह संसदीय राजनीति भी सारे असंसदीय कृत्यों से चल रही है। कितने असंसदीय टाइप लोग हमारी लोकसभा और विधानसभाओं में चुन कर हर बार आ जाते हैं, कोई कुछ कर लेता है क्या?’ वह बोले, ‘और हर बार इस का ग्राफ़ बढ़ता ही जाता है।’
‘यह सब अंतहीन बहसें हैं, जाने भी दीजिए।’ आनंद ने कहा, ‘राजनीति और मीडिया, पुलिस और चोर, अदालतें और अस्पताल! यह सब अंतहीन विषय हैं। इन का कोई सर्वकालिक समाधान नहीं है।’
‘भइया इस में शिक्षा और पाकिस्तान भी जोड़ लीजिए!’ बड़ी देर से टुकटुक आंख लगाए, सिगरेट फूंकते और यह बहस सुनते अश्विनी जी बोले।
‘चलिए जोड़ लेते हैं।’ आनंद बोला, ‘पर इन विषयों पर बहस-मुबाहिसा फिर किसी रोज़। आज की बहस अगर आप लोगों की इजाज़त हो तो यहीं मुल्तवी की जाए!’
‘नहीं भई हम लोग तो अभी बैठेंगे।’ वर्मा जी ने प्रतिवाद किया।
‘बैठिए और फिर बहस जारी रखिए। हमें क्षमा कीजिए।’ कह कर आनंद उठ खड़ा हुआ।
‘भाई साहब मैं भी चलता हूं।’ कह कर सुजीत भी खड़ा हो गया।
‘इन राय साहब और वर्मा जी के बारे में जानते हो?’ आनंद ने काफ़ी हाउस के बरामदे में टहलते हुए सुजीत से पूछा।
‘नहीं, कुछ ख़ास नहीं।’
‘सोचो यह राय साहब बी.एच.यू. के प्रेसीडेंट रहे हैं अपने समय में और ये वर्मा जी मिनिस्टर! संसदीय कार्य और पी.डब्ल्यू.डी. जैसे विभाग देख चुके हैं।’
‘अच्छा?’ सुजीत ने मुंह बा दिया।
‘पर हमारी तरह साफ़ सुथरी राजनीति के पक्षधर बनते-बनते पहले राजनीति के हाशिए पर आए और अब शायद हाशिए से भी बाहर हो गए हैं।’
‘आप एक समय राकेश जी के बारे में बहुत भावुक हो कर बात करते थे जो आप के शहर में दो बार एम.पी. भी रह चुके हैं, वह अब कहां हैं?’
‘वह भी अब उखड़े हुए लोगों में हैं। दिल्ली में कांग्रेस की अनुशासन समिति में हैं।’ आनंद बोला, ‘जहां सिर्फ़ सोनिया का अनुशासन चलता है।’
‘वैसे भी भाई साहब राजनीति और अनुशासन दोनों दो चीज़ें हो गई हैं।’ सुजीत बोला, ‘अब तो अनुशासन शायद सेना में ही रह गया है।’
‘ये तो है।’ आनंद बोला। अब तक दोनों कार पार्किंग में आ चुके थे। कार का दरवाज़ा खोलते हुए आनंद ने सुजीत से पूछा, ‘तुम्हें कहीं छोड़ दूं?’
‘नहीं-नहीं, मेरी बाइक उधर खड़ी है।’ सुजीत बोला, ‘आप चलिए।’
‘कभी घर पर आओ। बैठ कर बातें करते हैं।’
‘ठीक भाई साहब!’ कहते हुए वह हाथ जोड़ता हुआ निकल गया।
वह घर आ कर हाथ पैर धो कर बैठा ही था कि मुनव्वर भाई का फ़ोन आ गया। वह बुरी तरह घबराए हुए थे, ‘आनंद जी मैं मुनव्वर बोल रहा हूं।’
‘हां बताइए मुनव्वर भाई! इतना घबराए हुए क्यों हैं?’
‘घबराने की बात ही है।’
‘हुआ क्या?’
‘क़ासिम का इनकाउंटर हो गया।’
‘क़ासिम?’ वह बोला, ‘कौन क़ासिम?’
‘अरे आप के गांव वाला क़ासिम!’
‘ओह हां! कब हुआ, कैसे हुआ?’ पूछते हुए उस की आवाज़ जैसे बैठ गई।
‘आज ही!’
‘पर उस को तो ए.टी.एस. ने क्लीन चिट दे दी थी कि वह आतंकवादी नहीं है।’
‘तो इनकाउंटर आतंकवादी बता कर किया भी नहीं है।’
‘तो फिर?’
‘बैंक राबरी से जोड़ दिया है।’
‘ये तो हद है!’
‘और यह इनकाउंटर उसी दारोग़ा ने किया है जिस को आप ने लाइन हाज़िर करवाया था क़ासिम वाले मामले में।’
‘तो क्या वह दुबारा वहीं पोस्टिंग पा गया था?’
‘नहीं अब की तो वह शहर के थाने में तैनात है।’
‘ओह।’
‘वही महंत जी और उन की हिंदू युवा वाहिनी ब्रिगेड ने यह इनकाउंटर करवाया है।’
‘तो क्या क़ासिम अकेले मारा गया है?’
‘नहीं।’ मुनव्वर भाई बोले, ‘बैंक राबरी से जोड़ा है तो अकेले कैसे मारेंगे?’
‘तो?’
‘तीन लड़के और हैं।’ मुनव्वर भाई बोले, ‘कुल चार लड़कों को मारा है। इन में तीन मुसलमान हैं और एक हिंदू।’
‘ओह!’
‘हम तो इस इनकाउंटर की न्यायिक जांच की मांग करने जा रहे हैं। पुलिस या मजिस्ट्रेटी जांच पर हमें बिलकुल भरोसा नहीं है।’ वह बोले, ‘मानवाधिकार आयोग और अल्पसंख्यक आयोग से भी कहने जा रहे हैं कि वह भी जांच करें।’
‘अरे मुनव्वर भाई सीधे सी.बी.आई. जांच मांगते!’ वह बोला, ‘इस सब से कुछ होने हवाने वाला नहीं है।’
‘सी.बी.आई. जांच कहां हो पाएगी आनंद जी?’ मुनव्वर भाई बोले, ‘सरकार कहां मानेगी? न्यायिक जांच ही मान जाए तो बहुत है।’
‘चलिए जो भी करना हो करिए।’ वह बोला, ‘हो सका तो दो एक दिन में मैं भी आऊंगा।’
‘इसी मामले में?’
‘हां, मुनव्वर भाई। आप जानते ही हैं क़ासिम के परिवार से मेरे रिश्ते, मेरी भावनाएं।’ कहते हुए वह जैसे टूट सा गया।
‘हां, वो तो है।’
‘मैं आज ही चल देता।’ वह बोला, ‘पर जानता हूं कि अभी उस की बॉडी मिलने में ही दो दिन लग जाएंगे।’
‘क्यों?’
‘अरे आप नहीं जानते हैं?’ वह बोला, ‘एक दिन तो पोस्टमार्टम वग़ैरह में ही ख़र्च हो जाएंगे। फिर सरकारी और पुलिसिया प्रक्रिया!’
‘हां, ये तो है।’ मुनव्वर भाई बोले, ‘आइए तो भेंट होगी। तब तक मैं इस मामले को मीडिया में और पोलिटिकली गरमाता हूं।’
‘ये तो ठीक है मनुव्वर भाई!’ वह बोला, ‘पर अब वह बेचारा क़ासिम तो नहीं लौटेगा न!’ उसे लगा जैसे अब वह रो देगा। सो उस ने फ़ोन काट दिया।
सुखई चाचा का ज़र्द चेहरा उस की आंखों में आ कर कौंध गया। अफना कर वह आंख बंद कर लेट गया। सोचने लगा कि अब वह सुखई चाचा का सामना कैसे करेगा भला?
वह गांव गया भी। दो दिन बाद। यह सोच कर कि अब तक क़ासिम को दफ़ना दिया गया होगा। पर अजब संयोग था कि जब वह गांव पहुंचा तो एक घंटे पहले ही क़ासिम का शव शहर से गांव आया था। गांव में सन्नाटा पसरा था। ख़ामोश नहीं, खौलता सन्नाटा। अम्मा उसे देखते ही चौंक गईं। सिर्फ़ चौंकी ही नहीं डर भी गईं। यह पहली बार था कि गांव जाने पर उसे देखते ही अम्मा चौंक कर डर गईं।
नहीं तो पहले उसे देखते ही वह इतरा जाती थीं। वह जब सुखई चाचा के यहां जाने के लिए घर से चलने लगा तो अम्मा समझ गईं कि वह सुखई चाचा के घर जा रहा है। अम्मा धीरे से बोलीं, ‘बाबू वहां मत जाओ।’ उस का डर अभी तक उस के चेहरे पर था।
‘क्यों?’ आनंद ने भी धीरे से पूछा।
‘इस लिए कि गांव में माहौल बहुत ख़राब है।’
‘क्या?’
‘हां।’ वह बोली, ‘क़ासिम को ले कर सारा गांव बहुत नाराज़ है।’
‘क्यों?’
‘उस का चाल चलन ठीक नहीं था।’ अम्मा बोलीं, ‘ऊ आतंकवादी था। बैंक लूटने में मारा गया।’
‘यह कौन कहता है?’ आनंद लगभग बौखला गया, ‘ये फ़ौजी पंडित? ये हिंदू युवा वाहिनी?’
‘मुसल्लम गांव!’ अम्मा धीरे से बोलीं।
‘ओह!’ कह कर आनंद बैठ गया। अम्मा से धीरे से बोला, ‘अब जो भी हो वह तो मर गया न? तो ऐसे में उस के घर जाने में उस की शव यात्रा में जाने में हर्ज क्या है?’
‘हर्ज तो नहीं है।’ अम्मा बोलीं, ‘तुम तो दो दिन में फिर लखनऊ चले जाओगे। यहां रहना हमें है। गांव हमें अकेला कर देगा। ताना देगा। तुम क्या जानो गांव की राजनीति।’ अम्मा हाथ जोड़ कर बोलीं, ‘बाबू हम को यहीं रहना है!’
‘वो तो ठीक है।’ आनंद बोला, ‘पर अम्मा सोचो कि सुखई चाचा जब यह जानेंगे कि मैं गांव में हो कर भी उन के शोक में शामिल नहीं हुआ तो वह क्या सोचेंगे?’
‘सोचने दो!’ अम्मा बोलीं, ‘पर हमें तो शांति से रहने दो।’
‘अम्मा यह तुम कह रही हो?’ आनंद ने बड़ी कातरता से अम्मा की ओर देखा, ‘वह भी सुखई चाचा के लिए?’
‘हां, बाबू मैं कह रही हूं।’ कहते हुए अम्मा रो पड़ीं। बोलीं, ‘तुम नहीं जानते कि गांव कितना बदल गया है। कितनी राजनीति हो गई है, गांव में। और ई क़ासिम को ले कर तो जैसे हिंदुस्तान-पाकिस्तान बन गया है। रहीमवा फेल हो गया इस के आगे।’
‘क्या?’
‘हां।’ अम्मा बोलीं, ‘जब तुम ने क़ासिम को पिछली दफ़ा बचाया था तब गांव में किसी ने हम से कुछ कहा तो नहीं पर सब की आंखों में हमारे लिए, हमारे घर के लिए घृणा दिखाई देने लगी। और जो आज मियां के घर तुम चले
जाओगे तो रही सही कसर भी निकल जाएगी। समझो कि आग ही लग जाएगी।’
‘क़ासिम को मैं ने बचाया था, यह किस ने बताया तुम को?’
‘पूरा गांव जानता है।’
‘गांव को किसने बताया?’
‘क़ासिम ने।’
‘क्या बताया?’
‘कि आनंद चाचा ने अपने घर में बैठे-बैठे बचा लिया। कहीं जाना भी नहीं पड़ा।’
‘अरे, उस को तो मैं ने मना किया था।’
‘पर वह कहां माना?’ अम्मा बोलीं, ‘पर बाबू तुम मान जाओ!’
‘अब जब पूरा गांव जानता है कि मैं ने क़ासिम को बचाया तो फिर जाने में दिक़्क़त क्या है?’
‘दिक़्क़त है।’
‘क्या?’
‘चिंगारी को शोला मत बनाओ।’ वह बोलीं, ‘आग को लपट मत बनाओ!’
‘ओह!’ कह कर वह एक बार फिर बैठ गया।
थोड़ी देर बाद वह पिता जी के कमरे में गया। वह लेटे हुए थे। उस ने उन से क़ासिम की चर्चा की। बताया कि वह जाना चाहता है सुखई चाचा के घर। मातमपुर्सी के लिए। लेकिन अम्मा मना कर रही हैं। क्या करे वह?
‘मैच्योर हो, राजनीति करते समझते हो, लखनऊ में रहते हो, ख़ुद फ़ैसला ले सकते हो।’ लेटे-लेटे ही पिता जी बोले, ‘इस में मुझ से पूछने की क्या ज़रूरत है?’
वह समझ गया कि पिता जी और अम्मा की राय एक है। फ़र्क़ बस इतना है कि एक डायरेक्ट स्पीच में है, दूसरा इनडायरेक्ट स्पीच में।
तो गांव क्या ज्वालामुखी पर बैठा हुआ है?
उस ने सोचा। और बारहा सोचा।
वह बड़ी दुविधा में पड़ गया। एक तरफ़ सुखई चाचा के प्रति उस की संवेदनाएं थीं, दूसरी तरफ़ अम्मा-पिता जी की भावनाएं थीं, गांव में रहने की मुश्किलें थीं, उन की बात का, उन के मान सम्मान का सवाल था। तीसरी तरफ़ उस की अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता थी, सच का साथ देने का सवाल था। और इस सब में भी सुलगता एक मासूम सा सवाल भी था कि आखि़र वह गांव आया ही क्यों था? मातमपुर्सी करने, क़ासिम के जनाजे़ को कंधा देने, या अपने ही को सूली पर चढ़ाने?
वह जब छोटा था मुहर्रम में ताज़िया उठाना एक फ़र्ज़ होता था गांव के लिए। पूरे गांव के लिए। सब के घर के सामने से ताज़िया गुज़रती। छोटे-बड़े सभी कांधा देते। ताज़िया बनाने के लिए चंदा भी सभी लोग अपनी श्रद्धा से देते। कोई पैसा देता तो कोई अनाज। कोई कुछ नहीं भी देता तो कोई बात नहीं। ठीक वैसे ही जैसे होली में सम्मत जलाने के लिए लोग अपनी इच्छा से लकड़ी, उपला आदि देते। कुछ लंठ लड़के कुछ लोगों के उपले, लकड़ी रात के अंधेरे में उठा ले जाते। इसे सम्मत लूटना कहते। ख़ूब गाली गलौज भरा गायन होता। ढोल नगाड़ा बजता। सम्मत जलती। दूसरी सुबह सम्मत की राख से होली शुरू होती। सम्मत की राख झोली में भर-भर कर छोटे बच्चे मुंह अंधेरे ही राख की होली शुरू कर देते। राख से फिर गोबर, कीचड़ पर आती होली। फिर नहा धो कर रंग की होली शुरू होती। होरिहार अमीर-ग़रीब सब के घर बारी-बारी जाते। दरवाज़े पर पहुंचते ही गाली गलौज भरा कबीर गाते। बैठते। झाल, करताल, ढोलक बजा कर झूम-झूम कर होली गाते। गरी-छुहारा, गुझिया-गुलगुला खाते। और ‘सदा आनंद रहैं एहि द्वारे, मोहन खेलैं होली’ गाते हुए दूसरे दरवाजे़ चले जाते। गांव की मासूमियत, गांव का सौंदर्य और गांव की एकता होली के रंग में और चटक, और सुर्ख़ , और मज़बूत होती जाती। सरसों के फूल की तरह चहकती और अरहर के फूल की तरह महकती।
ताज़िया उठाने के समय भी गांव की यही मासूमियत, गांव का यही सौंदर्य, गांव की यही एकता मुहर्रम की ग़मी के बावजूद गुलज़ार रहती। ऐसे भरा-भरा दिखता गांव कि जैसे अरहर की छीमी गदरा कर पूरा खेत इतराए मह-मह!
क्या यह वही गांव है?
आनंद पुराने दिनों की भीगी यादों से निकल कर अचानक इन तपिश भरे दिनों में लौट आता है। नहीं रहा जाता उस से इस गांव में। सड़क पर आता है तो पाता है कि सड़क किनारे का बरगद ग़ायब है। नहीं मिलती उस घने बरगद की छांव।
गांव से अफना कर वह शहर आ जाता है।
मुनव्वर भाई से मिलता है। गांव के हाल चाल और अपनी तकलीफ़, अपनी नामर्दगी की चर्चा करता है। कहता है कि लगता है कारपोरेट सेक्टर की नौकरी करते-करते वह नपुंसक हो गया है। कहता है, ‘लगता है मुनव्वर भाई इस नपुंसक और हिंसक समाज का मैं भी एक महत्वपूर्ण हिस्सा हूं।’
‘नहीं आनंद जी, ऐसा तो मत कहिए!’ मुनव्वर भाई आनंद को अपनी बाहों में सहारा देते हुए कहते हैं, ‘आप भी ऐसा कहेंगे तो हम लोग क्या करेंगे?’
‘क्यों हम सभी इस नपुंसक और हिंसक समाज का महत्वपूर्ण हिस्सा नहीं हैं?’ वह कहता है, ‘मुनव्वर भाई आप हो न हों, मैं तो हो गया हूं।’ वह रो पड़ता है।
‘मत रोइए आनंद जी। रोने से विचार बौने पड़ जाते हैं।’
‘ठीक बात है!’ वह बोला, ‘मुनव्वर भाई एक प्रेस कानफ्रेंस करना चाहता हूं। कल ही। अरंेज करवा देंगे?’
‘इसी क़ासिम मुद्दे पर?’
‘हां?’
‘आप घुमा फिरा कर महंत जी पर, उन की हिंदू युवा वाहिनी पर फा़ेकस करेंगे, उन को दोषी बताएंगे।’
‘बिलकुल!’
‘एक लाइन कहीं नहीं छपेगी।’
‘क्यों?’ आनंद बोला, ‘क्या सारे अख़बार महंत जी या हिंदू युवा वाहिनी के पेरोल पर हैं?’
‘लगता तो यही है।’
‘या उन का आतंक है?’
‘दोनों कह सकते हैं।’
‘प्रेस कानफ्रेंस फिर भी करना चाहता हूं।’
‘देखिए आनंद जी इस मसले पर मैं ख़ुद बयानबाजी कर चुका हूं। एक दिन दो अख़बारों में एक-एक पैरा बयान छपा। वह भी तोड़-मरोड़ कर। सिर्फ़ इतना सा कि न्यायिक जांच की मांग! बस। फिर आगे के दिनों में भी मैं बयान भेजता रहा, किसी अख़बार ने सांस नहीं ली।’
‘एक पैरा, दो पैरा छपेगा न!’ आनंद बोला, ‘और जो न भी छपे तो भी प्रेस कानफ्रेंस करने में कोई नुक़सान तो नहीं है न?’
‘नहीं, नुक़सान तो नहीं है।’
‘फिर करवाइए।’ आनंद बोला, ‘मैं कुछ ऐसे सच रखूंगा कि अख़बार वालों को छापना ही पड़ेगा।’
‘ठीक बात है।’
‘इलेक्ट्रानिक चैनलों को भी हो सके तो बुलाइए।’
‘ठीक है।’ मुनव्वर भाई बोले, ‘पर इस का ख़र्चा वर्चा कौन उठाएगा।’
‘किस का?’
‘प्रेस कानफ्रेंस का।’
‘अरे, चाय नाश्ता ही तो लगेगा।’
‘चाहिए तो लंच भी।’
‘अरे नहीं।’
‘प्रेस क्लब का किराया भी लगेगा।’
‘चलिए ठीक है।’
फिर पता चला कि प्रेस क्लब आलरेडी एक नेता जी और एक व्यापारिक संस्थान की प्रेस कानफ्रेंस के लिए उस दिन बुक है। मुनव्वर भाई बोले, ‘वैसे भी इस चुनावी हवा में यहां एक अख़बार तो बाक़ायदा विज्ञापनों की तरह ख़बरों का भी रेट बांध दिए है। कि इतने बाई इतने की ख़बर का इतना पैसा, इतने बाई इतने के कवरेज का इतना, इंटरव्यू का इतना, इस का इतना, उस का इतना पैसा!’
‘ओह!’ आनंद बोला, ‘तो यह रोग यहां भी आ गया?’
‘रोग?’ मुनव्वर भाई बोले, ‘महामारी बन गया है। शरीफ़ और ईमानदार आदमी की ख़बर तो छपने से रही। ब्लैक आउट जैसी स्थिति है। अब तो जिस के पास ब्लैक मनी है, वही अपनी ख़बर छपवा सकता है।’
‘ये तो है।’
‘क्या यह सिलसिला लखनऊ में भी है?’ मुनव्वर भाई ने उत्सुकता से पूछा।
‘लखनऊ?’ आनंद बोला, ‘क्या लखनऊ इस देश से बाहर है? अरे, दिल्ली के एक प्रतिष्ठित कहे जाने वाले अंगरेज़ी अख़बार ने तो बाक़ायदा रेट कार्ड छाप दिए हैं। और मध्यप्रदेश के एक अख़बार मालिक ने तो साफ़-साफ़ कह दिया है कि पहले रिपोर्टर पैसा ले कर ख़बर छापते थे तो हम को लगा कि सीधे हम ही क्यों न पैसा ले लें?’
‘मतलब अनैतिक कार्य को नैतिक जामा दे दिया?’ मुनव्वर भाई ने पूछते हुए कहा, ‘फिर तो वह दिन आने में भी ज़्यादा समय नहीं है कि हत्या, बलात्कार या चोरी आदि का भी रेट तय हो जाएगा, क़ानूनी रूप से कि इतना पैसा दे कर कत्ल कर लो, इतना पैसा दे कर बलात्कार, इतना पैसा दे कर चोरी, इतने का डाका, इतने का यह, उतने का वह!’ मुनव्वर भाई बोले, ‘आखि़र हमारा समाज जा कहां रहा है? हम कहां तक जाएंगे?’
‘क्यों सांसद या विधायक पैसे ले कर सरकार बनवा या गिरा सकता है, संसद या विधान सभा में सवाल उठा सकता है, पैसे ले कर तो यह क़ानून भी किसी रोज़ बनवा ही सकता है। इस में अनहोनी क्या है? अफ़ज़ल गुरु को फांसी देने से मुसलमान नाराज़ हो सकता है, यह बात हमारी सरकार जानती है, पर इस से संसद पर हमले में कुर्बान हो जाने वाले शहीदों के मनोबल पर या समूचे फ़ोर्स के मनोबल पर क्या असर पड़ता है, सरकार यह कहां जानती है?’
‘आप भी आनंद जी कभी-कभी भाजपा लाइन पर चले जाते हैं।’
‘अच्छा देश की अस्मिता पर बात करना भाजपाई हो जाना होता है?’ वह बोला, ‘यह तो हद है। और फिर इसी तर्ज़ पर जो मैं कहूं कि आप लीगी हो जाते हैं! तो इस के क्या मायने हैं?’
फिर थोड़ी देर दोनों चुप रहे।
‘प्रेस कानफ्रेंस होगी भी?’ आनंद चुप्पी तोड़ते हुए बोला।
‘क्यों नहीं होगी?’ मुनव्वर भाई बोले, ‘पर प्रेस क्लब ख़ाली तो हो।’
‘अच्छा आप प्रेस क्लब के अध्यक्ष का नंबर दीजिए।’
मुनव्वर भाई ने नंबर दे दिया।
आनंद ने प्रेस क्लब के अध्यक्ष से बात की और कहा कि, ‘सुना है आप के क्लब में कल दो-दो प्रेस कानफ्रेंस हैं।’
‘हां, हैं तो।’
‘तीन प्रेस कानफ्रेंस हो जाएं तो?’
‘तीन क्या चार-पांच-छह जो चाहिए कर लीजिए।’ अध्यक्ष बोला, ‘बस एक दूसरे का टाइम नहीं टकराना चाहिए।’
‘ठीक बात है।’ आनंद बोला, ‘बाक़ी दोनों प्रेस कानफ्रेंस कब हैं?’
‘एक बारह बजे दिन में, एक दो बजे दिन में।’
‘तो एक चार बजे शाम को भी रखवा दीजिए।’
‘ठीक है।’ अध्यक्ष बोला, ‘पर अगर इस के पहले वाली थोड़ी देर भी खिंची तब आप को रुकना होगा।’
‘रुक जाएंगे।’ आनंद बोला, ‘बुकिंग का सुना है आप लोग पैसा भी लेते हैं।’
‘हां, एक घंटे का ढाई सौ रुपए, ज़्यादा का पांच सौ रुपए!’
‘और जो हमारे पास पैसे न हों तो?’
‘तो क्या?’ वह ज़रा रुका और बोला, ‘सोचते हैं। मित्रों से बात करते हैं। अपने प्रेस कानफ्रेंस का परपज़ बता दीजिए, कोशिश करेंगे कि फ्ऱी में भी आप का हो जाए।’
‘देखिए हमारा इशू सोशल है। पोलिटिकल या इकोनामिकल नहीं है!’
‘तो ठीक है, कोशिश करता हूं कि हो जाए!’
थोड़ी देर में उस ने फ़ोन दुबारा किया प्रेस क्लब के अध्यक्ष को तो वह बोला, ‘आप वो विश्वविद्यालय छात्र संघ वाले आनंद जी हैं?’
‘हां हूं तो। क्यों क्या हुआ?’
‘नहीं हम को किसी ने बताया कि आप राजनीति तो कब की छोड़ चुके हैं!’
‘तो मित्र आप को मैं ने कब कहा कि मैं राजनीति पर प्रेस कानफ्रेंस करूंगा?’ वह बोला, ‘मैं ने तो आप को पहले भी कहा था कि सोशल इशू पर प्रेस कानफ्रेंस करनी है।’
‘नहीं-नहीं!’ अध्यक्ष बोला, ‘वो पैसे वाली बात थी दरअसल! अगर आप ढाई सौ रुपए जमा कर देते तो!’
‘चलिए जमा कर देते हैं। बताइए कब और कहां जमा कर दें।’
‘वहीं प्रेस क्लब चले जाइए। आदमी मिल जाएगा।’ अध्यक्ष बोला, ‘आप चाहें तो कल उसी समय भी जमा कर सकते हैं।’
‘नहीं अभी जमा करवा देते हैं। आप अपने आदमी को बता दीजिए। हम थोड़ी देर में पहुंचते हैं।’
फिर जब वह प्रेस क्लब की ओर चलने को हुआ तो मुनव्वर भाई बोले, ‘आनंद जी आप को जाने की ज़रूरत नहीं है। मैं किसी चेले को लगा देता हूं।’
‘पर पैसे?’
‘वह भी हो जाएगा।’
‘चलिए ठीक है।’ आनंद बोला, ‘पर एक काम मुनव्वर भाई आप को और करना होगा।’
‘क्या?’
‘मेरे गांव जाना होगा। और गुपचुप!’
‘क्या करने?’
‘सुखई चाचा और क़ासिम के पिता को लिवा लाने!’
‘चलिए किसी चेले को भेज देता हूं।’
‘ना!’ आनंद बोला, ‘यह काम चेले के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता।’
‘विश्वसनीय आदमी है।’
‘कितना भी विश्वसनीय क्यों न हो!’ आनंद बोला, ‘मुनव्वर भाई मामला सेंसिटिव है और आप को बताऊं कि हमारा गांव इस वक़्त जैसे ज्वालामुखी पर बैठा हुआ है।’ वह बोला, ‘मुनव्वर भाई समझिए। नहीं मैं ख़ुद नहीं चला जाता?’
‘चलिए मैं ही जाता हूं।’ वह बोले, ‘कोई गाड़ी की व्यवस्था करनी पड़ेगी बस!’
‘गाड़ी से नहीं, बस से जाइए। पूरी ख़ामोशी से। और उसी ख़ामोशी से लौट आइए। ऐसे कि जैसे आप गए ही नहीं हों।’
‘ठीक है भाई!’ मुनव्वर भाई बोले, ‘पर जो वह लोग नहीं आए तो?’
‘आप मुझे बताइएगा। वह लोग चुपचाप आ जाएंगे। और जो फिर भी कोई दिक़्क़त हो तो फ़ोन पर मेरी बात करवा दीजिएगा।’
फिर उस ने अपने गांव का अता पता और पूरा नक़्शा बना कर दिया मुनव्वर भाई को। सुखई चाचा के घर का रास्ता समझाया। और कहा कि, ‘जितने कम से कम लोगों से आप मिलेंगे और जितनी कम से कम आप बात करेंगे,
वही अच्छा रहेगा।’
‘अच्छी बात है।’
‘और इस लिए भी आप को भेज रहा हूं कि आप तजुर्बेकार हैं और कोई बात बने-बिगड़ेगी तो आप संभाल लेंगे। और कि कोई अप्रिय स्थिति आई भी तो आप निपट लेंगे।’
‘कोशिश करते हैं भाई आनंद जी, बाक़ी तो अल्ला के हाथ है।’ कह कर उन्हों ने अपने दोनों हाथ ऊपर उठा लिए।
‘और हां, देखिएगा जो क़ासिम की कोई छोटी बड़ी फ़ोटो मिल जाए तो वह भी ले आइएगा।’
‘ठीक बात है।’
‘तब तक के लिए कोई एक चेला बुलाइए जो प्रेस कानफ्रेंस की चिट्ठी अख़बारों के द़तर पहुंचा सके, और इसे टाइप-वाइप भी करवा दे। फिर आप मेरे गांव जाइए।’
मुनव्वर भाई ने एक नहीं दो तीन चेले फ़ोन कर के बुलवा लिए। एक को प्रेस कानफ्रेंस का मज़मून लिख कर टाइप करवाने को भेज दिया। फिर वे तीनों ही अख़बारों के द़तर चिट्ठी ले कर चले गए। मुनव्वर भाई जब आनंद के गांव जाने लगे तो कहने लगे, ‘एक से भले दो!’
‘मतलब?’
‘अगर आप की इजाज़त हो तो कोई एक संजीदा सहयोगी साथ में आप के गांव लेता जाऊं?’
‘यह आप के विवेक पर है।’
‘नहीं मुझे थोड़ी सुविधा रहेगी और संबल भी।’
‘जैसा आप चाहें।’ वह बोला, ‘और हां, यहां के अख़बारों के संपादकों और संवाददाताओं का फ़ोन नंबर हो तो दे दीजिए।’
‘संपादक तो ऐज़ सच यहां किसी अख़बार में हैं नहीं। हां, सो काल्ड एडीटोरियल इंचार्ज टाइप कुछ हैं, उन के नंबर और कुछ रिपोर्टर के नंबर इस डायरी में हैं, सब के नाम और अख़बार सहित।’ वह अपनी डायरी आनंद को देते हुए बोले,
‘आप इस को रख लीजिए।’
‘फिर आप का काम बिना डायरी के कैसे चलेगा?’ कहते हुए वह मुसकुराया कुछ-कुछ उसी अर्थ में कि अख़बार, डायरी ख़ान!
मुनव्वर भाई उस का निहितार्थ समझते ही सावधान हो गए और गंभीरता ओढ़ते हुए बोले, ‘तो मैं चलता हूं।’ कह कर वह चले गए।
आनंद के गांव वह अकेले ही गए। गांव में ज़्यादा दिक़्क़त उन्हें नहीं हुई। सुखई चाचा का घर भी उन्हें आसानी से मिल गया। पर सुखई चाचा और क़ासिम के पिता दोनों ही शहर आने को तैयार नहीं हुए। मुनव्वर भाई ने फिर आनंद से फ़ोन पर बात करवाई। सुखई चाचा बोले, ‘तिवारी बाबा अब कुछ भी हो जाए हमारा क़ासिम तो हम को वापस मिलेगा नहीं, वह ज़िंदा तो होगा नहीं। हम तो उस को दफ़ना भी दिए। अब कोई फ़ायदा नहीं।’
‘पर एक बार मेरे लिए आ जाइए। ताकि मैं न मरूं, जिं़दा रह सकूं।’
‘अइसा मत बोलिए बाबा, हम लोग आ रहे हैं।’ सुखई चाचा द्रवित हो गए और उन का गला रुंध गया।
वह जब तक आए तब तक रात हो चुकी थी। खा पी कर सभी सो गए। सादिया ने सब को खिलाने पिलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। बिलकुल भक्ति भाव से। सोने जाते समय आनंद ने सादिया से पूछा, ‘और अम्मी कैसी हैं?’
‘ठीक हैं। पर अब बीमार बहुत रहती हैं।’
‘क्या हो गया?’
‘कुछ नहीं बस बुढ़ापा है।’
‘उन से कल मिलना हो सकता है?’
‘ठीक है कल बुलवा दूंगी।’
‘हां, कल रात की ट्रेन से मेरी वापसी है।’
दूसरे दिन प्रेस कानफ्रेंस में जाने के पहले उस ने सुखई चाचा से कहा कि, ‘आप बस साथ में बैठे रहिएगा। और जो कोई कुछ पूछे तो जो भी सच है, वह बोल दीजिएगा।’
‘का इंक्वायरी होगी।’
‘नहीं, नहीं। बस बातचीत।’
सुखई चाचा मान गए।
प्रेस कानफ्रेंस समय से शुरू हो गई। आनंद ने ख़ुद एड्रेस किया। पत्रकारों को स्पष्ट रूप से बता दिया कि, ‘मैं किसी राजनीतिक पार्टी से जुड़ा नहीं हूं न ही किसी पार्टी का सदस्य हूं। फिर भी यह प्रेस कानफ्रेंस कर रहा हूं तो सिर्फ़ इस लिए कि यह मेरे गांव का मामला है। मेरे गांव का एक निर्दोष और मासूम लड़का बिना किसी कु़सूर के मारा गया है। उस की हत्या की गई है और पुलिस द्वारा उसे मुठभेड़ का नाम दिया गया है। वह किसी बैंक डकैती में शामिल नहीं रहा। उस का कोई आपराधिक इतिहास नहीं रहा। हां, मुठभेड़ का नाटक रचने वाले दारोग़ा का इतिहास हम ज़रूर बताना चाहते हैं। इस यादव दारोग़ा ने क़ासिम को पहले भी गिऱतार किया था, आज़मगढ़ के एक लड़के के साथ। और इसे आतंकवादी बताया था। इस मसले पर मैं ख़ुद व्यक्तिगत रूप से लखनऊ मेें प्रमुख सचिव गृह से मिला था। उन्हों ने मेरे अनुरोध पर ए.टी.एस. से इस मामले की जांच करवाई थी। और क़ासिम को निर्दोष बताया था। न सिर्फ़ क़ासिम को निर्दोष बताया बल्कि इस दारोग़ा को दोषी पा कर सस्पेंड कर लाइन हाज़िर कर दिया था। लेकिन चूूंकि यह दारोग़ा क़ासिम को फांसने की फ़ीस ले चुका था सो दुबारा शहर में तैनाती मिलने पर इस ने बैंक डकैती की कहानी गढ़ी और निर्दोष क़ासिम की हत्या कर दी। पुलिस इनकाउंटर का नाम दे दिया। क़ासिम के परिवार को मैं व्यक्तिगत रूप से जानता हूं। वह वर्षों से विपन्नता में ही जी रहा है।’
‘वह कौन लोग हैं जिन्हों ने क़ासिम की हत्या की फीस दारोग़ा को दी थी?’ एक पत्रकार ने सवाल किया।
‘हमारे ज़िले में एक नया तालिबान उठ खड़ा हुआ है, हिंदू तालिबान जो गांव-गांव में पैर पसार चुका है। मेरे गांव में भी है। सांप्रदायिकता का यह एक नया व्याकरण है। शासन और स्थानीय प्रशासन इन के चरण पखार रहा है, यह शर्मनाक है।’ वह बोला, ‘यह लोग हिंदू संस्कृति की दुहाई दे कर हिंदू संस्कृति को भी नष्ट कर रहे हैं। न सिर्फ़ नष्ट कर रहे हैं हिंदू संस्कृति की ग़लत व्याख्या भी कर रहे हैं। खुले आम अपराधियों को गले लगा रहे हैं और तर्क दे रहे हैं कि अब माला के साथ भाला भी ज़रूरी है। आप लोग जानते हैं कि मैं भी हिंदू हूं, आप में से भी अधिसंख्य हिंदू ही हैं, हिंदू संस्कृति में हिंसा की कोई जगह नहीं है, मैं भी जानता हूं और आप सब भी!’
‘आप का इशारा महंत जी और उन की हिंदू युवा वाहिनी की तरफ़ तो नहीं है?’ एक दूसरे पत्रकार ने पूछा।
‘मेरा इशारा नहीं, सीधी चोट है इन आपराधिक शक्तियों पर, इन की ताक़त को हम कुचलने का, नेस्तनाबूद करने का आप सभी से आह्वान करते हैं। साथ ही निवेदन भी करना चाहते हैं कि अपने गांव, अपने मुहल्ले, अपने शहर, अपने
ज़िले, अपने प्रदेश, अपने देश और अपने समाज को ज्वालामुखी पर मत बैठाइए, मत बैठने दीजिए। हिंदू, मुस्लिम के चश्मे से चीज़ों को मत देखिए!’
‘मतलब आप चाहते हैं कि हर गांव, हर मुहल्ले, हर शहर, हर ज़िले में एक पाकिस्तान का निर्माण ज़रूरी है, तभी अमन चैन से हम लोग रह सकते हैं?’ एक पत्रकार लगभग हांफते हुए बहुत उत्तेजित हो कर बोला।
‘नहीं, ऐसा तो मैं ने नहीं कहा।’ आनंद इस सवाल पर हतप्रभ था।
‘नहीं आप जैसे सूडो सेक्यूलरिस्टों की बातों का लब्बोलुबाब होता तो यही है।’
‘मैं सेक्यूलरिस्ट हूं पर सूडो सेक्यूलरिस्ट नहीं हूं।’
‘आप को पता है आज कल देश में आए दिन फुटकर आतंकवादी घटनाएं क्यों बंद हैं? कैसे बंद हो गई हैं?’
‘मैं तो समझता हूं कि प्रशासनिक कड़ाई और फिर पाकिस्तान के बिगड़े हालात के कारण ऐसा हो पाया है।’
‘जी नहीं।’ वह पत्रकार बोला, ‘जब से साध्वी प्रज्ञा, कर्नल पुरोहित और दयाशंकर पांडेय जैसे हिंदूवादियों की गिऱतारी हुई है और इन मुसलमानों को पता लग गया कि अब इन के ठिकानों पर, मस्जिदों और ईदगाहों पर भी हमले हो सकते हैं, इन को भी मारा जा सकता है, तब से ही इन की रुह कांप गई है।’ वह उत्तेजित हो कर बोला, ‘लोहा, ही लोहे को काटता है। तो यह लोग डर गए हैं सो फुटकर आतंकवादी घटनाएं बंद हो गई हैं। गुजरात का सबक़ भी एक फै़क्टर है।’
‘भई मेरे लिए यह नई जानकारी है। फिर भी मैं इस बात पर अडिग हूं कि किसी भी सभ्य समाज में हिंसा की कोई जगह नहीं है। वह चाहे हिंदू हिंसा हो, चाहे मुस्लिम हिंसा।’
‘वह तो ठीक है आनंद जी!’ एक दूसरा पत्रकार बोला, ‘आप तो लखनऊ में रहते हैं आप क्या जानें यहां के हिंदू और मुसलमान को। आप को बताऊं कि अगर यह महंत जी न हों, और यह उन की वाहिनी न रहे तो यहां के मुसलमान हिंदुओं को भून कर खा जाएं! क्यों कि सरकारें तो सांप्रदायिकता से लड़ने के नाम पर सिर्फ़ मुस्लिम वोटों को अपनी-अपनी तिजोरी में भरने के फेर में पड़ी हैं। वोट बैंक बना रही हैं। बाक़ी पार्टियां भी यही कर रही हैं।’
आनंद चुप रहा।
‘आप को पता है आनंद जी, कि देश के दलित, पिछड़े, और मुसलमान देश के नागरिक नहीं, अब देश के दामाद हैं। वह दामाद जिन को दहेज में रत्ती भर भी कमी हुई तो देश नाम की दुलहन को जला कर मार डालने में सेकेंड भर की
भी देरी नहीं करेंगे। इस लिए अब समूचा देश इन से डरता है।’
‘देखिए मित्रों हम लोग प्रेस कानफ्ऱेंस में हैं। किसी गोष्ठी, सेमिनार, विमर्श या काफ़ी हाउस में नहीं हैं। और इस प्रेस कानफ्रें़स का सिर्फ़ और सिर्फ़ एक ही विषय है एक निर्दोष नौजवान की पुलिस द्वारा हत्या। जिसे पुलिस मुठभेड़ कहती है।’ वह बोला, ‘मैं फिर दुहराना चाहता हूं कि इस यादव दारोग़ा ने पहले इस नौजवान को आतंकवादी बता कर फंसाने की कोशिश की। पर जब प्रमुख सचिव गृह ने हस्तक्षेप कर आतंकवाद विरोधी दस्ता ए.टी.एस. से इस पूरे मामले की मेरिट पर जांच करवाई, और इस जांच में क़ासिम न सिर्फ़ निर्दोष साबित हुआ बल्कि इस यादव दारोग़ा को इसी आरोप में सस्पेंड कर लाइन हाज़िर किया गया। फिर बहाल होने पर इसी दारोग़ा ने इस क़ासिम की हत्या कर दी और इस हत्या को पुलिस इनकाउंटर बता दिया। मैं प्रशासन से इस पूरे मामले की न्यायिक जांच की मांग करता हूं और साथ ही इस हत्या में शामिल सभी पुलिस कर्मियों के खि़लाफ़ कड़ी क़ानूनी कार्रवाई की मांग करता हूं। जिस में इन दोषी पुलिस कर्मियों के खि़लाफ़़ इरादतन हत्या का मुक़दमा दर्ज कर इन्हें जेल भेजा जाए, इन पर मुक़दमा चलाया जाए, यह मांग भी करता हूं। क़ासिम के परिजनों को पांच लाख रुपए मुआवज़ा भी दिया जाए। आज ही इस बारे में ज़िलाधिकारी को ज्ञापन भी हम देंगे और इस की कापी कल लखनऊ में मुख्यमंत्री, मुख्य सचिव और प्रमुख सचिव गृह को भी देंगे। इस ज्ञापन की कापी राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, देश के गृहमंत्री, सुप्रीम कोर्ट के माननीय चीफ जस्टिस, हाई कोर्ट के माननीय चीफ जस्टिस, मानवाधिकार आयोग और अल्पसंख्यक आयोग को भी भेज रहा हूं।’ आनंद ने कहा, ‘इस विषय में कोई और सवाल या जानकारी आप पूछ सकते हैं। यहां क़ासिम के पिता तथा उस के पितामह भी उपस्थित हैं, आप चाहें तो उन से भी जो सवाल चाहें पूछ सकते हैं। रही बात बाक़ी बहस की तो मैं उस से भी कतरा नहीं रहा हूं। आप लोगों द्वारा उठाए गए बाक़ी सवाल भी महत्वपूर्ण हैं, मुझे झकझोर गए हैं आप के वह सवाल। पर उन मसलों पर हम लोग फिर कभी बैठ लेंगे। पर अभी तो इसी विषय पर आप लोग बात करें तो ख़ुशी होगी।’
प्रेस कानफ्ऱेंस में जैसे सन्नाटा सा खिंच गया।
आनंद समझ गया कि प्रेस कानफ्रें़स अब ख़त्म है। फिर भी उस ने पूछा, ‘मित्रों कोई सवाल, कोई बात हो तो पूछें।’
‘नहीं भाई साहब अब कोई सवाल नहीं है। सारी बातें साफ़ हैं। इतना तो हम लोग भी जानते हैं कि पुलिस इनकाउंटर अमूमन फ़र्ज़ी ही होते हैं। यह भी फ़र्ज़ी है। पर क़ासिम को आतंकवादी भी बनाने की कोशिश की थी पुलिस ने, यह बात ज़रूर हम लोगों के लिए नई है।’ एक पत्रकार बोला।
‘इतना ही नहीं, इस पुलिस ने क़ासिम का कनेक्शन आज़मगढ़ से भी जोड़ने की कोशिश की थी।’ आनंद बोला, ‘और क़ासिम के एक सहपाठी जो कि आज़मगढ़ का ही था, उस के साथ ही गिऱतार भी किया था।’
‘तो उस आज़मगढ़ी लड़के का क्या हुआ?’ एक पत्रकार ने पूछा।
‘वह भी निर्दोष निकला। और अभी वह ज़िंदा है।’
‘आप को कैसे पता?’
‘वह इसी शहर में पढ़ता है, आप को मैं ने बताया भी कि वह क़ासिम का सहपाठी है। और कि पुलिस द्वारा क़ासिम के मारे जाने के बाद यानी उस की हत्या के बाद वह क़ासिम के गांव, उस के घर गया था, ऐसा क़ासिम के पितामह
श्री सुख मुहम्मद ने मुझे बताया है, जो कि यहां मेरे साथ, मेरे बग़ल में उपस्थित हैं। चाहंे तो आप लोग इन से दरिया़त कर सकते हैं।’ आनंद ने यह कह कर माइक सुखई चाचा की तरफ़ बढ़ा दिया।
‘क़ासिम के उस दोस्त का नाम क्या है?’ एक पत्रकार ने सुख मुहम्मद को इंगित कर पूछा।
‘इरफ़ान!’ बोलते समय सुख मुहम्मद का गला रुंध गया।
‘आप कैसे जानते हैं उसे?’ उस पत्रकार ने फिर पूछा।
‘क़ासिम का दोस्त था। दो तीन दफ़ा मेरे घर भी आया था, अपने घर आज़मगढ़ जाते समय।’
‘वह सचमुच आतंकवादी नहीं है, आखि़र आज़मगढ़ का है।’
‘हम को ई सब नहीं मालूम।’ सुख मुहम्मद बोले, ‘हम बस इतना जानते हैं साहब कि क़ासिम बदमाश नहीं था, आतंकवादी नहीं था!’ कह कर सुख मुहम्मद फूट-फूट कर रोने लगे। बग़ल में बैठा उन का बेटा और क़ासिम का पिता बिस्मिल्ला भी फूट-फूट कर रोने लगा।
फ़ोटोग्राफ़रों के कैमरों के लैश चमकने लगे। इलेक्ट्रानिक मीडिया के कैमरों ने भी सुख मुहम्मद और बिस्मिल्ला की रुलाई को शूट करना शुरू कर दिया। उन को रोने की बाइट मिल गई थी। आनंद समझ गया कि कल के अख़बारों में ख़बर उस की प्रेस कानफ्रेंस की नहीं सुख मुहम्मद और बिस्मिल्ला के रोने की ज़्यादा बनेगी।
प्रेस कानफ्रेंस ख़त्म हो चुकी थी। अब सुख मुहम्मद और बिस्मिल्ला के इंटरव्यू और फ़ोटो ख्ंिाच रहे थे। भीड़ में किनारे खड़े मुनव्वर भाई ने आंखों ही आंखों में आनंद को इशारा किया कि ‘काम तो हो गया है!’ आनंद ने भी आंखों से ही मुनव्वर भाई को सहमति में संदेश दिया। किंचित मुसकुरा कर।
हालां कि इस घड़ी में उस को अपना यह मुसकुराना अच्छा नहीं लगा और वह दूसरे ही क्षण झेंप गया।
वह अपनी कुर्सी से धीरे से उठ खड़ा हुआ। पत्रकारों की भीड़ में आ गया। उधर कुछ पत्रकार सुखई चाचा का एक्सक्लूसिव इंटरव्यू करने में लगे थे।
पत्रकारों का चाय, नाश्ता भी जारी था। और बातचीत भी। शहर के कुछ लोग भी आ गए थे। बात राजनीति की फिर शुरू हो गई थी। शहर के सांप्रदायिक रंग में रंग जाने की बात हो रही है। आनंद हकबक है कि शहर की राजनीति के इस क़दर पतन पर कि पत्रकार भी अब सवाल ले कर नहीं पक्षकार बन कर खड़े हैं। वह सवाल पत्रकार के चश्मे से नहीं, हिंदू मुसलमान के चश्मे से पूछ रहे हैं। धर्मनिरपेक्षता, सामाजिक एकता, सांप्रदायिकता विरोध, समरसता या सभ्य समाज की कल्पना उन की सोच, उन के एजेंडे, उन के सवाल या सरोकार में नहीं है। वह अपने एक पुराने मित्र से पूछ भी रहा है यह सब जो उस की छात्र राजनीति के समय के साथी हैं, पहले गज़लें लिखते थे, अब पत्रकार हो चले हैं और प्रेस कानफ्रेंस में कवरेज के लिए नहीं आनंद से मिलने के लिए आ गए हैं। वह पूछ रहा है कि, ‘बताइए अशोक जी ऐसे कैसे चलेगा? पत्रकारिता जो राजनीति के लिए महावत का काम करती थी, राजनीति में पद के मद पर अंकुश रखती थी, वह पत्रकारिता ही मदमस्त हो जाए, महावत ही जब बिगड़ैल हो जाए तो हाथी कैसे संभलेगा भई? आप ही बताइए?’
‘क्या बताएं आनंद जी अब सब ऐसे ही चलने वाला है। और जो पत्रकार यह सब नहीं कर रहे मेरी तरह उपेक्षित हो कर सिर्फ़ नौकरी कर रहे हैं।’ अशोक जी बोले।
‘कुछ नहीं आनंद जी आप तो शुचिता, नैतिकता वग़ैरह करते-करते राजनीति से बाहर हो गए। क्या चाहते हैं हम पत्रकार भी आप की तरह यही सब करते हुए पत्रकारिता से भी बाहर हो जाएं? फिर शहर से भी बाहर हो जाएं? आप ही बताएं?’ एक युवा पत्रकार पूछ रहा है आनंद से।
‘मतलब?’ आनंद धीरे से बोला, ‘मैं समझा नहीं।’
‘समझना क्या है आनंद जी!’ युवा पत्रकार बोला, ‘ज़माना बदल रहा है, आप भी बदलिए। इंटरनेट का ज़माना है, दुनिया हाइटेक हो रही है, अब लोग चिट्ठी भी इंटरनेट पर लिख रहे हैं।’
‘तो मित्र आप क्या चाहते हैं कि हम राजनीति भी इंटरनेट पर करें?’
‘बिलकुल!’ वह युवा पत्रकार बोला, ‘इस हाइटेक ज़माने में आप चाहते हैं कि राजनीति में पुराने नुस्खों से सफल होना तो कैसे चलेगा?’
‘अच्छा?’ आनंद उस युवा पत्रकार की बात में दिलचस्पी लेता हुआ बोला।
‘तो और क्या?’ वह युवा पत्रकार चहका, ‘आप राजनीति करेंगे आज के दौर की और औज़ार इस्तेमाल करेंगे मदन मोहन मालवीय, महात्मा गांधी, लोहिया और जयप्रकाश नारायन के ज़माने के? और हम से चाहेंगे कि हम भी पराड़कर, गणेश शंकर विद्यार्थी, चेलापित राव की पत्रकारिता करें? आनंद जी आप ख़ुद तो मर ही गए हैं, हम सब को भी क्यों मारना चाहते हैं? नहीं चलने वाली है यह मूल्यों की राजनीति और पत्रकारिता। अब सिर्फ़ और सिर्फ़ एक ही सूत्र, एक ही नैतिकता और एक ही फ़ार्मूला है, वह है बाज़ार और बाज़ार की सफलता का। चहुं ओर इसी की लीला है। साध सकें तो साधिए नहीं घर बैठिए!’
‘भाई आप को पता नहीं है शायद, मैं कब का घर बैठ चुका हूं। नहीं करता राजनीति अब। मैं जानता हूं कि मदन मोहन मालवीय, गांधी, लोहिया या जे.पी. के पुराने औज़ारों से आज की राजनीति नहीं हो सकती। लेकिन मेरी दिक़्क़त यह है कि मैं इन औज़ारों को छोड़ नहीं सकता। और मनमोहन, आडवाणी, अमर सिंह, मुलायम, मायावती, प्रमोद महाजन, राजीव शुक्ला, लालू, करुणानिधि, जयललिता आदि के औज़ारों को साध नहीं सकता। इसी लिए अब एक छोटी सी प्राइवेट नौकरी करता हूं।’ उस ने जोड़ा, ‘कोई ठेकेदारी नहीं करता, कोई एन.जी.ओ. नहीं चलाता।’
‘तो यह प्रेस कानफ्रेंस?’ युवा पत्रकार अकबका गया।
‘यह क़ासिम नाम का नौजवान हमारे विश्वविद्यालय का छात्र था, हमारे गांव का था, मेरे उस के घर से भावनात्मक रिश्ते हैं, इस लिए उस की तकलीफ़ कहने आ गया था, राजनीति करने नहीं।’
‘अच्छा-अच्छा!’ कहते हुए वह पत्रकार थोड़ा शर्मिंदा हुआ और बोला, ‘माफ़ कीजिएगा सर, मुझे यह जानकारी नहीं थी। मुझे लगा चुनावी मौसम में आप चुनाव लड़ने का आधार बना रहे हैं इसे। आज कल लाशों पर भी राजनीति होती है तो मैं यह सब बक गया। सॉरी!’
‘कोई बात नहीं।’ आनंद बोला, ‘अभी आप की उम्र ही कितनी है, अनुभव ही क्या है?’
‘जी सर!’
‘हां, पर यह अपने भीतर की आग जलाए रखिएगा। और इस का हो सके तो सकारात्मक उपयोग कीजिएगा। नकारात्मक नहीं।’
‘जी बिलकुल!’
फिर अशोक जी के साथ आनंद प्रेस क्लब के बाहर आ गया। सड़क उस पार खड़ा हो कर उस ने सिगरेट सुलगा ली। अशोक जी ने सिगरेट पीने से इंकार कर दिया। बोले, ‘अब छोड़ दी है।’
‘ठीक है कोई बात नहीं।’ कहते हुए उस की नज़र प्रेस क्लब के बोर्ड पर चली गई। उस ने उसे पढ़ते हुए अशोक जी से पूछा, ‘यह जर्नलिस्ट प्रेस क्लब क्या बला है? जर्नलिस्ट भी और प्रेस भी? मतलब आप मनुष्य भी हैं और आदमी
भी?’
‘हां, यह मूर्खता जल्दबाज़ी में हो गई।’ अशोक जी बोले, ‘दरअसल एक प्रेस क्लब और था, उस में विवाद ज़्यादा बढ़ गया था। सो नया प्रेस क्लब बनाना था और उस से अलग भी दिखना था सो जर्नलिस्ट प्रेस क्लब नाम से रजिस्ट्रेशन हुआ और यही लिख दिया गया।’
‘क्या मूर्खता है!’ आनंद बोला, ‘लखनऊ में भी दो प्रेस क्लब हैं और दोनों ही प्रेस क्लब लिखते हैं। दोनों का अलगाव विचारधारा के कारण है। पर दोनों ही धड़ों के लोग आपस में मिलते जुलते हैं। दोनों ही सरकारी सहायता से चलते हैं।’
‘पर यहां तो महंत जी और कुछ तिवारी टाइप माफ़ियाओं के आशीर्वाद से चलता है यह जर्नलिस्ट प्रेस क्लब! सो कई बार नान जर्नलिस्ट भी इस जर्नलिस्ट प्रेस क्लब का अध्यक्ष बन जाता है। पिछले कई सालों तक आकाशवाणी का एक एनाउंसर इस जर्नलिस्ट प्रेस क्लब का अध्यक्ष था, अब एक इलेक्ट्रानिक सामान बेचने वाला दुकानदार अध्यक्ष है।’
‘ओह तभी मैं कहूं कि पत्रकार यहां पक्षकार बन कर क्यों सवाल पूछ रहे थे, बिलकुल भगवा रंग में रंगे हुए सवाल। एक तरफ़ा सवाल।’ उस ने पूछा, ‘तो महंत जी ने इन पत्रकारों को ख़रीद रखा है या धमका रखा है?’
‘कुछ नहीं!’ अशोक जी बोले, ‘वह पत्रकारों से बैठने को कहते हैं तो ये कुकुरमुत्ते लेट जाते हैं। हाता और मंदिर में बंट जाते हैं।’
‘हाता और मंदिर मतलब?’ वह ज़रा रुका और बोला, ‘मतलब माफ़िया तिवारी और माफ़िया महंत?’
‘हां। और क्या?’ अशोक जी बोले, ‘कुछ दोनों जगहों पर मत्था टेकते हैं और हाज़िरी लगाते हैं। कुछ-कुछ एक-एक जगह ही। और तो और कवि, शायर, लेखक, प्राध्यापक, वाइस चांसलर, वकील, जज, राजनीतिक सभी किसी न किसी के यहां
मत्था टेकने जाते ही हैं। और फिर छाती फुला कर लौटते हुए बताते हैं कि, ‘हाता से आ रहा हूं। या फिर मंदिर से आ रहा हूं। बड़ी भयावह तसवीर है।’
‘मतलब सारे बुद्धिजीवी हाता या मंदिर से पेटेंट लिए हुए हैं?’
‘हां भई हां।’ अशोक जी खीझ कर बोले।
‘और आप?’ आनंद ने जैसे पिन चुभोया अशोक जी को।
‘जी मैं?’ अशोक जी की खीझ और बढ़ गई। बोले, ‘आप का दिमाग़ ख़राब हो गया है? मैं क्यों पेटेंट कराने जाने लगा हाता या मंदिर? यही गाली सुनने के लिए आप से मिलने आया था यहां?’ वह पूरी तरह भड़क गए।
‘सॉरी अशोक जी!’ आनंद ने अशोक जी का हाथ पकड़ते हुए कहा, ‘मैं ने तो बस रुटीन में पूछ लिया था। आप का दिल दुखाने का इरादा मेरा बिलकुल नहीं था। मैं जानता हूं आप इन में से नहीं हो सकते। भेंड़ चाल में नहीं समा सकते आप! अगेन सॉरी!’
अब तक मुनव्वर भाई भी सुखई चाचा और बिस्मिल्ला को लिए प्रेस क्लब से बाहर आ गए थे। और सुखई चाचा पूछ रहे थे, ‘बाबा अब?’
‘चाचा अब आप लोग घर जाइए!’ आनंद ने उन्हें सांत्वना दी, ढांढस बंधाया और कहा कि, ‘घबराइए नहीं। क़ासिम को तो हम वापस नहीं ला सकते पर उस हत्यारे दारोग़ा को भी नहीं छोड़ेंगे। सज़ा दिलवाएंगे ही।’ सुखई चाचा फिर रोने लगे। उन की बूढ़ी आंखों में जाने कितने आंसू थे जो थम ही नहीं रहे थे। बिस्मिल्ला भी रो रहा था पर उतना नहीं, जितना सुखई चाचा!
सुखई चाचा को विदा कर वह मुनव्वर भाई के घर आ गया। सादिया की अम्मी आ गई थीं। उसे देखते ही वह उस से धधा कर मिलीं। साथ में अशोक जी भी थे। वह सादिया की अम्मी का ममत्व देख कर उन पर न्यौछावर हो गए। झुक कर पांव छुए। हाथ पैर धो कर सब लोग बैठे ही थे कि सादिया ने सूजी का गरम-गरम हलवा सब के लिए परोस दिया।
हलवा खाते हुए मुनव्वर भाई बोले, ‘भाई आनंद जी प्रेस कानफ्रेंस तो बढ़िया हो गई। और उस से भी अच्छा सुख मुहम्मद चाचा और बिस्मिल्ला भाई के इंटरव्यू हो गए। अब देखिए कल हाथ कितना आता है?’
‘मतलब?’ आनंद ने पूछा।
‘मतलब छप कर कितना और क्या आता है?’ मुनव्वर भाई बोले, ‘सच आनंद जी मुझे क़तई अंदाज़ा नहीं था कि प्रेस कानफ्रेंस इतनी कामयाब हो जाएगी और कि सुख मुहम्मद चाचा और बिस्मिल्ला भाई के बुला लेने से मामला इतना जम जाएगा।’
‘चलिए कुछ हुआ तो!’ आनंद बोला, ‘हो सकता है बात अभी आगे और बढ़े। बस वह ज्ञापन डी.एम. वग़ैरह तक पहुंचवा दीजिएगा।’
‘पहुंचवा दीजिएगा?’ मुनव्वर भाई बोले, ‘आप की प्रेस कानफ्रेंस ख़त्म होने से पहले ही वह डी.एम. के यहां रिसीव हो गया और सभी प्रतिलिपियां रजिस्ट्री हो गईं।’
‘चलिए यह अच्छा किया आप ने।’ आनंद बोला, ‘अब कुल कितना ख़र्चा-वर्चा हो गया, यह भी बता दीजिए।’ कहते हुए उस ने जे़ब से पर्स निकाल लिया।
‘अरे नहीं, इस सब की ज़रूरत नहीं है। आप इसे रखिए।’ मुनव्वर भाई बोले, ‘कौन लाख पचास हज़ार ख़र्च हो गए हैं। इतना ख़र्च तो हमारे साथियों ने ही उठा लिया। हमें भी नहीं पता चला कि क्या ख़र्च हुआ। कल बैठेंगे तो पूछेंगे साथियों से। आप प्लीज़ इसे रखिए।’ हाथ जोड़ते हुए मुनव्वर भाई बोले।
‘फिर भी!’ आनंद बोला, ‘दो तीन हज़ार रुपए तो कम से कम ख़र्च हुए ही होंगे। आप कैसे अकेले अफ़ोर्ड करेंगे?’
‘कर लेंगे। कर लेंगे! बस आप इस को भूल जाइए।’ मुनव्वर भाई बोले, ‘फिर यह हम सब की साझा लड़ाई है! कोई एक अकेले की नहीं।’
‘फिर तो ठीक है आनंद जी।’ अशोक जी बोले, ‘मुनव्वर भाई ठीक कह रहे हैं।’
‘चलिए ठीक है फिर!’ आनंद ने पर्स जेब मंे रख लिया।
बात पुराने दिनों, पुराने दोस्तों की चली। मूल्यों और सिद्धांतों की चौहद्दी में कौन-कौन रहा, कौन-कौन बिछड़ गया। कौन खूंटे में रहा, कौन पगहा तुड़ा गया। कौन कितना गिरा, कौन कितना उठा, कौन-कौन सफल हुआ और कौन-कौन असफल!
‘यहां तो हम तीनों ही असफल लोग बैठे हुए हैं।’ अशोक जी बोले।
‘असफल ही नहीं, हारे हुए लोग भी हैं हम लोग भाई!’ मुनव्वर भाई बोले।
‘मूल्य, सिद्धांत भी हम कितना बचा पाए हैं, इस का भी हिसाब लिया-दिया जाए तो हम शायद वहां भी फिसड्डी निकलेंगे।’ आनंद बोला, ‘लाख कोशिश के बावजूद मैं तो भाई मूल्यों और सिद्धांतों की अपनी नाव में ढेरों छेद किए बैठा हूं।
कि नाव कब डूब जाए पता नहीं है।’ वह बोला, ‘फिर भी जितनी रक्षा कर सकता हूं, करता हूं।’
‘तो हम लोग भी कहां कितना बचा पाए हैं?’ अशोक जी बोले, ‘बस नंगे नहीं हुए हैं।’
‘फिर भी हम लोग असफल क्यों हो गए? क्यों हारे हुए लोगों के रजिस्टर में नाम पता दर्ज करवा बैठे?’ मुनव्वर भाई आह भरते हुए बोले।
‘देखिए जहां तक सफल-असफल की बात है तो भाई मैं तो बहुत साफ़ मानता हूं कि सफलता का कोई तर्क नहीं होता।’ आनंद बोला।
‘बिलकुल!’ अशोक जी धीरे से बोले।
‘सफलता का कोई तर्क नहीं होता पर योग्यता का तर्क होता है। अब अलग बात है कि योग्य व्यक्ति सफल भी हो यह कोई ज़रूरी नहीं है, ठीक वैसे ही सफल व्यक्ति योग्य भी हो, यह कोई ज़रूरी नहीं है।’ आनंद बोला, ‘हमने मानवीयता और मूल्य अपने भीतर बचा रखे हैं इस अमानवीय और बाज़ार से आक्रांत समय में हमारे लिए महत्वपूर्ण यही है। असफल हैं भी तो क्या हुआ? क्या पता कभी हमारा दौर भी आए, अच्छा दौर भी आए।’
‘ये तो है।’ कहते हुए अशोक जी ने जम्हाई ली।
‘वो एक शेर है न!’ आनंद बोला, ‘इक मुसलसल दौड़ में हैं मंज़िलें और फासले/पांव तो अपनी जगह हैं, रास्ता अपनी जगह!’
‘क्या बात है!’ मुनव्वर भाई उछल पड़े, ‘आप की शेरो शायरी गई नहीं, बाक़ी है। अच्छी बात है।’ वह बोले, ‘आप को याद है यूनिवर्सिटी के दिनों में आप अपने भाषणों में जब तब इसी तरह शेर ठोंकते रहते थे। इतना कि राकेश जी जैसे लोग कहते थे कि ऐसा ही रहा तो एक दिन आप तारकेश्वरी सिनहा की छुट्टी कर देंगे।’
आनंद मुनव्वर भाई की इस बात पर मुसकुरा कर रह गया।
थोड़ी देर बाद वह अशोक जी से बोला, ‘आप को याद है फलनवा जो आज कल मिनिस्टर है। एक दिन शराब पीने के लिए मुझे बुला बैठा। कहने लगा पुरानी दोस्ती, पुरानी यादें ताज़ा करेंगे। मैं गया। अच्छा लगा कि उस ने दोस्ती बरक़रार रखी। मिनिस्टर होने का रौब ग़ालिब नहीं कराया। साथ में चार ठो चमचों को नहीं बिठाया। हां में हां मिलाने के लिए। बस हम दो बैठे। बहुत अच्छा लगा। पर थोड़ी देर में बातचीत में अचानक वह कहने लगा कि मैं किसी साइकेट्रिक से मिल लूं!’
‘क्यों?’ अशोक जी भड़के।
‘उस को लगा कि मेरा फ्रस्ट्रेशन बढ़ गया है और कि मैं मेंटली डिस्टर्ब हो गया हूं।’
‘क्या?’
‘हां भाई!’
‘बताइए साला जब यूनिवर्सिटी में था पढ़ाई लिखाई में सिफ़र था, नकल टीपने में चैंपियन! जिस तिस के चरण चांप-चांप कर अब साला मिनिस्टर हो गया तो आप को मेंटल होने का सर्टिफ़िकेट देने लगा है!’
‘हां भई!’ आनंद बोला, ‘और फलनवा जो आज कल सिंचाई मंत्री है एक दिन मुझ से फ़ोन पर पूछने लगा कि ट्रेड यूनियन की नेतागिरी आज़मा रहे हैं क्या?’
‘बताइए भड़ुवा साला, लड़कियों का सप्लायर!’ अशोक जी बोले, ‘हद है कैसे-कैसे लोग ऐसे-वैसे हो गए/ऐसे-वैसे लोग कैसे-कैसे हो गए!’
‘हां, शमशेर ने जब यह लिखा होगा तो जाने कितनी यातना से गुज़रे होंगे तभी तो यह लिख पाए!’ आनंद बोला, ‘वह तो लिख कर अपने को हलका कर गए। हम लोग अपने को कैसे हलका करें? सवाल तो यह है।’
‘ये तो है!’ अशोक जी चिंतित हो कर बोले, ‘पर वह क्यों आप को ट्रेड यूनियन में भेज रहा था?’
‘नहीं, मैं ने उस से कहा भी कि ट्रेड यूनियन अब देश में है कहां जो ट्रेड यूनियन की राजनीति करूंगा? पर वह माना नहीं। पूछता रहा।’ आनंद बोला, ‘असल में वह चीफ़ इंजीनियर बनाने के लिए एक करोड़ रुपए का रेट खोले था, इंजीनियरों को मैं ने समझाया तो वह सब पहले तो गोलबंद हुए पर बाद में टूट गए। तो भी इस का रेट एक करोड़ से गिर कर पचास लाख पर आ गया। और उस पचास लाख में से भी एक पैसा इस को नहीं मिला।’
‘क्यों?’
‘इस लिए कि वह पचास लाख मुख्यमंत्री के हिस्से का था। तो इस का हिस्सा मारा गया। सो हमें ट्रेड यूनियन ज्वाइन करवाने में लग गया।’
‘ओह तो ये बात है!’ मुनव्वर भाई बोले, ‘बताइए कैसे-कैसे लोग आज कल राजनीति कर रहे हैं, बल्कि राजनीति के शिखर पर हैं, आज के युवाओं के रोल माडल हैं। और आलम यह कि एक ढूंढो हज़ार मिलते हैं। औरों की क्या कहूं हमारी कांग्रेस में भी यही सब हो रहा है। कहां गांधी, नेहरू हमारे रोल माडल थे और कहां यह सारे लोग! समझ में नहीं आता कि आदर्शवाद कहां चला गया? कहा बिला गया?’
‘कुछ नहीं मुनव्वर भाई, अब तो आदर्श की आहट भी नहीं मिलती दिखती तो आदर्शवाद को तो गुम होना ही था! और वह हर हलके से गुम है। जहां तक आप लोगों की बात है तो राजनीति में एक शब्द है कंप्रोमाइज़! वही आप लोग
नहीं कर पाए। शायद इसी लिए आप लोग आज राजनीति के हाशिए से भी बाहर हो गए।’ अशोक जी क्षुब्ध हो कर बोले।
‘ये भी एक फै़क्टर तो है।’ आनंद धीरे से बोला।
‘अच्छा भाई आनंद जी अब मैं चलना चाहूंगा। नाइट शि़ट में हूं। सो चलूं काम पर।’ अशोक जी बोले, ‘बरसों बाद आज अच्छी मुलाक़ात हुई आप से। बल्कि आप लोगों से!’
‘क्यों मुनव्वर भाई से भी बरसों बाद मिले हैं आज आप?’ आनंद ने पूछा।
‘हां भई, सच तो यही है। एक शहर में रहते हुए भी हम लोग अजनबियों की तरह रहते हैं। सामने पड़ने पर भी मोड़ पर कतरा कर निकल लेते हैं।’ अशोक जी बोले।
‘इस छोटे से शहर में भी!’ आनंद बोला, ‘यह तो दुर्भाग्यपूर्ण है।’
‘ख़ैर, अब जो है, सो है।’ अशोक जी बोले, ‘अब इजाज़त दीजिए!’
‘अच्छी बात है अशोक जी!’ आनंद बोला, ‘मुझे भी ट्रेन पकड़ने की तैयारी करनी है। हालां कि कुछ और लोगों से भी मिलना था। पर चलिए अगली बार!’
‘अच्छी बात है।’ कह कर अशोक जी बारी-बारी दोनों से गले मिले और चले गए।
अशोक जी के जाते ही सादिया की अम्मी आ कर आनंद के पास बैठ गईं। साड़ी का पल्लू ठीक करती हुई बोलीं, ‘और भइया, घर में बाल-बच्चे सब ठीक हैं?’
‘हां, बस आप का आशीर्वाद है।’
‘वो तो अल्लाह की दुआ से है ही।’ फिर वह सादिया की बेटी की यादों में खो गईं। कमरे में रखी उस नन्हीं मुन्नी की फ़ोटो देख कर सुबुकती हुई वह बोलीं, ‘कैसे तो फुट-फुट कर के नानी-नानी बोलती थी। कभी नानी कहती, कभी आनी कहती।’ वह ज़रा रुकीं और बोलीं, ‘बच्ची की बहुत याद आती है। और भइया जब बच्ची की याद आती है तो आप की भी याद आती है। बड़ी मदद किए रहे थे आप तब लखनऊ में। कोई आगे-पीछे नहीं था वहां तब लखनऊ में पर आप तो भइया अंगद के पांव की तरह जमे रहे तो जमे रहे। दिन भर एक पांव पर इहंा-ऊहां दौड़ते रहे। रात में हम लोग जब चले तभी आप गए।’ कहते-कहते वह भावुक हो गईं।
‘आप अंगद को जानती हैं?’
‘हां भइया काहें नहीं जानेंगे?’
‘कैसे जानती हैं?’
‘जानती हूं?’ वह बोलीं, ‘काहें, रामलीला में देखी हैं हम भी। हनुमान जी की सेना में थे। रावण के दरबार में कोई उन का पैर हिला नहीं पाया था। ई हम कई बार देखी हैं रामलीला में।’
‘अच्छा-अच्छा।’
‘आप भूल गए का भइया!’ वह बोलीं, ‘उहां बाले मियां के मैदान में हर साल होती थी रामलीला। तब आप लोग छोटे-छोटे थे। मंूगफली और चीनिया बादाम खाने के लिए आप कितना तो रोते थे। और आप की बड़की अम्मा आप को
डांटा करती थीं। हम को सब याद है।’ कहते-कहते वह जैसे ख़ुश हो गईं।
‘ओह हां!’
‘पर का करें भइया अब तो सब बदल गया। ज़माना बदल गया, शहर बदल गया, मुहल्ला बदल गया, लोग भी बदल गए।’ वह आह भर कर बोलीं, ‘अब लोग हिंदू मुसलमान हो गए।’
‘अब क्या किया जाए!’
‘हां भइया अब कुएं में ही भांग पड़ गई है।’
‘सो तो है!’
‘चलिए भइया आप नहीं बदले। हमारे लिए यही अच्छा है।’ वह बोलीं, ‘तो आज दुपहर में जब सादिया का फ़ोन आया और इस ने बताया कि आप आए हैं, और मिलना चाहते हैं तो हम फ़ौरन रिक्शा पकड़े और भागी चलीं आईं।’
‘यह अच्छा किया आप ने।’ आनंद बोला, ‘क्यों कि हमें भी आप की बहुत याद आती है!’
‘सचहूं भइया!’ कहते हुए सादिया की अम्मी की आंखें मारे ख़ुशी के छलछला आईं।
‘हां। और क्या!’ कह कर वह घड़ी देखने लगा।
‘अच्छा भइया अब आप की ट्रेन का टाइम हो रहा होगा। चलिए आप खाना खा लीजिए तो हम भी चलें।’
‘अब इतनी रात में जाएंगी?’
‘हां, रिक्शा पकड़ कर चली जाऊंगी।’ वह हंसती हुई बोलीं, ‘कवने बात का डर है!’
और वह सचमुच खाना खिला कर चली गईं।
आनंद भी स्टेशन आ गया। आते समय उस ने मुनव्वर भाई का एक बार फिर शुक्रिया अदा किया।
संयोग से ट्रेन न सिर्फ़ टाइम से थी, टाइम से ही, लखनऊ भी आ गई। घर आ कर फ्रे़श हो कर वह सो गया।
तो समझो बच्चा कि गांव में गांधीपना मत झाड़ो, गांधी पाकिस्तान को पोसते-पोसते हे राम! बोल गए थे, अब तुम भी गांव में पाकिस्तान बना पोस रहे हो, यह ठीक नहीं है : वह सोया ही था कि फ़ोन की घंटी बजी। उधर से जमाल था, ‘बधाई हो आनंद जी, बहुत-बहुत बधाई!’ ‘कौन?’ वह नींद में ही बोला। उधर से आवाज आई...‘अरे जमाल बोल रहा हूं।’
‘अच्छा-अच्छा। बोलो जमाल, क्या हो गया?’
‘हो क्या गया आज आप बिलकुल छा गए हैं, शहर के अख़बारों में।’ वह बोला, ‘एक अख़बार में तो लोकल पेज पर आधा पन्ना आप की प्रेस कानफ्रेंस ही घेरे हुए है।’
‘प्रेस कानफ्रेंस के लिए आधा पेज?’ आनंद हकबका गया।
‘अरे नहीं उस में क़ासिम के वालिद वग़ैरह के इंटरव्यू भी हैं।’
‘ओह तब तो ठीक है!’
‘आप अभी शहर में ही हैं कि लखनऊ में?’
‘क्यों लखनऊ में हूं!’
‘नहीं, मैं ने कहा कि जो शहर में होते तो आ कर मिलता!’
‘नहीं भई मैं तो लखनऊ वापस आ गया हूं। अभी थोड़ी देर पहले ही आया।’
‘अच्छा-अच्छा रात की ट्रेन से चले गए होंगे।’
‘हां, हां।’
‘तो किस पार्टी से नामिनेशन कर रहे हैं?’
‘नामिनेशन?’ आनंद भड़क कर बोला, ‘किस बात का?’
‘अरे नाराज़ क्यों हो रहे हैं आनंद जी!’ जमाल बोला, ‘इलेक्शन के दिन हैं। तो मैं ने सोचा कि आप इलेक्शन की ज़मीन तैयार कर रहे होंगे।’
‘तुम्हें हरदम बेवक़ूफ़ी ही क्यों सूझती है जमाल?’ आनंद बोला, ‘तुम जानते हो कि आज की चुनावी राजनीति के लिए मैं पूरी तरह अनफ़िट हूं। संसदीय चुनाव लड़ने के लिए कम से कम दस-पांच करोड़ रुपए चाहिए ही चाहिए आज की तारीख़ में। और मैं दस-पांच लाख रुपए भी इकट्ठा नहीं कर सकता। दूसरे, पार्टियों से टिकट मांगने की योग्यता भी मेरे पास नहीं है। तीसरे, इस जातिवादी और सांप्रदायिक राजनीति में मुझे भला कोई क्यों वोट देगा? ज़मानत तो ज़ब्त होगी ही, दो चार हज़ार वोट भी शायद ही मिल पाएं मुझे। यह तुम भी जानते हो और मैं भी।’
‘नहीं आनंद जी ऐसा नहीं है! आज के अख़बार तो बताते हैं कि अगर आज आप लड़ जाएं तो महंत जी की तो छुट्टी!’ वह बोला, ‘महंत जी की सांप्रदायिक राजनीति के विरोध में यहां के अख़बारों ने ऐसी चोट तो उन पर कभी नहीं की थी। और तय मानिए क़ासिम का मामला तो अब तूल पकड़ लेगा।’
‘ख़ाक तूल पकड़ेगा!’
‘क्यों अब कसर क्या रह गई?’
‘एक प्रेस कानफ्रेंस अख़बारों में ठीक से छप जाने से कोई मामला तूल नहीं पकड़ता। कोई मामला तूल पकड़ता है, जनता की भागीदारी से। लोगों के जुड़ाव से।’ आनंद बोला, ‘समझे जमाल मियां। तुम लोगों को यह मामला पहले ही पुरज़ोर तरीके़ से उठाना चाहिए था।’
‘चलिए अब से उठाते हैं।’
‘यह अच्छी बात है।’ आनंद बोला, ‘बल्कि एक काम और कीजिएगा जमाल मियां।’
‘क्या?’
‘यह क़ासिम का मामला एक मूवमेंट बने इस के लिए ज़रूरी शर्त यह है कि यह किसी एक नेता, किसी एक पार्टी का मूवमेंट बनने के बजाय, दलगत राजनीति से ऊपर उठ कर इसे जनता का मूवमेंट बनाया जाए। हमारा शहर क्या समूचा ज़िला बल्कि पूरी कमिश्नरी जो सांप्रदायिकता और जातीयता के ज्वालामुखी पर बैठी है, उस से उसे बचाया जाए।’
‘जी आनंद जी!’
‘है यह मुश्किल काम पर जो नहीं किया गया तो आने वाली पीढ़ी हमें माफ़ नहीं करेगी।’ आनंद बोला, ‘इस के लिए अपने-अपने अहंकार को ताक पर रखना होगा। नहीं जब कोई नौजवान सिर उठा कर खड़ा होगा तो उस की पुलिस से हत्या करवा दी जाएगी और इनकाउंटर बता दिया जाएगा। यह प्रवृत्ति किसी भी समाज के लिए शुभ नहीं है।’
‘ठीक है आनंद जी। एक रोड मैप बनाता हूं। फिर आप को बताता हूं।’ वह बोला, ‘ज़रूरत पड़ी तो आप को फिर शहर आना पड़ेगा।’
‘अरे हज़ार बार आऊंगा!’ आनंद बोला, ‘बस एकजुट हो जाओ! ओ.के.?’
‘ओ.के.!’
थोड़ी देर बाद मुनव्वर भाई का भी फ़ोन आ गया। बहुत उत्साहित थे। बोले, ‘भाई आनंद जी यहां तो ग़ज़ब हो गया। उम्मीद के विपरीत अख़बारों ने पूरा मामला उछाल कर, जम कर छापा है और महंत जी का बाजा बजा दिया है। उन की हिंदू युवा वाहिनी की धज्जियां उड़ा दी हैं। आप की प्रेस कानफ्रेंस, सुख मुहम्मद चाचा और बिस्मिल्ला भाई का इंटरव्यू तीनों मिला कर सभी अख़बारों ने छापा है। अशोक जी वाले अख़बार ने तो आधा पेज में छापा है।’
‘ठीक है मुनव्वर भाई। इन सारे अख़बारों की दो-दो तीन-तीन कापियां एक पैकेट बना कर मुझे आज ही कोरियर कर दीजिए।’
‘कहिए तो किसी साथी को भेज दूं यह सारे अख़बार ले कर?’
‘नहीं-नहीं। इस की ज़रूरत नहीं है। आप कोरियर कर दीजिए! ताकि यहां के प्रशासनिक हलके में इस की कतरन दे कर बात कर सकूं।’
‘ठीक बात है, ठीक बात है।’
‘एक काम और करिए मुनव्वर भाई!’
‘बताइए!’
‘अब इस मामले को पब्लिक मूवमेंट से जोड़ दीजिए। दलगत राजनीति और व्यक्तिगत अहंकार से ऊपर उठ कर।’
‘बिलकुल-बिलकुल!’
‘अभी जमाल का भी फ़ोन आया था।’
‘वह तो तिड़क गया होगा!’
‘नहीं, नहीं।’ आनंद बोला, ‘वह सोच रहा था कि मैं चुनावी ज़मीन तलाश रहा हूं और कि चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहा हूं।’
‘ओह!’
‘फिर जब मैं ने उस से इस पर मूवमेंट खड़ा करने की बात कही तो वह रोडमैप बनाने के लिए भी तैयार हो गया।’
‘तो वह यह लड़ाई हम लोगों के हाथ से छीनना चाहता है!’
‘मुनव्वर भाई, आप से एक बात पूछूं?’
‘पूछिए।’ वह खिन्न हो कर बोले।
‘यह बताइए कि आप की राय में इस वक़्त सांप्रदायिकता और जातियता का राक्षस ज़्यादा बड़ा है, या जमाल?’
‘मेरे लिए तो दोनों ही राक्षस हैं।’ वह बोले, ‘इस लड़ाई में जमाल के साथ आने का मतलब है, पहले ही दौर में लड़ाई की हवा निकाल देना। आसमान से गिर कर खजूर पर लटक जाना।’
‘मुनव्वर भाई यह समय व्यक्तिगत अहंकार से छुट्टी पा कर क़ासिम की लड़ाई को लड़ना है। क़ासिम के हत्यारों को क़ानूनी रूप से सज़ा दिलाना है।’
‘आप को पता है कि जमाल के सरोकार महंत जी से भी हैं।’
‘क्या?’
‘हां, उस के एक एन.जी.ओ. ने पिछले दिनों अपने एक कार्यक्रम में महंत जी को मुख्य अतिथि बनाया था।’
‘क्यों?’
‘उन की सांसद निधि से उस को पैसा झटकना था।’
‘तो सांसद निधि महंत जी के पिता जी की नहीं है, देश की है, जनता की है!’
‘चलिए तो भी अगर जमाल इस मूवमेंट को लीड करेगा तो मुझे मुश्किल होगी।’
‘मुनव्वर भाई!’ आनंद बोला, ‘इशू जमाल है कि क़ासिम पहले यह तय कर लीजिए!’
‘बट नेचुरल क़ासिम!’
‘फिर!’ आनंद बोला, ‘और आप ही अभी कल कह रहे थे कि यह हम सब की साझी लड़ाई है!’
‘है तो!’
‘तो क्यों जमाल के फच्चर में फंस रहे हैं। लीड आप करिए। जमाल साथ आता है तो आने दीजिए।’
‘पर मैं लीड करूंगा तो वह नहीं आएगा!’
‘मत आए!’ आनंद बोला, ‘ज़रूरत जनता को इस मूवमेंट से जोड़ने की है, किसी जमाल, फमाल को नहीं। जनता को आगे रखिए, अहंकार को पीछे। फिर देखिए सब ठीक हो जाएगा।’
‘क्या आनंद जी!’
‘अब क्या हुआ?’
‘अभी तक मुझ को आप ने इतना ही समझा है?’ मुनव्वर भाई आहत हो कर बोले, ‘आप हम को अहंकारी समझते हैं?’
‘अरे नहीं भाई! वे तो मैं ने एक बात कही।’ आनंद बोला, ‘अब इतनी छोटी-छोटी बातों पर घायल होते रहेंगे तो क़ासिम की लड़ाई तो समझिए यहीं ख़त्म हो जाएगी!’
‘लड़ाई तो ख़त्म नहीं होगी आनंद जी!’ मुनव्वर भाई बोले, ‘हम हारें चाहे जीतें, इस की परवाह नहीं। पर लड़ंेगे ज़रूर। यह जो पीक मिली है अख़बारों में इस को ज़ाया नहीं होने देंगे। यह हमारा वादा है!’
‘अच्छी बात है मुनव्वर भाई। बस अख़बारों का पैकेट हमें आज कोरियर करवा दीजिएगा।’
‘बिलकुल!’
‘और हां एक बात और मुनव्वर भाई!’ आनंद ने कहा, ‘और इस बात पर भी घायल मत हो जाइएगा।’
‘अरे नहीं, बताइए तो।’
‘यह कि ये मूवमेंट सिर्फ़ मुसलमानों का मूवमेंट ही बन कर न रह जाए।’ आनंद बोला, ‘क्यों कि इस मूवमेंट में इस बात का ख़तरा ज़्यादा है। और वह एक शेर भी ज़रूर ध्यान में रखिएगा कि- कौन कहता है आकाश में सुराख़ नहीं हो सकता/एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो।’
‘बिलकुल-बिलकुल!’ मनुव्वर भाई बोले, ‘पूरी तबीयत से उछालते हैं।’
मुनव्वर भाई के फ़ोन के बाद वह बाथरूम चला गया। वापस आ कर अख़बार पलटने लगा तो उस ने पाया कि उस की प्रेस कानफ्रेंस की ख़बर यहां के भी दो अख़बारों में छपी थी। पर छोटी-छोटी। बहुत उछाल के नहीं। लेकिन जितनी भी छपी थी, काम की थी। एक अख़बार ने उसे पूर्व छात्र नेता लिखा था तो एक ने सामाजिक कार्यकर्ता।
वह आफ़िस में ही था कि उस के गांव से फ़ौजी पंडित का फ़ोन आया। वह बोले, ‘का हो आनंद!’
‘प्रणाम चाचा!’
‘ख़ुश रहो! पर ई अख़बार में का अंट शंट बक बका दिए हो भाई!’ वह बोले, ‘तुम अपने विद्यार्थी जीवन में तो गांधी, गांधी बकबकाते ही थे अब गांधी का पहाड़ा भी पढ़ने लगे हो!’
‘समझा नहीं।’
‘तो समझो बच्चा कि गांव में गांधीपना मत झाड़ो। गांधी पाकिस्तान को पोसते-पोसते हे राम! बोल गए थे। अब तुम भी गांव में पाकिस्तान बना पोस रहे हो, यह ठीक नहीं है।’ वह गला खखार कर बोले, ‘अपनी राजनीति वहीं लखनऊ में बघारो, गांव में मत बघारो। समझे न!’ वह ज़रा रुके और खैनी थूकते हुए बोले, ‘एह तर से राजनीति जो करोगे तो कभी एम.एल.ए., एम.पी., मिनिस्टर नहीं बन पाओगे। काहें से कि अपना गांव, अपने गांव की राजनीति तो तुम समझ नहीं पा रहे हो, देश और प्रदेश की राजनीति का ख़ाक समझोगे?’ वह फिर थूके और बोले, ‘बंद करो ई सब नौटंकी और गांधीपना।’ कह कर उन्हों ने फ़ोन काट दिया।
आनंद चिंतित हुआ अम्मा पिता जी को ले कर। वह चिंतित हुआ कि क़ासिम के चक्कर में वह अम्मा पिता जी का ध्यान कैसे भूल गया! उस ने अपने को धिक्कारा, कोसा और गांव में घर पर फ़ोन किया।
फ़ोन पर अम्मा मिलीं। उस ने पूछा कि, ‘क्या हालचाल है?’
‘गांव में आग लगी है।’
‘क्यों?’
‘तुम अख़बार में फ़ोटो लगा कर कुछ छपाए हो क़ासिम को ले कर यही लोग बता रहे हैं।’
‘और क्या लोग बता रहे हैं?’
‘और तो कुछ नहीं पर तुम्हारे पिता जी बहुत गु़स्सा हैं। कह रहे हैं कि यहां तो तुम ड्रामा कर गए। मियां के घर नहीं गए। आज्ञाकारी पुत्र बन गए। पर शहर में जा कर उस को कपार बैठा कर मुतवा दिया। ऊ कह रहे हैं कि अब बाक़ी का रह गया है!’
‘अच्छा उन से बात करवाओ।’
‘मत करो उन से बात!’
‘क्यों?’
‘उन का माथा बहुत गरम है।’ अम्मा बोलीं, ‘कुछ उलटा सुलटा बोल देंगे तो तुम को भी बुरा लग जाएगा। दो चार दिन में जब ठंडा हो जाएंगे तब बात करना। अभी नहीं।’
‘अच्छा गांव में तुम लोगों को कोई ख़तरा तो नहीं है न!’
‘ख़तरा कवन बात का, तुम्हारे पिता जी तो हई हैं ना!’
‘अरे नहीं कोई कुछ कहे सुने!’
‘अभी तक तो नहीं कोई कुछ कहा सुना। आगे का नहीं जानती।’
‘ठीक है अम्मा भगवान करे ऐसा न हो!’ आनंद बोला, ‘पर कोई कुछ कहे सुने तो घबराना नहीं, हमें बता देना।’
‘तुम वहां से क्या करोगे?’
‘सब कुछ। तुम बस बता देना।’
‘ठीक है बाबू!’ वह ज़रा रुकीं और बोलीं, ‘एक बात कहूं बाबू बुरा मत मानना!’
‘हां बोलो!’
‘ई तुम्हारी नौकरी ही ठीक लगती है तुम्हारे पिता जी को। तुम्हारी राजनीति नहीं सुहाती उन को। न गांव वालों को।’
‘क्या बताऊं अम्मा। कुछ समझ नहीं आता। सोचता हूं कि क्या यह वही गांव है जहां कभी एक बकरी, एक गाय, एक बैल मर जाने पर भी पूरा गांव शोक में डूब जाता था। और अब एक नौजवान मरा है तो उस का शोक एक दिन का भी नहीं मना सकता यह गांव?
‘हां बाबू अब गांव बदल गया है, तुम भी बदल जाओ।’ अम्मा बोलीं, ‘ऊ दोहा बाबू तुम सुने ही होगे कि जाट कहे सुन जाटनी इसी गाम में रहना है, ऊंट बिलैया लई गई हां जी, हां जी कहना है।’
‘अब क्या कहूं?’ आनंद सांस छोड़ते हुए बोला, ‘मेरी तो कुछ समझ में नहीं आता।’
‘कुछ मत कहो बाबू। मेरी बस इतनी सी बात सुन लो कि इसी गांव में रहना है। खेती-बारी करनी है। अब बैल वाली खेती रही नहीं। कि अपनी मर्ज़ी से खेत जोत लेंगे। अब तो ट्रैक्टर भी किसी का किराए पर लेना पड़ता है, फ़सल कटाई के लिए भी कंबाइन किराये पर लेना होता है। और ई सब सामूहिक रूप से तय होता है। ट्रैक्टर आता है तो सब के लिए। कंबाइन आता है तो सब के लिए। पारी बांध कर। पानी है, खाद है मज़दूरी है। रास्ता है, नाली है, मेड़ है, दुख है, सुख है, तीज-त्यौहार है, हारी है बीमारी है, सब इसी गांव में होना है, इन्हीं लोगों के साथ होना है, तो बैर किस-किस से लेंगे?’ एक सांस में बोलती हुई अम्मा बोलीं, ‘गांव तुम को वैसे ही कुजात कहता है। सब के साथ खाते-पीते हो! फिर तुम्हारी बात और है। तुम शहर में हो। लखनऊ में हो। पर हम पूरे गांव से बैर ले कर कैसे जिएंगे? पट्टीदारी है बाबू!’
‘अच्छा अम्मा!’
‘हां, बाबू हमारी बात पर ग़ौर करना!’
‘अच्छा अम्मा प्रणाम!’
‘भगवान तुम को सदबुद्धि दे।’ कह कर अम्मा ने फ़ोन रख दिया।
पर लगातार किसी न किसी का फ़ोन आता ही रहा। इतना कि आफ़िस वाले फ़ोन सुनते-सुनते परेशान हो गए। इसी बीच जमाल का फ़ोन आया। उस ने बताया कि, ‘कलक्ट्रेट का बड़ा ज़बरदस्त घेराव हो गया है। और जैसा कि आप चाहते थे यह पब्लिक मूवमेंट बने तो आनंद जी यह बात तो हो गई है। और इस के लिए बहुत ईमानदारी से कहूं कि बहुत ज़्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी। वो जो कहते हैं न कि लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया। लगभग वही आलम है।’
‘मुनव्वर भाई भी हैं इस मुहिम में?’ आनंद ने पूछा।
‘हां हैं। और पूरे जोश-ओ-ख़रोश से। बल्कि इस समय माइक पर वही हैं। उन की तक़रीर चल रही है।’
‘यह अच्छी बात हुई कि तुम दोनों अपने इगो भूल कर इस लड़ाई में साझीदार हो गए।’ आनंद बोला, ‘बधाई इस के लिए। और हां, यह ज़रूर ध्यान रखना कि यह लड़ाई सिर्फ़ मुसलमानों की बन कर न रह जाए। और कि हिंदू वर्सेज़ मुस्लिम न बन जाए। इस में यह ख़तरा बहुत है।’
‘सो तो है। पर आप मुतमइन रहिए यह हरगिज़ नहीं होने देंगे। मामला अगर हिंदू वर्सेज़ मुस्लिम मंे टर्न लेगा तो लड़ाई बंद कर देंगे। पर यह न होने देंगे।’ जमाल बोला, ‘हम लोग भी सेक्युलर ख़यालात के लोग हैं। कोई फं़डामेंटलिस्ट या तालिबानी या सो काल्ड जेहादी नहीं हैं।’
‘बस यह जज़्बा क़ायम रहना चाहिए!’
शाम को वह ज्ञापन वगै़रह ले कर प्रमुख सचिव गृह के पास गया। और ज्ञापन की कापी बाहर ही पूरी प्रेस टीम को बंटवा दिया। फिर प्रमुख सचिव गृह से मिला। ज्ञापन देख कर वह बोले, ‘देखिए इंक्वायरी तो रुटीन तौर पर भी हर पुलिस इनकाउंटर की होती ही है। पर आप ने ज्यूडिशियल इंक्वायरी मांगी है तो ऊपर बात करते हैं मैडम से भी। रही बात और डिमांड्स की तो उस सब इंस्पेक्टर सहित पूरी इनकाउंटर टीम सस्पेंड कर दी गई है। और जहां तक हत्या के मुक़दमे की बात है तो वह इंक्वायरी रिपोर्ट देखने के बाद ही तय होगा कि क्या करना है। अभी फ़ौरी तौर पर यह संभव नहीं है।’ वह बोले, ‘आप का ज्ञापन तो दरअसल कल ही हमें मिल गया था।’
‘वो कैसे?’
‘डी.एम. ने फै़क्स किया था!’
‘अच्छा-अच्छा!’
‘वैसे आप से एक रिक्वेस्ट है कि इस मामले को बहुत तूल मत दीजिए कि ला एंड आर्डर ब्रेक हो। इलेक्शन का माहौल है। कहीं सिचुएशन कंट्रोल से बाहर हो गई तो मुश्किल हो जाएगी।’
‘हम तूल कहां दे रहे हैं।’
‘नहीं आज कलक्ट्रेट जिस तरह से आप के शहर में घेरा गया है। वह दिक़्क़त वाला है। वो तो प्रशासन को नरमी बरतने को कहा गया है पर कहीं मामला कम्युनल कलर ले लेगा तो आफ़त हो जाएगी। इस से अपने मूवमेंट को बचाइए।’
‘हम आलरेडी इस से अवेयर हैं और प्रिकाशंस लिए हुए हैं।’
‘नहीं-नहीं आज वहां से तीन बार सिचुएशन बिगड़ने की ख़बर आई। पर प्रशासन ने लिनिएंसी बरतते हुए लोगों को कंट्रोल किया। मामला भड़कने नहीं दिया।’
‘ख़ैर चलिए इस के लिए सॉरी और मैं अपने साथियों को फिर से समझाता हूं।’
‘साथियों को तो समझा लेंगे आप। पर भीड़ का क्या करेंगे? भीड़ कुछ नहीं समझती, किसी का नहीं समझती। तो भीड़ को वहां बटोरना बंद कीजिए।’
‘यह भीड़ नहीं, जनता है जनाब। उस को हम कहां से रोक लेंगे?’
‘वेरी सिंपल, जैसे इकट्ठा किया था।’ वह बोले, ‘अपना मूवमेंट कॉल आफ़ कर लीजिए।’
‘सॉरी, जब तक हत्यारी पुलिस के खि़लाफ़ हत्या का मुक़दमा दर्ज नहीं हो जाता, हम मूवमेंट तो वापस नहीं ले पाएंगे।’
‘मतलब दंगे करवा कर ही रहेंगे?’ प्रमुख सचिव गृह टेंस हो कर बोले, ‘चुनावी फ़िज़ा है आनंद जी, मामले की नज़ाकत को समझिए। आप के अपोज़िट लोग चाहते हैं कि मामला भड़के, दंगा हो और वोट उन के लिए पोलराइज़ हो जाएं!’
‘अरे आप के हाथ में प्रशासन है, और जब आप जान गए हैं ऐसे लोगों की मंशा तो उन को कुचल दीजिए, जेल में ठंूस दीजिए।’
‘क्या बताऊं आप को आनंद जी, कैसे समझाऊं?’
‘कुछ नहीं हत्या का मुक़दमा दर्ज कर उस पुलिस टीम को अरेस्ट कीजिए, क़ासिम के परिवार को मुआवज़ा दिलवा दीजिए। सब कुछ अपने आप शांत हो जाएगा।’
‘बिना इंक्वायरी रिपोर्ट के आए कुछ नहीं हो सकता आनंद जी न मुआवज़ा, न मुक़दमा!’
‘तो इंक्वायरी कमेटी से कहिए कि रिपोर्ट एक से दो दिन में दे दे। उस को टाइम बाउंड कर दीजिए।’ आनंद बोला,‘सब कुछ क्रिस्टल क्लीयर है, सब कुछ आप की जानकारी में है।’
‘देखिए बहुत सारी चीज़ें हमारे हाथ में नहीं हैं, कुछ चीज़ें पोलिटिकल भी होती हैं।’ वह बोले, ‘आप कुछ तो समझिए आनंद जी और कोशिश कीजिए प्रोटेस्ट जल्दी से जल्दी ख़त्म हो जाए।’
‘क्या करूं सब कुछ मेरे हाथ में भी नहीं है।’ आनंद बोला, ‘हालां कि चीफ़ मिनिस्टर तो डिक्टेटर हैं, किसी की सुनती नहीं फिर भी अगर संभव हो तो आप इंटरेस्ट ले कर चीफ़ मीनिस्टर से मेरी मीटिंग फ़िक्स करवा दीजिए। शायद समस्या जल्दी सुलट जाए।’
‘मैडम से आप की मीटिंग तो उन के सेक्रेट्रीज़ ही फ़िक्स करवा सकते हैं, मैं नहीं।’
‘चलिए देखता हूं।’ वह बोला, ‘मैं ने सुना था कि आप से सीधी बात होती है, इस लिए आप से कह दिया।’
‘इट्स ओ.के.!’ कह कर आदत के मुताबिक़ प्रमुख सचिव गृह ने हाथ मिलाने के लिए हाथ बढ़ा दिया।
वह घर आ गया।
नहा धो कर बैठा ही था कि आफ़िस से फ़ोन आ गया। कंपनी के चेयरमैन के पी.ए. का फ़ोन था। पूछ रहा था कि, ‘ये कैसी प्रेस कानफ्रेंस कर दी आप ने कि आप के शहर के महंत जी नाराज़ हो गए?’
‘कुछ ख़ास नहीं, बस रुटीन!’
‘लेकिन आनरेबिल चेयरमैन सर के पास उन का फ़ोन आया था।’
‘किस का?’
‘महंत जी का। और वह बहुत खफ़ा हैं। और फिर उन की बात सुन कर आनरेबिल चेयरमैन सर का चेहरा भी बिगड़ गया है।’ पी.ए. बोला, ‘वह नाश्ते पर थे। पर फ़ोन के बाद उन का ज़ायका बिगड़ गया तो आप को फ़ोन कर रहा हूं।’
‘ओह!’
‘आप जानते हैं कि वहां भी कंपनी को अपना बिज़नेस करना है। और महंत जी वहां मैटर करते हैं। उन को नाराज़ कर के तो वहां बढ़िया से बिज़नेस रन नहीं कर सकते हम लोग। फिर वह एम.पी. भी हैं। कहीं कोई मामला पार्लियामेंट में भी उठा सकते हैं। हर कंपनी के अपने स्याह सफ़ेद होते हैं।’ वह ज़रा रुका और बोला, ‘मैं समझता हूं आप मेरी बात समझ रहे होंगे।’
‘बिलकुल-बिलकुल!’ आनंद बोला, ‘आप की बात भी समझ रहा हूं और आप का संदेश भी। बोलिए इस्तीफ़ा अभी मेल कर दूं या सुबह लिख कर भिजवा दूं?’
‘सॉरी-सर! मेरा मतलब यह नहीं था।’
‘तो फिर?’
‘सर चाहते हैं कि आप अपने को इस मामले से ड्राप कर लें, वहां मूवमेंट भी ड्राप कर लें और कि महंत जी के खि़लाफ़ जो मोर्चा खोला है, वह बंद कर दिया जाए!’
‘मूवमेंट तो ड्राप करने का ज़िम्मा मैं नहीं ले पाऊंगा, क्यों कि वह तो अब मास मूवमेंट हो गया है। रही बात मेरी तो मैं तो अब वहां हूं भी नहीं। लखनऊ में हूं। और फिर आप को बताऊं कि जो प्रेस कानफ्रेंस मैं ने की, व्यक्तिगत की। किसी पार्टी या किसी कंपनी के बैनर तले नहीं। वह भी इस लिए की कि वह मेरे गांव का मामला था।’ आनंद ज़रा रुका और बोला, ‘अभी मौक़ा है स्पष्ट बता दीजिए तो इस्तीफ़ा भेज दूं। क्यों कि अभी नामिनेशन का टाइम है जा कर कूद ही जाऊं चुनाव में। एक बार आज़मा ही लूं। फिर हारूं चाहे जीतूं, यह दूसरी बात है। पर चेयरमैन साहब को जितनी बातें मैं ने अभी कहीं सब बता दीजिए और फिर मुझे बताइए कि क्या करना है। क्या पता इसी बहाने सक्रिय राजनीति में मेरी वापसी हो जाए। नहीं बाद में पता चले कि नौकरी से भी जाऊं और चुनाव से भी। तो बड़ा मलाल होगा। बल्कि संभव हो तो मेरी बात अभी चेयरमैन साहब से करवा ही दीजिए!’
‘सर, आप तो नाराज़ हो गए। आनरेबिल चेयरमैन सर ऐसा भी नहीं चाहते।’
‘तो क्या चाहते हैं।’
‘वह चाहते हैं कि आप कंपनी में बने रहें और महंत जी भी नाराज़ न हों।’
‘ओह तो मुट्ठी भी बंधी रहे और हाथ भी झुका रहे!’
‘क्या सर!’
‘कुछ नहीं यह कारपोरेट की टर्मानलजी नहीं है।’
‘ओ.के. सर!’ वह बोला, ‘तो प्लीज़ सर मेरी बात का ध्यान रखिएगा।’
‘ठीक बात है!’
कह तो दिया उस ने कि ठीक बात है। पर वह टेंशन में आ गया।
बहुत दिन हो गया था उसे काफ़ी हाउस गए। चला गया काफ़ी हाउस। वहां पहुंचा तो काफ़ी हाउस नदारद! वह घबराया। इधर-उधर चहलक़दमी की। काफ़ी हाउस का बोर्ड तो दिखा पर बड़े से दोनों लकड़ी के दरवाज़े ग़ायब। बरामदे में बैठे अख़बार बेच रहे दुकानदार से पूछा कि, ‘क्या हुआ काफ़ी हाउस?’
‘विवाद हो गया!’
‘वो तो ठीक है। पर गया कहां?’
दुकानदार ने मुंह पिचका कर हाथ हिला दिया। पर बोला नहीं। ख़ैर, वह शीशे का दरवाज़ा खोल कर भीतर गया। चकाचक रेस्टोरेंट। ए.सी। वह चौंक गया। घबरा कर वह बाहर बरामदे में आ गया। भीतर कोई परिचित भी नहीं था।
उस ने सिगरेट जलाई। कश लिया। धुआं छोड़ा। सड़क की ट्रैफ़िक देखी। उस का शोर सुना और अपने आप से पूछा- ये कहां आ गए हैं हम! ये हो क्या रहा है? अब वह अपने साथियों के साथ कहां बैठे? लगा कि सिर की नसें तड़क जाएंगी। वह बरामदे की सीढ़ियों पर ही बैठ गया।
घर में माता-पिता नाराज़, गांव के लोग नाराज़, आफ़िस से चेयरमैन नाराज़। सिस्टम से वह ख़ुद नाराज़। तिस पर काफ़ी हाउस का लापता हो जाना। तो क्या अब वह अपने आप से नाराज़ हो जाए?
यह कौन सी प्यास है?
काफ़ी हाउस के बरामदे और सड़क के बीच संधि बनी सीढ़ियां कुछ नहीं बता पातीं। सिगरेट के आखि़री कश के बाद सिगरेट फेंकता, पैंट झाड़ता वह उठ खड़ा होता है।
शराब, सिगरेट, सुलगन और जिमखाना!
हां, अब वह जिमखाना में बैठा शराब पी रहा है। आज जाने क्यों चिकेन उसे अच्छा नहीं लग रहा। पनीर के कच्चे टुकड़ों पर काली मिर्च और नमक छिड़क कर, पनीर से काम चला रहा है। थोड़ी दही भी वह मंगवा लेता है। और अपने मित्र माथुर से पूछ रहा है, ‘कभी दही के साथ मदिरा ट्राई की है?’
‘नहीं तो!’
‘आज ट्राई करो और मज़ा न आए तो बताओ!’
‘ओ.के.!’ माथुर बोला, ‘क्या बात है आज वेजेटेरियन हो गए हो?’
‘क्या करें यार!’
‘फिर भी?’
‘ज़माने की मार है डियर!’
‘मतलब?’
‘सिंपल!’ आनंद बोला, ‘सिस्टम के हो कर अगर तुम न चलो तो सिस्टम तुम्हें तोड़ देता है।’
‘ये तो है।’ माथुर बोला, ‘देखो न हमारी हाई कोर्ट में जो वकील जस्टिस लोगों को फिट कर लेता है, पैसा थमा देता है, लड़की थमा देता है, सफल वकील बन जाता है। का़नून की मां बहन कर देता है। और जो क़ानून जानता है, का़नून जानने की ढोल पीटता है, वह क्रेक, असफल और निरा मूर्ख मान लिया जाता है!’
‘ये तो है!’ आनंद बोला, ‘हर जगह, हर हलके में यही हाल है। एक ढूंढो हज़ार मिलते हैं। योग्यता और मेरिट का पहाड़ा पढ़ने वाले मारे जा रहे हैं। भड़ुवे, दलाल, हिप्पोक्रेट साले आगे जा रहे हैं।’
‘अब क्या करें?’ माथुर अपना पैग ख़त्म करता हुआ बोला।
‘कुछ नहीं तुम मेरे पुराने यार हो, वकील हो, थोड़ी तुम्हें चढ़ भी गई तो मुझे लगता है, नाटक नहीं करोगे, सच बोलोगे।’
‘बात तो बताओ!’
‘ये दो चीज़ें; एक इलाज और दूसरा न्याय आदमी के लिए सपना क्यों बनता जा रहा है? बल्कि कहूं मृगतृष्णा!’
‘ये तो मुझे भी नहीं मालूम!’ माथुर बोला, ‘मौज मस्ती की बातों की जगह आज यह तुम क्या ले कर बैठ गए हो। खाओ, पियो, मौज करो और घर चलो। इन सब बेकार की चीज़ों में वक़्त ज़ाया करने से क्या मिलेगा? सिवाय हताशा के?’
‘ये तो है!’
‘चलो औरतों की बात करते हैं।’
‘हां, ये बात हुई।’
‘पर क्या करें यार कोई सुंदर औरत देखे ज़माना हो गया। मदभरी आंखें तो जैसे सपना हो गईं। ये नयन डरे-डरे, जाम भरे-भरे गाने का कोई मतलब ही नहीं रहा।’
‘ये तो है!’
‘पर जानते हो क्यों?’
‘क्यों?’
‘ये ब्यूटी पार्लर!’
‘मतलब?’
‘ब्यूटी पार्लरों ने औरतों की ख़ूबसूरती छीन ली है। देह की लोच, आंखों का नशा नष्ट कर दिया है। औरतें अब लाख फ़ेमनिस्ट बनें पर कठपुतली हो गई हैं। दुनिया भर का मेकअप पोते, नक़ली सुंदरता ओढ़े। हुंह घिन आती है।’ वह ज़रा रुका और बोला, ‘एक काम करो यार!’
‘क्या?’
‘एक जनहित याचिका दायर कर दो।’
‘किस बात के लिए?’
‘दुनिया भर के ब्यूटी पार्लर बंद करने के लिए।’
‘क्यों?’
‘ये औरतों को नक़ली और नख़रेबाज़ बना रहे हैं।’
‘क्या यार तुम भी!’ माथुर बिदकता हुआ बोला, ‘शेरो शायरी सुनाने वाला आदमी आज क्या बकबक कर रहा है? हो क्या गया है तुम को आनंद?’
‘हो नहीं गया है, हो गया हूं।’
‘क्या?’
‘कुत्ता।’
‘क्या!’
‘हां धोबी का कुत्ता! न घर का, न घाट का!’
‘क्या?’
‘सच कह रहा हूं।’ वह शराब देह में ढकेलता हुआ बोला।
‘ओह तो आज तुम कुछ प्राब्लम में हो?’
‘तुम शेर सुनाने के लिए कह रहे थे न?’
‘हां, सुनाओ तो कुछ सिर दर्द कम हो!’
‘नो, सिर दर्द बढ़ जाएगा!’
‘अच्छा सुनाओ तो!’
‘रंग बिरंगे सांप हमारी दिल्ली में/क्या कर लेंगे आप हमारी दिल्ली में। पता है वह काफ़ी हाउस वाले मधुसूदन जी हैं न, एक दिन बहुत मूड में थे तो सुना रहे थे। बाद में गुस्सा हो गए!’
‘ओह!’
‘पर क्या फ़ायदा?’
‘किस का?’
‘अब काफ़ी हाउस ही नहीं रहा!’
‘ओह तो तुम को इस का अफ़सोस है?’
‘किस का?’
‘काफ़ी हाउस का!’
‘किस-किस का अफ़सोस बताऊं तुम को?’
‘नहीं अब इतना जो चट रहे हो तो बता ही दो!’
‘वो शेर सुनाया था न! रंग बिरंगे सांप हमारी दिल्ली में।’
‘हां!’
‘पर ग़लत सुनाया था!’
‘ओह!’
‘सही यह है कि रंग बिरगे सांप हमारी ज़िंदगी में/क्या कर लेंगे आप हमारी ज़िंदगी में?’
‘ओह यार तुम कोई सीधी साफ़ बात भी करोगे आज?’
‘अब और कितनी साफ़ करूं?’
‘ओह!’
‘बल्कि कैसे करूं?’
‘बाप रे कहां बैठ गया मैं आज!’ माथुर माथा पीटते हुए बोला।
‘यही तो, यही तो!’ आनंद जैसे चहका, ‘देखो अब तुम भी मेरे खि़लाफ़़ हो गए!’
‘मैं तुम्हारे खि़लाफ़ नहीं हूं आनंद! अंडरस्टैंड मी!’ उस ने बाल खुजलाते हुए कहा, ‘पर तुम आज बुरी तरह मुझे चाट रहे हो।’
‘ओ.के., ओ.के.। थोड़ी शराब और मंगवा लो नहीं चटूंगा, चुप रहूंगा।’
‘मंगवाता हूं भाई!’ माथुर ने कहा और वेटर को आवाज़ दी।
‘गुड!’ आनंद बोला, ‘तुम्हें पता है सिर्फ़ तुम्हीं नहीं नाइंटी, नाइंटी फ़ाइव परसेंट लोग मेरे खि़लाफ़ हैं।’
‘क्या तुम यहां पहले से पी कर आए हो?’
‘क्यों बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हो आज मुझे?’
‘दोस्त हो यार बर्दाश्त क्या करना! जी रहा हूं तुम्हें।’ माथुर बोला, ‘बहुत जिया है तुम्हें, आज भी जी रहा हूं। पर आज का सीन ज़रा डिफ़रेंट है!’
‘है न! बहुत है।’ आनंद बोला, ‘बताओ तुम ने मुझे बहुत जिया है, पर मैं आज जी नहीं पा रहा हूं। जानते हो क्यों? बल्कि पूछो क्यों?’
‘क्यों?’
‘क्यों कि नाइंटी, नाइंटी फ़ाइव परसंेट बल्कि नाइंटी नाइन कह लो इस समाज के लोग, दुनिया के लोग मेरे खि़लाफ़ हैं। समाज के, घर के, द़तर के नाइंटी नाइन परसेंट लोग मेरे खि़लाफ़ हैं! तो कैसे जी पाऊंगा?’
‘पर यार बात क्या हुई ये तो बता!’ माथुर आनंद का हाथ पकड़ कर पूछते हुए भावुक हो गया।
‘सुनना चाहता है तो चुपचाप सुन! बोलना नहीं बीच में।’
‘ओ.के.!’
‘फिर बोल दिया!’ आनंद ने माथुर को तरेरा तो माथुर ने होठों पर उंगली लगा कर चुप रहने की हामी भरी और बोला नहीं।
फिर दोनों चुप हो गए।
पीते रहे, खाते रहे। पर बोले नहीं।
अंततः माथुर ने उस से पूछा, ‘अब तुम बोलते क्यों नहीं? बोलेगे भी?’
‘क्या बोलता? तुम ने उंगली के इशारे से कहा कि चुप रहो तो मैं चुप हो गया।’
‘अरे नालायक़ वो मैं ने अपने चुप रहने का इशारा किया था।’
‘अच्छा-अच्छा!’ आनंद बोला, ‘लगता है अब मुझे चढ़ रही है।’
‘नहीं-नहीं, तू बोल जो भी बोलना है! चढ़े चाहे उतरे! तुम को क्या?’
‘तो मैं क्या कह रहा था?’
‘नाइंटी परसेंट........!’
‘नहीं-नहीं, नाइंटी फाइव ही रहने देते हैं। जानते हो क्यों? क्यों कि अब तुम तो मेरे साथ आ गए हो।’ आनंद ज़रा रुका और माथुर की तरफ़ देखा और बोला, ‘बोलना नहीं, तुम चुप रहना!’
माथुर ने सिर स्वीकृति में हिला दिया।
‘बताओ मैं पंडित हूं। मतलब ब्राह्मण। पर ब्राह्मण लोग कहते हैं कि तुम ब्राह्मण नहीं हो। कुजात हो। क्यों कि अछूतों के यहां, दलितों, पिछड़ों, मुसलमानों के साथ खाते, पीते, उठते-बैठते हो! चलो मान लिया। पर ये दलित, मुसलमान, पिछड़े कहते हैं कि साथ खा पी लेने से क्या होता है? हो तो तुम पंडित ही, ब्राह्मण! तो मैं क्या हुआ? हुआ न धोबी का?’
माथुर ने स्वीकृति में सिर हिला दिया।
राजनीति करता था, जब पढ़ता था। छात्र राजनीति! और जब राजनीति करने का समय आया तो नौकरी करने लगा। बोलना था राजनीतिक मंचों पर, बोलने लगा सेमिनारों में। तो क्या हुआ?’
माथुर ने बिना बोले हाथों से धोबी की तरह कपड़ा धोने का इशारा किया।
‘हूं। बिलकुल ठीक समझा तुम ने। अब मैं गांव जाता हूं तो मुझे देख कर अम्मा पिता जी डर जाते हैं। अम्मा कहती हैं गांव में हमें रहना है तुम्हें नहीं, तुम क्या जानो गांव की राजनीति? पिता जी तंज़ करते हैं कि देश प्रदेश की राजनीति करते हो, सब समझते हो, मैं क्या कहूं? मतलब यह कि ख़ाक समझते हो! गांव को नष्ट करने वाला फ़ौजी पंडित धमकाता है कहता है कि मैं गांव में पाकिस्तान पाल पोस रहा हूं। गांधी जी ऐसे ही हे राम! बोल गए थे। और बताता है कि ऐसे तो तुम एम.एल.ए., एम.पी., मिनिस्टर कुछ नहीं बन पाओगे! एक निर्दोष लड़का मारा जाता है, शहर सांस नहीं लेता, मैं आवाज़ उठाता हूं तो लोग समझते हैं कि मैं चुनावी ज़मीन तैयार कर रहा हूं। संयोग से जनता साथ खड़ी हो जाती है, मूवमेंट खड़ा हो जाता है तो होम सेक्रेट्री कहता है कि मूवमेंट वापस ले लीजिए, नहीं दंगा हो जाएगा। मंदिर का एक महंत जो एम.पी. भी है मेरे शहर का और पूरी बेशर्मी से अपराधियों को कांख मेें दाब कर घूमता है और तर्क देता है कि माला के साथ भाला भी ज़रूरी है। पूरी कमिश्नरी को सांप्रदायिकता के ज्वालामुखी पर बैठा देता है। उस की इस नस पर मैं हाथ रखता हूं तो वह मुझ से राजनीतिक या सामाजिक तौर पर निपटने के बजाय मुझे मेरी नौकरी से निपटाने के उपक्रम में लग जाता है। कंपनी के चेयरमैन को धौंसियाता है। बेरीढ़ चेयरमैन जो मुझ से पहले लायज़निंग करवाना चाहता था, मना कर देने पर साइड लाइन कर देता है मुझे। और इस महंत के धौंसियाने पर अपने चमचे पी.ए. से मुझे ज़लील करवाता है। ख़ुद बात नहीं करता, पी.ए. से थाह लेता है। इस्तीफ़े की पेशकश पर बिज़नेस की ट्रिप इस्तेमाल करवाता है कि अरे, अरे ऐसा नहीं। चुनाव लड़ने की मेरी हैसियत नहीं, न किसी पार्टी में हूं, न वोट बैंक है, न पैसा, न छल-छंद पर तमन्ना संसदीय राजनीति की है। हूं समाजवादी, पर नौकरी कारपोरेट सेक्टर की करता हूं। तो मैं क्या हुआ?’
माथुर चुप है!
‘अरे बोलो मैं क्या हुआ?’
माथुर फिर धोबी की तरह कपड़ा धोते हुए हाथ उठाने गिराने का अभिनय करता है।
‘अरे बेवकू़फ़ धोबी नहीं!’ आनंद बोला, ‘साफ़ बोलो धोबी का कुत्ता!’
माथुर मुंह बिचकाते हुए स्वीकृति में सिर हिलाता है।
‘और अभी जब मैं घर जाऊंगा और कुछ कहूंगा तो बीवी बोलेगी आप ने ज़्यादा पी ली है। सो जाइए। सुबह बात करिएगा। और सुबह मैं बात भूल जाऊंगा। वह याद भी नहीं दिलाएगी। तो मैं क्या हुआ?’
‘घर का न घाट का! धोबी का कुत्ता!’ माथुर सांस छोड़ते हुए बोला।
‘अब ठीक समय पर तुम बोले।’ आनंद मुसकुराते हुए बोला, ‘गुड एडवोकेट! पर साले तुम्हारी इस मुख मुद्रा और चुप रहने की इस कला पर तो तुम्हें न्यायमूर्ति होना चाहिए। वह सब भी तो ऐसे ही चुप रहते हैं।’ वह हंसा, ‘गांधी के बीच वाले बंदर की तरह!’
माथुर भी हंसने लगा।
‘तुम साले सोच रहे होगे कि मुझे चढ़ गई है।’
‘तुम्हारी तो नहीं पता पर अपनी तो उतर गई है।’ माथुर बोला, ‘दो डबल पेग और मंगा लें। नहीं बार बंद होने को है।’
‘मंगवा लो!’ आनंद बोला, ‘और हां दही भी।’
‘ओ.के.।’
‘पर यार वह बात तुम भूलना नहीं।’
‘क्या?’
‘जनहित याचिका वाली।’
‘किस बात के लिए?’
‘वो ब्यूटी पार्लर्स बंद करने के लिए!’
‘ओ.के., ओ.के.।’ माथुर बोला, ‘तुम कहो तो ये पुलिस इनकाउंटर मामले पर भी रिट हो सकती है। सरकार, एडमिनिस्ट्रेशन जाने क्या करें?’
‘नो डियर!’ आनंद बोला, ‘इस बात पर तो हमारी तुम्हारी कुट्टी हो जाएगी।’
‘ओ.के., ओ.के.।’ माथुर बोला, ‘इस पर नहीं करूंगा।’
‘क्यों? जानते हो क्यों मना कर रहा हूं?’
‘क्यों?’
‘पुलिस इनकाउंटर वाला मामला जनता का है, जनता को निपटने दो। जनता के इशू को कोर्ट में डाल कर जनता को कायर बनाना ठीक नहीं।’ वह बोला, ‘पर ये ब्यूटी पार्लर वाला मामला कोर्ट का मामला है। देखना कोर्ट फ़ौरन सुन
लेगी। अब आर्डर चाहे जो दे पर सुन ज़रूर लेगी।’
‘ओ.के.।’
‘हां, क्यों कि औरतों की सुंदरता, नैसर्गिक सुंदरता बचानी है। यह बहुत बड़ी बात है। पर्यावरण बचाना है, औरत की सुंदरता बचानी है। कोई नहीं बचाएगा, कोर्ट बचाएगी। सॉरी, माननीय कोर्ट!’ आनंद झूम कर बोला, ‘बोलो ठीक!’
‘बिलकुल ठीक!’ माथुर ने जैसे ताल में ताल मिलाई।
‘पर यार एक प्राब्लम है!’
‘अब क्या?’
‘ये तुम्हारे जज की डिमांड कैसे पूरी होगी?’
‘क्यों?’
‘नहीं अभी कुछ दिन पहले मेरा एक मास्टर दोस्त एक कहानी का फ्रे़म बता रहा था। बता रहा था कि एक जज के घर में पार्टी हो रही थी। अचानक एक ग़रीब सा टीनएज लड़का जज के पास पहुंचा अपनी टीनएज बहन के साथ। उस ने जज से कहा कि साहब मेरा बाप जेल में है। कल उन की पेशी है। उन को छोड़ दीजिएगा। यह मैं आप के लिए ढेर सारा पैसा लाया हूं चोरी कर के। रख लीजिए। और हां, मैं ने सुना है आप लोग लड़की भी लेते हैं। तो यह देखिए मैं अपने साथ अपनी बहन को भी लाया हूं। मेरी बहन को आज रोक लीजिए। लेकिन कल मेरे बाप को छोड़ ज़रूर दीजिएगा। कह कर वह लड़का जज के पैरों पर गिर गया। साथ में उस की बहन भी।’ आनंद ने माथुर की आंखों में झांका और फिर बोला, ‘डियर यह सब तो मुझ से नहीं हो पाएगा!’
‘हो तो मुझ से भी नहीं पाएगा।’ माथुर बोला, ‘साले तुम ने फिर मेरी उतार दी। अब शराब भी नहीं मिलेगी। बार बंद हो गई है। चलो अब घर चलें।
‘अभी नहीं।’
‘नशा तो उतर ही गया है। क्या पैंट भी उतार दूं?’ माथुर खीझा।
‘अरे नहीं चलो!’ आनंद बोला, ‘पर मुझे पेशाब लग गई है ज़ोर की।’ और वहीं लान में ही खड़े-खड़े उस ने जिप खोल दी। और शुरू हो गया।
‘यह क्या है आनंद?’ माथुर गला दबा कर चीख़ा, ‘क्या मेरी मेंबरशीप ख़त्म करवाओगे? सब लोग देख रहे हैं। औरतें भी यहां हैं।’
‘जो कर रहा हूं, करने दो!’ आनंद ने गाली बकी और कहा, ‘मैं यह क्लब के लान पर नहीं, सिस्टम पर मूत रहा हूं, मूतने दो! खि़लाफ़़ लोगों, मतलब अपने खि़लाफ़ लोगों पर मूत रहा हूं, मूतने दो!’ उस ने दुहराया और चिल्लाते हुए दुहराया, ‘मूतने दो। यह मेरा नपुंसक लेकिन मौलिक अधिकार है। जो कोई रोकेगा तो जनहित याचिका दायर कर दूंगा। श्योर कर दूंगा।’
पेशाब करने के बाद वह पीछे मुड़ा और बाहर गेट की तरफ़ चला। लड़खड़ाते हुए। माथुर उस के बगल में आता हुआ खुसफुसाया, ‘जिप तो बंद कर लो अपनी!’
‘तुम कर दो जिप बंद?’
‘क्या?’ माथुर किचकिचाया।
‘क्यों? मेरी जनहित याचिका तुम दायर करोगे तो मेरी जिप बंद करने क्या वह मंदिर का महंत आएगा?’
‘ओह आनंद आज तुम को क्या हो गया है। पूरी तरह आउट हो गए हो!’
‘हां डियर माथुर मुझे थाम लो नहीं अब मैं गिर जाऊंगा।’
‘ओ.के., ओ.के.।’ कह कर माथुर ने आनंद को थाम लिया। पर दो क़दम चलते ही दोनों ही गिर गए!
वेटरों ने आ कर दोनों को उठाया।
‘थैंक यू, थैंक यू!’ आनंद वेटरों से बोला। वेटरों ने दोनों को क्लब के रिसेप्शन पर ला कर बिठा दिया।
माथुर की तरफ़ देख कर आनंद मुसकुराया और बोला, ‘जानते हो माथुर अब हम दोनों ही क्या हैं?’
माथुर ने मुंह पर अंगुली रख कर चुप रहने का इशारा किया, धोबी की तरह हाथ उठा-गिरा कर कपड़ा धोने का अभिनय किया और फिर हाथ के इशारे से ही कुत्ता दौड़ा कर दिखाया। और मुंह पिचका कर बोला, ‘हुम!’ ऐसे गोया वह आनंद से बात नहीं कर रहा हो, दूरदर्शन पर मूक बधिर समाचार पढ़ रहा हो!
‘गुड!’ आनंद बोला। और फिर चुप हो गया।
दोनों ने देखा कि उन दोनों की स्थिति का पूरा रिसेप्शन मज़ा ले रहा है तो दोनों गहरी ख़ामोशी में ऐसे डूब गए, गोया कुछ हुआ ही न हो।
एक बिज़नेसमैन अपनी बीवी के साथ गुज़रा तो उस की बीवी ने आनंद और माथुर की ओर इंगित कर पूछा, ‘हूज़ दीज़ पीपुल्स!’
‘कुछ नहीं साले सब समाजवादी हैं। पी-पा कर लुढ़क जाते हैं और सोचते हैं कि समाज में क्रांति हो गई।’
‘हिप्पोक्रेट पीपुल!’ उस की बीवी मुंह गोल कर बोली और बड़ी हिक़ारत से मुसकुराती हुई ठुक-ठुक करती चली गई।
आनंद अब रिसेप्शन के सोफे़ पर पैर मोड़ कर लेट गया था। क्लब का एक कर्मचारी उस के पास आया। कहने लगा, ‘सर टैक्सी, रिक्शा, आटो कुछ मंगवा दूं?’
‘क्यों?’ आनंद भड़का, ‘गाड़ी है मेरे पास!’
‘ड्राइवर है?’
‘नहीं, ख़ुद ड्राइव करूंगा।’
‘सर आज ड्राइव न करें तो सेफ़ रहेगा।’
‘अच्छा तुम जाओ, कि तुम्हें बोझ लग रहा हूं?’
‘ओ.के. सर! सॉरी सर!’ कह कर वह चला गया।
‘यार यहां से चला जाए नहीं थोड़ी देर में नुमाइश लग जाएगी यहां हम लोगांे की।’
फिर दोनों बाहर आ गए।
‘यार माथुर हमें कोई आटो या रिक्शा करवा दो। सचमुच गाड़ी ड्राइव करने में कहीं भिड़ भिड़ा गया तो दिक़्क़त हो जाएगी। लोग तो खि़लाफ़ हैं ही, सड़कें भी खि़लाफ़ हो जाएंगी।’
‘कुछ नहीं चलो मैं तुम्हें छोड़ते हुए चला जाऊंगा।’
‘तुम साले ख़ुद ही फ़िट नहीं हो, हमें क्या छोड़ोगे?’
‘उतर गई है मेरी, मेरे साथ चलो!’
आनंद उस की कार में बैठ गया। घर पर उतरते समय आनंद बोला, ‘यार वह जनहित याचिका!’
‘हां, हां।’
‘कौन सी?’
‘इनकाउंटर वाली!’
‘अरे नहीं!’
‘फिर?’
‘वो ब्यूटी पार्लर वाली!’
‘अच्छा-अच्छा। बिलकुल-बिलकुल!’
‘थैंक यू!’ आनंद बोला, ‘मुझे ऊपर तक छोड़ दोगे?’
‘श्योर!’
फिर माथुर उस को पकड़ कर ले जाने लगा। तो आनंद जैसे टूट कर बोला, ‘यार माथुर मैं बिखर गया हूं। मुझे संभाल लो!’
‘मैं हूं तुम्हारे साथ ना!’ आनंद को कस कर पकड़ते हुए माथुर बोला।
‘थैंक्स डियर।’ घर के दरवाज़े पर पहुंच कर आनंद बोला, ‘अब यार घंटी बजा कर तुम चले जाओ। नहीं बीवी तुम्हें देखेगी तो ख़ामख़ा तुम्हारी इंप्रेशन बिगड़ जाएगी। वह तुम पर नाराज़ भी हो सकती है।’
‘ओ.के., ओ.के.!’
‘वो एक शेर है न!’
‘इरशाद-इरशाद!’
‘मेरे दिल पे हाथ रक्खो, मेरी बेबसी को समझो, मैं इधर से बन रहा हूं, मैं इधर से ढह रहा हूं।’
‘तुम्हें नहीं ढहने देंगे डियर!’ माथुर उसे बाहों में भरते हुए बोला।
‘घंटी बजाओ और जाओ।’
‘ओ.के.।’ कह कर माथुर ने बेल बजाई और सीढ़ियां उतर गया।
माथुर सीढ़ियां तो उतर गया। पर आनंद का इस तरह फ्ऱस्ट्रेट होना उसे शॉक कर गया था। अपने घर पहुंचने के पहले उस ने आनंद के घर उस के लैंड लाइन फ़ोन पर फ़ोन किया। आनंद की बीवी ने फ़ोन उठाया तो वह बोला, ‘भाभी मैं माथुर बोल रहा हूं।’
‘कौन माथुर?’
‘एडवोकेट माथुर!’
‘अच्छा-अच्छा हां माथुर भइया बताइए।’ वह बोली, ‘इतनी रात को?’
‘सॉरी, आनंद घर पहुंच गया न?’
‘हां, क्यों?’ वह बोली, ‘लुढ़के पड़े हैं बिस्तर पर। बताइए बात कराऊं?’
‘नहीं-नहीं।’ माथुर बोला, ‘बात तो आप से करनी थी।’
‘सुबह बात करिएगा। अभी आप बहके हुए हैं।’
‘नहीं-नहीं बस एक मिनट!’
‘अच्छा बोलिए!’
‘आनंद को थोड़ा संभालिए!’
‘हूं।’
‘असल में वह टूट गया है भीतर ही भीतर। काफ़ी टूट गया है।’ माथुर बोला, ‘भाभी बुरा मत मानिएगा, पर हम लोगों को उसे बिखरने से, टूटने से बचाना है, सहेजना है।’
‘हूं।’ आनंद की बीवी बोली, ‘और कुछ?’
‘नहीं बस!’ माथुर बोला, ‘और हां, उसे कुछ कहिएगा नहीं।’
‘ओ.के. माथुर भइया!’
‘पर भाभी उस को हुआ क्या? जो इतना अपसेट हो गया है?’
‘हम लोग सुबह बात करें?’
‘ओ.के.।’ माथुर बोला, ‘अगेन सॉरी, भाभी!’
आनंद की बीवी ने फ़ोन रख दिया। और बेडरूम में आ गई। आनंद को झिंझोड़ा बोली, ‘खाना खाएंगे?’
‘नहीं दूध दे दो।’ आनंद बुदबुदाया, ‘मोबाइल आफ़ कर दो, और हां, दूध भी रहने दो, पानी दे दो।’
पानी पी कर वह सो गया।
सुबह देर से वह उठा तो पत्नी ने पूछा, ‘रात गाड़ी नहीं लाए थे क्या?’
‘क्यों?’
‘नीचे गाड़ी नहीं खड़ी है इस लिए पूछा।’
‘हां, कुछ प्राब्लम थी, इस लिए नहीं लाया।’
‘आफ़िस जाएंगे, नाश्ता तैयार करूं।’
‘नाश्ता दो, पर आफ़िस आज नहीं जाऊंगा। और मन कहेगा तो अब कभी नहीं जाऊंगा।’
‘क्या?’
‘हां।’
पत्नी को रात माथुर की बात याद आ गई। सो चुप रह गई। और ख़ुद भी आफ़िस नहीं गई। आनंद ने उस से पूछा भी कि, ‘क्या तुम आफ़िस नहीं जाओगी?’
‘नहीं आज मैं भी नहीं जाऊंगी।’
‘क्यों?’
‘कुछ नहीं बस आप के साथ रहूंगी।’ वह बोली, ‘बहुत दिन हो गए हम लोग एक साथ पूरे दिन नहीं रहे, आज रहेंगे।’
‘क्या बात है, आज बड़ी रोमेंटिक हो रही हो?’
वह मुसकुरा कर रह गई।
इसी डिप्रेशन में रात ज़्यादा पी ली : ज्योतिष और संतई भी डूब गई है जनाब इन चैनलों के बाज़ार में : आनंद ने मोबाइल का स्विच आन किया, फ़ोन का रिसीवर फ़ोन पर रखा और अख़बार पढ़ने लगा। अख़बारों में चुनावी गहमा गहमी ही ज़्यादा थी, ख़बर कम। प्रायोजित ख़बरों की जैसे बाढ़ आई हुई थी अख़बारों में। अंदर के एक पन्ने में उस के ज्ञापन वाली ख़बर भी दो पैरे की थी और क़ासिम का इनकाउंटर करने वाले दारोग़ा के सस्पेंशन की ख़बर भी थी।
वह अख़बार पढ़ ही रहा था कि मुनव्वर भाई का फ़ोन आया। बहुत उत्साहित थे। बता रहे थे कि वहां के अख़बारों में उन के मूवमेंट की ख़बर ख़ूब फैला के छपी है। भाषण देते हुए उन की फ़ोटो और भारी जन समूह की फ़ोटो एक साथ छपी थी। दारोग़ा के सस्पेंशन की ख़बर भी वह बताते रहे। साथ ही बताया कि, ‘आज का आंदोलन और ज़ोरदार होगा।’
‘पर मुद्दा क्या होगा?’
‘वही क़ासिम!’
‘क़ासिम में क्या?’
‘उस की फ़र्जी मुठभेड़!’
‘फ़र्जी मुठभेड़ नहीं मनुव्वर भाई, हत्या! क़ासिम की हत्या और हत्यारों के खि़लाफ़ मुक़दमा, उन की गिऱतारी।’
‘हां, हां यही-यही!’
‘और एक बात का विशेष ध्यान रखिएगा कि इस आंदोलन में शरारती तत्वों की शिरकत रत्ती भर भी नहीं हो। बिलकुल शांतिप्रिय ढंग से। सांप्रदायिक उफान भी नहीं आना चाहिए रत्ती भर भी। प्रशासन पर ही हमलावर रहिएगा भाषणों में।’
‘बिलकुल-बिलकुल।’ मुनव्वर भाई बोले, ‘हम अपनी ज़िम्मेदारी ख़ूब समझते हैं।’
‘हां अगर पुलिस लाठीचार्ज वग़ैरह भी करे जो भीड़ को तितर-बितर करने के लिए तो जवाबी पथराव वग़ैरह भी नहीं होना चाहिए। शांतिप्रिय आंदोलन चाहिए हमें यह हर क्षण याद रखिएगा।’
‘बिलकुल-बिलकुल।’ मुनव्वर भाई बोले, ‘महातमा जी के रास्ते से ही सांप्रदायिकता के खि़लाफ़ हम लड़ेंगे।’
‘एक्जे़क्टली!’
बात ख़त्म हो गई।
दोपहर में चेयरमैन के पी.ए. का फ़ोन आया। पूछने लगा, ‘सर, आज आप आफ़िस नहीं आए।’
‘हां भाई। कल आप की बातों ने मुझे बहुत परेशान कर दिया। डिप्रेशन में आ गया। इसी डिप्रेशन में रात ज़्यादा पी ली। पूरी देह टूट रही है। इस लिए नहीं आया।’
‘राइट सर, राइट! हम समझे कि आप ख़फ़ा हो गए।’
‘नहीं, नहीं। आप लोग अगर नहीं चाहते तो मेरी दिलचस्पी अभी इस्तीफ़ा देने की है भी नहीं। वह बोला, ‘यह तो आप लोगों पर डिपेंड करता है।’
‘नहीं सर इधर से ऐसी कोई बात नहीं है।’ पी.ए. बोला, ‘बस सर ज़रा एक बार आप महंत जी से बात कर लेते। रियलाइजे़शन कर लेते!’
‘क्या?’ आनंद भड़का।
‘नहीं सर, मैं ऐसा नहीं कह रहा!’
‘तो फिर?’
‘आनरेबिल चेयरमैन सर चाहते थे कि मामला किसी तरह रफ़ा दफ़ा हो जाता।’
‘तो अब मुझे महंत जी से माफ़ी मांगनी होगी?’ आनंद बोला, ‘ठोकर मारता हूं ऐसी नौकरी पर।’
‘माफ़ी नहीं सर!’
‘फिर?’
‘बातचीत सर!’
‘अभी तो आप रियलाइज़ेशन की बात कह रहे थे।’ आनंद बोला, ‘आप शायद जानते नहीं, जान लीजिए और चेयरमैन साहब को भी बता दीजिएगा कि अपनी आइडियालजी की क़ीमत पर मैं अपनी ज़िंदगी भी जीना गवारा नहीं करूंगा, यह
तो नौकरी है।’
‘राइट सर, राइट! आई आनर सर!’ वह बोला, ‘बस बातचीत कर के मामला निपटवा दीजिए।’
‘देखिए बातचीत इतना होने पर भी अगर भारत पाकिस्तान में हो सकती है तो महंत जी से बातचीत करने में मुझे ऐतराज़ नहीं है। कहिए उन से कि बातचीत, शास्त्रार्थ हर चीज़ के लिए मैं तैयार हूं। पर माफ़ी मांगने, घुटने टेकने और कंप्रोमाइज़ करने को मैं तैयार नहीं हूं।’
‘ठीक है आनंद जी, मैं बताता हूं। बस थोड़ा सा लैक्शेबिल होने की बात है।’
‘वो आप लोग हो लीजिए!’
बात ख़त्म हो गई।
आनंद जानता है कि चेयरमैन का पी.ए. स्पीकर आन कर बात करता है। चेयरमैन के सामने। चेयरमैन बात सुनता रहता है, इशारों से या लिख कर निर्देश देता रहता है, पी.ए. वैसा ही बोलता रहता है। इसी लिए वह भी बातचीत में चार क़दम आगे, दो क़दम पीछे की रणनीति बनाए रखता है। बाक़ी जानता तो वह भी है कि इस चुनावी बिसात में वह कहीं नहीं ठहरता। इस शतरंज में पैदल की भी हैसियत नहीं है उस की। राजा, रानी के बाद एक से एक हाथी, ऊंट, घोड़ा फैले पड़े हैं। सो चुनाव में कूदने की बात गीदड़ भभकी ही है। पारिवारिक ज़िम्मेदारियां हैं, बच्चों की पढ़ाई, लिखाई, शादी-ब्याह है, रुटीन ख़र्चे हैं, सो नौकरी की बाध्यता है। कहीं और प्लेट में सजा कर नौकरी रखी भी नहीं है। और कि वह यह भी जानता है कि आनंद के बहाने चेयरमैन महंत जी को भी सेट करने में लगा होगा ताकि बातचीत के बहाने आमदऱत बढ़े और बिज़नेस के फंदे में वह भी कंपनी का टूल बन जाए। ये पूंजीपति किसी को बेचने में सेकेंड भर की भी देरी नहीं लगाते। बड़ों-बड़ों को टूल और प्रोडक्ट बना लेने में इन्हें महारत है। किस हाथी को पैदल बना दें और किसी पैदल को घोड़ा वह ही जानते हैं। शतरंज की बिसात उन की, गोटियां उन की। खेल उन का। गोल्फ़ उन का, पोलो उन का। देश उन का। गोया देश, देश न हो खेल हो उन का।
ख़ैर शाम तक क़ासिम के इनकाउंटर टीम के खि़लाफ़़ हत्या के मुकदमे की ख़बर भी आ गई। प्रमुख सचिव गृह ने ख़ुद फ़ोन कर आनंद को यह ख़बर दी और कहा कि, ‘कांग्रीचुलेशंस!’
‘थैंक्यू! पर किस बात के लिए?’
‘अरे आप की सारी डिमांड्स कंपलीट हो गईं। इनकाउंटर टीम के खि़लाफ़़ हत्या का मुक़दमा लिखवाने के आर्डर्स हो गए हैं, मुआवजे़ के भी।’
‘अरे इस के लिए तो आप को बहुत-बहुत शुक्रिया!’
‘नहीं, नहीं शुक्रिया तो चीफ़ मिनिस्टर साहिबा को दीजिए। यह उन्हीं का फ़ैसला है। आ़टर आल उन्हें भी तो मुस्लिम वोटों की दरकार है। और फिर इस से तो महंत की राजनीति को भी धक्का लगेगा।’
‘चलिए इस सब से मुझे बहुत सरोकार नहीं है। मैं तो ख़ुश हूं बस इस बात से कि पीड़ित को न्याय मिल गया। वह भी इतनी जल्दी। जिस की कम से कम मुझे तो सच बताऊं, बहुत उम्मीद नहीं थी। और इतनी जल्दी तो क़तई नहीं। और आप की इस चीफ़ मिनिस्टर से तो हरगिज़ नहीं।’
‘चलिए अब आप का भी रास्ता साफ़!’
‘मतलब?’
‘आप के चुनाव लड़ने का मार्ग प्रशस्त हो गया। अच्छा ख़ासा आप गेन करेंगे!’
‘कहां की बात कर रहे हैं आप भी भाई साहब!’ आनंद बोला, ‘कहीं चुनाव-वुनाव लड़ने नहीं जा रहा मैं। इस चुनाव, इस राजनीति के लायक़ अब नहीं रहा मैं। कहां से इतना पैसा लाऊंगा, कहां से जातियों को भरमाऊंगा, हिंदू, मुसलमान कहां और कैसे लड़ाऊंगा?’
‘यह सब करने की आप को ज़रूरत भी अब कहां है? अब तो आप अपने शहर में हीरो हैं। पब्लिक टूट कर आप को वोट करेगी।’
‘इतनी ख़ुशफहमी में जीने की आदत पता नहीं क्यों मुझ में कभी नहीं रही।’
‘कुछ नहीं आनंद जी, कालीन बिछ गई है आप के लिए, बस अब आप को चलना है। आप के बस हां की देर है।’
‘समझा नहीं मैं।’
‘मैडम का सीधा प्रस्ताव है कि आप उन की पार्टी ज्वाइन कीजिए और अपने शहर से पार्टी के टिकट पर नामिनेशन कीजिए!’
‘यह आप क्या कह रहे हैं?’
‘चौंक गए न आप?’ प्रमुख सचिव गृह बोले, ‘मैं जानता था कि आप चौंकेंगे। खै़र, तो मैं आप की हां समझूं?’
‘यह पोलिटिकल प्रपोज़ल ब्यूरोक्रेटस कब से देने लगे भाई मैं तो समझ नहीं पा रहा।’
‘इस सब झमेले में आप मत पड़िए। आप तो बस हां कीजिए। फिर देखिए!’
‘पर वहां तो वह माफ़िया तिवारी का बेटा आलरेडी कंडीडेट डिक्लेयर है।’
‘वह कहां जीतने वाला है, यह तो मैडम भी जानती हैं।’
‘पर सुनता हूं कि मैडम टिकट में ही पैसे ले लेती हैं।’
‘यह सारे फै़क्टर्स आपके साथ निल हैं। मैडम तो बस महंत जी के खि़लाफ़ एक मज़बूत उम्मीदवार चाहती हैं जो उन्हें हरा दे। और आप वहां हीरो हो ही चुके हैं। महंत जी को टक्कर दे चुके हैं। ब्राह्मन हैं। एक प्लस प्वाइंट यह भी है। सोशल इंजीनियरिंग वाला फै़क्टर है ही। जुझारू छात्र नेता रहे ही हैं आप। सो आप आसानी से महंत जी को डिफ़ीट दे सकते हैं, ऐसा मैडम मानती हैं।’
‘मैडम कुछ नहीं जानतीं।’ आनंद बोला, ‘ज़मीनी हक़ीक़त यह है कि कोई शीर्षासन भी कर ले तो आज की तारीख़ में महंत जी को हराना मुश्किल है। महंत जी की जड़ें वोटरों में बहुत गहरी हैं, मंदिर में आस्था के चलते वह जीत ही जाएंगे। आप नहीं जानते, मैडम नहीं जानतीं, पर मैं जानता हूं वहां की जनता को।’
‘कुछ नहीं, बड़ी-बड़ी इंदिरा गांधी हार गई हैं और फिर मैडम के करिश्मे को आप नहीं जानते, मिट्टी पर भी हाथ रख देती हैं तो सोना हो जाता है। फिर आप तो हीरा हैं, मैडम के लिए। बस अब आप हां कीजिए तो मैं मीटिंग फ़िक्स कराता हूं आप की मैडम के साथ।’
‘भाई मुश्किल है। बहुत मुश्किल।’
‘क्या?’
‘हां।’
‘क्यों?’
‘मेरी आइडियालजी मुझे एलाऊ नहीं करती इस काम के लिए।’ आनंद बोला, ‘मैडम जो राजनीति कर रही हैं या जिस राजनीति की वह हामीदार हैं, मैं उन की पार्टी में, उन के साथ एक क़दम नहीं चल सकता। लोहिया से सीखा था, जाति तोड़ो पर यह मोहतरमा तो इन दिनों जाति जोड़ो की राजनीति कर रही हैं, जाने कहां-कहां से जातियां खोज रही हैं, जातियों का ध्रुवीकरण कर सोशल इंजीनियरिंग की आइंस्टीन बनी हुई हैं। सो उन को अपना नेता नहीं मान सकता, उन की सामंती तानाशाही, जातिवादी राजनीति, फ़ासिस्ट तरीके़, गांधी के खि़लाफ़ उन का लगातार बोलना, ज़हर बोलना, कुछ भी तो मुझे सूट नहीं करता उन का!’
‘अरे यह कारपोरेट सेक्टर की दो कौड़ी की नौकरी सूट करती है आप को?’
‘नहीं करती।’
‘पर आप करते हैं।’
‘मजबूरी है जीवन यापन की।’
‘तो यह सक्रिय राजनीति में आने में, जो थोड़ी सी आइडियालजी आड़े आती है, उस को भी डायल्यूट कर लीजिए।’
‘मुश्किल है भाई साहब! मुझे माफ़ कीजिए।’ आनंद बोला, ‘नौकरी मैं अपने मन की नहीं कर सकता, मजबूरी है। पर राजनीति तो मैं अपने मन की ही करूंगा। मन की नहीं मिली तो नहीं करूंगा। वो आप ने एक गाना सुना होगा, दुनिया करे सवाल तो हम क्या जवाब दें! तो दुनिया छोड़िए यहां तो ख़ुद ही से करें सवाल तो हम क्या जवाब दें?’ वह बोला, ‘सॉरी मेरे लिए यह नामुमकिन है।’
‘आप एक बार फिर सोच लीजिएगा आनंद जी!’
‘एक बार?’ आनंद बोला, ‘हज़ार बार सोच कर ही यह कहा आप से!’
‘दिक़्क़त यह है कि मैडम कहीं बुरा न मान जाएं!’
‘तो मानने दीजिए! इस से क्या फर्क़ पड़ता है!’
‘फ़र्क़ तो मुझे पड़ता है। मैं तो कानफ़िडेंट था कि आप मान जाएंगे।’
‘चलिए आप से अगेन सॉरी!’
‘मैडम की नाराज़गी आप नहीं जानते?’
‘फिर एक गाना दुहरा दूं? ये भी पुराना है- तीरे नज़र देखेंगे, ज़ख़्मे जिगर देखेंगे!’
‘चलिए आप तो गानों में बात निकाल दे रहे हैं और आप से एक गोल्डेन चांस निकला जा रहा है, यह आप नहीं सोच रहे? अरे सोचिए कि पूरा ले़ट, थर्ड फ्रंट मैडम को प्राइम मिनिस्टर डिक्लेयर कर चुका है तो कुछ सोच कर ही।
आखि़र उन सब के पास भी अपनी-अपनी आइडियालजी है!’
‘आइडियालजी है?’ आनंद बोला, ‘अरे दुकान कहिए, दुकान! आइडियालजी की दुकान, सत्ता ख़रीदने बेचने की दुकान! गोया कबाड़ी की दुकान!’
‘फिर भी!’
‘आप मेरे जज़्बात, मेरी बात क्यों नहीं समझते?’
‘आप के इस जज़्बे को सैल्यूट! पर फिर भी आप विचार करिएगा, मैं फ़ोन फिर करूंगा!’
‘इस बात के लिए न ही करिए तो बेहतर!’
‘आप को तो संत होना चाहिए था, या हो जाना चाहिए!’
‘क्या बात कर रहे हैं आप भी, क्यों गाली दे रहे हैं?’
‘अब इस में गाली की क्या बात हो गई?’
‘आप देखिए जो चैनलों पर हैं, वही तो संत हैं?’
‘हां, और क्या?’
‘और ये सब संत, साध्वी हैं कि अभिनेता, अभिनेत्री हैं? गा रहे हैं, बजा रहे हैं, नाच रहे हैं, नचा रहे हैं, दुकान खोले बैठे हैं। पैसा लुटा रहे हैं, पैसा कमा रहे हैं। हज़ारों करोड़ का कारोबार है इनका। अरबों की हैसियत है इनकी और आप कह रहे हैं संत हैं ये सब! ज्योतिष और संतई भी डूब गई है जनाब इन चैनलों के बाज़ार में।’
‘चलिए यह सब फिर कभी। आप को फिर फ़ोन करता हूं।’
‘अरे हां यह बताइए कि कहीं मेरी असहमति, मेरे इंकार से बाक़ी सारे फ़ैसले बदल तो नहीं जाएंगे?’
‘अरे नहीं, वह सारे फ़ैसले हो जाने के बाद ही मैं ने आप को फ़ोन किया है।’ वह बोले, ‘चुनाव आयोग से अनुमति ले कर ही यह सब किया गया है। नहीं मामला भड़क जाएगा तो लेने के देने पड़ जाएंगे।’
‘ओ.के., ओ.के.।’
उस ने फ़ोन रख कर पत्नी को बताया कि, ‘मैडम का प्रपोज़ल है कि उन की पार्टी से मैं चुनाव लड़ूं!’
बात सुनते ही पत्नी लपक कर गले लिपट गई। बोली, ‘इस से अच्छी और क्या बात होगी?’ उसे जल्दी-जल्दी चूमती हुई बोली, ‘आप का डिप्रेशन, फ्ऱस्ट्रेशन सब छूट जाएंगे।’
‘पर मैं ने तो इंकार कर दिया।’
‘क्या?’ वह जैसे आसमान से गिरी। उस की बाहों का कसाव ढीला पड़ गया। फिर वह दूर छिटकती हुई बोली, ‘दुनिया बदल रही है, आप भी बदलिए!’
‘तो जा कर, दौड़ कर उस मूर्ख औरत के पैर छू लूं? अपने को गिरवी रख दूं? ताकि जो सांस ले भी पा रहा हूं, न ले पाऊं? जातियों के हिमालय में जा कर गल जाऊं?’
‘नहीं यह तो मैं नहीं कह रही।’
‘तो फिर?’
‘चुनाव लड़ना चाहिए!’
‘उस महंत के खि़लाफ़ जो एक नंबर का धूर्त है। संतई, साधना भूल कर आपराधिक सांप्रदायिक और हिंसक समाज की वकालत कर रहा है।’
‘हां।’ वह बोली, ‘तो उस के आगे आप हथियार मत डालिए।’
‘वहां की आधी से अधिक आबादी उस की अंध समर्थक है। ज़मानत भी नहीं बचेगी मेरी। फज़ीहत हो जाएगी, दाग़ लगेगा ऊपर से। जीवन भर की कमाई नष्ट हो जाएगी।’
‘कुछ नहीं मैडम की हवा है, प्राइम मिनिस्टर होने जा रही हैं, लड़ जाइए चुनाव आप भी मिनिस्टर हो जाइएगा, धड़ाक से। इस नौकरी से छुट्टी पा जाइएगा। आप के क़द से मेल नहीं खाती यह नौकरी।’ वह बोली, ‘और फिर नौकरी के लिए आप बने भी नहीं हैं, आप तो जन्मजात पोलिटिकल हैं।’
‘ख़ाक हैं!’ वह बोला, ‘अपने छोटे से गांव की नस तो समझ नहीं पाया आज तक! अपने गांव से दस-बीस वोट भी नहीं पा सकता और तुम संसदीय चुनाव की बात कर रही हो?’
‘मैडम के नाम पर आप को वोट मिलेंगे। ब्राह्मण, दलित, मुसलमान सभी। आप जीत जाएंगे।’
‘इतने सालों से मेरे साथ रह रही हो, इतना ही मुझे समझ पाई हो?’ आनंद उदास हो कर, बहुत धीरे से बोला।
पत्नी चुप रह गई।
बात टालने के लिए वह अकसर इसी चुप रहने का हथियार इस्तेमाल करती है। बहुत बड़ा हथियार है यह उस का।
चुनावी दंगल, आफ़िस की आफ़त, गांव की मुश्किलें सब कुछ छोड़ कर वह दूसरे दिन पत्नी, बच्चों को ले कर पहाड़ घूमने निकल गया।
यह कौन सी प्यास है?
जो पहाड़ पर ही बुझेगी?
कि संत होने की ओर वह अग्रसर है?
कोई गुफा, कोई कंदरा ढूंढ कर धूनी रमा लेगा वह?
या कि यह पलायनवादिता है उस की?
या फिर वह कहीं फिसल न जाए अपने मूल्यों, सिद्धांतों और आइडियालजी वगै़रह-वग़ैरह से!
शायद सब कुछ मिला जुला हो।
वह कभी सुनता था कि तमाम राजस्थानी, और महाराष्ट्रियन पंडित अपना धर्म बचाने के लिए नदियों के किनारे-किनारे भागते-भागते पहाड़ों में आ कर छुप गए थे। तो क्या वह भी अपना धर्म बचाने के लिए पहाड़ों पर आ गया है?
वह नहीं जानता। पर आ गया है।
पत्नी तो बहुत नहीं, पर बच्चे ख़ूब ख़ुश हैं। उसे अच्छा लग रहा है। पहाड़ों का हुस्न इस में और इज़ाफ़ा कर रहा है। उसे एक फ़िल्मी गाना याद आ रहा है, ‘हुस्न पहाड़ों का क्या कहने कि बारों महीने यहां मौसम जाड़ों का।’ नैनीताल के ताल वह घूम रहा है। नैनी ताल, भीम ताल, नौकुचिया ताल। सारे सरकारी गेस्ट हाउस चुनावी पर्यवेक्षकों और उनके सहायकों ने घेर रखे हैं। बमुश्किल नैनीताल क्लब में एक सूट मिल पाता है। सीज़न भी पीक पर है और चुनाव भी। पर्यटकों के लिए चुनाव बैरियर है या चुनावी कर्मियों के लिए पर्यटक बैरियर हैं, कहना मुश्किल है। वह तल्ली ताल से मल्ली ताल, मल्ली ताल से तल्ली ताल के राउंड मारता है। दो दिन में ही सब कुछ देख दाख कर बच्चे बोर हो गए हैं। बोटिंग कर के भी। एक उस की पुरानी महिला मित्र हैं, वकील हैं, सोशल एक्टिविस्ट भी और यहां बोट क्लब की मेंबर भी। खाने पर बुलाती हैं। घर में नहीं, बोट क्लब पर। रहती वह भुवाली में हैं। बताती हैं कि घर में कुछ कंस्ट्रक्शन चल रहा है सो घर तितर बितर है, डिस्टर्ब है। सो यहीं। पत्नी, बच्चे सब वेजेटेरियन हैं। तो वह कहती हैं, ‘हम लोग भी वेज ले लें?’
‘आप की मर्ज़ी!’ आनंद बोला, ‘पर मैं तो चिकेन खाऊंगा। तंदूरी चिकेन भी और बटर चिकेन भी।’
‘ओ.के.।’ वकील मित्र बोलीं, ‘तो ड्रिंक भी?’
‘श्योर!’
वह उस के लिए पीटर और अपने लिए बोदका आर्डर करती हैं। इशारों से पत्नी के लिए पूछती हैं तो वह इशारों में बताने के बजाए बोल पड़ता है, ‘अरे नहीं।’
पत्नी और बच्चे बिदके हुए हैं कि यह औरत हो कर भी बोदका पीती है। बोदका मतलब रशियन ठर्रा। पर औरतें इसे इस लिए पसंद करती हैं कि एक तो स्मूथ है दूसरे, स्मेल मामूली है। वह पहले भी इस वकील मित्र की मेहमाननवाज़ी क़बूल चुका है। पर तब की वह यहां अकेले आया था। तब भी वह इसी बोट क्लब में डिनर पर आया था। तब एक सेमिनार में आया था अब की घूमने। घूमने कि बचने? बचने मुश्किलों से। बचने फिसलने से। बचने डिप्रेशन और फ्रस्ट्रेशन से। बचने की और भी कई तफ़सील हैं। पर अभी वह बच रहा है कि पत्नी ज़्यादा न बिदके। महिला मित्र का पीना देख कर। बच्चे तो अपने पिज़्ज़ा विज़्ज़ा में लग गए हैं। और वह महिला मित्र से ज़्यादा पत्नी से बतियाने में मसरूफ है और बता रहा है कि, ‘नैनीताल में उसे दो ही चीज़ें सब से ज़्यादा अच्छी लगती हैं। एक तो यहां का राजभवन। और राजभवन क्या बल्कि उस का लॉन, उस का आर्किटेक्ट। दूसरे यहां का यह बोट क्लब। बेहद खूबसूरत, सलीके़दार और सारी सुविधाओं से भरपूर।’ वह बता रहा है कि, ‘इस की लाइब्रेरी भी बहुत अच्छी है और इस में लकड़ियों का काम तो ग़ज़ब का है।’
‘ये तो है!’ पत्नी इस बात को मानती है और ठंड से सिकुड़ जाती है।
‘चलते समय ही कहा था इनर या स्वेटर वग़ैरह पहन लो। बाहर ताल के किनारे बैठोगी तो ठंड लगेगी। पर मानती कहां हो?’
‘मैं अपना स्वेटर दूं?’ महिला मित्र बोली।
‘नहीं-नहीं।’ कहती हुई पत्नी और बिदक गई। बोली, ‘इस शॉल से काम चल जाएगा।’
पत्नी कहीं ज्वालामुखी न बन जाए सो आनंद ने दो पेग पर ही इतिश्री कर ली। चिकेन तंदूरी ख़त्म किया। और कह दिया कि, ‘अब खाना खाया जाए!’ क्यों कि उस के भड़कने के एक नहीं तीन-तीन कारण थे। शराब, महिला मित्र और उस का शराब पीना।
‘बड़ी जल्दी है आप को? कहीं और भी जाना है क्या?’
‘नहीं, नहीं।’
‘तो एक दो ड्रिंक और लीजिए!’
‘नहीं-नहीं मैं नहीं।’ सा़ट ड्रिंक ले रही पत्नी बोल पड़ी।
‘सॉरी आप के लिए नहीं आनंद जी के लिए कहा।’
‘अच्छा?’ पत्नी बोली ऐसे गोया किसी गुब्बारे में पिन चुभो रही हो। और बिदक गई।
‘सॉरी अब मन नहीं है।’ आनंद ने फिर हाथ जोड़ लिया।
‘आज आप पता नहीं क्यों संकोच कर रहे हैं?’ महिला मित्र शिष्टाचार में बोलीं।
‘आज मैं हूं न इन के साथ?’ पत्नी उन का सारा शिष्टाचार धोती हुई बोली।
‘अच्छा-अच्छा ये बात है!’ महिला मित्र खिलखिलाई। बोली, ‘मतलब आप से डरते हैं?’
‘डरने पर तो ये हाल है!’ पत्नी तंज़ करती हुई बोली, ‘जो न डरते तो जाने क्या होता?’
‘ओह!’ कह कर मित्र ने बात टाली और कहने लगी, ‘सुबह का अख़बार देखा आप ने?’
‘क्यों?’
‘आप की चीफ़ मिनिस्टर का एक बयान छपा है जिस में उस ने एक क्रिमिनल मुख़्तार अंसारी को ग़रीबों का मसीहा बताया है। ये तो हद है!’
‘हद क्या वेटिंग प्राइम मिनिस्टर है भई!’ आनंद तंज़ भरे अंदाज़ में बोला।
‘वो तो है ही!’ पत्नी बोली, ‘आप भी मान जाते तो कितना अच्छा होता!’
‘ओह तुम तो फिर!’ आनंद बोला, ‘यह चैप्टर तो क्लोज़ हो चुका है हमारी ओर से!’
‘कौन सा चैप्टर भई!’ मित्र मुसकुराई।
‘सोचिए चीफ़ मिनिस्टर ने इन को अपनी पार्टी ज्वाइन करने और एम.पी.का टिकट प्रपोज़ किया। और ये इंकार कर के यहां भाग आए हैं।’
‘आनंद जी, इज शी राइट?’
‘हां।’ आनंद धीरे से बोला।
‘आफ़र बुरा नहीं, एक्सेप्ट करना चाहिए आप को।’
‘आप मुझे जानती हैं?’
‘हां।’
‘फिर भी ऐसा करने को कह रही हैं?’
‘ओह सॉरी!’ मित्र बोलीं, ‘आनंद जी पर एक बात बोलूं? इफ़ यू डोंट माइंड!’
‘हां, हां बिलकुल।’
‘जिं़दगी में हम लोग कितने सारे कंप्रोमाइज़ करते हैं तो पालिटिक्स में भी कंप्रोमाइज़ चलता है। चलता है क्या दौड़ता है!’
वह चुप रहा।
उसे याद आया कि अभी पिछले दिनों उस के शहर में उस के पुराने मित्र और पत्रकार अशोक जी ने भी उस से और मुनव्वर भाई से कहा था कि पालिटिक्स में एक शब्द होता है कंप्रोमाइज़। जो आप लोग नहीं कर पाए।
‘क्यों आनंद जी!’ मित्र ज़रा देर रुक कर बोलीं, ‘ऐम आई राइट?’
‘नो!’ आनंद थोड़ा सख़्ती से बोला, ‘अगर आप को ज़ोर की प्यास लगी है और पास कहीं पानी नहीं है, नाली का बहता या रुका हुआ पानी ही उपलब्ध है तो क्या उसे पी लेंगे? नहीं न! तो तमाम सारी मुश्किलों के बावजूद राजनीति मेरे
लिए समझौता नहीं है। राजनीति मेरे लिए अभी भी एक संभावना है। जैसे साफ़ पानी की तलाश!’
‘जब इतने कानफ़िडेंट हैं आप तो अब मैं क्या कह सकती हूं।’
‘हां क्यों कहंेगी?’ पत्नी भी सख़्ती से बोली, ‘आप जैसे दोस्तों ने ही इन का दिमाग़ ख़राब कर रखा है?’
‘जो भी हो यह चैप्टर यहीं क्लोज़ करें?’ वह पत्नी की तरफ़ मुसकुरा कर देखते हुए बोला।
‘आप किसी की मानते ही कब हैं?’ वह बोली, ‘पता नहीं कब आप के सपनों की राजनीति इस धरती पर होगी और आप सक्रिय राजनीति में आएंगे। मुझे तो लगता है आप सोशल एक्टिविस्ट ही बने रहेंगे जिं़दगी भर!’
‘तो कोई पाप तो नहीं है न यह!’ वह बोला, ‘कुछ तो करेंगे न। पर ग़लत नहीं करेंगे यह तो तय है।’
खाना ख़त्म हो चुका था। नींबू पानी का बाऊल आ चुका था हाथ धोने के लिए। बात भी ख़त्म हो गई। महिला मित्र को उस ने थैंक्यू कहा। अच्छे से डिनर के लिए। मित्र पत्नी से गले मिल कर विदा हुई। वह भी बोट क्लब से नैनीताल क्लब के लिए चला। बाहर हलका कोहरा था। धुएं जैसा एहसास कराता कोहरा।
यह क्या था?
पत्नी के मन में उठता संशय?
मुख्यमंत्री का प्रस्ताव न मानने का संशय या महिला मित्र के साथ शराब पीने का संशय?
जाने क्या था।
पर गुलाबी नशे के बीच यह कोहरा उसे अच्छा लगा। उस ने उसे हाथ से छूना चाहा। पर हाथ में नहीं आया। तो क्या उस की ज़िंदगी कोहरा हो गई है? हवा, धुआं, कोहरा! यह सब हाथ क्यों नहीं आते? क्या यह हवा, धुआं, कोहरा भी सफलता हैं? कि हाथ नहीं आते? कि सफलता के प्रतिमान हैं?
पता नहीं।
पर टीन एज क्रास कर रही बेटी कह रही है, ‘पापा अब की नैनीताल आने के बजाय कश्मीर चलना चाहिए था। यहां तो कई दफ़ा आ चुके हैं। पर कश्मीर कभी नहीं गए!’
‘कश्मीर की फ़िज़ा आज कल ख़राब चल रही है बेटी। तिस पर चुनाव। ख़तरे से ख़ाली नहीं है इन दिनों वहां जाना।’
बेटी चुप हो जाती है।
‘कुछ नहीं बेटी यहां हम घूमने नहीं, सिर्फ़ मौसम का लुत्फ़ उठाने आए हैं और मन हलका करने!’
‘और उस चुड़ैल के साथ पीने!’ पत्नी ठुनक कर बोली।
‘ओह तुम चुप नहीं रह सकती ज़रा।’ वह बोला, ‘इस कोहरे का मज़ा लो।’
पर तब तक नैनीताल क्लब आ गया था।
कोहरा छंट गया था।
तो क्या कोहरा भी पानी पीने चला गया था?
यह कौन सी प्यास है?
या प्यास की कौन सी फांस है?
उस का मन करता है कि रात-वात की परवाह किए बिना नैनीताल के चाइना टाप की ऊंचाई पर जा चढ़े और जा कर चीख़ कर सब को बताए कि यह राजनीति हमारी है! मुग़ले आज़म का सलीम जैसे चीख़ा था अनारकली मेरी है!
तो क्या जैसे सलीम घिर गया था अकबर के बुज़दिल सिपाहियों के घेरे में और बेहोशी के आलम में चीख़ा था अनारकली मेरी है, वैसे ही वह भी घिर गया है प्रजातंत्र के इन बुज़दिल राजनीतिज्ञों के घेरे में? इसी लिए वह चीख़ना चाहता है कि राजनीति हमारी है! सलीम-अनारकली, अकबर की कहानी कहते हैं कि फ़ुल फ़ैंटेसी है, इतिहास में यह कथा कहीं दर्ज नहीं है। सब कुछ कमाल अमरोही की कलम की उपज है।
तो क्या राजनीति में वह भी तो कोई फैं़टेसी ही नहीं जी रहा? अगर वह भी राजनीति में फ़ैंटेसी ही जी रहा है तो यह किस कमाल अमरोही के कलम की उपज है? कौन के. आसिफ़ उस की फैंटेसी को डायरेक्ट कर रहा है कि वह चाइना टाप पर जा कर, चीख़ कर आधी रात को सब को सुनाना चाहता है कि यह राजनीति हमारी है। फिर कौन सुनेगा? पूरा देश या सिर्फ़ नैनीताल?
वह नैनीताल जिसने वैसी मुश्किल में नारायण दत्त तिवारी को हरा दिया। तब नैनीताल ने उन्हें जिताया होता तो वह शायद देश के प्रधानमंत्री हुए होते। पर नहीं, उनके हारने का सबब बन गया कि तब चुनाव न लड़ने के बावजूद नरसिंहा राव धो पोंछ कर निकाले गए। प्रधानमंत्री बन गए। बाबरी मस्जिद गिर गई, हर्षद मेहता कांड हो गया, मनमोहनी आर्थिक उदारीकरण देश के गर्भ में ऐसे आ गिरा गोया कुंती के गर्भ में कर्ण। देश जिस की क़ीमत अब चुका रहा है, जाने कब तक चुकाएगा, अमरीका के हाथों गिरवी हो गया। कि बंधुआ हो गया। और बेचारे नारायण दत्त तिवारी? जिस उत्तर प्रदेश के वह चार बार मुख्यमंत्री रहे थे, उसी के खंडित आठ ज़िलों के प्रदेश उत्तराखंड के मुख्यमंत्री बनने को विवश हो गए। छुटभैयों ने फिर भी उन्हें चैन नहीं लेने दिया। राज्यपाली में दिन बिताने को विवश हैं विकास पुरुष! यह कौन सी यातना, कौन सी प्यास और कौन सी फांस है?
उन्हें यह यातना, यह प्यास और यह फांस देने वाले इस नैनीताल में वह चीख़ना चाहता है कि राजनीति हमारी है! कौन सुनेगा, किस को सुनाएं की मनःस्थिति में आ गया है वह!
नारायण दत्त तिवारी पुराने समाजवादी हैं। संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी से होते हुए वह कांग्रेस में आए थे, कांग्रेस तिवारी बनाई, फिर कांग्रेस में लौटे। तो क्या तिवारी पुराने समाजवादी हैं इस लिए उस की भावनाएं, उन की ओर द्रवित हो रही हैं, या उन की यातना से उसे सहानुभूति हो रही है। और वह यह भूल जा रहा है कि संजय गांधी की चाकरी उन्हों ने भी की है और कि इमरजेंसी के समय में वह ही उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री भी थे। उसी दौर में उसे जेल भुगतनी पड़ी थी। या कि फिर बाद के दिनों में कुछ प्रशासनिक मदद उन्होंने की थी, उसकी इस नौकरी में भी वह एक फै़क्टर बने थे, वह भावनाएं ही उन्हें उनके पक्ष में उसकी सहानुभूति की गंगा यमुना बहा रही हैं?
पता नहीं?
पर नैनीताल की उस कृतघ्नता के लिए वह नैनीताल को फिर भी माफ़ नहीं कर पाता। नहीं जाता वह चाइना टाप। वह राजनीति में फैंटेसी या फैंटेसी की राजनीति में नहीं जीना चाहता। ज़मीनी सच्चाई, ज़मीनी राजनीति को जीना चाहता है वह!
ठंड बढ़ गई है। उस ने कंबल देह में और कस के लपेट लिया है।
दूसरा दिन इतवार का है। शाम को वापस लखनऊ लौटना है। दिन में दो तीन लोगों से मिलना है। ख़ास कर एक जस्टिस हैं। लखनऊ में पहले एडवोकेट थे। अब यहां जस्टिस हो कर आ गए हैं। लंच उन्हीं के साथ है। उन की पत्नी बहुत अच्छा खाना बनाती हैं और बहुत ही सलीक़े से, बहुत ही मुहब्बत से खिलाती हैं। बिलकुल शबरी भाव से। खाना खा कर मन और आत्मा दोनों तृप्त हो जाते हैं। आनंद आ जाता है। वह चाहे जो खिलाएं। वह अकसर कहती भी थीं लखनऊ में कि, ‘आनंद जी को तो बात बेबात आनंद आ जाता है। सूखी रोटी नमक भी खिला दो तो भी उन को आनंद आ जाता है।’
‘भाभी जी आप खिलाती ही कुछ इस तरह हैं कि मैं क्या करूं? अवश हो जाता हूं।’
पर यह लखनऊ की बात थी।
यहां नैनीताल में बात अलग थी। ख़ानसामा, अर्दली में वह फंस गई थीं। आनंद को देखते ही चहक पड़ीं। बोलीं, ‘अरे हमें तो पता ही नहीं पड़ा कि आप लोग आ रहे हैं। नहीं खाना ख़ुद बनाती।’
‘बनाया नहीं तो क्या हुआ?’ आनंद बोला, ‘परोसने में अपना हाथ लगा दीजिएगा। आप का हाथ लगते ही आप वाली मिठास आ जाएगी।’
‘पर ख़ुद बना कर ख़ुद परोसने की बात ही और है।’ वह बोलीं, ‘उस सुख को आप मर्द क्या जानें?’
‘क्यों नहीं जानेंगे?’ वह बोला, ‘आखि़र आप लोगों का बनाया खाने वाले हमीं लोग तो हैं।’
‘ये तो है।’
‘पता है आप को कि एक आदमी बहुत दिनों तक घर से बाहर रहा। एक दिन घूमते-घामते वह ऐसे ढाबे पर पहुंचा जहां बाहर बोर्ड पर लिखा था, बिलकुल घर जैसा खाना। वह लपक कर ढाबे में घुस गया। पर जब खाना सामने आया और वह खाने लगा तो झेल गया। वेटर को बुलाया और पूछा, ये क्या है? दाल में नमक ज़्यादा, रोटी जली हुई, चावल कच्चा! यह सब क्या है? तो वेटर बोला बोर्ड नहीं पढ़ा था? वह बोला- पढ़ा था। तो वेटर बोला- फिर क्यों झल्ला रहे हो? बिलकुल घर जैसा खाना नहीं है क्या?’
‘अरे अभी तक तो आप शेर ही सुनाते थे अब लतीफ़े भी सुनाने लगे?’ वह बोलीं।
‘लतीफ़ा?’ आनंद बोला, ‘ये हकीक़त आप को लतीफ़ा लगती है तो मैं क्या कर सकता हूं भला?’ कह कर वह ख़ुद मुसकुराने लगा।
लखनऊ से एक वकील साहब भी सपरिवार नैनीताल घूमने आए थे। यहां वह भी लंच पर थे। और जब एक एडवोकेट और जस्टिस बैठे हों तो मुक़दमों की बात न चले यह हो नहीं सकता।
‘भई देखिए मैं तो हमेशा से कहता आ रहा हूं कि इलाज और न्याय इस देश में अब एक सपना है, बल्कि मृगतृष्णा है।’
‘हां भाई साहब हो तो गया है।’ वकील साहब बोले, ‘लेकिन एक बात है ब्रिटिशर्स न्याय करना भी जानते थे। और जो कहते हैं कि न्याय हो और होता हुआ दिखाई भी दे, वह न्याय दिखाते भी थे।’
‘वह सर्वशक्तिमान लोग थे भाई।’ जस्टिस बोले।
‘नहीं भाई साहब लखनऊ में एक क़िस्सा आज भी चलता है। हो सकता है आप भी सुने हों। मलिहाबाद में एक बाग़ का झगड़ा था। एक विधवा औरत थी। वह कहती थी कि बाग़ मेरा है। उस औरत का देवर कहता था कि बाग़ मेरा है। काग़ज़-पत्तर, साक्ष्य वग़ैरह दोनों के पास थे। वह अंगरेज़ जज तय नहीं कर पा रहा था कि बाग़ का मालिकाना हक़ किस के पक्ष में तय करे। अंततः एक दिन रात में ड्राइवर से कहा कि एक बड़ी सी रस्सी रख लो गाड़ी में और गाड़ी निकालो। फिर वह उस बाग़ में पहुंचा। ड्राइवर से कहा कि वह उसे एक पेड़ में बांध दे। ड्राइवर घबराया। कहने लगा साहब अंगरेज़ जज को बांधने की बहुत बड़ी सज़ा मिल जाएगी। नौकरी चली जाएगी। अंगरेज़ जज ने उसे डांटा और कहा कि ऐसे तो नहीं पर मुझे जो नहीं बांधोगे तो ज़रूर नौकरी चली जाएगी और सज़ा भी मिलेगी। फिर ड्राइवर ने एक पेड़ से अंगरेज़ जज को बांध दिया। अंगरेज़ जज ने ड्राइवर से कहा कि अब तुम गाड़ी ले कर यहां से जाओ। और कहीं किसी से कुछ बताना मत। ड्राइवर गाड़ी ले कर चला गया। सुबह हुई तो लोगों ने देखा कि एक अंगरेज़ पेड़ से बंधा पड़ा है। इलाक़े में सनसनी फैल गयी। भीड़ इकट्ठी हो गई। पुलिस आ गई। पुलिस ने पेड़ की रस्सी खोल कर उस अंगरेज़ को छुड़ाना चाहा और पूछा कि साहब किस ने बांध दिया आप को। अंगरेज़ जज ने बताया कि जो इस बाग़ का मालिक है, उसी ने हम को बांधा है। बाग़ के मालिक के दोनों दावेदारों को बुलाया गया। पहले विधवा औरत का देवर आया। उस से पूछा गया कि क्या इस बाग़ के मालिक तुम हो और अंगरेज़ जज साहब को बांधा है। छूटते ही विधवा औरत के देवर ने हाथ जोड़ लिए और बोला कि साहब यह बाग़ हमारा नहीं, एक विधवा औरत का है, उसी ने बांधा होगा जज साहब को। विधवा औरत बुलाई गई। उस ने आते ही बेधड़क कहा कि हां, बाग़ हमारा है। यह कहते ही पुलिस ने उसे गिऱतार कर लिया। पर अंगरेज़ जज ने पुलिस से कहा कि इसे छोड़ दो। यह बेक़सूर है। मुझे तो बस यह जानना था कि यह बाग़ किस का है। और यह पता चल गया। फिर उस ने फै़सला उस विधवा औरत के पक्ष में कर दिया।’ वकील साहब बोले, ‘बताइए भाई साहब आज है किसी जज में यह जज़्बा! जो इस तरह न्याय दे सके।’
‘भई मैंने पहले ही कहा कि वह लोग सर्वशक्तिमान थे।’ जस्टिस बोले, ‘फिर आज की तारीख़ में हम न्याय इस तरह दे भी नहीं सकते। यह एक महज़ क़िस्सा है कोई साइटेशन नहीं है। और क़िस्सों के आधार पर फ़ैसले नहीं होते। फै़सले होते हैं संविधान और क़ानून के हिसाब से। और वह जितना परमिट करता है, हम करते हैं। हम कोई जहांगीर का दरबार लगा कर नहीं बैठे हैं। कि किसी ने घंटा बजाया और उसे जहांगीरी न्याय मिल जाए। किंवदंतियां और क़िस्से अपनी जगह हैं। क़ानून और संविधान अपनी जगह। देश संविधान और क़ानून की रोशनी में चलता है, क़िस्से, कहानियों और किंवदंतियों से नहीं, इतना तो आप लोग भी जानते हैं।’
‘अब हमारी अदालतें बीमार हैं भाई साहब, यह बात स्वीकार कर लेने में कोई हर्ज मेरे ख़याल से है नहीं।’ आनंद बोला, ‘हमारा ज्यूडिशियल सिस्टम कोलैप्स कर गया है।’
‘हूं यह मानता हूं।’ जस्टिस धीरे से बोले।
‘कार्यपालिका और न्यायपालिका हमारे सिस्टम के लीवर और किडनी हैं। और यही दोनों चौपट हुए जा रहे हैं तो समाज भला कैसे स्वस्थ रह सकता है, यह सोचने की बात है।’ आनंद बोला।
‘और जो समाज पचास प्रतिशत से सत्तर-अस्सी प्रतिशत आरक्षण पर आधारित हो, वह भी भला कैसे स्वस्थ हो सकता है, यह भी तो सोचिए।’ वकील साहब बोले।
‘तो यह भी तो न्यायपालिका की देन है।’ आनंद बोला, ‘मंडल पीरियड में सुप्रीम कोर्ट भी मंडलाइज़ हो गई। आरक्षण चाहिए समाज को यह तो मैं मानता हूं। पर बूटा सिंह, मीरा कुमार, पासवान या मायावती जैसे कहां से दलित हैं मैं नहीं जानता। करुणानिधि, जय ललिता, लालू और मुलायम जैसे कहां के पिछड़े हैं यह भी मेरे लिए पहेली है। हां, विचारों से दलित और पिछड़े हैं यह तो मैं स्वीकारता हूं। तो आर्थिक आधार वाला आरक्षण ही क्यों नहीं सुप्रीम कोर्ट ने लागू किया? दोषी तो न्यायपालिका ही है! अच्छा चलिए नौकरी में आरक्षण तो था ही, प्रमोशन में भी आरक्षण! यह किस लिए भाई? जातियों की दीवार को चीन की दीवार क्यों बनाए जा रहे हैं भाई? जज साहब कुछ तो बोलिए। बोलिए भी कि आप कोर्ट में नहीं हैं।’
‘कोई अरबपति, खरबपति भी इसी देश में ही दलित या पिछड़ा हो सकता है और दलितों और पिछड़ों की सुविधाएं भी भोग सकता है। और क्या कहूं? दिक़्क़त तो है ही भाई।’ जस्टिस धीरे से सांस छोड़ते हुए बोले।
बात सांप्रदायिकता की ओर घूम गई है। जस्टिस बोले, ‘जातियों से भी ज़्यादा ख़तरनाक तो सांप्रदायिकता है।’
‘आप भूल रहे हैं कि एक समय मंडल और कमंडल दोनों ही आमने-सामने थे।’ आनंद बोला, ‘और मैं इस मामले पर भी बिलकुल क्लीयर हूं कि मंडल और कमंडल दोनों ही मामलों को ज्यूडिशियली ने उलझाया।’
‘वो कैसे?’ जस्टिस बोले, ‘कमंडल मामले को कैसे उलझाया भला?’
‘हद है आप भी भूल गए?’ आनंद बोला, ‘अरे उन दिनों तो आप भी लखनऊ में वकील थे। कुछ भी याद नहीं आप को? डे बाई डे अयोध्या मामले की सुनवाई होती थी। तीन जजों की बेंच थी। इस के चक्कर में कितने और मुक़दमों की बलि चढ़ जाती थी। कंटेंप्ट आफ़ कोर्ट मामलों की तो रेंड़ पिट गई थी। इतने मामले लंबित हो गए कि हाईकोर्ट के आदेशों की कोई अहमियत ही नहीं रह गई थी। आप ख़ुद ही भुनभुनाते घूमते थे।’
‘हां, यह तो याद है।’ जस्टिस बोले, ‘पर मस्जिद तो गिरवाई कल्याण सिंह ने, गिराई वीएचपी वालों ने।’
‘बिलकुल पर आप तो वैसे ही कह रहे हैं कि जैसे फलां जल्लाद ने फलां को फांसी लगाई।’ आनंद बोला, ‘जल्लाद फांसी लगाता ज़रूर है पर फांसी के आदेश कौन देता है? पहले निचली अदालत फांसी देती है। ऊपरी अदालत उस पर मुहर लगाती है, फिर हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट मुहर लगाती है। बरास्ता गृह मंत्रालय, राष्ट्रपति को मामला जाता है। फिर वापस गृह मंत्रालय आता है। और अंततः सरकार फ़ैसला लेती है, बरास्ता कैबिनेट कि फलां को फांसी होगी।’
‘आप कहना क्या चाहते हैं?’ वकील साहब बोले।
‘कहना यह चाहता हूं कि बाबरी मस्जिद गिराने में अगर मैं किसी एक को दोषी मानता हूं तो वह सिर्फ़ और सिर्फ़ मुलायम सिंह यादव को।’ आनंद बोला।
‘यह तो आप पूरी बात ही पलट दे रहे हैं, यह कह क्या रहे हैं आप?’
‘आप सुनेंगे भी, तब तो कहूं?’
‘अच्छा कहिए!’
‘मुलायम सिंह जब 1989 में मुख्यमंत्री हुए थे तब नवंबर, 1990 में जो अयोध्या में उन्हों ने कड़ाई की थी, कार सेवकों पर गोलियां चलवाई थीं। तब लोग गुस्से में आ गए। वह कहते रहे कि, ‘परिंदा भी पर नहीं मार सकता।’ हालां कि परिंदा पर मार गया। लोग मस्जिद के गुंबद तक पर चढ़ गए। रिहर्सल हो गई थी, तभी वीएचपी वालों की। वीएचपी वालों का मनोबल उसी से बढ़ा। वह कहते रहे कि परिंदा पर नहीं मार सकता। और लोग लाश बन-बन कर इकट्ठे हो गए। एक लाश मतलब पांच लोग। इस कड़ाई को वहां की स्थानीय जनता ने भी नहीं पसंद किया और वीएचपी की आग में घी बन बैठी। देश के हिंदुओं में इस कड़ाई को पसंद नहीं किया गया। साफ़ कहूं कि मुलायम ने हिंदुओं को उकसाया भी और भड़काया भी। ठीक वैसे ही जैसे बाद के दिनों में गोधरा के बहाने नरेंद्र मोदी ने गुजरात में मुसलमानों को मरवाया और देश भर के मुसलमानों को भड़काया। कल्याण से उन की दोस्ती बैकवर्ड कार्ड के बूते थी ही, दोनों ने अपनी राजनीति पक्की की। लोगों का ख़ून बहा तो उन की बला से। देश पर एक दाग़ लगा, देश तबाह हुआ तो उन की बला से। वह मस्जिद की रखवाली का दावा करते रहे, मस्जिद गिर गई। आप अगले को भड़का कर अपनी कोई चीज़ सुरक्षित रख सकते हैं, यह कभी संभव नहीं है, इस बात को एक साधारण आदमी भी जानता है। फिर दूसरी भूल थी वहां कार सेवा के बहाने भीड़ इकट्ठी करना। इस भीड़ को बटोरने के लिए नरसिंहा राव और कल्याण दोनों दोषी मान लिए गए हैं। पर सुप्रीम कोर्ट क्या इतनी अंधी और नादान थी कि एक कल्याण रूपी मुख्यमंत्री के शपथ पत्र को स्वीकार कर बैठी? वह न्यायमूर्ति लोग नहीं जानते थे कि भीड़ हमेशा हिंसक होती है? भीड़ कुछ भी कर सकती है। एक बात।’ आनंद बोला, ‘दूसरी बात यह कि हाईकोर्ट की अपनी लखनऊ बेंच की पीठ ने अगर ज़मीन अधिग्रहण वाले मामले पर समय रहते फ़ैसला दे दिया होता तो शायद तब भी मस्जिद बच सकती थी। इस बेंच ने भी मुलायम की तरह ही वहां मौजूद कार सेवकों को भड़काया।’ वह बोला, ‘मुझे याद है जस्टिस एस.सी. माथुर, जस्टिस बृजेश कुमार और जस्टिस सैय्यद हैदर अब्बास रज़ा की फुल बेंच थी तब। और कि ज़मीन अधिग्रहण मामले की सुनवाई पूरी हो गई थी। आर्डर रिज़र्व हो गया था। जस्टिस एस.सी. माथुर और जस्टिस बृजेश कुमार से जस्टिस रज़ा की ओपिनियन डिफ़रेंट हो गई थी। तो भी जस्टिस एस.सी. माथुर और जस्टिस बृजेश कुमार ने अपने आर्डर लिखवा दिए थे। और बता दिया था कि अधिग्रहण ग़लत है। जस्टिस सैय्यद हैदर अब्बास रज़ा ने डिले किया। न सिर्फ़ डिले किया दो-तीन महीने बल्कि डिलेड जस्टिस इज़ इनजस्टिस को भी फलितार्थ किया। आदेश जारी किया तब, मस्जिद जब गिर-गिरा गई, दंगे भड़क गए देश भर में तब। और तो भी उन के आर्डर में था क्या? कोरी ल़फ़ाज़ी। कोई क्लीयर आदेश नहीं। यह ल़फ़ाज़ी आप पहले भी झाड़ सकते थे, मस्जिद शायद बच जाती। लोग इकट्ठे हो ही गए थे तो शायद उस ग़ैर विवादित सवा एकड़ ज़मीन जो वीएचपी के पास पहले ही से थी उस पर ही कार सेवा कर के लौट गए होते। तो जनाब एक मुलायम और दूसरी यह न्यायपालिका दोनों ने मिल कर मस्जिद गिरवा दी, देश पर दाग़ लगवा दिया, देश तबाह कर दिया। देश कम से कम पचीस साल पीछे चला गया। दंगों ने हमें कहीं का नहीं छोड़ा। आतंकवाद का नासूर और गाढ़ा हो गया। हिंदू-मुस्लिम सद्भाव के धागे में गांठ पड़ गई।’ वह बोला, ‘यह मेरी अपनी राय है। ज़रूरी नहीं कि आप लोग मेरी बात से सहमत ही हों।’
‘नहीं मसले का एक पहलू तो यह भी है।’ जस्टिस बोले और वकील ने हां में हां मिलाई।
‘तो इस न्यायपालिका को सोचना चाहिए कि चीजे़ं बिगड़ने के बाद न्याय देने का क्या कोई मतलब है? आदमी मर जाए न्याय मांगते-मांगते और आप उस के मरने के बाद उसे न्याय दे भी दें तो उस का क्या अर्थ है?’
‘आप लोग खाना भी खाएंगे या बातों से ही पेट भर लेंगे?’ जस्टिस की पत्नी बोलीं, ‘बच्चे लोग खाना खा चुके हैं बस हम लोग ही बाक़ी हैं।’
‘तो परोसिए।’ आनंद बोला, ‘सच बताऊं मैं तो आप को देखते ही भुखा जाता हूं। जाने कहां से भूख आ कर पेट में बैठ जाती है और कहती है, ‘खाओ-खाओ, जल्दी खाओ।’
‘आप तो आनंद जी ऐसा कर देते हैं कि लोगों को आता होगा मज़ा खाने में, पर हम को तो खिलाने में मज़ा आ जाता है।’
‘अब ज़्यादा कहंेगी तो पेट के चूहे मुंह में आ जाएंगे।’
सब लोग हंसने लगे।
खाना खा कर आनंद ने कहा कि, ‘ज़रा आप का घर देख लूं?’
‘हां, हां क्यों नहीं।’
उनके बेडरूम की एक खिड़की से जिस में खूब बड़ा सा शीशा लगा था, नैनी झील का व्यू इतना मोहक दिख रहा था कि वह तरस कर रह गया। बोला, ‘क्या बताऊं आज वापसी की टिकट है नहीं आज रात यहीं सो जाता।’
‘अरे तो टिकट कैंसिल करवा देते हैं।’
‘अरे नहीं-नहीं। अगली बार जब आएंगे तब!’
जज साहब के घर से वह फिर नैनी झील आ गया। बच्चों के साथ फिर बोटिंग की। शाम होने को आ गई। वापस नैनीताल क्लब आ कर सामान समेटा। नैनीताल से विदा हुआ। संयोग ही था कि रास्ते में टैक्सी वाले ने राम तेरी गंगा मैली का वह गाना भी बजा दिया जो वह नैनीताल आते ही सोच रहा था, ‘हुस्न पहाड़ों का, क्या कहना कि बारों महीने यहां मौसम जाड़ों का।’ आनंद आ गया आनंद को। साथ ही साथ बच्चे भी यह गाना गाते जा रहे हैं। बिलकुल सुर में सुर मिला कर। एक से एक मनोरम दृश्य पहाड़ों की हरियाली इस गाने में और इज़ाफ़ा भरती जाती है। पहाड़ों के मोड़ की तरह यह गाना भी कई मोड़ लेते हुए ख़त्म हो रहा है, ‘दुनिया ये गाती है, कि प्यार से रस्ता तो क्या ज़िंदगी कट जाती है।’
‘ये तो है।’ पत्नी मुदित हो कर बुदबुदाती है।
‘क्या बात है डार्लिंग मज़ा आ गया।’ अचानक आनंद उछल कर बोला। तो बच्चे अचकचाते हुए मुसकुरा पड़े।
लखनऊ लौट कर उस ने एक दिन रेस्ट किया। दूसरे दिन आफ़िस गया। उस ने पाया कि आफ़िस में सब कुछ सामान्य सा ही था कुछ भी बदला हुआ नहीं था।
उसे अच्छा लगा।
चैनलों और अख़बारों में इन्हीं दिनों एक ही परिवार की राजनीति के दो फांक दिखाए जा रहे थे। एक तरफ़ राहुल गांधी के विजु़अल्स थे जिस में वह लोकसभा में कलावती का मामला उठा रहे हैं, कहीं श्रमदान हो रहा है तो वहां मिट्टी ढो रहे हैं। दूसरी तरफ़ वरुण गांधी के विजु़अल्स थे जिस में वह दहाड़ रहे हैं कि जो भी हिंदुओं की तरफ़ आंख उठा कर देखेगा उस के हाथ काट डालूंगा। या ऐसे ही कुछ। फिर पीलीभीत की दीवारों पर लिखे नारे दिखते- वरुण नहीं यह आंधी है, दूसरा संजय गांधी है।
वह पूछता लोगों से, ‘यह क्या हो रहा है?’
‘कुछ नहीं बड़े भइया कलावती-कलावती कह कर मिट्टी ढोते रह गए। और यह देखिए यह तो निकल गया। बड़ा नेता हो गया। चहंु ओर इसी की चर्चा है।’ एक पत्रकार सिगरेट की राख झाड़ते हुए कहता है।
‘आप पत्रकार हैं! और यही आप का विज़न है?’ आनंद जैसे डपटता है!
‘विज़न नहीं भाई साहब टेलीविज़न! टेलीविज़न यह कह रहा है, जनता यही कह रही है। देखते नहीं आप ख़बरों में कि जनता टूटी पड़ रही है- वरुण गांधी पर! भाजपा के बड़े-बड़े नेताओं की नींद उड़ा दी है इस ने।’ पत्रकार कहता है, ‘कांग्रेस में तो यह परिवार क़ाबिज़ था ही, अब भाजपा में भी क़ाबिज़ हो गया। आप को पता है कि नरेंद्र मोदी के बाद भाजपा में स्टार प्रचारक के तौर पर सब से ज़्यादा वरुण की ही मांग है!’
‘अच्छा?’
‘अरे, अब वरुण महानायक है!’
‘और राहुल?’
‘शून्य! सिफ़र! मज़दूर! कहिए कि भइया मिट्टी ढोते रहो। हुंह मिट्टी ढो कर भी कहीं राजनीति होती है आज की तारीख़ में? चुगद साला!’
तरह-तरह की टिप्पणियां हैं।
तो क्या आनंद भी ऐसे ही रह जाएगा? सांप्रदायिक हुए बिना, जातिवादी हुए बिना इस देश में राजनीति नहीं हो सकती? तो वह ऐसे ही साफ़ सुथरी राजनीति के सपने बुनता रह जाएगा?
वह डर जाता है।
डर जाता है राजनीति के इस तरह अराजक होने से, दिशाहीन, सांप्रदायिक और जातिवादी होने से।
आनंद के एक रिश्तेदार हैं। दिल के मरीज़ हैं। रुटीन जांच के लिए आए हैं। बात अपने शहर की हो रही है। चुनाव की भी होती है। वह बता रहे हैं कि, ‘माहौल तो महंत के खि़लाफ़ बहुत है। ख़ास कर आप की क़ासिम वाली प्रेस कानफ्रेंस के बाद। मुसलमान तो नाराज़ हैं ही। हिंदू भी बहुत नाराज़ हैं।’
‘हिंदू क्यों नाराज़ हैं?’
‘कोई एक कारण तो है नहीं। कुछ भी हो लोग अब दंगा फ़साद नहीं चाहते हैं। चैन से रहना चाहते हैं। विकास चाहते हैं। इस लिए नाराज़ हैं। दूसरे शहर के जितने भी मंदिर हैं, अच्छे मंदिर वहां के लोग नाराज़ हैं?’
‘वो क्यों?’
‘महंत जी लगातार उन के खि़लाफ़ कुछ न कुछ कुचक्र रचते रहते हैं। दो मंदिरों के रास्तों पर ़लाई ओवर बनवा दिया। एक मंदिर को ़लाई ओवर चाहिए, वहां नहीं बनने दिया।’
‘ऐसा क्यों?’
‘ताकि लोग और मंदिरों में न जाएं। उन्हीं के मंदिर में आएं। उन की आय बढ़ती रहे। ऐसे ही छिटपुट अड़ंगा और भी मंदिरों में वह डालते ही रहते हैं।’
‘ओह!’
‘अपने मंदिर में भी तरह-तरह से लूट खसोट बढ़ा दिए हैं। जो कमरे, जो हाल पहले निःशुल्क थे, उन सब का अच्छा ख़ासा किराया लेने लगे हैं। लोगों को कथा कहलानी है, मुंडन वगै़रह कराना है, शादी ब्याह के लिए लड़की दिखानी है, और भी तमाम काम हैं, मान-मनौती है। कमरा, हाल सब कुछ का अच्छा ख़ासा किराया है। समझिए कि एक मंदिर में प्रवेश छोड़ कर बाक़ी सब सशुल्क है। उन के अस्पतालों में भी मनमानी फ़ीस है। उन के स्कूलों, कालेजों में भी। तो लोग इस सब से नाराज़ हैं।’
‘आप को पता ही होगा कि विश्वविद्यालय की राजनीति में भी इन का ख़ासा हस्तक्षेप है।’
‘होगा ही।’ वह बोले, ‘शहर की हर सांस में उन का हस्तक्षेप है तो विश्वविद्यालय क्या चीज़ है।?’
‘नहीं आप को बताऊं कि यह विश्वविद्यालय ही दरअसल हमारे शहर के लिए ग्रहण बन कर आया। शायद मैं ग़लत कह रहा हूं बल्कि विश्वविद्यालय की राजनीति ने इस शहर पर, इस इलाक़े पर, इलाक़े के विकास पर ग्रहण लगा कर ख़ूनी खेल की धरती में तब्दील कर दिया।’
‘अच्छा?’ वह बोले, ‘ये तो हम नहीं जानते थे।’
‘है तो ऐसा ही।’
फिर उस की आंखों में वह सारे दृश्य जैसे किसी सिनेमा की तरह घूमने लगे।
1947 में आज़ादी मिलने के बाद ही विश्वविद्यालय समिति बनी और कोई दस बारह बरस बाद विश्वविद्यालय की शुरुआत हुई। आचार्य नरेंद्र देव जैसे समाजवादी भी थे इस समिति की देखरेख में। तो भी हुआ यह कि विश्वविद्यालय के दो प्रमुख संस्थापक सदस्यों में जब मतभेद शुरू हुआ तब यह नौबत आई। एक आई.ए.एस. अफ़सर थे। पंडित थे। यहां डी.एम. भी रहे और कमिश्नर भी। बाद में कोई तीन टर्म ग्रेजुएट कांस्टीच्वेंसी से एम.एल.सी. भी रहे। लोग मणि जी, मणि जी कहते थे। विश्वविद्यालय की स्थापना में उन की भूमिका बड़ी महत्वपूर्ण रही। पर साथ ही इस मंदिर के पूर्ववर्ती महंत जी ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इन को लोग बड़े महंत जी कहते थे। वह तब की हिंदू महासभा के न सिर्फ़ सदस्य थे संभवतः हिंदू महासभा के अकेले निर्वाचित सांसद भी थे। दो या तीन टर्म वह सांसद रहे। तो बड़े महंत जी और मणि जी ने विश्वविद्यालय तो बनवा दिया। कार्यकारिणी के सदस्य भी हो गए। शुरू के दिनों में सब कुछ ठीक-ठाक चला। पर बाद के दिनों में दोनों के हित और अहंकार दोनों ही टकराने लगे। मणि जी आई.ए.एस. रहे थे। काग़ज़-पत्तर में बुद्धि से बड़े महंत जी को उलझा देते। बड़े महंत ने बाद में इस का तोड़ दबंगई में ढंूढा। मंदिर में अखाड़ा भी था और लठैत भी। बड़े महंत जी की इस दबंगई के चलते मणि जी की एक न चलती। चुप हो जाते। अवश हो जाते। बेबसी जब उन की सारी सीमा पार कर गई तो उस पढ़े लिखे आदमी ने भी दबंगई की काट दबंगई में ही ढंूढी। यह तिवारी माफ़िया उन दिनों विश्वविद्यालय में पढ़ता था। तब माफ़िया नहीं था। पिता इस के पुरोहित थे। किसी का छुआ पानी तक नहीं पीते थे। पूजा पाठी थे। खूब चंदन लगाते थे। कहीं जाते तो लोटा डोरी ले कर। अपने इलाक़े में पूजनीय और प्रतिष्ठित पंडित थे। उन की चेलहटी बहुत बड़ी थी। लेकिन प्रतिष्ठा जितनी बड़ी थी, उतनी ही बड़ी विपन्नता भी थी। तो यह तिवारी शहर में जब पढ़ने आया तो शुरू में तो यह भी पंडित बना रहा। पर बाद में शहर की हवा लगने लगी, संगत बदलने लगी, खर्चे बढ़ने लगे। अब यह क्या करे? रंगदारी पर उतर आया। धीरे-धीरे गोल बना कर यह गोलघर बाज़ार घूमने लगा। दुकानदार इसे देखते ही थरथरा जाते। इस की तीखी और नुकीली मूंछें इस के रौब में ख़ूब इज़ाफ़ा भरतीं। धोती कुरता और मूंछों वाला यह नया गुंडा गोलघर बाज़ार पर छा गया था। इस का ह़ता बंध गया छोटी-बड़ी सभी दुकानों से। विश्वविद्यालय में भी उस का रंग जमने लगा। बाज़ारों की भी सीमा बढ़ी। एक बाज़ार से दूसरे। दूसरे से तीसरे, तीसरे से चौथे बाज़ार तक। अब हो यह गया था कि बाज़ारों में रंगदारी और विश्वविद्यालय में रंगबाज़ी। मणि जी को किसी ने इस तिवारी के बारे में बताया। तो वह ख़ुश हो गए। अपने तौर पर उस के बारे में पूरी रिपोर्ट पता किया। रिपोर्ट क्या इस तिवारी की पूरी कुंडली अब उन के पास थी। उन्हों ने तिवारी को अपने यहां बुलाया। दो चार सिटिंग्स में उस को नापा जोखा। तौला, वाच किया। उस की महत्वाकांक्षाओं को और जगाया। कहा कि, ‘एक दिन तुम बहुत आगे जाओगे!’ वह इन के पैरों पर गिर पड़ा। तो इन्हों ने भी उस के सिर पर हाथ फेर कर आशीर्वाद दिया। ब्राह्मणवाद की कुछ ख़ुराकें पिलाईं। फिर तोल-मोल किया। और जैसे कि ब्यूरोक्रेट्स कई काम अपने शार्पनेस और शातिरपने से अंजाम देते हैं। कुछ-कुछ उसी अंदाज़ से मणि जी ने इस तिवारी को बड़े महंत जी के खि़लाफ़ मैदान मंे उतार दिया। ऐसे जैसे पूंजीपति अपने प्रोडक्ट बाज़ार में उतारते हैं। वो जो होता है न कि छोटा बच्चा बड़ी तेज़ी से ग्रोथ करता है, बड़ी तेज़ी से चीजों को सीखता है। तो तिवारी की ग्रोथ भी कुछ इसी तेज़ी से हुई। उस ने सीखा भी बड़ी तेज़ी से। नतीजा सामने था। अब तिवारी नहीं, तिवारी गिरोह था। बड़े महंत जी को उस ने पहले बच्चों की तरह तुतुला कर, फिर ज़रा दब दबा कर और फिर खुले आम चुनौती दे दी। लोगों को लगा कि बड़े महंत जी अब तिवारी को छोड़ेंगे नहीं, उसे ख़त्म करवा देंगे। और सचमुच बड़े महंत जी ने ऐसा चाहा भी। पर तिवारी के ऊपर आई.ए.एस. मणि जी की छाया हमेशा बनी रही। मणि जी यह जानते थे कि महंत जी के पास आखि़री विकल्प तिवारी को मरवाना ही होगा। सो मणि जी ने तिवारी का सुरक्षा घेरा काफ़ी मज़बूत बनवा रखा था। इतना कि कोई अर्जुन भी जो तब आ जाता तो तिवारी के सुरक्षा घेरे का चक्रव्यूह नहीं तोड़ पाता। यह तिवारी का सुरक्षा घेरा ही है कि तिवारी के जाने कितने समकालीन माफ़िया मारे गए, उन के बाद की दो पीढ़ियों के जाने कितने माफ़िया आए गए, भभक कर बुता गए, मर गए, मार दिए गए पर तिवारी अभी भी न सिर्फ़ क़ायम है बल्कि अपनी पकड़, अपनी ऱतार भी क़ायम रखी है। राजभोग, सत्ताभोग जो कहिए, इस का अनवरत सुख लेते हुए। तीन-तीन सरकारों में कैबिनेट मिनिस्टर रह चुके तिवारी ने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। घोर संकट के समय में भी ऱतार क़ायम रखी।
ख़ैर बड़े महंत जी को शह पर शह देते तिवारी ने अंततः बड़े महंत जी को मात दे दी। यहां तक कि गोलघर में बनी उन की दुकानों ने भी तिवारी को ह़ता देना शुरू कर दिया। बड़े महंत जी के पास एक इंटर कालेज पहले से था उसी को उन्हों ने डिग्री कालेज में एक्सटेंड किया। विश्वविद्यालय की लड़ाई में मात खाते-खाते उन्हों ने डिग्री कालेज में ही सारा ध्यान लगा दिया। शहर का आलम भी उन दिनों कुछ अजब था। सभी जातियों के अपने-अपने स्कूल थे। ब्राह्मण स्कूल, क्षत्रिय स्कूल, कायस्थ स्कूल, मुस्लिम स्कूल। लड़कियों के स्कूलों में भी यह जातीय चेतना खुल कर सामने थी। इस जातीय चेतना को बस दो रेलवे के स्कूल, और दो सरकारी स्कूल ही थोड़ा बहुत ब्रेक कर पाते थे। सो बड़े महंत जी को तिवारी को उलझाने के लिए ब्राह्मण, ठाकुर की लड़ाई बनाने में देर नहीं लगी। शहर क्या पूरा ज़िला ब्राह्मणवाद-ठाकुरवाद की आंच में झुलसने लगा। बड़े महंत जी के पास मंदिर की आय थी, मंदिर का फ़ार्म हाउस था, स्कूल थे, नर्सरी से ले कर डिग्री कालेज तक। आय के अनेक स्रोत थे। इस के विपरीत तिवारी के पास आय के नाम पर सिर्फ़ रंगदारी। रंगदारी की आय और मणि जी की छाया। अब दिन यह आ गए थे कि खेती में भी अगर निवेश न करें तो अनाज का उत्पादन घट जाता था। फिर यह तो गुंडई थी। बिना पूंजी निवेश के गुंडई कैसे हो? तिवारी के लिए यह प्रश्न जैसे यक्ष प्रश्न बन कर दिन रात सिर पर सवार रहता। रास्ता निकाला अंततः मणि जी ने ही। तिवारी को छोटी मोटी ठेकेदारी शुरू करवा कर। साइकिल स्टैंड का ठेका, रिक्शा स्टैंड का ठेका, नगर निगम की सड़क पर मिट्टी डालने का ठेका। तिवारी ने जैसे महंत जी के लठैतों को क़ाबू किया था, ठेकों को भी क़ाबू कर लिया। तिवारी का नाम आते ही लोग किनारे हो जाते। तिवारी को ठेका मिल जाता। तिवारी अब छोटे ठेकेदार, पेटी ठेकेदार से मुख्य ठेकेदार बन गया था। अब उस की पैठ पी.डब्ल्यू.डी. और वन विभाग के ठेकों में हो रही थी। तिवारी ने इस फेर में चार-पांच क़त्ल भी कर, करवा दिया। अब तिवारी, तिवारी नहीं, माफ़िया तिवारी के अवतार में था। उन्हीं दिनों एक मस्जिद को ले कर हिंदू-मुस्लिम विवाद उठ खड़ा हुआ। बड़े महंत जी ने मौके़ का फ़ायदा उठाया। अपनी गिरी साख को ऊपर उठाने का। मामला तूल पकड़ गया। तत्कालीन ज़िलाधिकारी को बड़े महंत जी ने साध लिया। और अपने मंदिर के पीछे थोड़ी दूर की एक मस्जिद को रातोरात नेस्तनाबूद कर वहां बड़े-बड़े पेड़ लगवा दिए। ज़िलाधिकारी ने उन्हें रात भर का समय दिया था कि जो करना हो वह कर लें। और उन्हों ने कर लिया। जिन मुसलमानों ने सिर उठाया उन्हें कुचल दिया गया। हिंदू-मुस्लिम दंगा भड़क गया। कहते हैं कि बड़े महंत जी ने कुछ मुसलमानों को मरवा कर राप्ती नदी की रेत में दबवा दिया। कहीं कोई लाश नहीं मिली। सो बड़े महंत जी का कुछ नहीं हुआ। मुसलमानों को सांप सूंघ गया। वैसे भी शहर में ज़्यादातर मुसलमान जुलाहा थे। ख़ामोश हो गए।
देश में यह दिन जय जवान, जय किसान वाले नारों के दिन थे। पाकिस्तान पर फ़तह के दिन थे। बड़े महंत जी के अनुयायी कहते कि एक पाकिस्तान देश ने जीता है, दूसरा पाकिस्तान बड़े महंत जी ने। ताशकंद समझौते के बाद शास्त्री जी के निधन ने देश को भले तोड़ दिया था, महंत जी मज़बूत हो रहे थे। नया-नया माफ़िया बना तिवारी, हालां कि तब के दिनों में यह माफ़िया शब्द इतना चलन में नहीं था, पड़ोसी देश नेपाल में भी अपनी जड़ें तलाश रहा था। नेपाल की राजशाही वहां राजतंत्र के खि़लाफ़ प्रजातंत्र की लड़ाई लड़ने वालों को बूटों तले कुचल रही थी, सो नेपाल के तमाम योद्धा इस पास पड़ रहे शहर को अपना अड्डा बना रहे थे। यहीं से अपनी लड़ाई संचालित कर रहे थे। इन्हीं दिनों नेपाल राजशाही के एक कारिंदे ने तिवारी को साधा। तिवारी उन के लिए भाड़े का हत्यारा बन गया। एक, दो, पांच, सात करते-करते बीस से अधिक नेपाली योद्धाओं की हत्या हो गई। तिवारी की तो जैसे चल पड़ी। अपराध और व्यवसाय दोनों ही हलक़ों में तिवारी के पंख अब विस्तार ले रहे थे। तिवारी अब माफ़िया से मिथ बन रहा था। तिवारी अब गुंडा बदमाश नहीं पंडित जी कहलाना पसंद करता। बाज़ारों में रंगदारी वसूलने वाला तिवारी अब लोगों को दिखना बंद हो गया। अब सिर्फ़ उस का नाम सुनते। उस की कहानियां चलतीं। रंगदारी, ठेकेदारी और ख़ून ख़राबा जैसे तिवारी के पर्याय बन गए थे। ईंट भट्ठा, कोयला में भी उस ने हाथ डाल दिया। पी.डब्ल्यू. डी., सिंचाई, वन विभाग से होते हुए वह रेलवे के स्क्रैप ख़रीदने लगा। और यह देखिए चंदनधारी पुरोहित का बेटा अब देशी, अंगरेज़ी शराब का ठेकेदार बन गया। ठेकेदार ही नहीं उस के कई-कई सिंडीकेट बन गए। पूर्वी उत्तर प्रदेश से लगायत पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक। लोग बड़े महंत जी से यह सब कहते तो वह कहते, ‘भई इस स्तर पर तो आ कर मैं उस से नहीं लड़ सकता। दूसरे, अब वह वृद्ध भी बहुत हो गए थे। चुनावी राजनीति से भी अब वह दूर हो रहे थे। अपना उत्तराधिकारी भी वह घोषित कर बैठे थे। जल्दी ही उन का निधन भी हो गया। उन के उत्तराधिकारी निरे संत थे। दुनियावी छल छंद से उन का कोई सरोकार नहीं था। मंदिर का प्रशासन, तमाम संस्थानों का संचालन उन की दिलचस्पी के विषय नहीं थे। ध्यान, साधना, तप और वैराग की परंपरा के संत थे वह। अंततः इन सब कामों के लिए उन्हों ने मंदिर से ही एक युवा को अपना प्रतिनिधि चुना। और फिर मंदिर का महंत भी बना दिया। इस महंत ने बड़े महंत की परंपरा को न सिर्फ़ आगे बढ़ाया। मंदिर और अन्य संस्थानों का उत्तरोत्तर विकास करते हुए मंदिर को भी व्यवसाय में बदल दिया। मंदिर का विस्तार जीर्णोद्धार, दुनिया भर की सुविधाएं, स्कूल कालेज और तमाम संस्थाओं की चमक बढ़ा दी। मंदिर में लाखों का चढ़ावा अब करोड़ों में हो गया था। इस महंत ने राजनीतिक लगाम भी हाथ में ली और संसद में पहुंचा। माफ़िया तिवारी के खि़लाफ़़ भी मोर्चा मज़बूत किया। तिवारी के खि़लाफ़़ ठाकुरों को लामबंद किया। तिवारी का एक ख़ास लेटिनेंट था शाही। शाही को तिवारी का नंबर दो कहा जाता था। शाही एकदम युवा था और तिवारी को अपना गुरु मानता था। वह कहता था कि, ‘पंडित जी एक तो ब्राह्मण हैं, दूसरे मेरे द्रोणाचार्य। मैं बचपन से ही इन के जैसा बनना चाहता था। ख़ैर, जब दूसरे महंत ने तिवारी के खि़लाफ़ मार्चा बांधा तो मणि जी ने मौक़े की नज़ाकत समझी। फिर उन्हें लगा कि तिवारी को थोड़ी बहुत राजनीतिक छत्रछाया दे कर राजनीतिक चोले का कवच पहना दिया जाए तो अच्छा रहेगा। एम.एल.सी. वह थे ही। आई.ए.एस. रहते कमलापति त्रिपाठी जैसे राजनीतिज्ञों से भी उन का वास्ता पड़ा था और पटरी भी बैठी थी। ब्राह्मणवाद की केमेस्ट्री ने दोनों का कैप्सूल बनाया था। इसी कैप्सूल के तहत मणि जी ने तिवारी को कमलापति त्रिपाठी से मिलाया, उस की प्रतिभा का बखान किया और कहा कि इसे अपना आशीर्वाद दीजिए।
''वह तुमको थप्पड़ नहीं सैल्यूट मार रहा है, समझे!'' इतना सुनने के बाद मंत्री जी थरथराते हुए ट्रेन से नीचे उतरे : एक बार क्या हुआ कि मंत्री जी के कुछ पियक्कड़ दोस्तों ने जब तीन चार पेग पी पिला लिया तो उनको चढ़ा दिया :
कमलापति त्रिपाठी ने तिवारी को आशीर्वाद दे दिया। तिवारी प्रदेश कांग्रेस कमेटी का सदस्य हो गया। फिर विश्वविद्यालय की कार्य समिति का भी सदस्य हो गया। साथ ही फ़र्टिलाइजर कारखाने में एक ट्रेड यूनियन में भी पदाधिकारी हो गया। ग़रज़ यह कि उस का बायोडाटा अब पोलिटिकल बायोडाटा में तब्दील हो गया। यह वही दिन थे जब भारतीय राजनीति में अपराधियों की आमद शुरू क्या हुई थी बल्कि अपराधी राजनीति में प्रवेश के लिए दस्तक देने लगे थे। मनी पावर और मसल पावर भारतीय राजनीति के दो मुख्य घटक बनने जा रहे हैं, यह उस की आहट थी।
तिवारी ने अपने पोलिटिकल बायोडाटा को और पुख़्ता किया एम.एल.सी. का चुनाव लड़ कर। एक समय से कभी पीछे मुड़ कर न देखने वाले तिवारी ने पंचायतों द्वारा चुने जाने वाले इस एम.एल.सी. चुनाव में पराजय का स्वाद चखा। कोई 11 वोटों से हार से बौखलाए तिवारी ने बाज़ारें बंद करवा दीं। कि एक अनाज मंडी में दुहरा हादसा हो गया। तब के एक कोतवाल ने कहा सुनी में तिवारी को दो चार हाथ दे दिए। फ़ोर्स ज़्यादा थी और तिवारी के लोग कम। पर्याप्त हथियार भी नहीं थे। व्यापारी और लोग भड़के हुए थे। सो तिवारी वहां से सरक गया। खीझ मिटाने और रौब ग़ालिब करने के लिए तड़ातड़ तीन हत्याएं करवा दीं, ताकि इलाक़े में उस का आतंक फिर से क़ायम हो जाए। आतंक क़ायम हो भी गया। लेकिन कोतवाल का दबदबा भी बना रहा।
तब इस कोतवाल को लोग टाइगर कहते थे। शहर में उस की जांबाज़ी और दिलेरी के क़िस्से भी आम थे। किंवदंती की तरह। उन्हीं दिनों एक उप चुनाव में संविद सरकार के मुख्यमंत्री टी.एन. सिंह को एक द्विवेदी जी ने हरा दिया। मुख्यमंत्री हालां कि चुनाव जीत रहे थे। पर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की एक चुनावी सभा में आते समय बीच रास्ते में राजनारायण ने एक फ़िएट कार पर खड़े हो कर धोती उठा कर जो अभद्र प्रदर्शन किया इंदिरा गांधी को चिढ़ाने के लिए उस से लोग नाराज़ हो गए। और मुख्यमंत्री चुनाव हार गए। सरकार गिर गई। कमलापति त्रिपाठी मुख्यमंत्री बन गए।
तो टी.एन. सिंह को हराने वाले द्विवेदी जी को भी अपने मंत्रिमंडल में ले लिया डिप्टी मिनिस्टर बना कर। मंत्री बनने के पहले इस शहर कोतवाल जिस को लोग टाइगर कहते थे, उस ने कभी किसी मामले में द्विवेदी जी को भी पीट दिया था। पर अब द्विवेदी जी डिप्टी मिनिस्टर भले बने थे पर उन को मिला गृह विभाग था। सो जब उन को वापस अपने शहर जाना हुआ तो एक ज़िद यह पकड़ी कि पहले उस कोतवाल का ट्रांसफ़र हो जाए। लेकिन उन के एक दोस्त दुबे जी जो विश्वविद्यालय छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष भी थे ने कहा कि, ‘सिर मुड़ाते ही ओले मत गिराओ! भूल जाओ कि कभी उस ने तुम को पीटा था।’
तो द्विवेदी जी ने पूछा, ‘पर कहीं फिर उसने पीट दिया तो? दुबे जी ने उनकी इस शंका का भी समाधान किया कि, ‘उलटे तुम्हारा वेलकम करेगा, सैल्यूट ठोंकेगा। तुमको याद है कि उसने पीटा था। पर वह अब तक इतने लोगों को पीट चुका है कि उसने तुम को भी कभी पीटा था, भूल चुका होगा। निश्चिंत होकर अपने शहर चलो। तुम्हारे स्वागत की फुल तैयारी है।’ पर जब द्विवेदी जी ट्रेन से अपने शहर पहुंचे तो प्लेटफ़ार्म पर तमाम भीड़ में वह कोतवाल भी था। मंत्री जी को देखते ही उसने सैल्यूट मारने के लिए तेज़ी से हाथ उठाया। मंत्री जी ट्रेन में डब्बे के गेट पर थे तभी। मंत्री जी पलट कर वापस भागे कि, ‘साला फिर मारेगा।’ दुबे जी पीछे ही थे मंत्री जी को वापस नीचे उतारते हुए बोले, ‘नाटक मत करो डरपोक! वह तुमको थप्पड़ नहीं सैल्यूट मार रहा है।’ तो मंत्री जी थरथराते हुए ट्रेन से नीचे उतरे।
एक बार क्या हुआ कि मंत्री जी के कुछ पियक्कड़ दोस्तों ने जब तीन चार पेग पी पिला लिया तो उनको चढ़ा दिया, ‘कि बताइए जो टी.एन. सिंह को आप ने नहीं हराया होता तो क्या कमलापति मुख्यमंत्री हो पाते? नहीं न? और फिर भी आप को डिप्टी मिनिस्टर बनाया। कैबिनेट नहीं, न सही स्टेट मिनिस्टर तो बनाया होता।’ मंत्री जी हताश होकर बोले, ‘यह तो है।’ एक दोस्त ने कहा, ‘तो मौक़ा मत चूकिए अभी मुख्यमंत्री को फ़ोन लगाइए।’ तबके दिनों में ट्रंकाल बुक करने का चलन था। ट्रंकाल बुक किया गया। मुख्यमंत्री को मंत्री जी ने अर्दब में ले लिया। अकबक बोलते हुए गरजे, ‘मेरे ही चलते मुख्यमंत्री बने और मुझे ही डिप्टी मिनिस्टर बना दिया?’ जवाब में मुख्यमंत्री ने डपट दिया, ‘बोले अभी तुम होश में नहीं हो। होश में आते ही लखनऊ आ जाओ फिर बात करते हैं।’
मंत्री जी पस्त हो गए। सारा नशा चूर हो गया। दूसरे दिन भाग कर लखनऊ पहुंचे। मुख्यमंत्री से मिले। मुख्यमंत्री ने इस्तीफ़ा मांग लिया। कहा कि, ‘तुम अभी मंत्री बनने के योग्य नहीं हो। शराब पी कर जब तुम मेरे साथ अभद्रता कर सकते हो तो बाक़ी के साथ क्या कर सकते हो समझ सकता हूं।’ मंत्री जी मुख्यमंत्री के पैरों पर गिर गए। गिड़गिड़ाने लगे। अंततः मुख्यमंत्री पसीज गए। बोले, ‘लेकिन अब तुम होम में नहीं रहोगे। कोई और विभाग में जाओ। होम मिनिस्टरी लायक़ तुम्हारा आचरण नहीं है।’ मंत्री जी फिर पैर पकड़ कर गिड़गिड़ाए। तो मुख्यमंत्री ने उन्हें बख़्शते हुए कहा कि, ‘चलो होम में तो रहोगे पर देखोगे होम गार्ड। यानी डिप्टी होम मिनिस्टर होमगार्ड।’
मंत्री जी लौटे अपने शहर लुटे-पिटे अंदाज़ में। डिप्टी होम मिनिस्टर होमगार्ड बन कर। मंत्री जी उस कोतवाल को भी नहीं हटा पाए। और वही कोतवाल अब तिवारी के लिए भारी पड़ गया था।
मणि जी की सलाह पर तिवारी फिर फ़रार हो गया। राजनीति भूल कर फिर से रंगदारी, ठेकेदारी और ख़ून ख़राबे के खेल में लग गया। उन दिनों तमाम सरकारी कर्मचारी भी चार सौ छः सौ रुपए वेतन वाले थे और बड़ा सपना उन के पास यही होता कि कम से कम रिटायर होते समय ही वेतन फोर फिगर में यानी एक हज़ार रुपए हो जाता! जो कि अकसर नहीं होता। लखपति होना शान का सपना होता मध्यवर्ग में जो कोई नहीं होता। उन दिनों में भी तिवारी करोड़ों में खेलने लगा। और जो कोई ज़रा भी उस की राह में आने की ग़लती करता उस को वह सीधे स्वर्गीय बना कर स्वर्ग यात्रा पर भेज देता।
महंत जी ने उन्हीं दिनों विश्वविद्यालय छात्र संघ के एक नेता को पकड़ा। उसे क्षत्रियवाद की ख़ुराक पिलाई। जैसे कभी मणि जी ने तिवारी को ब्राह्मणवाद की ख़ुराक पिलाई थी और बड़े महंत जी के खि़लाफ़ खड़ा किया था। तो महंत जी ने भी छात्र संघ के इस क्षत्रिय नेता को क्षत्रियवाद की ख़ुराक दे कर तिवारी के खि़लाफ़ खड़ा किया। छात्र संघ का यह नेता वास्तव में राजनीति करना चाहता था, साफ़ सुथरी राजनीति। उस ने उन दिनों जैसे एक रिकार्ड सा बना दिया था। लगातार तीन-तीन विश्वविद्यालयों के छात्र संघ का अध्यक्ष बन कर। अपने शहर के विश्वविद्यालय के बाद वह बी.एच.यू. में भी छात्र संघ अध्यक्ष रहा और लखनऊ विश्वविद्यालय में भी। अंगरेज़ी हटाओ आंदोलन का नेता था वह। आनंद ने जब अपने कालेज में अनशन किया था तब उस को जूस पिला कर इसी नेता ने अनशन तुड़वाया था।
अब वह अपनी जगह छात्र संघ के बजाय संसदीय राजनीति में तलाश रहा था। एक बार विधानसभा का चुनाव निर्दलीय लड़ कर वह हार चुका था। पर दुबारा विधायक चुन लिया गया था। अब वह तिवारी के अवैध कारोबार पर लगाम बन कर खड़ा था। तिवारी की उन दिनों रवायत यह थी कि सड़क बनाने का ठेका लेता। सड़क बनती काग़ज़ पर और पेमेंट हो जाता। पेमेंट क्या हो जाता, इंजीनियर लोग चेक तिवारी के घर पहुंचा आते। ऐसे ही बाक़ी ठेकों में भी होता। इस विधायक ने तिवारी के खि़लाफ़ विधानसभा से ले कर सड़क तक पर मोर्चा खोल दिया। अपने गुर्गों को तिवारी के पैरलेल ठेकों में भी उतार दिया। तिवारी का आतंक और आय दोनों पर लगाम कस गई।
नतीजा सामने था।
विधायक का दायां हाथ कहा जाने वाला जो विश्वविद्यालय छात्र संघ का अध्यक्ष भी रह चुका था गोलघर बाज़ार में सरेशाम गोलियों से भून दिया गया। शहर में सन्नाटा फैल गया। जल्दी ही जवाबी हमले में तिवारी के भी दो आदमी मार गिराए गए। तो तिवारी ने भी सरे बाज़ार सात लोगों को एक साथ गोलियों से छलनी कर दिया। फिर तिवारी के भी पांच आदमी मार दिए गए। अंततः एक दिन सुबह-सुबह रेलवे स्टेशन पर वह विधायक भी जो विधानसभा की बैठक में भाग लेने लखनऊ जा रहा था अपने गनर सहित तड़ातड़ चली गोलियों से छलनी हो गया। शहर में अफवाहों का बाज़ार गरम हो गया। ख़ौफ का तंबू तन गया। तिवारी का घर चारों ओर से भारी पुलिस बल ने घेर लिया। पर जाने इसमें कितना सच था, कितना झूठ पर यह कहानी ज़ोरों पर चली कि तिवारी ने बिलकुल फ़िल्मी अंदाज़ में उस के घर पूछताछ के लिए गए एक पुलिस अफ़सर को बंधक बनाया, उस की वर्दी उतार कर पहनी और उसी की जीप में पुलिस वालों से सलामी लेता पुलिस घेरे से बाहर निकल कर सीधे नेपाल चला गया। और पुलिस टापती रह गई।
शहर की चर्चा अब बी.बी.सी. रेडियो तक पर थी। शहर की ख़ून से लाल हुई सड़कों की चर्चा चहुं ओर थी। कहा जाने लगा कि दुनिया के टाप क्रिमिनल सिटी में इस शहर का नाम शुमार है। अमरीका के शिकागो से इस शहर की तुलना होने लगी। लगता था कि जैसे यहां क़ानून का राज नहीं, जंगल राज हो। देश का एक ऐसा टापू जहां सिर्फ़ अपराध ही पढ़ाया-लिखाया जाता हो!
देश और प्रदेश औद्योगिक विकास की ओर पेंग मार रहा था। पर इस शहर में ख़ून ख़राबा इतना आम हो गया कि कोई उद्योगपति या कोई व्यवसायी यहां आने से कतरा गया। इस ख़ूनी खेल ने पूर्वी उत्तर प्रदेश को औद्योगिक और व्यावसायिक विकास से महरूम कर दिया। विकास के पहिए यहां आने से ही इंकार कर गए।
रही सही कसर तिवारी के एक ख़ास ले़फ्टिनेंट शाही ने तिवारी के खि़लाफ़ बग़ावत कर के पूरी कर दी। शाही ने तिवारी के सामने क़दम-क़दम पर मुश्किलें खड़ी कीं। वह तिवारी के सारे ठेके-पट्टे और हथकंडे से न सिर्फ़ वाक़िफ़ था, बल्कि राज़दार भी था। उस ने तिवारी का जीना मुश्किल कर दिया। ठेकों पर से उन का एकछत्र राज तो छीना ही उन पर ताबड़तोड़ हमले भी करवाए। उन के लोगों को तोड़ा। तिवारी ने भी शाही की भरपूर सांसत की। एक बार तो सरे बाज़ार शाही की कार को पूरी तरह छलनी कर दिया। शाही ने कार की सीट उखाड़ कर सीट के नीचे छिप कर अपने प्राण बचाए। शाही ने भी राजनीतिक टोटके आज़माए और विधानसभा में निर्वाचित हो कर निर्दलीय की हैसियत से पहुंच गया। चेले ने अब गुरु का जीना हराम कर दिया। गुरु जो हरदम फ़रार रहते थे, सामने आने पर मजबूर हो गए। और एक संसदीय चुनाव में गुरु और चेले आमने-सामने हो गए।
दोनों के खि़लाफ़ एन.एस.ए. लग गया। दोनों एक ही जेल में बंद हो गए। अगल-बगल की बैरकों में। दोनों ने ही एक ही संसदीय सीट के लिए जेल से परचा भरा, जेल से ही चुनाव संचालन किया, पानी की तरह पैसा बहाया। पर दोनों ही की ज़मानत ज़ब्त हो गई। पर जल्दी ही हुए विधानसभा चुनाव में दोनों ही जीत गए अलग-अलग विधानसभा क्षेत्रों से। दोनों ने ही जेल से ही जा कर विधानसभा सदस्यता की शपथ ली और बाद में एन.एस.ए. हटने पर छूट भी गए। शहर का एक काबीना मंत्री जो ठाकुर था, उसने भी तिवारी की नाकाबंदी की। अब शाही के पास डबल बैकिंग थी। एक महंत जी की, एक मंत्री जी की। बल्कि इस मंत्री ने बीते दोनों चुनाव में तिवारी को कांग्रेस से टिकट नहीं मिलने दिया था। पर विधानसभा चुनाव में यह मंत्री गच्चा खा गया अपने ही राजनीतिक गुरु चतुर्वेदी जी से। चतुर्वेदी जी तपे तपाए स्वतंत्रता सेनानी थे और मंत्री के राजनीतिक गुरु। मंत्री हो गया यह ठाकुर कभी चतुर्वेदी जी का झोला ढोता था।
चतुर्वेदी जी 1952 में विधानसभा में गए तो कभी हारे नहीं। पर 1985 के चुनाव में कांग्रेस का टिकट पा कर पर्चा भी भरे पर तिवारी के पक्ष में बैठ गए। ब्राह्मणवाद के नाम पर तिवारी का डट कर प्रचार किया। चतुर्वेदी जी का तिवारी के पक्ष में प्रचार और तिवारी के पिता की पुरोहिताई ने तिवारी को जितवा दिया। इस ठाकुर मंत्री ने हालां कि कोशिश की कि बैलेट बाक्स वग़ैरह बदल-वदल कर तिवारी को हरवा दिया जाए। पर तब के एक एस.डी.एम. ने ऐसा करने करवाने से साफ़ इंकार कर दिया। तिवारी विधानसभा चुनाव भले जीत गया पर उस के दुर्भाग्य ने उस का पीछा नहीं छोड़ा। शहर का वह ठाकुर मंत्री अब प्रदेश का मुख्यमंत्री हो गया था। उस ने तिवारी के सारे ठेके छिन्न भिन्न करवा दिए और पूरी ताक़त झोंक दी तिवारी को बरबाद करने के लिए। दो तीन बार पुलिस इनकाउंटर की भी कोशिश करवाई। लेकिन तिवारी अपनी तरकीबों से बच निकला। एक बार तो तिवारी ने अपने एक कालेज के फंक्शन में कमलापति त्रिपाठी को मुख्य अतिथि बनाया। फंक्शन ख़त्म हुआ तो कमलापति त्रिपाठी बाई रोड बनारस निकल गए। लेकिन तिवारी को पुलिस ने अवैध हथियार रखने के आरोप में रोक लिया। सत्तर-अस्सी किलोमीटर दूर के एक थाने में पूछताछ के लिए ले गई। इरादा रात में इनकाउंटर का था। पर तिवारी के लोेग रातों रात इतने ज़्यादा इकट्ठे हो गए की पुलिस फ़ोर्स कम पड़ गई लोग ज़्यादा। तिवारी छूट गया।
तिवारी अपनी सुरक्षा को ले कर चिंतित हो गया। नींद हराम हो गई। वैसे भी तिवारी कभी ट्रेन से नहीं चलता था। कहता कि अगर ट्रेन से चलूं तो पता चला कि रास्ते में ही चेन पुलिंग कर के सब मार देंगे। तो या तो बाई रोड या बाई एयर ही चलता तिवारी। और एक साथ तीन चार प्रोग्राम बनाए रहता। मंगाए रहता हवाई जहाज का टिकट और चल देता बाई रोड। बाई रोड जाना होता कानपुर चल देता बनारस। वह भी रास्ता बदल-बदल कर। रात दो बजे सोता सुबह चार बजे उठ जाता। सरकारी सुरक्षा के भरोसे रहता नहीं था। अपनी सुरक्षा में लगे निजी लोगों को भी रोटेट करता रहता। रास्ते में भी आठ-दस गाड़ियां साथ रहतीं। थोड़ी-थोड़ी देर में गाड़ियां भी बदलता रहता। भरोसा किसी पर नहीं करता। अपने सगे भी उस के शक के दायरे में रहते। और जिस पर भी उस का शक गाढ़ा होता उसे वह फ़ौरन मौत की नींद सुला देता। कभी भूल कर भी वह कोई चांस नहीं लेता।
लेकिन इस ठाकुर मुख्यमंत्री ने तिवारी की चौतरफ़ा नाकाबंदी कर के उस की कमर तोड़ दी थी। शहर में क्या पूरे ज़िले में ठाकुरवाद-ब्राह्मणवाद की लड़ाई पूरे उफान पर थी। हालां कि शाही खुल कर कहता, ‘कहीं ठाकुरवाद-ब्राह्मणवाद की लड़ाई नहीं है। हमारी और गुरु जी की लड़ाई दरअसल ठेके पट्टे की लड़ाई है।’ वह अपने कई ले़फ्टिनेंटों के नाम गिनाता और कहता, ‘देखिए यह सभी पंडित हैं और हमारे ख़ास हैं।’ फिर वह तिवारी के कई ख़ास ले़फ्टिनेंटों के नाम गिनाता और कहता, ‘देखिए गुरु जी के यह लोग ठाकुर हैं। तो काहें की ब्राह्मणवाद-ठाकुरवाद की लड़ाई?’ वह जोड़ता, ‘सब गुरु जी का खेल है लोगों को उकसाने-भड़काने और अपनी रोटी पकाने का।’
शाही थोड़ा दिल का साफ़ था और तबीयत का बादशाह। एक समय तिवारी के लोग उसे मारने के लिए कुत्तों की तरह खोज रहे थे पर वह फिर भी सिनेमा देखने सिनेमा हाल चला जाता था। उन दिनों वीडियो, सी.डी., डी.वी.डी. की तकनीक कहीं दूर-दूर तक नहीं थी। सो वह सिनेमा हाल चला जाता। उन दिनों एक फ़िल्म लगी थी मेरा गांव मेरा देश। सिल्वर जुबिली हुई थी। तो शाही ने भी पचीसियों बार इस फ़िल्म को देखा। जान ख़तरे में डाल कर। शाही को औरतों, शराब वगै़रह का भी शौक़ था। पर तिवारी को औरतों, शराब वगै़रह से न सिर्फ़ मुश्किल थी बल्कि ऐसे लोगों को भी अपने से दूर रखता। हां, कभी-कभी तिवारी के होमो होने के शौक़ की चर्चा दबे ढंके ज़रूर चल जाती। पर बाक़ी मामलों में तिवारी शुद्ध शाकाहारी और विशुद्ध कंजूस के रूप में अभी भी जाना जाता है। तिवारी के अभेद्य सुरक्षा में यह अवयव भी महत्वपूर्ण साबित हुआ।
एक समय श्री प्रकाश शुक्ला नामक एक अपराधी पूरे पूर्वांचल में छा गया। उसे हत्या कर नाम कमाने का जैसे नशा सा था। अपराधी पुलिस सब को वह ताश की तरह फेंट कर मारता। उस ने तिवारी और शाही को भी निशाने पर लिया। तिवारी को निशाने पर उस के एक शागिर्द ने ही लिया जिस ने बाद में मंत्री रहते हुए भी एक कवियत्री की हत्या करवा दी क्यों कि वह उस के बच्चे को गिरवाने को तैयार नहीं थी। वह अब सपत्नीक जेल भुगत रहा है तो यह वह कवियत्री की बहन की वजह से नहीं बल्कि तिवारी की कृपा से। उस शागिर्द की सारी ज़मीनी नाकेबंदी तिवारी ने करवाई और सुप्रीम कोर्ट तक से उसे नाथ दिया। ख़ैर श्री प्रकाश शुक्ला लाख कोशिश के बावजूद तिवारी को नहीं मार पाया। पर शाही को एक सुबह लखनऊ में ही उस ने मार गिराया। जब वह औरतबाज़ी कर के अकेले लौट रहा था। बाद में तो श्री प्रकाश शुक्ला भी पुलिस के हाथों मारा गया। लेकिन तिवारी न सिर्फ़ बचा रह गया बल्कि मिली जुली सरकारों के दौर में बार-बार मंत्री भी बना। विभाग भले ही अच्छे न मिले हों उसे पर बना कैबिनेट मिनिस्टर ही। पहली बार जब तिवारी को विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय दिया गया तो तिवारी के लोग घूम-घूम कर कहते, ‘यह तो पंडित जी का अपमान है।’ तो एक दिन एक पत्रकार जो कभी शाही का मुंहलगा भी था बोला, ‘यह पंडित जी का अपमान नहीं है, यह तो बेचारे उन वैज्ञानिकों का अपमान है जो एक माफ़िया मंत्री के मातहत हो गए हैं।’ तब से तिवारी के लोगों ने यह कहना बंद कर दिया।
बहरहाल यह शहर कभी सांप्रदायिकता तो कभी अपराध की भट्ठी में सुलगता दहकता रहा। विकास का सपना भी नहीं देखा इस शहर ने और शीशे की तरह टूटता रहा। उस ठाकुर मुख्यमंत्री ने एक औद्योगिक विकास प्राधिकरण भी बनाया नोएडा की तर्ज पर। लेकिन अपनी स्थापना के ढाई दशक बाद भी यह प्राधिकरण फूल फल नहीं सका। तिवारी अब खरबपति हो कर यहां की चीनी मिलों को औने-पौने ख़रीद कर, बंद कर अपनी निजी संपत्ति बना कर मौज कर रहा है। और जिस भी किसी की सरकार बनती है उस में कभी सीधे, कभी प्रकारांतर से शामिल हो जाता है। भांजों, बेटों और चेलों को आगे पीछे लगा देता है। अब वह ख़ुद विधायक या मंत्री नहीं है तो क्या उस का एक बेटा सांसद है और भांजा एम.एल.सी.।
आप पूछ सकते हैं कि कभी तिवारी के पोषक रहे मणि जी कहां हैं? तो मणि जी अब दिवंगत हैं। लेकिन दिवंगत होने के पहले तिवारी ने उन को भी उन की हैसियत बता दी थी। हुआ यह कि एक कुष्ठाश्रम के ट्रस्ट में दोनों ही ट्रस्टी थे। मणि जी ने जब देखा कि कोढ़ियों का भी पैसा कुष्ठाश्रम का सुपरिंटेंडेंट हजम कर जा रहा है तो ट्रस्ट की मीटिंग में उन्हों ने इस पर हैरत जताई और डट कर विरोध जताया। लगभग सभी ट्रस्टी सुपरिंटेंडेंट को हटाने पर सहमत हो गए। सिर्फ़ एक माफ़िया तिवारी को छोड़ कर। सुपरिंटेंडेंट दरअसल गड़बड़ी कर ही रहा था तिवारी के दम पर। करोड़ों रुपए का बजट गटक रहा था, तिवारी को उन का हिस्सा दे रहा था। पर जब बाक़ी ट्रस्टियों ने सुपरिंटेंडेंट को बचाने में तिवारी की दिलचस्पी देखी तो चुप लगा गए। लेकिन मणि जी चुप नहीं हुए। लगातार बोलते रहे तमाम अनियमितताओं के खि़लाफ़! आजिज़ आ कर तिवारी मणि जी के पास हाथ जोड़ कर पहुंचा और कहा कि, ‘शांत हो जाइए।’
‘क्यों शांत हो जाऊं?’ मणि जी भड़के।
‘शांत हो जाइए!’ तिवारी ने हाथ जोड़ कर ही पर डपट कर कहा कि, ‘शांत हो जाइए, नहीं शांत कर दूंगा।’
मणि जी सकते में आ गए।
ट्रस्ट की मीटिंग से उठ कर चुपचाप चले गए। हालां कि वह कोई कमज़ोर नहीं थे। ख़ुद आई.ए.एस. रह चुके थे, एम.एल.सी. रह चुके थे। एक बेटा जस्टिस था जो बाद में एम.पी. भी हुआ। एक बेटा आई.पी.एस. था जो बाद में डी.जी.पी. भी हुआ। एक बेटा सेना में मेजर था। सब कुछ था पर इस तिवारी ने जो उन से कहा कि, ‘शांत हो जाइए, नहीं शांत कर दूंगा।’ उस के इस कहे ने उन्हें मथ दिया था। अकेला कर दिया था। तोड़ दिया था-भीतर तक। वह शंकर नहीं थे, पर भस्मासुर पैदा कर बैठे थे। आम समझ कर बबूल लगा बैठे थे। यह उन को अब एहसास हो रहा था। जब तिवारी की नागफनी ने उन को हलके से छुआ था।
यह क्या था?
यही उन का अवसान था।
फिर उन का देहावसान भी हो गया।
बड़े महंत जी कब के दिवंगत हो चुके थे। उन के बाद के महंत भी अब बुढ़ा रहे थे। उन के अवसान का समय भी अब नज़दीक था। इस महंत ने मंदिर के विस्तार और तमाम और संस्थानों के विस्तार में जो तत्परता और कुशलता दिखाई थी उस में एक छेद भी था- इस महंत की औरतबाज़ी। इस के लिए वह बदनाम हो चले थे। अपनी इन औरतों और इन से हुए बच्चों को उन्हों ने अपना नाम भले न दिया हो पर उन्हें सामाजिक स्वीकृति, संपन्नता और प्रतिष्ठा ख़ूब दी और दिलवाई। फिर जब अपने अवसान पर जीते जी स्वास्थ्य का हवाला दे कर इस नए महंत को अपनी गद्दी सौंपी तो दबी ज़ुबान ही सही यह चर्चा भी मंदिर परिसर से ही चल पड़ी कि यह महंत जी की ही संतान है। और कि उत्तराखंड में इस की माता निवास करती है।
पर यह चर्चा आम नहीं हुई, ख़ास ही बनी रही।
तिस पर महंत जी के उग्र तेवर ने लोगों में ऐसी दहशत भरी कि सारा शहर उन के यशोगान में डूब गया। क्या प्रशंसक क्या विरोधी किसी की भी ज़बान पर यह बात नहीं आई। सब जानते थे कि जो किसी की ज़बान पर यह बात आई तो उस की ज़बान उस के मुंह में नहीं रह पाएगी, काट दी जाएगी।
जो भी हो महंत जी सारी उठा पटक के बावजूद चुनाव भारी मतों से जीत गए। माफ़िया तिवारी के बेटे को छोड़ कर बाक़ी सभी की ज़मानत ज़ब्त करवा दी महंत जी ने।
वह टी.वी. पर देख रहा है कि मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री की दुबारा शपथ ले रहे हैं। नीचे लगातार पट्टी पर लिखा आ रहा है कि नेहरू के बाद दूसरे ऐसे प्रधानमंत्री जो अपना कार्यकाल पूरा करने के बाद दूसरी बार शपथ ले रहे हैं। तभी मुनव्वर भाई का फ़ोन आ जाता है। वह बता रहे हैं, ‘बस अभी आप के गांव से लौटा हूं।’
‘क्यों क्या हुआ मेरे गांव में?’
‘अरे आप भूल गए?’ वह थोड़ा गंभीर हो कर बोले, ‘आज चालीसवां था क़ासिम का!’
‘अच्छा-अच्छा!’
‘हमें तो उम्मीद थी कि आप भी आएंगे।’
‘कहां मुनव्वर भाई।’ वह बोला, ‘आप तो सारी बात जानते हैं।’
‘हां भई जानता हूं कि जो किसी से नहीं हारा, हार गया अपनों से।’
‘हां मुनव्वर भाई हम हारे हुए लोग ही तो हैं।’ वह बोला, ‘हारे हुए भी और अपमानित भी।’
‘सॉरी आनंद जी!’ मुनव्वर भाई बोले, ‘मैं अपने को इस तरह हारा हुआ नहीं मानता। आप को भी नहीं मानना चाहिए। हम एक न एक दिन कामयाब होंगे।’
‘यह सब रूमानी और किताबी बातें हैं मुनव्वर भाई!’ वह बोला, ‘पढ़ने-सुनने में अच्छी लगती हैं। ज़मीनी हक़ीक़त कुछ और ही है।’
‘मैं ऐसा नहीं मानता।’ मुनव्वर भाई बोले, ‘देखिए अब की चुनाव में एक बात तो साफ़ हो ही गई है राहुल गांधी और वरुण गांधी की लड़ाई में। कि देश में अब वरुण गांधी की राजनीति नहीं चलने वाली। सांप्रदायिकता और नफ़रत की जगह राहुल जी की साफ़ सुथरी राजनीति देश के लोग चाहते हैं। इन टोटल देखें तो लोगों ने सांप्रदायिक, जातीय राजनीति को तो लगभग तमाचा मारा है।’
‘मुनव्वर भाई चलिए एक हद तक आप की बात मान लेते हैं। और नीतीश कुमार की साफ़ सुथरी राजनीति को भी जिसे आप छोड़ रहे हैं, इस मंे जोड़ लेते हैं। फिर भी यह बताइए कि अब की चुनाव में वोटिंग का औसत क्या रहा?’
‘हां, यह तो अफ़सोसनाक है।’
‘तो फिर यह कैसे तय होगा कि देश की राजनीति कहां जा रही है?’ वह बोला, ‘एक समय था कि आप की कांग्रेस पैंतीस परसेंट-चालीस परसेंट, फिर तैतीस परसंेट वोट पा कर देश पर रूल करती थी। अब लगभग इतने ही परसेंट वोटिंग हो रही है। यह क्या है?
‘हो सकता है, अगले चुनाव तक यह चीजें भी ठीक हों।’
‘अच्छा आप यह बताइए कि अब की अपने शहर में महंत के खि़लाफ़ माहौल था?’
‘बिलकुल था।’
‘फिर भी वह लोगों की लगभग ज़मानत ज़ब्त करवा कर जीता। यह क्या है?’
‘ये तो है।’
‘सच यह है मुनव्वर भाई कि जैसा कि लोग कहते हैं कि देश के नेताओं की खाल मोटी है। तो मैं भी मानता हूं कि हां है। पर यह भी मानता हूं और जानता हूं कि इन नेताओं से भी ज़्यादा हमारी जनता की खाल मोटी है। जानती है कि फ़लां बदमाश है, कमीना है, भ्रष्ट है, अपराधी है, जातिवादी है, सांप्रदायिक है पर उस के खि़लाफ़ वोट देने नहीं जाती। तो यह क्या है?’
‘सो तो है?’
‘बताइए कि मुंबई में जब ताज, ओबराय होटलों और स्टेशन वगै़रह पर आतंकवादी हमला हुआ था तब गेट वे ऑफ इंडिया पर मोमबत्ती जलाने जैसे समूचा मुंबई सड़कों पर उतर आया था। पर जब शिव सेना के गुंडे अभी इस के कुछ दिन पहले यू.पी. और बिहार के गरीबों को मार रहे थे, वहां से भगा रहे थे तो यह मंुबई की जनता वहां चुप क्यों बैठी थी? सड़कों पर क्यों नहीं आई थी? क्या इस का विरोध नहीं करना चाहिए था वहां के लोगों को?’ वह बोला, ‘और देखिए अब यही मुंबई की जनता वोट देने भी नहीं निकली। बल्कि एक फ़िल्मी एक्टर बेशर्मी पार करते हुए कहने लगा कि वोट देने के लिए भी पैसा मिलना चाहिए। पैसा नहीं मिला इस लिए उस ने वोट नहीं दिया। तब जब कि वह एक साथ कांग्रेेस, भाजपा दोनों के प्रचार में गया था। तो जाहिर है कि वहां पैसा मिला होगा तभी गया होगा। जब कि एक फ़िल्मी हीरो ने चैनलों को तमाशा करते हुए बताया कि वह विदेश में अपनी शूटिंग छोड़ कर वोट डालने आया है। जब कि हक़ीक़त यह थी कि एक पंूजीपति के घर उस दिन शादी में वह नाचने के लिए आया था, करोड़ो रुपए ले कर। और यही फ़िल्मी हीरो हमारे समाज के आज के आइकन हैं, सेलिब्रिटी हैं।’
‘चलिए आनंद जी यह सब चीज़ें हमारी आप की बहस से सुलझने वाली भी नहीं हैं।’
‘पर यह जो पैसे का राक्षस हमारे समाज को संचालित कर रहा है। इस का क्या करें? पैसा बड़ा था शुरू से पर अब यह इतना बड़ा राक्षस हो गया है कि क्या करें? राम के ज़माने में रावण भी इतना बड़ा नहीं रहा होगा, कृष्ण के ज़माने में कंस भी इतना बड़ा नहीं रहा होगा, जितना बड़ा राक्षस यह पैसा हो गया है हम लोगों के ज़माने में।’
‘ये तो है।’
‘चलिए मुनव्वर भाई भाषण बहुत हो गया। फिर बात होगी।’
‘अच्छी बात है।’
‘अरे हां, यह बताइए कि हमारे गांव में सब कुछ सामान्य तो है न?’
‘हां, हमें तो सामान्य ही लगा।’ वह बोले, ‘क्यों क्या हुआ?’
‘नहीं वैसे ही पूछ लिया कि कहीं कोई तनाव वग़ैरह।’
‘नहीं ऐसा कुछ नहीं दिखा हमें तो।’
‘ठीक बात है।’
बात ख़त्म हो गई थी।
उधर टी.वी. पर शपथ ग्रहण की ख़बर भी ख़त्म हो गई थी।
मन हुआ उस का कि गांव फ़ोन कर के घर गांव का हालचाल ले ले। पर जाने क्यों वह टाल गया। चला गया गोमती नगर एक दोस्त के घर। लौटा तो गांधी सेतु के रास्ते। अंबेडकर पार्क और लोहिया पार्क के बीच से। एक तरफ़ अंबेडकर दूसरी तरफ़ लोहिया। बीच में टाटा ग्रुप का पांच सितारा ताज होटल। तीनों को गोमती पार से जोड़ता गांधी सेतु अजब कंट्रास्ट है। अंबेडकर पार्क पत्थरों में तब्दील हैं। तीन साल से काम ख़त्म ही नहीं हो रहा। लखनऊ पहले बाग़ों का शहर होता था अब पार्कों और पत्थरों का शहर है। कि तानाशाहों का शहर है यह? मास्टर प्लान में यह इलाक़ा ग्रीन बेल्ट का था अब यहां पत्थर बोलते हैं। अंबेडकर, लोहिया, गांधी सेतु! तीनों ग़रीबों के पक्षधर बीच में टाटा का पांच सितारा ताज। अमीरी का प्रतीक। नवाबों के शहर लखनऊ की यह नई कैफ़ियत है! कि चौराहे बड़े हो गए हैं और सड़कें संकरी।
यह क्या है? कौन सी कैफ़ियत है?
कभी शायरों के काफिया तंग होते थे अब लोगों की कैफ़ियत!
वह आफ़िस के एक सहयोगी के घर पर है। उस के पिता का निधन हो गया है। अचानक। मौत पता तारीख़ तो बता कर आती भी नहीं। पर लोग भी नहीं आए हैं। उस के पिता का निधन एक दिन पहले ही हो गया था। रिश्तेदारों, पट्टीदारों को ख़बर भेज कर दो दिन का इंतज़ार किया। कोई नहीं आया। यहां तक कि कोई पड़ोसी भी झांकने नहीं आया। आफ़िस के लोग भी इक्का दुक्का ही हैं। कुछ लोग फ़ोन कर के जबरिया बुलाए जाते हैं। दर्जन भर लोग भी इकट्ठे नहीं होते। एक सहयोगी बुदबुदा रहा है, ‘यह साला भी तो किसी के दुख सुख में नहीं जाता। तो कोई कैसे आएगा?’ लाश वाली गाड़ी बुलाई जाती है। श्मशान घाट पहुंच कर दाह संस्कार संपन्न हो जाता है। सहयोगी कुपित है और चाहता है कि सब कुछ आर्य समाज ढंग से दो तीन दिन में संपन्न हो जाए। फ़ालतू का ख़र्च भी बचेगा। पर सहयोगी की रोती बिलखती मां अड़ गई है कि, ‘सब कुछ विधि विधान से होगा। दसवां भी होगा, तेरही भी और बरखी भी। आखि़र पिता थे तुम्हारे!’
मां और बेटे में मौन जंग जारी है।
घर आकर आनंद सोचता है कि क्या मनुष्य अब सामाजिक प्राणी नहीं रहा? कभी स्कूलों में निबंध लिखवाया जाता था कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। उस ने बीच-बीच में भी कई बार पाया कि मनुष्य अब सामाजिक प्राणी नहीं बल्कि पारिवारिक प्राणी हो गया है। तो क्या अब वह कुछ दिनों में पारिवारिक प्राणी भी नहीं रह जाएगा। सुविधाओं और तकनीक में फंसा मनुष्य अब एकल प्राणी होने की ओर अग्रसर है! आने वाले दिनों में स्कूलों में निबंध लिखवाया जाएगा कि मनुष्य अब एकल प्राणी है। सॉरी अब तो निबंध नहीं एस्से लिखवाया जाता है स्कूलों में। इंगलिश मीडियम का बुख़ार है स्कूलों में अब तो। तो क्या आगे के दिनों में मनुष्यत्व भी या मनुष्य भी नहीं बचा रह पाएगा?
यह कौन सी कैफ़ियत है?
यह कौन सी प्यास है?
कंपनी के चयेरमैन के साथ वह अपने शहर आया है। एक प्रोडक्ट की लांचिंग है। चार्टर्ड प्लेन से सभी लोग पहुंचे हैं। वहां पहुंचने पर पता चलता है कि उसे चेयरमैन के साथ मंच पर बैठना है। उसे मुश्किल हो जाती है। कि जिस शहर में वह राजनीति के लिए, लड़ने के लिए जाना जाता है, उसी शहर में अपने लोगों के सामने उसे प्रोडक्ट बेचने के लिए बैठना पडे़गा। जिस बाज़ार के खि़लाफ़ वह सेमिनारों में पचासियों बार बोलता रहा है, अब उसी बाज़ार के साथ मैं भी खड़ा हूं, यह लोगों को बताना दिखाना पड़ेगा। चेयरमैन से तो नहीं पर वह एम.डी. से कहता है कि, ‘सर प्लीज़ मुझे मंच से थोड़ा दूर रखिए।’
‘अरे भाई आप यहां एक पब्लिक फीगर हैं। कंपनी इस का लाभ लेना चाहती है। सिंपल! इस में आप को ऐतराज़ नहीं होना चाहिए। बिलकुल नहीं होना चाहिए।’
‘पर सर!’ वह सकुचाते हुए कुछ बोलना चाहता है।
‘कुछ नहीं आनंद जी इट्स डिसीज़न आफ़ आनरेबिल चेयरमैन सर। मैं कुछ कर भी नहीं सकता। और फिर अभी महंत जी भी आ रहे हैं।’ एम.डी. फुसफुसा कर बोला।
‘महंत जी!’ आनंद बोला, ‘तब तो आप मुझे हरगिज़ न बिठाइए।’
‘हिंदुत्व और सेक्युलरिस्ट दोनों एक साथ स्टेज पर रहेंगे तो क्या मैसेज जाएगा पब्लिक में!’ एम.डी. चहकते हुए बोला, ‘कि यह प्रोडक्ट सब का है। क्या आइडिया। आनरेबिल चेयरमैन सर इज़ वेरी इंटेलिजेंट! हैव ग्रेट आइडिया! गंगा-जमुनी कल्चर इसी को तो कहते हैं।’ कह कर वह ही ही कर हंसने लगा।
‘पर महंत जी के साथ एक स्टेज शेयर करने में मेरी आत्मा गवारा नहीं करती।’
‘क्यों नहीं करती?’ एम.डी. बोला, ‘अभी कल को आप पार्लियामेंट में जाएंगे तो क्या पार्लियामेंट में बैठने से सिर्फ़ इस लिए इंकार कर देंगे कि महंत जी भी यहां बैठे हैं या आप के अन्य विरोधी भी बैठे हैं? तो जैसे पार्लियामेंट में सभी विरोधी एक साथ बैठ सकते हैं तो यहां आप क्यों नहीं बैठ सकते?’
‘पर यह पार्लियामेंट नहीं है।’
‘देन यू प्लीज़ टाक टू आनरेबिल चेयरमैन सर!’ वह बोला, ‘आई एम सॉरी!’
आनंद को लगा कि अब उस के दिमाग़ की नसें तड़क जाएंगी।
भीड़ से अलग हट कर वह सिगरेट निकाल लेता है। सिगरेट सुलगाते ही कंपनी चेयरमैन का पी.ए. मुसकुराता हुआ उस की ओर बढ़ आता है। कहता है, ‘हैव ए नाइस डे सर!’
‘शुक्रिया।’ वह बोला,‘दिन मेरा अच्छा रहे इस के लिए थोड़ी मदद करेंगे मेरी।’
‘बिलकुल सर!’ पी.ए. बोला, ‘आज तो सर आप स्टेज पर होंगे। आनरेबिल चेयरमैन सर के साथ। मंच पर कुल पांच लोग होंगे। आनरेबिल चेयरमैन सर, एम.डी. सर, महंत जी, आप सर और वाइस चेयरमैन बजाज सर! आप की सीट महंत जी के साथ होगी सर। ताकि आप लोगों की बातचीत हो सके और पिछला गिला-शिकवा दूर हो सके। आनरेबिल चेयरमैन सर ऐसा ही चाहते हैं।’
‘पर मैं अगर स्टेज पर नहीं बैठूं तो?’ आनंद बोला, ‘अपने आनरेबिल चेयरमैन सर को बता दीजिए कि मैं स्टेज शेयर नहीं करना चाहता। रही बात महंत जी से गिला-शिकवा दूर करने की तो यह तो पब्लिकली स्टेज पर हो भी नहीं सकती।’
‘जस्ट हारमोनी सर! एंड बिज़नेस स्ट्रेटजी सर! प्लीज़ सर!’
‘चेयरमैन से मेरी बात करवा सकते हैं? अभी?’
‘सॉरी सर! आ़फ्टर फंक्शन!’
‘तब बात कर के क्या करेंगे?’
‘सर, अब तो उनके आने का समय भी हो गया है।’ घड़ी देखते हुए पी.ए. बोला।
‘ओ़फ़! मैं क्या करूं?’
‘कुछ नहीं सर, चलिए और स्टेज की शोभा बढ़ाइए।’
आनंद अपना माथा पीट लेता है। सोचता है कहीं महंत की ही यह साज़िश तो नहीं है उसे अपमानित करने की, उसे खंडित करने की, उसे तोड़ देने की, तोड़ कर छिन्न-भिन्न कर देने की?
कुछ दिन पहले हिंदी के एक लेखक के साथ भी ऐसा कुछ क्या ऐसे ही घट गया था? ज़िंदगी भर सांप्रदायिकता के खि़लाफ़ लिखने वाले इस लेखक ने एक पारिवारिक सम्मान इस महंत के हाथों स्वीकार कर लिया था और नेट पर ब्लागरों ने उसे घेर लिया था। उस लेखक के पास मुंह छुपाने की भी जगह नहीं छोड़ी थी, ब्लागरों ने। इस लेखक ने ब्लागरों को जवाब देने में भी शालीनता की सीमा लांघ दी थी। कहा था मेरे मित्र के अख़बार के एक कर्मचारी ने मेरे खि़लाफ़ कुछ अनर्गल सा लिखा है। और बता दिया था कि मैं उसे जानता तक नहीं और कि यह मेरे ऊपर कुछ जातिवादियों का हमला है, वगै़रह-वगै़रह! जब कि वह ब्लागर पत्रकार भी उस लेखक का मित्र था। लेखक के इस हेकड़ी भरे जवाब ने लोगों को और उकसाया। और वह घिरता ही गया। फिर उसने अंततः माफ़ी मांगी। पर अब तक उसको लोगों ने माफ़ नहीं किया। तमाम सफ़ाई के बावजूद। वह तो समाज से लगभग कटे हुए लेखकों की एक सीमित सी दुनिया है जिसमें भी लोगों ने उस लेखक को माफ़ नहीं किया। तो आनंद तो अपने को प्रतिबद्ध राजनीतिक मानता है, लोग कैसे उसे माफ़ करेंगे? जनता जवाब मांगेगी तो वह क्या जवाब देगा? जवाब देते बनेगा भी उस से भला? इसी शहर के एक कवि देवेंद्र आर्य का शेर याद आ जाता है... कलियुग में त्रेता हूं इसका क्या मतलब / तुमको छू लेता हूं इसका क्या मतलब / गरियाता हूं जिन्हें उन्हीं के हाथों से / पुरस्कार लेता हूं इसका क्या मतलब?
सिगरेट उसकी ख़त्म हो गई है और चेयरमैन की कार भी आ गई है। मय लाव लश्कर के। प्रोटोकाल के मुताबिक़ लाइन से खड़ा हो कर चेयरमैन का स्वागत करने वालों में उस को भी खड़ा होना था, लोग खड़े भी हो गए हैं। पर वह आडिटोरियम के दूसरे छोर पर अकेला खड़ा वह यह सब देख रहा है। उस का मोबाइल बजता है। उधर से चेयरमैन का पी.ए. है। खुसफुसा रहा है, ‘सर आप कहां हैं? आनरेबिल चेयरमैन सर आप को याद कर रहे हैं।’
‘आ रहा हूं।’ कहते हुए वह आगे बढ़ता है बुदबुदता हुआ, ‘लगता है अब आज मेरी नौकरी के दिन पूरे हो गए!’
चेयरमैन अभी तक कार में बैठे हैं। जाने सचमुच किसी से मोबाइल पर बात कर रहे हैं कि बात करने का अभिनय कर रहे हैं। ख़ैर, वह धीरे से क़तार में खड़ा हो जाता है। ठीक एम.डी. के बग़ल में। एम.डी. कनखियों से उसे देखते हुए मुसकुराते हैं। सब के हाथ में बुके है। आनंद का हाथ ख़ाली है। एक आदमी पीछे से आ कर उस के हाथ में भी बुके थमा देता है। चेयरमैन कार से बाहर आ गए हैं। फूलों की बरसात के बीच वह सब से बुके लेते हैं। आनंद उन्हें बुके देते हुए कहता है, ‘सर, आप से कुछ बात करनी है अभी!’
‘हां, आनंद जी हम लोग लंच साथ करेंगे तभी बात करते हैं ओ.के।’ कहते हुए चेयरमैन मुसकुराए और उस का हाथ पकड़े हुए आडिटोरियम के अंदर बढ़ चले। आनंद सन्न! अब क्या करे! तब तक पता पड़ा महंत जी भी लाव लश्कर सहित बाहर आ गए थे। चेयरमैन पलट कर आडिटोरियम से बाहर जाने लगे। बोले, ‘आइए महंत जी को रिसीव कर लें।’
पर आनंद वहीं रुक गया।
ज़रा देर में ही फूल माला से लदे महंत और चेयरमैन आडिटोरियम के भीतर आ गए और तालियों की गड़गड़ाहट से उन का स्वागत हुआ। अन्य समारोहों की तरह नारेबाज़ी नहीं हुई। आडिटोरियम में एक कोना खोज कर आनंद फिर खड़ा हो गया। एनाउंसर ने सब का स्वागत करते हुए मंच पर पहले महंत जी को बुलाया फिर चेयरमैन से उन का स्वागत करने को कहा। एम.डी. ने चेयरमैन का स्वागत किया। वाइस चेयरमैन ने एम.डी. का। वाइस चेयरमैन के स्वागत के लिए आनंद को पुकारा गया। उसे पूर्व छात्र नेता और सामाजिक कार्यकर्ता बताया गया। फिर आनंद का स्वागत कंपनी के एक दूसरे अधिकारी ने किया। आनंद अपना नाम सुन कर सकपकाया। और पीछे हटने की कोशिश की। तो पाया कि चेयरमैन का पी.ए. उस के पीछे मुसकुराता हुआ ही ही करता खड़ा था। आनंद ने उस से खीझ कर पूछा भी कि, ‘क्या आज आप का एसाइनमेंट मैं ही हूं?’
‘राइट सर!’ बोलते हुए ही ही करते हुए उसे मंच तक ले गया।
अजीब मूर्खता थी।
जब वह अपनी तय कुर्सी पर बैठा तो महंत जी मुसकुरा कर आनंद से मुख़ातिब हुए, ‘कहिए आनंद जी!’
‘जी नमस्कार।’
तब तक कंपनी की एक मैनेजर आनंद के पास लपक कर आई। बोली, ‘सर आप की स्पीच के लिए प्रोडक्ट के बारे में ये डिटेल है जो आप को अभी बोलना होगा।’
उसने बेमन से काग़ज़ ले कर चेयरमैन की ओर देखा। चेयरमैन ने आंखों के इशारे से आनंद को स्वीकृति दी। और मुसकुराया।
उधर एम.डी. की स्पीच जारी थी। वह समझ गया कि आज वह चेयरमैन के जाल में फंस गया है। नौकरी में मिल रही सुविधाएं आज अपनी क़ीमत मांग रही हैं। उसे एक पाकिस्तानी शायर आली का एक दोहा याद आ गया; तह के नीचे हाल वही जो तह के ऊपर हाल/मछली बच कर जाए कहां जब जल ही सारा जाल!
उसने अपनी छोटी सी स्पीच में भी इस दोहे को कोट किया और कहा कि जाल जब इतना सर्वव्यापी हो जाए तो इस कंपनी का यह प्रोडक्ट ही आप सब को इस दुर्निवार जाल से बाहर निकाल सकता है।
इस पर तालियां भी बजीं और उस ने ग़ौर किया कि चेयरमैन की आंखों में भी उस के लिए प्रशंसा के भाव थे। वह और मर गया।
चेयरमैन ने अपने भाषण में आनंद के उस जाल के रूपक को इक्ज़ांपिल कह कर कोट किया। और प्रोडक्ट के गुन बताते हुए महंत जी से अनुरोध किया कि वह इस की लांचिंग करें। महंत जी ने प्रोडक्ट की औपचारिक लांचिंग की और फिर कंपनी और चेयरमैन की प्रशस्ति में धुआंधार भाषण झाड़ा।
लांचिंग प्रोग्राम संपन्न हो गया था।
और जैसा कि चेयरमैन ने आनंद से कहा था कि लंच साथ करेंगे। वह लंच के लिए आनंद को साथ ले कर चले अपनी कार में। रास्ते में वह आनंद की लैक्सिबिलिटी और लांचिंग की सक्सेस के यशोगान में लगे रहे। आगे-आगे महंत जी की कार थी, पीछे-पीछे चेयरमैन की। चेयरमैन ने बात ही बात में बताया कि महंत जी बड़े काम के आदमी हैं। इस प्रोडक्ट के लिए तमाम एजेंसियों की उन्हों ने लाइन लगवा दी है इस पूरे बेल्ट में। सो आनंद को थोड़ा उन से टैक्टफ़ुली पेश आना चाहिए। उन को लगे कि उन का ईगो हम एक्सेप्ट करते हैं और कि लंच में थोड़ा उन का इगो मसाज हो जाए!
आनंद चुप रहा।
चेयरमैन का होटल भी आ गया था। लंच क्या था, लगभग फलाहार और शाकाहार था। महंत जी की इच्छा के अनुरूप।
बातचीत चेयरमैन ने ही शुरू की पर लगाम जल्दी ही महंत के हाथ आ गई। इधर-उधर की बातों के बाद महंत जी बोले, ‘आनंद जी आप भाषण बहुत बढ़िया और सटीक देते हैं। शेरो शायरी का पुट मिला कर। पहले लोगों से सुनता था आज देख भी लिया। क्या शेर फिट किया आज आप ने।’
‘शेर नहीं दोहा था।’ आनंद धीरे से बोला।
‘अरे वही-वही।’ महंत जी बोले, ‘सच मानिए अगर आप चुनाव लड़ने भी मेरे खि़लाफ़ आए होते तो मज़ा आया होता। ई माफ़िया के लवंडे और नचनिया गवैया से लड़ने में मैं बोर हो गया। पढ़े लिखे और आप जैसे बोलने वाले आदमी से लड़ने में रस ही कुछ और होता।’
‘मैं और चुनाव?’ आनंद बोला, ‘वह भी आप के खि़लाफ़?’
‘हां भई, हां।’ वह बोले, ‘मज़ा तो मज़बूत आदमी से लड़ने में ही आता है। टक्कर बराबर की होनी चाहिए!’
‘मतलब आप जीत का रिकार्ड बनाना चाहते थे?’
‘आप जो समझिए!’ महंत जी बोले, ‘पर आप को मैडम का आफ़र एक्सेप्ट कर लेना चाहिए था।’
‘अरे इस आफ़र की जानकारी आप को कैसे हो गई?’ आनंद मुसकुराते हुए अचरज में पड़ गया।
‘मैडम का आफ़र समझा नहीं आनंद जी!’ चेयरमैन ने उत्सुकता से पूछा।
‘अरे वह जो इनकाउंटर हुआ था, जिस में इन्हों ने मुझ पर निशाना बांध कर मजमा बांध दिया था, हीरो बन गए थे। तो अपनी मैडम चीफ़ मिनिस्टर इन पर फ़िदा हो गईं। सीधा आफ़र रख दिया मेरे खि़लाफ़ इन को अपनी पार्टी से उम्मीदवार बनाने का। पर जाने क्यों यह पीठ दिखा गए।’
‘क्या यह सच है आनंद जी!’ चेयरमैन का चेहरा देखने लायक़ था।
‘हां सच है।’ आनंद बोला, ‘पर यह बात दो तीन लोगों को छोड़ कर तो कोई जानता ही नहीं। आप कैसे जान गए महंत जी?’
‘मैं लखनऊ ज़्यादा नहीं जाता, यह सच है। पर ब्यूरोक्रेसी में मेरे भी बहुत आदमी हैं। पता तो मुझे उसी दिन चल गया था।’
‘चलिए फिर कोई बात नहीं!’ आनंद ने बात ख़त्म करने की कोशिश की। पर अचानक महंत जी जैसे उसे अपमानित करने पर आ गए। बोले, ‘आप राजनीति के आदमी हो कर नौकरी क्यों करते हैं?’
‘इसलिए कि मैं अपने राजनीतिक मूल्यों से, आदर्शों से समझौता नहीं करना चाहता। ख़ैर, आप भी योगी हो कर राजनीति क्यों करते हैं?’ आनंद ने मासूमियत ओढ़ कर पूछा।
‘क्या योगी को राजनीति करने का संवैधानिक अधिकार नहीं है? वह देश का नागरिक नहीं है?’
‘क्यों नहीं है पर फिर आप को अपने नाम से योगी शब्द हटा लेना चाहिए।’
‘सुना है आप गांधी के अनुयायी हैं, फिर पंडित भी हैं। तो आप पंडित हो कर भी शराब नहीं पीते हैं? तो ऐसे तो आप को भी अपने नाम के आगे से ब्राह्मण सूचक शब्द हटा देना चाहिए! गांधीवादी होने का पुछल्ला हटा लेना चाहिए!’
‘क्यों शराब पीना क्या संविधान के खि़लाफ़ है? क्या ग़ैर क़ानूनी है?’ आनंद अब उबाल पर था, ‘यह व्यक्तिगत मसला है, सार्वजनिक नहीं।’ वह बोला, ‘शराब को मैं जायज़ भी नहीं ठहरा रहा पर यह नितांत व्यक्तिगत मसला है। पी कर मैं कभी सार्वजनिक नहीं होता, उत्पात नहीं करता। पर आप? आप महंत जी?’
‘हां, हां बताइए क्या कहना चाहते हैं? कहिए!’ महंत जी मुसकुराए। मुसकुराए यह देख कर कि आनंद तिलमिला गया है। पर आनंद ने उन की मुसकुराहट में ही धीरे से जवाब दिया,
‘पर आप तो महंत जी दंगे करवाते हैं, योगी हो कर भी, भगवा पहन कर भी भोग के कार्यों में संलग्न दिखते हैं। आप को लोग हत्यारा कहते हैं।’
‘आनंद जी मैं दंगे नहीं करवाता। दंगाइयों का शमन करता हूं, करवाता हूं।’ महंत जी किचकिचाए, हत्यारा नहीं हूं मैं।’
‘क्यों क्या आप प्रशासन के अंग हैं? डी.एम. हैं कि एस.पी. क्या हैं? आखि़र किस क़ानून के तहत आप दंगाइयों के शमन का ठेका ले लेते हैं?’
‘मैं सांसद हूं। अपनी जनता के प्रति जवाबदेह हूं।’
‘क़ानून हाथ में लेकर?’ आनंद बोला, ‘क्षमा करें महंत जी, आप जिस पीठ के महंत हैं, उस पीठ के प्रति मेरे मन में गहरा आदर है, पूरी निष्ठा है। पर अफ़सोस कि उस गोरक्ष पीठ जिसके कि आप महंत हैं, सारे कार्य उस के विपरीत करते हैं?’
‘अब आप जैसों से हमें अपना आचरण, अपना कार्य सीखना होगा?’ महंत भड़के।
‘जी नहीं। मैं क्यों आप को कुछ सिखाने लगा। मुझे योग का क ख ग भी नहीं आता। पर जिस नाथ संप्रदाय का आप अपने को बताते हैं, उस नाथ संप्रदाय का थोड़ा बहुत साहित्य मैं ने भी पढ़ा है। आप ही के मंदिर से नाथ संप्रदाय की कुछ पुस्तकें बहुत पहले ख़रीदी थीं और पढ़ी थीं। उन्हीं के आधार पर यह बात कह रहा हूं।’
‘अच्छा-अच्छा!’ महंत जी जबरिया मुसकुराते हुए बोले, ‘तो आज आप मुझ से शास्त्रार्थ के मूड में हैं?’
‘जी नहीं मैं नाथ संप्रदाय का कोई आचार्य नहीं हूं, कोई विशेषज्ञ या संत भी नहीं हूं। पर थोड़ी बहुत जो जानकारी है उसी के आधार पर यह कह रहा हूं कि आप अपनी पीठ के विपरीत कार्य कर रहे हैं।’
‘जैसे? ज़रा मैं भी जानूं?’
‘आप को पता है कि जैसे पतंजलि के बिना भारत में योग की कोई अर्थवत्ता नहीं है, ठीक वैसे ही गुरु गोरख के बिना भारत में संत परंपरा की कोई अर्थवत्ता नहीं है। गुरु गोरख के बिना परम सत्य को पाने के लिए विधियों की जो तलाश शुरू हुई, साधना की जो व्यवस्था प्रतिपादित की गुरु गोरखनाथ ने, मनुष्य के भीतर अंतर-खोज के लिए जितने आविष्कार किए गुरु गोरखनाथ ने, किसी ने नहीं किए। मनुष्य के अंतरतम में जाने के लिए इतने द्वार तोड़े हैं गुरु गोरखनाथ ने कि लोग द्वारों में उलझ गए।’ वह बोला, ‘क्षमा करें महंत जी आप गुरु गोरखनाथ को भूल कर गोरखधंधे में लग गए हैं।’
‘यह आप कह रहे हैं!’ महंत संक्षिप्त सा बोले।
‘जी नहीं, गुरु गोरखनाथ कह रहे हैं मैं नहीं।’ आनंद बोला, ‘गुरु गोरखनाथ तो कहते हैं; मरौ वे जोगी मरौ, मरौ मरन है मीठा/तिस मरणी मरौ, जिस मरणी गोरख मरि दीठा। तो गुरु गोरखनाथ तो मरना सिखाते हैं। अहंकार को मारने की, द्वैत को मारने की बात करते हैं। उन की सारी साधना ही समय को मार कर शाश्वतता पाने की है, शाश्वत हो जाने की है, इसी लिए वह अब भी शाश्वत हैं। आप को पता है कबीर, नानक, मीरा यह सभी गोरख की शाखाएं हैं। इन के बीज गुरु गोरखनाथ ही हैं।’ वह बोला, ‘गुरु गोरखनाथ अहंकार को मारने की बात करते हैं। वह कहते हैं आप जितने अकड़ेंगे, छोटे होते जाएंगे। अकड़ना अहंकार को मज़बूत करता है। वह तो कहते हैं कि आप जितने गलेंगे, उतने बड़े हो जाएंगे, जितना पिघलेंगे उतने बड़े हो जाएंगे। अगर बिलकुल पिघल कर वाष्पी भूत हो जाएंगे तो सारा आकाश आप का है। गुरु गोरख सिखाते हैं कि आप का होना, परमात्मा का होना एक ही है।’ आनंद बोला, ‘पर महंत जी आप ध्यान दीजिए कि आप क्या कर रहे हैं, योगी हो कर भी यहां के लोगों को क्या सिखा रहे हैं? अपनी न सही, अपनी पीठ और गुरु गोरखनाथ का ही मान रख लीजिएगा तो सब ठीक हो जाएगा।’
‘आप को तो कहीं प्रोफ़ेसर होना चाहिए, कथावाचक होना चाहिए!’ महंत बोले, ‘कहां राजनीति में फंस गए हैं?’
‘राजनीति में नहीं महंत जी, नौकरी में हूं।’ वह बोला, ‘आप जैसे लोग राजनीति को साफ़ सुथरी होने नहीं देंगे और हमारे जैसे लोग फिर कहां आ पाएंगे राजनीति में?’
‘चलिए आप हम से मतभेद भले रखें, लाख रखें पर आप के लिए मेरे मन में इज़्ज़त हो गई है।’
‘मैं भी चाहता हूं कि जैसी इज़्ज़त जैसी भावना मेरे मन में आप की पीठ के लिए है, गुरु गोरखनाथ के लिए है, आप के लिए भी हो जाए!’ वह बोला, ‘गुरु गोरखनाथ का वह पद याद कीजिए; शून्य शहर गढ़ बस्ती, कौन सोता कौन जागे रे/लाल हमारे हम लालन के, तन सोता ब्रम्ह जागे रे! और आप हैं कि तन को जगाए हैं ब्रम्ह को सोने दे रहे हैं। यह कोई अच्छी बात है क्या? इस पद को कुमार गंधर्व की आवाज़ में कभी सुनिए। मर्म समझ में और जल्दी आएगा।’
‘मतलब आप चाहते हो आनंद जी की हम आध्यात्मिक हो जाएं, राजनीति छोड़ दें?’ वह बोले, ‘भइया इस जनम तो होने से रहा। बिना राजनीति के हम तो न रह पाएंगे?’
‘राजनीति छोड़ने के लिए मैं ने कहा भी नहीं!’ आनंद बोला, ‘आचरण छोड़ने के लिए कहा!’
‘यह आचरण छोड़ कर सड़क पर कटोरा ले कर बैठ जाऊं?’ महंत बोले, ‘ऐसे तो एक भी वोट न देगा कोई। क्यों बरबाद करना चाहते हो आनंद जी।’ उठते हुए महंत जी बोले, ‘आप अपने औज़ार चमकाओ, और हमें अपने औज़ार चमकाने दो। हमें आप की तरह नौकरी नहीं, राजनीति करनी है, देश की राजनीति, समाज को बचाने की राजनीति। अच्छा तो चेयरमैन साहब चलते हैं अब! अच्छी मीटिंग रही आज की।’
‘चलिए आप के गिले शिकवे तो दूर हो गए हम से?’
‘हां भई, फुल शास्त्रार्थ हो गया आज तो। अब बाक़ी क्या रहा?’
महंत जी को चेयरमैन सहित सारा अमला होटल के बाहर तक सी आफ़ करने गया। आनंद भी!
चेयरमैन के वापसी का अब समय हो चला था। वह बोले, ‘ओ.के. आनंद जी, अच्छी मीटिंग हो गई महंत जी के साथ। बिलकुल फ्रुटफुल!’ वह बोले, ‘पर मैडम ने सचमुच आप को इस सीट से टिकट आफ़र किया था?’
‘किया तो नहीं, पर हां करवाया था!’
‘तो आप को मान जाना था!’
‘आप जानते हैं सर कि मैं नौकरी में भले कंप्रोमाइज़ कर लूं। जीवन यापन है यह। पर राजनीति में मैं कंप्रोमाइज़ नहीं कर सकता। वह भी उस मैडम के साथ! हरगिज़ नहीं।’
‘इटस योर पर्सनल आनंद जी!’
‘थैंक यू सर!’
‘सुनता था कि आप की स्टडी बहुत अच्छी है, अच्छे ओरेटर हैं, आज देख भी लिया। इट्स नाइस! यू आर द एसेट आफ़ माई कंपनी।’
आनंद चुप रह गया।
यह तमाचा खा कर वह करता भी तो क्या?
तो क्या अब वह इस कंपनी की संपत्ति हो गया? अब वह आदमी नहीं रहा, कर्मचारी नहीं रहा, संपत्ति हो गया! कारपोरेट सेक्टर की नौकरी क्या कम थी उसे मारने के लिए? जो आज उसे यह तमग़ा भी मिल गया? उसे अपने आप से घिन आने लगी।
वह भी होटल से चलने को हुआ। और सिगरेट जला ली। कि तभी चेयरमैन का पी.ए. ही ही करता आया। बोला, ‘वेल सर! आनरेबिल चेयरमैन सर इज़ वेरी हैप्पी! हैप्पी टू यू सर!’
‘क्यों?’
‘महंत जी का इगो मसाज बहुत अच्छे से हो गया। अब देखिएगा प्रोडक्ट यहां बहुत अच्छे से रन करेगा!’
‘अच्छा!’ कह कर उस ने पुच्च से वहीं थूक दिया और सिगरेट भी फेंक दी। पर वह बेहया पी.ए. फिर बोला, ‘वेरी नाइस सर!’
‘उफ!’ कहते हुए उस ने माथे पर अपना हाथ फेरा।
‘वेरी सॉरी सर!’ कह कर पी.ए. सरक गया।
उस ने एम.डी. को बता दिया कि वह प्लेन छोड़ रहा है। वह अपने गांव जाना चाहता है। एम.डी. मान गए। वह बोले, ‘चाहें तो आप के लिए कंपनी की एक कार छोड़ दें?’
वह मान गया।
फिर वह अपने गांव चला गया है। पट्टीदारी में एक लड़के की तिलक आई है। अम्मा कहती हैं, ‘बाबू तुम को भी उन के दरवाज़े पर जाना चाहिए!’
‘पिता जी तो जाएंगे न?’
‘नहीं उन की तबीयत कुछ ठीक नहीं है।’
‘क्या हो गया है?’
‘वैसे ही कुछ अनमने से हैं। तुम नहीं होते तो जाते ही। अब जब तुम हो तो ज़रा देर के लिए हो आओ!’
‘अच्छा अम्मा!’
वह जाता है तो लड़के का पिता उसे देखते ही उल्लसित हो जाता है। बोला, ‘अरे आनंद! कब आए बैठो-बैठो!’
वह तिलकहरुओं के बीच ही उसे बिठा कर जलपान करवाते हैं। सीना चौड़ा कर तिलकहरुओं से आनंद का परिचय भी कराते हैं। ख़ूब-ख़ूब बखान करते हैं।
वह चुपचाप बैठा मुसकुराता रहता है। लड़के के पिता फिर व्यस्त हो जाते हैं। तमाम लोग आ रहे हैं जा रहे हैं। तिलक समारोह की ऱफ्तार बनी हुई है।
दो आदमियों की बातचीत चल रही है। आनंद आंख और कान वहीं केंद्रित कर लेता है। एक आदमी उस के गांव का ही कहार है। तिलकहरुओं की सेवा में लगा वह बातचीत चालू रखे है, ‘तो साहब आप लोग शहर से आए हैं?’
‘हां! क्यों?’
‘शहर में तो देवता रहते हैं!’
‘क्या मतलब?’ तिलक चढ़ाने आया आदमी भौंचक हो कर पूछता है, ‘तो फिर गांव में?’
‘गांव में तो राक्षस रहते हैं।’
‘तो फिर आदमी कहां रहते हैं?’ वह आदमी अब मज़े ले कर पूछ रहा है।
‘क़स्बा में, तहसील में।’
‘अच्छा!’
‘हां साहब!’
‘वो कैसे?’
‘देखिए साहब आज तो आप लोग तिलक में आए हैं। पहले से सब कुछ तय है। तो सारी तैयारी है। खाना जलपान। हर चीज़ का। पर मान लीजिए आप अचानक आ गए। हम आप को बढ़िया काला नमक चावल का भात खिलाना चाहते हैं। बढ़िया-बढ़िया तरकारी खिलाना चाहते हैं। ख़ूब मिठाई खिलाना चाहते हैं। जेब में भरपूर पइसा भी है। पर नहीं खिला सकते।’
‘क्यों?’
‘पइसा भी है और इच्छा भी। पर नहीं खिला सकते?’
‘क्यों नहीं खिला सकते?’
‘दुकान ही नहीं है ई सब सामान की गांव में तो कहां से खिलाएंगे?’
‘अच्छा-अच्छा!’
‘लेकिन क़स्बा में दुकान मिल जाएगा, शहर में मिल जाएगा।’
‘ओह तो ये बात है।’
‘तब नहीं तो और क्या?’ वह बोला, ‘अच्छा अभी मान लीजिए गांव में आधी रात को हमारा तबीयत ख़राब हो गया। पैसा है डॉक्टर का फीस देने का भी, दवाई का भी! पर यहां कहां डॉक्टर है? दवाई का दुकान कहां है? और शहर जो जाना भी चाहें तो सवारी कहां है आधी रात में। सवारी भी जुगाड़ लें तो रास्ता कहां है सवारी आने-जाने के लिए?’ वह अपने पैर पर का मच्छर मारते हुए बोला, ‘अब ई मच्छर शहर में तो दवाई फेंक कर मार देंगे पर इहां? मच्छर आप को मार डालेंगे।’
‘ये बात तो है!’
‘तो एही मारे कह रहा हूं कि शहर में देवता रहते हैं और गांव में राक्षस!’
वह खाना-वाना खा कर घर आता है। पिता के पास जाता है और पूछता है, ‘तबीयत ठीक तो है?’
‘हां ठीक है?’
वह सोने चला जाता है।
सो नहीं पाता। बड़ी देर तक करवट बदलता रहता है। नींद आती है तो नींद में सपना आता है। ख़ौफ़नाक सपना! वह भाग रहा है। बेतहाशा भाग रहा है। किसी नदी की ओर। कुछ लोग जाल ले कर उस के पीछे पड़े हैं। ढेर सारे लोग हैं। अपना-अपना जाल लिए। कुछ चेहरों को वह पहचान रहा है। कंपनी का चेयरमैन है, मंदिर का महंत है, मैडम चीफ़ मिनिस्टिर हैं। सभी एक साथ दौड़ा रहे हैं अपना-अपना जाल संभाले। पीछे से मुनव्वर भाई चिल्ला रहे हैं, ‘बचिए आनंद जी!’ अशोक जी कह रहे हैं, ‘और तेज़ भागिए!’ माथुर एडवोकेट कह रहा है, ‘घबराना मत आनंद तुम्हारी रिट फाइल कर दूंगा। इन सब को पार्टी बनाऊंगा।’ इस भीड़ में एक दारोग़ा भी है। उस के हाथ में जाल नहीं रिवाल्वर है जो वह हाथ में नचाता हुआ दौड़ रहा है। कह रहा है, ‘अब की नहीं छोडूंगा।’ नदी क़रीब आती जा रही है। नदी उस पार अम्मा-पिता जी हैं, पत्नी है, बच्चे हैं, सादिया है, सादिया की अम्मी हैं। यह सब पुकार रहे हैं, ‘भाग आओ बाबू इस पार भाग आओ!’ वह अपनी दौड़ और तेज़ करता है। कि तभी रेत में क़ासिम का दबा शव मिलता है। एक क्षण को वह फिर रुकता है। अब पत्नी पुकारती है, ‘भाग आइए इस पार!’ और वह नदी के जल में कूद जाता है। वह पाता है कि नदी के जल में पहले ही से जाल बिछा हुआ है। वह किसी मछली की मानिंद फंस जाता है। छटपटाने लगता है। उस का छटपटाना देख कर जमाल हंसता है, ‘बड़े आए थे साफ़ सुथरी राजनीति करने! ख़ुद साफ़ हो गए!’
उसकी नींद टूट जाती है।
सुबह नाश्ते के साथ पिता से बात भी करता जा रहा है। अचानक कहता है, ‘पिता जी अब मैं यहीं रहना चाहता हूं।’
‘क्यों क्या प्रधानी का चुनाव लड़ने का इरादा है?’ वह जैसे तंज़ करते हैं।
‘नहीं-नहीं।’
‘फिर?’
‘अब खेती-बाड़ी करना चाहता हूं।’
‘अच्छा-अच्छा!’ पिता अंगोछे से अपना हाथ मुंह पोंछते हुए बोलते हैं, ‘तो अब गांव में क्रांति करने का इरादा है? समाजवाद अब यहां भी आने वाला है?’
‘नहीं-नहीं।’ आनंद बोला, ‘आजीविका के तौर पर। असल में अब नौकरी छोड़ना चाहता हूं। नहीं हो पा रही हम से अब नौकरी। बड़ी ज़लालत है इस नौकरी में।’
‘ओह!’ पिता चिंतित हो गए हैं। और चुप भी।
आनंद भी चुप हो जाता है। चुप्पी अम्मा तोड़ती हैं, ‘फिर इतनी खेती भी कहां है जो पूरे परिवार का गुज़ारा चल सके। तुम्हारे और तुम्हारे बच्चों के ख़र्चे भी तो बढ़ गए हैं।’
‘नहीं बच्चे वहीं रहेंगे। बच्चे पढ़ेंगे। पत्नी नौकरी करती रहेगी।’ वह बोला, ‘मन होगा तो बाद में वह भी आ जाएगी।’
‘यहां रह भी पाओगे?’ पिता बोले, ‘ए.सी. में रहने वाला आदमी बिना बिजली के गांव में कैसे रहेगा?’
‘मैं रह लूंगा!’
‘चलो ठीक बात है। पर यहां आए दिन नाली के झगड़े, पानी के झगड़े, ट्रैक्टर, कंबाइन और पट्टीदारी के झगड़े फे़स कर लोगे? तिस पर मज़दूरों की समस्या, उन के झगड़े, यह सब है तुम्हारे वश का?’ वह बोले, ‘और इस सब से भी ऊपर यह कि गांव वाले भी तुम्हें बर्दाश्त कर लेंगे? या कि तुम गांव वालों को बर्दाश्त कर पाओगे?’
‘हां, बिलकुल!’
‘सोच लो बेटा!’ पिता जी बोले, ‘गांव का, वह भी इस गांव का जीवन अब आमूल चूल बदल गया है। अहा ग्राम्य जीवन भी क्या जीवन है! कविता अब काठ हो चली है। ग्राम्य जीवन अब अहा नहीं आह भरा हो गया है। शहर की, टी.वी. की सारी गंदगी यहां बजबजा रही है। तिस पर एक नई कहानी भी शुरू हो गई है।’
‘वह क्या?’
‘दलित उत्पीड़न नाम का एक नया हथियार आया है इन दिनों हमारे गांव में।’
‘यह तो पुराना क़ानून है।’
‘हां, पर इस्तेमाल नए ढंग से हो रहा है।’
‘मतलब?’
‘खदेरू का एक लड़का है। खदेरू जब भिलाई में काम करता था, तभी वहीं पैदा हुआ। अब खदेरू रिटायर हो कर गांव आ गया है। उस का लड़का भी। जवान जहान है। पर कोई काम धंधा नहीं करता। गांव में उस ने चोरी शुरू की। चोरी में कुत्ते आड़े आने लगे तो लाइन से गांव के सारे कुत्ते धीरे-धीरे कर के निर्बाध मार डाले। अब चोरी में आसानी हो गई। तांता लग गया गांव में चोरी का। लोगों को खदेरू के लड़के पप्पू पर शक हुआ। चोरियां बढ़ती गईं। पुलिस रिपोर्ट भी नहीं लिखती। लोग परेशान हो कर एस.पी. से मिले। पप्पू के खि़लाफ़ नामज़द रिपोर्ट हो गई। वह फ़रार हो गया। कुर्की आ गई। पर उस के नाम कुछ हो तब न कुर्की हो। चार साल तक फ़रार रहा पप्पू। अब साल भर से फिर गांव में लौटा है। फु़ल हेकड़ी में रहता है। एक बार रमेश ने कुछ कह दिया तो उस ने फ़ौरन थाना दिवस में उस के खि़लाफ़ अर्ज़ी लगा दी। दोनों पक्ष बुलाए गए। सुलहनामा हुआ। पप्पू को सुलहनामे में एक हज़ार रुपए मिले। उस की छाती चौड़ी हो गई। रमेश ने कहा भी कि यह चोर है। तो पप्पू बोला कि हम को साज़िशन फंसाया है पंडितों ने। रमेश के पास दो ही विकल्प था। या तो सुलहनामे में पैसा दे या दलित एक्ट में जेल जाए। उस ने पैसा दे दिया। अब पप्पू आए दिन किसी न किसी के खि़लाफ़ थाना दिवस या तहसील दिवस में एक अर्ज़ी डाल देता है। सुलहनामा होता है, वह पैसा लेता है। छाती चौड़ी कर लेता है। बाद में बात उठी कि हरदम गांव के लोग इसी को क्यों तंग करते हैं? तो बाद में इस ने पैंतरा बदल लिया। दूसरे किसी न किसी दलित को बहकाने लगा। अर्ज़ी दिलवाने लगा इस सौदेबाज़ी के साथ कि सुलहनामे में मिले पैसे में आधा हमारा, आधा तुम्हारा। दलित उत्पीड़न की जैसे इस गांव में बाढ़ आ गई है। गांव के आधे से अधिक लोग इस सुलहनामा के शिकार हो चुके हैं। कई लोग तो गांव में नहीं रहते तब भी। पप्पू अब यह सुलहनामे की हवा दूसरे गांवों में भी ले गया है। वह अब मोबाइल लिए मोटरसाइकिल से घूमता है। लोग उसे देखते ही दहशत में आ जाते हैं। रह पाओगे तुम इस गांव में?’ पिता पूछते हैं।
वह चुप है।
‘तुम साफ़ सुथरी राजनीति, गांधीवादी राजनीति का रट्टा लगवाओगे। यहां हिंदू युवा वाहिनी के नेता हैं। मसल पावर, मनी पावर वाली राजनीति के आदी। सर्वाइव कर पाओगे इन के बीच गांव में? कर पाओगे यह ज़मीनी राजनीति!’ पिता बोले, ‘तो भइया तुम शहर में रह कर ही नौकरी करो, राजनीति करो वही ठीक है। मैं जानता हूं तुम यहां सांस नहीं ले पाओगे। सुविधाओं में रहने के आदी मक्खियां-मच्छर देख कर भाग जाओगे। तुम्हारे बीवी बच्चे तुम्हें कोसेंगे तब भाग जाओगे।’
वह फिर चुप है।
‘तुम खेती की बात करते हो? खेती करोगे? खेती भी अब इनवेस्टमेंट मांगती है। खेती भी अब बिज़नेस हो गई है। पैसा नहीं लगाने पर खेती चौपट हो जाती है। पेंशन न मिले मुझे तो खेती नहीं कर सकता। पेंशन का पैसा खेती में लगाता हूं तो चार दाना पा जाता हूं। जिन के घर में नक़द पैसा नहीं है, उन की या तो खेती बरबाद है या फिर वह साहूकारों के हाथ में जा कर बरबाद हैं। तिस पर खेती भी कई बार शेयर मार्केट सा रिज़ल्ट देने लगती है। चार दिन भी जो देर से बुआई हुई या ज़रा भी खाद पानी देने में देरी हुई तो खेती भी दांव दे जाती है। पैदावार कम हो जाती है। खेती भी अब टाइमिंग मांगती है। जैसे कि अब की सूखा पड़ गया है, सारी टाइमिंग, सारा पैसा डूब गया है। ऐसे में कर पाओगे खेती? खाद, बीज, डीज़ल, मज़दूरी सब तो मंहगा हो गया है। टैªक्टर, कंबाइन का किराया भी। बस हमारी मेहनत और हमारा पैसा सस्ता रह गया है। कर पाओगे खेती?’
वह लगातार चुप है। और पिता का एकालाप जारी है।
‘यहां चीन अमरीका की बहस, सांप्रदायिकता के खि़लाफ़ लड़ाई, मानवाधिकार की बातों से खेती नहीं हो पाती। यह गांव है, सेमिनार नहीं। बहस नहीं होती यहां रगड़ाई और लड़ाई होती है, रगड़ जाओगे तो भूसी छूट जाएगी। ज़मीनी सच्चाई की बात तुम अपने भाषणों में करते हो न! तो यहां की ज़मीनी सच्चाई यह है। इज़्ज़त पानी इसी में है कि गांव आते-जाते रहो। यहां रहो नहीं। यहां रहोगे तो सारा भ्रम टूट जाएगा। यहां रहोगे तो कभी न कभी तुम्हारा सोशल एक्टिविस्ट का कीड़ा कुलबुलाएगा। मानोगे नहीं। कुछ नहीं तो नरेगा में घपला देखने लगोगे। ग्राम प्रधान दलित है और क्रिमिनल भी। या तो गोली ठोंक देगा या दलित एक्ट! चुप रह नहीं पाओगे। बोलोगे ज़रूर। नहीं कुछ तो सांप्रदायिक सद्भाव बताने लगोगे। समूचा गांव घेर लेगा। तब क्या करोगे?’
‘कोशिश करूंगा कि गांव को बदलूं। लोगों को, लोगों की सोच को बदलूं।’ वह धीरे से बोला।
‘गांव वाले तुम्हें बदल देंगे। तुम क्या गांव बदलोगे? अख़बारों में बयान छपवा कर। प्रेस कानफ्रेंस कर के? ऐसे नहीं बदलेगा गांव। नहीं बदलता लिख कर रख लो! बडे़-बड़े अक्षरों में लिख कर रख लो!’
वह समझ गया है कि पिता की पैसे भर की मर्ज़ी नहीं है कि वह गांव में रहे।
तो वह कैसे रह सकता है?
पिता से उसका कोल्डवार बचपन से चला आ रहा है। पर वह पिता से कभी उलझता नहीं है। चुपचाप खिसक लेता है। पिता अपनी वाली करते हैं, और वह अपनी वाली। पर दोनों आमने-सामने नहीं होते। वह पाता है कि पिता पीठ पीछे उस पर नाज़ भी करते हैं और उसे बच्चा भी समझते हैं। चाहते हैं कि वह किसी सैनिक की तरह उन्हें फ़ालो करे।
शायद हर पिता ऐसा ही चाहता है, ऐसे ही करता है। कम से कम उस पीढ़ी के पिता तो ऐसे ही हैं। गांव में एक बुजुर्ग हैं वह कहते ही रहते हैं कि हर पिता अपने बेटे में राम चाहता है, पर ख़ुद दशरथ नहीं बन पाता। हर पति अपनी पत्नी में सीता चाहता है, पर ख़ुद राम नहीं बन पाता।
ऐसा क्यों है?
‘पता है बाबू! मियां को सरकार ने लाखों रुपए का मुआवज़ा दिया है। मियां ने अपना फुटहा घर पक्का बना लिया है और घर पर पत्थर लगवा दिया है-क़ासिम के नाम का। क़ासिम मंज़िल!’ अब अम्मा सूचना परोस रही है। गांव का इतिहास भूगोल बता रही हैं, ‘लोग कहते हैं कि क़ासिम अपनी ज़िंदगी में तो इतना कमा नहीं पाता कि घर पक्का बनवा लेता। जानते हो बाबू फ़ौजी पंडित तुम्हारे पिता जी से कहने लगे कि आनंद ने पैसा दिलाया है तो आप को भी अपना हिस्सा लेना चाहिए। तो इन्हों ने उस को झिड़क दिया। कि, हराम का पैसा नहीं चाहिए, किसी की लाश का पैसा नहीं चाहिए। तो फ़ौजी पंडित अपना मुंह ले कर चले गए।’ फिर वह किसी के खेत, किसी की मेड़, किसी की नाली, किसी की सास के झगड़ों की फेहरिस्त और ब्यौरों में चली गईं।
अम्मा को सुनते-सुनते वह खाना खाता रहा। हूं हां करता हुआ। उसे याद आया कि जब वह पढ़ता था और गांव आता था तो वह जब वैसे ही बाग़ की ओर टहलने निकलता तो उस का एक छोटा भाई उस के साथ बड़ी फुर्ती से लग लेता। गांव की एक-एक सूचनाएं परोसता। गांव के झगड़े की, लोगों के भूत-प्रेत और चुड़ैल की। आस-पास के गांव तक की। किस का भूत कैसे उतरा, किस की चुड़ैल कैसे गई सारे ब्यौरे लगातार वह बोलता जाता।
खाना खा कर वह बोला, ‘अम्मा अब चलना चाहता हूं।’
‘लखनऊ?’
‘हां।’
‘एक दिन और रह जाते!’
‘रहने ही तो आया था। पर पिता जी नहीं चाहते जब तो कैसे रह सकता हूं।’ सांस खींचते हुए वह बोला।
‘तुम को मालूम नहीं पर मैं बताती हूं कि वह तुम्हें बहुत चाहते हैं।’
‘वह तो देख रहा हूं।’
‘जब तुम नहीं होते हो तो सब से तुम्हारी बहुत तारीफ़ बतियाते हैं। बतियाते-बतियाते मारे ख़ुशी में रोने लगते हैं।’ अम्मा बोलीं, ‘पर पता नहीं क्यों जब तुम सामने पड़ते हो तो वह पलट जाते हैं। पता नहीं क्या हो जाता है उन को कि तुम्हारी सारी बुराई देखने लगते हैं!’ कहते-कहते अम्मा रुआंसी हो गई।
‘कोई बात नहीं अम्मा, वह मेरे पिता हैं कुछ भी कह सकते हैं मुझे। मैं उन की बात का बिलकुल बुरा नहीं मानता। बस हम लोगों के सोचने का तरीक़ा थोड़ा अलग है। बस और कुछ नहीं। रही बात उन के विरोध की तो वह तो मैं बचपन से ही भुगत रहा हूं। अब तो आदत पड़ गई है!’
‘अच्छा बाबू फिर कब आओगे?’
‘देखो देखते हैं।’
‘हां बाबू जल्दी आना।’ अम्मा बोलीं, ‘इन की बात का बुरा मत मानना।’
‘ठीक अम्मा!’ कह कर उस ने अम्मा के पांव छुए और घर से बाहर आ गया।
लखनऊ आ कर वह रुटीन में समा गया।
हां पर उसने ग़ौर किया कि आफ़िस में उस का भाव फिर बढ़ गया था। लोग अब उसे रश्क की नज़र से देखते। पर वह अपनी ही नज़रों में और गिर जाता।
एक दिन वह अख़बार में विधान परिषद की एक रिपोर्ट पढ़ रहा था। रिपोर्ट बता रही थी कि विधान परिषद में सरकार ने स्वीकार किया है कि दलित एक्ट के फ़र्ज़ी मुक़दमे लिखवाए जा रहे हैं। कुछ महीनों में ही सैकड़ों फ़र्ज़ी मुक़दमे जांच में पाए गए हैं। एक शिक्षक नेता ने तो विधान परिषद में साफ़ कहा कि जिन स्कूलों में भी दलित अध्यापक हैं, वहां प्रधानाचार्यों को स्कूल चलाना मुश्किल हो गया है। अगर दलित अध्यापक या अध्यापिका स्कूल देर से आते हैं, या क्लास में नहीं पढ़ाते हैं और जो प्रधानाचार्य उन से इस बारे में पूछ ले तो वह दलित एक्ट की धमकी देते हैं। कुछ ने मुक़दमा लिखवा भी दिया है और निर्दोष होते हुए भी कई प्रधानाध्यापक जेल गए हैं दलित एक्ट में।
एक अधिकारी आनंद के घर आए हुए हैं। उन से इस बारे में चर्चा चली तो वह जैसे बर्स्ट कर गए। कहने लगे, ‘अच्छा है आनंद जी आप प्राइवेट सेक्टर में हैं। अभी वहां आरक्षण नहीं है।’
‘बात तो चल ही रही है।’
‘वह बाद की बात है। पर अभी तो नहीं है न?’ वह बताने लगे, ‘सरकारी आफ़िसों में तो हर जगह वर्ग संघर्ष की स्थिति आ गई है। चार-छह दलित कर्मचारी जो किसी आफ़िस में हैं तो वह पूरे आफ़िस को बंधक बना बैठे हैं। जिस को चाहते हैं, मुर्ग़ा बना देते हैं। जो काम चाहते हैं ले लेते हैं, जो चाहते हैं करवा लेते हैं। मामूली से मामूली दलित बाबू भी सीधे मंत्रियों से संपर्क में रहते हैं। दलित अधिकारी उन की फ़ौरन सुनते हैं। तो फिर आफ़िसों में किस की हिम्मत है जो दलितों की मनमर्ज़ी न चलने दे। वह ग़लत करें चाहे सही, सब कुछ सब को मानना है। नहीं मानिएगा तो भुगतिए दलित एक्ट!’ वह बोला, ‘क्या कर लिया रीता बहुगुणा जोशी ने? माफ़ी भी मांगी, मुर्ग़ा बन कर जेल गईं और घर भी फंुकवा बैठीं। यह क्या है? यह प्रजातंत्र है? क़ानून का राज है? कि सवर्ण उत्पीड़न है? मैं तो कहता हूं कि अब सवर्ण उत्पीड़न का भी एक क़ानून बन ही जाना चाहिए।’
‘ये तो मैं भी मानता हूं कि रीता बहुगुणा ने जो भी कुछ कहा वह ग़लत था, निदंनीय था पर इस को ले कर आधी रात को पुलिस की मौजूदगी में उन का घर जला दिया जाए यह तो हरगिज़ नहीं होना चाहिए था।’
‘और फिर उस में भी लीपापोती!’ अधिकारी मित्र बोला, ‘बिजली बोर्ड में तो परिणामी ज्येष्ठता को ले कर जैसे सेनाएं आमने-सामने होती हैं वैसे ही सवर्ण और दलित इंजीनियर आमने-सामने हैं। सचिवालय में भी कमोबेश यही स्थिति है।’ वह पूछता है, ‘भाई साहब, यह कौन सा दलितोत्थान है? सामाजिक समानता हमें किस असमानता, किस वर्ग संघर्ष की ओर ले जा रही है? ऐसे तो प्रदेश और देश जल जाएगा।’
‘हूं। है तो मामला गंभीर!’
‘यह वोट बैंक अब हमारे समाज के लिए, देश के लिए ज़हर होता जा रहा है। जल्दी ही कुछ नहीं हुआ तो समझिए कि कुछ अनर्थ हो जाएगा!’
‘यह बाज़ार, जातीयता और सांप्रदायिकता हमें कहां ले जाएगी यह हम सभी के लिए यक्ष प्रश्न है। गुंडई, भ्रष्टाचार वगै़रह अलग हैं। और हमारी सम्मानित जनता इस से त्रस्त है, इस का निदान चाहती है, वोट डालना नहीं चाहती। ड्राइंग रूम में बैठ कर चाहती है कि सब कुछ सुंदर-सुंदर सा हो जाए। पूंजीपति चाहते हैं कि आदमी अब आदमी न रहे, उन के लाभ के लिए रोबोट हो जाए। बहुत सारे लोग रोबोट हो भी गए हैं। वह सवाल नहीं पूछते, आदेश सुनते हैं। हमारे जैसे लोग रोबोट नहीं आदमी ही बने रहना चाहते हैं। अब इस आदमी का क्या करें जो रोबोट के साथ ट्यून नहीं हो पा रहा?’
यह कौन सी प्यास है?
वह फिर अपने शहर गया है। एक शादी में है। जयमाल के बाद दुल्हा अपनी दुल्हन के साथ नाच रहा है। डांस नंबर बज रहा है। दुल्हे की मां भी साथ आ गई है नाचने। कुछ टीनएज लड़कियां भी हैं। सभी नाचे जा रहे हैं। नाच में धुत्त हैं। कुछ शोहदे लड़के मौक़े का फ़ायदा उठाते हुए डांस लोर पर पहुंच गए हैं। नाचते-नाचते लड़कियों को छू छा कर अभद्रता पर उतर आए हैं। एक लड़की का पिता यह सब देख रहा है। रहा नहीं जाता उस से। वह सीधे डांस फ्लोर पर जा कर अपनी बेटी का हाथ पकड़ कर डांस फ्लोर से बाहर खींचता है। कोने में ले जा कर समझाते हुए उस के कान में धीरे से कुछ कहता है। पर लड़की कंधे उचकाती हुई लगभग चिल्ला पड़ती है, ‘आई डोंट केयर!’ और डांस फ्लोर पर फिर से भाग कर पहुंचती है और फिर धुत्त हो कर नाचने लगती है! अब गाना बदल गया है। ‘कजरारे-कजरारे तेरे कारे-कारे नयना’ बज रहा है। लड़की का पिता बेबस हो कर अपनी बेटी को देख रहा है। लगभग अवश! और गाना बज रहा है, ‘मेरा चैन बैन सब उजड़ा, ज़ालिम नज़र हटा ले/बरबाद हो रहे हैं जी तेरे अपने शहर वाले! कजरारे-कजरारे!’
आनंद उस पिता की बेबसी को देख रहा है। और लड़की का बोला, ‘आई डोंट केयर!’ अभी तक किसी हथौड़े की तरह उस के कान में गूंज रहा है।
तो क्या सचमुच मेरे शहर वाले बरबाद हो रहे हैं? आनंद जैसे लोग उफ़ करते हैं, जैसे उस लड़की का पिता। सिस्टम फिर भी बरबाद होता जाता है। और कुछ कहने पर ये रोबोट बने लोग बोलते हैं, ‘आई डोंट केयर!’
तो केयर कौन करेगा भाई? यह रोबोट में तब्दील होता आदमी? तुम जो रोबोट में तब्दील हो चुके हो? पूंजीपति कहता है कि जैसे-जैसे, जो-जो हम विज्ञापन में दिखा रहे हैं वही देखो, वही समझो। हमारा प्रोडक्ट ख़रीदो, हम को मालामाल बनाओ रोबोट। रोबोट तुम को सोचने का अधिकार नहीं है, सवाल करने का अधिकार नहीं है, सिर्फ़ ख़रीदने का अधिकार है। सिर्फ़ सुनने का अधिकार है बोलने का नहीं, ज़्यादा बालोगे तो हम छंटनी कर देंगे। हज़ारों रोबोट निकाल देंगे। ख़ास कर अधेड़ और बूढे़ रोबोट! फिर एक ट्रस्ट खोल देंगे। यह ट्रस्ट भंडारा चलाएगा। तुम भंडारे में आ कर खाना खा लेना!
हा-हा हा हा!
रोबोट बनाने वाला आदमी हाहाकारी हंसी हंसता है। हंसता ही जा रहा है! कोई सुन भी रहा है?
यह भी एक प्यास है।
प्यास है या सिर के चौखट से टकराने का त्रास? वह जैसे छात्र जीवन में सर्वेश्वर की कविता पढ़ता था, ‘जब-जब सिर उठाया/चौखट से टकराया।’ वह भुनभुनाता है, ‘यह चौखट आखि़र कब बदलेगा? बदलेगा भला?’
....समाप्त....
हम तो समझे थे कि राजनीति में ही पलीता लगा है, पर पत्रकारिता वाले तो राजनीति से भी कहीं आगे निकल रहे हैं : हालांकि काफ़ी हाउस की न वो गंध रही, न वो चरित्र, न वो रंगत। फिर भी कुछ ठलुवे, कुछ थके नेता, बुझे हुए लेखक और कुछ सनकी पत्रकारों के अलावा कुछ एक दूसरे का इंतज़ार करते लोग अब भी ऊंघते-बतियाते, दाढ़ी नोचते दिख जाते हैं। कुछेक जोड़े भी। काफ़ी का स्वाद पहले भी तीखा था, अब भी है।
हां, सिगरेट के धुएं ज़रा बढ़ गए हैं। फिर भी काफ़ी की गंध और सिगरेट के धुएं की मिली जुली महक नथुनों में अभी भी बेफ़िक्री और बेलौसपना का स्वाद बिंदास अंदाज़ में सांस में भर जाती है। इतना कि रात शराब पर उसे मिनिस्टर मित्र द्वारा साइकेट्रिक के यहां जाने की मिली सलाह, तिस पर पत्नी का तुर्रा कि ‘आप ने ज़्यादा पी ली है सो जाइए!’ और फिर अभी भरी दोपहर में जावेद अख़्तर का कहा कि, ‘भई आप तो बहुत परेशान लगते हैं।’ या फिर उकता कर यह बोलना कि, ‘चलिए आप तो अभी हमें माफ़ कर दीजिए!’ जैसी बातें उस की नसें तड़का रही थीं। वह सोच रहा था कि कभी सब का प्रिय रहने वाला वह अब सब का अप्रिय कैसे होता जा रहा है। कहां तो वह सब को सलाह दिया करता था, अब लोग उसे सलाह देने लगे हैं। इतनी कि लोगों की सलाह उसे चुभने लगी है? या कि वह ही, उस की बातें ही लोगों को चुभने लगी हैं? सीने में उस के जलन बढ़ती जा रही है। और यह चुभन उसे मथती जा रही है। जावेद का ही लिखा राधा कैसे न जले! गाना उसे याद आ जाता है। तो क्या वह राधा है?
वह सिगरेट सुलगा लेता है।
काफ़ी हाउस में कश लेते-धुआं फेंकते वह एक नज़र पूरे हाल में दौड़ाता है। भीतर कोई परिचित नहीं दिखता। बाहर सड़क पर ट्रैफ़िक का शोर है। मन में उठ रहा शोर ज़्यादा है या ट्रैफ़िक का शोर ज़्यादा है? तय करने के लिए वह काफ़ी हाउस के हाल से निकल कर बरामदे में आ जाता है। नहीं तय कर पाता।
वह घर आ जाता है। आ कर सो जाता है।
एक फ़ोन से उस की नींद टूटी। एक इंजीनियर मित्र का फ़ोन था। सिंचाई विभाग में थे। विभागीय मंत्री से परेशान थे। चीफ़ इंजीनियर बनने की ख़्वाहिश थी। चाहते थे कि आनंद सिफ़ारिश कर दे। कहीं से परिचय सूंघ लिए थे और कह रहे थे कि, ‘मंत्री जी आप के पुराने दोस्त हैं। कह देंगे तो काम बन जाएगा।’ आनंद ने साफ़ बता दिया कि, ‘इस तरह के ट्रांसफर-पोस्टिंग जैसे कामों में उस की न तो कोई दिलचस्पी रहती है, न ही वह कोई सिफ़ारिश कर पाएगा। हां, कहीं किसी के साथ कोई नाइंसाफ़ी हो तो वह मसले को अपने ढंग से उठा ज़रूर सकता है। फिर भी समस्या का समाधान हो ही जाए, कोई गारंटी नहीं है।’
‘तो नाइंसाफ़ी ही तो हो रही है।’
‘क्या?’
‘मंत्री जी का भाव बहुत बढ़ गया है।’
‘मतलब?’
‘जिस काम के वह पहले पचीस-तीस लाख लेते थे, अब एक करोड़ रुपए मांग रहे हैं।’
‘तो आप देते ही क्यों हैं?’
‘अच्छा चलिए हम लोग कहीं बैठ कर बातचीत करें?’
‘हम लोग मतलब कुछ और लोग भी?’ आनंद ने पूछा।
‘हां।’
‘किस लिए?’
‘बातचीत करेंगे और कोई रास्ता निकालेंगे?’
‘चलिए ठीक है।’ आनंद बोला, ‘पर बैठेंगे कहां?’
‘जिमख़ाना क्लब में बैठें?’
‘ठीक है।’ इंजीनियर मित्र बोला, ‘शाम साढ़े सात बजे आज मिलते हैं।’
‘ठीक है।’
शाम को जब जिमख़ाना क्लब में बैठकी हुई तो आठ-दस इंजीनियर लोग हो गए। इधर-उधर की बात के बाद में जब दो-दो पेग हो गया तो इंजीनियर लोग बोलना शुरू हुए। एक इंजीनियर बहुत तकलीफ़ में थे, ‘बताइए इंजीनियरिंग में ग्रेजुएशन हमने किया, इतने साल नौकरी करते हो गए और एक मंत्री हम इंजीनियरों को बिठा कर कहता था कि तुम लोग क्या जानते हो सिंचाई के बारे में? सिंचाई विभाग के बारे में? कहता था कि तुम लोग साल-डेढ़ साल-दो साल के लिए चीफ़ इंजीनियर बनते हो। क्या जानोगे? मैं जानता हूं सिंचाई विभाग को। इतने सालों से विभाग का मंत्री हूं। सरकार किसी की आए-जाए-रहे। इस विभाग का मंत्री तो मैं ही हूं। रहूंगा। बताइए मिनिस्ट्री जैसे रजिस्ट्री करवा ली थी।’
‘हां भई, आखि़र मिली-जुली सरकारों का दौर था तब!’ एक इंजीनियर बोला, ‘बारगेनिंग पावर थी उस में। ’
‘पर अब तो बहुमत की सरकार है।’ एक दूसरा इंजीनियर बोला।
‘बहुमत की सरकार तो अब और ख़तरनाक हो गई है।’ यह तीसरा इंजीनियर था, ‘जो चाहती है, मनमाना करती है। कोई रोकने-छेंकने वाला नहीं।’
‘क्यों आनंद भइया आप की क्या राय है?’ वह इंजीनियर पूछ बैठा।
‘अव्वल तो यह कि बिना बहुमत के कोई सरकार नहीं बनती। पर यहां मैं समझ रहा हूं कि आप लोग एक दल के बहुमत की सरकार की बात कर रहे हैं। तो ऐसी बहुमत की सरकारें प्रशासनिक तौर पर क्या गड़बड़ करती हैं इस पर तो बहुत तफ़सील में मैं नहीं जा रहा। पर यह तो कह ही सकता हूं कि विकास के लिए एक दल के बहुमत की सरकार ज़रूरी है।’ आनंद बोला, ‘पर एक तथ्य और भी हमारे सामने है। कि जब एक दल के बहुमत की सरकारें बहुत ताक़तवर हो जाती हैं तो उन के निरंकुश होने के ख़तरे भी बहुत बढ़ जाते हैं। जैसे इंदिरा गांधी ने जब इमरजेंसी लगाई तब केंद्र में कांग्रेस बहुमत में ही थी। कल्याण सिंह ने जब बाबरी मस्जिद गिरवाई तब उत्तर प्रदेश में भाजपा बहुमत में ही थी। गुजरात में नरेंद्र मोदी ने दंगे करवाए। और अब जब मायावती की बसपा सरकार बहुमत में है तो वह भी दलितोत्थान के नाम पर मनमाना कर रही है।’
‘यही तो। यही तो!’ सारे इंजीनियर जैसे उछल पड़े।
सिगरेट का धुआं, शराब की गंध और उसकी बहक, तंदूरी चिकन से उड़ती भाप में घुल कर एक अजब ही नशा तारी कर रही थी। एक ग़ज़ब ही गंध परोस रही थी।
‘तो इस मिनिस्टर साले का क्या किया जाए?’ इसी धुएं और भाप में से एक आवाज़ अकुलाई।
‘अब तो आनंद भइया आप ही बताइए!’ इंजीनियर मित्र बोला।
‘मेरी बात मान पाएंगे आप लोग?’
‘बिलकुल!’ लगभग सभी आवाजें एक सुर में बोलीं।
‘इस मिनिस्टर को उसी की भाषा में सबक़ सिखाइए।’
‘अब उस की भाषा तो आप ही बताइए। आखि़र आप उस मिनिस्टर के दोस्त हैं!’
‘बिलकुल नहीं!’ आनंद बोला, ‘ऐसा व्यक्ति मेरा दोस्त नहीं हो सकता।
‘तब?’ सभी घबराए।
‘यह बताइए कि इस मिनिस्टर को एक करोड़ रुपए का भाव किस ने बताया? यहां तक उस को किस ने पहुंचाया?’ आनंद ज़रा रुका और सब को एकदम चुप देख कर धीरे से बोला, ‘आप ही लोगों ने।’ आनंद के यह कहते ही जैसे पूरी
महफ़िल में सन्नाटा छा गया। सो आनंद ज़रा रुक कर बोला, ‘अब आप ही लोग उस को ज़मीन पर लाएंगे। तय कर लीजिए कि अब से कोई भी उस मिनिस्टर के पास अपनी पोस्टिंग के लिए नहीं जाएगा। चीफ़ इंजीनियर आप ही के बीच से किसी को उस को बनाना मज़बूरी है। शासन बहुत दिनों तक इस पोस्ट को ख़ाली नहीं रख सकता। कोई पैसा दे तब भी, न दे तब भी चीफ़ इंजीनियर बनना ही है। तो आप लोग क्यों एक करोड़ रुपए का रेट खोले हुए हैं? यह रैट रेस बंद कीजिए। चीज़ें अपने आप तय हो जाएंगी।’
आनंद की इस बात पर इंजीनियरों में कुछ ख़ास रिएक्शन तो नहीं हुआ पर सन्नाटा टूटता सा लगा। सिगरेट के धुएं और बढ़ गए। किसी ने यह सवाल ज़रूर उछाला, ‘और जो कहीं वह डेप्युटेशन पर किसी को ले आया तो?’
‘
कुछ नहीं होगा। ऐसा नहीं कर पाएगा वह।’ और यह बात इधर-उधर हो गई। तभी एक इंजीनियर जो सिख था अचानक उछल कर बोला, ‘डन जी! अब कल से मंत्री के पास कोई नहीं जाएगा। इस की गारंटी मैं लेता हूं।’
‘तो देख लीजिएगा एक करोड़ का रेट ज़ीरो पर आ जाएगा।’ आनंद बोला।
पर महफ़िल का रंग तो उड़ चुका था। लोग जाने लगे। आनंद भी उठा और चलने लगा। चलते-चलते पीछे से उसे खुसफुसाहट सुनाई दी। कोई कह रहा था, ‘यार यहां रणनीति बनाने के लिए इकट्ठे हुए थे या जुगाड़ जमाने के लिए!’
फिर वही जोड़ भी रहा था, ‘आए थे हरि भजन को ओटन लगे कपास!’
आनंद भी हैरत में था और साथ चल रहे एक इंजीनियर से बोल रहा था, ‘यह अच्छा है कि इतना पीने के बाद भी आप इंजीनियरों को चढ़ी नहीं।’ उस ने ज़रा रुक कर सवाल सीधा करते हुए पूरा किया, ‘क्या इंजीनियरों को शराब नहीं चढ़ती?’
पर किसी ने आनंद को कोई जवाब नहीं दिया। सब का नशा शायद उतर गया था।
पर आनंद का नहीं।
हां, वह तब हैरत में ज़रूर पड़ा जब उसे पता चला कि इंजीनियरों ने उस रात के बाद सिंचाई मंत्री की ओर सचमुच रुख़ नहीं किया। नतीजा सामने था। ह़फ्ते भर में ही चीफ़ इंजीनियर की पोस्टिंग का रेट एक करोड़ से गिर कर पचास लाख रुपए पर आ गया था। उस ने अपने इंजीनियर मित्र को शाबाशी देते हुए कहा भी कि, ‘वेल डन! अब देखना ह़फ्ते-दस रोज़ में रेट ज़ीरो पर आ जाएगा।’ पर उस इंजीनियर ने कोई उत्साह नहीं दिखाया। धीरे से बोला, ‘देखिए कब तक यह यूनिटी क़ायम रहती है!’
‘क्यों?’
‘इंजीनियरों को आप नहीं जानते। यह साले अपने बाप को छोड़िए, अपने आप के भी नहीं होते।’
और सचमुच जिन सरदार जी ने सबसे आगे कूद कर गांरटी ली थी कि, ‘अब कल से कोई नहीं जाएगा। इसकी गारंटी मैं लेता हूं।’ वही सबसे पहले पहुंच गए और पचास लाख रुपए दे कर चीफ़ इंजीनियर पोस्ट हो गए। पूछने पर कहते, ‘कोई नहीं जी, रेट तो करोड़ से आधा कर दिया। यही हमारी फ़तह। रही बात पैसे देने की तो कोई न कोई देता ज़रूर। मैंने दे दिया। प्राब्लम क्या है?’
पर प्राब्लम तो थी।
आनंद को खीझ हुई थी कि वह इन भ्रष्ट इंजीनियरों के हाथों इस्तेमाल हुआ। और कि उस की रणनीति पर इन इंजीनियरों ने पूरी तरह अमल नहीं किया। दूसरे, उस मिनिस्टर तक भी यह बात पहुंच गई कि यह रणनीति इंजीनियरों ने आनंद के उकसाने पर बनाई थी। उस ने एक दिन फ़ोन पर तंज़ करते हुए कहा भी कि, ‘क्या भाई आनंद जी, अब इंजीनियर्स एसोसिएशन बना कर ट्रेड यूनियन की राजनीति करने का इरादा है क्या?’
‘ट्रेड यूनियन की राजनीति देश में अब बची भी है क्या?’ आनंद ने प्रति प्रश्न किया तो वह चुप हो गया।
उस मिनिस्टर की प्राब्लम यह थी कि उस को मिले पूरे पचास लाख रुपए में से एक भी पैसे उस के हिस्से नहीं आया था। सारा का सारा पैसा मुख्यमंत्री के खाते में चला गया था। बाक़ी उस के हिस्से का पचास लाख इंजीनियरों ने रेट गिरा कर गड़प कर लिया। उस की अपनी टीस थी।
टीस तो आनंद के सीने में भी थी। टीस ही टीस।
अपने सामाजिक जीवन में टूट-फूट को ले कर। अपने दांपत्य जीवन में टूट-फूट को ले कर। अपनी नौकरी में टूट-फूट को ले कर। और राजनीतिक पार्टियों में वैचारिक टूट-फूट तो जैसे उस के मन में सन्निपात ज्वर की तरह भारी उथल-पुथल मचाए थी यह टीस!
किस-किस से लड़े वह?
जो राजनीतिक मित्र थे। साथ जूझे थे, लड़े थे, पुलिस की लाठियां खाई थीं, बेहतर दुनिया के, दुनिया को बदलने के सपने देखे थे। सिद्धांतों के लिए जिए-मरे थे। अब वही लोग रास्ता बदल कर, सिद्धांतों को किसी नाबदान में बहा कर, समझौतों की रेलगाड़ी में बैठ कर सत्ता भोग रहे थे और आनंद को राजनीति का नया व्याकरण सिखा रहे थे। उस के स्वाभिमान को लगभग रौंदते हुए साइकेट्रिक के पास जाने की सलाह दे रहे थे, ट्रेड यूनियन की राजनीति में जाने की संभावनाएं टटोल रहे थे। लेटे होंगे भीष्म पितामह अर्जुन के वाणों से घायल हो कर शर शैय्या पर और पिलाया होगा अर्जुन के वाणों ने उन को पानी। पर गंगापुत्र भीष्म पानी के लिए तरसेंगे यह भी क्या किसी ने कभी सोचा है? उन की इस यातना की थाह ली है किसी ने?
बताइए गंगा का बेटा और प्यास से मरे?
भीष्म पितामह तो फिर भी धर्म अधर्म की लड़ाई में हस्तिनापुर के साथ वचनबद्धता के फ़रेब में अधर्म के साथ खड़े थे। जुआ, द्रौपदी का चीर हरण, निहत्थे अभिमन्यु का मरना देखते रहे। तो यह तो होना ही था! फिर वह एक बार सोचता है कि ऐसा तो नहीं कि कहीं हस्तिनापुर की वचनबद्धता की आड़ में सत्ता और सुविधा के आगे वह घुटने टेक रहे थे? चलिए हस्तिनापुर के साथ आप की वचनबद्धता थी। पर शकुनी, दुर्योधन और धृतराष्ट्र की धूर्तई के आगे घुटने टेकने की वचनबद्धता तो नहीं थी? पर आप तो जैसे वचनबद्ध ही नहीं, प्रतिबद्ध और कटिबद्ध भी थे!
अद्भुत!
तो क्या जैसे आज के राजनीतिज्ञ आज की राजनीति, आज की व्यवस्था, मशीनरी सत्ता और बाज़ार के आगे नतमस्तक हैं, वैसे ही भीष्म पितामह भी तो नतमस्तक नहीं थे? गंगापुत्र भीष्म! और पानी के लए तड़प रहे थे। और प्रायश्चित कर रहे थे कि दुर्योधन के द्वारा प्रस्तुत स्वर्ण पात्र का जल पीने के बजाए अर्जुन के वाणों से धरती की छाती चीर कर ही प्यास की तृप्ति चाहते थे? इच्छा मृत्यु का वरदान उन की इच्छाओं का हनन तो नहीं कर रहा था? सोचते-सोचते उसे एक गीत याद आ गया है- पल-छिन चले गए/जाने कितनी इच्छाओं के दिन चले गए!
शिखंडी, अर्जुन का वाण, शर-शय्या और इच्छा मृत्यु का झूला। कितना यातनादायक रहा होगा भीष्म के लिए इस झूले में झूलना। व्यवस्था-सत्ता और बाज़ार के आगे घुटने टेकने की यातना ही तो नहीं थी यह? तो क्या था गंगापुत्र भीष्म? फिर उसे एक गीत याद आ गया है- बादल भी है, बिजली भी है, सागर भी है सामने/मेरी प्यास अभी तक वैसी जैसे दी थी राम ने!
फिर वह पूछता है कि क्या यह सिर्फ़ भीष्म प्रतिज्ञा ही थी? पर आचार्य द्रोण? सत्ता-सुविधा के आगे वह क्यों घुटने टेके हुए थे? सिर्फ़ बेटे अश्वत्थामा को दूध उपलब्ध न करा पाने की हेठी ही थी? तो एकलव्य का अंगूठा क्या था?
दासी पुत्र विदुर? उन्हों ने तो सत्ता-व्यवस्था और तब के बाज़ार के आगे घुटने नहीं टेके थे? पर वह पांडवों के साथ भी कहां खड़े थे? गदा, धनुष या तलवार ले कर? जहां-तहां सिर्फ़ प्रश्न ले कर खड़े थे। तो क्या आनंद विदुर होता जा रहा है?
एक और विदुर?
आनंद भी जहां-तहां प्रश्न ले कर खड़ा हो जा रहा है आज कल। इतना कि अब ख़ुद प्रश्न बनता जा रहा है! यह तो हद है! वह बुदबुदाता है। उसे विदुर नहीं बनना। विदुर की सुनता कौन है? महाभारत में भी किसी ने नहीं सुनी थी तो अब कोई क्यों सुनने लगा? वह सोचता है क्या विदुर के समय में भी साइकेट्रिक होते रहे होंगे? और कभी किसी धृतराष्ट्र या उस के वंशज ने विदुर को किसी साइकेट्रिक के पास जाने की सलाह दी होगी? या फिर क्या उस समय भी ट्रेड यूनियनें रही होेंगी? और किसी ने तंज़ में विदुर को भी ट्रेड यूनियन की राजनीति में जाने का विमर्श दिया होगा?
और सौ सवाल में अव्वल सवाल यह कि क्या तब भी कारपोरेट जगत रहा होगा जहां तब के विदुर नौकरी बजाते रहे होंगे?
क्या पता?
फ़िलहाल तो आज की तारीख़ में वह अपना नामकरण करे तो प्रश्न बहादुर सिंह, या प्रश्नाकुल पंत या प्रश्न प्रसाद जैसा कुछ रख ही सकता है। कैसे छुट्टी ले वह इस प्रश्न प्रहर के दुर्निवार-अपार प्रहार से? सोचना उस का ख़त्म नहीं होता। अब इस टीस का वह क्या करे? यह एक नई टीस है। जिस का उसे अभी-अभी पता चला है।
‘बहुत दिन हो गए तुम ने मालपुआ नहीं बनाया।’ वह पत्नी से कहता है। ऐसे गोया इस टीस को मालपुए की मिठास और भाप में घुला देना चाहता है। और कहता है, ‘हां, वह गरी की बर्फ़ी और गाजर का हलवा भी। जो तुम पहले बहुत बनाया करती थीं, जब बच्चे छोटे थे।’ कह कर वह लेटे-लेटे पत्नी के बालों में अंगुलियां फिराने लगता है। पत्नी पास सिमट आती है पर कुछ बोलती नहीं। वह जानता है कि जब ऐसी कोई बात टालनी होती है तो पत्नी चुप रह जाती है। बोलती नहीं। वह जानता है कि पत्नी को मीठा पसंद नहीं। बच्चे भी पत्नी के साथ अब नमकीन वाले हो गए हैं। बड़े हो गए हैं बच्चे। जब छोटे थे तब मीठा खा लेते थे। अब नहीं। मीठा अब सिर्फ़ उसी को पसंद है। और वह डाइबिटिक हो गया है। सो पत्नी अब मालपुआ नहीं बनाती। नहीं बनाती गरी की बर्फ़ी और गाजर का हलवा भी। खीर तक नहीं। पत्नी ब्लडप्रेशर की पेशेंट है। पर ख़ुद नमक नहीं छोड़ती। उस का मीठा छुड़वाती है।
आफ़िस में भी पहले सहयोगी बहुत रिस्पेक्ट करते थे। बिछ-बिछ जाते थे। यह जान कर कि आनंद की पालिटिकल इंलुएंस बहुत है। रुटीन काम भी वह करवा ही देता था सब का। पर जब सब की उम्मीदें बड़ी होती गईं, मैनेजमेंट भी लायजनिंग करवाने की कोशिश में लग गया। उस ने पहले तो संकेतों में फिर साफ़-साफ़ मना कर दिया कि वह लायज़निंग नहीं करेगा। हरगिज़ नहीं। सहयोगियों को साफ़ बता दिया कि इतना ही जो पालिटिकल इंलुएंस उस का होता तो वह ख़ुद राजनीति नहीं करता? राजनीति छोड़ नौकरी क्यों करता? नौकरी में टूट-फूट शुरू हो गई। जो लोग पलक पांवड़े बिछाए रहते थे, देखते ही मुंह फेरने लगते।
यह क्या है कारपोरेट में राजनीति या राजनीति में कारपोरेट?
वह एक परिचित के घर बैठा है। घर के लोग किसी फंक्शन में गए हैं। घर में एक बुज़ुर्गवार हैं। घर की रखवाली के लिए। अकेले। बुज़ुर्गवार पेंशन या़ता हैं। आनंद का हाथ पकड़ कहते हैं, ‘भइया गवर्मेंट में एक काम करवा देते!’
‘क्या?’
‘जो पेंशन महीने में एक बार मिलती है, महीने में चार बार की हो जाती। या दो बार की ही हो जाती।’
‘ऐसा कैसे हो सकता है?’ आनंद मुसकुराता है, ‘क्या किसी को दो बार या चार बार तनख़्वाह मिलती है जो पेंशन भी दो बार या चार बार मिले?’
‘नहीं भइया आप समझे नहीं।’ बुज़ुर्गवार आंखें चौड़ी करते हुए बोले, ‘पेंशन का एमाउंट मत बढ़ता। वही एमाउंट चार बार में, दो बार में मिलता। हर महीने।’
‘इस में क्या है? आप को पेंशन तो बैंक के थ्रू मिलती होगी। आप चार बार में नहीं छह बार में यही एमाउंट निकालिए। दस बार में निकालिए!’
‘आप समझे नहीं भइया!’
‘आप ही समझाइए।’
‘निकालने की बात नहीं है। आने की बात है।’
‘ज़रा ठीक से समझाइए।’ आनंद खीझ कर बोला।
‘भइया अब आप से क्या छिपाना?’ बुज़ुर्गवार बोले, ‘घर की बात है। पेंशन की तारीख़ करीब आती है तो घर के सारे लोग मेरी ख़ातिरदारी शुरू कर देते हैं। क्या छोटे-क्या बड़े। पानी मांगता हूं तो कहते हैं पानी? अरे दूध पीजिए। पानी मांगता हूं तो दूध लाते हैं। खाने में सलाद, सब्ज़ी, दही, अचार, पापड़ भी परोसते हैं। ज़रा सी हिचकी भी आती है तो दवा लाते हैं। लेकिन जब पेंशन मिल जाती है तब नज़ारा बदल जाता है। घर का हर कोई दुश्मन हो जाता है। क्या छोटा, क्या बड़ा। पानी की जगह दूध देने वाले लोग पानी नाम सुनते ही डांटने लगते हैं। कहते हैं ज़्यादा पानी पीने से तबीयत ख़राब हो जाती है। बहुत पानी पीते हैं। मत पिया कीजिए इतना पानी। हिचकी की कौन कहे, खांसते-खांसते मर जाता हूं, दवा नहीं लाते। खाना भी रूखा-सूखा। हर महीने का यह हाल है। तो जब दो बार या चार बार पेंशन मिलेगी हर महीने तो हमारी समस्या का समाधान हो सकता है निकल जाए!’
‘पर ऐसा कैसे हो सकता है भला?’ बुज़ुर्गवार का हाथ हाथ में ले कर कहते हुए उन के दुख में भींग जाता है आनंद। कहता है, ‘अच्छा तो अब चलूं?’
‘ठीक है भइया पर यह बात हमारे यहां किसी को मत बताइएगा।’
‘क्या?’
‘यही जो मैं ने अभी कहा।’
‘नहीं-नहीं बिलकुल नहीं।’ कह कर आनंद उन के पैर छू कर उन्हें दिलासा देता है, ‘अरे नहीं, बिलकुल नहीं।’
बताइए इस भीष्म पितामह को महीने में चार बार पेंशन का पानी चाहिए।
एक डाक्टर के यहां अपनी बारी की प्रतीक्षा में वह बैठा है। डाक्टर होम्योपैथी के हैं सो वह सिमटम पर ध्यान ज़्यादा देेते हैं। एक ब्लड प्रेशर के मरीज़ से डाक्टर की जिरह चल रही है, ‘क्या टेंशन में ज़्यादा रहते हैं?’
‘हां, साहब टेंशन तो बहुत है ज़िंदगी में।’ पेशेंट मुंह बा कर बोला।
‘जैसे?’
‘द़तर का टेंशन। घर का टेंशन।’
‘द़तर में किस तरह का टेंशन है?’
‘नीचे के सब लोग रिश्वतख़ोर हो गए हैं। बात-बात पर फाइलें फंसाते हैं। पैसा नहीं मिलता है तो बेबात फंसाते हैं। मैं कहता हूं दाल में नमक बराबर लो। और सब नमक में दाल बराबर लेते हैं। यह ठीक तो नहीं है।’
‘आप का काम क्या है?’
‘बड़ा बाबू हूं।’ वह ठसके से बोला, ‘बिना मेरी चिड़िया के फ़ाइल आगे नहीं बढ़ती।’
‘चिड़िया मतलब?’
‘सिंपल दस्तख़त।’
‘ओह! इतनी सी बात!’
‘इतनी सी बात आप कह रहे हैं। अफ़सर बाबू मिल कर देश बेचे जा रहे हैं और आप इतनी सी बात बोल रहे हैं?’ वह तनाव में आता हुआ बोला, ‘मैं तो अब वी.आर.एस. लेने की सोच रहा हूं।’
‘अच्छा घर में किस बात का टेंशन है?’
‘घर में भी कम टेंशन नहीं?’ वह तफ़सील में आ गया, ‘एक लड़का नौकरी में आ गया है। दूसरा बिज़नेस कर रहा है। बिज़नेस ठीक नहीं चल रहा। तीसरा लड़का कुछ नहीं कर रहा। लड़की की शादी नहीं तय हो रही है।’
‘बस?’
‘बस क्या, घर में रोज़ झगड़ा हो जाता है मिसेज़ से।’
‘किस बात पर?’
‘मुझे हरी सब्ज़ी पसंद है। साग पसंद है। मिसेज़ को तेल मसाला पसंद है। बच्चों को भी मसालेदार पसंद है। इस पर झगड़ा बहुत है।’
‘ठीक है। आप अपनी सब्ज़ी अलग बनवाइए। तेल-घी मसाला और नमक बिलकुल छोड़ दीजिए। द़तर से लंबी छुट्टी ले लीजिए। ब्लड प्रेशर आप का चार सौ चला गया है। इस को रोकिए। नहीं मुश्किल में पड़ जाइएगा।’
‘जैसे?’
‘लकवा मार सकता है। आंख की रोशनी जा सकती है। कुछ भी हो सकता है।’ कहते हुए डाक्टर उस के परचे पर दवाइयां लिख देते हैं।
दूसरा मरीज़ शुगर का है। डाक्टर की मशहूरी सुन कर पटियाला से लखनऊ आया है। सिख है। सरदारनी को भी साथ लाया है। सरदारनी उस के शुगर से ज़्यादा शराब छुड़ाने पर आमादा है। सरदार डेली वाला है। डाक्टर भी समझा रहे हैं। पर वह कह रहा है, ‘नहीं साहब बिना पिए मेरा काम नहीं चलता। बिना इस के नींद नहीं आती।’ डाक्टर नींद की गोलियों की तजवीज़ करते हैं। पर वह अड़ा हुआ है कि, ‘बिज़नेस की टेंशन इतनी होती है कि बिना पिए उस की टेंशन दूर नहीं होती।’
‘तो बिना शराब रोके कोई दवा काम नहीं करेगी?’
‘कैसे नहीं करेगी?’ सरदार डाक्टर पर भड़क गया है, ‘पटियाला से लखनऊ फिर किस काम के लिए आया हूं।’ बिलकुल दम ठोंक कर कहता है, ‘दवा आप दो, काम करेगी मेरी गारंटी है।’
‘इस वक्त भी आप पिए हुए हैं।’ डाक्टर उसे तरेरते हुए मुसकुराते हैं।
‘हां, थोड़ी सी।’ वह हाथ उठा कर मात्रा बताता है।
‘इन को कल ले कर आइए। जब पिए हुए न हों।’ डाक्टर सरदारनी से कहते हैं। पर सरदार अड़ा है कि, ‘दवा आज ही से शुरू होगी। भले कल से बदल दो।’ वह जोड़ता है, ‘आखि़र इतना पैसा ख़र्च कर पटियाले से ख़ास इसी काम के लिए आया हूं। तो काम तो जी होना चाहिए ना!’ डाक्टर को चुप देख कर वह बड़बड़ाता है, ‘फ़ीस बाहर दे दी है, आप दवा दो!’
आनंद बिना दवा लिए क्लिनिक से बाहर आ गया।
सोचता है सिगरेट पिए।
पर सिगरेट नहीं है। आस पास कोई दुकान भी नहीं है। वह कई बार पाइप और सिगार पीने के बारे में भी सोच चुका है। सिगार तो मौक़े बेमौक़े पी लेता है। पर पाइप हर बार मुल्तवी हो जाता है। सोच-सोच कर रह जाता है। ख़रीद नहीं पाता। सिगार भी कभी-कभार ही। नियमित नहीं।
नियमित नहीं है काफ़ी हाउस में भी बैठना उस का। पर बैठता है जब-तब। पहले के दिनों में काफ़ी हाउस में बैठना एक नशा था। अब वहां बैठ कर नशा टूटता है। समाजवादी सोच को अब वहां सनक मान लिया गया है। समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आई/हाथी से आई घोड़ा से आई/समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आई।’ को अब वहां इसी शाब्दिक अर्थ में गूंथा जाता है। और लोग पूछते हैं, ‘का हो कब आई?’ इतना कि आनंद को ‘जब-जब सिर उठाया/चौखट से टकराया’ दुहराना पड़ता है। लगता है विद्यार्थी जीवन ख़त्म नहीं हुआ। विद्यार्थी जीवन याद आते ही उसे अपनी छात्र राजनीति के दिन याद आ जाते हैं। याद आते हैं पिता। पिता की बातें। वह अंगरेज़ी हटाओ आंदोलन के दिन थे। पिता कहते थे कि, ‘पहले अंगरेज़ी पढ़ लो, अंगरेज़ी जान लो फिर अंगरेज़ी हटाओ तो अच्छा लगेगा। नहीं ख़ुद हट जाओगे। कोई पूछेगा नहीं।’ लेकिन तब वह पिता से टकरा गया था। आंदोलन का जुनून था। कई बार वह पिता से टकराता था तो लगता था-व्यवस्था से टकरा रहा है। व्यवस्था से आज भी टकराता है। पर इंक़लाब ज़ि़दाबाद सुने अब ज़माना गुज़र गया है। जिंदाबाद-मुर्दाबाद के दिन जैसे हवा हो गए। ‘हर ज़ोर-जुलुम के टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है’ को जैसे सांप सूंघ गया है। आर्थिक मंदी के दौर में जगह-जगह से लोग निकाले जा रहे हैं, बेरोज़गार हो रहे हैं। पर अब यह सब सिर्फ़ अख़बारों की ख़बरें हैं। इन ख़बरों में हताशा की बाढ़ है। जोश और इंक़लाब का हरण हो गया है, हमारी रक्त कोशिकाएं रुग्ण हो गई हैं। नहीं खौलता ख़ून। बीस हज़ार-तीस हज़ार की नौकरी छूटती है तो दस हज़ार-पंद्रह हज़ार की नौकरी कर लेते हैं। लाख डेढ़ लाख की नौकरी छूटती है पचास हज़ार-साठ हज़ार की कर लेते हैं कंपनी बदल लेते हैं। शहर बदल लेते हैं। ज़मीर और ज़हन बदल लेते हैं। ‘एक खेत नहीं, एक बाग़ नहीं हम सारी दुनिया मांगेंगे’ गाना हम भूल गए हैं। भूल गए हैं यह पूछना भी कि एक ही आफ़िस में कुछ आदमी आठ लाख-दस लाख महीने की तनख़्वाह ले रहे हैं तो कुछ लोग दस हज़ार, बीस हज़ार, पचास हज़ार की तनख़्वाह ले रहे हैं। यह चौड़ी खाई क्यों खोद रहे हैं हुजू़र? यह कौन सा समाज गढ़ रहे हैं। क्यों नया दलित गढ़ रहे हैं? क्यों एक नए नक्सलवाद, एक नई जंग की बुनियाद बना रहे हैं? अच्छा बाज़ार है! चलिए माना। फिर ये बेलआउट पैकेज भी मांग रहे हैं।
यह क्या है?
मालपुआ खाना है तो बाज़ार की हेकड़ी है। भीख मांगनी है तो लोक कल्याणकारी राज्य की याद आती है? भई हद है!
काफ़ी हाउस में बैठा आनंद सिगरेट सुलगाता है और सोचता है कि इसी माचिस की तीली से बेल आउट देने और लेने वालों को भी किसी पेट्रोल पंप पर खड़ा कर के सुलगा दे। और बता दे कि जनता की गाढ़ी कमाई से भरा गया टैक्स, सर्विस टैक्स और दुनिया भर का ऊल जुलूल टैक्स का पैसा है। इस से बेलआउट के गड्ढे मत पाटो।
‘शिव से गौरी ना बियाहब हम जहरवा खइबौं ना!’ शारदा सिनहा का गाया भोजपुरी गाना कहीं बज रहा है। यह कौन सा कंट्रास्ट है?
वह रास्ते में है।
कोहरा घना है। और थोड़ी सर्दी भी। कोहरे को देख उसे सुखई चाचा की याद आ गई।
घने कोहरे में लिपटी वह रात सुखई चाचा के ज़र्द चेहरे को भी जैसे अपने घनेपन में लपेट लेना चाहती थी। लेकिन बार-बार डबडबा जाने वाली उन की निश्छल आंख छलछलाती तो जैसे वह कोहरे को ही अपने आप में लपेट लेती। उन के रुंधे कंठ से उन की आवाज़ भी स्पष्ट नहीं हो पा रही थी। तो भी उस घोर सर्दी में उन की यातना की आंच जलते हीटर की आंच से कहीं ज़्यादा थी।
यह यातना उन के मुसलमान होने की थी।
उन के नाती को पुलिस ने आतंकवादी घोषित कर दिया था। गांव की राजनीति और लोकल पुलिस का यह कमाल था। आतंकवाद की बारीकियों से बेख़बर आतंकवाद के आतंक की काली छाया में वह घुट रहे थे। आतंक से तो वह परिचित थे, पर आतंकवाद क्या बला है, इसे वह अब भुगत रहे थे, बल्कि उस में झुलस रहे थे।
झुलसते हुए ही वह तीन सौ किलोमीटर की दूरी नाप कर लखनऊ आनंद के पास आए थे अपने नाती को ले कर कि वह आतंकवाद की नंगी तलवार की फांस से उन के नाती को उबार देगा। यह सोच कर कि आनंद बड़का नेता है, जो चाहेगा, करवा देगा। वह यह उम्मीद जताते हुए थर-थर कांप रहे थे, उन की घबराई डबडबाई आंखें जब तब छलछला पड़ती थीं।
सुखई चाचा जो आनंद के जीवन के अनगिनत सुखों के साझीदार थे, अपने इस बुढ़ापे के दुख में आनंद को साझीदार बनाने पर आमादा ही नहीं आकुल-व्याकुल, हैरान-परेशान भयाक्रांत उस के पैरों में समा जाना चाहते थे।
उस ने उन्हें हाथ जोड़ कर रोका कि, ‘नहीं सुखई चाचा, ऐसा नहीं करें। आप मुझ से बहुत बड़े हैं।’
‘नहीं तिवारी बाबा! ओहदा में, जाति में, रसूख़ में तो रऊरा बड़ा बानी।’
‘अरे नहीं-नहीं बड़े तो आप ही हैं।’ कह कर मैं ने उन्हें उठा कर बैठा लिया। और कहा कि, ‘अभी आप खा पी कर आराम से सोइए। रात बहुत हो गई है। सुबह इत्मीनान से बात करेंगे। और इसे बचाने का इंतज़ाम भी। ड्राइंग रूम में ही उन के और उन के नाती के सोने की व्यवस्था करने के लिए पत्नी से कहा तो वह ज़रा बिदकी। पर जल्दी ही वह व्यवस्था करने में लग गई। वह कंबल खोजने लगी तो मैं ने कहा कि, ‘कंबल नहीं मेहमानों वाली रज़ाई दे दो ठंड बहुत है। और हीटर भी जला रहने देना।’
सुखई चाचा जो उस की पैदाइश से ही उसके साथ थे। बाजा बजाते हुए। दादी बताती थीं कि जब मैं आधी रात को पैदा हुआ तो शुभ साइत का नगाड़ा जब बजा तो मियां का बाजा भी बजा। मियां माने सुखई। तब जाड़े की रात थी लेकिन ख़बर मिलते ही सुखई चाचा अपना बिगुल बजाने अपने बेटे के साथ आ गए। सुखई बिगुल यानी ट्रम्पेट्स बजा रहे थे और उन का बेटा तासा। भाई उन का झाल बजाता रहा। अम्मा बताती थीं कि जब मेरा निकासन हुआ तब भी मियां ने बाजा बजाया। मेरा मुंडन हुआ तब भी मियां ने बाजा बजा कर दरवाजे़ की शोभा बढ़ाई। और मैं ने अपने यज्ञोपवीत तथा बाद में विवाह में भी मियां यानी सुखई चाचा को ट्रम्पेट्स बजाते देखा। ट्रम्पेट्स पर उन दिनों फ़िल्मी गानों की बहार आ गई थी पर सुखई चाचा के ट्रम्पेट्स पर कजरी और पुरबी गानों की बहार फिर भी बहकती झूमती छाई रहती। मेरे पैदा होने, निकासन, मुंडन, यज्ञोपवीत, विवाह आदि सभी मौक़े पर सुखई चाचा दरवाजे़ की शोभा बढ़ाते रहे बिगुल यानी ट्रम्पेट्स बजा कर। मुझे याद है कि जब मेरी दादी का देहांत हुआ और उन का पार्थिव शरीर शहर के अस्पताल से ट्रक से गांव ले जाया गया तो सुखई चाचा की बैंड पार्टी दादी की अंतिम विदाई में भी हाज़िर थी। दादी ने लंबी उम्र जी कर विदा ली थी तो ग़मी के बावजूद ख़ुशी का भी मौक़ा था सो उन्हें बाजे गाजे के साथ विदाई दी गई गांव से। घर की औरतें और लोग रो ही रहे थे, सुखई चाचा ने जाने कौन सी धुन या जाने कौन सा राग छेड़ा अपने ट्रम्पेट्स पर कि जो लोग नहीं रो रहे थे, वह लोग भी रोने लगे। सब की आंखें बह चलीं।
सुखई चाचा बैंड बाजे का सट्टा करते थे, पर हमारे घर से वह सट्टा नहीं लिखवाते जजमानी लेते। पहले वह लुंगी या धोती पहने ही ट्रम्पेट्स बजाते थे पर बाद के दिनों में उन की बैंड बाजा कंपनी में बैंड बाजा वाली लाल रंग की ड्रेस भी आ गई। पर वह ख़ुद ड्रेस नहीं पहनते थे। धोती या लुंगी खुंटियाए वह अलग ही दिखते थे। बाद में उन का बेटा बिस्मिल्ला भी तासा छोड़ कर ट्रम्पेट्स बजाने लगा पर सुखई चाचा जैसी तासीर वह अपने बजाने में नहीं ला पाया।
सुखई चाचा का नाम तो था सुख मुहम्मद लेकिन गांव में लोग उन को सुखई कहते थे। गांव की औरतें जो संस्कारवश या लाजवश पुरुषों का नाम नहीं लेती थीं, उन्हें मियां कहती थीं। और हम उन्हें सुखई चाचा कहते थे।
ब्राह्मणों की बहुतायत वाले गांव में चूड़िहारों के भी सात आठ घर थे। उन्हीं में से एक घर सुखई चाचा का भी था। सुखई चाचा का नाम भले सुख मुहम्मद था पर सुख उन के नसीब में शायद ही कभी रहा हो। हां, उन के चेहरे पर एक फिस्स हंसी जैसे हमेशा चस्पा रहती थी। चाहे वह हल जोत रहे हों, चाहे सिलाई मशीन चला रहे हों, चूड़ी पहना रहे हों या बाजा बजा रहे हों। सुखई चाचा जैसे हर काम में माहिर थे। या ऐसे कहूं कि वह हर किसी काम के लिए बने थे। उन के पास मुर्गि़यां भी थीं और बकरियां भी। लेकिन सब कुछ के बावजूद गुज़ारा उन का न सिर्फ़ मुश्किल बल्कि बेहद मुश्किल था।
हमारे घर में क्या गांव के किसी भी घर में शादी ब्याह होता, लगन लगते ही उस घर में सुखई चाचा का डेरा भी जम जाता। सगुन का जुआठा हरीश लगते ही उन की सिलाई मशीन भी जम जाती। घर भर के कपड़े, रिश्तेदारों के कपड़े सिलने वह शुरू कर देते। काज, तिरुपाई, बटन के लिए उन की बेगम, बेटियां, बहू बारी-बारी सभी लग जाते। तब के घर भी कोई दो चार दस सदस्यों वाले घर नहीं होते थे। सिंगिल फेमिली, ज्वाइंट फेमिली का कंसेप्ट भी तब गांव में नहीं था। बाबा की चचेरी बहनें तक घर का ही हिस्सा थीं। बूढ़ी फूफियां अपने नाती पोतों समेत अपनी ससुराल छोड़ शादी के दस रोज़ पहले ही बुला कर लाई जातीं और शादी के दस बारह रोज़ बाद ही वापस जातीं। एक-एक दो-दो कपड़े ही सही, सभी के लिए नए-नए सिले ज़रूर जाते। कोई कुछ कहे तो सुखई चाचा बस, ‘हां बाबा, हां तिवराइन’ कह कर काम समझ लेते और उस के मन मुताबिक़ काम कर देते।
अपने टीन-एज के दिनों में आनंद एक बार बेहद बीमार पड़ा। एक्यूट एनिमिया हो गया था। देह में ख़ून की बेहद कमी वाली इस बीमारी में डाक्टर ने पौष्टिक आहार में दूध और अंडा का भी ज़िक्र कर दिया। घर में मांस-अंडा का पूरी तरह निषेध था। मां को तुरंत सुखई चाचा याद आए। बुलाया उन्हें। उन के घर में दूध देती गाय भी थी और अंडा देती मुर्ग़ी भी। वह सहर्ष तैयार हो गए। और पूरी गोपनीयता के साथ दूध में कच्चा अंडा फेंट-फेंट पिलाते रहे। आनंद के स्वस्थ होने तक।
उसे याद है तब कार्तिक का महीना था। गेहूं की बुआई का समय था। सुखई चाचा के साथ खेत में वह जब-तब हेंगे पर बैठ जाता। रह-रह कर वह हल जोतने की भी ज़िद करता और वह इस के लिए सख़्ती से मना कर देते। एक बार वह हल लुढ़का कर पेशाब करने ज़रा दूर गए। आनंद ने मौक़ा पा कर हल चलाना शुरू कर दिया। ज़रा दूर चलते ही हल की मूठ टेढ़ी-मेढ़ी हुई और हल का फार बैल के पैर की खुर में जा लगा। बैल की खुर से ख़ून निकलने लगा। उस का चलना मुश्किल हो गया। बैल अचकचा कर बैठ गया। सुखई चाचा दौड़ते-हांफते आए। बोले, ‘इ का कै देहलीं बाबा!’ झटपट बैल के जुआठे से पहले हल निकाला फिर बैल के गले से जुआठा। और माथे पर हाथ रख कर बैठ गए। बोले, ‘कातिक महीना, बैल बइठ गइल। अब कइसे बोआई होई!’ वह रुके और बोले, ‘अब गोंसयां हम्मे छोड़िहैं नाईं। गारी से तोप दिहैं।’ हुआ भी वही बाबा ने उन्हें गालियों से पाट दिया। पूछा कि, ‘अब कइसे बुआई होगी?’
गेहूं की बुआई उस साल पिछड़ गई थी। बाद में उधार के बैल से बुआई हुई। पर सुखई चाचा ने एक बार भी बाबा से नहीं कहा कि आनंद ने हल चला कर बैल के पैर में घाव दिया है, आनंद की बेवक़ूफ़ी से बैल का खुर कटा है। भूल कर भी नहीं, सारी तोहमत अपने ऊपर ले ली। आनंद चाह कर भी अपनी ग़लती बाबा से नहीं बता पाया। क्यों कि फिर उसे अपनी पिटाई का डर था। और सुखई चाचा भी यह बात जानते थे सो सारी गालियां अपने हिस्से ले लीं, आनंद को पिटने नहीं दिया। आनंद के बाबा प्राइमरी स्कूल के हेडमास्टर रहे थे। सो पिटाई बड़ी बेढब करते थे। उन की पिटाई के क़िस्से उन के रिटायर होने और निधन के बाद भी ख़त्म नहीं हुए थे गांव से-जवार से।
अकसर जब वह खेत में बाबा के साथ होता तो लोग आते-जाते बड़ी श्रद्धा से उन के चरण स्पर्श करते। लोगों के जाने के बाद जब वह बाबा से पूछता कि, ‘ये कौन थे?’
‘अरे चेला है।’ वह जोड़ते, ‘पढ़ाया था इस को।’ बाबा बताते और लगभग हर किसी के लिए।
‘पर यह आदमी पढ़ा लिखा तो लग नहीं रहा था।’
‘तो ससुरा जब पढ़ा ही नहीं तो पढ़ा लिखा लगेगा कइसे?’
‘पर अभी तो आप कह रहे थे कि पढ़ाया था, चेला है।’
‘हां, पढ़ाया तो था। पर ससुर पढ़ा कहां। दो चार छड़ी मारा, भाग खड़ा हुआ। फिर स्कूल ही नहीं आया।’ अधिकांश लोगों की पढ़ाई बाबा की मार से छूट गई थी। वह अपने समय में मरकहवा मास्टर नाम से मशहूर थे। गणित और उर्दू दो उन के विषय थे। ख़ास कर गणित में वह अपने विद्यार्थियों को बहुत मारते। हाथ-पांव तक तोड़ डालते। नतीजतन तब के विद्यार्थी भैंस चराना मंज़ूर कर लेते पर मरकहवा मास्टर से पढ़ाई नहीं। लेकिन जो विद्यार्थी उन की मार बरदाश्त कर ले जाते वह अव्वल निकल जाते। डिप्टी कलक्टर और कलक्टर बन जाते। ऐसा बाबा ख़ुद बताते। कलक्टर या डिप्टी कलक्टर तो नहीं पर कुछ अच्छी जगहों पर जमे लोगों को बाद के दिनों में ज़रूर उस ने पाया। जो इन मास्टर साहब की पिटाई पर आह भरते और उन के पढ़ाने के गुण की वाह करते कुछ थोड़े से लोगों को पाया। पर अधिकांश पढ़ाई छोड़ कर भागने वाले ही मिले।
सुखई चाचा भी उन्हीं न भागने वालों में से थे। अलिफ़ बे उन्हों ने बाबा से ही सीखा था। पर घर की मजबूरियों ने उन्हें और आगे पढ़ने नहीं दिया। और वह इस उर्दू तालीम को अपनी दर्ज़ीगिरी में आज़माते। और आनंद के घर के सारे काम भी वह पूरी निष्ठा, श्रद्धा या यों कहिए कि पूरे विद्यार्थी धर्म के साथ निभाते। वह बाबा को और उन के पूरे परिवार को अपने श्रम की गुरु दक्षिणा जब-तब प्रस्तुत करते रहते। और अभी भी सुखई चाचा उसी कृतज्ञ भाव से आनंद के पास अपने नाती को पुलिसिया क़हर से, आतंकवाद की आंच और गांव की गिरी राजनीति से बचाने की गुहार भरी आस में नाती को ले कर लखनऊ आए थे।
उन के नाती का दोष सिर्फ़ इतना था कि आज़मगढ़ के एक लड़के से उस की दोस्ती थी। दोस्ती क्या थी, साथ पढ़ता था। टीन-एज में दोस्ती की ललक और उत्साह में वह गांव में सुखई चाचा के घर भी दो-चार बार आया आज़मगढ़ लौटते समय। वह आता और बाबरी मस्जिद के घाव की तफ़सील में जाता। गुजरात दंगों के नासूर गिनाता। देश में मुसलमानों के प्रति हो रहे अन्याय बतियाता। गांव के कुछ लोगों के कान खड़े हो गए। कहने लगे, ‘यह तो साला पाकिस्तानियों की तरह बात करता है।’ किसी ने कहा, ‘अभी नहीं रोका गया तो यह रहीमवा का बाप निकलेगा।’ और रहीम को यह लोग पहले ही सबक़ सिखा चुके थे।
रहीम भी पहले सुखई चाचा की बैंड बाजा टीम में ट्रम्पेट्स बजाता था। लगन के दिनों में। बाद के दिनों में मेहनत-मज़दूरी कर के परिवार चलाता। उन्हीं दिनों छोटे भाई को कमाने के लिए सऊदिया भेजने का जुनून अचानक उस पर सवार हो गया। इसी दौड़ धूप में कुछ लीगी टाइप मुसलमानों से भी उस का परिचय हो गया। बाद के दिनों में उस के बाक़ी दो भाई भी सऊदिया चले गए। रहीम ने छोटी-मोटी मज़दूरी करनी छोड़ दी। अब घर में न सिर्फ़ पैसा आ गया था, रहीम के बर्ताव में भी फ़र्क़ आ गया था। अब वह मौलानाओं की तरह छोटी-मोटी तक़रीर भी करने लगा। कांशीराम, मुलायम ने नब्बे के दशक में दलित, पिछड़ों और मुस्लिम का गठजोड़ बनाया और जल्दी ही तोड़-ताड़ भी बैठे। पर रहीम ने अपने गांव स्तर पर अस्सी के दशक में ही यह गठजोड़ बना लिया था। और इतना ज़बरदस्त गठजोड़ कि सवर्णों की आंख की वह किरकिरी बन बैठा।
उन दिनों खेती ट्रैक्टर और कंबाइन के भरोसे नहीं थी। हल-बैल की खेती थी। हालां कि ट्रैक्टर की आमद गांव में हो चुकी थी पर कंबाइन का कहीं दूर-दूर तक अता पता नहीं था। हां, थ्रेशर की धमक ज़रूर थी। ग़रज़ यह कि खेती बिना मज़दूरों के नहीं हो सकती थी। और मज़दूरों की रहनुमाई रहीम के हाथों धीरे-धीरे आ रही थी। इतना ही नहीं रहीम अब पैसा, और बुद्धि दोनों का खेल खेल रहा था। सब से पहले उस ने ग्राम समाज की ज़मीन पर नज़र गड़ाई। जो खलिहान और बरात के नाम पर सवर्णों के कब्जे़ में थी। उस ने बहुत होशियारी से गांव के नाऊ, कहार, ढांढ़ी, कोइरी आदि जातियों के भूमिहीनों को गोलबंद किया और ग्राम प्रधान को ग्राम समाज की उस ज़मीन को पट्टे पर देने की दरख़्वास्त डलवा दी। वह ख़ुद तो भूमिहीन नहीं था अब, पर न सिर्फ़ अपने बल्कि कुछ और मुस्लिम चूड़िहारों की भी दरख़्वास्तें डलवा दीं। ग्राम प्रधान एक पंडित जी थे। शुरू में उन्हों ने टाल-मटोल किया पर रहीम ने तब के दिनों में चंदा लगा कर पंडित जी को दस हज़ार रुपए रिश्वत में दे कर उन की टाल-मटोल बंद करवा दी। पंडित जी ने पट्टा जारी कर दिया। पर इस अनुरोध के साथ कि पट्टा ले कर साल-छ महीना तक सांस न लें। न ही उस ज़मीन पर नज़र डालें।
रहीम मान गया। ग्राम प्रधान की यह बात।
तो भी ग्राम समाज की इस ज़मीन पर पट्टे की खुसफुसाहट गांव में शुरू हो गई। सवर्ण सकते में आ गए। ग्राम प्रधान पंडित जी को पकड़ा गया। पर उन्हों ने पट्टा देने से साफ़ इंकार कर दिया। और सांस खींच ली। लेकिन रहीम जिस श्रद्धा से झुक कर ग्राम प्रधान पंडित के चरण स्पर्श करता लोगों के मन मंे सवाल उतने ही सुलग जाते। पर यह सुलगन चिंगारी बनती और चिंगारी शोला, ग्राम प्रधान पंडित प्रयाग चले गए। सपत्नीक कल्पवास पर। महीने भर के लिए।
उधर पंडित ग्राम प्रधान कल्पवास पर प्रयाग गए इधर कतवारू नाऊ ने ग्राम समाज से पट्टे पर मिली ज़मीन पर मड़ई डाल दी। रातो-रात। रहीम ने उसे समझाया बहुत पर वह नहीं माना। अंततः दूसरी रात उस की मड़ई में गांव के दबंगों ने आग लगा दी। मड़ई सिर्फ़ सांकेतिक थी, सो कोई उस में सोया नहीं था। इस लिए किसी की जान नहीं गई। कतवारू के पास पट्टे का काग़ज़़ भी नहीं था सो पुलिस ने रिपोर्ट भी दर्ज नहीं की। पट्टे का काग़ज़़ रहीम के पास था। लेकिन चूंकि वह ख़ुद पढ़ा लिखा नहीं था, और काग़ज़़ को ले कर सशंकित भी था, पंडित ग्राम प्रधान गांव में नहीं थे सो उस ने काग़ज़़ किसी को न दिया, न दिखाया। पर कतवारू का कहना था कि उस ने पांच सौ रुपए रिश्वत दे कर पट्टा लिखवाया है और कोने वाली ज़मीन उसी के नाम है। वह बस इतना जानता है। पर रहीम ने उस की किसी बात का जवाब नहीं दिया। ख़ामोश रहा। मौक़ा पा कर उस ने कतवारू को समझाया भी कि, ‘कैंची कपार पर चलाओ, मुंह की कैंची चकर-पकर मत चलाओ। और चुप रहो। पंडित जी आएंगे तो देखा जाएगा। नहीं सारा खेल बिगड़ जाएगा।’
कतवारू चुप हो गया।
लेकिन गांव चुप नहीं हुआ।
तरह-तरह की बातें, तरह-तरह के कयास। लोग कहने लगे कि यह पंडित तो कफ़न बेच कर खा जाने वाला है तो ग्राम समाज की ज़मीन क्या चीज़ है? बेच दिया होगा। लेकिन सारी बातें गुपचुप। कोई खुल कर सामने नहीं आ रहा था। कारण यह था कि ग्राम प्रधान का कारोबार सूदख़ोरी का भी था। विरले ही घर थे जिस का पुरनोट प्रधान के पास न हो। वक़्त-बेवक्त किसी को भी पैसे की ज़रूरत पड़ जाती। जीना-मरना हो या शादी-ब्याह, प्रधान के यहां से सूद पर आदमी पैसा लेता ही था। जो जल्दी ख़त्म होता नहीं था। आदमी सौ रुपए उधार ले कर हज़ार रुपए दे देता पर सब सूद में चला जाता, मूल नहीं ख़त्म होता था। हां, बीच-बीच में पुरनोट ज़रूर बदल जाता। सो लगभग एक दहशत सी थी गांव में ग्राम प्रधान की। बीच दहशत में खुसफुस सूचनाएं तैर रही थीं कि भूमिहीन लोगों को ग्राम समाज की ज़मीन पर पट्टा एक बार फिर भी समझ में आता है पर रहीम के पास तो अपना पक्का घर है दो बीघा ही सही खेत है, तो उस के नाम पर भी पट्टा कैसे हो सकता है भला?
‘तो रहीम को भी पट्टा कर दिया है पंडित ने?’ गांव के सवर्णों में यह सवाल सुलगने लगा। फिर बात यह भी आई कि न सिर्फ़ रहीम बल्कि रहीम ने अपने भाइयों, पट्टीदारों के नाम भी पट्टा करवा लिया है। यह सारी सूचनाएं कतवारू नाऊ के सौजन्य से गांव में फैल रही थीं। रहीम के लिए कतवारू नाऊ अब सिर दर्द होता जा रहा था। कतवारू की ‘होशियारी’ रहीम की ‘रणनीति’ में पलीता लगा रही थी।
गांव में अचानक नवयुवक मंगल दल गठित हो गया था। नवयुवक मंगल दल की ओर से गांव में चंदा लगा। फिर नवयुवक मंगल दल की ओर से एक दिन ग्राम समाज की उस ज़मीन को ले कर एक अदालत में मुक़दमा दाखिल हो गया। तर्क यह दिया गया कि ग्राम समाज की ज़मीन पर भूमिहीनों के बजाय जोतदारों को पट्टा दे दिया गया है। नतीजतन गांव में न सिर्फ़ शांति भंग बल्कि सांप्रदायिक तनाव भी बढ़ गया है। अदालत में इस बिना पर दरख़्वास्त दी गई कि सारे पट्टे तुरंत प्रभाव से निरस्त कर दिए जाएं। पर चूंकि पट्टे के काग़ज़़ साक्ष्य रूप में उपलब्ध नहीं कराए गए थे सो अदालत ने इस बिंदु पर सुनवाई से इंकार कर दिया। संबंधित लोगों को नोटिस जारी कर यथास्थिति बनाए रखने के आदेश ज़रूर जारी किए अदालत ने। साथ ही प्रशासन को क़ानून व्यवस्था बनाए रखने की हिदायत भी जारी कर दी।
मामला और भड़क गया।
रातों रात रहीम वग़ैरह की भी मड़ई पड़ गई। रहीम से लोगों ने पूछताछ की तो उस ने अदालत के स्टेटस-को का हवाला दिया। और एक अलग ही परिभाषा दे दी स्टेटस-को की। कहा कि स्टेटस-को का मतलब दोनों पक्षों का बराबर-बराबर कब्ज़ा। लोगों ने पूछा भी कि, ‘दोनों पक्ष मतलब नवयुवक मंगल दल का भी यहां कब्ज़ा होना चाहिए?’
‘नहीं, ग्राम समाज और पट्टा पाए लोगों का कब्ज़ा।’ रहीम ने जवाब दिया और कहा कि, ‘ई फ़र्ज़ी नवयुवक मंगल दल कौन होता है हम को रोकने वाला?’
अदालत में उस ने वस्तुस्थिति को जांचने के लिए कमिश्नर रिपोर्ट ख़ातिर दरख़्वास्त दे दी। एक मुस्लिम वकील ही कमिश्नर नियुक्त हुआ। कमिश्नर के आने के पहले रातो रात कई और झोंपड़ियां ग्राम समाज की इस ज़मीन पर सज गईं। पिछड़े, दलित और मुस्लिम अब खुल कर सवर्णों से आमने-सामने थे।
रहीम की नेतागिरी चमक गई थी।
नवयुवक मंगल दल की अगुवाई पहले परदे के पीछे से एक फ़ौजी पंडित जी कर रहे थे। जो उन दिनों दो महीने की छुट्टी पर गांव आए हुए थे। अब वह खुल कर सामने आ गए थे। रणनीति के तहत ही उन्हों ने नवयुवक मंगल दल में कुछ पिछड़े और दलितों को भी जोड़ा था। पर अब वह सब भी छिटक कर अपनी जमात में चले गए थे।
गांव जैसे जल रहा था।
जातिवादी और सांप्रदायिक उफान चरम पर था। इसी बीच ग्राम प्रधान कल्पवास पूरा कर प्रयाग से लौटे तो गांव के बाहर ही उन की घेराबंदी हो गई।
दूसरे दिन ग्राम समाज की ज़मीन की रिपोर्ट अदालत को देने के लिए कमिश्नर को आना था। ग्राम प्रधान के घर रात को सवर्णों की बैठक हुई। पूरी रणनीति पर चर्चा हुई। ज़्यादा तफ़सील में लोग जाते इस के पहले ही ग्राम प्रधान ने एक मंत्र फूंक दिया, ‘सारी मड़ई फूंक डालो, बाक़ी मैं दूख लूूंगा।’
नवयुवक मंगल दल के शोहदों ने फिर दूसरी रणनीति बनाई और तड़के ही सारी झोपड़ियों में आग लगा दी। रहीम अभी कुछ करता-कराता तब तक सारा मलबा साफ़ कर पोखरे में डाल दिया। और ज़मीन पर गोबर की लिपाई करवा दी। नवयुवक मंगल दल का एक बोर्ड भी द़ती पर गुलाबी रंग से लिखवा कर एक बल्ली पर टांग दिया।
कमिश्नर ने आ कर पहले तो पूरी ज़मीन की पैमाइश करवाई। फिर लोगों के बयान लिए। नक़्शा बनाया। ग्राम प्रधान से अलग से अकेले में बात की रहीम, कतवारू वगैरह से पूछा कि किस की मड़ई कहां थी?
‘किसी की कोई मड़ई कहीं नहीं थी।’ नवयुवक मंगल दल का एक शोहदा बीच में कूद कर बोला।
‘फिर यह गोबर की लिपाई-विपाई क्यों है?’
‘वो तो इस लिए कि नवयुवक मंगल दल की आज बैठक है।’ एक दूसरा शोहदा बोला।
‘उस के लिए इतनी बढ़िया लिपाई और सारी ज़मीन पर?’ कमिश्नर ने पूछा।
‘हां, खलिहान की भी तैयारी है।’
‘अच्छा? किस-किस का खलिहान यहां होता है?’ कमिश्नर ने पूछा।
‘गांव के लगभग सभी का?’
‘अच्छा?’ कमिश्नर ने पूछा, ‘सारे गांव का खलिहान इतनी सी ज़मीन में हो जाता है?’
‘नहीं कुछ लोग अलग भी करते हैं।’
‘कौन-कौन लोग यहां खलिहान करते हैं?’ कमिश्नर ने स्पष्ट रूप से लोगों का नाम जानना चाहा। पर किसी ने किसी के नाम का खुलासा नहीं किया। हां, सारा गांव, मुसल्लम गांव का पहाड़ा ज़रूर रटते रहे।
कमिश्नर ख़ानापूरी कर के चला गया।
दो दिन बाद फिर मड़ई सब की तन गईं। मड़ई लगते समय लड़ाई-झगड़ा भी हुआ। किसी का सिर फूटा, किसी का मुंह फूटा। पुलिस आई, एफ़.आई.आर. हुई। दो दर्जन से अधिक लोग 107/151 मंे बंद हुए। इस बीच मड़ई की फ़ोटोग्राफ़ी भी हो गई। दो दिन बाद सब की ज़मानत हो गई। कुछ-कुछ ख़ून सब का ठंडा हुआ।
अब दो मुकदमे थे। एक दीवानी में, एक फ़ौजदारी में।
उधर कमिश्नर ने ग्राम समाज की ज़मीन पर रहीम और उस के साथियों का क़ब्ज़ा दिखा कर उस के पक्ष में रिपोर्ट अदालत को दे दी थी। रहीम की बल्ले-बल्ले हो गई। कुछ दिन बाद अदालत में ग्राम प्रधान की ओर से जारी पट्टे के काग़ज़ात भी जमा हो गए।
अब नवयुवक मंगल दल ने रहीम और उस के भाइयों के खि़लाफ़़ मोर्चा खोला कि यह लोग भूमिहीन नहीं हैं, जोतदार हैं, गांव में पक्का मकान है तो इन को पट्टा कैसे मिल सकता है? रहीम अड़ा रहा कि वह और उस के भाई भूमिहीन हैं। और जो वह जोतदार है तो नवयुवक मंगल दल उस के नाम की खसरा खतौनी दिखाए।
खसरा खतौनी रहीम के अब्बू के नाम थी। और रहीम का कहना था कि, ‘अब्बू ने हम को और हमारे भाइयों को अपनी जायदाद से बेदख़ल कर दिया है।’ अपने अब्बू के इस हलफ़नामे की प्रतिलिपि भी उस ने अदालत में पेश कर दी थी। अदालत ने उसे तुरंत स्वीकार नहीं किया था। पर एक पेंच तो रहीम ने खड़ा ही कर दिया था।
अब गांव में यह सवाल उठा कि ऐसे तो गांव के दो तिहाई से अधिक लोग भूमिहीन बन सकते हैं। फिर ग्राम समाज की ज़मीन पर किस-किस को पट्टा मिल पाएगा? ग्राम समाज के पास ज़मीन है ही कितनी?
ख़ैर, मुक़दमे में तारीख़ पड़ती रही।
फ़ौजदारी का मुक़दमा समाप्त हो चुका था। दीवानी के मुक़दमे और ग्राम समाज की ज़मीन को ले कर गांव के अधिकांश सवर्णों की दिलचस्पी समाप्त हो चली थी। ग्राम प्रधान पंडित जी का टर्म अब ख़त्म होने को था। नए चुनाव की तैयारी थी। ग्राम प्रधान पंडित जी की थुक्का फ़ज़ीहत बहुत हो चुकी थी। खुले आम न सही पीठ पीछे सभी उन को गरियाते थे। क्या सवर्ण, क्या दलित, क्या पिछड़े, क्या मुस्लिम। सभी एक सुर से कहते कि इस ग्राम प्रधान पंडित ने गांव की हवा ख़राब कर दी। माहौल बिगाड़ दिया। खेतों से ज़्यादातर दलितों की छुट्टी हो चली थी। खेत की जुताई अब किराए के ट्रैक्टरों से ज़्यादातर लोग करवाने लगे थे। पिछड़ों का इस ग्राम समाज की ज़मीन से ज़्यादा लेना देना नहीं था। सवर्णों से उन का मेल जोल हो चला था। पर ग्राम प्रधानी के चुनाव में वह भी अब अपनी लाठियों में तेल मल रहे थे। पर सब से ज़्यादा टैंपो हाई था रहीम का। रहीम खुल्लमखुल्ला दम ठोंक रहा था। पंडितों में तीन चार दावेदार आ चुके थे। ख़ास कर एक युवा जो गांव के पोखरों में मछली पालन का पट्टा लिए था। और नवयुवक मंगल दल का ख़ास कर्ताधर्ता था। उसे लग रहा था कि अगर सवर्णों में से तीन चार उम्मीदवार हो जाएंगे तो रहीम की जीत पक्की है। सो पहले उस ने आपस में सब को समझाया। रहीम का डर भी दिखाया। पर कोई समझने को तैयार नहीं हुआ।
उन्हीं दिनों वह फ़ौजी पंडित फिर छुट्टी पर आए हुए थे। बिखरते जा रहे और लस्त-पस्त पड़े नवयुवक मंगल दल की बैठक करवाई। नवयुवक मंगल दल अब उन की निगहबानी में फिर से आते ही जोश में आ गया। रहीम को इस की भनक लगी। फ़ौजी पंडित की सक्रियता देख कर रहीम ने उन के एक पट्टीदार से मेल जोल बढ़ाना शुरू कर दिया। जिस से फ़ौजी पंडित की बातचीत तक बंद थी। वह उन की एक गाय जब-तब दूहने लगा।
इधर नवयुवक मंगल दल ने एक और शिगूफ़ा छोड़ा कि रहीम से अगर ग्राम समाज की ज़मीन न छुड़वाई गई तो वह उस पर मस्जिद बनवा देगा। इस बारे में प्रशासन और अदालत को भी नवयुवक मंगल दल ने चिट्ठी लिख कर सूचित किया।
गांव में मस्जिद बनने की ख़बर ने तूल पकड़ लिया। आस-पास के गांवों में भी यह ख़बर गई। एक मुस्लिम बहुल गांव ने इस ख़बर को कैच कर लिया। उस गांव में मस्जिद ईदगाह सब था। उस गांव के लोग इस गांव आने लगे। हिंदुओं के गांव में अलग एका हो गया। सब कहने लगे कि इस गांव में पाकिस्तान नहीं बनने देंगे। रहीम अब सफ़ाई पर आ गया। सब को बताता कि, ‘एक तो इस ज़मीन का मामला अदालत में है। दूसरे, मस्जिद बनाने भर का हमारे पास पैसा नहीं है। तीसरे अगर मस्जिद बन भी जाती है तो इस में पाकिस्तान बनाने की बात कहां से आ जाती है?’
लेकिन रहीम की यही बात कि, ‘अगर मस्जिद बन भी जाती है तो.......’ को लोगों ने पकड़ लिया। कहने लगे कि यह मस्जिद बनाएगा ज़रूर। इस आशय का एक पत्र भी प्रशासन को नवयुवक मंगल दल ने लिखा। पत्र में साफ़ आरोप लगाया गया कि रहीम के पास सऊदिया से पैसा आ रहा है। इस की जांच की जाए और गांव ही नहीं इलाक़े में भी सांप्रदायिकता सिर उठा रही है।
फिर जांच-पड़ताल का दौर शुरू हो गया। गांव का यह मामला शहर के अख़बारों की सुर्खियों में भी आने लगा। रहीम के बयान भी। अब रहीम की दाढ़ी में भी नूर छलकने लगा था।
नवयुवक मंगल दल के लोगों का तनाव बढ़ता जा रहा था।
फ़ौजी पंडित ने बेक़रार हो कर नवयुवक मंगल दल के शोहदों को इकट्ठा किया। पहले तो उन्हें धिक्कारा और कहा कि, ‘तुम लोगों का ख़ून पानी हो गया है। इतनी बातें हो गईं और तुम लोगोें का ख़ून नहीं खौला? कैसे जवान हो? धिक्कार है तुम लोगों की जवानी पर। चूड़ियां पहन कर घर में बैठो। अब जो करना होगा मैं ही करूंगा। सीमा पर पाकिस्तानियों को हिला कर रख देता हूं और अपने ही गांव का पाकिस्तान नहीं ख़त्म कर पा रहा। धिक्कार है मुझ पर भी!’
‘तो क्या किया जाए चाचा जी!’ नवयुवक मंगल दल के युवा फड़फड़ाए।
‘रहीम नाम की नागफनी को छांट डालो!’
‘पर नागफनी तो छांटने से और बढ़ती है।’ एक नौजवान ने तड़प कर कहा।
‘तो इस नागफनी को समूल नष्ट कर दो!’
‘जी चाचा जी!’ सभी युवा एक सुर में बोले।
फिर फूल-प्रूफ़ योजना बनाई गई।
उन्हीं दिनों फ़ौजी पंडित के पट्टीदार जिन से उन की बोल चाल बंद थी का एक बेटा जो महाराष्ट्र में एक पेपर मिल में काम करता था, छुट्टी पर आया हुआ था। वह थोड़ा नहीं ज़्यादा भावुक था। उस को भी इस टीम से जोड़ा गया। वह पट्टीदारी के लाख मन मुटाव के बावजूद गांव में पाकिस्तान नहीं बनने देने के बहकावे में आ गया और ऐलान कर बैठा कि, ‘मेरे जीते जी इस गांव में मस्जिद नहीं बन सकती।’
लेकिन उस के लाख उत्साह के बावजूद उसे सिर्फ़ इतना सा काम सौंपा गया कि वह रहीम को सिर्फ़ गाय दूहने के लिए अपने घर बुला कर लाए। गांव के पोखरों की मछली का ठेकेदार, जो नवयुवक मंगल दल का कर्ताधर्ता भी था, को रहीम पर कट्टे से फ़ायर करने की ज़िम्मेदारी दी गई। इसी कर्ताधर्ता का एक पट्टीदार होमगार्ड में था। उस को ज़िम्मेदारी दी गई कि कट्टा मारने के बाद रहीम को चेक करना कि मरा है कि नहीं। और जो न मरा हो तो उसे चाकू से मार-मार कर मार डाले। एक और लड़के को ज़िम्मेदारी दी गई कि वह होमगार्ड को कवरेज दे और जो रहीम ज़्यादा उछल कूद करे तो उसे पकड़ कर क़ाबू करे।
दूसरे दिन तड़के फ़ौजी पंडित के घर सभी फिर से इकट्ठे हुए। हवन पूजन हुआ। फ़ौजी पंडित ने चारो नौजवानों को तिलक किया, दही खिलाया। विजयी भव का आशीर्वाद दिया। सूरज निकल रहा था और फ़ौजी पंडित गांव से बाहर जा रहे थे। सब को बताते हुए कि, ‘शाम तक लौटूंगा।’
इधर चारो नौजवान अपने काम पर लग गए। फ़ौजी पंडित के पट्टीदार के घर आ कर बाहर के कमरे में छुप कर बैठ गए। फिर पट्टीदार का लड़का रहीम को गाय दूहने के लिए बुलाने चला गया। रहीम ने कहा कि, ‘पहले अपनी गाय तो दूह लूं।’
‘पर हमारी गाय तो रंभा रही है।’ लड़का बोला, ‘आफ़त किए है। लगता है खूंटा तोड़ा कर भाग जाएगी। अगर अभी नहीं दूही गई।’
‘अच्छा चलिए बाबा!’ कह कर रहीम फ़ौजी पंडित के पट्टीदार के यहां चल पड़ा। बोला, ‘अपनी गाय आ कर दूह लूंगा।’
पट्टीदार के घर आ कर बछड़े से गाय को पेन्हा कर बाल्टी लिए रहीम ने गाय को दूहना शुरू ही किया था कि उस की पीठ पर कट्टे का फ़ायर हो गया। वह उचक कर गिर पड़ा। दूसरा फ़ायर उस की बांह पर लगा। रहीम अब तक समझ गया कि उसे मारने के लिए गाय दूहने के बहाने बुलाया गया है। वह गरियाते हुए भागा। पर तब तक होमगार्ड और दूसरे लड़के ने उसे कस के पकड़ लिया। पकड़ कर पटक दिया। और चाकू से उसे जहां तहां तब तक मारते रहे, जब तक रहीम ने अंतिम सांस नहीं ली।
रहीम को मारने के बाद तीनों एक मोटरसाइकिल पर बैठ कर जय नवयुवक मंगल दल, जय शिव शंकर, जय काली, जय भवानी का उद्घोष करते गांव से बाहर निकल गए। पट्टीदार का लड़का अपने घर में ही छुप गया।
रहीम की हत्या की ख़बर पूरे गांव में सन्निपात की तरह फैली। ऐसे गोया गांव में बिजली गिर गई हो। जो जहां था, वहीं दुबक गया। पशु-पक्षी भी अवाक रह गए। रंभाती हुई गाय बैठ गई।
सुबह-सुबह पूरे गांव में सन्नाटा पसर गया।
यह सन्नाटा तब टूटा जब गांव में पुलिस आई। रमतल्ली चौकीदार ने भाग कर थाने पर इस घटना की सूचना दी। थाने ने वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों को। थोड़ी देर में पूरा गांव पुलिस छावनी में तब्दील हो गया।
मछली ठेकेदार, होमगार्ड उस के दूसरे साथी के खि़लाफ़ न सिर्फ़ एफ़.आई.आर. दर्ज हुई, हिस्ट्रीशीट भी खुल गई। रहीम की मड़ई जलाने और दो-एक और मामलों में भी इन सब के खि़लाफ़़ एफ़.आई.आर. थी। सो हिस्ट्रीशीट खोलने में पुलिस को दिक्क़त नहीं हुई। फ़ौजी पंडित ख़ुद शहर जा कर मिलेट्री हास्पिटल में भर्ती हो गए और उन के पट्टीदार का लड़का घर में ही था, भागा नहीं था सो उस को पुलिस ने दोषी नहीं माना। वह गिड़गिड़ा कर पुलिस अधिकारियों के पैरों पर बारी-बारी गिरता भी रहा। अब बात आई चश्मदीद गवाह की। गांव में कोई चश्मदीद गवाह नहीं मिल रहा था। फ़ौजी पंडित के पट्टीदार के लड़के ने कहा कि, ‘साहब तीनों लोग मुंह पर गमछा बांधे हुए थे और गोली चलते ही वह ख़ुद भी डर कर छुप गया था। अंततः रहीम की बीवी, बेटे और भाई को पुलिस ने गवाह बनाया। इस ग़रज़ से कि और कोई गवाह होगा तो टूट सकता है। यह लोग नहीं टूटेंगे।
पर पुलिस का यह क़यास ग़लत निकला।
रहीम का बेटा न सिर्फ़ मंदबुद्धि था, पैर से भी अपंग था। रह गया भाई और बीवी। भाई को भी दबंगों ने थोड़े दिनों बाद धमका लिया। कुछ समय बाद रहीम की बीवी को भी ‘समझा-बुझा’ कर शांत कर दिया। इस समझाने बुझाने में बेटे की अपंगता के नाम पर उस की देख-रेख ख़ातिर पचास हज़ार रुपए भी देने की बात की दबंगों ने। तय हुआ कि हर साल पांच हज़ार रुपए बच्चे की परवरिश के लिए इस पचास हज़ार रुपए में से दिया जाएगा। मतलब यह पचास हज़ार रुपए भी दस साल में।
सब के सब छूट गए। हाई कोर्ट से।
रहीम का रंग उतर गया धीरे-धीरे गांव से।
प्रधानी के चुनाव में फिर कोई दूसरा नहीं खड़ा हुआ। रहीम की हत्या के बाद सब का नशा उतर गया था। अंततः ग्राम प्रधान पंडित ही निर्विरोध चुने गए।
आनंद को याद है कि उन्हीं दिनों एक रोज़ शहर में टाउनहाल पार्क के पास कुछ दोस्तों के साथ खड़ा था कि ग्राम प्रधान पंडित उस रास्ते से पैदल ही गुज़र रहे थे। उस ने उन की बुज़ुर्गियत और पट्टीदारी का ध्यान रखते हुए आगे बढ़ कर उन के पांव छुए और साथ खड़े लोगों से उन का परिचय करवाया। बताया कि, ‘हमारे गांव के प्रधान हैं।’ साथ ही उन की और गांव की तारीफ़ में यह भी जोड़ा कि, ‘ख़ासियत यह कि इस घोर प्रतिद्वंद्विता के युग में भी निर्विरोध प्रधान चुने गए हैं।’ यह सुनते ही ग्राम प्रधान पंडित भड़क गए। तड़कते हुए गरजे। गांव भर के लोगों की मां बहन की तफ़सील में गए और मूछों पर ताव देते हुए कहा, ‘किस में इतना दम था जो मेरे खि़लाफ़ खड़ा होता!’
आनंद यह सुन कर सकते में आ गया। उसे लगा कि उस ने अपने दोस्तों से बेवजह ही परिचय करवा दिया। उन के चरण स्पर्श कर के वह पछताया। पछताया इस पर भी काहे को उन के निर्विरोध चुने जाने की तारीफ़ की दोस्तों से।
खै़र, रहीम की हत्या ने गांव में अद्भुत सन्नाटा बो दिया था। फ़ौजी पंडित के पट्टीदार का वह लड़का वापस फिर नौकरी पर नहीं गया। गांव में खेती बारी भी वह नहीं करता। घर से बाहर भी नहीं निकलता। तब से ही वह गुमसुम रहने लगा। कभी कभार पत्नी से ही बात करता। खाता, सोता और लेटे-लेटे घर की छत निहारता रहता। एक ज़िंदा लाश, चलती फिरती लाश बन गया वह।
इसी बीच बोफ़ोर्स मामला सामने आ गया। इस की इतनी चर्चा हुई कि गांव में लोग ग्राम प्रधान पंडित का नाम बदल बैठे। अब उन का नाम बोफ़ोर्स प्रधान हो चला था। पहले गुपचुप फिर खुल्लमखुल्ला। क्यों कि उन के कारनामे दिन-ब-दिन बढ़ते जा रहे थे। राजीव गांधी की जवाहर रोज़गार योजना ने उन के बोफ़ोर्स प्रधान होने में और घी डाला। पर अब गांव में उन का भय, उन का रसूख़, उन का रंग फीका पड़ता जा रहा था। अब मछली ठेकेदार के भय का रंग लोगों में चटक हो रहा था। उस ने मछली पालन के साथ-साथ मुर्ग़ी पालन भी शुरू कर दिया था। और अब सुअर पालने की योजना बना रहा था। उस के पास अब बंदूक़ भी थी, पैसा भी। सो वह अब गांव में एक नई ताक़त था।
सुखई चाचा का यह नाती क़ासिम इन्हीं दिनों पैदा हुआ था।
उसके पैदा होते ही देश में मंडल कमंडल खड़खड़ाने लगे। ग्राम प्रधान पंडित भले ही बोफ़ोर्स प्रधान बन गए हों पर राजीव गांधी पैदल हो गए। बोफ़ोर्स विरोधी घोड़े पर सवार हो कर ‘राजा नहीं फ़कीर है, भारत की तक़दीर है’ का नारा गंूजते-गूंजते वी.पी. सिंह के हाथों देश की बागडोर आ गई थी। वह आए भी और मंडल को लाल क़िले से फहरा कर गए भी। और जैसे कि अपनी ‘लिफ़ाफ़ा’ शीर्षक कविता में वह कहते हैं, ‘पता उन का/पैग़ाम तुम्हारा/बीच में फाड़ा मैं ही जाऊंगा।’ फाड़ भी दिए गए। हालां कि टिप्पणीकारों ने माना कि नेहरू और इंदिरा के बाद अगर किसी ने देश की दिशा और राजनीति बदली तो वह वी.पी. सिंह ही हैं। खै़र, चंद्रशेखर आए। राजीव गांधी की हत्या हुई और फिर पी.वी. नरसिंहा राव आए। बाबरी मस्जिद गिरी। हर्षद मेहता कांड हो गया। देश तहस नहस हो गया। मंडल के चलते अभी जातियों के घाव सूखे भी नहीं थे कि सांप्रदायिक खाई भी गहरी हो गई। मुंबई ब्लास्ट इस की इंतिहा थी।
सुखई चाचा का यह नाती क़ासिम उन्हीं दिनों स्कूल जाने लगा था।
शिबू सोरेन और अजीत सिंह सरीखों के भरोसे नरसिंहा राव की अल्पमत सरकार ने पांच साल पूरे किए। न सिर्फ़ पूरे किए मनमोहनी आर्थिक उदारीकरण के बीज भी बोए। सुखराम जैसे भ्रष्टाचार के दुख बोए। तेरह दिन की अटल बिहारी सरकार के बाद देवगौड़ा और गुजराल आए। और अटल बिहारी फिर-फिर। लाहौर बस हुई, कारगिल हुआ, गोधरा और गुजरात हुआ। नरेंद्र मोदी की महक अब पूरे देश में थी। सरकार भी दंगा कराने लगे यह तो हद थी। हुक्मरान कुर्सी बांट रहे थे, देश टूट की ओर जा रहा था तो उन की बला से। लाल क़िला और फिर संसद भी बम विस्फोटों से दहला तो क्या हुआ। रंज लीडर को भी हुआ पर आराम के साथ। फ़ील गुड और शाइनिंग इंडिया के साथ प्रमोद महाजन, अमर सिंह और राजीव शुक्ला जैसे लोग भी राजनीति में शाइनिंग की छौंक मार रहे थे। राजनीति अब नीति से नहीं व्यापार से चलने को सज-धज कर तैयार खड़ी थी। राजनीति और भ्रष्टाचार दोनों के औज़ार बदल गए थे। मोबाइल, इंटरनेट और मीडिया समाज को दोगला बनाने की होड़ में खड़े हो चुके थे। और यह देखिए सोनिया गांधी की गोद में बैठे मनमोहन सिंह ने अमरीकी बीन पर ऐसा नाचा कि सारा समाज अब बाज़ार में ऊभ-चूभ हो गया। आटा के भाव भूसा बिकने लगा। सिंगूर और नंदीग्राम होने लगा। कामगारों और किसानों की पैरोकार वामपंथी सरकार किसानों और कामगारों के खि़लाफ़ उठ गई। और भाजपा जैसी पार्टियां उन के आंसू पोंछने पहुंच गईं।
सुखई चाचा का यह नाती क़ासिम उन्हीं दिनों कालेज जाने लगा।
कालेज से गांव आता और शेर सुनाता, ‘क़ब्रों की ज़मीनें दे कर हमें मत बहलाइए/राजधानी दी थी राजधानी चाहिए।’ इस शेर का भाव, इस की ध्वनि और इस का तंज़ तो गांव में लोग नहीं ही समझ पाते। परंतु यह ज़रूर समझ जाते कि सुखई के इस नाती जिस का नाम क़ासिम था को जो अभी नहीं रोका गया तो यह रहीम का भी बाप निकलेगा और गांव को चौपट कर देगा।
हालांकि गांव चौपट हो चला था।
भूख तो नहीं पर युवाओं की बेकारी और पट्टीदारी के झगड़े ने गांव की शांति पर झाड़ू चला रखा था। अहंकार का हिमालय पिघलने के बजाय दिन-ब-दिन और फैलता जाता। टैªक्टर से खेत की जुताई और कंबाइन मशीन से फसलों की कटाई ने गांव में खेतीबारी का महीनों का काम घंटों में बदल दिया था। ट्रैक्टर की जुताई के चलते बैल पहले विदा हुए फिर कंबाइन की कटाई से भूसा। सो गाय भैस भी विदा हो गईं। गांव में अब गोबर उठाने का काम भी नहीं रह गया था। त्यौहारों में भी चाव नहीं रह गया था। होली शराबियों और दीवाली जुआरियों के भरोसे ज़िंदा रह गई थी। छुप-छुपा कर पीने वाले अब खुल्लमखुल्ला शान, शेख़ी और हेकड़ी दिखा कर पीने लगे थे। गांव में अधिकांश आबादी बुजु़र्गों की थी जिन में कुछ नौकरियों से रिटायर्ड वह लोग भी थे जो शहर में मकान नहीं बनवा पाए थे, लड़के नाकारा हो चले थे और बेरोज़गार युवा जिन की पढ़ाई या तो पूरी नहीं हो पाई या फिर अधकचरी पढ़ाई के कारण नौकरी नहीं मिल पाई; और अब गांव में शोहदा बन कर घूमने के अलावा उन के पास कुछ ख़ास नहीं था। अगर था तो घर में आपस में लड़ना। कुछ ने तो मां बाप को पीटना ही अपना मुख्य काम बना लिया था। हां, नवयुवक मंगल दल की जगह हिंदू युवा वाहिनी ने ले ली थी। ग्राम प्रधान पंडित अब काफ़ी बुढ़ा गए थे। ग्राम प्रधान अब एक दलित हो गया था पर गांव में हिंदू युवावाहिनी के आगे किसी की कुछ नहीं चलती थी। दलित ग्राम प्रधान की भी नहीं। वह हिंदू युवा वाहिनी के आगे पूरी तरह समर्पण कर जवाहर रोज़ग़ार योजना और तमाम और विकास के मदों में आने वाले पैसों को डकारने में मगन था। फ़ौजी पंडित भी रिटायर हो कर गांव में ही बस गए थे और बी.डी.सी. मेंबर बन कर गांव की राजनीति में पूरा हस्तक्षेप किए हुए थे। जैसे पहले वह नवयुवक मंगल दल को आशीर्वाद देते थे वैसे ही अब वह हिंदू युवा वाहिनी को भी न सिर्फ़ आशीर्वाद देते थे बल्कि गांव स्तर पर हिंदू युवा वाहिनी के थिंक टैंक भी थे।
हिंदू युवा वाहिनी वैसे तो पूरी कमिश्नरी में अपना जाल फैला चुकी थी पर इस गांव में उस का हस्तक्षेप कुछ ज़्यादा ही था। इतना कि तमाम सारे हिंदू भी इस हिंदू युवा वाहिनी से आक्रांत थे। इस हिंदू युवा वाहिनी के खि़लाफ़ थाना-पुलिस में भी कोई सुनवाई नहीं थी। बल्कि थानेदार तो इन के आगे हाथ जोड़े, घिघ्घी बांधे खड़े रहते। कारण यह था कि हिंदू युवा वाहिनी के मुख्य अभिभावक और कर्ताधर्ता एक सासंद थे जो एक मंदिर के महंत भी थे। पूरे ज़िले क्या पूरी कमिश्नरी में उन की ही गुंडई चलती थी और प्रकारांतर से वह ही प्रशासन चलाते थे। शहर तो जैसे उन का बंधक था, गांवों में भी उन का आतंक कम नहीं था।
हालां कि एक बार अपनी गिऱतारी पर वह संसद में फूट-फूट कर रोए भी थे। पर वह राजनीतिक आंसू थे। अब उन की राजनीति भी विस्तार ले रही थी। न सिर्फ़ उन की राजनीति विस्तार ले रही थी बल्कि वह अपनी पार्टी के राष्ट्रीय नेताओं को भी उनकी औक़ात बताते हुए उन्हें चुनौती पर चुनौती दे रहे थे। ज़िले और प्रदेश के नेताओं को तो वह पिद्दी क्या, पिद्दी का शोरबा भी नहीं समझते थे। इलाक़े के कई विधायक उन की जेब में थे। यह विधायक भी पार्टी की कम इन सांसद महंत जी की ज़्यादा सुनते थे। पूर्वी उत्तर प्रदेश बनने पर वह मुख्यमंत्री बनने का सपना भी संजोये थे। मुस्लिम विरोध उन की राजनीतिक खेती थी। शहर के मुसलमानों को वह मुर्ग़ा बनाए हुए थे। अब छिटपुट गांवों के मुसलमानों की बारी थी। देवेंद्र आर्य जैसे कवि लिख रहे थे, ‘गोरख की सरज़मीं पर गुजरात का ख़याल/चेहरे की आइने से कहीं जंग होती है!’ पर जंग तो हो रही थी आइने से। और फिर इस शहर के मुसलमान तो गुजरात से चार दशक पहले ही से इस महंत के पूर्ववर्तियों द्वारा मुर्ग़ा बना कर टांग दिए गए थे। यह परंपरा इस महंत ने भी जारी रखी थी। हां, अब की बारी अटल बिहारी की तरह अब गांवों की बारी थी।
सुखई चाचा का नाती क़ासिम इसी बारी का नया शिकार था।
‘क़ब्रों की ज़मीनें दे कर हमें मत बहलाइए/राजधानी दी थी, राजधानी चाहिए।’ शेर जब क़ासिम की ज़ुबान से हिंदू युवा वाहिनी के लोगों ने सुना तो इस की तासीर, इस की आंच वह समझ गए। इस का मतलब समझाते हुए एक शोहदे ने जब फ़ौजी पंडित से यह तफ़सील बताई और कहा कि, ‘यह क़ासिम तो शहंशाह बनना चाहता है।’
‘मतलब?’ फ़ौजी पंडित ने खैनी मलते हुए पूछा।
‘मतलब ई चाचा कि अब ई राजा बनना चाहता है। राजधानी मांग रहा है।’
‘ए भाई तो इस गांव को हम उस की राजधानी नहीं बनने देंगे।’ फ़ौजी पंडित बोले, ‘इसके लिए उसको लखनऊ-दिल्ली जाना पड़ेगा। काहे से कि राजधानी तो वहीं है। इहां गांव में कहां राजधानी बन पाएगी?’
‘न हो तो इस क़ासिम को भी रहीम की तरह जन्नत भेज दिया जाए। जाए वहीं राजधानी-राजधानी खेले।’
‘ना!’ फ़ौजी पंडित ने खैनी थूकते हुए टोका, ‘यह ग़लती अब दुबारा नहीं। रहीम को जन्नत भेजने में तीन चार बच्चों की ज़िंदगी जहन्नुम हो गई। हिस्ट्रीशीट खुल गई। हत्या का पाप लग गया। गांव की बदनामी हो गई।’
‘तो?’ हिंदू युवा वाहिनी के शोहदों ने एक साथ पूछ लिया।
‘सोचते हैं।’ फ़ौजी पंडित बोले, ‘थोड़ा बुद्धि से काम लेना पड़ेगा। ब्लाक प्रमुख यादव के पास चलते हैं। मीटिंग करते हैं। फिर तय करते हैं।’
यादव ब्लाक प्रमुख भी हिंदू युवा वाहिनी के शुभचिंतकों में से था। फ़ौजी पंडित ने क़ासिम के इरादों, गांव को पाकिस्तान बनाने, मस्जिद बनाने, सऊदिया से पैसे आने जैसे तमाम ब्यौरे दिए और यह भी बताया कि आज़मगढ़ के एक
मुस्लिम लड़के से उस की बड़ी दोस्ती है।
‘आज़मगढ़?’ ब्लाक प्रमुख यादव की आंखों में चमक आ गई। बोला, ‘फिर तो पंडित जी इस का काम लग जाएगा।’
‘पर कैसे?’ फ़ौजी पंडित अकुलाए।
‘आज़मगढ़ और आतंकवाद पूरे देश में एक सिक्के के दो पहलू हो गए हैं। अख़बार-सख़बार, टीवी-सीवी नहीं देखते हैं का?’
‘तो आतंकवादी घोषित हो जाएगा क़ासिम?’ फ़ौजी पंडित की आंखों में चमक आ गई।
‘इनकाउंटर भी हो सकता है।’ यादव ब्लाक प्रमुख बोला, ‘बस थानेदार को थोड़ा क़ाबू करना पड़ेगा। पर है वह भी अपनी ही बिरादरी का। काम हो जाएगा। फिर भी दस पांच हज़ार पेशगी तो देनी ही पड़ेगी।’
‘हो जाएगा इंतज़ाम!’
‘फिर ठीक है।’ यादव ब्लाक प्रमुख बोला।
फ़ौजी पंडित यादव ब्लाक प्रमुख की इस बात से इतना प्रभावित हो गए कि उठ खड़े हुए उस का पैर पकड़ने के लिए। पर तुरंत ही बैठ गए यह सोच कर कि यह तो ससुरा यादव है और मैं पंडित।
दूसरे ही दिन पुलिस गांव में आ गई। क़ासिम घर पर ही था। पकड़ ले गई।
दो दिन की मारपीट और पूछताछ के बाद घर आया। आज़मगढ़ का वह लड़का भी पकड़ा गया था। उस के ही घर वालों ने पैरवी कर अपने बेटे और क़ासिम को छुड़वाया। काफ़ी पैसा ख़र्च करना पड़ा था। मामले की ख़बर लगते ही हिंदू युवा वाहिनी के लोग सक्रिय हो गए। उन की सक्रियता देख कर सुखई चाचा घबराए। क़ासिम को ले कर लखनऊ आनंद के पास आ गए।
सुबह उठ कर चाय नाश्ते के बाद बच्चे स्कूल, कालेज चले गए तो आनंद ने क़ासिम को अकेले में बैठाया और पूछा कि, ‘तुम्हारी प्राब्लम क्या है?’
‘मेरी कोई प्राब्लम नहीं है।’ वह बोला, ‘जो भी प्राब्लम है हिंदू युवा वाहिनी के लोगों को है। वही लोग मेरे पीछे पड़े हैं।’ क़ासिम बोला।
‘आखि़र क्यों वह लोग तुम्हारे पीछे पड़े हैं?’
‘वह लोग चाहते हैं कि मैं गांव में सिर झूका कर चलूं। जैसे कि अब्बू या बाबा चलते हैं। या और छोटी जातियों के लोग चलते हैं।’ वह जैसे तिड़का, ‘वह लोग नहीं चाहते कि मैं सिर उठा कर चलूं।’
‘ऐसा क्यों?’
‘वह कहते हैं कि तुम हमारे आसामी हो, हमारी प्रजा हो, हम ने अपनी ज़मीन पर तुम्हें बसाया सो अदब में रहो। अपनी औक़ात में रहो। और मैं इस से इंकार करता हूं।’
‘और कोई बात?’
‘हां, इधर एक घटना और हुई।’
‘क्या?’
‘रोडवेज़ बस स्टैंड का एक बोर्ड सड़क पर लगा था। काफ़ी मज़बूत था और बड़ा भी। इन लोगों ने उसे पेंट करवा कर बस स्टैंड की जगह हिंदू युवा वाहिनी लिखवा दिया। मैं ने इस का भी विरोध किया। रोडवेज़ में लिखित शिकायत की।’
‘कुछ हुआ?’ आनंद ने पूछा, ‘मेरा मतलब है इन लोगों के खि़लाफ़ कोई कार्रवाई हुई?’
‘कुछ नहीं।’ वह बोला, ‘उलटे आज़मगढ़ वाले मेरे दोस्त और मुझ को आतंकवादी बनवाने की साज़िश रच दी।’
‘आतंकवादियों से सचमुच तुम्हारे कोई संबंध नहीं हैं?’
‘होते तो पुलिस क्यों छोड़ती?’
‘मैं ने सुना है कि अभी जांच चल रही है।’
‘किस ने बताया?’
‘सुखई चाचा ने।’
‘ओह!’ वह बोला, ‘हो सकता है। मुझ से कुछ सादे काग़ज़ों पर पुलिस ने दस्तख़त करवाए हैं। कुछ भी बना सकते हैं, पुलिस वाले।’
‘तुम्हारे सचमुच किसी आतंकवादी से संबंध नहीं हैं?’
‘हैं न?’
‘क्या?’ आनंद के होश उड़ गए।
‘अब तो हिंदुस्तान का हर मुसलमान आतंकवादी है। और मेरे संबंध बहुत सारे मुसलमानों से हैं।’
‘ओह!’ आनंद ने सुकून की सांस ली। बोला, ‘देखो क़ासिम मेरी बात का बुरा मत मानो।’
‘बुरा क्या मानना आप तो थाने की पुलिस जैसे सवाल पूछ ही रहे हैं।’ उस ने जैसे हार मान कर सांस छोड़ी, ‘बाबा बहुत यक़ीन के साथ आप के पास ले आए थे।’
‘देखो क़ासिम अगर मर्ज़ ठीक से मालूम हो जाता है तो डाक्टर सही दवाई दे पाता है। नहीं फिर अंदाज़ा लगाता रह जाता है सो मरीज़ ठीक नहीं हो पाता।’
‘मैं बीमारी नहीं हूं। मरीज नहीं हूं।’ उस ने जोड़ा, ‘और आप भी डाक्टर नहीं हैं।’
‘मैं ने कब कहा कि मैं डाक्टर हूं?’ आनंद खीझ कर बोला।
‘मरीज़ दवाई जैसी बातें फिर क्यों कर रहे हैं?’
‘तुम बी.एस.सी. में पढ़ते हो?’
‘हां।’
‘क्या बनना चाहते हो?’
‘पता नहीं।’ वह बोला, ‘कोई नौकरी करना चाहता हूं। अगर ज़िंदा रहा।’
‘क्या मतलब?’
‘थाने वाले बोले हैं कि मेरा इनकाउंटर भी हो सकता है।’
‘तुम तो यार गले तक भरे हुए हो?’
‘तो क्या करूं?’
‘कम से कम मुझ से लड़ो तो नहीं।’ आनंद बोला, ‘मैं तुम्हारी मदद करना चाहता हूं और तुम हो कि हर बात का तिरछा जवाब दे रहे हो।’ आनंद ने उस के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, ‘अगर मैं तुम्हारे बारे में ठीक से नहीं जानूंगा तो तुम्हारी पैरवी, तुम्हारी सिफ़ारिश किसी से कैसे करूंगा?’
‘जैसे नेता लोग करते हैं।’ क़ासिम बेलाग हो कर बोला।
‘कैैसे करते हैं?’ आनंद उसे हैरत से देखते हुए बोला।
‘फ़ोन लगाते हैं और कहते हैं इसे छोड़ दो।’
‘कहां देखा, किस नेता को देखा?’
‘रियल में नहीं।’
‘फिर?’
‘फ़िल्मों में देखा है।’
‘ओह!’ इस खीझ में भी हंसी आ गई आनंद को। हंसी आ गई क़ासिम की इस मासूमियत पर। वह थोड़ी देर चुप रहा। फिर बोला, ‘तुम्हारे पास मोबाइल है?’
‘क्यों?’
‘वैसे ही पूछ रहा हूं।’
‘थाने वाले भी पूछ रहे थे।’ क़ासिम खिन्न हो कर बोला, ‘आतंकवादियों का मोबाइल पर बातचीत का रिकार्ड होता है, इसी लिए आप पूछ रहे हैं? अरे चाचा जी हमारे पास सही सलामत कपड़े तक हैं नहीं। मोबाइल कहां से होगा?’ वह ज़रा रुका, उठा और आनंद के दोनों पैर पकड़ कर बैठ गया रोते हुए बोला, ‘बचा लीजिए चाचा जी हम को। लगाइए फ़ोन। नहीं पुलिस वाले हमारा इनकाउंटर कर देंगे।’ वह जैसे पूरी ताक़त से रोते हुए चिल्लाया, ‘मैं आतंकवादी नहीं हूं।’ और उस ने अपना सिर उस के पैरों पर रख दिया।
‘उठो बेटा, उठो।’ आनंद ने उसे ढाढ़स बंधाया, ‘घबराओ नहीं क़ासिम उठो।’ उसे उठा कर फिर से कुर्सी पर बैठाया। फिर दुबारा पूछा, ‘मैं मानता हूं कि तुम आतंकवादी नहीं हो। पर बेटा कई बार अनजाने में भी आदमी इस्तेमाल हो जाता है इन के हाथों और उसे इस का पता नहीं चल पाता।’ वह बोला, ‘सो बेटा कम से कम मुझे सब कुछ विस्तार से बता दो ताकि तुम्हें बचाने की हर तरह से मुकम्मल तैयारी कर सकूं। नहीं अगर हमें पूरी जानकारी नहीं होगी और पुलिस या और लोग अचानक कोई बात बनाएंगे तो हम उस का क्या जवाब देंगे? और जो पूरी बात मालूम होगी तो उस का माकू़ल जवाब दे देंगे। बेटा मेरी बात समझो।’
‘बाबरी मस्जिद, गुजरात दंगों पर हम कुछ दोस्त आपस में बात तो करते हैं। गुस्सा भी होते हैं, गांव में भी और कालेज में भी। पर जैसा कि आतंकवादी लोग करते हैं कोई तोड़ फोड़, विस्फोट वग़ैरह तो हमने कभी नहीं किया, कभी सोचा भी नहीं। न ही ऐसे किसी लोग के साथ हमारी दोस्ती है, न ही कभी मिलना जुलना।’
‘फिर ठीक है।’
‘तो चाचा जी पुलिस को फ़ोन लगाएंगे?’
‘किस लिए?’
‘कि हम को छोड़ दे!’
‘नहीं।’
‘क्यों?’
‘हम वैसे नेता नहीं हैं।’
‘फिर?’
‘कुछ नहीं। हम लोग फ़िल्म में काम नहीं कर रहे। यह ज़िंदगी है। और तुमने जैसा बताया है, अगर सब कुछ वैसा ही है तो तुम्हारा कोई कुछ नहीं बिगाड़ पाएगा!’
सुखई चाचा भी तब तक इस कमरे में आ गए थे और पूछ रहे थे, ‘बाबा हमारा नाती बच जाएगा न?’
‘कोशिश तो यही है।’ आनंद यह कह कर किचेन में पत्नी के पास गया और बोला, ‘मैं आफ़िस जा रहा हूं। इन लोगों को ठीक से खाना वाना खिला देना।’
‘कब तक रहेंगे यह लोग यहां?’ पत्नी ने अफना कर पूछा।
‘यह तो मुझे भी नहीं पता।’ कह कर आनंद आफ़िस के लिए निकल गया।
आफ़िस आ कर उस ने कुछ रुटीन काम अपनाए। फिर सोचा कि कैसे क़ासिम को इस कठिनाई से निकाला जाए। उस ने लगातार इस बारे में सोचा। सोचा कि किसी राजनीतिक मित्र से इस बारे में मदद ली जाए। फिर ख़याल आया
कि कहीं मामला सांप्रदायिकता में न रंग जाए। सो यह इरादा उस ने छोड़ दिया। क्यों कि गांव में तो हिंदू युवा वाहिनी पहले ही से इस काम में लगी थी। सो उस ने सोचा कि क्यों ने किसी सीनियर पुलिस अफसर से इस बारे में बात की जाए। दो एक पुलिस अफसरों के मोबाइल मिलाए भी उस ने पर वह स्विच आफ़ मिले। फिर सोचा कि क्यों इधर उधर वह भटक रहा है? क्यों न सीधे-सीधे प्रमुख सचिव गृह से मिल कर मामला निपटाया जाए। वह पहले से थोड़ा परिचित भी थे। उस के शहर में कभी डी.एम. भी रहे थे। सो उस ने सीधे उन्हीं को फ़ोन मिलाया और बताया कि एक व्यक्तिगत काम के लिए उन से आज ही मिलना चाहता है। वह बोले, ‘आज तो मीटिंग-सीटिंग बहुत हैं। ख़ैर, शाम पांच बजे रोज़ प्रेस ब्रीफिंग होती है, आज भी होगी। आप उसी समय आ जाइए।’
‘नहीं-नहीं, प्रेस के साथ नहीं। अकेले मिलना चाहता हूं।’
‘भले अकेले मिलिएगा। पर आ उसी समय जाइएगा।’
‘ठीक बात है।’
तय समय के मुताबिक़ शाम पांच बजे वह एनेक्सी पहुंच गया प्रमुख सचिव गृह से मिलने। प्रेस ब्रीफिंग में कुछ ख़ास था नहीं सो दस मिनट में रुटीन की तरह चाय-बिस्किट में ख़त्म हो गई। प्रेस के लोग जब चले गए तो उस ने प्रमुख सचिव गृह से सुखई चाचा के नाती क़ासिम के बारे में तफ़सील से बताया। यह भी बताया कि इस परिवार को चूंकि वह बचपन से जानता है, सो कुछ भी इफ़-बट होने पर वह इस की पूरी ज़िम्मेदारी लेता है। पर प्रमुख सचिव ने कहा कि बिना मामले की जांच करवाए वह कुछ नहीं कह सकते। और कि मामला चूंकि आज़मगढ़ से लिंक हो गया है इस लिए वह भी अपने को इस मामले से अलग कर ले।
‘क्या बात कर रहे हैं आप?’
‘मैं क़ानूनी रूप से जो ठीक लग रहा है, वही कह रहा हूं।’ प्रमुख सचिव ज़रा रुके और बोले, ‘मैं समझता हूं आप साफ़ ख़यालों वाले समाजवादी हैं, सूडो सेक्यूलरिस्ट नहीं।’
‘आप तो अपनी जांच रिपोर्ट आए बिना ही उस मासूम लड़के को दोषी सिद्ध कर दे रहे हैं।’
‘मैं ने कब कहा कि वह दोषी है अथवा नहीं है।’
‘आप की बात से बू तो यही आ रही है।’ आनंद बोला।
‘बिलकुल नहीं आप ने डिटेल दे दी है मैं इस की दो चार रोज़ में जांच करवा कर बताता हूं।’
‘लोकल पुलिस जांच करेगी और उस ने उसे दोषी मान रखा है, बिना किसी सुबूत के।’
‘लोकल पुलिस नहीं एटीएस से जांच करवाता हूं। और जो लोकल पुलिस दोषी हुई तो उसे दंडित किया जाएगा।’
‘तो ठीक है। वह लड़का अभी मेरे घर पर है। अगर आप की जांच कहती है कि वह दोषी है तो मैं ख़ुद आप की एटीएस को सौंप दूंगा। और जो दोषी नहीं है तो उस का इनकाउंटर नहीं होगा इस की गारंटी आप लीजिए!’
‘बिलकुल!’ प्रमुख सचिव गृह ने कहा, ‘क़ानून को अपना काम करने दीजिए!’
‘यही तो मैं भी कह रहा हूं।’
‘पर हां, चूंकि आप मेरे जानने वाले हैं इस लिए बिन मांगी एक राय देना चाहूंगा।’
‘क्या?’
‘उस लड़के को आप अपने घर से हटा दीजिए।’
‘क्या कह रहे हैं आप?’
‘ठीक कह रहा हूं।’ वह बोले, ‘आज कल बाप को नहीं पता पड़ पाता कि उस का बेटा गुंडा, मवाली या आतंकवादी हो गया है। आप तो फिर भी उस के गांव वाले हैं। और रहते भी लखनऊ में हैं, गांव में नहीं। कितना जान पाएंगे उस के
बारे में।’ वह बोलते जा रहे थे, ‘फिर आप एक भावुक आदमी हैं। पूरे तथ्य आप के सामने हैं नहीं। सिर्फ़ उस की कही बातें और आप की उस परिवार से जुड़ी संवेदनाएं-भावनाएं हैं। और सिर्फ़ इसी बिना पर चीज़ें तय नहीं होतीं।’
‘पर वह बातचीत में तो पूरी तरह मासूम और निर्दोष दिखता है।’
‘इसी लिए तो!’ ये टेररिस्ट गैंग ऐसे ही मासूम और निर्दोष लोगों को गुजरात और अयोध्या इशू की फ़ीलिंग्स की अफ़ीम में बहका कर अपना कैरियर बना ले रहे हैं, अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं। जिहादी बना रहे हैं और ये मासूम बच्चे कुछ समझ ही नहीं पाते। उन का औज़ार बन जाते हैं। दस-बीस को मार कर ख़ुद मर जाते हैं, यह सोच कर कि यह ख़ुदा का काम है। और ख़ुदा का काम कर उन्हें जन्नत नसीब होगी। ऐसा ही उन्हें समझाया जाता है।’
‘यह सब तो ठीक है। पर अगर वह मेरे घर पर ही रह जाता है तो बुरा क्या है?’
‘अब इतने नादान तो आप नहीं हैं।’ प्रमुख सचिव बोले, ‘अगर ख़ुदा न ख़ास्ता उस के कहीं से लिंक जुड़ गए और आप के घर से उस की अरेस्ट होती है तो आप कहां के रहेंगे?’ वह बोले, ‘बदनामी नहीं होगी आप की?’
‘अब आप की पुलिस जबरिया उसे टेररिस्ट प्रूव कर ले तो और बात है पर वह टेररिस्ट है यह तो मानने को मैं तैयार नहीं हूं फ़िलहाल!’
‘चलिए यह आप जानिए!’
‘मैं फिर दुहरा रहा हूं और रिक्वेस्ट पूर्वक दुहरा रहा हूं कि उस का इनकाउंटर नहीं किया जाए। दूसरे अगर वह दोषी पाया जाता है तो मुझे बताइए मैं ख़ुद उसे पुलिस को सौंप दूंगा।’
‘ऐसी नौबत न ही आए तो अच्छा। पर एक बात तो आप जान ही लीजिए कि एटीएस को ज़रा भी सुबूत मिलेंगे उस के खि़लाफ़ तो वह मेरी और आप की बात बाद में सुनेंगे, फ़ौरन अरेस्ट करेंगे।’
‘चलिए ठीक है।’ आनंद ने कहा, ‘जो भी कुछ हो मेरिट पर ही हो।’
‘बिलकुल।’ कह कर प्रमुख सचिव ने हाथ मिलाने के लिए अपना हाथ बढ़ा दिया। आनंद ने हाथ मिलाते हुए कहा, ‘हां, मेरे घर छापा मत डलवा दीजिएगा।’
‘अरे नहीं!’
वह घर आ गया।
घर आ कर एक वकील मित्र से फ़ोन पर क़ासिम की बाबत क़ानूनी पक्ष जानना चाहा। साथ ही प्रमुख सचिव गृह से हुई पूरी बात तफ़सील से बताई। वकील ने छूटते ही कहा, ‘तो भइया पहले तो उस लड़के को अपने घर से फ़ौरन से पेश्तर हटाइए।’
‘क्यों?’
‘आप को होम सेक्रेट्री को यह तो बताना ही नहीं था कि वह आप के घर है। दूसरे, इस बारे में पहले मुझ से ही बात करनी थी फिर कहीं जाना था।’
‘अब तो जो हुआ सो हुआ। आगे बताइए।’
‘बताना क्या है। हाई कोर्ट में एक रिट फ़ाइल कर देते हैं कि पुलिस फ़र्जी ढंग से फंसा रही है और इनकाउंटर की धमकी दे रही है।’
‘फिर?’
‘फिर क्या? पुलिस के हाथ पांव बंध जाएंगे। अगर वह निर्दोष होगा तो पुलिस परेशान नहीं करेगी वरना वह जेल जाएगा। का़नून अपना काम करेगा।’
‘अरे भाई, आप तो क्लाइंट बनाने में लग गए। उन सब के पास हाई कोर्ट में मुक़दमा लड़ने भर का पैसा नहीं है। और न ही मैं इस समय इतना पैसा ख़र्च करने की स्थिति में हूं।’
‘अब या तो उस की जान बचा लीजिए या पैसा। यह आप को ही तय करना है। पर हां, उसे अपने घर से हटा तो दीजिए ही अगर अपनी इज्ज़त प्यारी है।’
‘घर से हटा कर कहां रखूं?’
‘अरे किसी सस्ते मंदे होटल, धर्मशाला या फिर फु़टपाथ पर ही सुला दीजिए। पर अपने घर तो हरगिज़ नहीं। क्यों कि मौक़ा आने पर ये पुलिस वाले किसी के नहीं होते। आप को भी घसीट लेंगे तो आप क्या कर लेंगे?’
‘चलिए देखता हूं।’
‘क्या?’
‘यही कि क्या कर सकता हूं?’
‘ठीक। जैसा हो बताइएगा।’ कह कर वकील ने फ़ोन काट दिया।
आनंद बड़े असमंजस में पड़ गया। एक तरफ़ संभावित मुश्किलें थीं दूसरी तरफ़ सुखई चाचा से जुड़ी भावनाएं थीं, उन का उस पर अगाध विश्वास था। न तो वह उन का विश्वास तोड़ना चाहता था न ही आपनी भावनाओं को छलना चाहता था।
इस मुश्किल में उस ने मुनव्वर भाई को फ़ोन किया। क़ासिम की कहानी बताई, प्रमुख सचिव गृह और वकील से हुई बातचीत का ब्यौरा बताया और अपनी मुश्किल भी। मुनव्वर भाई ने साफ़ कहा कि, ‘आनंद जी अगर आप को यक़ीन है कि वह आतंकवादी नहीं है तो अपने घर पर ही रखिए और जो ज़रा भी शक-शुबहा हो तो हाथ जोड़ लीजिए।’
‘नहीं मुझे तो ज़रा भी शक-शुबहा नहीं है।’
‘तो फिर आप जैसा आदमी इतना क्यों डर रहा है?’
‘डर नहीं रहा हूं, रास्ता ढूंढ रहा हूं कि कैसे क़ासिम को आतंकवाद के बिच्छू से डंसने से बचाऊं?’
‘वक़्त पर छोड़ दीजिए।’ मुनव्वर भाई बोले, ‘कुछ बातें वक़्त अपने आप तय कर देता है।’
‘ठीक बात है।’ कह कर उस ने फ़ोन रख दिया।
सुखई चाचा से फिर बात की। उन को ढाढस बंधाया। और कहा कि अब दो तीन दिन में कुछ बता पाऊंगा।
‘अब का बताऊं बाबा आप ही हमारे मीर मालिक हैं।’ सुखई चाचा हाथ जोड़ कर बोले।
‘मीर मालिक तो वह ऊपर वाला है।’ आनंद ने कहा और तैयार हो कर एक शादी में शरीक होने चला गया। सपत्नीक।
दूसरी शाम उस ने प्रमुख सचिव गृह से फ़ोन पर पूछा कि, ‘कुछ फ़ीड बैक मिला क्या?’
‘अभी तो नहीं।’
आनंद ने निश्चिंतता की सांस ली। उस ने मान लिया कि अगर क़ासिम आतंकवादी होता या आतंकवादियों से उस के कोई लिंक होते तो एटीएस चौबीस घंटे क्या चार घंटे में ही उसे अरेस्ट कर लेती। पर जब ऐसा था नहीं तो एटीएस ऐसा करती भी तो कैसे भला?
दो दिन बाद अंततः प्रमुख सचिव गृह ने आनंद को बता दिया कि क़ासिम के खि़लाफ़़ एटीएस को कुछ भी हाथ नहीं लगा है। पर साथ ही यह भी कहा कि किसी ऐसे वैसे या किसी आज़मगढ़ी कनेक्शन से वह बाज़ आए। नहीं आगे दिक़्क़त हो सकती है।
आनंद ने यह बात सुखई चाचा और क़ासिम को बताई। कहा कि निश्चिंत होकर वह दोनों वापस जाएं। फिर सुखई चाचा से कहा कि, ‘एक तो गांव में किसी भी से यह न बताएं कि वह मेरे पास आए थे और कि क़ासिम बच गया है। दूसरे क़ासिम को दो-एक साल के लिए गांव से दूर रखें। नहीं हो सकता है कि मुंह की खाने के बाद गांव के शरारती तत्व या हिंदू युवा वाहिनी से जुड़े लोग उसे किसी दूसरे मामले में फंसाने की कोशिश करें। सो गांव से कुछ दिन दूरी बना कर रखने में कोई हर्ज नहीं है।’
क़ासिम थोड़ा अकबकाया कि, ‘काहे अपनी ज़मीन, अपना घर, अपना गांव छोड़ दें?’ पर सुखई चाचा समझदार और अनुभवी थे। वह मान गए। आनंद ने भी क़ासिम को समझाया और कहा कि, ‘कोई पूरे घर को तो गांव छोड़ने को कह नहीं रहा। सिर्फ़ तुम्हीं कुछ दिन शहर में रह जाओ। कोई दिक्क़त हो तो बताओ मैं तुम्हारे रहने आदि का बंदोबस्त शहर में करवा दूं?’
मान गया क़ासिम भी।
उस ने मुनव्वर भाई को फ़ोन कर बताया पूरा मामला और कहा कि, ‘आप का पता और फ़ोन नंबर दे दिया है। कोई बात होगी तो वह आप से कांटेक्ट करेगा। आप देख लीजिएगा।’
‘बिलकुल-बिलकुल।’ मुनव्वर भाई ने कहा, ‘वैसे भी आप उस को ठीक से समझा दीजिएगा। इस लिए भी कि अगर आप के गांव में हिंदू युवा वाहिनी के बिच्छू हैं तो शहर में मंदिर के महंत और उस के नाग हैं। और महंत जी की मुस्लिम विरोधी राजनीति से आप वाक़िफ़ ही हैं। हम लोग आज कल कैसे जी रहे हैं, हमीं जानते हैं। फ़ासीवाद की इंतिहा है यहां इस शहर में।’
‘क्या कह रहे हैं आप?’
‘बिलकुल ठीक कह रहा हूं।’ मुनव्वर भाई बोले, ‘यहां तो आलम यह है कि वो दोहा है न कि जाट कहे सुन जाटनी इसी गाम में रहना है, ऊंट बिलैया लै गई हां जी, हां जी कहना है।’
‘ऐसा?’
‘हां, भई, यहां कमोबेश सभी ने घुटने टेक रखे हैं। शासन प्रशासन सब ने।’ उन्हों ने जैसे जोड़ा, ‘और मैं ने भी। हालात बहुत ख़राब हैं।’
‘चलिए यह एक बड़ा मसला है। इस पर मिल कर बात करते हैं।’ कह कर आनंद ने फ़ोन काट दिया।
सुखई चाचा भी क़ासिम को ले कर रात की गाड़ी से चले गए।
बाद में पता चला कि वह थानेदार भी लाइन हाज़िर हो गया। गांव में खुसफुसाहट शुरू हो गई कि आखि़र कैसे हो गया यह सब। समाधान ब्लाक प्रमुख यादव ने किया कि, ‘वह आज़मगढ़ वाली पार्टी काफ़ी पैसे वाली है। सो कप्तान यानी एस.एस.पी. को पैसे दे कर दोनों लड़कों को बचाया है और थानेदार को लाइन हाज़िर करवाया है।’ उस ने बड़ी हेकड़ी से कहा कि, ‘आतंकवादियों के पास पैसे की कमी तो है नहीं। बहा दिया पानी की तरह।’
पानी को लेकर लखनऊ में एक सेमिनार में वह उपस्थित है। पर्यावरणविद हैं, अफ़सर हैं, समाजसेवी हैं, आयोजक हैं, आयोजक के कारिंदे हैं। लंच है, नाश्ता है, कवरेज के लिए प्रेस है। बस श्रोता नहीं हैं और लोगों की आंखों में पानी भी। फिर भी आनंद बता रहा है कि नदियों के पानी पर पहला हक़ समुद्र का है। ये नहरें, ये डैम, ये बिजली परियोजनाएं सभी पर्यावरण और पानी को नष्ट कर रही हैं। नदियों में मछलियां मर रही हैं। बताइए अब गंगा का पानी पी कर लोग मर रहे हैं। कछुवा, मगरमच्छ ग़ायब हो रहे हैं। कैसे पानी साफ़ हो? तिस पर फ़ैक्ट्रियों का कचरा, शहरों के नाले, सीवर। जली-अधजली लाशें। सारी पर्यावरण एजेंसियां, सरकारी मशीनरी सो रही है। लोग कहते हैं कि तीसरा विश्व युद्ध पानी को ले कर होगा। मैं कहता हूं हरगिज़ नहीं। अरे पानी होगा तब न इस के लिए युद्ध या विश्व युद्ध होगा? तो मसला पानी नहीं हमारी सोच है। हम अगर यह जानते हैं कि बच्चे को फ़लां स्कूल में भेजेंगे तो अच्छा पढ़ेगा। अगर फ़लां ट्रेन से फ़लां जगह जाएंगे तो जल्दी पहुंचेंगे। फ़लां से मिल लेंगे तो फ़लां काम जल्दी हो जाएगा। तो हम यह क्यों नहीं सोच पाते कि साफ़ पानी हमारे जीवन को सुंदर बनाएगा? जल ही जीवन है हम आखि़र कैसे भूल गए? अब तो एक व्यवसायी टुल्लू बेचता है और टुल्लू के विज्ञापन में बड़ा-बड़ा लिखता है कि पानी बचाइए! सेव वाटर! हद है आप टुल्लू भी चलाएंगे और पानी भी बचाएंगे? यह दोगलापन विज्ञापन में चले तो चले हमें अपने जीवन में आने से रोकना होगा। शहरों में भू-जल स्तर लगातार गिर रहा है। खेतों में डाली जा रही खाद हमारी फ़सलों को तो बीमार कर ही रही हैं, पानी को भी ज़हरीला बना रही है। शहरों में तो आप एक्वागार्ड छोड़ कर आर.ओ. लगा रहे हैं। बताइए अब एक्वागार्ड भी पानी को साफ़ नहीं कर पा रहा तो आप आर.ओ. लगा रहे हैं शहरों में। पर गांवों में? और शहरी गरीबों के यहां? वहां क्या करेंगे? वहां कैसे बचाएंगे लोगों की किडनी और लीवर? हमें सोचना होगा कि हम लोक कल्याणकारी राज्य में रह रहे हैं कि व्यवसायी राज्य में? यह एक साथ आबकारी विभाग और मद्य निषेध विभाग क्यों चल रहे हैं? चोर से कहो चोरी करो और सिपाही से कहो पकड़ो! यह खेल कब तक चलेगा? क्या यह लोक कल्याणकारी राज्य है? गांधी का चश्मा, घड़ी, चप्पल, कटोरी जैसी चीजें नीलाम होती हैं और अख़बारों में ख़बर छपती है कि विजय माल्या ने बचा ली देश की लाज! यह क्या है? गांधी को कभी मुन्ना भाई के भरोसे हम छोड़ देते हैं कभी शराब सम्राट विजय माल्या के भरोसे? गांधी क्या इतनी गिरी और बिकाऊ वस्तु हो गए हैं? आप सभी को याद होगा कुछ बरस पहले तालिबानियों ने जेहाद के नाम पर अफ़गानिस्तान में बुद्ध की विशाल प्रतिमा डायनामाइट लगा कर तोड़ डाली थी क्रमशः। पूरी दुनिया ने गुहार की, निंदा की तालिबानों और अफ़गानिस्तान से। पर उन्हों ने किसी की नहीं मानी। चीन जो अपने को बौद्धिस्ट मानता है और दुनिया का महाबली भी, वह भी इस पूरे मामले की सिर्फ़ निंदा कर के रह गया।
थाईलैंड, अमरीका, भारत आदि सभी निंदा कर के रह गए। लड़े नहीं। प्रतिहिंसा नहीं की। तो यह बुद्ध की जीत थी, उन की अहिंसा की जीत थी। विजय माल्या भी गांधी की यह प्रतीकात्मक चीजें न ख़रीदते तो अच्छा होता। गांधी बाज़ारवाद के खि़लाफ़ थे। गांधी को बाज़ार के हवाले कर दिया हम लोगों ने। हम हार गए, यह गांधी की हार है। तो आदरणीय मित्रो हमें अपने पानी को भी बाज़ार से निकालना होगा। ठीक वैसे ही जैसे आज की राजनीति और बाज़ार ने हमारी लोकशाही को खा लिया है। संवैधानिक संस्थाएं धूल चाटती नष्ट हो रही हैं। खरबपतियों की गिनती नौ से बढ़ कर छप्पन हो गई है और नब्बे करोड़ लोगों की कमाई बीस रुपए रोज़ की भी नहीं रह गई है। महात्मा गांधी कहते थे कि हम हर गांव का आंसू पोछेंगे। क्या ऐसे ही? हम पानी से हर चीज़ को बदलने की शुरुआत क्यों न करें? पानी जो बाज़ार के चंगुल से हम नहीं निकाल पाएंगे तो हम समूची मानवता को लगातार ज़हरीले पानी के हवाले कर दुनिया को नष्ट कर डालेंगे। लोग अब साफ़ पानी नहीं पाते तो कोक पीते हैं। यह कोक भी सोख रहा है पानी को। चेतिए। पिघलते ग्लेशियर को ग्लीसरीनी आंसुओं से धोने के बजाय हिमालयी कोशिश करनी होगी। बचाना होगा हिमालय, प्रकृति और पानी, तभी हम बचेंगे!
सेमिनार का लंच हो गया है और चर्चा चल रही है गांवों में आ गए बाघ की जो अब आदमख़ोर होता जा रहा है। चर्चा इस पर भी है कि मंत्री जी भी बाघ खोज रहे हैं। आनंद कहता है यही तो दुविधा है कि मंत्री शिकारी का काम कर अख़बारों में फ़ोटो छपवा रहे हैं। अब मंत्री शिकारी तो हैं नहीं कि बाघ पकड़ लेंगे? शिकारी का काम मंत्री करेंगे तो मंत्री का काम कौन करेगा? लोग अपना-अपना काम भूलते जा रहे हैं। मंत्री जी को तो यह सोचना चाहिए कि जंगलों की कटान वह कैसे रोक सकते हैं ताकि बाघ जंगल छोड़ कर मैदान में न आएं। पर नहीं आप हिरन मार कर खाएंगे तो बाघ आप को नहीं तो किस को खाएगा?
‘भाई साहब यह दुविधा तो आप के साथ भी है।’ आनंद का कंधा पकड़ कर एक आदमी कहता है।
‘माफ़ कीजिए मैं ने आप को पहचाना नहीं।’ आनंद अचकचा गया।
‘कैसे पहचानेंगे आप?’ वह बोला, ‘आप वक्ता हैं, मैं श्रोता हूं।’
‘नहीं-नहीं यह बात नहीं है।’
‘आप शायद भूल रहे हैं, मैं आप का वोटर रहा हूं।’
‘क्या बात कर रहे हैं?’ आनंद बोला, ‘आप किसी और को ढूंढ रहे हैं। मैं और चुनाव? नहीं-नहीं।’
‘अरे आप आनंद जी हैं आप हमारी यूनिवर्सिटी में.........’
‘अच्छा-अच्छा छात्र संघ के चुनाव की बात कर रहे हैं आप!’ आनंद सकुचाया, ‘वह तो बीते ज़माने की बात हो गई। बाई द वे आप लखनऊ मंे ही रहते हैं?’
‘हां।’ वह बोला, ‘यहीं सचिवालय में डिप्टी सेक्रेट्री हूं।’
‘अच्छा अच्छा!’
‘आप को नहीं लगता कि आप भी दुविधा में जी रहे हैं? अंतर्विरोध में जी रहे हैं?’
‘ऐसा लगता है आप को?’
‘हां।’
‘कैसे?’
‘आप को लोकसभा या विधानसभा में होना चाहिए था। चुनावी सभाओं में होना चाहिए था। पर आप हैं कि सेमिनारों में जिं़दगी ज़ाया कर रहे हैं। यह आप की दुविधा और आप का अंतर्विरोध नहीं है तो क्या है?’
‘अरे आप तो ऐसे कह रहे हैं कि जैसे कोई अपराध कर रहा हूं मैं?’
‘जी बिलकुल!’
‘आप को लगता है कि आज की राजनीति में मैं कहीं फ़िट हो सकता हूं?’
‘एक समय आप ही कहा करते थे कि राजनीति में पढ़े लिखे लोगों को आना चाहिए।’
‘अरे वह सब बातें तो अब किताबी बातें हो गई हैं।’ आनंद बोला, ‘अब हमारे जैसे लोग जी ले रहे हैं इस समाज में यही बहुत है।’
‘तो मैं मान लूं कि मैं अब एक पराजित आनंद से मिल रहा हूं।’
‘इस में भी कोई संदेह बाक़ी रह गया है क्या?’ आनंद ने धीरे से कहा।
‘आप ने तो आज निराश कर दिया?’
‘कैसे?’ आनंद ने प्रति प्रश्न किया, ‘आप अपने को पढ़ा लिखा मानते हैं?’
‘हां, मानता तो हूं।’ वह व्यक्ति बोला।
‘और आप यह भी चाहते हैं कि पढ़े लिखे लोग राजनीति में रहें।’
‘हां।’
‘तो अपनी नौकरी छोड़ कर क्यों नहीं आ जाते राजनीति में?’
‘राजनीति मेरा कैरियर नहीं है। न कभी की राजनीति। तो अब कैसे राजनीति कर सकता हूं?’
‘क्यों ये अतीक़ अहमद, मुख़्तार अंसारी, डी.पी. यादव, हरिशंकर तिवारी, तसलीमुद्दीन, पप्पू यादव, शहाबुद्दीन, अमरमणि त्रिपाठी जैसों ने तो कभी यह सवाल नहीं पूछा, बबलू श्रीवास्तव और गावली जैसों ने नहीं पूछा कि कभी राजनीति नहीं की, कैसे करूं?’
वह चुप रहा।
‘अपनी बीवी के साथ सोने के पहले किसी और औरत के साथ सोए थे कभी। ली थी कभी सेक्स की ट्रेनिंग?’
‘नहीं तो!’ आनंद के ऐसे सवालों से वह अचकचा गया।
‘तो फिर?’ आनंद बोला, ‘राजनीति आप क्यों नहीं कर सकते?’
‘नहीं कर सकता।’
‘तो मित्र यही बात मैं कह रहा हूं तो आप को पराजित आनंद मुझ में दिखाई दे रहा है।’ वह बोला, ‘सच यही है कि हम सभी पराजित हैं।’
‘नहीं मैं पराजित नहीं हूं।’ वह व्यक्ति बोला, ‘बस पारिवारिक ज़िम्मेदारियां ख़त्म हो जाएं। बच्चे पढ़ लिख लें, शादी ब्याह हो जाए तो सोचता हूं।’
‘यह भी जोड़िए न कि ज़रा रिटायर हो जाऊं, पी.एफ़, ग्रेच्युटी और पेंशन हो जाए तब सोचता हूं।’
‘हां-हां, यह भी।’
‘तब आप राजनीति के लायक़ बचेंगे भी?’ आनंद बोला, ‘बचेंगे भी तो राजनीति पर बतियाने और नाक भों सिकोड़ने के लिए ही।’
सेमिनार का दूसरा सत्र शुरू होने का समय हो गया। सो आनंद ने उन सज्जन का नाम, पता, नंबर लिया, अपना पता, नंबर दिया और कहा कि, ‘मेरी बात का बुरा मत मानिएगा हम लोग फिर मिलेंगे-बतियाएंगे।’ उस ने जैसे जोड़ा, ‘दरअसल ज़िम्मेदारियों और सुविधाओं में जीने की आदत आदमी को नपुंसक बना देती है। और कायर भी।’
‘बिन पानी सब सून’ की अनंत कथा फिर शुरू हो जाती है। बीच पानी की कथा में उसे प्यास लग जाती है। वह पानी पीने के लिए उठ कर बाहर आ जाता है। और देखता है कि भीतर हाल से अपेक्षाकृत ज़्यादा लोग बाहर हैं। यह तो खै़र हर सेमिनार में वह पाता रहा है कि भीतर एक सेमिनार चल रहा होता है और बाहर कई-कई।
पानी पीते समय वह सोचता है आखि़र वह इस तरह क्यों पराजित हो गया है? क्या यह सत्ता की प्यास की पराजय है? वह ख़ुद से ही पूछता है। या ज़िम्मेदारियों और सुविधाओं में जीने की आदत ने उसे भी नपुंसक बना दिया है? वह राजनीति में सर्वाइव नहीं कर पाया और पीछे रह गया? या फिर उस में राजनीति के जर्म्स नहीं थे सिर्फ़ बोलने के जर्म्स थे सो वह सेमिनारी वक्ता बन कर रह गया। राजनीति में भी होता तो शायद पार्टी का प्रवक्ता बन कर रहता या थिंक टैंक हो जाता किसी बरगदी नेता का? राजनीतिक माफ़िया तत्व उस में कभी थे ही नहीं। उसे जब भी सूझा विचारक तत्व ही सूझा। और इस विचारहीन राजनीति के दौर में वह पराजित नहीं होगा तो कौन होगा। उस का सिर चौखट से नहीं टकराएगा तो क्या मुलायम, मायावती, सोनिया, आडवाणी, मोदी और राहुल का टकराएगा?
बताइए क्या रंग हो गया है राजनीति का? विद्यार्थी जीवन के समय का एक फ़िल्मी गाना उसे याद आ गया है- पानी रे पानी तेरा रंग कैसा, जिस में मिला दो लगे उस जैसा! अब तो राजनीति ही नहीं पानी भी बदरंग हो चला है। कैसे और किस में मिलाया जाए जो राजनीति भी साफ़ हो और पानी भी। क्या पानी और राजनीति का भी कोई आपसी रिश्ता है? साफ़-साफ़ होने का और फिर बदरंग-बदरंग होने का?
ज़रूर होगा।
वह फिर से आ कर हाल में बैठ गया है। एक साइंटिस्ट पानी में प्रदूषण के आंकड़ों की फ़ेहरिस्त परोस रहे हैं जो बहुत ही भयावह तसवीर पेश कर रही है। वह डर जाता है। डर जाता है और पूछता है अपने आप से कि क्या राजनीति में भी प्रदूषण के आंकड़े कोई समाजिक या राजनीतिक विज्ञानी बटोर रहा होगा? जल प्रदूषण मापने के लिए तो वैज्ञानिकों के पास निश्चित विधि और साज़ो सामान हैं। पर राजनीतिक प्रदूषण मापने के लिए कोई वैज्ञानिक तरीक़ा है क्या हमारे पास?
नहीं है।
यह सोच कर ही वह माथा पीट लेता है।
यह कौन सी प्यास है? भीष्म पितामह वाली तो नहीं है। सिगरेट के धुएं, डोसे की तीखी गंध और काफ़ी के गर्म भाप की तासीर में आज काफ़ी हाउस में कुछ समाजवादी इकट्ठे हो गए हैं। आनंद का एक पत्रकार मित्र सुजीत उस से धीरे से कहता है कि, ‘आज तो हम भी मेढ़क तौलने का मज़ा लेंगे!’
‘क्या मतलब?’
‘अरे, जहां चार-छह-दस समाजवादी इकट्ठे हो जाएं वहां उन को किसी बिंदु पर एक कर लेना तराज़ू में मेढक तौलना ही तो है। एक मानेगा, दूसरा उछलेगा, तीसरा मानेगा, चौथा मानेगा पांचवां उछल जाएगा। कभी कोई दसो मेढक एक साथ नहीं तौल पाएगा।’
‘तो तुम हम सब को मेढक समझते हो?’ आनंद किंचित मुसकुरा कर पूछता है और सिगरेट का धुआं फिर धीरे-धीरे छोड़ता है।
‘मेढ़क?’ वह पलटते हुए कहता है यह तो मैं ने नहीं कहा। और हंसने लगता है? और कहता है, ‘छोड़िए भी। अभी मैं कहीं पढ़ रहा था कि राम मनोहर लेाहिया ने कहीं लिखा है भारत के तीन स्वप्न हैं; राम, कृष्ण और शिव!’
‘हां, लिखा तो है!’
‘पर आज के समाजवादी मुलायम सिंह यादव के तो लगता है तीन स्वप्न हैं; सत्ता, पैसा और औरत।’
‘ना।’ एक दूसरे समाजवादी ने हस्तक्षेप किया, ‘मुलायम सिंह यादव के तीन नहीं चार स्वप्न हैं; सत्ता, पैसा, औरत और अमर सिंह।’
‘फिर अमिताभ बच्चन को क्यों छोड़ दे रहे हो भाई!’ राय साहब जो नियमित काफ़ी हाउस का सेवन करते हैं सिगरेट फूंकते हुए बोले।
‘ऐसे तो फिर कई स्वप्न उन के जुड़ते जाएंगे।’ वर्मा जी जो कभी मुलायम सिंह के बहुत क़रीबी होने का दावा करते फिरते थे बोले।
‘अरे यार बात लोहिया जी की कर रहे थे वही करो। कहां राजनीतिक व्यवसायियों की बात ले बैठे।’ मधुसूदन जी भनभनाए। मधुसूदन जी सुलझे हुए लोगों में से जाने जाते हैं और बहुत कम बोलते हैं। अनावश्यक तो हरगिज़ नहीं। वैसे भी वह बोलने के लिए नहीं सुनने के लिए जाने जाते हैं। अकसर उकताए हुए लोग, आजिज़ आए लोग उन के पास आ कर बैठ जाते हैं और जितनी भड़ास, जितना फ्रस्ट्रेशन उन के दिल में होता है मधुसूदन जी के पास जा कर दिल का गु़बार तो निकाल देते हैं और मधुसूदन जी उन गु़बारों को गु़ब्बारे की तरह उड़वा देते हैं। आदमी शांत हो जाता है। ऐसे जैसे कोई नटखट बच्चा सो जाता है, ठीक वैसी ही शांति! निर्मल शांति। और आज मधुसूदन जी ऐसी बात पर सिर्फ़ ऐतराज़ नहीं जता रहे, एक शेर भी सुना रहे हैं; ‘रंग-बिरंगे सांप हमारी दिल्ली में/क्या कर लेंगे आप हमारी दिल्ली में।’
‘क्या बात है मधुसूदन जी! आज तो आप ने कमाल कर दिया।’ आनंद बोला।
‘कमाल मैं नहीं, आप लोग कर रहे हैं। फ़ालतू लोगों के बारे में बात कर के क्यों समय नष्ट कर रहे हैं?’
‘मधुसूदन जी हम लोग अपनी राजनीति और अपने समाज की व्याधियों-बीमारियों के बारे में अब बात भी नहीं कर सकते?’ वर्मा जी ने पूछा।
‘किस-किस बीमारी के बारे में बात करेंगे आप लोग?’ मधुसूदन जी जैसे फटे पड़े जा रहे थे, ‘पाखंडी, नक़ली और भ्रष्ट जब हमारा समूचा समाज ही हो चला हो तो किस-किस बीमारी के बारे में बात करेंगे? बीमारी के बारे में बात करने से पूरा माहौल बीमार हो जाता है। मत कीजिए!’
‘तो क्या अगर हमारे हाथ में कोढ़ हो गया है तो उसे कपड़े से ढंक देने से वह ठीक हो जाएगा?’ वर्मा जी ने मधुसूदन जी को लगभग घेर लिया।
‘नहीं ठीक होगा। पर सिर्फ़ कोढ़ है, कोढ़ है कहने से भी ठीक नहीं होगा।’ मधुसूदन जी बोले, ‘दवा देनी होगी।’
‘तो मधुसूदन जी, हम लोग यही कर रहे हैं। बीमारी का ब्यौरा बटोरने के बाद ही तो दवा तजवीज़ करेंगे?’
‘यहां काफ़ी हाउस में बैठ कर?’ मधुसूदन जी ने तरेरा सभी को, ‘कि ड्राइंगरूम में बैठ कर या सेमिनारों में बोल कर? क्यों आनंद जी?’
आनंद चुप रहा। समझ गया कि मधुसूदन जी आज कहीं गहरे आहत हैं। वरना वह आज यूं न बोलते। शेर नहीं सुनाते रंग बिरंगे सांप हमारी दिल्ली में/क्या कर लेंगे आप हमारी दिल्ली में। आनंद ने ग़ौर किया कि वह ही नहीं मधुसूदन जी के तंज़ पर सभी के सभी चुप हैं। पर मधुसूदन जी चुप नहीं थे, ‘अरे जाइए आप लोग जनता के बीच। यह कहने से काम नहीं चलेगा कि राजनीति पर अब अपराधियों और भ्रष्ट लोगों का क़ब्ज़ा है सो हम लोग दुबके पड़े हैं। यह हिप्पोक्रेसी बंद कीजिए आप लोग।’ वह बोलते जा रहे थे, ‘बताइए भ्रष्ट ब्यूरोक्रेट्स तक लाइन से रिटायर हो कर राजनीति में दाखि़ला ले रहे हैं, चुनाव लड़ रहे हैं। और आप लोग हैं कि काफ़ी हाउस में बैठ कर चोर-सिपाही खेल रहे हैं। अरे जाइए जनता में बताइए इन सब की करतूत।’
‘क्या बताएं मधुसूदन जी?’ बड़ी देर से चुप बैठे वर्मा जी बोले, ‘कि जिस संचय के खि़लाफ़ थे लोहिया जी, उन्हीं का अनुयायी अब खरबपति बन कर सी.बी.आई. जांच फेस कर रहा है। और सी.बी.आई. कहीं लटका न दे इस लिए गै़र कांग्रेसवाद का नारा भूल कर सारे अपमान पी कर कांग्रेस के आगे घुटने टेके हुए है। भीख मांग रहा है। एक दल्ले अमर सिंह के फंदे में फंस कर फ़िल्मी हीरो हीरोइनों को चुनाव लड़वा रहा है, सारे समाजवादियों को पार्टी से बाहर धकेल चुका है? ख़ुद भी कभी हिस्ट्रशीटर था, सारे गवाहों, पक्षकारों को मरवा कर अब पोलिटिकल हो गया है। पिछड़ों को एक करने के नाम पर बाबरी मस्जिद गिराने वालों को अपने बगल में बिठा कर घूम रहा है। अमरीका परस्त हो चला है?’
‘बिलकुल!’ मधुसूदन जी ने बड़े ठसके से कहा।
‘अरे मधुसूदन जी निरे बबुआ हैं आप?’ वर्मा जी बोले, ‘अभी जितनी और जो बातें मैं ने आप से कहीं क्या कोई नई बात कही क्या? हम आप यह सब जानते हैं और आप समझते हैं कि आप की यह महान जनता कुछ नहीं जानती?’
अब मधुसूदन जी चुप थे।
‘अरे जनता सब जानती है।’ वर्मा जी चालू थे, ‘ये मोटी खाल वाले सिर्फ़ तमाम पार्टियों के नेता भर नहीं हैं। यह जो हमारी महान जनता जो है न उस की खाल इन नेताओं से भी ज़्यादा मोटी है। जानती वह सब है फिर भी इन्हीं भ्रष्ट और गुंडों को वोट दे कर विधानसभा और लोकसभा भेजती है। और नतीजे में हम आप शेर सुनाते हैं-रंग-बिरंगे सांप हमारी दिल्ली में/क्या कर लेंगे आप हमारी दिल्ली मंे। यह रंग-बिरंगे सांप हमारी जनता ही पालती पोसती है। और दोष मढ़ती रहती है दूसरों पर।’
‘अच्छा राजनीति छोड़िए। सिनेमा पर आइए। एक से एक बे सिर पैर की कहानियां, चार सौ बीसी से भरे डिटेल्स वाली फ़िल्में सुपर-डुपर हुई जा रही हैं तो अपनी इसी महान जनता की ही तो बदौलत!’ वर्मा जी अब पूरा नहा-धो कर मधुसूदन जी पर पिल पड़े थे, ‘फ़िल्में भी छोड़िए इलेक्ट्रानिक चैनलों पर आइए। अवैध संबंधों और बे सिर पैर की कामेडी से भरे सीरियलों की कहानियां साल भर बाद भी वहीं की वहीं खड़ी मिलती हैं और हमारी महान जनता उन्हें देख-देख उन की टी.आर.पी. बढ़ाती रहती है। न्यूज़ चैनलों की तो महिमा और बड़ी है। न्यूज़ नहीं है, उन के यहां बाक़ी सब है। भूत प्रेत है, अपराध है, सीरियलों के झगड़े हैं और दिन रात चलने वाली चार ख़बरों का न्यूज़ ब्रेक है। तो यह सब किस की बदौलत है?’ वर्मा जी बोले, ‘हमारी महान जनता की बदौलत है मधुसूदन जी!’
‘क्या तभी से मधुसूदन जी, मधुसूदन जी लगा रखा है वर्मा जी। अब इस में बेचारे ये क्या करें?’ राय साहब बोले।
मधुसूदन जी कुछ बोले नहीं। चुपचाप उठे और काफ़ी हाउस से जाने लगे।
‘कोई रोको भी उन्हें।’ आनंद खुसफुसाया।
पर किसी ने उन्हें रोका नहीं। वह चले गए।
‘तो बात मीडिया की हो रही थी।’ वर्मा जी पत्रकार सुजीत की ओर मुख़ातिब थे, ‘और तुम चुप थे?’
‘तो क्या करता?’
‘मीडिया का बचाव करते।’
‘क्या ख़ाक करता।’ सुजीत भन्नाया, ‘मीडिया को तो जितना भी कोसा जाए कम है।’
‘क्या?’ राय साहब ने जैसे मुंह बा दिया।
‘हां राय साहब!’ सुजीत बोला, ‘मीडिया अब मीडिया नहीं, एक डिपार्टमेंटल स्टोर है, जाइए जो चाहिए ख़रीद लीजिए।’
‘मतलब?’
‘यह जो तमाम तांत्रिक, ज्योतिषी चैनलों पर आ रहे हैं, आप क्या समझते हैं यह सब सचमुच अपने सबजेक्ट के एक्सपर्ट हैं?’
‘हां तो?’
‘कोई एक्सपर्ट-वोक्सपर्ट नहीं हैं। सब टाइम और स्लाट ख़रीदते हैं चैनल वालों से। वह चाहे किसी धार्मिक चैनल पर हों या न्यूज़ चैनल पर। अपने ख़र्चे से पूरा प्रोग्राम शूट करते हैं, चैनल वालों से टाइम बुक करते हैं। वह चाहे कोई
बापू हो, कोई स्वामी हों, कोई तांत्रिक या कोई ज्योतिषी।’
‘यह क्या हो रहा है मीडिया में?’ वर्मा जी खदबदाए।
‘यही नहीं आज कल तो तमाम नेता, अभिनेता, खिलाड़ी अपना इंटरव्यू करवाने या अपनी फ़ोटो वाली फ़ुटेज दिखाने के लिए भरपूर पैसा ख़रचते हैं।’
‘मतलब सब कुछ प्रायोजित!’ राय साहब ने फिर मुंह बा दिया।
‘जी हां, प्रायोजित!’ सुजीत बोला, ‘आज कल की सेलीब्रेटी आखि़र कौन है? अमिताभ बच्चन, शाहरुख, अमर सिंह, सचिन तेंदुलकर, राखी सावंत जैसे फ़िल्मी लोग या खिलाड़ी।’ सुजीत बोला, ‘‘आखिर यह सेलीब्रेटी हमारे चैनल ही तो गढ़ रहे हैं? पैसा ख़र्च कीजिए राय साहब आप अमर सिंह से बड़े नेता बन जाइए।’
‘क्या बात कर रहे हो?’ राय साहब बिदके, ‘अब यह दिन आ गया है कि मैं पैसा ख़र्च कर के नेता बनूंगा। अरे गांव जा कर खेती-बाड़ी कर लूंगा। मूत दूंगा ऐसी नेतागिरी पर!’
‘अरे राय साहब आप और आप जैसे लोग अगर ऐसे ही अड़े रहे तो लोग आप की राजनीति पर अभी छुप छुपा कर मूत रहे हैं, बाद में खुल्लमखुल्ला मूतने लगेंगे।’ सुजीत मुसकुराते हुए बोला, ‘सुधर जाइए राय साहब और अपने साथियों को भी सुधारिए।’
‘तो अब तुम हम को राजनीति का ककहरा सिखाओगे?’ राय साहब फिर बिदके।
‘हम नहीं ये चैनल सिखाएंगे।’
‘इन चैनलों से देश तो नहीं चल रहा?’
‘फ़िलहाल तो चल रहा है राय साहब!’ सुजीत बोला, ‘अच्छा आप अभिनव बिंद्रा को जानते हैं?’
‘क्यों?’
‘नहीं, जानते हैं कि नहीं?’
‘कौन है यह?’
‘देखिए मैं जानता हूं कि आप नहीं जानते होंगे। सुजीत बोला, ‘देश का गौरव है अभिनव बिंद्रा लेकिन चैनलों का गढ़ा सेलीब्रेटी नहीं है।’
‘बताओगे भी कि कौन है?’ राय साहब भनभनाए, ‘कि पहाड़ा ही पढ़ाते रहोगे?’
‘पिछले ओलंपिक में निशानेबाज़ी में गोल्ड मेडल लाया था।’ सुजीत बोला, ‘देश में पहला व्यक्ति जो गोल्ड मेडल ओलंपिक से लाया। लेकिन आप या बहुतायत लोग नहीं जानते क्यों कि चैनल वाले इस का खांसी ज़ुकाम नहीं दिखाते।
क्यों कि यह सब दिखाने के लिए वह चैनलों को पैसा नहीं परोसता।’
‘तो बात यहां तक पहुंच गई है।’ वर्मा जी ने अंगड़ाई लेते हुए पूछा।
‘अच्छा आप यह बताइए कि एक अभिनेता अपने घर से नंगे पांव मंदिर जा रहा है, या नैनीताल अपने पुराने स्कूल जा रहा है या ऐसे ही कुछ और कर रहा है और चैनल वाले आधे-आधे घंटे का स्पेशल कार्यक्रम दिखाते हैं तो कैसे? क्या सपना देख कर? आप मंदिर जा रहे हैं कि स्कूल? भाई लोग मीडिया टीम अरंेज करते हैं, लाद के अमुक जगह तक ले जाते हैं, पैसा ख़र्च कर स्लाट ख़रीदते हैं, देख रही है जनता। क्यों कि आप यह दिखाना चाह रहे हैं। पर आप के बेटे की शादी होती है वह फु़टेज नहीं दिखाते चैनल वाले क्यों कि आप नहीं देते। पर चैनल वाले एक फ़िल्म की शादी वाली क्लिपिंग दिखा-दिखा कर अपने श्रद्धालु दर्शकों का पेट भरते हैं। हद है!’ सुजीत बोल रहा है, ‘क्या तो आप सदी के महानायक हैं। तो महात्मा गांधी, नेहरू, पटेल क्या हैं? अच्छा अभिनेताओं वाले महानायक हैं? तो मोती लाल, अशोक कुमार, दिलीप कुमार, राज कपूर, देवानंद, संजीव कुमार जैसे लोग घास छीलते रहे हैं जो आप सदी के महानायक बन गए?’ सुजीत ऐसे बोल रहा था गोया प्रेशर कुकर की सीटी। सीटी न हो तो कुकर फट जाए। पर वह फट भी रहा था और बोल भी रहा था। वह बोल रहा था, ‘इस महानायक के खांसी जु़काम वाली ख़बरों सहित तमाम इंटरव्यू भी जब तब चैनलों पर आते ही रहते हैं। अच्छा महानायक और रेखा की कहानी कौन नहीं जानता? पर किसी चैनल वाले के पास रेखा से जुड़ा कोई प्रश्न नहीं होता। क्यों कि महानायक को यह पसंद नहीं। हालत यह है कि कवि पिता का निधन होता है तो चैनलों पर श्रद्धांजलि कोई कवि, आलोचक नहीं अमरीशपुरी, सुभाष घई जैसे लोग देते हैं। यह क्या है?’ कह कर सुजीत ज़रा देर के लिए रुका।
पूरी महफ़िल पर ख़ामोशी तारी थी।
‘तुम भड़ास डॉट कॉम पर क्यों नहीं जाते?’ आनंद ने सन्नाटा तोड़ते हुए सुजीत से कहा, ‘इस में तुम क्या नया बता रहे हो? अरे लोग रिएक्ट करना अब भूल गए हैं। कुछ कहते नहीं तो इस का मतलब यह तो नहीं ही है कि कोई कुछ जानता ही नहीं। ब्लॉगिए इस से ज़्यादा लिख रहे हैं। मीडिया के बारे में समाज के बारे में।’
‘नहीं आनंद ऐसा नहीं है।’ वर्मा जी बोले, ‘इन बातों को इस तरह हम लोग तो नहीं जानते। कम से कम इतनी बेपर्दगी के साथ।’
‘इस से बेहतर तो फिर प्रिंट मीडिया ही है।’ राय साहब बोले।
‘ख़ाक बढ़िया है।’ सुजीत फिर भड़का, ‘वहां भी ऐडवोटोरियल शुरू हो गया है।’
‘एडिटोरियल तो सुना है, ये ऐडवोटोरियल क्या बला है?’ आनंद ने पूछा।
‘क्यों यह किसी ब्लॉग या भड़ास डॉट कॉम पर नहीं है क्या?’ सुजीत ने पूछा।
‘अभी तक तो मेरी नज़र से नहीं गुज़रा।’
‘अरे भाई साहब, कोई पांच-छः साल से यह फ्रॉड चल रहा है।’ वह बोला, ‘आप अपने बारे में जिस अख़बार में चाहें उस अख़बार में मय तमाम फो़टो के जो चाहें बतौर राइट-अप छपवा सकते हैं पैसा दे कर। और उस पर विज्ञापन भी नहीं लिखा रहेगा। आप चाहें तो अपने को अकबर और अशोक का बाप लिखवा लीजिए। धर्मात्मा या ओबामा लिखवा लीजिए अपने आप को। चाहिए तो ओबामा के साथ अपनी फ़ोटो भी छपवा लीजिए। भले आप उस से कभी नहीं
मिले हों। मल्लिका शेरावत या बिपाशा बसु की भले परछाई न देखी हो पर उस के साथ डांस करती अपनी फ़ोटो छपवा लीजिए!’
‘ओह तो इतना पतन हो चला है?’ राय साहब गंभीर हो गए। बोले, ‘अरे भई छपे अक्षरों से फिर तो लोगों का यक़ीन उठ जाएगा।’
‘उठता है तो उठे। पर उन की तो तिजोरी भर रही है।’
‘चलो अख़बार तो माना कि पूंजीपतियों, उद्योगपतियों के हैं। उन का कोई एथिक्स नहीं है। बाज़ार और पैसा ही उन का सब कुछ है। अख़बारों में तो पहले भी दबी ढंकी प्रायोजित और पीली ख़बरें छपती रही हैं पर ये न्यूज़ चैनल कई एक पत्रकारों के ही स्वामित्व में हैं?’ आनंद ने सुजीत से पूछा, ‘फिर ये सब भी ऐसा कैसे कर ले रहे हैं। चीख़-चीख़ कर, भविष्यवाणियां कर-कर के आतंकवाद, राजनीति से संबंधित असली फ़र्जी ख़बरें परोसते हैं। कि नाटक फे़ल हो जाएं। नाट्य रूपांतरण कर के अपराध की ख़बरें ऐसे परोसते हैं कि कई बार माथा पीट लेना पड़ता है। और हद तो तब होती है जब ये चैनल नाट्य रूपांतरण कर छोटे-छोटे शहरों में भी वाइफ़ स्वैपिंग की ख़बरें कमेंट्री मार कर परोस देते हैं, सनसनीखे़ज़ ढंग से। ये फ़र्जी स्टिंग आपरेशन ठोंक देते हैं? यह काम तो पत्रकारों के स्वामित्व में नहीं होना चाहिए!’
‘आनंद जी, ये चैनल चलाने वाले पत्रकार होंगे आप की नज़र में अब भी पत्रकार! पर हक़ीक़त यह है कि अब यह पत्रकार नहीं सैकड़ों हज़ारों करोड़ की कंपनियों के मालिक हैं। व्यवसायियों से बढ़ कर व्यवसायी हैं।’ सुजीत बोला, ‘और आप एथिक्स की बात कर रहे हैं? अरे हालत यह है कि इन को अगर पता चल जाए कि इन की मां के बिकने की ख़बर चला कर पैसा मिल जाएगा तो ये सब ताबड़तोड़ अपनी-अपनी मां बेच-बेच कर ख़बरें चला देंगे। और बताते रहेंगे चीख़-चीख़ कर कि सब से पहले मैं ने अपनी मां बेची। देखें सिर्फ़ इसी चैनल पर। और फिर इस ख़बर के असर पर भी दो चार स्टोरी चला देंगे। और आप हैं कि देश और समाज की चिंता इन के कंधों पर डाल देना चाहते हैं!’
‘क्या बेवकू़फ़ी की बात कर रहे हो?’ राय साहब फिर भड़के।
‘नहीं हो सकता है भाई!’ आनंद बोला, ‘नोएडा वाला आरुषी हत्याकांड ऐसे ही तो सारे चैनलों ने दिखाया था। जिस बेशर्मी से वह आई.जी. लेविल का पुलिस अफ़सर प्रेस कांफ्रेंस कर उस चौदह साल की मासूम आरुषी की हत्या के बाद भी उस की चरित्र हत्या कर रहा था, और उस के पूरे परिवार की पैंट उतार कर बेचारे डाक्टर बाप को क़ातिल ठहरा रहा था और सारे के सारे चैनल इस प्रेस कांफ्ऱेंस को लाइव दिखा रहे थे, और फिर बाद में भी पंद्रहियों दिन उस बेचारी मासूम और उस के परिवार को बेइज़्ज़त करते रहे सारे के सारे चैनल, ऐसे जैसे उन के पास और देश में कोई और ख़बर ही न हो तो इस से तो लगता है ऐसा भी हो सकता है।’ आनंद माथे पर हाथ फिराते हुए बोला, ‘सुजीत तुम ठीक कह रहे हो। हो सकता है ऐसा भी!’
‘हम तो समझे थे कि राजनीति में ही पलीता लगा है। पर पत्रकारिता वाले तो राजनीति से भी कहीं आगे निकल रहे हैं।’ वर्मा जी हताश हो कर बोले।
‘नहीं वर्मा जी!’ आनंद बोला, ‘पतन के मामले में पत्रकारिता राजनीति से आगे नहीं जा पाएगी। पर हां, मैं यह ज़रूर मानता हूं कि पत्रकारिता का अगर इतना पतन नहीं हुआ होता तो राजनीति इतनी पतित नहीं होती। पत्रकारिता का इतना पतन हुआ; इसी लिए राजनीति भी पतन के पाताल में, रसातल में, चाहे जो कहिए, चली गई।’ वह बोलता रहा, ‘वैसे भी अब मीडिया चाहे इलेक्ट्रानिक हो या प्रिंट मारवाड़ियों के हाथ से निकल कर बिल्डरों और माफ़ियाओं के हाथ में चला गया है। कुछ चैनल और अख़बार तो सीधे-सीधे बिल्डरों के हाथ में तो कुछ साझे में पत्रकारों के स्वामित्व में। सोचिए कि डी.पी. यादव और मनु शर्मा जैसे लोग अख़बार निकाल रहे हैं और पत्रकारिता के बड़े-बड़े चैंपियन और जीनियस उन के संपादक हैं।’
‘तो ये प्रेस काउंसिल वग़ैरह क्या कर रही है?’ राय साहब ने मुंह उठा कर सुजीत की ओर देखा।
‘नख-दंत विहीन संस्थाएं क्या कर सकती हैं भला?’ सुजीत बोला, ‘खांसी जु़काम तो अख़बारों का ठीक नहीं कर सकती ये प्रेस काउंसिल तो यह सब एड्स और कैंसर जैसी बीमारियां हैं, ये कैसे ठीक करे? और फिर इलेक्ट्रानिक मीडिया के लिए तो अभी तक कोई नार्म्स संसद तक नहीं तय कर पाई। जब-जब संसद में कोई बात आई या सरकार ने कुछ करना चाहा, सारे चैनल गिद्धों की तरह ऐसा गोलबंद हो जाते हैं कि सरकार और संसद की घिघ्घी बंध जाती है। ये चैनल तो सिर्फ़ टी.आर.पी. के तबले पर नाचना जानते हैं। और सरकार कहती है कि ये टी.आर.पी. भी एक धोखा है, एक साज़िश है, मैन्युपुलेशन है। पर बात बयानबाज़ी तक ही रह जाती है। मंत्री अस्पताल चला जाता है। चुनाव का ऐलान हो जाता है, बात ख़त्म हो जाती है।’ वह आजिज़ हो कर बोला, ‘जैसे पुराने समय में लड़ाई हार रहा राजा गायों का झुंड आगे खड़ा कर देता था और अपनी जान बचा लेता था वैसे ही यह चैनल वाले भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नाम की एक गाय संविधान में से निकाल कर खड़ी कर देते हैं। सरकार, संसद, पक्ष-विपक्ष सभी ख़ामोश हो जाते हैं।’
‘पर हमारा देश क्या संविधान और क़ानून से चलता है?’ राय साहब मुनमुनाए।
‘तो फिर देश कैसे चलता है?’ सुजीत ने प्रति प्रश्न किया।
‘संविधान और नियम क़ानून मूर्खों के लिए है। जैसे अदालतों में गीता-कु़रान-ईश्वर या सत्य की क़सम।’ राय साहब बोले, ‘हमारा देश चलता है धर्म से, भ्रष्टाचार से, जाति से, गंुडई से। लोग संसदीय राजनीति की बात करते ज़रूर हैं पर यह संसदीय राजनीति भी सारे असंसदीय कृत्यों से चल रही है। कितने असंसदीय टाइप लोग हमारी लोकसभा और विधानसभाओं में चुन कर हर बार आ जाते हैं, कोई कुछ कर लेता है क्या?’ वह बोले, ‘और हर बार इस का ग्राफ़ बढ़ता ही जाता है।’
‘यह सब अंतहीन बहसें हैं, जाने भी दीजिए।’ आनंद ने कहा, ‘राजनीति और मीडिया, पुलिस और चोर, अदालतें और अस्पताल! यह सब अंतहीन विषय हैं। इन का कोई सर्वकालिक समाधान नहीं है।’
‘भइया इस में शिक्षा और पाकिस्तान भी जोड़ लीजिए!’ बड़ी देर से टुकटुक आंख लगाए, सिगरेट फूंकते और यह बहस सुनते अश्विनी जी बोले।
‘चलिए जोड़ लेते हैं।’ आनंद बोला, ‘पर इन विषयों पर बहस-मुबाहिसा फिर किसी रोज़। आज की बहस अगर आप लोगों की इजाज़त हो तो यहीं मुल्तवी की जाए!’
‘नहीं भई हम लोग तो अभी बैठेंगे।’ वर्मा जी ने प्रतिवाद किया।
‘बैठिए और फिर बहस जारी रखिए। हमें क्षमा कीजिए।’ कह कर आनंद उठ खड़ा हुआ।
‘भाई साहब मैं भी चलता हूं।’ कह कर सुजीत भी खड़ा हो गया।
‘इन राय साहब और वर्मा जी के बारे में जानते हो?’ आनंद ने काफ़ी हाउस के बरामदे में टहलते हुए सुजीत से पूछा।
‘नहीं, कुछ ख़ास नहीं।’
‘सोचो यह राय साहब बी.एच.यू. के प्रेसीडेंट रहे हैं अपने समय में और ये वर्मा जी मिनिस्टर! संसदीय कार्य और पी.डब्ल्यू.डी. जैसे विभाग देख चुके हैं।’
‘अच्छा?’ सुजीत ने मुंह बा दिया।
‘पर हमारी तरह साफ़ सुथरी राजनीति के पक्षधर बनते-बनते पहले राजनीति के हाशिए पर आए और अब शायद हाशिए से भी बाहर हो गए हैं।’
‘आप एक समय राकेश जी के बारे में बहुत भावुक हो कर बात करते थे जो आप के शहर में दो बार एम.पी. भी रह चुके हैं, वह अब कहां हैं?’
‘वह भी अब उखड़े हुए लोगों में हैं। दिल्ली में कांग्रेस की अनुशासन समिति में हैं।’ आनंद बोला, ‘जहां सिर्फ़ सोनिया का अनुशासन चलता है।’
‘वैसे भी भाई साहब राजनीति और अनुशासन दोनों दो चीज़ें हो गई हैं।’ सुजीत बोला, ‘अब तो अनुशासन शायद सेना में ही रह गया है।’
‘ये तो है।’ आनंद बोला। अब तक दोनों कार पार्किंग में आ चुके थे। कार का दरवाज़ा खोलते हुए आनंद ने सुजीत से पूछा, ‘तुम्हें कहीं छोड़ दूं?’
‘नहीं-नहीं, मेरी बाइक उधर खड़ी है।’ सुजीत बोला, ‘आप चलिए।’
‘कभी घर पर आओ। बैठ कर बातें करते हैं।’
‘ठीक भाई साहब!’ कहते हुए वह हाथ जोड़ता हुआ निकल गया।
वह घर आ कर हाथ पैर धो कर बैठा ही था कि मुनव्वर भाई का फ़ोन आ गया। वह बुरी तरह घबराए हुए थे, ‘आनंद जी मैं मुनव्वर बोल रहा हूं।’
‘हां बताइए मुनव्वर भाई! इतना घबराए हुए क्यों हैं?’
‘घबराने की बात ही है।’
‘हुआ क्या?’
‘क़ासिम का इनकाउंटर हो गया।’
‘क़ासिम?’ वह बोला, ‘कौन क़ासिम?’
‘अरे आप के गांव वाला क़ासिम!’
‘ओह हां! कब हुआ, कैसे हुआ?’ पूछते हुए उस की आवाज़ जैसे बैठ गई।
‘आज ही!’
‘पर उस को तो ए.टी.एस. ने क्लीन चिट दे दी थी कि वह आतंकवादी नहीं है।’
‘तो इनकाउंटर आतंकवादी बता कर किया भी नहीं है।’
‘तो फिर?’
‘बैंक राबरी से जोड़ दिया है।’
‘ये तो हद है!’
‘और यह इनकाउंटर उसी दारोग़ा ने किया है जिस को आप ने लाइन हाज़िर करवाया था क़ासिम वाले मामले में।’
‘तो क्या वह दुबारा वहीं पोस्टिंग पा गया था?’
‘नहीं अब की तो वह शहर के थाने में तैनात है।’
‘ओह।’
‘वही महंत जी और उन की हिंदू युवा वाहिनी ब्रिगेड ने यह इनकाउंटर करवाया है।’
‘तो क्या क़ासिम अकेले मारा गया है?’
‘नहीं।’ मुनव्वर भाई बोले, ‘बैंक राबरी से जोड़ा है तो अकेले कैसे मारेंगे?’
‘तो?’
‘तीन लड़के और हैं।’ मुनव्वर भाई बोले, ‘कुल चार लड़कों को मारा है। इन में तीन मुसलमान हैं और एक हिंदू।’
‘ओह!’
‘हम तो इस इनकाउंटर की न्यायिक जांच की मांग करने जा रहे हैं। पुलिस या मजिस्ट्रेटी जांच पर हमें बिलकुल भरोसा नहीं है।’ वह बोले, ‘मानवाधिकार आयोग और अल्पसंख्यक आयोग से भी कहने जा रहे हैं कि वह भी जांच करें।’
‘अरे मुनव्वर भाई सीधे सी.बी.आई. जांच मांगते!’ वह बोला, ‘इस सब से कुछ होने हवाने वाला नहीं है।’
‘सी.बी.आई. जांच कहां हो पाएगी आनंद जी?’ मुनव्वर भाई बोले, ‘सरकार कहां मानेगी? न्यायिक जांच ही मान जाए तो बहुत है।’
‘चलिए जो भी करना हो करिए।’ वह बोला, ‘हो सका तो दो एक दिन में मैं भी आऊंगा।’
‘इसी मामले में?’
‘हां, मुनव्वर भाई। आप जानते ही हैं क़ासिम के परिवार से मेरे रिश्ते, मेरी भावनाएं।’ कहते हुए वह जैसे टूट सा गया।
‘हां, वो तो है।’
‘मैं आज ही चल देता।’ वह बोला, ‘पर जानता हूं कि अभी उस की बॉडी मिलने में ही दो दिन लग जाएंगे।’
‘क्यों?’
‘अरे आप नहीं जानते हैं?’ वह बोला, ‘एक दिन तो पोस्टमार्टम वग़ैरह में ही ख़र्च हो जाएंगे। फिर सरकारी और पुलिसिया प्रक्रिया!’
‘हां, ये तो है।’ मुनव्वर भाई बोले, ‘आइए तो भेंट होगी। तब तक मैं इस मामले को मीडिया में और पोलिटिकली गरमाता हूं।’
‘ये तो ठीक है मनुव्वर भाई!’ वह बोला, ‘पर अब वह बेचारा क़ासिम तो नहीं लौटेगा न!’ उसे लगा जैसे अब वह रो देगा। सो उस ने फ़ोन काट दिया।
सुखई चाचा का ज़र्द चेहरा उस की आंखों में आ कर कौंध गया। अफना कर वह आंख बंद कर लेट गया। सोचने लगा कि अब वह सुखई चाचा का सामना कैसे करेगा भला?
वह गांव गया भी। दो दिन बाद। यह सोच कर कि अब तक क़ासिम को दफ़ना दिया गया होगा। पर अजब संयोग था कि जब वह गांव पहुंचा तो एक घंटे पहले ही क़ासिम का शव शहर से गांव आया था। गांव में सन्नाटा पसरा था। ख़ामोश नहीं, खौलता सन्नाटा। अम्मा उसे देखते ही चौंक गईं। सिर्फ़ चौंकी ही नहीं डर भी गईं। यह पहली बार था कि गांव जाने पर उसे देखते ही अम्मा चौंक कर डर गईं।
नहीं तो पहले उसे देखते ही वह इतरा जाती थीं। वह जब सुखई चाचा के यहां जाने के लिए घर से चलने लगा तो अम्मा समझ गईं कि वह सुखई चाचा के घर जा रहा है। अम्मा धीरे से बोलीं, ‘बाबू वहां मत जाओ।’ उस का डर अभी तक उस के चेहरे पर था।
‘क्यों?’ आनंद ने भी धीरे से पूछा।
‘इस लिए कि गांव में माहौल बहुत ख़राब है।’
‘क्या?’
‘हां।’ वह बोली, ‘क़ासिम को ले कर सारा गांव बहुत नाराज़ है।’
‘क्यों?’
‘उस का चाल चलन ठीक नहीं था।’ अम्मा बोलीं, ‘ऊ आतंकवादी था। बैंक लूटने में मारा गया।’
‘यह कौन कहता है?’ आनंद लगभग बौखला गया, ‘ये फ़ौजी पंडित? ये हिंदू युवा वाहिनी?’
‘मुसल्लम गांव!’ अम्मा धीरे से बोलीं।
‘ओह!’ कह कर आनंद बैठ गया। अम्मा से धीरे से बोला, ‘अब जो भी हो वह तो मर गया न? तो ऐसे में उस के घर जाने में उस की शव यात्रा में जाने में हर्ज क्या है?’
‘हर्ज तो नहीं है।’ अम्मा बोलीं, ‘तुम तो दो दिन में फिर लखनऊ चले जाओगे। यहां रहना हमें है। गांव हमें अकेला कर देगा। ताना देगा। तुम क्या जानो गांव की राजनीति।’ अम्मा हाथ जोड़ कर बोलीं, ‘बाबू हम को यहीं रहना है!’
‘वो तो ठीक है।’ आनंद बोला, ‘पर अम्मा सोचो कि सुखई चाचा जब यह जानेंगे कि मैं गांव में हो कर भी उन के शोक में शामिल नहीं हुआ तो वह क्या सोचेंगे?’
‘सोचने दो!’ अम्मा बोलीं, ‘पर हमें तो शांति से रहने दो।’
‘अम्मा यह तुम कह रही हो?’ आनंद ने बड़ी कातरता से अम्मा की ओर देखा, ‘वह भी सुखई चाचा के लिए?’
‘हां, बाबू मैं कह रही हूं।’ कहते हुए अम्मा रो पड़ीं। बोलीं, ‘तुम नहीं जानते कि गांव कितना बदल गया है। कितनी राजनीति हो गई है, गांव में। और ई क़ासिम को ले कर तो जैसे हिंदुस्तान-पाकिस्तान बन गया है। रहीमवा फेल हो गया इस के आगे।’
‘क्या?’
‘हां।’ अम्मा बोलीं, ‘जब तुम ने क़ासिम को पिछली दफ़ा बचाया था तब गांव में किसी ने हम से कुछ कहा तो नहीं पर सब की आंखों में हमारे लिए, हमारे घर के लिए घृणा दिखाई देने लगी। और जो आज मियां के घर तुम चले
जाओगे तो रही सही कसर भी निकल जाएगी। समझो कि आग ही लग जाएगी।’
‘क़ासिम को मैं ने बचाया था, यह किस ने बताया तुम को?’
‘पूरा गांव जानता है।’
‘गांव को किसने बताया?’
‘क़ासिम ने।’
‘क्या बताया?’
‘कि आनंद चाचा ने अपने घर में बैठे-बैठे बचा लिया। कहीं जाना भी नहीं पड़ा।’
‘अरे, उस को तो मैं ने मना किया था।’
‘पर वह कहां माना?’ अम्मा बोलीं, ‘पर बाबू तुम मान जाओ!’
‘अब जब पूरा गांव जानता है कि मैं ने क़ासिम को बचाया तो फिर जाने में दिक़्क़त क्या है?’
‘दिक़्क़त है।’
‘क्या?’
‘चिंगारी को शोला मत बनाओ।’ वह बोलीं, ‘आग को लपट मत बनाओ!’
‘ओह!’ कह कर वह एक बार फिर बैठ गया।
थोड़ी देर बाद वह पिता जी के कमरे में गया। वह लेटे हुए थे। उस ने उन से क़ासिम की चर्चा की। बताया कि वह जाना चाहता है सुखई चाचा के घर। मातमपुर्सी के लिए। लेकिन अम्मा मना कर रही हैं। क्या करे वह?
‘मैच्योर हो, राजनीति करते समझते हो, लखनऊ में रहते हो, ख़ुद फ़ैसला ले सकते हो।’ लेटे-लेटे ही पिता जी बोले, ‘इस में मुझ से पूछने की क्या ज़रूरत है?’
वह समझ गया कि पिता जी और अम्मा की राय एक है। फ़र्क़ बस इतना है कि एक डायरेक्ट स्पीच में है, दूसरा इनडायरेक्ट स्पीच में।
तो गांव क्या ज्वालामुखी पर बैठा हुआ है?
उस ने सोचा। और बारहा सोचा।
वह बड़ी दुविधा में पड़ गया। एक तरफ़ सुखई चाचा के प्रति उस की संवेदनाएं थीं, दूसरी तरफ़ अम्मा-पिता जी की भावनाएं थीं, गांव में रहने की मुश्किलें थीं, उन की बात का, उन के मान सम्मान का सवाल था। तीसरी तरफ़ उस की अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता थी, सच का साथ देने का सवाल था। और इस सब में भी सुलगता एक मासूम सा सवाल भी था कि आखि़र वह गांव आया ही क्यों था? मातमपुर्सी करने, क़ासिम के जनाजे़ को कंधा देने, या अपने ही को सूली पर चढ़ाने?
वह जब छोटा था मुहर्रम में ताज़िया उठाना एक फ़र्ज़ होता था गांव के लिए। पूरे गांव के लिए। सब के घर के सामने से ताज़िया गुज़रती। छोटे-बड़े सभी कांधा देते। ताज़िया बनाने के लिए चंदा भी सभी लोग अपनी श्रद्धा से देते। कोई पैसा देता तो कोई अनाज। कोई कुछ नहीं भी देता तो कोई बात नहीं। ठीक वैसे ही जैसे होली में सम्मत जलाने के लिए लोग अपनी इच्छा से लकड़ी, उपला आदि देते। कुछ लंठ लड़के कुछ लोगों के उपले, लकड़ी रात के अंधेरे में उठा ले जाते। इसे सम्मत लूटना कहते। ख़ूब गाली गलौज भरा गायन होता। ढोल नगाड़ा बजता। सम्मत जलती। दूसरी सुबह सम्मत की राख से होली शुरू होती। सम्मत की राख झोली में भर-भर कर छोटे बच्चे मुंह अंधेरे ही राख की होली शुरू कर देते। राख से फिर गोबर, कीचड़ पर आती होली। फिर नहा धो कर रंग की होली शुरू होती। होरिहार अमीर-ग़रीब सब के घर बारी-बारी जाते। दरवाज़े पर पहुंचते ही गाली गलौज भरा कबीर गाते। बैठते। झाल, करताल, ढोलक बजा कर झूम-झूम कर होली गाते। गरी-छुहारा, गुझिया-गुलगुला खाते। और ‘सदा आनंद रहैं एहि द्वारे, मोहन खेलैं होली’ गाते हुए दूसरे दरवाजे़ चले जाते। गांव की मासूमियत, गांव का सौंदर्य और गांव की एकता होली के रंग में और चटक, और सुर्ख़ , और मज़बूत होती जाती। सरसों के फूल की तरह चहकती और अरहर के फूल की तरह महकती।
ताज़िया उठाने के समय भी गांव की यही मासूमियत, गांव का यही सौंदर्य, गांव की यही एकता मुहर्रम की ग़मी के बावजूद गुलज़ार रहती। ऐसे भरा-भरा दिखता गांव कि जैसे अरहर की छीमी गदरा कर पूरा खेत इतराए मह-मह!
क्या यह वही गांव है?
आनंद पुराने दिनों की भीगी यादों से निकल कर अचानक इन तपिश भरे दिनों में लौट आता है। नहीं रहा जाता उस से इस गांव में। सड़क पर आता है तो पाता है कि सड़क किनारे का बरगद ग़ायब है। नहीं मिलती उस घने बरगद की छांव।
गांव से अफना कर वह शहर आ जाता है।
मुनव्वर भाई से मिलता है। गांव के हाल चाल और अपनी तकलीफ़, अपनी नामर्दगी की चर्चा करता है। कहता है कि लगता है कारपोरेट सेक्टर की नौकरी करते-करते वह नपुंसक हो गया है। कहता है, ‘लगता है मुनव्वर भाई इस नपुंसक और हिंसक समाज का मैं भी एक महत्वपूर्ण हिस्सा हूं।’
‘नहीं आनंद जी, ऐसा तो मत कहिए!’ मुनव्वर भाई आनंद को अपनी बाहों में सहारा देते हुए कहते हैं, ‘आप भी ऐसा कहेंगे तो हम लोग क्या करेंगे?’
‘क्यों हम सभी इस नपुंसक और हिंसक समाज का महत्वपूर्ण हिस्सा नहीं हैं?’ वह कहता है, ‘मुनव्वर भाई आप हो न हों, मैं तो हो गया हूं।’ वह रो पड़ता है।
‘मत रोइए आनंद जी। रोने से विचार बौने पड़ जाते हैं।’
‘ठीक बात है!’ वह बोला, ‘मुनव्वर भाई एक प्रेस कानफ्रेंस करना चाहता हूं। कल ही। अरंेज करवा देंगे?’
‘इसी क़ासिम मुद्दे पर?’
‘हां?’
‘आप घुमा फिरा कर महंत जी पर, उन की हिंदू युवा वाहिनी पर फा़ेकस करेंगे, उन को दोषी बताएंगे।’
‘बिलकुल!’
‘एक लाइन कहीं नहीं छपेगी।’
‘क्यों?’ आनंद बोला, ‘क्या सारे अख़बार महंत जी या हिंदू युवा वाहिनी के पेरोल पर हैं?’
‘लगता तो यही है।’
‘या उन का आतंक है?’
‘दोनों कह सकते हैं।’
‘प्रेस कानफ्रेंस फिर भी करना चाहता हूं।’
‘देखिए आनंद जी इस मसले पर मैं ख़ुद बयानबाजी कर चुका हूं। एक दिन दो अख़बारों में एक-एक पैरा बयान छपा। वह भी तोड़-मरोड़ कर। सिर्फ़ इतना सा कि न्यायिक जांच की मांग! बस। फिर आगे के दिनों में भी मैं बयान भेजता रहा, किसी अख़बार ने सांस नहीं ली।’
‘एक पैरा, दो पैरा छपेगा न!’ आनंद बोला, ‘और जो न भी छपे तो भी प्रेस कानफ्रेंस करने में कोई नुक़सान तो नहीं है न?’
‘नहीं, नुक़सान तो नहीं है।’
‘फिर करवाइए।’ आनंद बोला, ‘मैं कुछ ऐसे सच रखूंगा कि अख़बार वालों को छापना ही पड़ेगा।’
‘ठीक बात है।’
‘इलेक्ट्रानिक चैनलों को भी हो सके तो बुलाइए।’
‘ठीक है।’ मुनव्वर भाई बोले, ‘पर इस का ख़र्चा वर्चा कौन उठाएगा।’
‘किस का?’
‘प्रेस कानफ्रेंस का।’
‘अरे, चाय नाश्ता ही तो लगेगा।’
‘चाहिए तो लंच भी।’
‘अरे नहीं।’
‘प्रेस क्लब का किराया भी लगेगा।’
‘चलिए ठीक है।’
फिर पता चला कि प्रेस क्लब आलरेडी एक नेता जी और एक व्यापारिक संस्थान की प्रेस कानफ्रेंस के लिए उस दिन बुक है। मुनव्वर भाई बोले, ‘वैसे भी इस चुनावी हवा में यहां एक अख़बार तो बाक़ायदा विज्ञापनों की तरह ख़बरों का भी रेट बांध दिए है। कि इतने बाई इतने की ख़बर का इतना पैसा, इतने बाई इतने के कवरेज का इतना, इंटरव्यू का इतना, इस का इतना, उस का इतना पैसा!’
‘ओह!’ आनंद बोला, ‘तो यह रोग यहां भी आ गया?’
‘रोग?’ मुनव्वर भाई बोले, ‘महामारी बन गया है। शरीफ़ और ईमानदार आदमी की ख़बर तो छपने से रही। ब्लैक आउट जैसी स्थिति है। अब तो जिस के पास ब्लैक मनी है, वही अपनी ख़बर छपवा सकता है।’
‘ये तो है।’
‘क्या यह सिलसिला लखनऊ में भी है?’ मुनव्वर भाई ने उत्सुकता से पूछा।
‘लखनऊ?’ आनंद बोला, ‘क्या लखनऊ इस देश से बाहर है? अरे, दिल्ली के एक प्रतिष्ठित कहे जाने वाले अंगरेज़ी अख़बार ने तो बाक़ायदा रेट कार्ड छाप दिए हैं। और मध्यप्रदेश के एक अख़बार मालिक ने तो साफ़-साफ़ कह दिया है कि पहले रिपोर्टर पैसा ले कर ख़बर छापते थे तो हम को लगा कि सीधे हम ही क्यों न पैसा ले लें?’
‘मतलब अनैतिक कार्य को नैतिक जामा दे दिया?’ मुनव्वर भाई ने पूछते हुए कहा, ‘फिर तो वह दिन आने में भी ज़्यादा समय नहीं है कि हत्या, बलात्कार या चोरी आदि का भी रेट तय हो जाएगा, क़ानूनी रूप से कि इतना पैसा दे कर कत्ल कर लो, इतना पैसा दे कर बलात्कार, इतना पैसा दे कर चोरी, इतने का डाका, इतने का यह, उतने का वह!’ मुनव्वर भाई बोले, ‘आखि़र हमारा समाज जा कहां रहा है? हम कहां तक जाएंगे?’
‘क्यों सांसद या विधायक पैसे ले कर सरकार बनवा या गिरा सकता है, संसद या विधान सभा में सवाल उठा सकता है, पैसे ले कर तो यह क़ानून भी किसी रोज़ बनवा ही सकता है। इस में अनहोनी क्या है? अफ़ज़ल गुरु को फांसी देने से मुसलमान नाराज़ हो सकता है, यह बात हमारी सरकार जानती है, पर इस से संसद पर हमले में कुर्बान हो जाने वाले शहीदों के मनोबल पर या समूचे फ़ोर्स के मनोबल पर क्या असर पड़ता है, सरकार यह कहां जानती है?’
‘आप भी आनंद जी कभी-कभी भाजपा लाइन पर चले जाते हैं।’
‘अच्छा देश की अस्मिता पर बात करना भाजपाई हो जाना होता है?’ वह बोला, ‘यह तो हद है। और फिर इसी तर्ज़ पर जो मैं कहूं कि आप लीगी हो जाते हैं! तो इस के क्या मायने हैं?’
फिर थोड़ी देर दोनों चुप रहे।
‘प्रेस कानफ्रेंस होगी भी?’ आनंद चुप्पी तोड़ते हुए बोला।
‘क्यों नहीं होगी?’ मुनव्वर भाई बोले, ‘पर प्रेस क्लब ख़ाली तो हो।’
‘अच्छा आप प्रेस क्लब के अध्यक्ष का नंबर दीजिए।’
मुनव्वर भाई ने नंबर दे दिया।
आनंद ने प्रेस क्लब के अध्यक्ष से बात की और कहा कि, ‘सुना है आप के क्लब में कल दो-दो प्रेस कानफ्रेंस हैं।’
‘हां, हैं तो।’
‘तीन प्रेस कानफ्रेंस हो जाएं तो?’
‘तीन क्या चार-पांच-छह जो चाहिए कर लीजिए।’ अध्यक्ष बोला, ‘बस एक दूसरे का टाइम नहीं टकराना चाहिए।’
‘ठीक बात है।’ आनंद बोला, ‘बाक़ी दोनों प्रेस कानफ्रेंस कब हैं?’
‘एक बारह बजे दिन में, एक दो बजे दिन में।’
‘तो एक चार बजे शाम को भी रखवा दीजिए।’
‘ठीक है।’ अध्यक्ष बोला, ‘पर अगर इस के पहले वाली थोड़ी देर भी खिंची तब आप को रुकना होगा।’
‘रुक जाएंगे।’ आनंद बोला, ‘बुकिंग का सुना है आप लोग पैसा भी लेते हैं।’
‘हां, एक घंटे का ढाई सौ रुपए, ज़्यादा का पांच सौ रुपए!’
‘और जो हमारे पास पैसे न हों तो?’
‘तो क्या?’ वह ज़रा रुका और बोला, ‘सोचते हैं। मित्रों से बात करते हैं। अपने प्रेस कानफ्रेंस का परपज़ बता दीजिए, कोशिश करेंगे कि फ्ऱी में भी आप का हो जाए।’
‘देखिए हमारा इशू सोशल है। पोलिटिकल या इकोनामिकल नहीं है!’
‘तो ठीक है, कोशिश करता हूं कि हो जाए!’
थोड़ी देर में उस ने फ़ोन दुबारा किया प्रेस क्लब के अध्यक्ष को तो वह बोला, ‘आप वो विश्वविद्यालय छात्र संघ वाले आनंद जी हैं?’
‘हां हूं तो। क्यों क्या हुआ?’
‘नहीं हम को किसी ने बताया कि आप राजनीति तो कब की छोड़ चुके हैं!’
‘तो मित्र आप को मैं ने कब कहा कि मैं राजनीति पर प्रेस कानफ्रेंस करूंगा?’ वह बोला, ‘मैं ने तो आप को पहले भी कहा था कि सोशल इशू पर प्रेस कानफ्रेंस करनी है।’
‘नहीं-नहीं!’ अध्यक्ष बोला, ‘वो पैसे वाली बात थी दरअसल! अगर आप ढाई सौ रुपए जमा कर देते तो!’
‘चलिए जमा कर देते हैं। बताइए कब और कहां जमा कर दें।’
‘वहीं प्रेस क्लब चले जाइए। आदमी मिल जाएगा।’ अध्यक्ष बोला, ‘आप चाहें तो कल उसी समय भी जमा कर सकते हैं।’
‘नहीं अभी जमा करवा देते हैं। आप अपने आदमी को बता दीजिए। हम थोड़ी देर में पहुंचते हैं।’
फिर जब वह प्रेस क्लब की ओर चलने को हुआ तो मुनव्वर भाई बोले, ‘आनंद जी आप को जाने की ज़रूरत नहीं है। मैं किसी चेले को लगा देता हूं।’
‘पर पैसे?’
‘वह भी हो जाएगा।’
‘चलिए ठीक है।’ आनंद बोला, ‘पर एक काम मुनव्वर भाई आप को और करना होगा।’
‘क्या?’
‘मेरे गांव जाना होगा। और गुपचुप!’
‘क्या करने?’
‘सुखई चाचा और क़ासिम के पिता को लिवा लाने!’
‘चलिए किसी चेले को भेज देता हूं।’
‘ना!’ आनंद बोला, ‘यह काम चेले के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता।’
‘विश्वसनीय आदमी है।’
‘कितना भी विश्वसनीय क्यों न हो!’ आनंद बोला, ‘मुनव्वर भाई मामला सेंसिटिव है और आप को बताऊं कि हमारा गांव इस वक़्त जैसे ज्वालामुखी पर बैठा हुआ है।’ वह बोला, ‘मुनव्वर भाई समझिए। नहीं मैं ख़ुद नहीं चला जाता?’
‘चलिए मैं ही जाता हूं।’ वह बोले, ‘कोई गाड़ी की व्यवस्था करनी पड़ेगी बस!’
‘गाड़ी से नहीं, बस से जाइए। पूरी ख़ामोशी से। और उसी ख़ामोशी से लौट आइए। ऐसे कि जैसे आप गए ही नहीं हों।’
‘ठीक है भाई!’ मुनव्वर भाई बोले, ‘पर जो वह लोग नहीं आए तो?’
‘आप मुझे बताइएगा। वह लोग चुपचाप आ जाएंगे। और जो फिर भी कोई दिक़्क़त हो तो फ़ोन पर मेरी बात करवा दीजिएगा।’
फिर उस ने अपने गांव का अता पता और पूरा नक़्शा बना कर दिया मुनव्वर भाई को। सुखई चाचा के घर का रास्ता समझाया। और कहा कि, ‘जितने कम से कम लोगों से आप मिलेंगे और जितनी कम से कम आप बात करेंगे,
वही अच्छा रहेगा।’
‘अच्छी बात है।’
‘और इस लिए भी आप को भेज रहा हूं कि आप तजुर्बेकार हैं और कोई बात बने-बिगड़ेगी तो आप संभाल लेंगे। और कि कोई अप्रिय स्थिति आई भी तो आप निपट लेंगे।’
‘कोशिश करते हैं भाई आनंद जी, बाक़ी तो अल्ला के हाथ है।’ कह कर उन्हों ने अपने दोनों हाथ ऊपर उठा लिए।
‘और हां, देखिएगा जो क़ासिम की कोई छोटी बड़ी फ़ोटो मिल जाए तो वह भी ले आइएगा।’
‘ठीक बात है।’
‘तब तक के लिए कोई एक चेला बुलाइए जो प्रेस कानफ्रेंस की चिट्ठी अख़बारों के द़तर पहुंचा सके, और इसे टाइप-वाइप भी करवा दे। फिर आप मेरे गांव जाइए।’
मुनव्वर भाई ने एक नहीं दो तीन चेले फ़ोन कर के बुलवा लिए। एक को प्रेस कानफ्रेंस का मज़मून लिख कर टाइप करवाने को भेज दिया। फिर वे तीनों ही अख़बारों के द़तर चिट्ठी ले कर चले गए। मुनव्वर भाई जब आनंद के गांव जाने लगे तो कहने लगे, ‘एक से भले दो!’
‘मतलब?’
‘अगर आप की इजाज़त हो तो कोई एक संजीदा सहयोगी साथ में आप के गांव लेता जाऊं?’
‘यह आप के विवेक पर है।’
‘नहीं मुझे थोड़ी सुविधा रहेगी और संबल भी।’
‘जैसा आप चाहें।’ वह बोला, ‘और हां, यहां के अख़बारों के संपादकों और संवाददाताओं का फ़ोन नंबर हो तो दे दीजिए।’
‘संपादक तो ऐज़ सच यहां किसी अख़बार में हैं नहीं। हां, सो काल्ड एडीटोरियल इंचार्ज टाइप कुछ हैं, उन के नंबर और कुछ रिपोर्टर के नंबर इस डायरी में हैं, सब के नाम और अख़बार सहित।’ वह अपनी डायरी आनंद को देते हुए बोले,
‘आप इस को रख लीजिए।’
‘फिर आप का काम बिना डायरी के कैसे चलेगा?’ कहते हुए वह मुसकुराया कुछ-कुछ उसी अर्थ में कि अख़बार, डायरी ख़ान!
मुनव्वर भाई उस का निहितार्थ समझते ही सावधान हो गए और गंभीरता ओढ़ते हुए बोले, ‘तो मैं चलता हूं।’ कह कर वह चले गए।
आनंद के गांव वह अकेले ही गए। गांव में ज़्यादा दिक़्क़त उन्हें नहीं हुई। सुखई चाचा का घर भी उन्हें आसानी से मिल गया। पर सुखई चाचा और क़ासिम के पिता दोनों ही शहर आने को तैयार नहीं हुए। मुनव्वर भाई ने फिर आनंद से फ़ोन पर बात करवाई। सुखई चाचा बोले, ‘तिवारी बाबा अब कुछ भी हो जाए हमारा क़ासिम तो हम को वापस मिलेगा नहीं, वह ज़िंदा तो होगा नहीं। हम तो उस को दफ़ना भी दिए। अब कोई फ़ायदा नहीं।’
‘पर एक बार मेरे लिए आ जाइए। ताकि मैं न मरूं, जिं़दा रह सकूं।’
‘अइसा मत बोलिए बाबा, हम लोग आ रहे हैं।’ सुखई चाचा द्रवित हो गए और उन का गला रुंध गया।
वह जब तक आए तब तक रात हो चुकी थी। खा पी कर सभी सो गए। सादिया ने सब को खिलाने पिलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। बिलकुल भक्ति भाव से। सोने जाते समय आनंद ने सादिया से पूछा, ‘और अम्मी कैसी हैं?’
‘ठीक हैं। पर अब बीमार बहुत रहती हैं।’
‘क्या हो गया?’
‘कुछ नहीं बस बुढ़ापा है।’
‘उन से कल मिलना हो सकता है?’
‘ठीक है कल बुलवा दूंगी।’
‘हां, कल रात की ट्रेन से मेरी वापसी है।’
दूसरे दिन प्रेस कानफ्रेंस में जाने के पहले उस ने सुखई चाचा से कहा कि, ‘आप बस साथ में बैठे रहिएगा। और जो कोई कुछ पूछे तो जो भी सच है, वह बोल दीजिएगा।’
‘का इंक्वायरी होगी।’
‘नहीं, नहीं। बस बातचीत।’
सुखई चाचा मान गए।
प्रेस कानफ्रेंस समय से शुरू हो गई। आनंद ने ख़ुद एड्रेस किया। पत्रकारों को स्पष्ट रूप से बता दिया कि, ‘मैं किसी राजनीतिक पार्टी से जुड़ा नहीं हूं न ही किसी पार्टी का सदस्य हूं। फिर भी यह प्रेस कानफ्रेंस कर रहा हूं तो सिर्फ़ इस लिए कि यह मेरे गांव का मामला है। मेरे गांव का एक निर्दोष और मासूम लड़का बिना किसी कु़सूर के मारा गया है। उस की हत्या की गई है और पुलिस द्वारा उसे मुठभेड़ का नाम दिया गया है। वह किसी बैंक डकैती में शामिल नहीं रहा। उस का कोई आपराधिक इतिहास नहीं रहा। हां, मुठभेड़ का नाटक रचने वाले दारोग़ा का इतिहास हम ज़रूर बताना चाहते हैं। इस यादव दारोग़ा ने क़ासिम को पहले भी गिऱतार किया था, आज़मगढ़ के एक लड़के के साथ। और इसे आतंकवादी बताया था। इस मसले पर मैं ख़ुद व्यक्तिगत रूप से लखनऊ मेें प्रमुख सचिव गृह से मिला था। उन्हों ने मेरे अनुरोध पर ए.टी.एस. से इस मामले की जांच करवाई थी। और क़ासिम को निर्दोष बताया था। न सिर्फ़ क़ासिम को निर्दोष बताया बल्कि इस दारोग़ा को दोषी पा कर सस्पेंड कर लाइन हाज़िर कर दिया था। लेकिन चूूंकि यह दारोग़ा क़ासिम को फांसने की फ़ीस ले चुका था सो दुबारा शहर में तैनाती मिलने पर इस ने बैंक डकैती की कहानी गढ़ी और निर्दोष क़ासिम की हत्या कर दी। पुलिस इनकाउंटर का नाम दे दिया। क़ासिम के परिवार को मैं व्यक्तिगत रूप से जानता हूं। वह वर्षों से विपन्नता में ही जी रहा है।’
‘वह कौन लोग हैं जिन्हों ने क़ासिम की हत्या की फीस दारोग़ा को दी थी?’ एक पत्रकार ने सवाल किया।
‘हमारे ज़िले में एक नया तालिबान उठ खड़ा हुआ है, हिंदू तालिबान जो गांव-गांव में पैर पसार चुका है। मेरे गांव में भी है। सांप्रदायिकता का यह एक नया व्याकरण है। शासन और स्थानीय प्रशासन इन के चरण पखार रहा है, यह शर्मनाक है।’ वह बोला, ‘यह लोग हिंदू संस्कृति की दुहाई दे कर हिंदू संस्कृति को भी नष्ट कर रहे हैं। न सिर्फ़ नष्ट कर रहे हैं हिंदू संस्कृति की ग़लत व्याख्या भी कर रहे हैं। खुले आम अपराधियों को गले लगा रहे हैं और तर्क दे रहे हैं कि अब माला के साथ भाला भी ज़रूरी है। आप लोग जानते हैं कि मैं भी हिंदू हूं, आप में से भी अधिसंख्य हिंदू ही हैं, हिंदू संस्कृति में हिंसा की कोई जगह नहीं है, मैं भी जानता हूं और आप सब भी!’
‘आप का इशारा महंत जी और उन की हिंदू युवा वाहिनी की तरफ़ तो नहीं है?’ एक दूसरे पत्रकार ने पूछा।
‘मेरा इशारा नहीं, सीधी चोट है इन आपराधिक शक्तियों पर, इन की ताक़त को हम कुचलने का, नेस्तनाबूद करने का आप सभी से आह्वान करते हैं। साथ ही निवेदन भी करना चाहते हैं कि अपने गांव, अपने मुहल्ले, अपने शहर, अपने
ज़िले, अपने प्रदेश, अपने देश और अपने समाज को ज्वालामुखी पर मत बैठाइए, मत बैठने दीजिए। हिंदू, मुस्लिम के चश्मे से चीज़ों को मत देखिए!’
‘मतलब आप चाहते हैं कि हर गांव, हर मुहल्ले, हर शहर, हर ज़िले में एक पाकिस्तान का निर्माण ज़रूरी है, तभी अमन चैन से हम लोग रह सकते हैं?’ एक पत्रकार लगभग हांफते हुए बहुत उत्तेजित हो कर बोला।
‘नहीं, ऐसा तो मैं ने नहीं कहा।’ आनंद इस सवाल पर हतप्रभ था।
‘नहीं आप जैसे सूडो सेक्यूलरिस्टों की बातों का लब्बोलुबाब होता तो यही है।’
‘मैं सेक्यूलरिस्ट हूं पर सूडो सेक्यूलरिस्ट नहीं हूं।’
‘आप को पता है आज कल देश में आए दिन फुटकर आतंकवादी घटनाएं क्यों बंद हैं? कैसे बंद हो गई हैं?’
‘मैं तो समझता हूं कि प्रशासनिक कड़ाई और फिर पाकिस्तान के बिगड़े हालात के कारण ऐसा हो पाया है।’
‘जी नहीं।’ वह पत्रकार बोला, ‘जब से साध्वी प्रज्ञा, कर्नल पुरोहित और दयाशंकर पांडेय जैसे हिंदूवादियों की गिऱतारी हुई है और इन मुसलमानों को पता लग गया कि अब इन के ठिकानों पर, मस्जिदों और ईदगाहों पर भी हमले हो सकते हैं, इन को भी मारा जा सकता है, तब से ही इन की रुह कांप गई है।’ वह उत्तेजित हो कर बोला, ‘लोहा, ही लोहे को काटता है। तो यह लोग डर गए हैं सो फुटकर आतंकवादी घटनाएं बंद हो गई हैं। गुजरात का सबक़ भी एक फै़क्टर है।’
‘भई मेरे लिए यह नई जानकारी है। फिर भी मैं इस बात पर अडिग हूं कि किसी भी सभ्य समाज में हिंसा की कोई जगह नहीं है। वह चाहे हिंदू हिंसा हो, चाहे मुस्लिम हिंसा।’
‘वह तो ठीक है आनंद जी!’ एक दूसरा पत्रकार बोला, ‘आप तो लखनऊ में रहते हैं आप क्या जानें यहां के हिंदू और मुसलमान को। आप को बताऊं कि अगर यह महंत जी न हों, और यह उन की वाहिनी न रहे तो यहां के मुसलमान हिंदुओं को भून कर खा जाएं! क्यों कि सरकारें तो सांप्रदायिकता से लड़ने के नाम पर सिर्फ़ मुस्लिम वोटों को अपनी-अपनी तिजोरी में भरने के फेर में पड़ी हैं। वोट बैंक बना रही हैं। बाक़ी पार्टियां भी यही कर रही हैं।’
आनंद चुप रहा।
‘आप को पता है आनंद जी, कि देश के दलित, पिछड़े, और मुसलमान देश के नागरिक नहीं, अब देश के दामाद हैं। वह दामाद जिन को दहेज में रत्ती भर भी कमी हुई तो देश नाम की दुलहन को जला कर मार डालने में सेकेंड भर की
भी देरी नहीं करेंगे। इस लिए अब समूचा देश इन से डरता है।’
‘देखिए मित्रों हम लोग प्रेस कानफ्ऱेंस में हैं। किसी गोष्ठी, सेमिनार, विमर्श या काफ़ी हाउस में नहीं हैं। और इस प्रेस कानफ्रें़स का सिर्फ़ और सिर्फ़ एक ही विषय है एक निर्दोष नौजवान की पुलिस द्वारा हत्या। जिसे पुलिस मुठभेड़ कहती है।’ वह बोला, ‘मैं फिर दुहराना चाहता हूं कि इस यादव दारोग़ा ने पहले इस नौजवान को आतंकवादी बता कर फंसाने की कोशिश की। पर जब प्रमुख सचिव गृह ने हस्तक्षेप कर आतंकवाद विरोधी दस्ता ए.टी.एस. से इस पूरे मामले की मेरिट पर जांच करवाई, और इस जांच में क़ासिम न सिर्फ़ निर्दोष साबित हुआ बल्कि इस यादव दारोग़ा को इसी आरोप में सस्पेंड कर लाइन हाज़िर किया गया। फिर बहाल होने पर इसी दारोग़ा ने इस क़ासिम की हत्या कर दी और इस हत्या को पुलिस इनकाउंटर बता दिया। मैं प्रशासन से इस पूरे मामले की न्यायिक जांच की मांग करता हूं और साथ ही इस हत्या में शामिल सभी पुलिस कर्मियों के खि़लाफ़ कड़ी क़ानूनी कार्रवाई की मांग करता हूं। जिस में इन दोषी पुलिस कर्मियों के खि़लाफ़़ इरादतन हत्या का मुक़दमा दर्ज कर इन्हें जेल भेजा जाए, इन पर मुक़दमा चलाया जाए, यह मांग भी करता हूं। क़ासिम के परिजनों को पांच लाख रुपए मुआवज़ा भी दिया जाए। आज ही इस बारे में ज़िलाधिकारी को ज्ञापन भी हम देंगे और इस की कापी कल लखनऊ में मुख्यमंत्री, मुख्य सचिव और प्रमुख सचिव गृह को भी देंगे। इस ज्ञापन की कापी राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, देश के गृहमंत्री, सुप्रीम कोर्ट के माननीय चीफ जस्टिस, हाई कोर्ट के माननीय चीफ जस्टिस, मानवाधिकार आयोग और अल्पसंख्यक आयोग को भी भेज रहा हूं।’ आनंद ने कहा, ‘इस विषय में कोई और सवाल या जानकारी आप पूछ सकते हैं। यहां क़ासिम के पिता तथा उस के पितामह भी उपस्थित हैं, आप चाहें तो उन से भी जो सवाल चाहें पूछ सकते हैं। रही बात बाक़ी बहस की तो मैं उस से भी कतरा नहीं रहा हूं। आप लोगों द्वारा उठाए गए बाक़ी सवाल भी महत्वपूर्ण हैं, मुझे झकझोर गए हैं आप के वह सवाल। पर उन मसलों पर हम लोग फिर कभी बैठ लेंगे। पर अभी तो इसी विषय पर आप लोग बात करें तो ख़ुशी होगी।’
प्रेस कानफ्ऱेंस में जैसे सन्नाटा सा खिंच गया।
आनंद समझ गया कि प्रेस कानफ्रें़स अब ख़त्म है। फिर भी उस ने पूछा, ‘मित्रों कोई सवाल, कोई बात हो तो पूछें।’
‘नहीं भाई साहब अब कोई सवाल नहीं है। सारी बातें साफ़ हैं। इतना तो हम लोग भी जानते हैं कि पुलिस इनकाउंटर अमूमन फ़र्ज़ी ही होते हैं। यह भी फ़र्ज़ी है। पर क़ासिम को आतंकवादी भी बनाने की कोशिश की थी पुलिस ने, यह बात ज़रूर हम लोगों के लिए नई है।’ एक पत्रकार बोला।
‘इतना ही नहीं, इस पुलिस ने क़ासिम का कनेक्शन आज़मगढ़ से भी जोड़ने की कोशिश की थी।’ आनंद बोला, ‘और क़ासिम के एक सहपाठी जो कि आज़मगढ़ का ही था, उस के साथ ही गिऱतार भी किया था।’
‘तो उस आज़मगढ़ी लड़के का क्या हुआ?’ एक पत्रकार ने पूछा।
‘वह भी निर्दोष निकला। और अभी वह ज़िंदा है।’
‘आप को कैसे पता?’
‘वह इसी शहर में पढ़ता है, आप को मैं ने बताया भी कि वह क़ासिम का सहपाठी है। और कि पुलिस द्वारा क़ासिम के मारे जाने के बाद यानी उस की हत्या के बाद वह क़ासिम के गांव, उस के घर गया था, ऐसा क़ासिम के पितामह
श्री सुख मुहम्मद ने मुझे बताया है, जो कि यहां मेरे साथ, मेरे बग़ल में उपस्थित हैं। चाहंे तो आप लोग इन से दरिया़त कर सकते हैं।’ आनंद ने यह कह कर माइक सुखई चाचा की तरफ़ बढ़ा दिया।
‘क़ासिम के उस दोस्त का नाम क्या है?’ एक पत्रकार ने सुख मुहम्मद को इंगित कर पूछा।
‘इरफ़ान!’ बोलते समय सुख मुहम्मद का गला रुंध गया।
‘आप कैसे जानते हैं उसे?’ उस पत्रकार ने फिर पूछा।
‘क़ासिम का दोस्त था। दो तीन दफ़ा मेरे घर भी आया था, अपने घर आज़मगढ़ जाते समय।’
‘वह सचमुच आतंकवादी नहीं है, आखि़र आज़मगढ़ का है।’
‘हम को ई सब नहीं मालूम।’ सुख मुहम्मद बोले, ‘हम बस इतना जानते हैं साहब कि क़ासिम बदमाश नहीं था, आतंकवादी नहीं था!’ कह कर सुख मुहम्मद फूट-फूट कर रोने लगे। बग़ल में बैठा उन का बेटा और क़ासिम का पिता बिस्मिल्ला भी फूट-फूट कर रोने लगा।
फ़ोटोग्राफ़रों के कैमरों के लैश चमकने लगे। इलेक्ट्रानिक मीडिया के कैमरों ने भी सुख मुहम्मद और बिस्मिल्ला की रुलाई को शूट करना शुरू कर दिया। उन को रोने की बाइट मिल गई थी। आनंद समझ गया कि कल के अख़बारों में ख़बर उस की प्रेस कानफ्रेंस की नहीं सुख मुहम्मद और बिस्मिल्ला के रोने की ज़्यादा बनेगी।
प्रेस कानफ्रेंस ख़त्म हो चुकी थी। अब सुख मुहम्मद और बिस्मिल्ला के इंटरव्यू और फ़ोटो ख्ंिाच रहे थे। भीड़ में किनारे खड़े मुनव्वर भाई ने आंखों ही आंखों में आनंद को इशारा किया कि ‘काम तो हो गया है!’ आनंद ने भी आंखों से ही मुनव्वर भाई को सहमति में संदेश दिया। किंचित मुसकुरा कर।
हालां कि इस घड़ी में उस को अपना यह मुसकुराना अच्छा नहीं लगा और वह दूसरे ही क्षण झेंप गया।
वह अपनी कुर्सी से धीरे से उठ खड़ा हुआ। पत्रकारों की भीड़ में आ गया। उधर कुछ पत्रकार सुखई चाचा का एक्सक्लूसिव इंटरव्यू करने में लगे थे।
पत्रकारों का चाय, नाश्ता भी जारी था। और बातचीत भी। शहर के कुछ लोग भी आ गए थे। बात राजनीति की फिर शुरू हो गई थी। शहर के सांप्रदायिक रंग में रंग जाने की बात हो रही है। आनंद हकबक है कि शहर की राजनीति के इस क़दर पतन पर कि पत्रकार भी अब सवाल ले कर नहीं पक्षकार बन कर खड़े हैं। वह सवाल पत्रकार के चश्मे से नहीं, हिंदू मुसलमान के चश्मे से पूछ रहे हैं। धर्मनिरपेक्षता, सामाजिक एकता, सांप्रदायिकता विरोध, समरसता या सभ्य समाज की कल्पना उन की सोच, उन के एजेंडे, उन के सवाल या सरोकार में नहीं है। वह अपने एक पुराने मित्र से पूछ भी रहा है यह सब जो उस की छात्र राजनीति के समय के साथी हैं, पहले गज़लें लिखते थे, अब पत्रकार हो चले हैं और प्रेस कानफ्रेंस में कवरेज के लिए नहीं आनंद से मिलने के लिए आ गए हैं। वह पूछ रहा है कि, ‘बताइए अशोक जी ऐसे कैसे चलेगा? पत्रकारिता जो राजनीति के लिए महावत का काम करती थी, राजनीति में पद के मद पर अंकुश रखती थी, वह पत्रकारिता ही मदमस्त हो जाए, महावत ही जब बिगड़ैल हो जाए तो हाथी कैसे संभलेगा भई? आप ही बताइए?’
‘क्या बताएं आनंद जी अब सब ऐसे ही चलने वाला है। और जो पत्रकार यह सब नहीं कर रहे मेरी तरह उपेक्षित हो कर सिर्फ़ नौकरी कर रहे हैं।’ अशोक जी बोले।
‘कुछ नहीं आनंद जी आप तो शुचिता, नैतिकता वग़ैरह करते-करते राजनीति से बाहर हो गए। क्या चाहते हैं हम पत्रकार भी आप की तरह यही सब करते हुए पत्रकारिता से भी बाहर हो जाएं? फिर शहर से भी बाहर हो जाएं? आप ही बताएं?’ एक युवा पत्रकार पूछ रहा है आनंद से।
‘मतलब?’ आनंद धीरे से बोला, ‘मैं समझा नहीं।’
‘समझना क्या है आनंद जी!’ युवा पत्रकार बोला, ‘ज़माना बदल रहा है, आप भी बदलिए। इंटरनेट का ज़माना है, दुनिया हाइटेक हो रही है, अब लोग चिट्ठी भी इंटरनेट पर लिख रहे हैं।’
‘तो मित्र आप क्या चाहते हैं कि हम राजनीति भी इंटरनेट पर करें?’
‘बिलकुल!’ वह युवा पत्रकार बोला, ‘इस हाइटेक ज़माने में आप चाहते हैं कि राजनीति में पुराने नुस्खों से सफल होना तो कैसे चलेगा?’
‘अच्छा?’ आनंद उस युवा पत्रकार की बात में दिलचस्पी लेता हुआ बोला।
‘तो और क्या?’ वह युवा पत्रकार चहका, ‘आप राजनीति करेंगे आज के दौर की और औज़ार इस्तेमाल करेंगे मदन मोहन मालवीय, महात्मा गांधी, लोहिया और जयप्रकाश नारायन के ज़माने के? और हम से चाहेंगे कि हम भी पराड़कर, गणेश शंकर विद्यार्थी, चेलापित राव की पत्रकारिता करें? आनंद जी आप ख़ुद तो मर ही गए हैं, हम सब को भी क्यों मारना चाहते हैं? नहीं चलने वाली है यह मूल्यों की राजनीति और पत्रकारिता। अब सिर्फ़ और सिर्फ़ एक ही सूत्र, एक ही नैतिकता और एक ही फ़ार्मूला है, वह है बाज़ार और बाज़ार की सफलता का। चहुं ओर इसी की लीला है। साध सकें तो साधिए नहीं घर बैठिए!’
‘भाई आप को पता नहीं है शायद, मैं कब का घर बैठ चुका हूं। नहीं करता राजनीति अब। मैं जानता हूं कि मदन मोहन मालवीय, गांधी, लोहिया या जे.पी. के पुराने औज़ारों से आज की राजनीति नहीं हो सकती। लेकिन मेरी दिक़्क़त यह है कि मैं इन औज़ारों को छोड़ नहीं सकता। और मनमोहन, आडवाणी, अमर सिंह, मुलायम, मायावती, प्रमोद महाजन, राजीव शुक्ला, लालू, करुणानिधि, जयललिता आदि के औज़ारों को साध नहीं सकता। इसी लिए अब एक छोटी सी प्राइवेट नौकरी करता हूं।’ उस ने जोड़ा, ‘कोई ठेकेदारी नहीं करता, कोई एन.जी.ओ. नहीं चलाता।’
‘तो यह प्रेस कानफ्रेंस?’ युवा पत्रकार अकबका गया।
‘यह क़ासिम नाम का नौजवान हमारे विश्वविद्यालय का छात्र था, हमारे गांव का था, मेरे उस के घर से भावनात्मक रिश्ते हैं, इस लिए उस की तकलीफ़ कहने आ गया था, राजनीति करने नहीं।’
‘अच्छा-अच्छा!’ कहते हुए वह पत्रकार थोड़ा शर्मिंदा हुआ और बोला, ‘माफ़ कीजिएगा सर, मुझे यह जानकारी नहीं थी। मुझे लगा चुनावी मौसम में आप चुनाव लड़ने का आधार बना रहे हैं इसे। आज कल लाशों पर भी राजनीति होती है तो मैं यह सब बक गया। सॉरी!’
‘कोई बात नहीं।’ आनंद बोला, ‘अभी आप की उम्र ही कितनी है, अनुभव ही क्या है?’
‘जी सर!’
‘हां, पर यह अपने भीतर की आग जलाए रखिएगा। और इस का हो सके तो सकारात्मक उपयोग कीजिएगा। नकारात्मक नहीं।’
‘जी बिलकुल!’
फिर अशोक जी के साथ आनंद प्रेस क्लब के बाहर आ गया। सड़क उस पार खड़ा हो कर उस ने सिगरेट सुलगा ली। अशोक जी ने सिगरेट पीने से इंकार कर दिया। बोले, ‘अब छोड़ दी है।’
‘ठीक है कोई बात नहीं।’ कहते हुए उस की नज़र प्रेस क्लब के बोर्ड पर चली गई। उस ने उसे पढ़ते हुए अशोक जी से पूछा, ‘यह जर्नलिस्ट प्रेस क्लब क्या बला है? जर्नलिस्ट भी और प्रेस भी? मतलब आप मनुष्य भी हैं और आदमी
भी?’
‘हां, यह मूर्खता जल्दबाज़ी में हो गई।’ अशोक जी बोले, ‘दरअसल एक प्रेस क्लब और था, उस में विवाद ज़्यादा बढ़ गया था। सो नया प्रेस क्लब बनाना था और उस से अलग भी दिखना था सो जर्नलिस्ट प्रेस क्लब नाम से रजिस्ट्रेशन हुआ और यही लिख दिया गया।’
‘क्या मूर्खता है!’ आनंद बोला, ‘लखनऊ में भी दो प्रेस क्लब हैं और दोनों ही प्रेस क्लब लिखते हैं। दोनों का अलगाव विचारधारा के कारण है। पर दोनों ही धड़ों के लोग आपस में मिलते जुलते हैं। दोनों ही सरकारी सहायता से चलते हैं।’
‘पर यहां तो महंत जी और कुछ तिवारी टाइप माफ़ियाओं के आशीर्वाद से चलता है यह जर्नलिस्ट प्रेस क्लब! सो कई बार नान जर्नलिस्ट भी इस जर्नलिस्ट प्रेस क्लब का अध्यक्ष बन जाता है। पिछले कई सालों तक आकाशवाणी का एक एनाउंसर इस जर्नलिस्ट प्रेस क्लब का अध्यक्ष था, अब एक इलेक्ट्रानिक सामान बेचने वाला दुकानदार अध्यक्ष है।’
‘ओह तभी मैं कहूं कि पत्रकार यहां पक्षकार बन कर क्यों सवाल पूछ रहे थे, बिलकुल भगवा रंग में रंगे हुए सवाल। एक तरफ़ा सवाल।’ उस ने पूछा, ‘तो महंत जी ने इन पत्रकारों को ख़रीद रखा है या धमका रखा है?’
‘कुछ नहीं!’ अशोक जी बोले, ‘वह पत्रकारों से बैठने को कहते हैं तो ये कुकुरमुत्ते लेट जाते हैं। हाता और मंदिर में बंट जाते हैं।’
‘हाता और मंदिर मतलब?’ वह ज़रा रुका और बोला, ‘मतलब माफ़िया तिवारी और माफ़िया महंत?’
‘हां। और क्या?’ अशोक जी बोले, ‘कुछ दोनों जगहों पर मत्था टेकते हैं और हाज़िरी लगाते हैं। कुछ-कुछ एक-एक जगह ही। और तो और कवि, शायर, लेखक, प्राध्यापक, वाइस चांसलर, वकील, जज, राजनीतिक सभी किसी न किसी के यहां
मत्था टेकने जाते ही हैं। और फिर छाती फुला कर लौटते हुए बताते हैं कि, ‘हाता से आ रहा हूं। या फिर मंदिर से आ रहा हूं। बड़ी भयावह तसवीर है।’
‘मतलब सारे बुद्धिजीवी हाता या मंदिर से पेटेंट लिए हुए हैं?’
‘हां भई हां।’ अशोक जी खीझ कर बोले।
‘और आप?’ आनंद ने जैसे पिन चुभोया अशोक जी को।
‘जी मैं?’ अशोक जी की खीझ और बढ़ गई। बोले, ‘आप का दिमाग़ ख़राब हो गया है? मैं क्यों पेटेंट कराने जाने लगा हाता या मंदिर? यही गाली सुनने के लिए आप से मिलने आया था यहां?’ वह पूरी तरह भड़क गए।
‘सॉरी अशोक जी!’ आनंद ने अशोक जी का हाथ पकड़ते हुए कहा, ‘मैं ने तो बस रुटीन में पूछ लिया था। आप का दिल दुखाने का इरादा मेरा बिलकुल नहीं था। मैं जानता हूं आप इन में से नहीं हो सकते। भेंड़ चाल में नहीं समा सकते आप! अगेन सॉरी!’
अब तक मुनव्वर भाई भी सुखई चाचा और बिस्मिल्ला को लिए प्रेस क्लब से बाहर आ गए थे। और सुखई चाचा पूछ रहे थे, ‘बाबा अब?’
‘चाचा अब आप लोग घर जाइए!’ आनंद ने उन्हें सांत्वना दी, ढांढस बंधाया और कहा कि, ‘घबराइए नहीं। क़ासिम को तो हम वापस नहीं ला सकते पर उस हत्यारे दारोग़ा को भी नहीं छोड़ेंगे। सज़ा दिलवाएंगे ही।’ सुखई चाचा फिर रोने लगे। उन की बूढ़ी आंखों में जाने कितने आंसू थे जो थम ही नहीं रहे थे। बिस्मिल्ला भी रो रहा था पर उतना नहीं, जितना सुखई चाचा!
सुखई चाचा को विदा कर वह मुनव्वर भाई के घर आ गया। सादिया की अम्मी आ गई थीं। उसे देखते ही वह उस से धधा कर मिलीं। साथ में अशोक जी भी थे। वह सादिया की अम्मी का ममत्व देख कर उन पर न्यौछावर हो गए। झुक कर पांव छुए। हाथ पैर धो कर सब लोग बैठे ही थे कि सादिया ने सूजी का गरम-गरम हलवा सब के लिए परोस दिया।
हलवा खाते हुए मुनव्वर भाई बोले, ‘भाई आनंद जी प्रेस कानफ्रेंस तो बढ़िया हो गई। और उस से भी अच्छा सुख मुहम्मद चाचा और बिस्मिल्ला भाई के इंटरव्यू हो गए। अब देखिए कल हाथ कितना आता है?’
‘मतलब?’ आनंद ने पूछा।
‘मतलब छप कर कितना और क्या आता है?’ मुनव्वर भाई बोले, ‘सच आनंद जी मुझे क़तई अंदाज़ा नहीं था कि प्रेस कानफ्रेंस इतनी कामयाब हो जाएगी और कि सुख मुहम्मद चाचा और बिस्मिल्ला भाई के बुला लेने से मामला इतना जम जाएगा।’
‘चलिए कुछ हुआ तो!’ आनंद बोला, ‘हो सकता है बात अभी आगे और बढ़े। बस वह ज्ञापन डी.एम. वग़ैरह तक पहुंचवा दीजिएगा।’
‘पहुंचवा दीजिएगा?’ मुनव्वर भाई बोले, ‘आप की प्रेस कानफ्रेंस ख़त्म होने से पहले ही वह डी.एम. के यहां रिसीव हो गया और सभी प्रतिलिपियां रजिस्ट्री हो गईं।’
‘चलिए यह अच्छा किया आप ने।’ आनंद बोला, ‘अब कुल कितना ख़र्चा-वर्चा हो गया, यह भी बता दीजिए।’ कहते हुए उस ने जे़ब से पर्स निकाल लिया।
‘अरे नहीं, इस सब की ज़रूरत नहीं है। आप इसे रखिए।’ मुनव्वर भाई बोले, ‘कौन लाख पचास हज़ार ख़र्च हो गए हैं। इतना ख़र्च तो हमारे साथियों ने ही उठा लिया। हमें भी नहीं पता चला कि क्या ख़र्च हुआ। कल बैठेंगे तो पूछेंगे साथियों से। आप प्लीज़ इसे रखिए।’ हाथ जोड़ते हुए मुनव्वर भाई बोले।
‘फिर भी!’ आनंद बोला, ‘दो तीन हज़ार रुपए तो कम से कम ख़र्च हुए ही होंगे। आप कैसे अकेले अफ़ोर्ड करेंगे?’
‘कर लेंगे। कर लेंगे! बस आप इस को भूल जाइए।’ मुनव्वर भाई बोले, ‘फिर यह हम सब की साझा लड़ाई है! कोई एक अकेले की नहीं।’
‘फिर तो ठीक है आनंद जी।’ अशोक जी बोले, ‘मुनव्वर भाई ठीक कह रहे हैं।’
‘चलिए ठीक है फिर!’ आनंद ने पर्स जेब मंे रख लिया।
बात पुराने दिनों, पुराने दोस्तों की चली। मूल्यों और सिद्धांतों की चौहद्दी में कौन-कौन रहा, कौन-कौन बिछड़ गया। कौन खूंटे में रहा, कौन पगहा तुड़ा गया। कौन कितना गिरा, कौन कितना उठा, कौन-कौन सफल हुआ और कौन-कौन असफल!
‘यहां तो हम तीनों ही असफल लोग बैठे हुए हैं।’ अशोक जी बोले।
‘असफल ही नहीं, हारे हुए लोग भी हैं हम लोग भाई!’ मुनव्वर भाई बोले।
‘मूल्य, सिद्धांत भी हम कितना बचा पाए हैं, इस का भी हिसाब लिया-दिया जाए तो हम शायद वहां भी फिसड्डी निकलेंगे।’ आनंद बोला, ‘लाख कोशिश के बावजूद मैं तो भाई मूल्यों और सिद्धांतों की अपनी नाव में ढेरों छेद किए बैठा हूं।
कि नाव कब डूब जाए पता नहीं है।’ वह बोला, ‘फिर भी जितनी रक्षा कर सकता हूं, करता हूं।’
‘तो हम लोग भी कहां कितना बचा पाए हैं?’ अशोक जी बोले, ‘बस नंगे नहीं हुए हैं।’
‘फिर भी हम लोग असफल क्यों हो गए? क्यों हारे हुए लोगों के रजिस्टर में नाम पता दर्ज करवा बैठे?’ मुनव्वर भाई आह भरते हुए बोले।
‘देखिए जहां तक सफल-असफल की बात है तो भाई मैं तो बहुत साफ़ मानता हूं कि सफलता का कोई तर्क नहीं होता।’ आनंद बोला।
‘बिलकुल!’ अशोक जी धीरे से बोले।
‘सफलता का कोई तर्क नहीं होता पर योग्यता का तर्क होता है। अब अलग बात है कि योग्य व्यक्ति सफल भी हो यह कोई ज़रूरी नहीं है, ठीक वैसे ही सफल व्यक्ति योग्य भी हो, यह कोई ज़रूरी नहीं है।’ आनंद बोला, ‘हमने मानवीयता और मूल्य अपने भीतर बचा रखे हैं इस अमानवीय और बाज़ार से आक्रांत समय में हमारे लिए महत्वपूर्ण यही है। असफल हैं भी तो क्या हुआ? क्या पता कभी हमारा दौर भी आए, अच्छा दौर भी आए।’
‘ये तो है।’ कहते हुए अशोक जी ने जम्हाई ली।
‘वो एक शेर है न!’ आनंद बोला, ‘इक मुसलसल दौड़ में हैं मंज़िलें और फासले/पांव तो अपनी जगह हैं, रास्ता अपनी जगह!’
‘क्या बात है!’ मुनव्वर भाई उछल पड़े, ‘आप की शेरो शायरी गई नहीं, बाक़ी है। अच्छी बात है।’ वह बोले, ‘आप को याद है यूनिवर्सिटी के दिनों में आप अपने भाषणों में जब तब इसी तरह शेर ठोंकते रहते थे। इतना कि राकेश जी जैसे लोग कहते थे कि ऐसा ही रहा तो एक दिन आप तारकेश्वरी सिनहा की छुट्टी कर देंगे।’
आनंद मुनव्वर भाई की इस बात पर मुसकुरा कर रह गया।
थोड़ी देर बाद वह अशोक जी से बोला, ‘आप को याद है फलनवा जो आज कल मिनिस्टर है। एक दिन शराब पीने के लिए मुझे बुला बैठा। कहने लगा पुरानी दोस्ती, पुरानी यादें ताज़ा करेंगे। मैं गया। अच्छा लगा कि उस ने दोस्ती बरक़रार रखी। मिनिस्टर होने का रौब ग़ालिब नहीं कराया। साथ में चार ठो चमचों को नहीं बिठाया। हां में हां मिलाने के लिए। बस हम दो बैठे। बहुत अच्छा लगा। पर थोड़ी देर में बातचीत में अचानक वह कहने लगा कि मैं किसी साइकेट्रिक से मिल लूं!’
‘क्यों?’ अशोक जी भड़के।
‘उस को लगा कि मेरा फ्रस्ट्रेशन बढ़ गया है और कि मैं मेंटली डिस्टर्ब हो गया हूं।’
‘क्या?’
‘हां भाई!’
‘बताइए साला जब यूनिवर्सिटी में था पढ़ाई लिखाई में सिफ़र था, नकल टीपने में चैंपियन! जिस तिस के चरण चांप-चांप कर अब साला मिनिस्टर हो गया तो आप को मेंटल होने का सर्टिफ़िकेट देने लगा है!’
‘हां भई!’ आनंद बोला, ‘और फलनवा जो आज कल सिंचाई मंत्री है एक दिन मुझ से फ़ोन पर पूछने लगा कि ट्रेड यूनियन की नेतागिरी आज़मा रहे हैं क्या?’
‘बताइए भड़ुवा साला, लड़कियों का सप्लायर!’ अशोक जी बोले, ‘हद है कैसे-कैसे लोग ऐसे-वैसे हो गए/ऐसे-वैसे लोग कैसे-कैसे हो गए!’
‘हां, शमशेर ने जब यह लिखा होगा तो जाने कितनी यातना से गुज़रे होंगे तभी तो यह लिख पाए!’ आनंद बोला, ‘वह तो लिख कर अपने को हलका कर गए। हम लोग अपने को कैसे हलका करें? सवाल तो यह है।’
‘ये तो है!’ अशोक जी चिंतित हो कर बोले, ‘पर वह क्यों आप को ट्रेड यूनियन में भेज रहा था?’
‘नहीं, मैं ने उस से कहा भी कि ट्रेड यूनियन अब देश में है कहां जो ट्रेड यूनियन की राजनीति करूंगा? पर वह माना नहीं। पूछता रहा।’ आनंद बोला, ‘असल में वह चीफ़ इंजीनियर बनाने के लिए एक करोड़ रुपए का रेट खोले था, इंजीनियरों को मैं ने समझाया तो वह सब पहले तो गोलबंद हुए पर बाद में टूट गए। तो भी इस का रेट एक करोड़ से गिर कर पचास लाख पर आ गया। और उस पचास लाख में से भी एक पैसा इस को नहीं मिला।’
‘क्यों?’
‘इस लिए कि वह पचास लाख मुख्यमंत्री के हिस्से का था। तो इस का हिस्सा मारा गया। सो हमें ट्रेड यूनियन ज्वाइन करवाने में लग गया।’
‘ओह तो ये बात है!’ मुनव्वर भाई बोले, ‘बताइए कैसे-कैसे लोग आज कल राजनीति कर रहे हैं, बल्कि राजनीति के शिखर पर हैं, आज के युवाओं के रोल माडल हैं। और आलम यह कि एक ढूंढो हज़ार मिलते हैं। औरों की क्या कहूं हमारी कांग्रेस में भी यही सब हो रहा है। कहां गांधी, नेहरू हमारे रोल माडल थे और कहां यह सारे लोग! समझ में नहीं आता कि आदर्शवाद कहां चला गया? कहा बिला गया?’
‘कुछ नहीं मुनव्वर भाई, अब तो आदर्श की आहट भी नहीं मिलती दिखती तो आदर्शवाद को तो गुम होना ही था! और वह हर हलके से गुम है। जहां तक आप लोगों की बात है तो राजनीति में एक शब्द है कंप्रोमाइज़! वही आप लोग
नहीं कर पाए। शायद इसी लिए आप लोग आज राजनीति के हाशिए से भी बाहर हो गए।’ अशोक जी क्षुब्ध हो कर बोले।
‘ये भी एक फै़क्टर तो है।’ आनंद धीरे से बोला।
‘अच्छा भाई आनंद जी अब मैं चलना चाहूंगा। नाइट शि़ट में हूं। सो चलूं काम पर।’ अशोक जी बोले, ‘बरसों बाद आज अच्छी मुलाक़ात हुई आप से। बल्कि आप लोगों से!’
‘क्यों मुनव्वर भाई से भी बरसों बाद मिले हैं आज आप?’ आनंद ने पूछा।
‘हां भई, सच तो यही है। एक शहर में रहते हुए भी हम लोग अजनबियों की तरह रहते हैं। सामने पड़ने पर भी मोड़ पर कतरा कर निकल लेते हैं।’ अशोक जी बोले।
‘इस छोटे से शहर में भी!’ आनंद बोला, ‘यह तो दुर्भाग्यपूर्ण है।’
‘ख़ैर, अब जो है, सो है।’ अशोक जी बोले, ‘अब इजाज़त दीजिए!’
‘अच्छी बात है अशोक जी!’ आनंद बोला, ‘मुझे भी ट्रेन पकड़ने की तैयारी करनी है। हालां कि कुछ और लोगों से भी मिलना था। पर चलिए अगली बार!’
‘अच्छी बात है।’ कह कर अशोक जी बारी-बारी दोनों से गले मिले और चले गए।
अशोक जी के जाते ही सादिया की अम्मी आ कर आनंद के पास बैठ गईं। साड़ी का पल्लू ठीक करती हुई बोलीं, ‘और भइया, घर में बाल-बच्चे सब ठीक हैं?’
‘हां, बस आप का आशीर्वाद है।’
‘वो तो अल्लाह की दुआ से है ही।’ फिर वह सादिया की बेटी की यादों में खो गईं। कमरे में रखी उस नन्हीं मुन्नी की फ़ोटो देख कर सुबुकती हुई वह बोलीं, ‘कैसे तो फुट-फुट कर के नानी-नानी बोलती थी। कभी नानी कहती, कभी आनी कहती।’ वह ज़रा रुकीं और बोलीं, ‘बच्ची की बहुत याद आती है। और भइया जब बच्ची की याद आती है तो आप की भी याद आती है। बड़ी मदद किए रहे थे आप तब लखनऊ में। कोई आगे-पीछे नहीं था वहां तब लखनऊ में पर आप तो भइया अंगद के पांव की तरह जमे रहे तो जमे रहे। दिन भर एक पांव पर इहंा-ऊहां दौड़ते रहे। रात में हम लोग जब चले तभी आप गए।’ कहते-कहते वह भावुक हो गईं।
‘आप अंगद को जानती हैं?’
‘हां भइया काहें नहीं जानेंगे?’
‘कैसे जानती हैं?’
‘जानती हूं?’ वह बोलीं, ‘काहें, रामलीला में देखी हैं हम भी। हनुमान जी की सेना में थे। रावण के दरबार में कोई उन का पैर हिला नहीं पाया था। ई हम कई बार देखी हैं रामलीला में।’
‘अच्छा-अच्छा।’
‘आप भूल गए का भइया!’ वह बोलीं, ‘उहां बाले मियां के मैदान में हर साल होती थी रामलीला। तब आप लोग छोटे-छोटे थे। मंूगफली और चीनिया बादाम खाने के लिए आप कितना तो रोते थे। और आप की बड़की अम्मा आप को
डांटा करती थीं। हम को सब याद है।’ कहते-कहते वह जैसे ख़ुश हो गईं।
‘ओह हां!’
‘पर का करें भइया अब तो सब बदल गया। ज़माना बदल गया, शहर बदल गया, मुहल्ला बदल गया, लोग भी बदल गए।’ वह आह भर कर बोलीं, ‘अब लोग हिंदू मुसलमान हो गए।’
‘अब क्या किया जाए!’
‘हां भइया अब कुएं में ही भांग पड़ गई है।’
‘सो तो है!’
‘चलिए भइया आप नहीं बदले। हमारे लिए यही अच्छा है।’ वह बोलीं, ‘तो आज दुपहर में जब सादिया का फ़ोन आया और इस ने बताया कि आप आए हैं, और मिलना चाहते हैं तो हम फ़ौरन रिक्शा पकड़े और भागी चलीं आईं।’
‘यह अच्छा किया आप ने।’ आनंद बोला, ‘क्यों कि हमें भी आप की बहुत याद आती है!’
‘सचहूं भइया!’ कहते हुए सादिया की अम्मी की आंखें मारे ख़ुशी के छलछला आईं।
‘हां। और क्या!’ कह कर वह घड़ी देखने लगा।
‘अच्छा भइया अब आप की ट्रेन का टाइम हो रहा होगा। चलिए आप खाना खा लीजिए तो हम भी चलें।’
‘अब इतनी रात में जाएंगी?’
‘हां, रिक्शा पकड़ कर चली जाऊंगी।’ वह हंसती हुई बोलीं, ‘कवने बात का डर है!’
और वह सचमुच खाना खिला कर चली गईं।
आनंद भी स्टेशन आ गया। आते समय उस ने मुनव्वर भाई का एक बार फिर शुक्रिया अदा किया।
संयोग से ट्रेन न सिर्फ़ टाइम से थी, टाइम से ही, लखनऊ भी आ गई। घर आ कर फ्रे़श हो कर वह सो गया।
तो समझो बच्चा कि गांव में गांधीपना मत झाड़ो, गांधी पाकिस्तान को पोसते-पोसते हे राम! बोल गए थे, अब तुम भी गांव में पाकिस्तान बना पोस रहे हो, यह ठीक नहीं है : वह सोया ही था कि फ़ोन की घंटी बजी। उधर से जमाल था, ‘बधाई हो आनंद जी, बहुत-बहुत बधाई!’ ‘कौन?’ वह नींद में ही बोला। उधर से आवाज आई...‘अरे जमाल बोल रहा हूं।’
‘अच्छा-अच्छा। बोलो जमाल, क्या हो गया?’
‘हो क्या गया आज आप बिलकुल छा गए हैं, शहर के अख़बारों में।’ वह बोला, ‘एक अख़बार में तो लोकल पेज पर आधा पन्ना आप की प्रेस कानफ्रेंस ही घेरे हुए है।’
‘प्रेस कानफ्रेंस के लिए आधा पेज?’ आनंद हकबका गया।
‘अरे नहीं उस में क़ासिम के वालिद वग़ैरह के इंटरव्यू भी हैं।’
‘ओह तब तो ठीक है!’
‘आप अभी शहर में ही हैं कि लखनऊ में?’
‘क्यों लखनऊ में हूं!’
‘नहीं, मैं ने कहा कि जो शहर में होते तो आ कर मिलता!’
‘नहीं भई मैं तो लखनऊ वापस आ गया हूं। अभी थोड़ी देर पहले ही आया।’
‘अच्छा-अच्छा रात की ट्रेन से चले गए होंगे।’
‘हां, हां।’
‘तो किस पार्टी से नामिनेशन कर रहे हैं?’
‘नामिनेशन?’ आनंद भड़क कर बोला, ‘किस बात का?’
‘अरे नाराज़ क्यों हो रहे हैं आनंद जी!’ जमाल बोला, ‘इलेक्शन के दिन हैं। तो मैं ने सोचा कि आप इलेक्शन की ज़मीन तैयार कर रहे होंगे।’
‘तुम्हें हरदम बेवक़ूफ़ी ही क्यों सूझती है जमाल?’ आनंद बोला, ‘तुम जानते हो कि आज की चुनावी राजनीति के लिए मैं पूरी तरह अनफ़िट हूं। संसदीय चुनाव लड़ने के लिए कम से कम दस-पांच करोड़ रुपए चाहिए ही चाहिए आज की तारीख़ में। और मैं दस-पांच लाख रुपए भी इकट्ठा नहीं कर सकता। दूसरे, पार्टियों से टिकट मांगने की योग्यता भी मेरे पास नहीं है। तीसरे, इस जातिवादी और सांप्रदायिक राजनीति में मुझे भला कोई क्यों वोट देगा? ज़मानत तो ज़ब्त होगी ही, दो चार हज़ार वोट भी शायद ही मिल पाएं मुझे। यह तुम भी जानते हो और मैं भी।’
‘नहीं आनंद जी ऐसा नहीं है! आज के अख़बार तो बताते हैं कि अगर आज आप लड़ जाएं तो महंत जी की तो छुट्टी!’ वह बोला, ‘महंत जी की सांप्रदायिक राजनीति के विरोध में यहां के अख़बारों ने ऐसी चोट तो उन पर कभी नहीं की थी। और तय मानिए क़ासिम का मामला तो अब तूल पकड़ लेगा।’
‘ख़ाक तूल पकड़ेगा!’
‘क्यों अब कसर क्या रह गई?’
‘एक प्रेस कानफ्रेंस अख़बारों में ठीक से छप जाने से कोई मामला तूल नहीं पकड़ता। कोई मामला तूल पकड़ता है, जनता की भागीदारी से। लोगों के जुड़ाव से।’ आनंद बोला, ‘समझे जमाल मियां। तुम लोगों को यह मामला पहले ही पुरज़ोर तरीके़ से उठाना चाहिए था।’
‘चलिए अब से उठाते हैं।’
‘यह अच्छी बात है।’ आनंद बोला, ‘बल्कि एक काम और कीजिएगा जमाल मियां।’
‘क्या?’
‘यह क़ासिम का मामला एक मूवमेंट बने इस के लिए ज़रूरी शर्त यह है कि यह किसी एक नेता, किसी एक पार्टी का मूवमेंट बनने के बजाय, दलगत राजनीति से ऊपर उठ कर इसे जनता का मूवमेंट बनाया जाए। हमारा शहर क्या समूचा ज़िला बल्कि पूरी कमिश्नरी जो सांप्रदायिकता और जातीयता के ज्वालामुखी पर बैठी है, उस से उसे बचाया जाए।’
‘जी आनंद जी!’
‘है यह मुश्किल काम पर जो नहीं किया गया तो आने वाली पीढ़ी हमें माफ़ नहीं करेगी।’ आनंद बोला, ‘इस के लिए अपने-अपने अहंकार को ताक पर रखना होगा। नहीं जब कोई नौजवान सिर उठा कर खड़ा होगा तो उस की पुलिस से हत्या करवा दी जाएगी और इनकाउंटर बता दिया जाएगा। यह प्रवृत्ति किसी भी समाज के लिए शुभ नहीं है।’
‘ठीक है आनंद जी। एक रोड मैप बनाता हूं। फिर आप को बताता हूं।’ वह बोला, ‘ज़रूरत पड़ी तो आप को फिर शहर आना पड़ेगा।’
‘अरे हज़ार बार आऊंगा!’ आनंद बोला, ‘बस एकजुट हो जाओ! ओ.के.?’
‘ओ.के.!’
थोड़ी देर बाद मुनव्वर भाई का भी फ़ोन आ गया। बहुत उत्साहित थे। बोले, ‘भाई आनंद जी यहां तो ग़ज़ब हो गया। उम्मीद के विपरीत अख़बारों ने पूरा मामला उछाल कर, जम कर छापा है और महंत जी का बाजा बजा दिया है। उन की हिंदू युवा वाहिनी की धज्जियां उड़ा दी हैं। आप की प्रेस कानफ्रेंस, सुख मुहम्मद चाचा और बिस्मिल्ला भाई का इंटरव्यू तीनों मिला कर सभी अख़बारों ने छापा है। अशोक जी वाले अख़बार ने तो आधा पेज में छापा है।’
‘ठीक है मुनव्वर भाई। इन सारे अख़बारों की दो-दो तीन-तीन कापियां एक पैकेट बना कर मुझे आज ही कोरियर कर दीजिए।’
‘कहिए तो किसी साथी को भेज दूं यह सारे अख़बार ले कर?’
‘नहीं-नहीं। इस की ज़रूरत नहीं है। आप कोरियर कर दीजिए! ताकि यहां के प्रशासनिक हलके में इस की कतरन दे कर बात कर सकूं।’
‘ठीक बात है, ठीक बात है।’
‘एक काम और करिए मुनव्वर भाई!’
‘बताइए!’
‘अब इस मामले को पब्लिक मूवमेंट से जोड़ दीजिए। दलगत राजनीति और व्यक्तिगत अहंकार से ऊपर उठ कर।’
‘बिलकुल-बिलकुल!’
‘अभी जमाल का भी फ़ोन आया था।’
‘वह तो तिड़क गया होगा!’
‘नहीं, नहीं।’ आनंद बोला, ‘वह सोच रहा था कि मैं चुनावी ज़मीन तलाश रहा हूं और कि चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहा हूं।’
‘ओह!’
‘फिर जब मैं ने उस से इस पर मूवमेंट खड़ा करने की बात कही तो वह रोडमैप बनाने के लिए भी तैयार हो गया।’
‘तो वह यह लड़ाई हम लोगों के हाथ से छीनना चाहता है!’
‘मुनव्वर भाई, आप से एक बात पूछूं?’
‘पूछिए।’ वह खिन्न हो कर बोले।
‘यह बताइए कि आप की राय में इस वक़्त सांप्रदायिकता और जातियता का राक्षस ज़्यादा बड़ा है, या जमाल?’
‘मेरे लिए तो दोनों ही राक्षस हैं।’ वह बोले, ‘इस लड़ाई में जमाल के साथ आने का मतलब है, पहले ही दौर में लड़ाई की हवा निकाल देना। आसमान से गिर कर खजूर पर लटक जाना।’
‘मुनव्वर भाई यह समय व्यक्तिगत अहंकार से छुट्टी पा कर क़ासिम की लड़ाई को लड़ना है। क़ासिम के हत्यारों को क़ानूनी रूप से सज़ा दिलाना है।’
‘आप को पता है कि जमाल के सरोकार महंत जी से भी हैं।’
‘क्या?’
‘हां, उस के एक एन.जी.ओ. ने पिछले दिनों अपने एक कार्यक्रम में महंत जी को मुख्य अतिथि बनाया था।’
‘क्यों?’
‘उन की सांसद निधि से उस को पैसा झटकना था।’
‘तो सांसद निधि महंत जी के पिता जी की नहीं है, देश की है, जनता की है!’
‘चलिए तो भी अगर जमाल इस मूवमेंट को लीड करेगा तो मुझे मुश्किल होगी।’
‘मुनव्वर भाई!’ आनंद बोला, ‘इशू जमाल है कि क़ासिम पहले यह तय कर लीजिए!’
‘बट नेचुरल क़ासिम!’
‘फिर!’ आनंद बोला, ‘और आप ही अभी कल कह रहे थे कि यह हम सब की साझी लड़ाई है!’
‘है तो!’
‘तो क्यों जमाल के फच्चर में फंस रहे हैं। लीड आप करिए। जमाल साथ आता है तो आने दीजिए।’
‘पर मैं लीड करूंगा तो वह नहीं आएगा!’
‘मत आए!’ आनंद बोला, ‘ज़रूरत जनता को इस मूवमेंट से जोड़ने की है, किसी जमाल, फमाल को नहीं। जनता को आगे रखिए, अहंकार को पीछे। फिर देखिए सब ठीक हो जाएगा।’
‘क्या आनंद जी!’
‘अब क्या हुआ?’
‘अभी तक मुझ को आप ने इतना ही समझा है?’ मुनव्वर भाई आहत हो कर बोले, ‘आप हम को अहंकारी समझते हैं?’
‘अरे नहीं भाई! वे तो मैं ने एक बात कही।’ आनंद बोला, ‘अब इतनी छोटी-छोटी बातों पर घायल होते रहेंगे तो क़ासिम की लड़ाई तो समझिए यहीं ख़त्म हो जाएगी!’
‘लड़ाई तो ख़त्म नहीं होगी आनंद जी!’ मुनव्वर भाई बोले, ‘हम हारें चाहे जीतें, इस की परवाह नहीं। पर लड़ंेगे ज़रूर। यह जो पीक मिली है अख़बारों में इस को ज़ाया नहीं होने देंगे। यह हमारा वादा है!’
‘अच्छी बात है मुनव्वर भाई। बस अख़बारों का पैकेट हमें आज कोरियर करवा दीजिएगा।’
‘बिलकुल!’
‘और हां एक बात और मुनव्वर भाई!’ आनंद ने कहा, ‘और इस बात पर भी घायल मत हो जाइएगा।’
‘अरे नहीं, बताइए तो।’
‘यह कि ये मूवमेंट सिर्फ़ मुसलमानों का मूवमेंट ही बन कर न रह जाए।’ आनंद बोला, ‘क्यों कि इस मूवमेंट में इस बात का ख़तरा ज़्यादा है। और वह एक शेर भी ज़रूर ध्यान में रखिएगा कि- कौन कहता है आकाश में सुराख़ नहीं हो सकता/एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो।’
‘बिलकुल-बिलकुल!’ मनुव्वर भाई बोले, ‘पूरी तबीयत से उछालते हैं।’
मुनव्वर भाई के फ़ोन के बाद वह बाथरूम चला गया। वापस आ कर अख़बार पलटने लगा तो उस ने पाया कि उस की प्रेस कानफ्रेंस की ख़बर यहां के भी दो अख़बारों में छपी थी। पर छोटी-छोटी। बहुत उछाल के नहीं। लेकिन जितनी भी छपी थी, काम की थी। एक अख़बार ने उसे पूर्व छात्र नेता लिखा था तो एक ने सामाजिक कार्यकर्ता।
वह आफ़िस में ही था कि उस के गांव से फ़ौजी पंडित का फ़ोन आया। वह बोले, ‘का हो आनंद!’
‘प्रणाम चाचा!’
‘ख़ुश रहो! पर ई अख़बार में का अंट शंट बक बका दिए हो भाई!’ वह बोले, ‘तुम अपने विद्यार्थी जीवन में तो गांधी, गांधी बकबकाते ही थे अब गांधी का पहाड़ा भी पढ़ने लगे हो!’
‘समझा नहीं।’
‘तो समझो बच्चा कि गांव में गांधीपना मत झाड़ो। गांधी पाकिस्तान को पोसते-पोसते हे राम! बोल गए थे। अब तुम भी गांव में पाकिस्तान बना पोस रहे हो, यह ठीक नहीं है।’ वह गला खखार कर बोले, ‘अपनी राजनीति वहीं लखनऊ में बघारो, गांव में मत बघारो। समझे न!’ वह ज़रा रुके और खैनी थूकते हुए बोले, ‘एह तर से राजनीति जो करोगे तो कभी एम.एल.ए., एम.पी., मिनिस्टर नहीं बन पाओगे। काहें से कि अपना गांव, अपने गांव की राजनीति तो तुम समझ नहीं पा रहे हो, देश और प्रदेश की राजनीति का ख़ाक समझोगे?’ वह फिर थूके और बोले, ‘बंद करो ई सब नौटंकी और गांधीपना।’ कह कर उन्हों ने फ़ोन काट दिया।
आनंद चिंतित हुआ अम्मा पिता जी को ले कर। वह चिंतित हुआ कि क़ासिम के चक्कर में वह अम्मा पिता जी का ध्यान कैसे भूल गया! उस ने अपने को धिक्कारा, कोसा और गांव में घर पर फ़ोन किया।
फ़ोन पर अम्मा मिलीं। उस ने पूछा कि, ‘क्या हालचाल है?’
‘गांव में आग लगी है।’
‘क्यों?’
‘तुम अख़बार में फ़ोटो लगा कर कुछ छपाए हो क़ासिम को ले कर यही लोग बता रहे हैं।’
‘और क्या लोग बता रहे हैं?’
‘और तो कुछ नहीं पर तुम्हारे पिता जी बहुत गु़स्सा हैं। कह रहे हैं कि यहां तो तुम ड्रामा कर गए। मियां के घर नहीं गए। आज्ञाकारी पुत्र बन गए। पर शहर में जा कर उस को कपार बैठा कर मुतवा दिया। ऊ कह रहे हैं कि अब बाक़ी का रह गया है!’
‘अच्छा उन से बात करवाओ।’
‘मत करो उन से बात!’
‘क्यों?’
‘उन का माथा बहुत गरम है।’ अम्मा बोलीं, ‘कुछ उलटा सुलटा बोल देंगे तो तुम को भी बुरा लग जाएगा। दो चार दिन में जब ठंडा हो जाएंगे तब बात करना। अभी नहीं।’
‘अच्छा गांव में तुम लोगों को कोई ख़तरा तो नहीं है न!’
‘ख़तरा कवन बात का, तुम्हारे पिता जी तो हई हैं ना!’
‘अरे नहीं कोई कुछ कहे सुने!’
‘अभी तक तो नहीं कोई कुछ कहा सुना। आगे का नहीं जानती।’
‘ठीक है अम्मा भगवान करे ऐसा न हो!’ आनंद बोला, ‘पर कोई कुछ कहे सुने तो घबराना नहीं, हमें बता देना।’
‘तुम वहां से क्या करोगे?’
‘सब कुछ। तुम बस बता देना।’
‘ठीक है बाबू!’ वह ज़रा रुकीं और बोलीं, ‘एक बात कहूं बाबू बुरा मत मानना!’
‘हां बोलो!’
‘ई तुम्हारी नौकरी ही ठीक लगती है तुम्हारे पिता जी को। तुम्हारी राजनीति नहीं सुहाती उन को। न गांव वालों को।’
‘क्या बताऊं अम्मा। कुछ समझ नहीं आता। सोचता हूं कि क्या यह वही गांव है जहां कभी एक बकरी, एक गाय, एक बैल मर जाने पर भी पूरा गांव शोक में डूब जाता था। और अब एक नौजवान मरा है तो उस का शोक एक दिन का भी नहीं मना सकता यह गांव?
‘हां बाबू अब गांव बदल गया है, तुम भी बदल जाओ।’ अम्मा बोलीं, ‘ऊ दोहा बाबू तुम सुने ही होगे कि जाट कहे सुन जाटनी इसी गाम में रहना है, ऊंट बिलैया लई गई हां जी, हां जी कहना है।’
‘अब क्या कहूं?’ आनंद सांस छोड़ते हुए बोला, ‘मेरी तो कुछ समझ में नहीं आता।’
‘कुछ मत कहो बाबू। मेरी बस इतनी सी बात सुन लो कि इसी गांव में रहना है। खेती-बारी करनी है। अब बैल वाली खेती रही नहीं। कि अपनी मर्ज़ी से खेत जोत लेंगे। अब तो ट्रैक्टर भी किसी का किराए पर लेना पड़ता है, फ़सल कटाई के लिए भी कंबाइन किराये पर लेना होता है। और ई सब सामूहिक रूप से तय होता है। ट्रैक्टर आता है तो सब के लिए। कंबाइन आता है तो सब के लिए। पारी बांध कर। पानी है, खाद है मज़दूरी है। रास्ता है, नाली है, मेड़ है, दुख है, सुख है, तीज-त्यौहार है, हारी है बीमारी है, सब इसी गांव में होना है, इन्हीं लोगों के साथ होना है, तो बैर किस-किस से लेंगे?’ एक सांस में बोलती हुई अम्मा बोलीं, ‘गांव तुम को वैसे ही कुजात कहता है। सब के साथ खाते-पीते हो! फिर तुम्हारी बात और है। तुम शहर में हो। लखनऊ में हो। पर हम पूरे गांव से बैर ले कर कैसे जिएंगे? पट्टीदारी है बाबू!’
‘अच्छा अम्मा!’
‘हां, बाबू हमारी बात पर ग़ौर करना!’
‘अच्छा अम्मा प्रणाम!’
‘भगवान तुम को सदबुद्धि दे।’ कह कर अम्मा ने फ़ोन रख दिया।
पर लगातार किसी न किसी का फ़ोन आता ही रहा। इतना कि आफ़िस वाले फ़ोन सुनते-सुनते परेशान हो गए। इसी बीच जमाल का फ़ोन आया। उस ने बताया कि, ‘कलक्ट्रेट का बड़ा ज़बरदस्त घेराव हो गया है। और जैसा कि आप चाहते थे यह पब्लिक मूवमेंट बने तो आनंद जी यह बात तो हो गई है। और इस के लिए बहुत ईमानदारी से कहूं कि बहुत ज़्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी। वो जो कहते हैं न कि लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया। लगभग वही आलम है।’
‘मुनव्वर भाई भी हैं इस मुहिम में?’ आनंद ने पूछा।
‘हां हैं। और पूरे जोश-ओ-ख़रोश से। बल्कि इस समय माइक पर वही हैं। उन की तक़रीर चल रही है।’
‘यह अच्छी बात हुई कि तुम दोनों अपने इगो भूल कर इस लड़ाई में साझीदार हो गए।’ आनंद बोला, ‘बधाई इस के लिए। और हां, यह ज़रूर ध्यान रखना कि यह लड़ाई सिर्फ़ मुसलमानों की बन कर न रह जाए। और कि हिंदू वर्सेज़ मुस्लिम न बन जाए। इस में यह ख़तरा बहुत है।’
‘सो तो है। पर आप मुतमइन रहिए यह हरगिज़ नहीं होने देंगे। मामला अगर हिंदू वर्सेज़ मुस्लिम मंे टर्न लेगा तो लड़ाई बंद कर देंगे। पर यह न होने देंगे।’ जमाल बोला, ‘हम लोग भी सेक्युलर ख़यालात के लोग हैं। कोई फं़डामेंटलिस्ट या तालिबानी या सो काल्ड जेहादी नहीं हैं।’
‘बस यह जज़्बा क़ायम रहना चाहिए!’
शाम को वह ज्ञापन वगै़रह ले कर प्रमुख सचिव गृह के पास गया। और ज्ञापन की कापी बाहर ही पूरी प्रेस टीम को बंटवा दिया। फिर प्रमुख सचिव गृह से मिला। ज्ञापन देख कर वह बोले, ‘देखिए इंक्वायरी तो रुटीन तौर पर भी हर पुलिस इनकाउंटर की होती ही है। पर आप ने ज्यूडिशियल इंक्वायरी मांगी है तो ऊपर बात करते हैं मैडम से भी। रही बात और डिमांड्स की तो उस सब इंस्पेक्टर सहित पूरी इनकाउंटर टीम सस्पेंड कर दी गई है। और जहां तक हत्या के मुक़दमे की बात है तो वह इंक्वायरी रिपोर्ट देखने के बाद ही तय होगा कि क्या करना है। अभी फ़ौरी तौर पर यह संभव नहीं है।’ वह बोले, ‘आप का ज्ञापन तो दरअसल कल ही हमें मिल गया था।’
‘वो कैसे?’
‘डी.एम. ने फै़क्स किया था!’
‘अच्छा-अच्छा!’
‘वैसे आप से एक रिक्वेस्ट है कि इस मामले को बहुत तूल मत दीजिए कि ला एंड आर्डर ब्रेक हो। इलेक्शन का माहौल है। कहीं सिचुएशन कंट्रोल से बाहर हो गई तो मुश्किल हो जाएगी।’
‘हम तूल कहां दे रहे हैं।’
‘नहीं आज कलक्ट्रेट जिस तरह से आप के शहर में घेरा गया है। वह दिक़्क़त वाला है। वो तो प्रशासन को नरमी बरतने को कहा गया है पर कहीं मामला कम्युनल कलर ले लेगा तो आफ़त हो जाएगी। इस से अपने मूवमेंट को बचाइए।’
‘हम आलरेडी इस से अवेयर हैं और प्रिकाशंस लिए हुए हैं।’
‘नहीं-नहीं आज वहां से तीन बार सिचुएशन बिगड़ने की ख़बर आई। पर प्रशासन ने लिनिएंसी बरतते हुए लोगों को कंट्रोल किया। मामला भड़कने नहीं दिया।’
‘ख़ैर चलिए इस के लिए सॉरी और मैं अपने साथियों को फिर से समझाता हूं।’
‘साथियों को तो समझा लेंगे आप। पर भीड़ का क्या करेंगे? भीड़ कुछ नहीं समझती, किसी का नहीं समझती। तो भीड़ को वहां बटोरना बंद कीजिए।’
‘यह भीड़ नहीं, जनता है जनाब। उस को हम कहां से रोक लेंगे?’
‘वेरी सिंपल, जैसे इकट्ठा किया था।’ वह बोले, ‘अपना मूवमेंट कॉल आफ़ कर लीजिए।’
‘सॉरी, जब तक हत्यारी पुलिस के खि़लाफ़ हत्या का मुक़दमा दर्ज नहीं हो जाता, हम मूवमेंट तो वापस नहीं ले पाएंगे।’
‘मतलब दंगे करवा कर ही रहेंगे?’ प्रमुख सचिव गृह टेंस हो कर बोले, ‘चुनावी फ़िज़ा है आनंद जी, मामले की नज़ाकत को समझिए। आप के अपोज़िट लोग चाहते हैं कि मामला भड़के, दंगा हो और वोट उन के लिए पोलराइज़ हो जाएं!’
‘अरे आप के हाथ में प्रशासन है, और जब आप जान गए हैं ऐसे लोगों की मंशा तो उन को कुचल दीजिए, जेल में ठंूस दीजिए।’
‘क्या बताऊं आप को आनंद जी, कैसे समझाऊं?’
‘कुछ नहीं हत्या का मुक़दमा दर्ज कर उस पुलिस टीम को अरेस्ट कीजिए, क़ासिम के परिवार को मुआवज़ा दिलवा दीजिए। सब कुछ अपने आप शांत हो जाएगा।’
‘बिना इंक्वायरी रिपोर्ट के आए कुछ नहीं हो सकता आनंद जी न मुआवज़ा, न मुक़दमा!’
‘तो इंक्वायरी कमेटी से कहिए कि रिपोर्ट एक से दो दिन में दे दे। उस को टाइम बाउंड कर दीजिए।’ आनंद बोला,‘सब कुछ क्रिस्टल क्लीयर है, सब कुछ आप की जानकारी में है।’
‘देखिए बहुत सारी चीज़ें हमारे हाथ में नहीं हैं, कुछ चीज़ें पोलिटिकल भी होती हैं।’ वह बोले, ‘आप कुछ तो समझिए आनंद जी और कोशिश कीजिए प्रोटेस्ट जल्दी से जल्दी ख़त्म हो जाए।’
‘क्या करूं सब कुछ मेरे हाथ में भी नहीं है।’ आनंद बोला, ‘हालां कि चीफ़ मिनिस्टर तो डिक्टेटर हैं, किसी की सुनती नहीं फिर भी अगर संभव हो तो आप इंटरेस्ट ले कर चीफ़ मीनिस्टर से मेरी मीटिंग फ़िक्स करवा दीजिए। शायद समस्या जल्दी सुलट जाए।’
‘मैडम से आप की मीटिंग तो उन के सेक्रेट्रीज़ ही फ़िक्स करवा सकते हैं, मैं नहीं।’
‘चलिए देखता हूं।’ वह बोला, ‘मैं ने सुना था कि आप से सीधी बात होती है, इस लिए आप से कह दिया।’
‘इट्स ओ.के.!’ कह कर आदत के मुताबिक़ प्रमुख सचिव गृह ने हाथ मिलाने के लिए हाथ बढ़ा दिया।
वह घर आ गया।
नहा धो कर बैठा ही था कि आफ़िस से फ़ोन आ गया। कंपनी के चेयरमैन के पी.ए. का फ़ोन था। पूछ रहा था कि, ‘ये कैसी प्रेस कानफ्रेंस कर दी आप ने कि आप के शहर के महंत जी नाराज़ हो गए?’
‘कुछ ख़ास नहीं, बस रुटीन!’
‘लेकिन आनरेबिल चेयरमैन सर के पास उन का फ़ोन आया था।’
‘किस का?’
‘महंत जी का। और वह बहुत खफ़ा हैं। और फिर उन की बात सुन कर आनरेबिल चेयरमैन सर का चेहरा भी बिगड़ गया है।’ पी.ए. बोला, ‘वह नाश्ते पर थे। पर फ़ोन के बाद उन का ज़ायका बिगड़ गया तो आप को फ़ोन कर रहा हूं।’
‘ओह!’
‘आप जानते हैं कि वहां भी कंपनी को अपना बिज़नेस करना है। और महंत जी वहां मैटर करते हैं। उन को नाराज़ कर के तो वहां बढ़िया से बिज़नेस रन नहीं कर सकते हम लोग। फिर वह एम.पी. भी हैं। कहीं कोई मामला पार्लियामेंट में भी उठा सकते हैं। हर कंपनी के अपने स्याह सफ़ेद होते हैं।’ वह ज़रा रुका और बोला, ‘मैं समझता हूं आप मेरी बात समझ रहे होंगे।’
‘बिलकुल-बिलकुल!’ आनंद बोला, ‘आप की बात भी समझ रहा हूं और आप का संदेश भी। बोलिए इस्तीफ़ा अभी मेल कर दूं या सुबह लिख कर भिजवा दूं?’
‘सॉरी-सर! मेरा मतलब यह नहीं था।’
‘तो फिर?’
‘सर चाहते हैं कि आप अपने को इस मामले से ड्राप कर लें, वहां मूवमेंट भी ड्राप कर लें और कि महंत जी के खि़लाफ़ जो मोर्चा खोला है, वह बंद कर दिया जाए!’
‘मूवमेंट तो ड्राप करने का ज़िम्मा मैं नहीं ले पाऊंगा, क्यों कि वह तो अब मास मूवमेंट हो गया है। रही बात मेरी तो मैं तो अब वहां हूं भी नहीं। लखनऊ में हूं। और फिर आप को बताऊं कि जो प्रेस कानफ्रेंस मैं ने की, व्यक्तिगत की। किसी पार्टी या किसी कंपनी के बैनर तले नहीं। वह भी इस लिए की कि वह मेरे गांव का मामला था।’ आनंद ज़रा रुका और बोला, ‘अभी मौक़ा है स्पष्ट बता दीजिए तो इस्तीफ़ा भेज दूं। क्यों कि अभी नामिनेशन का टाइम है जा कर कूद ही जाऊं चुनाव में। एक बार आज़मा ही लूं। फिर हारूं चाहे जीतूं, यह दूसरी बात है। पर चेयरमैन साहब को जितनी बातें मैं ने अभी कहीं सब बता दीजिए और फिर मुझे बताइए कि क्या करना है। क्या पता इसी बहाने सक्रिय राजनीति में मेरी वापसी हो जाए। नहीं बाद में पता चले कि नौकरी से भी जाऊं और चुनाव से भी। तो बड़ा मलाल होगा। बल्कि संभव हो तो मेरी बात अभी चेयरमैन साहब से करवा ही दीजिए!’
‘सर, आप तो नाराज़ हो गए। आनरेबिल चेयरमैन सर ऐसा भी नहीं चाहते।’
‘तो क्या चाहते हैं।’
‘वह चाहते हैं कि आप कंपनी में बने रहें और महंत जी भी नाराज़ न हों।’
‘ओह तो मुट्ठी भी बंधी रहे और हाथ भी झुका रहे!’
‘क्या सर!’
‘कुछ नहीं यह कारपोरेट की टर्मानलजी नहीं है।’
‘ओ.के. सर!’ वह बोला, ‘तो प्लीज़ सर मेरी बात का ध्यान रखिएगा।’
‘ठीक बात है!’
कह तो दिया उस ने कि ठीक बात है। पर वह टेंशन में आ गया।
बहुत दिन हो गया था उसे काफ़ी हाउस गए। चला गया काफ़ी हाउस। वहां पहुंचा तो काफ़ी हाउस नदारद! वह घबराया। इधर-उधर चहलक़दमी की। काफ़ी हाउस का बोर्ड तो दिखा पर बड़े से दोनों लकड़ी के दरवाज़े ग़ायब। बरामदे में बैठे अख़बार बेच रहे दुकानदार से पूछा कि, ‘क्या हुआ काफ़ी हाउस?’
‘विवाद हो गया!’
‘वो तो ठीक है। पर गया कहां?’
दुकानदार ने मुंह पिचका कर हाथ हिला दिया। पर बोला नहीं। ख़ैर, वह शीशे का दरवाज़ा खोल कर भीतर गया। चकाचक रेस्टोरेंट। ए.सी। वह चौंक गया। घबरा कर वह बाहर बरामदे में आ गया। भीतर कोई परिचित भी नहीं था।
उस ने सिगरेट जलाई। कश लिया। धुआं छोड़ा। सड़क की ट्रैफ़िक देखी। उस का शोर सुना और अपने आप से पूछा- ये कहां आ गए हैं हम! ये हो क्या रहा है? अब वह अपने साथियों के साथ कहां बैठे? लगा कि सिर की नसें तड़क जाएंगी। वह बरामदे की सीढ़ियों पर ही बैठ गया।
घर में माता-पिता नाराज़, गांव के लोग नाराज़, आफ़िस से चेयरमैन नाराज़। सिस्टम से वह ख़ुद नाराज़। तिस पर काफ़ी हाउस का लापता हो जाना। तो क्या अब वह अपने आप से नाराज़ हो जाए?
यह कौन सी प्यास है?
काफ़ी हाउस के बरामदे और सड़क के बीच संधि बनी सीढ़ियां कुछ नहीं बता पातीं। सिगरेट के आखि़री कश के बाद सिगरेट फेंकता, पैंट झाड़ता वह उठ खड़ा होता है।
शराब, सिगरेट, सुलगन और जिमखाना!
हां, अब वह जिमखाना में बैठा शराब पी रहा है। आज जाने क्यों चिकेन उसे अच्छा नहीं लग रहा। पनीर के कच्चे टुकड़ों पर काली मिर्च और नमक छिड़क कर, पनीर से काम चला रहा है। थोड़ी दही भी वह मंगवा लेता है। और अपने मित्र माथुर से पूछ रहा है, ‘कभी दही के साथ मदिरा ट्राई की है?’
‘नहीं तो!’
‘आज ट्राई करो और मज़ा न आए तो बताओ!’
‘ओ.के.!’ माथुर बोला, ‘क्या बात है आज वेजेटेरियन हो गए हो?’
‘क्या करें यार!’
‘फिर भी?’
‘ज़माने की मार है डियर!’
‘मतलब?’
‘सिंपल!’ आनंद बोला, ‘सिस्टम के हो कर अगर तुम न चलो तो सिस्टम तुम्हें तोड़ देता है।’
‘ये तो है।’ माथुर बोला, ‘देखो न हमारी हाई कोर्ट में जो वकील जस्टिस लोगों को फिट कर लेता है, पैसा थमा देता है, लड़की थमा देता है, सफल वकील बन जाता है। का़नून की मां बहन कर देता है। और जो क़ानून जानता है, का़नून जानने की ढोल पीटता है, वह क्रेक, असफल और निरा मूर्ख मान लिया जाता है!’
‘ये तो है!’ आनंद बोला, ‘हर जगह, हर हलके में यही हाल है। एक ढूंढो हज़ार मिलते हैं। योग्यता और मेरिट का पहाड़ा पढ़ने वाले मारे जा रहे हैं। भड़ुवे, दलाल, हिप्पोक्रेट साले आगे जा रहे हैं।’
‘अब क्या करें?’ माथुर अपना पैग ख़त्म करता हुआ बोला।
‘कुछ नहीं तुम मेरे पुराने यार हो, वकील हो, थोड़ी तुम्हें चढ़ भी गई तो मुझे लगता है, नाटक नहीं करोगे, सच बोलोगे।’
‘बात तो बताओ!’
‘ये दो चीज़ें; एक इलाज और दूसरा न्याय आदमी के लिए सपना क्यों बनता जा रहा है? बल्कि कहूं मृगतृष्णा!’
‘ये तो मुझे भी नहीं मालूम!’ माथुर बोला, ‘मौज मस्ती की बातों की जगह आज यह तुम क्या ले कर बैठ गए हो। खाओ, पियो, मौज करो और घर चलो। इन सब बेकार की चीज़ों में वक़्त ज़ाया करने से क्या मिलेगा? सिवाय हताशा के?’
‘ये तो है!’
‘चलो औरतों की बात करते हैं।’
‘हां, ये बात हुई।’
‘पर क्या करें यार कोई सुंदर औरत देखे ज़माना हो गया। मदभरी आंखें तो जैसे सपना हो गईं। ये नयन डरे-डरे, जाम भरे-भरे गाने का कोई मतलब ही नहीं रहा।’
‘ये तो है!’
‘पर जानते हो क्यों?’
‘क्यों?’
‘ये ब्यूटी पार्लर!’
‘मतलब?’
‘ब्यूटी पार्लरों ने औरतों की ख़ूबसूरती छीन ली है। देह की लोच, आंखों का नशा नष्ट कर दिया है। औरतें अब लाख फ़ेमनिस्ट बनें पर कठपुतली हो गई हैं। दुनिया भर का मेकअप पोते, नक़ली सुंदरता ओढ़े। हुंह घिन आती है।’ वह ज़रा रुका और बोला, ‘एक काम करो यार!’
‘क्या?’
‘एक जनहित याचिका दायर कर दो।’
‘किस बात के लिए?’
‘दुनिया भर के ब्यूटी पार्लर बंद करने के लिए।’
‘क्यों?’
‘ये औरतों को नक़ली और नख़रेबाज़ बना रहे हैं।’
‘क्या यार तुम भी!’ माथुर बिदकता हुआ बोला, ‘शेरो शायरी सुनाने वाला आदमी आज क्या बकबक कर रहा है? हो क्या गया है तुम को आनंद?’
‘हो नहीं गया है, हो गया हूं।’
‘क्या?’
‘कुत्ता।’
‘क्या!’
‘हां धोबी का कुत्ता! न घर का, न घाट का!’
‘क्या?’
‘सच कह रहा हूं।’ वह शराब देह में ढकेलता हुआ बोला।
‘ओह तो आज तुम कुछ प्राब्लम में हो?’
‘तुम शेर सुनाने के लिए कह रहे थे न?’
‘हां, सुनाओ तो कुछ सिर दर्द कम हो!’
‘नो, सिर दर्द बढ़ जाएगा!’
‘अच्छा सुनाओ तो!’
‘रंग बिरंगे सांप हमारी दिल्ली में/क्या कर लेंगे आप हमारी दिल्ली में। पता है वह काफ़ी हाउस वाले मधुसूदन जी हैं न, एक दिन बहुत मूड में थे तो सुना रहे थे। बाद में गुस्सा हो गए!’
‘ओह!’
‘पर क्या फ़ायदा?’
‘किस का?’
‘अब काफ़ी हाउस ही नहीं रहा!’
‘ओह तो तुम को इस का अफ़सोस है?’
‘किस का?’
‘काफ़ी हाउस का!’
‘किस-किस का अफ़सोस बताऊं तुम को?’
‘नहीं अब इतना जो चट रहे हो तो बता ही दो!’
‘वो शेर सुनाया था न! रंग बिरंगे सांप हमारी दिल्ली में।’
‘हां!’
‘पर ग़लत सुनाया था!’
‘ओह!’
‘सही यह है कि रंग बिरगे सांप हमारी ज़िंदगी में/क्या कर लेंगे आप हमारी ज़िंदगी में?’
‘ओह यार तुम कोई सीधी साफ़ बात भी करोगे आज?’
‘अब और कितनी साफ़ करूं?’
‘ओह!’
‘बल्कि कैसे करूं?’
‘बाप रे कहां बैठ गया मैं आज!’ माथुर माथा पीटते हुए बोला।
‘यही तो, यही तो!’ आनंद जैसे चहका, ‘देखो अब तुम भी मेरे खि़लाफ़़ हो गए!’
‘मैं तुम्हारे खि़लाफ़ नहीं हूं आनंद! अंडरस्टैंड मी!’ उस ने बाल खुजलाते हुए कहा, ‘पर तुम आज बुरी तरह मुझे चाट रहे हो।’
‘ओ.के., ओ.के.। थोड़ी शराब और मंगवा लो नहीं चटूंगा, चुप रहूंगा।’
‘मंगवाता हूं भाई!’ माथुर ने कहा और वेटर को आवाज़ दी।
‘गुड!’ आनंद बोला, ‘तुम्हें पता है सिर्फ़ तुम्हीं नहीं नाइंटी, नाइंटी फ़ाइव परसेंट लोग मेरे खि़लाफ़ हैं।’
‘क्या तुम यहां पहले से पी कर आए हो?’
‘क्यों बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हो आज मुझे?’
‘दोस्त हो यार बर्दाश्त क्या करना! जी रहा हूं तुम्हें।’ माथुर बोला, ‘बहुत जिया है तुम्हें, आज भी जी रहा हूं। पर आज का सीन ज़रा डिफ़रेंट है!’
‘है न! बहुत है।’ आनंद बोला, ‘बताओ तुम ने मुझे बहुत जिया है, पर मैं आज जी नहीं पा रहा हूं। जानते हो क्यों? बल्कि पूछो क्यों?’
‘क्यों?’
‘क्यों कि नाइंटी, नाइंटी फ़ाइव परसंेट बल्कि नाइंटी नाइन कह लो इस समाज के लोग, दुनिया के लोग मेरे खि़लाफ़ हैं। समाज के, घर के, द़तर के नाइंटी नाइन परसेंट लोग मेरे खि़लाफ़ हैं! तो कैसे जी पाऊंगा?’
‘पर यार बात क्या हुई ये तो बता!’ माथुर आनंद का हाथ पकड़ कर पूछते हुए भावुक हो गया।
‘सुनना चाहता है तो चुपचाप सुन! बोलना नहीं बीच में।’
‘ओ.के.!’
‘फिर बोल दिया!’ आनंद ने माथुर को तरेरा तो माथुर ने होठों पर उंगली लगा कर चुप रहने की हामी भरी और बोला नहीं।
फिर दोनों चुप हो गए।
पीते रहे, खाते रहे। पर बोले नहीं।
अंततः माथुर ने उस से पूछा, ‘अब तुम बोलते क्यों नहीं? बोलेगे भी?’
‘क्या बोलता? तुम ने उंगली के इशारे से कहा कि चुप रहो तो मैं चुप हो गया।’
‘अरे नालायक़ वो मैं ने अपने चुप रहने का इशारा किया था।’
‘अच्छा-अच्छा!’ आनंद बोला, ‘लगता है अब मुझे चढ़ रही है।’
‘नहीं-नहीं, तू बोल जो भी बोलना है! चढ़े चाहे उतरे! तुम को क्या?’
‘तो मैं क्या कह रहा था?’
‘नाइंटी परसेंट........!’
‘नहीं-नहीं, नाइंटी फाइव ही रहने देते हैं। जानते हो क्यों? क्यों कि अब तुम तो मेरे साथ आ गए हो।’ आनंद ज़रा रुका और माथुर की तरफ़ देखा और बोला, ‘बोलना नहीं, तुम चुप रहना!’
माथुर ने सिर स्वीकृति में हिला दिया।
‘बताओ मैं पंडित हूं। मतलब ब्राह्मण। पर ब्राह्मण लोग कहते हैं कि तुम ब्राह्मण नहीं हो। कुजात हो। क्यों कि अछूतों के यहां, दलितों, पिछड़ों, मुसलमानों के साथ खाते, पीते, उठते-बैठते हो! चलो मान लिया। पर ये दलित, मुसलमान, पिछड़े कहते हैं कि साथ खा पी लेने से क्या होता है? हो तो तुम पंडित ही, ब्राह्मण! तो मैं क्या हुआ? हुआ न धोबी का?’
माथुर ने स्वीकृति में सिर हिला दिया।
राजनीति करता था, जब पढ़ता था। छात्र राजनीति! और जब राजनीति करने का समय आया तो नौकरी करने लगा। बोलना था राजनीतिक मंचों पर, बोलने लगा सेमिनारों में। तो क्या हुआ?’
माथुर ने बिना बोले हाथों से धोबी की तरह कपड़ा धोने का इशारा किया।
‘हूं। बिलकुल ठीक समझा तुम ने। अब मैं गांव जाता हूं तो मुझे देख कर अम्मा पिता जी डर जाते हैं। अम्मा कहती हैं गांव में हमें रहना है तुम्हें नहीं, तुम क्या जानो गांव की राजनीति? पिता जी तंज़ करते हैं कि देश प्रदेश की राजनीति करते हो, सब समझते हो, मैं क्या कहूं? मतलब यह कि ख़ाक समझते हो! गांव को नष्ट करने वाला फ़ौजी पंडित धमकाता है कहता है कि मैं गांव में पाकिस्तान पाल पोस रहा हूं। गांधी जी ऐसे ही हे राम! बोल गए थे। और बताता है कि ऐसे तो तुम एम.एल.ए., एम.पी., मिनिस्टर कुछ नहीं बन पाओगे! एक निर्दोष लड़का मारा जाता है, शहर सांस नहीं लेता, मैं आवाज़ उठाता हूं तो लोग समझते हैं कि मैं चुनावी ज़मीन तैयार कर रहा हूं। संयोग से जनता साथ खड़ी हो जाती है, मूवमेंट खड़ा हो जाता है तो होम सेक्रेट्री कहता है कि मूवमेंट वापस ले लीजिए, नहीं दंगा हो जाएगा। मंदिर का एक महंत जो एम.पी. भी है मेरे शहर का और पूरी बेशर्मी से अपराधियों को कांख मेें दाब कर घूमता है और तर्क देता है कि माला के साथ भाला भी ज़रूरी है। पूरी कमिश्नरी को सांप्रदायिकता के ज्वालामुखी पर बैठा देता है। उस की इस नस पर मैं हाथ रखता हूं तो वह मुझ से राजनीतिक या सामाजिक तौर पर निपटने के बजाय मुझे मेरी नौकरी से निपटाने के उपक्रम में लग जाता है। कंपनी के चेयरमैन को धौंसियाता है। बेरीढ़ चेयरमैन जो मुझ से पहले लायज़निंग करवाना चाहता था, मना कर देने पर साइड लाइन कर देता है मुझे। और इस महंत के धौंसियाने पर अपने चमचे पी.ए. से मुझे ज़लील करवाता है। ख़ुद बात नहीं करता, पी.ए. से थाह लेता है। इस्तीफ़े की पेशकश पर बिज़नेस की ट्रिप इस्तेमाल करवाता है कि अरे, अरे ऐसा नहीं। चुनाव लड़ने की मेरी हैसियत नहीं, न किसी पार्टी में हूं, न वोट बैंक है, न पैसा, न छल-छंद पर तमन्ना संसदीय राजनीति की है। हूं समाजवादी, पर नौकरी कारपोरेट सेक्टर की करता हूं। तो मैं क्या हुआ?’
माथुर चुप है!
‘अरे बोलो मैं क्या हुआ?’
माथुर फिर धोबी की तरह कपड़ा धोते हुए हाथ उठाने गिराने का अभिनय करता है।
‘अरे बेवकू़फ़ धोबी नहीं!’ आनंद बोला, ‘साफ़ बोलो धोबी का कुत्ता!’
माथुर मुंह बिचकाते हुए स्वीकृति में सिर हिलाता है।
‘और अभी जब मैं घर जाऊंगा और कुछ कहूंगा तो बीवी बोलेगी आप ने ज़्यादा पी ली है। सो जाइए। सुबह बात करिएगा। और सुबह मैं बात भूल जाऊंगा। वह याद भी नहीं दिलाएगी। तो मैं क्या हुआ?’
‘घर का न घाट का! धोबी का कुत्ता!’ माथुर सांस छोड़ते हुए बोला।
‘अब ठीक समय पर तुम बोले।’ आनंद मुसकुराते हुए बोला, ‘गुड एडवोकेट! पर साले तुम्हारी इस मुख मुद्रा और चुप रहने की इस कला पर तो तुम्हें न्यायमूर्ति होना चाहिए। वह सब भी तो ऐसे ही चुप रहते हैं।’ वह हंसा, ‘गांधी के बीच वाले बंदर की तरह!’
माथुर भी हंसने लगा।
‘तुम साले सोच रहे होगे कि मुझे चढ़ गई है।’
‘तुम्हारी तो नहीं पता पर अपनी तो उतर गई है।’ माथुर बोला, ‘दो डबल पेग और मंगा लें। नहीं बार बंद होने को है।’
‘मंगवा लो!’ आनंद बोला, ‘और हां दही भी।’
‘ओ.के.।’
‘पर यार वह बात तुम भूलना नहीं।’
‘क्या?’
‘जनहित याचिका वाली।’
‘किस बात के लिए?’
‘वो ब्यूटी पार्लर्स बंद करने के लिए!’
‘ओ.के., ओ.के.।’ माथुर बोला, ‘तुम कहो तो ये पुलिस इनकाउंटर मामले पर भी रिट हो सकती है। सरकार, एडमिनिस्ट्रेशन जाने क्या करें?’
‘नो डियर!’ आनंद बोला, ‘इस बात पर तो हमारी तुम्हारी कुट्टी हो जाएगी।’
‘ओ.के., ओ.के.।’ माथुर बोला, ‘इस पर नहीं करूंगा।’
‘क्यों? जानते हो क्यों मना कर रहा हूं?’
‘क्यों?’
‘पुलिस इनकाउंटर वाला मामला जनता का है, जनता को निपटने दो। जनता के इशू को कोर्ट में डाल कर जनता को कायर बनाना ठीक नहीं।’ वह बोला, ‘पर ये ब्यूटी पार्लर वाला मामला कोर्ट का मामला है। देखना कोर्ट फ़ौरन सुन
लेगी। अब आर्डर चाहे जो दे पर सुन ज़रूर लेगी।’
‘ओ.के.।’
‘हां, क्यों कि औरतों की सुंदरता, नैसर्गिक सुंदरता बचानी है। यह बहुत बड़ी बात है। पर्यावरण बचाना है, औरत की सुंदरता बचानी है। कोई नहीं बचाएगा, कोर्ट बचाएगी। सॉरी, माननीय कोर्ट!’ आनंद झूम कर बोला, ‘बोलो ठीक!’
‘बिलकुल ठीक!’ माथुर ने जैसे ताल में ताल मिलाई।
‘पर यार एक प्राब्लम है!’
‘अब क्या?’
‘ये तुम्हारे जज की डिमांड कैसे पूरी होगी?’
‘क्यों?’
‘नहीं अभी कुछ दिन पहले मेरा एक मास्टर दोस्त एक कहानी का फ्रे़म बता रहा था। बता रहा था कि एक जज के घर में पार्टी हो रही थी। अचानक एक ग़रीब सा टीनएज लड़का जज के पास पहुंचा अपनी टीनएज बहन के साथ। उस ने जज से कहा कि साहब मेरा बाप जेल में है। कल उन की पेशी है। उन को छोड़ दीजिएगा। यह मैं आप के लिए ढेर सारा पैसा लाया हूं चोरी कर के। रख लीजिए। और हां, मैं ने सुना है आप लोग लड़की भी लेते हैं। तो यह देखिए मैं अपने साथ अपनी बहन को भी लाया हूं। मेरी बहन को आज रोक लीजिए। लेकिन कल मेरे बाप को छोड़ ज़रूर दीजिएगा। कह कर वह लड़का जज के पैरों पर गिर गया। साथ में उस की बहन भी।’ आनंद ने माथुर की आंखों में झांका और फिर बोला, ‘डियर यह सब तो मुझ से नहीं हो पाएगा!’
‘हो तो मुझ से भी नहीं पाएगा।’ माथुर बोला, ‘साले तुम ने फिर मेरी उतार दी। अब शराब भी नहीं मिलेगी। बार बंद हो गई है। चलो अब घर चलें।
‘अभी नहीं।’
‘नशा तो उतर ही गया है। क्या पैंट भी उतार दूं?’ माथुर खीझा।
‘अरे नहीं चलो!’ आनंद बोला, ‘पर मुझे पेशाब लग गई है ज़ोर की।’ और वहीं लान में ही खड़े-खड़े उस ने जिप खोल दी। और शुरू हो गया।
‘यह क्या है आनंद?’ माथुर गला दबा कर चीख़ा, ‘क्या मेरी मेंबरशीप ख़त्म करवाओगे? सब लोग देख रहे हैं। औरतें भी यहां हैं।’
‘जो कर रहा हूं, करने दो!’ आनंद ने गाली बकी और कहा, ‘मैं यह क्लब के लान पर नहीं, सिस्टम पर मूत रहा हूं, मूतने दो! खि़लाफ़़ लोगों, मतलब अपने खि़लाफ़ लोगों पर मूत रहा हूं, मूतने दो!’ उस ने दुहराया और चिल्लाते हुए दुहराया, ‘मूतने दो। यह मेरा नपुंसक लेकिन मौलिक अधिकार है। जो कोई रोकेगा तो जनहित याचिका दायर कर दूंगा। श्योर कर दूंगा।’
पेशाब करने के बाद वह पीछे मुड़ा और बाहर गेट की तरफ़ चला। लड़खड़ाते हुए। माथुर उस के बगल में आता हुआ खुसफुसाया, ‘जिप तो बंद कर लो अपनी!’
‘तुम कर दो जिप बंद?’
‘क्या?’ माथुर किचकिचाया।
‘क्यों? मेरी जनहित याचिका तुम दायर करोगे तो मेरी जिप बंद करने क्या वह मंदिर का महंत आएगा?’
‘ओह आनंद आज तुम को क्या हो गया है। पूरी तरह आउट हो गए हो!’
‘हां डियर माथुर मुझे थाम लो नहीं अब मैं गिर जाऊंगा।’
‘ओ.के., ओ.के.।’ कह कर माथुर ने आनंद को थाम लिया। पर दो क़दम चलते ही दोनों ही गिर गए!
वेटरों ने आ कर दोनों को उठाया।
‘थैंक यू, थैंक यू!’ आनंद वेटरों से बोला। वेटरों ने दोनों को क्लब के रिसेप्शन पर ला कर बिठा दिया।
माथुर की तरफ़ देख कर आनंद मुसकुराया और बोला, ‘जानते हो माथुर अब हम दोनों ही क्या हैं?’
माथुर ने मुंह पर अंगुली रख कर चुप रहने का इशारा किया, धोबी की तरह हाथ उठा-गिरा कर कपड़ा धोने का अभिनय किया और फिर हाथ के इशारे से ही कुत्ता दौड़ा कर दिखाया। और मुंह पिचका कर बोला, ‘हुम!’ ऐसे गोया वह आनंद से बात नहीं कर रहा हो, दूरदर्शन पर मूक बधिर समाचार पढ़ रहा हो!
‘गुड!’ आनंद बोला। और फिर चुप हो गया।
दोनों ने देखा कि उन दोनों की स्थिति का पूरा रिसेप्शन मज़ा ले रहा है तो दोनों गहरी ख़ामोशी में ऐसे डूब गए, गोया कुछ हुआ ही न हो।
एक बिज़नेसमैन अपनी बीवी के साथ गुज़रा तो उस की बीवी ने आनंद और माथुर की ओर इंगित कर पूछा, ‘हूज़ दीज़ पीपुल्स!’
‘कुछ नहीं साले सब समाजवादी हैं। पी-पा कर लुढ़क जाते हैं और सोचते हैं कि समाज में क्रांति हो गई।’
‘हिप्पोक्रेट पीपुल!’ उस की बीवी मुंह गोल कर बोली और बड़ी हिक़ारत से मुसकुराती हुई ठुक-ठुक करती चली गई।
आनंद अब रिसेप्शन के सोफे़ पर पैर मोड़ कर लेट गया था। क्लब का एक कर्मचारी उस के पास आया। कहने लगा, ‘सर टैक्सी, रिक्शा, आटो कुछ मंगवा दूं?’
‘क्यों?’ आनंद भड़का, ‘गाड़ी है मेरे पास!’
‘ड्राइवर है?’
‘नहीं, ख़ुद ड्राइव करूंगा।’
‘सर आज ड्राइव न करें तो सेफ़ रहेगा।’
‘अच्छा तुम जाओ, कि तुम्हें बोझ लग रहा हूं?’
‘ओ.के. सर! सॉरी सर!’ कह कर वह चला गया।
‘यार यहां से चला जाए नहीं थोड़ी देर में नुमाइश लग जाएगी यहां हम लोगांे की।’
फिर दोनों बाहर आ गए।
‘यार माथुर हमें कोई आटो या रिक्शा करवा दो। सचमुच गाड़ी ड्राइव करने में कहीं भिड़ भिड़ा गया तो दिक़्क़त हो जाएगी। लोग तो खि़लाफ़ हैं ही, सड़कें भी खि़लाफ़ हो जाएंगी।’
‘कुछ नहीं चलो मैं तुम्हें छोड़ते हुए चला जाऊंगा।’
‘तुम साले ख़ुद ही फ़िट नहीं हो, हमें क्या छोड़ोगे?’
‘उतर गई है मेरी, मेरे साथ चलो!’
आनंद उस की कार में बैठ गया। घर पर उतरते समय आनंद बोला, ‘यार वह जनहित याचिका!’
‘हां, हां।’
‘कौन सी?’
‘इनकाउंटर वाली!’
‘अरे नहीं!’
‘फिर?’
‘वो ब्यूटी पार्लर वाली!’
‘अच्छा-अच्छा। बिलकुल-बिलकुल!’
‘थैंक यू!’ आनंद बोला, ‘मुझे ऊपर तक छोड़ दोगे?’
‘श्योर!’
फिर माथुर उस को पकड़ कर ले जाने लगा। तो आनंद जैसे टूट कर बोला, ‘यार माथुर मैं बिखर गया हूं। मुझे संभाल लो!’
‘मैं हूं तुम्हारे साथ ना!’ आनंद को कस कर पकड़ते हुए माथुर बोला।
‘थैंक्स डियर।’ घर के दरवाज़े पर पहुंच कर आनंद बोला, ‘अब यार घंटी बजा कर तुम चले जाओ। नहीं बीवी तुम्हें देखेगी तो ख़ामख़ा तुम्हारी इंप्रेशन बिगड़ जाएगी। वह तुम पर नाराज़ भी हो सकती है।’
‘ओ.के., ओ.के.!’
‘वो एक शेर है न!’
‘इरशाद-इरशाद!’
‘मेरे दिल पे हाथ रक्खो, मेरी बेबसी को समझो, मैं इधर से बन रहा हूं, मैं इधर से ढह रहा हूं।’
‘तुम्हें नहीं ढहने देंगे डियर!’ माथुर उसे बाहों में भरते हुए बोला।
‘घंटी बजाओ और जाओ।’
‘ओ.के.।’ कह कर माथुर ने बेल बजाई और सीढ़ियां उतर गया।
माथुर सीढ़ियां तो उतर गया। पर आनंद का इस तरह फ्ऱस्ट्रेट होना उसे शॉक कर गया था। अपने घर पहुंचने के पहले उस ने आनंद के घर उस के लैंड लाइन फ़ोन पर फ़ोन किया। आनंद की बीवी ने फ़ोन उठाया तो वह बोला, ‘भाभी मैं माथुर बोल रहा हूं।’
‘कौन माथुर?’
‘एडवोकेट माथुर!’
‘अच्छा-अच्छा हां माथुर भइया बताइए।’ वह बोली, ‘इतनी रात को?’
‘सॉरी, आनंद घर पहुंच गया न?’
‘हां, क्यों?’ वह बोली, ‘लुढ़के पड़े हैं बिस्तर पर। बताइए बात कराऊं?’
‘नहीं-नहीं।’ माथुर बोला, ‘बात तो आप से करनी थी।’
‘सुबह बात करिएगा। अभी आप बहके हुए हैं।’
‘नहीं-नहीं बस एक मिनट!’
‘अच्छा बोलिए!’
‘आनंद को थोड़ा संभालिए!’
‘हूं।’
‘असल में वह टूट गया है भीतर ही भीतर। काफ़ी टूट गया है।’ माथुर बोला, ‘भाभी बुरा मत मानिएगा, पर हम लोगों को उसे बिखरने से, टूटने से बचाना है, सहेजना है।’
‘हूं।’ आनंद की बीवी बोली, ‘और कुछ?’
‘नहीं बस!’ माथुर बोला, ‘और हां, उसे कुछ कहिएगा नहीं।’
‘ओ.के. माथुर भइया!’
‘पर भाभी उस को हुआ क्या? जो इतना अपसेट हो गया है?’
‘हम लोग सुबह बात करें?’
‘ओ.के.।’ माथुर बोला, ‘अगेन सॉरी, भाभी!’
आनंद की बीवी ने फ़ोन रख दिया। और बेडरूम में आ गई। आनंद को झिंझोड़ा बोली, ‘खाना खाएंगे?’
‘नहीं दूध दे दो।’ आनंद बुदबुदाया, ‘मोबाइल आफ़ कर दो, और हां, दूध भी रहने दो, पानी दे दो।’
पानी पी कर वह सो गया।
सुबह देर से वह उठा तो पत्नी ने पूछा, ‘रात गाड़ी नहीं लाए थे क्या?’
‘क्यों?’
‘नीचे गाड़ी नहीं खड़ी है इस लिए पूछा।’
‘हां, कुछ प्राब्लम थी, इस लिए नहीं लाया।’
‘आफ़िस जाएंगे, नाश्ता तैयार करूं।’
‘नाश्ता दो, पर आफ़िस आज नहीं जाऊंगा। और मन कहेगा तो अब कभी नहीं जाऊंगा।’
‘क्या?’
‘हां।’
पत्नी को रात माथुर की बात याद आ गई। सो चुप रह गई। और ख़ुद भी आफ़िस नहीं गई। आनंद ने उस से पूछा भी कि, ‘क्या तुम आफ़िस नहीं जाओगी?’
‘नहीं आज मैं भी नहीं जाऊंगी।’
‘क्यों?’
‘कुछ नहीं बस आप के साथ रहूंगी।’ वह बोली, ‘बहुत दिन हो गए हम लोग एक साथ पूरे दिन नहीं रहे, आज रहेंगे।’
‘क्या बात है, आज बड़ी रोमेंटिक हो रही हो?’
वह मुसकुरा कर रह गई।
इसी डिप्रेशन में रात ज़्यादा पी ली : ज्योतिष और संतई भी डूब गई है जनाब इन चैनलों के बाज़ार में : आनंद ने मोबाइल का स्विच आन किया, फ़ोन का रिसीवर फ़ोन पर रखा और अख़बार पढ़ने लगा। अख़बारों में चुनावी गहमा गहमी ही ज़्यादा थी, ख़बर कम। प्रायोजित ख़बरों की जैसे बाढ़ आई हुई थी अख़बारों में। अंदर के एक पन्ने में उस के ज्ञापन वाली ख़बर भी दो पैरे की थी और क़ासिम का इनकाउंटर करने वाले दारोग़ा के सस्पेंशन की ख़बर भी थी।
वह अख़बार पढ़ ही रहा था कि मुनव्वर भाई का फ़ोन आया। बहुत उत्साहित थे। बता रहे थे कि वहां के अख़बारों में उन के मूवमेंट की ख़बर ख़ूब फैला के छपी है। भाषण देते हुए उन की फ़ोटो और भारी जन समूह की फ़ोटो एक साथ छपी थी। दारोग़ा के सस्पेंशन की ख़बर भी वह बताते रहे। साथ ही बताया कि, ‘आज का आंदोलन और ज़ोरदार होगा।’
‘पर मुद्दा क्या होगा?’
‘वही क़ासिम!’
‘क़ासिम में क्या?’
‘उस की फ़र्जी मुठभेड़!’
‘फ़र्जी मुठभेड़ नहीं मनुव्वर भाई, हत्या! क़ासिम की हत्या और हत्यारों के खि़लाफ़ मुक़दमा, उन की गिऱतारी।’
‘हां, हां यही-यही!’
‘और एक बात का विशेष ध्यान रखिएगा कि इस आंदोलन में शरारती तत्वों की शिरकत रत्ती भर भी नहीं हो। बिलकुल शांतिप्रिय ढंग से। सांप्रदायिक उफान भी नहीं आना चाहिए रत्ती भर भी। प्रशासन पर ही हमलावर रहिएगा भाषणों में।’
‘बिलकुल-बिलकुल।’ मुनव्वर भाई बोले, ‘हम अपनी ज़िम्मेदारी ख़ूब समझते हैं।’
‘हां अगर पुलिस लाठीचार्ज वग़ैरह भी करे जो भीड़ को तितर-बितर करने के लिए तो जवाबी पथराव वग़ैरह भी नहीं होना चाहिए। शांतिप्रिय आंदोलन चाहिए हमें यह हर क्षण याद रखिएगा।’
‘बिलकुल-बिलकुल।’ मुनव्वर भाई बोले, ‘महातमा जी के रास्ते से ही सांप्रदायिकता के खि़लाफ़ हम लड़ेंगे।’
‘एक्जे़क्टली!’
बात ख़त्म हो गई।
दोपहर में चेयरमैन के पी.ए. का फ़ोन आया। पूछने लगा, ‘सर, आज आप आफ़िस नहीं आए।’
‘हां भाई। कल आप की बातों ने मुझे बहुत परेशान कर दिया। डिप्रेशन में आ गया। इसी डिप्रेशन में रात ज़्यादा पी ली। पूरी देह टूट रही है। इस लिए नहीं आया।’
‘राइट सर, राइट! हम समझे कि आप ख़फ़ा हो गए।’
‘नहीं, नहीं। आप लोग अगर नहीं चाहते तो मेरी दिलचस्पी अभी इस्तीफ़ा देने की है भी नहीं। वह बोला, ‘यह तो आप लोगों पर डिपेंड करता है।’
‘नहीं सर इधर से ऐसी कोई बात नहीं है।’ पी.ए. बोला, ‘बस सर ज़रा एक बार आप महंत जी से बात कर लेते। रियलाइजे़शन कर लेते!’
‘क्या?’ आनंद भड़का।
‘नहीं सर, मैं ऐसा नहीं कह रहा!’
‘तो फिर?’
‘आनरेबिल चेयरमैन सर चाहते थे कि मामला किसी तरह रफ़ा दफ़ा हो जाता।’
‘तो अब मुझे महंत जी से माफ़ी मांगनी होगी?’ आनंद बोला, ‘ठोकर मारता हूं ऐसी नौकरी पर।’
‘माफ़ी नहीं सर!’
‘फिर?’
‘बातचीत सर!’
‘अभी तो आप रियलाइज़ेशन की बात कह रहे थे।’ आनंद बोला, ‘आप शायद जानते नहीं, जान लीजिए और चेयरमैन साहब को भी बता दीजिएगा कि अपनी आइडियालजी की क़ीमत पर मैं अपनी ज़िंदगी भी जीना गवारा नहीं करूंगा, यह
तो नौकरी है।’
‘राइट सर, राइट! आई आनर सर!’ वह बोला, ‘बस बातचीत कर के मामला निपटवा दीजिए।’
‘देखिए बातचीत इतना होने पर भी अगर भारत पाकिस्तान में हो सकती है तो महंत जी से बातचीत करने में मुझे ऐतराज़ नहीं है। कहिए उन से कि बातचीत, शास्त्रार्थ हर चीज़ के लिए मैं तैयार हूं। पर माफ़ी मांगने, घुटने टेकने और कंप्रोमाइज़ करने को मैं तैयार नहीं हूं।’
‘ठीक है आनंद जी, मैं बताता हूं। बस थोड़ा सा लैक्शेबिल होने की बात है।’
‘वो आप लोग हो लीजिए!’
बात ख़त्म हो गई।
आनंद जानता है कि चेयरमैन का पी.ए. स्पीकर आन कर बात करता है। चेयरमैन के सामने। चेयरमैन बात सुनता रहता है, इशारों से या लिख कर निर्देश देता रहता है, पी.ए. वैसा ही बोलता रहता है। इसी लिए वह भी बातचीत में चार क़दम आगे, दो क़दम पीछे की रणनीति बनाए रखता है। बाक़ी जानता तो वह भी है कि इस चुनावी बिसात में वह कहीं नहीं ठहरता। इस शतरंज में पैदल की भी हैसियत नहीं है उस की। राजा, रानी के बाद एक से एक हाथी, ऊंट, घोड़ा फैले पड़े हैं। सो चुनाव में कूदने की बात गीदड़ भभकी ही है। पारिवारिक ज़िम्मेदारियां हैं, बच्चों की पढ़ाई, लिखाई, शादी-ब्याह है, रुटीन ख़र्चे हैं, सो नौकरी की बाध्यता है। कहीं और प्लेट में सजा कर नौकरी रखी भी नहीं है। और कि वह यह भी जानता है कि आनंद के बहाने चेयरमैन महंत जी को भी सेट करने में लगा होगा ताकि बातचीत के बहाने आमदऱत बढ़े और बिज़नेस के फंदे में वह भी कंपनी का टूल बन जाए। ये पूंजीपति किसी को बेचने में सेकेंड भर की भी देरी नहीं लगाते। बड़ों-बड़ों को टूल और प्रोडक्ट बना लेने में इन्हें महारत है। किस हाथी को पैदल बना दें और किसी पैदल को घोड़ा वह ही जानते हैं। शतरंज की बिसात उन की, गोटियां उन की। खेल उन का। गोल्फ़ उन का, पोलो उन का। देश उन का। गोया देश, देश न हो खेल हो उन का।
ख़ैर शाम तक क़ासिम के इनकाउंटर टीम के खि़लाफ़़ हत्या के मुकदमे की ख़बर भी आ गई। प्रमुख सचिव गृह ने ख़ुद फ़ोन कर आनंद को यह ख़बर दी और कहा कि, ‘कांग्रीचुलेशंस!’
‘थैंक्यू! पर किस बात के लिए?’
‘अरे आप की सारी डिमांड्स कंपलीट हो गईं। इनकाउंटर टीम के खि़लाफ़़ हत्या का मुक़दमा लिखवाने के आर्डर्स हो गए हैं, मुआवजे़ के भी।’
‘अरे इस के लिए तो आप को बहुत-बहुत शुक्रिया!’
‘नहीं, नहीं शुक्रिया तो चीफ़ मिनिस्टर साहिबा को दीजिए। यह उन्हीं का फ़ैसला है। आ़टर आल उन्हें भी तो मुस्लिम वोटों की दरकार है। और फिर इस से तो महंत की राजनीति को भी धक्का लगेगा।’
‘चलिए इस सब से मुझे बहुत सरोकार नहीं है। मैं तो ख़ुश हूं बस इस बात से कि पीड़ित को न्याय मिल गया। वह भी इतनी जल्दी। जिस की कम से कम मुझे तो सच बताऊं, बहुत उम्मीद नहीं थी। और इतनी जल्दी तो क़तई नहीं। और आप की इस चीफ़ मिनिस्टर से तो हरगिज़ नहीं।’
‘चलिए अब आप का भी रास्ता साफ़!’
‘मतलब?’
‘आप के चुनाव लड़ने का मार्ग प्रशस्त हो गया। अच्छा ख़ासा आप गेन करेंगे!’
‘कहां की बात कर रहे हैं आप भी भाई साहब!’ आनंद बोला, ‘कहीं चुनाव-वुनाव लड़ने नहीं जा रहा मैं। इस चुनाव, इस राजनीति के लायक़ अब नहीं रहा मैं। कहां से इतना पैसा लाऊंगा, कहां से जातियों को भरमाऊंगा, हिंदू, मुसलमान कहां और कैसे लड़ाऊंगा?’
‘यह सब करने की आप को ज़रूरत भी अब कहां है? अब तो आप अपने शहर में हीरो हैं। पब्लिक टूट कर आप को वोट करेगी।’
‘इतनी ख़ुशफहमी में जीने की आदत पता नहीं क्यों मुझ में कभी नहीं रही।’
‘कुछ नहीं आनंद जी, कालीन बिछ गई है आप के लिए, बस अब आप को चलना है। आप के बस हां की देर है।’
‘समझा नहीं मैं।’
‘मैडम का सीधा प्रस्ताव है कि आप उन की पार्टी ज्वाइन कीजिए और अपने शहर से पार्टी के टिकट पर नामिनेशन कीजिए!’
‘यह आप क्या कह रहे हैं?’
‘चौंक गए न आप?’ प्रमुख सचिव गृह बोले, ‘मैं जानता था कि आप चौंकेंगे। खै़र, तो मैं आप की हां समझूं?’
‘यह पोलिटिकल प्रपोज़ल ब्यूरोक्रेटस कब से देने लगे भाई मैं तो समझ नहीं पा रहा।’
‘इस सब झमेले में आप मत पड़िए। आप तो बस हां कीजिए। फिर देखिए!’
‘पर वहां तो वह माफ़िया तिवारी का बेटा आलरेडी कंडीडेट डिक्लेयर है।’
‘वह कहां जीतने वाला है, यह तो मैडम भी जानती हैं।’
‘पर सुनता हूं कि मैडम टिकट में ही पैसे ले लेती हैं।’
‘यह सारे फै़क्टर्स आपके साथ निल हैं। मैडम तो बस महंत जी के खि़लाफ़ एक मज़बूत उम्मीदवार चाहती हैं जो उन्हें हरा दे। और आप वहां हीरो हो ही चुके हैं। महंत जी को टक्कर दे चुके हैं। ब्राह्मन हैं। एक प्लस प्वाइंट यह भी है। सोशल इंजीनियरिंग वाला फै़क्टर है ही। जुझारू छात्र नेता रहे ही हैं आप। सो आप आसानी से महंत जी को डिफ़ीट दे सकते हैं, ऐसा मैडम मानती हैं।’
‘मैडम कुछ नहीं जानतीं।’ आनंद बोला, ‘ज़मीनी हक़ीक़त यह है कि कोई शीर्षासन भी कर ले तो आज की तारीख़ में महंत जी को हराना मुश्किल है। महंत जी की जड़ें वोटरों में बहुत गहरी हैं, मंदिर में आस्था के चलते वह जीत ही जाएंगे। आप नहीं जानते, मैडम नहीं जानतीं, पर मैं जानता हूं वहां की जनता को।’
‘कुछ नहीं, बड़ी-बड़ी इंदिरा गांधी हार गई हैं और फिर मैडम के करिश्मे को आप नहीं जानते, मिट्टी पर भी हाथ रख देती हैं तो सोना हो जाता है। फिर आप तो हीरा हैं, मैडम के लिए। बस अब आप हां कीजिए तो मैं मीटिंग फ़िक्स कराता हूं आप की मैडम के साथ।’
‘भाई मुश्किल है। बहुत मुश्किल।’
‘क्या?’
‘हां।’
‘क्यों?’
‘मेरी आइडियालजी मुझे एलाऊ नहीं करती इस काम के लिए।’ आनंद बोला, ‘मैडम जो राजनीति कर रही हैं या जिस राजनीति की वह हामीदार हैं, मैं उन की पार्टी में, उन के साथ एक क़दम नहीं चल सकता। लोहिया से सीखा था, जाति तोड़ो पर यह मोहतरमा तो इन दिनों जाति जोड़ो की राजनीति कर रही हैं, जाने कहां-कहां से जातियां खोज रही हैं, जातियों का ध्रुवीकरण कर सोशल इंजीनियरिंग की आइंस्टीन बनी हुई हैं। सो उन को अपना नेता नहीं मान सकता, उन की सामंती तानाशाही, जातिवादी राजनीति, फ़ासिस्ट तरीके़, गांधी के खि़लाफ़ उन का लगातार बोलना, ज़हर बोलना, कुछ भी तो मुझे सूट नहीं करता उन का!’
‘अरे यह कारपोरेट सेक्टर की दो कौड़ी की नौकरी सूट करती है आप को?’
‘नहीं करती।’
‘पर आप करते हैं।’
‘मजबूरी है जीवन यापन की।’
‘तो यह सक्रिय राजनीति में आने में, जो थोड़ी सी आइडियालजी आड़े आती है, उस को भी डायल्यूट कर लीजिए।’
‘मुश्किल है भाई साहब! मुझे माफ़ कीजिए।’ आनंद बोला, ‘नौकरी मैं अपने मन की नहीं कर सकता, मजबूरी है। पर राजनीति तो मैं अपने मन की ही करूंगा। मन की नहीं मिली तो नहीं करूंगा। वो आप ने एक गाना सुना होगा, दुनिया करे सवाल तो हम क्या जवाब दें! तो दुनिया छोड़िए यहां तो ख़ुद ही से करें सवाल तो हम क्या जवाब दें?’ वह बोला, ‘सॉरी मेरे लिए यह नामुमकिन है।’
‘आप एक बार फिर सोच लीजिएगा आनंद जी!’
‘एक बार?’ आनंद बोला, ‘हज़ार बार सोच कर ही यह कहा आप से!’
‘दिक़्क़त यह है कि मैडम कहीं बुरा न मान जाएं!’
‘तो मानने दीजिए! इस से क्या फर्क़ पड़ता है!’
‘फ़र्क़ तो मुझे पड़ता है। मैं तो कानफ़िडेंट था कि आप मान जाएंगे।’
‘चलिए आप से अगेन सॉरी!’
‘मैडम की नाराज़गी आप नहीं जानते?’
‘फिर एक गाना दुहरा दूं? ये भी पुराना है- तीरे नज़र देखेंगे, ज़ख़्मे जिगर देखेंगे!’
‘चलिए आप तो गानों में बात निकाल दे रहे हैं और आप से एक गोल्डेन चांस निकला जा रहा है, यह आप नहीं सोच रहे? अरे सोचिए कि पूरा ले़ट, थर्ड फ्रंट मैडम को प्राइम मिनिस्टर डिक्लेयर कर चुका है तो कुछ सोच कर ही।
आखि़र उन सब के पास भी अपनी-अपनी आइडियालजी है!’
‘आइडियालजी है?’ आनंद बोला, ‘अरे दुकान कहिए, दुकान! आइडियालजी की दुकान, सत्ता ख़रीदने बेचने की दुकान! गोया कबाड़ी की दुकान!’
‘फिर भी!’
‘आप मेरे जज़्बात, मेरी बात क्यों नहीं समझते?’
‘आप के इस जज़्बे को सैल्यूट! पर फिर भी आप विचार करिएगा, मैं फ़ोन फिर करूंगा!’
‘इस बात के लिए न ही करिए तो बेहतर!’
‘आप को तो संत होना चाहिए था, या हो जाना चाहिए!’
‘क्या बात कर रहे हैं आप भी, क्यों गाली दे रहे हैं?’
‘अब इस में गाली की क्या बात हो गई?’
‘आप देखिए जो चैनलों पर हैं, वही तो संत हैं?’
‘हां, और क्या?’
‘और ये सब संत, साध्वी हैं कि अभिनेता, अभिनेत्री हैं? गा रहे हैं, बजा रहे हैं, नाच रहे हैं, नचा रहे हैं, दुकान खोले बैठे हैं। पैसा लुटा रहे हैं, पैसा कमा रहे हैं। हज़ारों करोड़ का कारोबार है इनका। अरबों की हैसियत है इनकी और आप कह रहे हैं संत हैं ये सब! ज्योतिष और संतई भी डूब गई है जनाब इन चैनलों के बाज़ार में।’
‘चलिए यह सब फिर कभी। आप को फिर फ़ोन करता हूं।’
‘अरे हां यह बताइए कि कहीं मेरी असहमति, मेरे इंकार से बाक़ी सारे फ़ैसले बदल तो नहीं जाएंगे?’
‘अरे नहीं, वह सारे फ़ैसले हो जाने के बाद ही मैं ने आप को फ़ोन किया है।’ वह बोले, ‘चुनाव आयोग से अनुमति ले कर ही यह सब किया गया है। नहीं मामला भड़क जाएगा तो लेने के देने पड़ जाएंगे।’
‘ओ.के., ओ.के.।’
उस ने फ़ोन रख कर पत्नी को बताया कि, ‘मैडम का प्रपोज़ल है कि उन की पार्टी से मैं चुनाव लड़ूं!’
बात सुनते ही पत्नी लपक कर गले लिपट गई। बोली, ‘इस से अच्छी और क्या बात होगी?’ उसे जल्दी-जल्दी चूमती हुई बोली, ‘आप का डिप्रेशन, फ्ऱस्ट्रेशन सब छूट जाएंगे।’
‘पर मैं ने तो इंकार कर दिया।’
‘क्या?’ वह जैसे आसमान से गिरी। उस की बाहों का कसाव ढीला पड़ गया। फिर वह दूर छिटकती हुई बोली, ‘दुनिया बदल रही है, आप भी बदलिए!’
‘तो जा कर, दौड़ कर उस मूर्ख औरत के पैर छू लूं? अपने को गिरवी रख दूं? ताकि जो सांस ले भी पा रहा हूं, न ले पाऊं? जातियों के हिमालय में जा कर गल जाऊं?’
‘नहीं यह तो मैं नहीं कह रही।’
‘तो फिर?’
‘चुनाव लड़ना चाहिए!’
‘उस महंत के खि़लाफ़ जो एक नंबर का धूर्त है। संतई, साधना भूल कर आपराधिक सांप्रदायिक और हिंसक समाज की वकालत कर रहा है।’
‘हां।’ वह बोली, ‘तो उस के आगे आप हथियार मत डालिए।’
‘वहां की आधी से अधिक आबादी उस की अंध समर्थक है। ज़मानत भी नहीं बचेगी मेरी। फज़ीहत हो जाएगी, दाग़ लगेगा ऊपर से। जीवन भर की कमाई नष्ट हो जाएगी।’
‘कुछ नहीं मैडम की हवा है, प्राइम मिनिस्टर होने जा रही हैं, लड़ जाइए चुनाव आप भी मिनिस्टर हो जाइएगा, धड़ाक से। इस नौकरी से छुट्टी पा जाइएगा। आप के क़द से मेल नहीं खाती यह नौकरी।’ वह बोली, ‘और फिर नौकरी के लिए आप बने भी नहीं हैं, आप तो जन्मजात पोलिटिकल हैं।’
‘ख़ाक हैं!’ वह बोला, ‘अपने छोटे से गांव की नस तो समझ नहीं पाया आज तक! अपने गांव से दस-बीस वोट भी नहीं पा सकता और तुम संसदीय चुनाव की बात कर रही हो?’
‘मैडम के नाम पर आप को वोट मिलेंगे। ब्राह्मण, दलित, मुसलमान सभी। आप जीत जाएंगे।’
‘इतने सालों से मेरे साथ रह रही हो, इतना ही मुझे समझ पाई हो?’ आनंद उदास हो कर, बहुत धीरे से बोला।
पत्नी चुप रह गई।
बात टालने के लिए वह अकसर इसी चुप रहने का हथियार इस्तेमाल करती है। बहुत बड़ा हथियार है यह उस का।
चुनावी दंगल, आफ़िस की आफ़त, गांव की मुश्किलें सब कुछ छोड़ कर वह दूसरे दिन पत्नी, बच्चों को ले कर पहाड़ घूमने निकल गया।
यह कौन सी प्यास है?
जो पहाड़ पर ही बुझेगी?
कि संत होने की ओर वह अग्रसर है?
कोई गुफा, कोई कंदरा ढूंढ कर धूनी रमा लेगा वह?
या कि यह पलायनवादिता है उस की?
या फिर वह कहीं फिसल न जाए अपने मूल्यों, सिद्धांतों और आइडियालजी वगै़रह-वग़ैरह से!
शायद सब कुछ मिला जुला हो।
वह कभी सुनता था कि तमाम राजस्थानी, और महाराष्ट्रियन पंडित अपना धर्म बचाने के लिए नदियों के किनारे-किनारे भागते-भागते पहाड़ों में आ कर छुप गए थे। तो क्या वह भी अपना धर्म बचाने के लिए पहाड़ों पर आ गया है?
वह नहीं जानता। पर आ गया है।
पत्नी तो बहुत नहीं, पर बच्चे ख़ूब ख़ुश हैं। उसे अच्छा लग रहा है। पहाड़ों का हुस्न इस में और इज़ाफ़ा कर रहा है। उसे एक फ़िल्मी गाना याद आ रहा है, ‘हुस्न पहाड़ों का क्या कहने कि बारों महीने यहां मौसम जाड़ों का।’ नैनीताल के ताल वह घूम रहा है। नैनी ताल, भीम ताल, नौकुचिया ताल। सारे सरकारी गेस्ट हाउस चुनावी पर्यवेक्षकों और उनके सहायकों ने घेर रखे हैं। बमुश्किल नैनीताल क्लब में एक सूट मिल पाता है। सीज़न भी पीक पर है और चुनाव भी। पर्यटकों के लिए चुनाव बैरियर है या चुनावी कर्मियों के लिए पर्यटक बैरियर हैं, कहना मुश्किल है। वह तल्ली ताल से मल्ली ताल, मल्ली ताल से तल्ली ताल के राउंड मारता है। दो दिन में ही सब कुछ देख दाख कर बच्चे बोर हो गए हैं। बोटिंग कर के भी। एक उस की पुरानी महिला मित्र हैं, वकील हैं, सोशल एक्टिविस्ट भी और यहां बोट क्लब की मेंबर भी। खाने पर बुलाती हैं। घर में नहीं, बोट क्लब पर। रहती वह भुवाली में हैं। बताती हैं कि घर में कुछ कंस्ट्रक्शन चल रहा है सो घर तितर बितर है, डिस्टर्ब है। सो यहीं। पत्नी, बच्चे सब वेजेटेरियन हैं। तो वह कहती हैं, ‘हम लोग भी वेज ले लें?’
‘आप की मर्ज़ी!’ आनंद बोला, ‘पर मैं तो चिकेन खाऊंगा। तंदूरी चिकेन भी और बटर चिकेन भी।’
‘ओ.के.।’ वकील मित्र बोलीं, ‘तो ड्रिंक भी?’
‘श्योर!’
वह उस के लिए पीटर और अपने लिए बोदका आर्डर करती हैं। इशारों से पत्नी के लिए पूछती हैं तो वह इशारों में बताने के बजाए बोल पड़ता है, ‘अरे नहीं।’
पत्नी और बच्चे बिदके हुए हैं कि यह औरत हो कर भी बोदका पीती है। बोदका मतलब रशियन ठर्रा। पर औरतें इसे इस लिए पसंद करती हैं कि एक तो स्मूथ है दूसरे, स्मेल मामूली है। वह पहले भी इस वकील मित्र की मेहमाननवाज़ी क़बूल चुका है। पर तब की वह यहां अकेले आया था। तब भी वह इसी बोट क्लब में डिनर पर आया था। तब एक सेमिनार में आया था अब की घूमने। घूमने कि बचने? बचने मुश्किलों से। बचने फिसलने से। बचने डिप्रेशन और फ्रस्ट्रेशन से। बचने की और भी कई तफ़सील हैं। पर अभी वह बच रहा है कि पत्नी ज़्यादा न बिदके। महिला मित्र का पीना देख कर। बच्चे तो अपने पिज़्ज़ा विज़्ज़ा में लग गए हैं। और वह महिला मित्र से ज़्यादा पत्नी से बतियाने में मसरूफ है और बता रहा है कि, ‘नैनीताल में उसे दो ही चीज़ें सब से ज़्यादा अच्छी लगती हैं। एक तो यहां का राजभवन। और राजभवन क्या बल्कि उस का लॉन, उस का आर्किटेक्ट। दूसरे यहां का यह बोट क्लब। बेहद खूबसूरत, सलीके़दार और सारी सुविधाओं से भरपूर।’ वह बता रहा है कि, ‘इस की लाइब्रेरी भी बहुत अच्छी है और इस में लकड़ियों का काम तो ग़ज़ब का है।’
‘ये तो है!’ पत्नी इस बात को मानती है और ठंड से सिकुड़ जाती है।
‘चलते समय ही कहा था इनर या स्वेटर वग़ैरह पहन लो। बाहर ताल के किनारे बैठोगी तो ठंड लगेगी। पर मानती कहां हो?’
‘मैं अपना स्वेटर दूं?’ महिला मित्र बोली।
‘नहीं-नहीं।’ कहती हुई पत्नी और बिदक गई। बोली, ‘इस शॉल से काम चल जाएगा।’
पत्नी कहीं ज्वालामुखी न बन जाए सो आनंद ने दो पेग पर ही इतिश्री कर ली। चिकेन तंदूरी ख़त्म किया। और कह दिया कि, ‘अब खाना खाया जाए!’ क्यों कि उस के भड़कने के एक नहीं तीन-तीन कारण थे। शराब, महिला मित्र और उस का शराब पीना।
‘बड़ी जल्दी है आप को? कहीं और भी जाना है क्या?’
‘नहीं, नहीं।’
‘तो एक दो ड्रिंक और लीजिए!’
‘नहीं-नहीं मैं नहीं।’ सा़ट ड्रिंक ले रही पत्नी बोल पड़ी।
‘सॉरी आप के लिए नहीं आनंद जी के लिए कहा।’
‘अच्छा?’ पत्नी बोली ऐसे गोया किसी गुब्बारे में पिन चुभो रही हो। और बिदक गई।
‘सॉरी अब मन नहीं है।’ आनंद ने फिर हाथ जोड़ लिया।
‘आज आप पता नहीं क्यों संकोच कर रहे हैं?’ महिला मित्र शिष्टाचार में बोलीं।
‘आज मैं हूं न इन के साथ?’ पत्नी उन का सारा शिष्टाचार धोती हुई बोली।
‘अच्छा-अच्छा ये बात है!’ महिला मित्र खिलखिलाई। बोली, ‘मतलब आप से डरते हैं?’
‘डरने पर तो ये हाल है!’ पत्नी तंज़ करती हुई बोली, ‘जो न डरते तो जाने क्या होता?’
‘ओह!’ कह कर मित्र ने बात टाली और कहने लगी, ‘सुबह का अख़बार देखा आप ने?’
‘क्यों?’
‘आप की चीफ़ मिनिस्टर का एक बयान छपा है जिस में उस ने एक क्रिमिनल मुख़्तार अंसारी को ग़रीबों का मसीहा बताया है। ये तो हद है!’
‘हद क्या वेटिंग प्राइम मिनिस्टर है भई!’ आनंद तंज़ भरे अंदाज़ में बोला।
‘वो तो है ही!’ पत्नी बोली, ‘आप भी मान जाते तो कितना अच्छा होता!’
‘ओह तुम तो फिर!’ आनंद बोला, ‘यह चैप्टर तो क्लोज़ हो चुका है हमारी ओर से!’
‘कौन सा चैप्टर भई!’ मित्र मुसकुराई।
‘सोचिए चीफ़ मिनिस्टर ने इन को अपनी पार्टी ज्वाइन करने और एम.पी.का टिकट प्रपोज़ किया। और ये इंकार कर के यहां भाग आए हैं।’
‘आनंद जी, इज शी राइट?’
‘हां।’ आनंद धीरे से बोला।
‘आफ़र बुरा नहीं, एक्सेप्ट करना चाहिए आप को।’
‘आप मुझे जानती हैं?’
‘हां।’
‘फिर भी ऐसा करने को कह रही हैं?’
‘ओह सॉरी!’ मित्र बोलीं, ‘आनंद जी पर एक बात बोलूं? इफ़ यू डोंट माइंड!’
‘हां, हां बिलकुल।’
‘जिं़दगी में हम लोग कितने सारे कंप्रोमाइज़ करते हैं तो पालिटिक्स में भी कंप्रोमाइज़ चलता है। चलता है क्या दौड़ता है!’
वह चुप रहा।
उसे याद आया कि अभी पिछले दिनों उस के शहर में उस के पुराने मित्र और पत्रकार अशोक जी ने भी उस से और मुनव्वर भाई से कहा था कि पालिटिक्स में एक शब्द होता है कंप्रोमाइज़। जो आप लोग नहीं कर पाए।
‘क्यों आनंद जी!’ मित्र ज़रा देर रुक कर बोलीं, ‘ऐम आई राइट?’
‘नो!’ आनंद थोड़ा सख़्ती से बोला, ‘अगर आप को ज़ोर की प्यास लगी है और पास कहीं पानी नहीं है, नाली का बहता या रुका हुआ पानी ही उपलब्ध है तो क्या उसे पी लेंगे? नहीं न! तो तमाम सारी मुश्किलों के बावजूद राजनीति मेरे
लिए समझौता नहीं है। राजनीति मेरे लिए अभी भी एक संभावना है। जैसे साफ़ पानी की तलाश!’
‘जब इतने कानफ़िडेंट हैं आप तो अब मैं क्या कह सकती हूं।’
‘हां क्यों कहंेगी?’ पत्नी भी सख़्ती से बोली, ‘आप जैसे दोस्तों ने ही इन का दिमाग़ ख़राब कर रखा है?’
‘जो भी हो यह चैप्टर यहीं क्लोज़ करें?’ वह पत्नी की तरफ़ मुसकुरा कर देखते हुए बोला।
‘आप किसी की मानते ही कब हैं?’ वह बोली, ‘पता नहीं कब आप के सपनों की राजनीति इस धरती पर होगी और आप सक्रिय राजनीति में आएंगे। मुझे तो लगता है आप सोशल एक्टिविस्ट ही बने रहेंगे जिं़दगी भर!’
‘तो कोई पाप तो नहीं है न यह!’ वह बोला, ‘कुछ तो करेंगे न। पर ग़लत नहीं करेंगे यह तो तय है।’
खाना ख़त्म हो चुका था। नींबू पानी का बाऊल आ चुका था हाथ धोने के लिए। बात भी ख़त्म हो गई। महिला मित्र को उस ने थैंक्यू कहा। अच्छे से डिनर के लिए। मित्र पत्नी से गले मिल कर विदा हुई। वह भी बोट क्लब से नैनीताल क्लब के लिए चला। बाहर हलका कोहरा था। धुएं जैसा एहसास कराता कोहरा।
यह क्या था?
पत्नी के मन में उठता संशय?
मुख्यमंत्री का प्रस्ताव न मानने का संशय या महिला मित्र के साथ शराब पीने का संशय?
जाने क्या था।
पर गुलाबी नशे के बीच यह कोहरा उसे अच्छा लगा। उस ने उसे हाथ से छूना चाहा। पर हाथ में नहीं आया। तो क्या उस की ज़िंदगी कोहरा हो गई है? हवा, धुआं, कोहरा! यह सब हाथ क्यों नहीं आते? क्या यह हवा, धुआं, कोहरा भी सफलता हैं? कि हाथ नहीं आते? कि सफलता के प्रतिमान हैं?
पता नहीं।
पर टीन एज क्रास कर रही बेटी कह रही है, ‘पापा अब की नैनीताल आने के बजाय कश्मीर चलना चाहिए था। यहां तो कई दफ़ा आ चुके हैं। पर कश्मीर कभी नहीं गए!’
‘कश्मीर की फ़िज़ा आज कल ख़राब चल रही है बेटी। तिस पर चुनाव। ख़तरे से ख़ाली नहीं है इन दिनों वहां जाना।’
बेटी चुप हो जाती है।
‘कुछ नहीं बेटी यहां हम घूमने नहीं, सिर्फ़ मौसम का लुत्फ़ उठाने आए हैं और मन हलका करने!’
‘और उस चुड़ैल के साथ पीने!’ पत्नी ठुनक कर बोली।
‘ओह तुम चुप नहीं रह सकती ज़रा।’ वह बोला, ‘इस कोहरे का मज़ा लो।’
पर तब तक नैनीताल क्लब आ गया था।
कोहरा छंट गया था।
तो क्या कोहरा भी पानी पीने चला गया था?
यह कौन सी प्यास है?
या प्यास की कौन सी फांस है?
उस का मन करता है कि रात-वात की परवाह किए बिना नैनीताल के चाइना टाप की ऊंचाई पर जा चढ़े और जा कर चीख़ कर सब को बताए कि यह राजनीति हमारी है! मुग़ले आज़म का सलीम जैसे चीख़ा था अनारकली मेरी है!
तो क्या जैसे सलीम घिर गया था अकबर के बुज़दिल सिपाहियों के घेरे में और बेहोशी के आलम में चीख़ा था अनारकली मेरी है, वैसे ही वह भी घिर गया है प्रजातंत्र के इन बुज़दिल राजनीतिज्ञों के घेरे में? इसी लिए वह चीख़ना चाहता है कि राजनीति हमारी है! सलीम-अनारकली, अकबर की कहानी कहते हैं कि फ़ुल फ़ैंटेसी है, इतिहास में यह कथा कहीं दर्ज नहीं है। सब कुछ कमाल अमरोही की कलम की उपज है।
तो क्या राजनीति में वह भी तो कोई फैं़टेसी ही नहीं जी रहा? अगर वह भी राजनीति में फ़ैंटेसी ही जी रहा है तो यह किस कमाल अमरोही के कलम की उपज है? कौन के. आसिफ़ उस की फैंटेसी को डायरेक्ट कर रहा है कि वह चाइना टाप पर जा कर, चीख़ कर आधी रात को सब को सुनाना चाहता है कि यह राजनीति हमारी है। फिर कौन सुनेगा? पूरा देश या सिर्फ़ नैनीताल?
वह नैनीताल जिसने वैसी मुश्किल में नारायण दत्त तिवारी को हरा दिया। तब नैनीताल ने उन्हें जिताया होता तो वह शायद देश के प्रधानमंत्री हुए होते। पर नहीं, उनके हारने का सबब बन गया कि तब चुनाव न लड़ने के बावजूद नरसिंहा राव धो पोंछ कर निकाले गए। प्रधानमंत्री बन गए। बाबरी मस्जिद गिर गई, हर्षद मेहता कांड हो गया, मनमोहनी आर्थिक उदारीकरण देश के गर्भ में ऐसे आ गिरा गोया कुंती के गर्भ में कर्ण। देश जिस की क़ीमत अब चुका रहा है, जाने कब तक चुकाएगा, अमरीका के हाथों गिरवी हो गया। कि बंधुआ हो गया। और बेचारे नारायण दत्त तिवारी? जिस उत्तर प्रदेश के वह चार बार मुख्यमंत्री रहे थे, उसी के खंडित आठ ज़िलों के प्रदेश उत्तराखंड के मुख्यमंत्री बनने को विवश हो गए। छुटभैयों ने फिर भी उन्हें चैन नहीं लेने दिया। राज्यपाली में दिन बिताने को विवश हैं विकास पुरुष! यह कौन सी यातना, कौन सी प्यास और कौन सी फांस है?
उन्हें यह यातना, यह प्यास और यह फांस देने वाले इस नैनीताल में वह चीख़ना चाहता है कि राजनीति हमारी है! कौन सुनेगा, किस को सुनाएं की मनःस्थिति में आ गया है वह!
नारायण दत्त तिवारी पुराने समाजवादी हैं। संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी से होते हुए वह कांग्रेस में आए थे, कांग्रेस तिवारी बनाई, फिर कांग्रेस में लौटे। तो क्या तिवारी पुराने समाजवादी हैं इस लिए उस की भावनाएं, उन की ओर द्रवित हो रही हैं, या उन की यातना से उसे सहानुभूति हो रही है। और वह यह भूल जा रहा है कि संजय गांधी की चाकरी उन्हों ने भी की है और कि इमरजेंसी के समय में वह ही उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री भी थे। उसी दौर में उसे जेल भुगतनी पड़ी थी। या कि फिर बाद के दिनों में कुछ प्रशासनिक मदद उन्होंने की थी, उसकी इस नौकरी में भी वह एक फै़क्टर बने थे, वह भावनाएं ही उन्हें उनके पक्ष में उसकी सहानुभूति की गंगा यमुना बहा रही हैं?
पता नहीं?
पर नैनीताल की उस कृतघ्नता के लिए वह नैनीताल को फिर भी माफ़ नहीं कर पाता। नहीं जाता वह चाइना टाप। वह राजनीति में फैंटेसी या फैंटेसी की राजनीति में नहीं जीना चाहता। ज़मीनी सच्चाई, ज़मीनी राजनीति को जीना चाहता है वह!
ठंड बढ़ गई है। उस ने कंबल देह में और कस के लपेट लिया है।
दूसरा दिन इतवार का है। शाम को वापस लखनऊ लौटना है। दिन में दो तीन लोगों से मिलना है। ख़ास कर एक जस्टिस हैं। लखनऊ में पहले एडवोकेट थे। अब यहां जस्टिस हो कर आ गए हैं। लंच उन्हीं के साथ है। उन की पत्नी बहुत अच्छा खाना बनाती हैं और बहुत ही सलीक़े से, बहुत ही मुहब्बत से खिलाती हैं। बिलकुल शबरी भाव से। खाना खा कर मन और आत्मा दोनों तृप्त हो जाते हैं। आनंद आ जाता है। वह चाहे जो खिलाएं। वह अकसर कहती भी थीं लखनऊ में कि, ‘आनंद जी को तो बात बेबात आनंद आ जाता है। सूखी रोटी नमक भी खिला दो तो भी उन को आनंद आ जाता है।’
‘भाभी जी आप खिलाती ही कुछ इस तरह हैं कि मैं क्या करूं? अवश हो जाता हूं।’
पर यह लखनऊ की बात थी।
यहां नैनीताल में बात अलग थी। ख़ानसामा, अर्दली में वह फंस गई थीं। आनंद को देखते ही चहक पड़ीं। बोलीं, ‘अरे हमें तो पता ही नहीं पड़ा कि आप लोग आ रहे हैं। नहीं खाना ख़ुद बनाती।’
‘बनाया नहीं तो क्या हुआ?’ आनंद बोला, ‘परोसने में अपना हाथ लगा दीजिएगा। आप का हाथ लगते ही आप वाली मिठास आ जाएगी।’
‘पर ख़ुद बना कर ख़ुद परोसने की बात ही और है।’ वह बोलीं, ‘उस सुख को आप मर्द क्या जानें?’
‘क्यों नहीं जानेंगे?’ वह बोला, ‘आखि़र आप लोगों का बनाया खाने वाले हमीं लोग तो हैं।’
‘ये तो है।’
‘पता है आप को कि एक आदमी बहुत दिनों तक घर से बाहर रहा। एक दिन घूमते-घामते वह ऐसे ढाबे पर पहुंचा जहां बाहर बोर्ड पर लिखा था, बिलकुल घर जैसा खाना। वह लपक कर ढाबे में घुस गया। पर जब खाना सामने आया और वह खाने लगा तो झेल गया। वेटर को बुलाया और पूछा, ये क्या है? दाल में नमक ज़्यादा, रोटी जली हुई, चावल कच्चा! यह सब क्या है? तो वेटर बोला बोर्ड नहीं पढ़ा था? वह बोला- पढ़ा था। तो वेटर बोला- फिर क्यों झल्ला रहे हो? बिलकुल घर जैसा खाना नहीं है क्या?’
‘अरे अभी तक तो आप शेर ही सुनाते थे अब लतीफ़े भी सुनाने लगे?’ वह बोलीं।
‘लतीफ़ा?’ आनंद बोला, ‘ये हकीक़त आप को लतीफ़ा लगती है तो मैं क्या कर सकता हूं भला?’ कह कर वह ख़ुद मुसकुराने लगा।
लखनऊ से एक वकील साहब भी सपरिवार नैनीताल घूमने आए थे। यहां वह भी लंच पर थे। और जब एक एडवोकेट और जस्टिस बैठे हों तो मुक़दमों की बात न चले यह हो नहीं सकता।
‘भई देखिए मैं तो हमेशा से कहता आ रहा हूं कि इलाज और न्याय इस देश में अब एक सपना है, बल्कि मृगतृष्णा है।’
‘हां भाई साहब हो तो गया है।’ वकील साहब बोले, ‘लेकिन एक बात है ब्रिटिशर्स न्याय करना भी जानते थे। और जो कहते हैं कि न्याय हो और होता हुआ दिखाई भी दे, वह न्याय दिखाते भी थे।’
‘वह सर्वशक्तिमान लोग थे भाई।’ जस्टिस बोले।
‘नहीं भाई साहब लखनऊ में एक क़िस्सा आज भी चलता है। हो सकता है आप भी सुने हों। मलिहाबाद में एक बाग़ का झगड़ा था। एक विधवा औरत थी। वह कहती थी कि बाग़ मेरा है। उस औरत का देवर कहता था कि बाग़ मेरा है। काग़ज़-पत्तर, साक्ष्य वग़ैरह दोनों के पास थे। वह अंगरेज़ जज तय नहीं कर पा रहा था कि बाग़ का मालिकाना हक़ किस के पक्ष में तय करे। अंततः एक दिन रात में ड्राइवर से कहा कि एक बड़ी सी रस्सी रख लो गाड़ी में और गाड़ी निकालो। फिर वह उस बाग़ में पहुंचा। ड्राइवर से कहा कि वह उसे एक पेड़ में बांध दे। ड्राइवर घबराया। कहने लगा साहब अंगरेज़ जज को बांधने की बहुत बड़ी सज़ा मिल जाएगी। नौकरी चली जाएगी। अंगरेज़ जज ने उसे डांटा और कहा कि ऐसे तो नहीं पर मुझे जो नहीं बांधोगे तो ज़रूर नौकरी चली जाएगी और सज़ा भी मिलेगी। फिर ड्राइवर ने एक पेड़ से अंगरेज़ जज को बांध दिया। अंगरेज़ जज ने ड्राइवर से कहा कि अब तुम गाड़ी ले कर यहां से जाओ। और कहीं किसी से कुछ बताना मत। ड्राइवर गाड़ी ले कर चला गया। सुबह हुई तो लोगों ने देखा कि एक अंगरेज़ पेड़ से बंधा पड़ा है। इलाक़े में सनसनी फैल गयी। भीड़ इकट्ठी हो गई। पुलिस आ गई। पुलिस ने पेड़ की रस्सी खोल कर उस अंगरेज़ को छुड़ाना चाहा और पूछा कि साहब किस ने बांध दिया आप को। अंगरेज़ जज ने बताया कि जो इस बाग़ का मालिक है, उसी ने हम को बांधा है। बाग़ के मालिक के दोनों दावेदारों को बुलाया गया। पहले विधवा औरत का देवर आया। उस से पूछा गया कि क्या इस बाग़ के मालिक तुम हो और अंगरेज़ जज साहब को बांधा है। छूटते ही विधवा औरत के देवर ने हाथ जोड़ लिए और बोला कि साहब यह बाग़ हमारा नहीं, एक विधवा औरत का है, उसी ने बांधा होगा जज साहब को। विधवा औरत बुलाई गई। उस ने आते ही बेधड़क कहा कि हां, बाग़ हमारा है। यह कहते ही पुलिस ने उसे गिऱतार कर लिया। पर अंगरेज़ जज ने पुलिस से कहा कि इसे छोड़ दो। यह बेक़सूर है। मुझे तो बस यह जानना था कि यह बाग़ किस का है। और यह पता चल गया। फिर उस ने फै़सला उस विधवा औरत के पक्ष में कर दिया।’ वकील साहब बोले, ‘बताइए भाई साहब आज है किसी जज में यह जज़्बा! जो इस तरह न्याय दे सके।’
‘भई मैंने पहले ही कहा कि वह लोग सर्वशक्तिमान थे।’ जस्टिस बोले, ‘फिर आज की तारीख़ में हम न्याय इस तरह दे भी नहीं सकते। यह एक महज़ क़िस्सा है कोई साइटेशन नहीं है। और क़िस्सों के आधार पर फ़ैसले नहीं होते। फै़सले होते हैं संविधान और क़ानून के हिसाब से। और वह जितना परमिट करता है, हम करते हैं। हम कोई जहांगीर का दरबार लगा कर नहीं बैठे हैं। कि किसी ने घंटा बजाया और उसे जहांगीरी न्याय मिल जाए। किंवदंतियां और क़िस्से अपनी जगह हैं। क़ानून और संविधान अपनी जगह। देश संविधान और क़ानून की रोशनी में चलता है, क़िस्से, कहानियों और किंवदंतियों से नहीं, इतना तो आप लोग भी जानते हैं।’
‘अब हमारी अदालतें बीमार हैं भाई साहब, यह बात स्वीकार कर लेने में कोई हर्ज मेरे ख़याल से है नहीं।’ आनंद बोला, ‘हमारा ज्यूडिशियल सिस्टम कोलैप्स कर गया है।’
‘हूं यह मानता हूं।’ जस्टिस धीरे से बोले।
‘कार्यपालिका और न्यायपालिका हमारे सिस्टम के लीवर और किडनी हैं। और यही दोनों चौपट हुए जा रहे हैं तो समाज भला कैसे स्वस्थ रह सकता है, यह सोचने की बात है।’ आनंद बोला।
‘और जो समाज पचास प्रतिशत से सत्तर-अस्सी प्रतिशत आरक्षण पर आधारित हो, वह भी भला कैसे स्वस्थ हो सकता है, यह भी तो सोचिए।’ वकील साहब बोले।
‘तो यह भी तो न्यायपालिका की देन है।’ आनंद बोला, ‘मंडल पीरियड में सुप्रीम कोर्ट भी मंडलाइज़ हो गई। आरक्षण चाहिए समाज को यह तो मैं मानता हूं। पर बूटा सिंह, मीरा कुमार, पासवान या मायावती जैसे कहां से दलित हैं मैं नहीं जानता। करुणानिधि, जय ललिता, लालू और मुलायम जैसे कहां के पिछड़े हैं यह भी मेरे लिए पहेली है। हां, विचारों से दलित और पिछड़े हैं यह तो मैं स्वीकारता हूं। तो आर्थिक आधार वाला आरक्षण ही क्यों नहीं सुप्रीम कोर्ट ने लागू किया? दोषी तो न्यायपालिका ही है! अच्छा चलिए नौकरी में आरक्षण तो था ही, प्रमोशन में भी आरक्षण! यह किस लिए भाई? जातियों की दीवार को चीन की दीवार क्यों बनाए जा रहे हैं भाई? जज साहब कुछ तो बोलिए। बोलिए भी कि आप कोर्ट में नहीं हैं।’
‘कोई अरबपति, खरबपति भी इसी देश में ही दलित या पिछड़ा हो सकता है और दलितों और पिछड़ों की सुविधाएं भी भोग सकता है। और क्या कहूं? दिक़्क़त तो है ही भाई।’ जस्टिस धीरे से सांस छोड़ते हुए बोले।
बात सांप्रदायिकता की ओर घूम गई है। जस्टिस बोले, ‘जातियों से भी ज़्यादा ख़तरनाक तो सांप्रदायिकता है।’
‘आप भूल रहे हैं कि एक समय मंडल और कमंडल दोनों ही आमने-सामने थे।’ आनंद बोला, ‘और मैं इस मामले पर भी बिलकुल क्लीयर हूं कि मंडल और कमंडल दोनों ही मामलों को ज्यूडिशियली ने उलझाया।’
‘वो कैसे?’ जस्टिस बोले, ‘कमंडल मामले को कैसे उलझाया भला?’
‘हद है आप भी भूल गए?’ आनंद बोला, ‘अरे उन दिनों तो आप भी लखनऊ में वकील थे। कुछ भी याद नहीं आप को? डे बाई डे अयोध्या मामले की सुनवाई होती थी। तीन जजों की बेंच थी। इस के चक्कर में कितने और मुक़दमों की बलि चढ़ जाती थी। कंटेंप्ट आफ़ कोर्ट मामलों की तो रेंड़ पिट गई थी। इतने मामले लंबित हो गए कि हाईकोर्ट के आदेशों की कोई अहमियत ही नहीं रह गई थी। आप ख़ुद ही भुनभुनाते घूमते थे।’
‘हां, यह तो याद है।’ जस्टिस बोले, ‘पर मस्जिद तो गिरवाई कल्याण सिंह ने, गिराई वीएचपी वालों ने।’
‘बिलकुल पर आप तो वैसे ही कह रहे हैं कि जैसे फलां जल्लाद ने फलां को फांसी लगाई।’ आनंद बोला, ‘जल्लाद फांसी लगाता ज़रूर है पर फांसी के आदेश कौन देता है? पहले निचली अदालत फांसी देती है। ऊपरी अदालत उस पर मुहर लगाती है, फिर हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट मुहर लगाती है। बरास्ता गृह मंत्रालय, राष्ट्रपति को मामला जाता है। फिर वापस गृह मंत्रालय आता है। और अंततः सरकार फ़ैसला लेती है, बरास्ता कैबिनेट कि फलां को फांसी होगी।’
‘आप कहना क्या चाहते हैं?’ वकील साहब बोले।
‘कहना यह चाहता हूं कि बाबरी मस्जिद गिराने में अगर मैं किसी एक को दोषी मानता हूं तो वह सिर्फ़ और सिर्फ़ मुलायम सिंह यादव को।’ आनंद बोला।
‘यह तो आप पूरी बात ही पलट दे रहे हैं, यह कह क्या रहे हैं आप?’
‘आप सुनेंगे भी, तब तो कहूं?’
‘अच्छा कहिए!’
‘मुलायम सिंह जब 1989 में मुख्यमंत्री हुए थे तब नवंबर, 1990 में जो अयोध्या में उन्हों ने कड़ाई की थी, कार सेवकों पर गोलियां चलवाई थीं। तब लोग गुस्से में आ गए। वह कहते रहे कि, ‘परिंदा भी पर नहीं मार सकता।’ हालां कि परिंदा पर मार गया। लोग मस्जिद के गुंबद तक पर चढ़ गए। रिहर्सल हो गई थी, तभी वीएचपी वालों की। वीएचपी वालों का मनोबल उसी से बढ़ा। वह कहते रहे कि परिंदा पर नहीं मार सकता। और लोग लाश बन-बन कर इकट्ठे हो गए। एक लाश मतलब पांच लोग। इस कड़ाई को वहां की स्थानीय जनता ने भी नहीं पसंद किया और वीएचपी की आग में घी बन बैठी। देश के हिंदुओं में इस कड़ाई को पसंद नहीं किया गया। साफ़ कहूं कि मुलायम ने हिंदुओं को उकसाया भी और भड़काया भी। ठीक वैसे ही जैसे बाद के दिनों में गोधरा के बहाने नरेंद्र मोदी ने गुजरात में मुसलमानों को मरवाया और देश भर के मुसलमानों को भड़काया। कल्याण से उन की दोस्ती बैकवर्ड कार्ड के बूते थी ही, दोनों ने अपनी राजनीति पक्की की। लोगों का ख़ून बहा तो उन की बला से। देश पर एक दाग़ लगा, देश तबाह हुआ तो उन की बला से। वह मस्जिद की रखवाली का दावा करते रहे, मस्जिद गिर गई। आप अगले को भड़का कर अपनी कोई चीज़ सुरक्षित रख सकते हैं, यह कभी संभव नहीं है, इस बात को एक साधारण आदमी भी जानता है। फिर दूसरी भूल थी वहां कार सेवा के बहाने भीड़ इकट्ठी करना। इस भीड़ को बटोरने के लिए नरसिंहा राव और कल्याण दोनों दोषी मान लिए गए हैं। पर सुप्रीम कोर्ट क्या इतनी अंधी और नादान थी कि एक कल्याण रूपी मुख्यमंत्री के शपथ पत्र को स्वीकार कर बैठी? वह न्यायमूर्ति लोग नहीं जानते थे कि भीड़ हमेशा हिंसक होती है? भीड़ कुछ भी कर सकती है। एक बात।’ आनंद बोला, ‘दूसरी बात यह कि हाईकोर्ट की अपनी लखनऊ बेंच की पीठ ने अगर ज़मीन अधिग्रहण वाले मामले पर समय रहते फ़ैसला दे दिया होता तो शायद तब भी मस्जिद बच सकती थी। इस बेंच ने भी मुलायम की तरह ही वहां मौजूद कार सेवकों को भड़काया।’ वह बोला, ‘मुझे याद है जस्टिस एस.सी. माथुर, जस्टिस बृजेश कुमार और जस्टिस सैय्यद हैदर अब्बास रज़ा की फुल बेंच थी तब। और कि ज़मीन अधिग्रहण मामले की सुनवाई पूरी हो गई थी। आर्डर रिज़र्व हो गया था। जस्टिस एस.सी. माथुर और जस्टिस बृजेश कुमार से जस्टिस रज़ा की ओपिनियन डिफ़रेंट हो गई थी। तो भी जस्टिस एस.सी. माथुर और जस्टिस बृजेश कुमार ने अपने आर्डर लिखवा दिए थे। और बता दिया था कि अधिग्रहण ग़लत है। जस्टिस सैय्यद हैदर अब्बास रज़ा ने डिले किया। न सिर्फ़ डिले किया दो-तीन महीने बल्कि डिलेड जस्टिस इज़ इनजस्टिस को भी फलितार्थ किया। आदेश जारी किया तब, मस्जिद जब गिर-गिरा गई, दंगे भड़क गए देश भर में तब। और तो भी उन के आर्डर में था क्या? कोरी ल़फ़ाज़ी। कोई क्लीयर आदेश नहीं। यह ल़फ़ाज़ी आप पहले भी झाड़ सकते थे, मस्जिद शायद बच जाती। लोग इकट्ठे हो ही गए थे तो शायद उस ग़ैर विवादित सवा एकड़ ज़मीन जो वीएचपी के पास पहले ही से थी उस पर ही कार सेवा कर के लौट गए होते। तो जनाब एक मुलायम और दूसरी यह न्यायपालिका दोनों ने मिल कर मस्जिद गिरवा दी, देश पर दाग़ लगवा दिया, देश तबाह कर दिया। देश कम से कम पचीस साल पीछे चला गया। दंगों ने हमें कहीं का नहीं छोड़ा। आतंकवाद का नासूर और गाढ़ा हो गया। हिंदू-मुस्लिम सद्भाव के धागे में गांठ पड़ गई।’ वह बोला, ‘यह मेरी अपनी राय है। ज़रूरी नहीं कि आप लोग मेरी बात से सहमत ही हों।’
‘नहीं मसले का एक पहलू तो यह भी है।’ जस्टिस बोले और वकील ने हां में हां मिलाई।
‘तो इस न्यायपालिका को सोचना चाहिए कि चीजे़ं बिगड़ने के बाद न्याय देने का क्या कोई मतलब है? आदमी मर जाए न्याय मांगते-मांगते और आप उस के मरने के बाद उसे न्याय दे भी दें तो उस का क्या अर्थ है?’
‘आप लोग खाना भी खाएंगे या बातों से ही पेट भर लेंगे?’ जस्टिस की पत्नी बोलीं, ‘बच्चे लोग खाना खा चुके हैं बस हम लोग ही बाक़ी हैं।’
‘तो परोसिए।’ आनंद बोला, ‘सच बताऊं मैं तो आप को देखते ही भुखा जाता हूं। जाने कहां से भूख आ कर पेट में बैठ जाती है और कहती है, ‘खाओ-खाओ, जल्दी खाओ।’
‘आप तो आनंद जी ऐसा कर देते हैं कि लोगों को आता होगा मज़ा खाने में, पर हम को तो खिलाने में मज़ा आ जाता है।’
‘अब ज़्यादा कहंेगी तो पेट के चूहे मुंह में आ जाएंगे।’
सब लोग हंसने लगे।
खाना खा कर आनंद ने कहा कि, ‘ज़रा आप का घर देख लूं?’
‘हां, हां क्यों नहीं।’
उनके बेडरूम की एक खिड़की से जिस में खूब बड़ा सा शीशा लगा था, नैनी झील का व्यू इतना मोहक दिख रहा था कि वह तरस कर रह गया। बोला, ‘क्या बताऊं आज वापसी की टिकट है नहीं आज रात यहीं सो जाता।’
‘अरे तो टिकट कैंसिल करवा देते हैं।’
‘अरे नहीं-नहीं। अगली बार जब आएंगे तब!’
जज साहब के घर से वह फिर नैनी झील आ गया। बच्चों के साथ फिर बोटिंग की। शाम होने को आ गई। वापस नैनीताल क्लब आ कर सामान समेटा। नैनीताल से विदा हुआ। संयोग ही था कि रास्ते में टैक्सी वाले ने राम तेरी गंगा मैली का वह गाना भी बजा दिया जो वह नैनीताल आते ही सोच रहा था, ‘हुस्न पहाड़ों का, क्या कहना कि बारों महीने यहां मौसम जाड़ों का।’ आनंद आ गया आनंद को। साथ ही साथ बच्चे भी यह गाना गाते जा रहे हैं। बिलकुल सुर में सुर मिला कर। एक से एक मनोरम दृश्य पहाड़ों की हरियाली इस गाने में और इज़ाफ़ा भरती जाती है। पहाड़ों के मोड़ की तरह यह गाना भी कई मोड़ लेते हुए ख़त्म हो रहा है, ‘दुनिया ये गाती है, कि प्यार से रस्ता तो क्या ज़िंदगी कट जाती है।’
‘ये तो है।’ पत्नी मुदित हो कर बुदबुदाती है।
‘क्या बात है डार्लिंग मज़ा आ गया।’ अचानक आनंद उछल कर बोला। तो बच्चे अचकचाते हुए मुसकुरा पड़े।
लखनऊ लौट कर उस ने एक दिन रेस्ट किया। दूसरे दिन आफ़िस गया। उस ने पाया कि आफ़िस में सब कुछ सामान्य सा ही था कुछ भी बदला हुआ नहीं था।
उसे अच्छा लगा।
चैनलों और अख़बारों में इन्हीं दिनों एक ही परिवार की राजनीति के दो फांक दिखाए जा रहे थे। एक तरफ़ राहुल गांधी के विजु़अल्स थे जिस में वह लोकसभा में कलावती का मामला उठा रहे हैं, कहीं श्रमदान हो रहा है तो वहां मिट्टी ढो रहे हैं। दूसरी तरफ़ वरुण गांधी के विजु़अल्स थे जिस में वह दहाड़ रहे हैं कि जो भी हिंदुओं की तरफ़ आंख उठा कर देखेगा उस के हाथ काट डालूंगा। या ऐसे ही कुछ। फिर पीलीभीत की दीवारों पर लिखे नारे दिखते- वरुण नहीं यह आंधी है, दूसरा संजय गांधी है।
वह पूछता लोगों से, ‘यह क्या हो रहा है?’
‘कुछ नहीं बड़े भइया कलावती-कलावती कह कर मिट्टी ढोते रह गए। और यह देखिए यह तो निकल गया। बड़ा नेता हो गया। चहंु ओर इसी की चर्चा है।’ एक पत्रकार सिगरेट की राख झाड़ते हुए कहता है।
‘आप पत्रकार हैं! और यही आप का विज़न है?’ आनंद जैसे डपटता है!
‘विज़न नहीं भाई साहब टेलीविज़न! टेलीविज़न यह कह रहा है, जनता यही कह रही है। देखते नहीं आप ख़बरों में कि जनता टूटी पड़ रही है- वरुण गांधी पर! भाजपा के बड़े-बड़े नेताओं की नींद उड़ा दी है इस ने।’ पत्रकार कहता है, ‘कांग्रेस में तो यह परिवार क़ाबिज़ था ही, अब भाजपा में भी क़ाबिज़ हो गया। आप को पता है कि नरेंद्र मोदी के बाद भाजपा में स्टार प्रचारक के तौर पर सब से ज़्यादा वरुण की ही मांग है!’
‘अच्छा?’
‘अरे, अब वरुण महानायक है!’
‘और राहुल?’
‘शून्य! सिफ़र! मज़दूर! कहिए कि भइया मिट्टी ढोते रहो। हुंह मिट्टी ढो कर भी कहीं राजनीति होती है आज की तारीख़ में? चुगद साला!’
तरह-तरह की टिप्पणियां हैं।
तो क्या आनंद भी ऐसे ही रह जाएगा? सांप्रदायिक हुए बिना, जातिवादी हुए बिना इस देश में राजनीति नहीं हो सकती? तो वह ऐसे ही साफ़ सुथरी राजनीति के सपने बुनता रह जाएगा?
वह डर जाता है।
डर जाता है राजनीति के इस तरह अराजक होने से, दिशाहीन, सांप्रदायिक और जातिवादी होने से।
आनंद के एक रिश्तेदार हैं। दिल के मरीज़ हैं। रुटीन जांच के लिए आए हैं। बात अपने शहर की हो रही है। चुनाव की भी होती है। वह बता रहे हैं कि, ‘माहौल तो महंत के खि़लाफ़ बहुत है। ख़ास कर आप की क़ासिम वाली प्रेस कानफ्रेंस के बाद। मुसलमान तो नाराज़ हैं ही। हिंदू भी बहुत नाराज़ हैं।’
‘हिंदू क्यों नाराज़ हैं?’
‘कोई एक कारण तो है नहीं। कुछ भी हो लोग अब दंगा फ़साद नहीं चाहते हैं। चैन से रहना चाहते हैं। विकास चाहते हैं। इस लिए नाराज़ हैं। दूसरे शहर के जितने भी मंदिर हैं, अच्छे मंदिर वहां के लोग नाराज़ हैं?’
‘वो क्यों?’
‘महंत जी लगातार उन के खि़लाफ़ कुछ न कुछ कुचक्र रचते रहते हैं। दो मंदिरों के रास्तों पर ़लाई ओवर बनवा दिया। एक मंदिर को ़लाई ओवर चाहिए, वहां नहीं बनने दिया।’
‘ऐसा क्यों?’
‘ताकि लोग और मंदिरों में न जाएं। उन्हीं के मंदिर में आएं। उन की आय बढ़ती रहे। ऐसे ही छिटपुट अड़ंगा और भी मंदिरों में वह डालते ही रहते हैं।’
‘ओह!’
‘अपने मंदिर में भी तरह-तरह से लूट खसोट बढ़ा दिए हैं। जो कमरे, जो हाल पहले निःशुल्क थे, उन सब का अच्छा ख़ासा किराया लेने लगे हैं। लोगों को कथा कहलानी है, मुंडन वगै़रह कराना है, शादी ब्याह के लिए लड़की दिखानी है, और भी तमाम काम हैं, मान-मनौती है। कमरा, हाल सब कुछ का अच्छा ख़ासा किराया है। समझिए कि एक मंदिर में प्रवेश छोड़ कर बाक़ी सब सशुल्क है। उन के अस्पतालों में भी मनमानी फ़ीस है। उन के स्कूलों, कालेजों में भी। तो लोग इस सब से नाराज़ हैं।’
‘आप को पता ही होगा कि विश्वविद्यालय की राजनीति में भी इन का ख़ासा हस्तक्षेप है।’
‘होगा ही।’ वह बोले, ‘शहर की हर सांस में उन का हस्तक्षेप है तो विश्वविद्यालय क्या चीज़ है।?’
‘नहीं आप को बताऊं कि यह विश्वविद्यालय ही दरअसल हमारे शहर के लिए ग्रहण बन कर आया। शायद मैं ग़लत कह रहा हूं बल्कि विश्वविद्यालय की राजनीति ने इस शहर पर, इस इलाक़े पर, इलाक़े के विकास पर ग्रहण लगा कर ख़ूनी खेल की धरती में तब्दील कर दिया।’
‘अच्छा?’ वह बोले, ‘ये तो हम नहीं जानते थे।’
‘है तो ऐसा ही।’
फिर उस की आंखों में वह सारे दृश्य जैसे किसी सिनेमा की तरह घूमने लगे।
1947 में आज़ादी मिलने के बाद ही विश्वविद्यालय समिति बनी और कोई दस बारह बरस बाद विश्वविद्यालय की शुरुआत हुई। आचार्य नरेंद्र देव जैसे समाजवादी भी थे इस समिति की देखरेख में। तो भी हुआ यह कि विश्वविद्यालय के दो प्रमुख संस्थापक सदस्यों में जब मतभेद शुरू हुआ तब यह नौबत आई। एक आई.ए.एस. अफ़सर थे। पंडित थे। यहां डी.एम. भी रहे और कमिश्नर भी। बाद में कोई तीन टर्म ग्रेजुएट कांस्टीच्वेंसी से एम.एल.सी. भी रहे। लोग मणि जी, मणि जी कहते थे। विश्वविद्यालय की स्थापना में उन की भूमिका बड़ी महत्वपूर्ण रही। पर साथ ही इस मंदिर के पूर्ववर्ती महंत जी ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इन को लोग बड़े महंत जी कहते थे। वह तब की हिंदू महासभा के न सिर्फ़ सदस्य थे संभवतः हिंदू महासभा के अकेले निर्वाचित सांसद भी थे। दो या तीन टर्म वह सांसद रहे। तो बड़े महंत जी और मणि जी ने विश्वविद्यालय तो बनवा दिया। कार्यकारिणी के सदस्य भी हो गए। शुरू के दिनों में सब कुछ ठीक-ठाक चला। पर बाद के दिनों में दोनों के हित और अहंकार दोनों ही टकराने लगे। मणि जी आई.ए.एस. रहे थे। काग़ज़-पत्तर में बुद्धि से बड़े महंत जी को उलझा देते। बड़े महंत ने बाद में इस का तोड़ दबंगई में ढंूढा। मंदिर में अखाड़ा भी था और लठैत भी। बड़े महंत जी की इस दबंगई के चलते मणि जी की एक न चलती। चुप हो जाते। अवश हो जाते। बेबसी जब उन की सारी सीमा पार कर गई तो उस पढ़े लिखे आदमी ने भी दबंगई की काट दबंगई में ही ढंूढी। यह तिवारी माफ़िया उन दिनों विश्वविद्यालय में पढ़ता था। तब माफ़िया नहीं था। पिता इस के पुरोहित थे। किसी का छुआ पानी तक नहीं पीते थे। पूजा पाठी थे। खूब चंदन लगाते थे। कहीं जाते तो लोटा डोरी ले कर। अपने इलाक़े में पूजनीय और प्रतिष्ठित पंडित थे। उन की चेलहटी बहुत बड़ी थी। लेकिन प्रतिष्ठा जितनी बड़ी थी, उतनी ही बड़ी विपन्नता भी थी। तो यह तिवारी शहर में जब पढ़ने आया तो शुरू में तो यह भी पंडित बना रहा। पर बाद में शहर की हवा लगने लगी, संगत बदलने लगी, खर्चे बढ़ने लगे। अब यह क्या करे? रंगदारी पर उतर आया। धीरे-धीरे गोल बना कर यह गोलघर बाज़ार घूमने लगा। दुकानदार इसे देखते ही थरथरा जाते। इस की तीखी और नुकीली मूंछें इस के रौब में ख़ूब इज़ाफ़ा भरतीं। धोती कुरता और मूंछों वाला यह नया गुंडा गोलघर बाज़ार पर छा गया था। इस का ह़ता बंध गया छोटी-बड़ी सभी दुकानों से। विश्वविद्यालय में भी उस का रंग जमने लगा। बाज़ारों की भी सीमा बढ़ी। एक बाज़ार से दूसरे। दूसरे से तीसरे, तीसरे से चौथे बाज़ार तक। अब हो यह गया था कि बाज़ारों में रंगदारी और विश्वविद्यालय में रंगबाज़ी। मणि जी को किसी ने इस तिवारी के बारे में बताया। तो वह ख़ुश हो गए। अपने तौर पर उस के बारे में पूरी रिपोर्ट पता किया। रिपोर्ट क्या इस तिवारी की पूरी कुंडली अब उन के पास थी। उन्हों ने तिवारी को अपने यहां बुलाया। दो चार सिटिंग्स में उस को नापा जोखा। तौला, वाच किया। उस की महत्वाकांक्षाओं को और जगाया। कहा कि, ‘एक दिन तुम बहुत आगे जाओगे!’ वह इन के पैरों पर गिर पड़ा। तो इन्हों ने भी उस के सिर पर हाथ फेर कर आशीर्वाद दिया। ब्राह्मणवाद की कुछ ख़ुराकें पिलाईं। फिर तोल-मोल किया। और जैसे कि ब्यूरोक्रेट्स कई काम अपने शार्पनेस और शातिरपने से अंजाम देते हैं। कुछ-कुछ उसी अंदाज़ से मणि जी ने इस तिवारी को बड़े महंत जी के खि़लाफ़ मैदान मंे उतार दिया। ऐसे जैसे पूंजीपति अपने प्रोडक्ट बाज़ार में उतारते हैं। वो जो होता है न कि छोटा बच्चा बड़ी तेज़ी से ग्रोथ करता है, बड़ी तेज़ी से चीजों को सीखता है। तो तिवारी की ग्रोथ भी कुछ इसी तेज़ी से हुई। उस ने सीखा भी बड़ी तेज़ी से। नतीजा सामने था। अब तिवारी नहीं, तिवारी गिरोह था। बड़े महंत जी को उस ने पहले बच्चों की तरह तुतुला कर, फिर ज़रा दब दबा कर और फिर खुले आम चुनौती दे दी। लोगों को लगा कि बड़े महंत जी अब तिवारी को छोड़ेंगे नहीं, उसे ख़त्म करवा देंगे। और सचमुच बड़े महंत जी ने ऐसा चाहा भी। पर तिवारी के ऊपर आई.ए.एस. मणि जी की छाया हमेशा बनी रही। मणि जी यह जानते थे कि महंत जी के पास आखि़री विकल्प तिवारी को मरवाना ही होगा। सो मणि जी ने तिवारी का सुरक्षा घेरा काफ़ी मज़बूत बनवा रखा था। इतना कि कोई अर्जुन भी जो तब आ जाता तो तिवारी के सुरक्षा घेरे का चक्रव्यूह नहीं तोड़ पाता। यह तिवारी का सुरक्षा घेरा ही है कि तिवारी के जाने कितने समकालीन माफ़िया मारे गए, उन के बाद की दो पीढ़ियों के जाने कितने माफ़िया आए गए, भभक कर बुता गए, मर गए, मार दिए गए पर तिवारी अभी भी न सिर्फ़ क़ायम है बल्कि अपनी पकड़, अपनी ऱतार भी क़ायम रखी है। राजभोग, सत्ताभोग जो कहिए, इस का अनवरत सुख लेते हुए। तीन-तीन सरकारों में कैबिनेट मिनिस्टर रह चुके तिवारी ने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। घोर संकट के समय में भी ऱतार क़ायम रखी।
ख़ैर बड़े महंत जी को शह पर शह देते तिवारी ने अंततः बड़े महंत जी को मात दे दी। यहां तक कि गोलघर में बनी उन की दुकानों ने भी तिवारी को ह़ता देना शुरू कर दिया। बड़े महंत जी के पास एक इंटर कालेज पहले से था उसी को उन्हों ने डिग्री कालेज में एक्सटेंड किया। विश्वविद्यालय की लड़ाई में मात खाते-खाते उन्हों ने डिग्री कालेज में ही सारा ध्यान लगा दिया। शहर का आलम भी उन दिनों कुछ अजब था। सभी जातियों के अपने-अपने स्कूल थे। ब्राह्मण स्कूल, क्षत्रिय स्कूल, कायस्थ स्कूल, मुस्लिम स्कूल। लड़कियों के स्कूलों में भी यह जातीय चेतना खुल कर सामने थी। इस जातीय चेतना को बस दो रेलवे के स्कूल, और दो सरकारी स्कूल ही थोड़ा बहुत ब्रेक कर पाते थे। सो बड़े महंत जी को तिवारी को उलझाने के लिए ब्राह्मण, ठाकुर की लड़ाई बनाने में देर नहीं लगी। शहर क्या पूरा ज़िला ब्राह्मणवाद-ठाकुरवाद की आंच में झुलसने लगा। बड़े महंत जी के पास मंदिर की आय थी, मंदिर का फ़ार्म हाउस था, स्कूल थे, नर्सरी से ले कर डिग्री कालेज तक। आय के अनेक स्रोत थे। इस के विपरीत तिवारी के पास आय के नाम पर सिर्फ़ रंगदारी। रंगदारी की आय और मणि जी की छाया। अब दिन यह आ गए थे कि खेती में भी अगर निवेश न करें तो अनाज का उत्पादन घट जाता था। फिर यह तो गुंडई थी। बिना पूंजी निवेश के गुंडई कैसे हो? तिवारी के लिए यह प्रश्न जैसे यक्ष प्रश्न बन कर दिन रात सिर पर सवार रहता। रास्ता निकाला अंततः मणि जी ने ही। तिवारी को छोटी मोटी ठेकेदारी शुरू करवा कर। साइकिल स्टैंड का ठेका, रिक्शा स्टैंड का ठेका, नगर निगम की सड़क पर मिट्टी डालने का ठेका। तिवारी ने जैसे महंत जी के लठैतों को क़ाबू किया था, ठेकों को भी क़ाबू कर लिया। तिवारी का नाम आते ही लोग किनारे हो जाते। तिवारी को ठेका मिल जाता। तिवारी अब छोटे ठेकेदार, पेटी ठेकेदार से मुख्य ठेकेदार बन गया था। अब उस की पैठ पी.डब्ल्यू.डी. और वन विभाग के ठेकों में हो रही थी। तिवारी ने इस फेर में चार-पांच क़त्ल भी कर, करवा दिया। अब तिवारी, तिवारी नहीं, माफ़िया तिवारी के अवतार में था। उन्हीं दिनों एक मस्जिद को ले कर हिंदू-मुस्लिम विवाद उठ खड़ा हुआ। बड़े महंत जी ने मौके़ का फ़ायदा उठाया। अपनी गिरी साख को ऊपर उठाने का। मामला तूल पकड़ गया। तत्कालीन ज़िलाधिकारी को बड़े महंत जी ने साध लिया। और अपने मंदिर के पीछे थोड़ी दूर की एक मस्जिद को रातोरात नेस्तनाबूद कर वहां बड़े-बड़े पेड़ लगवा दिए। ज़िलाधिकारी ने उन्हें रात भर का समय दिया था कि जो करना हो वह कर लें। और उन्हों ने कर लिया। जिन मुसलमानों ने सिर उठाया उन्हें कुचल दिया गया। हिंदू-मुस्लिम दंगा भड़क गया। कहते हैं कि बड़े महंत जी ने कुछ मुसलमानों को मरवा कर राप्ती नदी की रेत में दबवा दिया। कहीं कोई लाश नहीं मिली। सो बड़े महंत जी का कुछ नहीं हुआ। मुसलमानों को सांप सूंघ गया। वैसे भी शहर में ज़्यादातर मुसलमान जुलाहा थे। ख़ामोश हो गए।
देश में यह दिन जय जवान, जय किसान वाले नारों के दिन थे। पाकिस्तान पर फ़तह के दिन थे। बड़े महंत जी के अनुयायी कहते कि एक पाकिस्तान देश ने जीता है, दूसरा पाकिस्तान बड़े महंत जी ने। ताशकंद समझौते के बाद शास्त्री जी के निधन ने देश को भले तोड़ दिया था, महंत जी मज़बूत हो रहे थे। नया-नया माफ़िया बना तिवारी, हालां कि तब के दिनों में यह माफ़िया शब्द इतना चलन में नहीं था, पड़ोसी देश नेपाल में भी अपनी जड़ें तलाश रहा था। नेपाल की राजशाही वहां राजतंत्र के खि़लाफ़ प्रजातंत्र की लड़ाई लड़ने वालों को बूटों तले कुचल रही थी, सो नेपाल के तमाम योद्धा इस पास पड़ रहे शहर को अपना अड्डा बना रहे थे। यहीं से अपनी लड़ाई संचालित कर रहे थे। इन्हीं दिनों नेपाल राजशाही के एक कारिंदे ने तिवारी को साधा। तिवारी उन के लिए भाड़े का हत्यारा बन गया। एक, दो, पांच, सात करते-करते बीस से अधिक नेपाली योद्धाओं की हत्या हो गई। तिवारी की तो जैसे चल पड़ी। अपराध और व्यवसाय दोनों ही हलक़ों में तिवारी के पंख अब विस्तार ले रहे थे। तिवारी अब माफ़िया से मिथ बन रहा था। तिवारी अब गुंडा बदमाश नहीं पंडित जी कहलाना पसंद करता। बाज़ारों में रंगदारी वसूलने वाला तिवारी अब लोगों को दिखना बंद हो गया। अब सिर्फ़ उस का नाम सुनते। उस की कहानियां चलतीं। रंगदारी, ठेकेदारी और ख़ून ख़राबा जैसे तिवारी के पर्याय बन गए थे। ईंट भट्ठा, कोयला में भी उस ने हाथ डाल दिया। पी.डब्ल्यू. डी., सिंचाई, वन विभाग से होते हुए वह रेलवे के स्क्रैप ख़रीदने लगा। और यह देखिए चंदनधारी पुरोहित का बेटा अब देशी, अंगरेज़ी शराब का ठेकेदार बन गया। ठेकेदार ही नहीं उस के कई-कई सिंडीकेट बन गए। पूर्वी उत्तर प्रदेश से लगायत पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक। लोग बड़े महंत जी से यह सब कहते तो वह कहते, ‘भई इस स्तर पर तो आ कर मैं उस से नहीं लड़ सकता। दूसरे, अब वह वृद्ध भी बहुत हो गए थे। चुनावी राजनीति से भी अब वह दूर हो रहे थे। अपना उत्तराधिकारी भी वह घोषित कर बैठे थे। जल्दी ही उन का निधन भी हो गया। उन के उत्तराधिकारी निरे संत थे। दुनियावी छल छंद से उन का कोई सरोकार नहीं था। मंदिर का प्रशासन, तमाम संस्थानों का संचालन उन की दिलचस्पी के विषय नहीं थे। ध्यान, साधना, तप और वैराग की परंपरा के संत थे वह। अंततः इन सब कामों के लिए उन्हों ने मंदिर से ही एक युवा को अपना प्रतिनिधि चुना। और फिर मंदिर का महंत भी बना दिया। इस महंत ने बड़े महंत की परंपरा को न सिर्फ़ आगे बढ़ाया। मंदिर और अन्य संस्थानों का उत्तरोत्तर विकास करते हुए मंदिर को भी व्यवसाय में बदल दिया। मंदिर का विस्तार जीर्णोद्धार, दुनिया भर की सुविधाएं, स्कूल कालेज और तमाम संस्थाओं की चमक बढ़ा दी। मंदिर में लाखों का चढ़ावा अब करोड़ों में हो गया था। इस महंत ने राजनीतिक लगाम भी हाथ में ली और संसद में पहुंचा। माफ़िया तिवारी के खि़लाफ़़ भी मोर्चा मज़बूत किया। तिवारी के खि़लाफ़़ ठाकुरों को लामबंद किया। तिवारी का एक ख़ास लेटिनेंट था शाही। शाही को तिवारी का नंबर दो कहा जाता था। शाही एकदम युवा था और तिवारी को अपना गुरु मानता था। वह कहता था कि, ‘पंडित जी एक तो ब्राह्मण हैं, दूसरे मेरे द्रोणाचार्य। मैं बचपन से ही इन के जैसा बनना चाहता था। ख़ैर, जब दूसरे महंत ने तिवारी के खि़लाफ़ मार्चा बांधा तो मणि जी ने मौक़े की नज़ाकत समझी। फिर उन्हें लगा कि तिवारी को थोड़ी बहुत राजनीतिक छत्रछाया दे कर राजनीतिक चोले का कवच पहना दिया जाए तो अच्छा रहेगा। एम.एल.सी. वह थे ही। आई.ए.एस. रहते कमलापति त्रिपाठी जैसे राजनीतिज्ञों से भी उन का वास्ता पड़ा था और पटरी भी बैठी थी। ब्राह्मणवाद की केमेस्ट्री ने दोनों का कैप्सूल बनाया था। इसी कैप्सूल के तहत मणि जी ने तिवारी को कमलापति त्रिपाठी से मिलाया, उस की प्रतिभा का बखान किया और कहा कि इसे अपना आशीर्वाद दीजिए।
''वह तुमको थप्पड़ नहीं सैल्यूट मार रहा है, समझे!'' इतना सुनने के बाद मंत्री जी थरथराते हुए ट्रेन से नीचे उतरे : एक बार क्या हुआ कि मंत्री जी के कुछ पियक्कड़ दोस्तों ने जब तीन चार पेग पी पिला लिया तो उनको चढ़ा दिया :
कमलापति त्रिपाठी ने तिवारी को आशीर्वाद दे दिया। तिवारी प्रदेश कांग्रेस कमेटी का सदस्य हो गया। फिर विश्वविद्यालय की कार्य समिति का भी सदस्य हो गया। साथ ही फ़र्टिलाइजर कारखाने में एक ट्रेड यूनियन में भी पदाधिकारी हो गया। ग़रज़ यह कि उस का बायोडाटा अब पोलिटिकल बायोडाटा में तब्दील हो गया। यह वही दिन थे जब भारतीय राजनीति में अपराधियों की आमद शुरू क्या हुई थी बल्कि अपराधी राजनीति में प्रवेश के लिए दस्तक देने लगे थे। मनी पावर और मसल पावर भारतीय राजनीति के दो मुख्य घटक बनने जा रहे हैं, यह उस की आहट थी।
तिवारी ने अपने पोलिटिकल बायोडाटा को और पुख़्ता किया एम.एल.सी. का चुनाव लड़ कर। एक समय से कभी पीछे मुड़ कर न देखने वाले तिवारी ने पंचायतों द्वारा चुने जाने वाले इस एम.एल.सी. चुनाव में पराजय का स्वाद चखा। कोई 11 वोटों से हार से बौखलाए तिवारी ने बाज़ारें बंद करवा दीं। कि एक अनाज मंडी में दुहरा हादसा हो गया। तब के एक कोतवाल ने कहा सुनी में तिवारी को दो चार हाथ दे दिए। फ़ोर्स ज़्यादा थी और तिवारी के लोग कम। पर्याप्त हथियार भी नहीं थे। व्यापारी और लोग भड़के हुए थे। सो तिवारी वहां से सरक गया। खीझ मिटाने और रौब ग़ालिब करने के लिए तड़ातड़ तीन हत्याएं करवा दीं, ताकि इलाक़े में उस का आतंक फिर से क़ायम हो जाए। आतंक क़ायम हो भी गया। लेकिन कोतवाल का दबदबा भी बना रहा।
तब इस कोतवाल को लोग टाइगर कहते थे। शहर में उस की जांबाज़ी और दिलेरी के क़िस्से भी आम थे। किंवदंती की तरह। उन्हीं दिनों एक उप चुनाव में संविद सरकार के मुख्यमंत्री टी.एन. सिंह को एक द्विवेदी जी ने हरा दिया। मुख्यमंत्री हालां कि चुनाव जीत रहे थे। पर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की एक चुनावी सभा में आते समय बीच रास्ते में राजनारायण ने एक फ़िएट कार पर खड़े हो कर धोती उठा कर जो अभद्र प्रदर्शन किया इंदिरा गांधी को चिढ़ाने के लिए उस से लोग नाराज़ हो गए। और मुख्यमंत्री चुनाव हार गए। सरकार गिर गई। कमलापति त्रिपाठी मुख्यमंत्री बन गए।
तो टी.एन. सिंह को हराने वाले द्विवेदी जी को भी अपने मंत्रिमंडल में ले लिया डिप्टी मिनिस्टर बना कर। मंत्री बनने के पहले इस शहर कोतवाल जिस को लोग टाइगर कहते थे, उस ने कभी किसी मामले में द्विवेदी जी को भी पीट दिया था। पर अब द्विवेदी जी डिप्टी मिनिस्टर भले बने थे पर उन को मिला गृह विभाग था। सो जब उन को वापस अपने शहर जाना हुआ तो एक ज़िद यह पकड़ी कि पहले उस कोतवाल का ट्रांसफ़र हो जाए। लेकिन उन के एक दोस्त दुबे जी जो विश्वविद्यालय छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष भी थे ने कहा कि, ‘सिर मुड़ाते ही ओले मत गिराओ! भूल जाओ कि कभी उस ने तुम को पीटा था।’
तो द्विवेदी जी ने पूछा, ‘पर कहीं फिर उसने पीट दिया तो? दुबे जी ने उनकी इस शंका का भी समाधान किया कि, ‘उलटे तुम्हारा वेलकम करेगा, सैल्यूट ठोंकेगा। तुमको याद है कि उसने पीटा था। पर वह अब तक इतने लोगों को पीट चुका है कि उसने तुम को भी कभी पीटा था, भूल चुका होगा। निश्चिंत होकर अपने शहर चलो। तुम्हारे स्वागत की फुल तैयारी है।’ पर जब द्विवेदी जी ट्रेन से अपने शहर पहुंचे तो प्लेटफ़ार्म पर तमाम भीड़ में वह कोतवाल भी था। मंत्री जी को देखते ही उसने सैल्यूट मारने के लिए तेज़ी से हाथ उठाया। मंत्री जी ट्रेन में डब्बे के गेट पर थे तभी। मंत्री जी पलट कर वापस भागे कि, ‘साला फिर मारेगा।’ दुबे जी पीछे ही थे मंत्री जी को वापस नीचे उतारते हुए बोले, ‘नाटक मत करो डरपोक! वह तुमको थप्पड़ नहीं सैल्यूट मार रहा है।’ तो मंत्री जी थरथराते हुए ट्रेन से नीचे उतरे।
एक बार क्या हुआ कि मंत्री जी के कुछ पियक्कड़ दोस्तों ने जब तीन चार पेग पी पिला लिया तो उनको चढ़ा दिया, ‘कि बताइए जो टी.एन. सिंह को आप ने नहीं हराया होता तो क्या कमलापति मुख्यमंत्री हो पाते? नहीं न? और फिर भी आप को डिप्टी मिनिस्टर बनाया। कैबिनेट नहीं, न सही स्टेट मिनिस्टर तो बनाया होता।’ मंत्री जी हताश होकर बोले, ‘यह तो है।’ एक दोस्त ने कहा, ‘तो मौक़ा मत चूकिए अभी मुख्यमंत्री को फ़ोन लगाइए।’ तबके दिनों में ट्रंकाल बुक करने का चलन था। ट्रंकाल बुक किया गया। मुख्यमंत्री को मंत्री जी ने अर्दब में ले लिया। अकबक बोलते हुए गरजे, ‘मेरे ही चलते मुख्यमंत्री बने और मुझे ही डिप्टी मिनिस्टर बना दिया?’ जवाब में मुख्यमंत्री ने डपट दिया, ‘बोले अभी तुम होश में नहीं हो। होश में आते ही लखनऊ आ जाओ फिर बात करते हैं।’
मंत्री जी पस्त हो गए। सारा नशा चूर हो गया। दूसरे दिन भाग कर लखनऊ पहुंचे। मुख्यमंत्री से मिले। मुख्यमंत्री ने इस्तीफ़ा मांग लिया। कहा कि, ‘तुम अभी मंत्री बनने के योग्य नहीं हो। शराब पी कर जब तुम मेरे साथ अभद्रता कर सकते हो तो बाक़ी के साथ क्या कर सकते हो समझ सकता हूं।’ मंत्री जी मुख्यमंत्री के पैरों पर गिर गए। गिड़गिड़ाने लगे। अंततः मुख्यमंत्री पसीज गए। बोले, ‘लेकिन अब तुम होम में नहीं रहोगे। कोई और विभाग में जाओ। होम मिनिस्टरी लायक़ तुम्हारा आचरण नहीं है।’ मंत्री जी फिर पैर पकड़ कर गिड़गिड़ाए। तो मुख्यमंत्री ने उन्हें बख़्शते हुए कहा कि, ‘चलो होम में तो रहोगे पर देखोगे होम गार्ड। यानी डिप्टी होम मिनिस्टर होमगार्ड।’
मंत्री जी लौटे अपने शहर लुटे-पिटे अंदाज़ में। डिप्टी होम मिनिस्टर होमगार्ड बन कर। मंत्री जी उस कोतवाल को भी नहीं हटा पाए। और वही कोतवाल अब तिवारी के लिए भारी पड़ गया था।
मणि जी की सलाह पर तिवारी फिर फ़रार हो गया। राजनीति भूल कर फिर से रंगदारी, ठेकेदारी और ख़ून ख़राबे के खेल में लग गया। उन दिनों तमाम सरकारी कर्मचारी भी चार सौ छः सौ रुपए वेतन वाले थे और बड़ा सपना उन के पास यही होता कि कम से कम रिटायर होते समय ही वेतन फोर फिगर में यानी एक हज़ार रुपए हो जाता! जो कि अकसर नहीं होता। लखपति होना शान का सपना होता मध्यवर्ग में जो कोई नहीं होता। उन दिनों में भी तिवारी करोड़ों में खेलने लगा। और जो कोई ज़रा भी उस की राह में आने की ग़लती करता उस को वह सीधे स्वर्गीय बना कर स्वर्ग यात्रा पर भेज देता।
महंत जी ने उन्हीं दिनों विश्वविद्यालय छात्र संघ के एक नेता को पकड़ा। उसे क्षत्रियवाद की ख़ुराक पिलाई। जैसे कभी मणि जी ने तिवारी को ब्राह्मणवाद की ख़ुराक पिलाई थी और बड़े महंत जी के खि़लाफ़ खड़ा किया था। तो महंत जी ने भी छात्र संघ के इस क्षत्रिय नेता को क्षत्रियवाद की ख़ुराक दे कर तिवारी के खि़लाफ़ खड़ा किया। छात्र संघ का यह नेता वास्तव में राजनीति करना चाहता था, साफ़ सुथरी राजनीति। उस ने उन दिनों जैसे एक रिकार्ड सा बना दिया था। लगातार तीन-तीन विश्वविद्यालयों के छात्र संघ का अध्यक्ष बन कर। अपने शहर के विश्वविद्यालय के बाद वह बी.एच.यू. में भी छात्र संघ अध्यक्ष रहा और लखनऊ विश्वविद्यालय में भी। अंगरेज़ी हटाओ आंदोलन का नेता था वह। आनंद ने जब अपने कालेज में अनशन किया था तब उस को जूस पिला कर इसी नेता ने अनशन तुड़वाया था।
अब वह अपनी जगह छात्र संघ के बजाय संसदीय राजनीति में तलाश रहा था। एक बार विधानसभा का चुनाव निर्दलीय लड़ कर वह हार चुका था। पर दुबारा विधायक चुन लिया गया था। अब वह तिवारी के अवैध कारोबार पर लगाम बन कर खड़ा था। तिवारी की उन दिनों रवायत यह थी कि सड़क बनाने का ठेका लेता। सड़क बनती काग़ज़ पर और पेमेंट हो जाता। पेमेंट क्या हो जाता, इंजीनियर लोग चेक तिवारी के घर पहुंचा आते। ऐसे ही बाक़ी ठेकों में भी होता। इस विधायक ने तिवारी के खि़लाफ़ विधानसभा से ले कर सड़क तक पर मोर्चा खोल दिया। अपने गुर्गों को तिवारी के पैरलेल ठेकों में भी उतार दिया। तिवारी का आतंक और आय दोनों पर लगाम कस गई।
नतीजा सामने था।
विधायक का दायां हाथ कहा जाने वाला जो विश्वविद्यालय छात्र संघ का अध्यक्ष भी रह चुका था गोलघर बाज़ार में सरेशाम गोलियों से भून दिया गया। शहर में सन्नाटा फैल गया। जल्दी ही जवाबी हमले में तिवारी के भी दो आदमी मार गिराए गए। तो तिवारी ने भी सरे बाज़ार सात लोगों को एक साथ गोलियों से छलनी कर दिया। फिर तिवारी के भी पांच आदमी मार दिए गए। अंततः एक दिन सुबह-सुबह रेलवे स्टेशन पर वह विधायक भी जो विधानसभा की बैठक में भाग लेने लखनऊ जा रहा था अपने गनर सहित तड़ातड़ चली गोलियों से छलनी हो गया। शहर में अफवाहों का बाज़ार गरम हो गया। ख़ौफ का तंबू तन गया। तिवारी का घर चारों ओर से भारी पुलिस बल ने घेर लिया। पर जाने इसमें कितना सच था, कितना झूठ पर यह कहानी ज़ोरों पर चली कि तिवारी ने बिलकुल फ़िल्मी अंदाज़ में उस के घर पूछताछ के लिए गए एक पुलिस अफ़सर को बंधक बनाया, उस की वर्दी उतार कर पहनी और उसी की जीप में पुलिस वालों से सलामी लेता पुलिस घेरे से बाहर निकल कर सीधे नेपाल चला गया। और पुलिस टापती रह गई।
शहर की चर्चा अब बी.बी.सी. रेडियो तक पर थी। शहर की ख़ून से लाल हुई सड़कों की चर्चा चहुं ओर थी। कहा जाने लगा कि दुनिया के टाप क्रिमिनल सिटी में इस शहर का नाम शुमार है। अमरीका के शिकागो से इस शहर की तुलना होने लगी। लगता था कि जैसे यहां क़ानून का राज नहीं, जंगल राज हो। देश का एक ऐसा टापू जहां सिर्फ़ अपराध ही पढ़ाया-लिखाया जाता हो!
देश और प्रदेश औद्योगिक विकास की ओर पेंग मार रहा था। पर इस शहर में ख़ून ख़राबा इतना आम हो गया कि कोई उद्योगपति या कोई व्यवसायी यहां आने से कतरा गया। इस ख़ूनी खेल ने पूर्वी उत्तर प्रदेश को औद्योगिक और व्यावसायिक विकास से महरूम कर दिया। विकास के पहिए यहां आने से ही इंकार कर गए।
रही सही कसर तिवारी के एक ख़ास ले़फ्टिनेंट शाही ने तिवारी के खि़लाफ़ बग़ावत कर के पूरी कर दी। शाही ने तिवारी के सामने क़दम-क़दम पर मुश्किलें खड़ी कीं। वह तिवारी के सारे ठेके-पट्टे और हथकंडे से न सिर्फ़ वाक़िफ़ था, बल्कि राज़दार भी था। उस ने तिवारी का जीना मुश्किल कर दिया। ठेकों पर से उन का एकछत्र राज तो छीना ही उन पर ताबड़तोड़ हमले भी करवाए। उन के लोगों को तोड़ा। तिवारी ने भी शाही की भरपूर सांसत की। एक बार तो सरे बाज़ार शाही की कार को पूरी तरह छलनी कर दिया। शाही ने कार की सीट उखाड़ कर सीट के नीचे छिप कर अपने प्राण बचाए। शाही ने भी राजनीतिक टोटके आज़माए और विधानसभा में निर्वाचित हो कर निर्दलीय की हैसियत से पहुंच गया। चेले ने अब गुरु का जीना हराम कर दिया। गुरु जो हरदम फ़रार रहते थे, सामने आने पर मजबूर हो गए। और एक संसदीय चुनाव में गुरु और चेले आमने-सामने हो गए।
दोनों के खि़लाफ़ एन.एस.ए. लग गया। दोनों एक ही जेल में बंद हो गए। अगल-बगल की बैरकों में। दोनों ने ही एक ही संसदीय सीट के लिए जेल से परचा भरा, जेल से ही चुनाव संचालन किया, पानी की तरह पैसा बहाया। पर दोनों ही की ज़मानत ज़ब्त हो गई। पर जल्दी ही हुए विधानसभा चुनाव में दोनों ही जीत गए अलग-अलग विधानसभा क्षेत्रों से। दोनों ने ही जेल से ही जा कर विधानसभा सदस्यता की शपथ ली और बाद में एन.एस.ए. हटने पर छूट भी गए। शहर का एक काबीना मंत्री जो ठाकुर था, उसने भी तिवारी की नाकाबंदी की। अब शाही के पास डबल बैकिंग थी। एक महंत जी की, एक मंत्री जी की। बल्कि इस मंत्री ने बीते दोनों चुनाव में तिवारी को कांग्रेस से टिकट नहीं मिलने दिया था। पर विधानसभा चुनाव में यह मंत्री गच्चा खा गया अपने ही राजनीतिक गुरु चतुर्वेदी जी से। चतुर्वेदी जी तपे तपाए स्वतंत्रता सेनानी थे और मंत्री के राजनीतिक गुरु। मंत्री हो गया यह ठाकुर कभी चतुर्वेदी जी का झोला ढोता था।
चतुर्वेदी जी 1952 में विधानसभा में गए तो कभी हारे नहीं। पर 1985 के चुनाव में कांग्रेस का टिकट पा कर पर्चा भी भरे पर तिवारी के पक्ष में बैठ गए। ब्राह्मणवाद के नाम पर तिवारी का डट कर प्रचार किया। चतुर्वेदी जी का तिवारी के पक्ष में प्रचार और तिवारी के पिता की पुरोहिताई ने तिवारी को जितवा दिया। इस ठाकुर मंत्री ने हालां कि कोशिश की कि बैलेट बाक्स वग़ैरह बदल-वदल कर तिवारी को हरवा दिया जाए। पर तब के एक एस.डी.एम. ने ऐसा करने करवाने से साफ़ इंकार कर दिया। तिवारी विधानसभा चुनाव भले जीत गया पर उस के दुर्भाग्य ने उस का पीछा नहीं छोड़ा। शहर का वह ठाकुर मंत्री अब प्रदेश का मुख्यमंत्री हो गया था। उस ने तिवारी के सारे ठेके छिन्न भिन्न करवा दिए और पूरी ताक़त झोंक दी तिवारी को बरबाद करने के लिए। दो तीन बार पुलिस इनकाउंटर की भी कोशिश करवाई। लेकिन तिवारी अपनी तरकीबों से बच निकला। एक बार तो तिवारी ने अपने एक कालेज के फंक्शन में कमलापति त्रिपाठी को मुख्य अतिथि बनाया। फंक्शन ख़त्म हुआ तो कमलापति त्रिपाठी बाई रोड बनारस निकल गए। लेकिन तिवारी को पुलिस ने अवैध हथियार रखने के आरोप में रोक लिया। सत्तर-अस्सी किलोमीटर दूर के एक थाने में पूछताछ के लिए ले गई। इरादा रात में इनकाउंटर का था। पर तिवारी के लोेग रातों रात इतने ज़्यादा इकट्ठे हो गए की पुलिस फ़ोर्स कम पड़ गई लोग ज़्यादा। तिवारी छूट गया।
तिवारी अपनी सुरक्षा को ले कर चिंतित हो गया। नींद हराम हो गई। वैसे भी तिवारी कभी ट्रेन से नहीं चलता था। कहता कि अगर ट्रेन से चलूं तो पता चला कि रास्ते में ही चेन पुलिंग कर के सब मार देंगे। तो या तो बाई रोड या बाई एयर ही चलता तिवारी। और एक साथ तीन चार प्रोग्राम बनाए रहता। मंगाए रहता हवाई जहाज का टिकट और चल देता बाई रोड। बाई रोड जाना होता कानपुर चल देता बनारस। वह भी रास्ता बदल-बदल कर। रात दो बजे सोता सुबह चार बजे उठ जाता। सरकारी सुरक्षा के भरोसे रहता नहीं था। अपनी सुरक्षा में लगे निजी लोगों को भी रोटेट करता रहता। रास्ते में भी आठ-दस गाड़ियां साथ रहतीं। थोड़ी-थोड़ी देर में गाड़ियां भी बदलता रहता। भरोसा किसी पर नहीं करता। अपने सगे भी उस के शक के दायरे में रहते। और जिस पर भी उस का शक गाढ़ा होता उसे वह फ़ौरन मौत की नींद सुला देता। कभी भूल कर भी वह कोई चांस नहीं लेता।
लेकिन इस ठाकुर मुख्यमंत्री ने तिवारी की चौतरफ़ा नाकाबंदी कर के उस की कमर तोड़ दी थी। शहर में क्या पूरे ज़िले में ठाकुरवाद-ब्राह्मणवाद की लड़ाई पूरे उफान पर थी। हालां कि शाही खुल कर कहता, ‘कहीं ठाकुरवाद-ब्राह्मणवाद की लड़ाई नहीं है। हमारी और गुरु जी की लड़ाई दरअसल ठेके पट्टे की लड़ाई है।’ वह अपने कई ले़फ्टिनेंटों के नाम गिनाता और कहता, ‘देखिए यह सभी पंडित हैं और हमारे ख़ास हैं।’ फिर वह तिवारी के कई ख़ास ले़फ्टिनेंटों के नाम गिनाता और कहता, ‘देखिए गुरु जी के यह लोग ठाकुर हैं। तो काहें की ब्राह्मणवाद-ठाकुरवाद की लड़ाई?’ वह जोड़ता, ‘सब गुरु जी का खेल है लोगों को उकसाने-भड़काने और अपनी रोटी पकाने का।’
शाही थोड़ा दिल का साफ़ था और तबीयत का बादशाह। एक समय तिवारी के लोग उसे मारने के लिए कुत्तों की तरह खोज रहे थे पर वह फिर भी सिनेमा देखने सिनेमा हाल चला जाता था। उन दिनों वीडियो, सी.डी., डी.वी.डी. की तकनीक कहीं दूर-दूर तक नहीं थी। सो वह सिनेमा हाल चला जाता। उन दिनों एक फ़िल्म लगी थी मेरा गांव मेरा देश। सिल्वर जुबिली हुई थी। तो शाही ने भी पचीसियों बार इस फ़िल्म को देखा। जान ख़तरे में डाल कर। शाही को औरतों, शराब वगै़रह का भी शौक़ था। पर तिवारी को औरतों, शराब वगै़रह से न सिर्फ़ मुश्किल थी बल्कि ऐसे लोगों को भी अपने से दूर रखता। हां, कभी-कभी तिवारी के होमो होने के शौक़ की चर्चा दबे ढंके ज़रूर चल जाती। पर बाक़ी मामलों में तिवारी शुद्ध शाकाहारी और विशुद्ध कंजूस के रूप में अभी भी जाना जाता है। तिवारी के अभेद्य सुरक्षा में यह अवयव भी महत्वपूर्ण साबित हुआ।
एक समय श्री प्रकाश शुक्ला नामक एक अपराधी पूरे पूर्वांचल में छा गया। उसे हत्या कर नाम कमाने का जैसे नशा सा था। अपराधी पुलिस सब को वह ताश की तरह फेंट कर मारता। उस ने तिवारी और शाही को भी निशाने पर लिया। तिवारी को निशाने पर उस के एक शागिर्द ने ही लिया जिस ने बाद में मंत्री रहते हुए भी एक कवियत्री की हत्या करवा दी क्यों कि वह उस के बच्चे को गिरवाने को तैयार नहीं थी। वह अब सपत्नीक जेल भुगत रहा है तो यह वह कवियत्री की बहन की वजह से नहीं बल्कि तिवारी की कृपा से। उस शागिर्द की सारी ज़मीनी नाकेबंदी तिवारी ने करवाई और सुप्रीम कोर्ट तक से उसे नाथ दिया। ख़ैर श्री प्रकाश शुक्ला लाख कोशिश के बावजूद तिवारी को नहीं मार पाया। पर शाही को एक सुबह लखनऊ में ही उस ने मार गिराया। जब वह औरतबाज़ी कर के अकेले लौट रहा था। बाद में तो श्री प्रकाश शुक्ला भी पुलिस के हाथों मारा गया। लेकिन तिवारी न सिर्फ़ बचा रह गया बल्कि मिली जुली सरकारों के दौर में बार-बार मंत्री भी बना। विभाग भले ही अच्छे न मिले हों उसे पर बना कैबिनेट मिनिस्टर ही। पहली बार जब तिवारी को विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय दिया गया तो तिवारी के लोग घूम-घूम कर कहते, ‘यह तो पंडित जी का अपमान है।’ तो एक दिन एक पत्रकार जो कभी शाही का मुंहलगा भी था बोला, ‘यह पंडित जी का अपमान नहीं है, यह तो बेचारे उन वैज्ञानिकों का अपमान है जो एक माफ़िया मंत्री के मातहत हो गए हैं।’ तब से तिवारी के लोगों ने यह कहना बंद कर दिया।
बहरहाल यह शहर कभी सांप्रदायिकता तो कभी अपराध की भट्ठी में सुलगता दहकता रहा। विकास का सपना भी नहीं देखा इस शहर ने और शीशे की तरह टूटता रहा। उस ठाकुर मुख्यमंत्री ने एक औद्योगिक विकास प्राधिकरण भी बनाया नोएडा की तर्ज पर। लेकिन अपनी स्थापना के ढाई दशक बाद भी यह प्राधिकरण फूल फल नहीं सका। तिवारी अब खरबपति हो कर यहां की चीनी मिलों को औने-पौने ख़रीद कर, बंद कर अपनी निजी संपत्ति बना कर मौज कर रहा है। और जिस भी किसी की सरकार बनती है उस में कभी सीधे, कभी प्रकारांतर से शामिल हो जाता है। भांजों, बेटों और चेलों को आगे पीछे लगा देता है। अब वह ख़ुद विधायक या मंत्री नहीं है तो क्या उस का एक बेटा सांसद है और भांजा एम.एल.सी.।
आप पूछ सकते हैं कि कभी तिवारी के पोषक रहे मणि जी कहां हैं? तो मणि जी अब दिवंगत हैं। लेकिन दिवंगत होने के पहले तिवारी ने उन को भी उन की हैसियत बता दी थी। हुआ यह कि एक कुष्ठाश्रम के ट्रस्ट में दोनों ही ट्रस्टी थे। मणि जी ने जब देखा कि कोढ़ियों का भी पैसा कुष्ठाश्रम का सुपरिंटेंडेंट हजम कर जा रहा है तो ट्रस्ट की मीटिंग में उन्हों ने इस पर हैरत जताई और डट कर विरोध जताया। लगभग सभी ट्रस्टी सुपरिंटेंडेंट को हटाने पर सहमत हो गए। सिर्फ़ एक माफ़िया तिवारी को छोड़ कर। सुपरिंटेंडेंट दरअसल गड़बड़ी कर ही रहा था तिवारी के दम पर। करोड़ों रुपए का बजट गटक रहा था, तिवारी को उन का हिस्सा दे रहा था। पर जब बाक़ी ट्रस्टियों ने सुपरिंटेंडेंट को बचाने में तिवारी की दिलचस्पी देखी तो चुप लगा गए। लेकिन मणि जी चुप नहीं हुए। लगातार बोलते रहे तमाम अनियमितताओं के खि़लाफ़! आजिज़ आ कर तिवारी मणि जी के पास हाथ जोड़ कर पहुंचा और कहा कि, ‘शांत हो जाइए।’
‘क्यों शांत हो जाऊं?’ मणि जी भड़के।
‘शांत हो जाइए!’ तिवारी ने हाथ जोड़ कर ही पर डपट कर कहा कि, ‘शांत हो जाइए, नहीं शांत कर दूंगा।’
मणि जी सकते में आ गए।
ट्रस्ट की मीटिंग से उठ कर चुपचाप चले गए। हालां कि वह कोई कमज़ोर नहीं थे। ख़ुद आई.ए.एस. रह चुके थे, एम.एल.सी. रह चुके थे। एक बेटा जस्टिस था जो बाद में एम.पी. भी हुआ। एक बेटा आई.पी.एस. था जो बाद में डी.जी.पी. भी हुआ। एक बेटा सेना में मेजर था। सब कुछ था पर इस तिवारी ने जो उन से कहा कि, ‘शांत हो जाइए, नहीं शांत कर दूंगा।’ उस के इस कहे ने उन्हें मथ दिया था। अकेला कर दिया था। तोड़ दिया था-भीतर तक। वह शंकर नहीं थे, पर भस्मासुर पैदा कर बैठे थे। आम समझ कर बबूल लगा बैठे थे। यह उन को अब एहसास हो रहा था। जब तिवारी की नागफनी ने उन को हलके से छुआ था।
यह क्या था?
यही उन का अवसान था।
फिर उन का देहावसान भी हो गया।
बड़े महंत जी कब के दिवंगत हो चुके थे। उन के बाद के महंत भी अब बुढ़ा रहे थे। उन के अवसान का समय भी अब नज़दीक था। इस महंत ने मंदिर के विस्तार और तमाम और संस्थानों के विस्तार में जो तत्परता और कुशलता दिखाई थी उस में एक छेद भी था- इस महंत की औरतबाज़ी। इस के लिए वह बदनाम हो चले थे। अपनी इन औरतों और इन से हुए बच्चों को उन्हों ने अपना नाम भले न दिया हो पर उन्हें सामाजिक स्वीकृति, संपन्नता और प्रतिष्ठा ख़ूब दी और दिलवाई। फिर जब अपने अवसान पर जीते जी स्वास्थ्य का हवाला दे कर इस नए महंत को अपनी गद्दी सौंपी तो दबी ज़ुबान ही सही यह चर्चा भी मंदिर परिसर से ही चल पड़ी कि यह महंत जी की ही संतान है। और कि उत्तराखंड में इस की माता निवास करती है।
पर यह चर्चा आम नहीं हुई, ख़ास ही बनी रही।
तिस पर महंत जी के उग्र तेवर ने लोगों में ऐसी दहशत भरी कि सारा शहर उन के यशोगान में डूब गया। क्या प्रशंसक क्या विरोधी किसी की भी ज़बान पर यह बात नहीं आई। सब जानते थे कि जो किसी की ज़बान पर यह बात आई तो उस की ज़बान उस के मुंह में नहीं रह पाएगी, काट दी जाएगी।
जो भी हो महंत जी सारी उठा पटक के बावजूद चुनाव भारी मतों से जीत गए। माफ़िया तिवारी के बेटे को छोड़ कर बाक़ी सभी की ज़मानत ज़ब्त करवा दी महंत जी ने।
वह टी.वी. पर देख रहा है कि मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री की दुबारा शपथ ले रहे हैं। नीचे लगातार पट्टी पर लिखा आ रहा है कि नेहरू के बाद दूसरे ऐसे प्रधानमंत्री जो अपना कार्यकाल पूरा करने के बाद दूसरी बार शपथ ले रहे हैं। तभी मुनव्वर भाई का फ़ोन आ जाता है। वह बता रहे हैं, ‘बस अभी आप के गांव से लौटा हूं।’
‘क्यों क्या हुआ मेरे गांव में?’
‘अरे आप भूल गए?’ वह थोड़ा गंभीर हो कर बोले, ‘आज चालीसवां था क़ासिम का!’
‘अच्छा-अच्छा!’
‘हमें तो उम्मीद थी कि आप भी आएंगे।’
‘कहां मुनव्वर भाई।’ वह बोला, ‘आप तो सारी बात जानते हैं।’
‘हां भई जानता हूं कि जो किसी से नहीं हारा, हार गया अपनों से।’
‘हां मुनव्वर भाई हम हारे हुए लोग ही तो हैं।’ वह बोला, ‘हारे हुए भी और अपमानित भी।’
‘सॉरी आनंद जी!’ मुनव्वर भाई बोले, ‘मैं अपने को इस तरह हारा हुआ नहीं मानता। आप को भी नहीं मानना चाहिए। हम एक न एक दिन कामयाब होंगे।’
‘यह सब रूमानी और किताबी बातें हैं मुनव्वर भाई!’ वह बोला, ‘पढ़ने-सुनने में अच्छी लगती हैं। ज़मीनी हक़ीक़त कुछ और ही है।’
‘मैं ऐसा नहीं मानता।’ मुनव्वर भाई बोले, ‘देखिए अब की चुनाव में एक बात तो साफ़ हो ही गई है राहुल गांधी और वरुण गांधी की लड़ाई में। कि देश में अब वरुण गांधी की राजनीति नहीं चलने वाली। सांप्रदायिकता और नफ़रत की जगह राहुल जी की साफ़ सुथरी राजनीति देश के लोग चाहते हैं। इन टोटल देखें तो लोगों ने सांप्रदायिक, जातीय राजनीति को तो लगभग तमाचा मारा है।’
‘मुनव्वर भाई चलिए एक हद तक आप की बात मान लेते हैं। और नीतीश कुमार की साफ़ सुथरी राजनीति को भी जिसे आप छोड़ रहे हैं, इस मंे जोड़ लेते हैं। फिर भी यह बताइए कि अब की चुनाव में वोटिंग का औसत क्या रहा?’
‘हां, यह तो अफ़सोसनाक है।’
‘तो फिर यह कैसे तय होगा कि देश की राजनीति कहां जा रही है?’ वह बोला, ‘एक समय था कि आप की कांग्रेस पैंतीस परसेंट-चालीस परसेंट, फिर तैतीस परसंेट वोट पा कर देश पर रूल करती थी। अब लगभग इतने ही परसेंट वोटिंग हो रही है। यह क्या है?
‘हो सकता है, अगले चुनाव तक यह चीजें भी ठीक हों।’
‘अच्छा आप यह बताइए कि अब की अपने शहर में महंत के खि़लाफ़ माहौल था?’
‘बिलकुल था।’
‘फिर भी वह लोगों की लगभग ज़मानत ज़ब्त करवा कर जीता। यह क्या है?’
‘ये तो है।’
‘सच यह है मुनव्वर भाई कि जैसा कि लोग कहते हैं कि देश के नेताओं की खाल मोटी है। तो मैं भी मानता हूं कि हां है। पर यह भी मानता हूं और जानता हूं कि इन नेताओं से भी ज़्यादा हमारी जनता की खाल मोटी है। जानती है कि फ़लां बदमाश है, कमीना है, भ्रष्ट है, अपराधी है, जातिवादी है, सांप्रदायिक है पर उस के खि़लाफ़ वोट देने नहीं जाती। तो यह क्या है?’
‘सो तो है?’
‘बताइए कि मुंबई में जब ताज, ओबराय होटलों और स्टेशन वगै़रह पर आतंकवादी हमला हुआ था तब गेट वे ऑफ इंडिया पर मोमबत्ती जलाने जैसे समूचा मुंबई सड़कों पर उतर आया था। पर जब शिव सेना के गुंडे अभी इस के कुछ दिन पहले यू.पी. और बिहार के गरीबों को मार रहे थे, वहां से भगा रहे थे तो यह मंुबई की जनता वहां चुप क्यों बैठी थी? सड़कों पर क्यों नहीं आई थी? क्या इस का विरोध नहीं करना चाहिए था वहां के लोगों को?’ वह बोला, ‘और देखिए अब यही मुंबई की जनता वोट देने भी नहीं निकली। बल्कि एक फ़िल्मी एक्टर बेशर्मी पार करते हुए कहने लगा कि वोट देने के लिए भी पैसा मिलना चाहिए। पैसा नहीं मिला इस लिए उस ने वोट नहीं दिया। तब जब कि वह एक साथ कांग्रेेस, भाजपा दोनों के प्रचार में गया था। तो जाहिर है कि वहां पैसा मिला होगा तभी गया होगा। जब कि एक फ़िल्मी हीरो ने चैनलों को तमाशा करते हुए बताया कि वह विदेश में अपनी शूटिंग छोड़ कर वोट डालने आया है। जब कि हक़ीक़त यह थी कि एक पंूजीपति के घर उस दिन शादी में वह नाचने के लिए आया था, करोड़ो रुपए ले कर। और यही फ़िल्मी हीरो हमारे समाज के आज के आइकन हैं, सेलिब्रिटी हैं।’
‘चलिए आनंद जी यह सब चीज़ें हमारी आप की बहस से सुलझने वाली भी नहीं हैं।’
‘पर यह जो पैसे का राक्षस हमारे समाज को संचालित कर रहा है। इस का क्या करें? पैसा बड़ा था शुरू से पर अब यह इतना बड़ा राक्षस हो गया है कि क्या करें? राम के ज़माने में रावण भी इतना बड़ा नहीं रहा होगा, कृष्ण के ज़माने में कंस भी इतना बड़ा नहीं रहा होगा, जितना बड़ा राक्षस यह पैसा हो गया है हम लोगों के ज़माने में।’
‘ये तो है।’
‘चलिए मुनव्वर भाई भाषण बहुत हो गया। फिर बात होगी।’
‘अच्छी बात है।’
‘अरे हां, यह बताइए कि हमारे गांव में सब कुछ सामान्य तो है न?’
‘हां, हमें तो सामान्य ही लगा।’ वह बोले, ‘क्यों क्या हुआ?’
‘नहीं वैसे ही पूछ लिया कि कहीं कोई तनाव वग़ैरह।’
‘नहीं ऐसा कुछ नहीं दिखा हमें तो।’
‘ठीक बात है।’
बात ख़त्म हो गई थी।
उधर टी.वी. पर शपथ ग्रहण की ख़बर भी ख़त्म हो गई थी।
मन हुआ उस का कि गांव फ़ोन कर के घर गांव का हालचाल ले ले। पर जाने क्यों वह टाल गया। चला गया गोमती नगर एक दोस्त के घर। लौटा तो गांधी सेतु के रास्ते। अंबेडकर पार्क और लोहिया पार्क के बीच से। एक तरफ़ अंबेडकर दूसरी तरफ़ लोहिया। बीच में टाटा ग्रुप का पांच सितारा ताज होटल। तीनों को गोमती पार से जोड़ता गांधी सेतु अजब कंट्रास्ट है। अंबेडकर पार्क पत्थरों में तब्दील हैं। तीन साल से काम ख़त्म ही नहीं हो रहा। लखनऊ पहले बाग़ों का शहर होता था अब पार्कों और पत्थरों का शहर है। कि तानाशाहों का शहर है यह? मास्टर प्लान में यह इलाक़ा ग्रीन बेल्ट का था अब यहां पत्थर बोलते हैं। अंबेडकर, लोहिया, गांधी सेतु! तीनों ग़रीबों के पक्षधर बीच में टाटा का पांच सितारा ताज। अमीरी का प्रतीक। नवाबों के शहर लखनऊ की यह नई कैफ़ियत है! कि चौराहे बड़े हो गए हैं और सड़कें संकरी।
यह क्या है? कौन सी कैफ़ियत है?
कभी शायरों के काफिया तंग होते थे अब लोगों की कैफ़ियत!
वह आफ़िस के एक सहयोगी के घर पर है। उस के पिता का निधन हो गया है। अचानक। मौत पता तारीख़ तो बता कर आती भी नहीं। पर लोग भी नहीं आए हैं। उस के पिता का निधन एक दिन पहले ही हो गया था। रिश्तेदारों, पट्टीदारों को ख़बर भेज कर दो दिन का इंतज़ार किया। कोई नहीं आया। यहां तक कि कोई पड़ोसी भी झांकने नहीं आया। आफ़िस के लोग भी इक्का दुक्का ही हैं। कुछ लोग फ़ोन कर के जबरिया बुलाए जाते हैं। दर्जन भर लोग भी इकट्ठे नहीं होते। एक सहयोगी बुदबुदा रहा है, ‘यह साला भी तो किसी के दुख सुख में नहीं जाता। तो कोई कैसे आएगा?’ लाश वाली गाड़ी बुलाई जाती है। श्मशान घाट पहुंच कर दाह संस्कार संपन्न हो जाता है। सहयोगी कुपित है और चाहता है कि सब कुछ आर्य समाज ढंग से दो तीन दिन में संपन्न हो जाए। फ़ालतू का ख़र्च भी बचेगा। पर सहयोगी की रोती बिलखती मां अड़ गई है कि, ‘सब कुछ विधि विधान से होगा। दसवां भी होगा, तेरही भी और बरखी भी। आखि़र पिता थे तुम्हारे!’
मां और बेटे में मौन जंग जारी है।
घर आकर आनंद सोचता है कि क्या मनुष्य अब सामाजिक प्राणी नहीं रहा? कभी स्कूलों में निबंध लिखवाया जाता था कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। उस ने बीच-बीच में भी कई बार पाया कि मनुष्य अब सामाजिक प्राणी नहीं बल्कि पारिवारिक प्राणी हो गया है। तो क्या अब वह कुछ दिनों में पारिवारिक प्राणी भी नहीं रह जाएगा। सुविधाओं और तकनीक में फंसा मनुष्य अब एकल प्राणी होने की ओर अग्रसर है! आने वाले दिनों में स्कूलों में निबंध लिखवाया जाएगा कि मनुष्य अब एकल प्राणी है। सॉरी अब तो निबंध नहीं एस्से लिखवाया जाता है स्कूलों में। इंगलिश मीडियम का बुख़ार है स्कूलों में अब तो। तो क्या आगे के दिनों में मनुष्यत्व भी या मनुष्य भी नहीं बचा रह पाएगा?
यह कौन सी कैफ़ियत है?
यह कौन सी प्यास है?
कंपनी के चयेरमैन के साथ वह अपने शहर आया है। एक प्रोडक्ट की लांचिंग है। चार्टर्ड प्लेन से सभी लोग पहुंचे हैं। वहां पहुंचने पर पता चलता है कि उसे चेयरमैन के साथ मंच पर बैठना है। उसे मुश्किल हो जाती है। कि जिस शहर में वह राजनीति के लिए, लड़ने के लिए जाना जाता है, उसी शहर में अपने लोगों के सामने उसे प्रोडक्ट बेचने के लिए बैठना पडे़गा। जिस बाज़ार के खि़लाफ़ वह सेमिनारों में पचासियों बार बोलता रहा है, अब उसी बाज़ार के साथ मैं भी खड़ा हूं, यह लोगों को बताना दिखाना पड़ेगा। चेयरमैन से तो नहीं पर वह एम.डी. से कहता है कि, ‘सर प्लीज़ मुझे मंच से थोड़ा दूर रखिए।’
‘अरे भाई आप यहां एक पब्लिक फीगर हैं। कंपनी इस का लाभ लेना चाहती है। सिंपल! इस में आप को ऐतराज़ नहीं होना चाहिए। बिलकुल नहीं होना चाहिए।’
‘पर सर!’ वह सकुचाते हुए कुछ बोलना चाहता है।
‘कुछ नहीं आनंद जी इट्स डिसीज़न आफ़ आनरेबिल चेयरमैन सर। मैं कुछ कर भी नहीं सकता। और फिर अभी महंत जी भी आ रहे हैं।’ एम.डी. फुसफुसा कर बोला।
‘महंत जी!’ आनंद बोला, ‘तब तो आप मुझे हरगिज़ न बिठाइए।’
‘हिंदुत्व और सेक्युलरिस्ट दोनों एक साथ स्टेज पर रहेंगे तो क्या मैसेज जाएगा पब्लिक में!’ एम.डी. चहकते हुए बोला, ‘कि यह प्रोडक्ट सब का है। क्या आइडिया। आनरेबिल चेयरमैन सर इज़ वेरी इंटेलिजेंट! हैव ग्रेट आइडिया! गंगा-जमुनी कल्चर इसी को तो कहते हैं।’ कह कर वह ही ही कर हंसने लगा।
‘पर महंत जी के साथ एक स्टेज शेयर करने में मेरी आत्मा गवारा नहीं करती।’
‘क्यों नहीं करती?’ एम.डी. बोला, ‘अभी कल को आप पार्लियामेंट में जाएंगे तो क्या पार्लियामेंट में बैठने से सिर्फ़ इस लिए इंकार कर देंगे कि महंत जी भी यहां बैठे हैं या आप के अन्य विरोधी भी बैठे हैं? तो जैसे पार्लियामेंट में सभी विरोधी एक साथ बैठ सकते हैं तो यहां आप क्यों नहीं बैठ सकते?’
‘पर यह पार्लियामेंट नहीं है।’
‘देन यू प्लीज़ टाक टू आनरेबिल चेयरमैन सर!’ वह बोला, ‘आई एम सॉरी!’
आनंद को लगा कि अब उस के दिमाग़ की नसें तड़क जाएंगी।
भीड़ से अलग हट कर वह सिगरेट निकाल लेता है। सिगरेट सुलगाते ही कंपनी चेयरमैन का पी.ए. मुसकुराता हुआ उस की ओर बढ़ आता है। कहता है, ‘हैव ए नाइस डे सर!’
‘शुक्रिया।’ वह बोला,‘दिन मेरा अच्छा रहे इस के लिए थोड़ी मदद करेंगे मेरी।’
‘बिलकुल सर!’ पी.ए. बोला, ‘आज तो सर आप स्टेज पर होंगे। आनरेबिल चेयरमैन सर के साथ। मंच पर कुल पांच लोग होंगे। आनरेबिल चेयरमैन सर, एम.डी. सर, महंत जी, आप सर और वाइस चेयरमैन बजाज सर! आप की सीट महंत जी के साथ होगी सर। ताकि आप लोगों की बातचीत हो सके और पिछला गिला-शिकवा दूर हो सके। आनरेबिल चेयरमैन सर ऐसा ही चाहते हैं।’
‘पर मैं अगर स्टेज पर नहीं बैठूं तो?’ आनंद बोला, ‘अपने आनरेबिल चेयरमैन सर को बता दीजिए कि मैं स्टेज शेयर नहीं करना चाहता। रही बात महंत जी से गिला-शिकवा दूर करने की तो यह तो पब्लिकली स्टेज पर हो भी नहीं सकती।’
‘जस्ट हारमोनी सर! एंड बिज़नेस स्ट्रेटजी सर! प्लीज़ सर!’
‘चेयरमैन से मेरी बात करवा सकते हैं? अभी?’
‘सॉरी सर! आ़फ्टर फंक्शन!’
‘तब बात कर के क्या करेंगे?’
‘सर, अब तो उनके आने का समय भी हो गया है।’ घड़ी देखते हुए पी.ए. बोला।
‘ओ़फ़! मैं क्या करूं?’
‘कुछ नहीं सर, चलिए और स्टेज की शोभा बढ़ाइए।’
आनंद अपना माथा पीट लेता है। सोचता है कहीं महंत की ही यह साज़िश तो नहीं है उसे अपमानित करने की, उसे खंडित करने की, उसे तोड़ देने की, तोड़ कर छिन्न-भिन्न कर देने की?
कुछ दिन पहले हिंदी के एक लेखक के साथ भी ऐसा कुछ क्या ऐसे ही घट गया था? ज़िंदगी भर सांप्रदायिकता के खि़लाफ़ लिखने वाले इस लेखक ने एक पारिवारिक सम्मान इस महंत के हाथों स्वीकार कर लिया था और नेट पर ब्लागरों ने उसे घेर लिया था। उस लेखक के पास मुंह छुपाने की भी जगह नहीं छोड़ी थी, ब्लागरों ने। इस लेखक ने ब्लागरों को जवाब देने में भी शालीनता की सीमा लांघ दी थी। कहा था मेरे मित्र के अख़बार के एक कर्मचारी ने मेरे खि़लाफ़ कुछ अनर्गल सा लिखा है। और बता दिया था कि मैं उसे जानता तक नहीं और कि यह मेरे ऊपर कुछ जातिवादियों का हमला है, वगै़रह-वगै़रह! जब कि वह ब्लागर पत्रकार भी उस लेखक का मित्र था। लेखक के इस हेकड़ी भरे जवाब ने लोगों को और उकसाया। और वह घिरता ही गया। फिर उसने अंततः माफ़ी मांगी। पर अब तक उसको लोगों ने माफ़ नहीं किया। तमाम सफ़ाई के बावजूद। वह तो समाज से लगभग कटे हुए लेखकों की एक सीमित सी दुनिया है जिसमें भी लोगों ने उस लेखक को माफ़ नहीं किया। तो आनंद तो अपने को प्रतिबद्ध राजनीतिक मानता है, लोग कैसे उसे माफ़ करेंगे? जनता जवाब मांगेगी तो वह क्या जवाब देगा? जवाब देते बनेगा भी उस से भला? इसी शहर के एक कवि देवेंद्र आर्य का शेर याद आ जाता है... कलियुग में त्रेता हूं इसका क्या मतलब / तुमको छू लेता हूं इसका क्या मतलब / गरियाता हूं जिन्हें उन्हीं के हाथों से / पुरस्कार लेता हूं इसका क्या मतलब?
सिगरेट उसकी ख़त्म हो गई है और चेयरमैन की कार भी आ गई है। मय लाव लश्कर के। प्रोटोकाल के मुताबिक़ लाइन से खड़ा हो कर चेयरमैन का स्वागत करने वालों में उस को भी खड़ा होना था, लोग खड़े भी हो गए हैं। पर वह आडिटोरियम के दूसरे छोर पर अकेला खड़ा वह यह सब देख रहा है। उस का मोबाइल बजता है। उधर से चेयरमैन का पी.ए. है। खुसफुसा रहा है, ‘सर आप कहां हैं? आनरेबिल चेयरमैन सर आप को याद कर रहे हैं।’
‘आ रहा हूं।’ कहते हुए वह आगे बढ़ता है बुदबुदता हुआ, ‘लगता है अब आज मेरी नौकरी के दिन पूरे हो गए!’
चेयरमैन अभी तक कार में बैठे हैं। जाने सचमुच किसी से मोबाइल पर बात कर रहे हैं कि बात करने का अभिनय कर रहे हैं। ख़ैर, वह धीरे से क़तार में खड़ा हो जाता है। ठीक एम.डी. के बग़ल में। एम.डी. कनखियों से उसे देखते हुए मुसकुराते हैं। सब के हाथ में बुके है। आनंद का हाथ ख़ाली है। एक आदमी पीछे से आ कर उस के हाथ में भी बुके थमा देता है। चेयरमैन कार से बाहर आ गए हैं। फूलों की बरसात के बीच वह सब से बुके लेते हैं। आनंद उन्हें बुके देते हुए कहता है, ‘सर, आप से कुछ बात करनी है अभी!’
‘हां, आनंद जी हम लोग लंच साथ करेंगे तभी बात करते हैं ओ.के।’ कहते हुए चेयरमैन मुसकुराए और उस का हाथ पकड़े हुए आडिटोरियम के अंदर बढ़ चले। आनंद सन्न! अब क्या करे! तब तक पता पड़ा महंत जी भी लाव लश्कर सहित बाहर आ गए थे। चेयरमैन पलट कर आडिटोरियम से बाहर जाने लगे। बोले, ‘आइए महंत जी को रिसीव कर लें।’
पर आनंद वहीं रुक गया।
ज़रा देर में ही फूल माला से लदे महंत और चेयरमैन आडिटोरियम के भीतर आ गए और तालियों की गड़गड़ाहट से उन का स्वागत हुआ। अन्य समारोहों की तरह नारेबाज़ी नहीं हुई। आडिटोरियम में एक कोना खोज कर आनंद फिर खड़ा हो गया। एनाउंसर ने सब का स्वागत करते हुए मंच पर पहले महंत जी को बुलाया फिर चेयरमैन से उन का स्वागत करने को कहा। एम.डी. ने चेयरमैन का स्वागत किया। वाइस चेयरमैन ने एम.डी. का। वाइस चेयरमैन के स्वागत के लिए आनंद को पुकारा गया। उसे पूर्व छात्र नेता और सामाजिक कार्यकर्ता बताया गया। फिर आनंद का स्वागत कंपनी के एक दूसरे अधिकारी ने किया। आनंद अपना नाम सुन कर सकपकाया। और पीछे हटने की कोशिश की। तो पाया कि चेयरमैन का पी.ए. उस के पीछे मुसकुराता हुआ ही ही करता खड़ा था। आनंद ने उस से खीझ कर पूछा भी कि, ‘क्या आज आप का एसाइनमेंट मैं ही हूं?’
‘राइट सर!’ बोलते हुए ही ही करते हुए उसे मंच तक ले गया।
अजीब मूर्खता थी।
जब वह अपनी तय कुर्सी पर बैठा तो महंत जी मुसकुरा कर आनंद से मुख़ातिब हुए, ‘कहिए आनंद जी!’
‘जी नमस्कार।’
तब तक कंपनी की एक मैनेजर आनंद के पास लपक कर आई। बोली, ‘सर आप की स्पीच के लिए प्रोडक्ट के बारे में ये डिटेल है जो आप को अभी बोलना होगा।’
उसने बेमन से काग़ज़ ले कर चेयरमैन की ओर देखा। चेयरमैन ने आंखों के इशारे से आनंद को स्वीकृति दी। और मुसकुराया।
उधर एम.डी. की स्पीच जारी थी। वह समझ गया कि आज वह चेयरमैन के जाल में फंस गया है। नौकरी में मिल रही सुविधाएं आज अपनी क़ीमत मांग रही हैं। उसे एक पाकिस्तानी शायर आली का एक दोहा याद आ गया; तह के नीचे हाल वही जो तह के ऊपर हाल/मछली बच कर जाए कहां जब जल ही सारा जाल!
उसने अपनी छोटी सी स्पीच में भी इस दोहे को कोट किया और कहा कि जाल जब इतना सर्वव्यापी हो जाए तो इस कंपनी का यह प्रोडक्ट ही आप सब को इस दुर्निवार जाल से बाहर निकाल सकता है।
इस पर तालियां भी बजीं और उस ने ग़ौर किया कि चेयरमैन की आंखों में भी उस के लिए प्रशंसा के भाव थे। वह और मर गया।
चेयरमैन ने अपने भाषण में आनंद के उस जाल के रूपक को इक्ज़ांपिल कह कर कोट किया। और प्रोडक्ट के गुन बताते हुए महंत जी से अनुरोध किया कि वह इस की लांचिंग करें। महंत जी ने प्रोडक्ट की औपचारिक लांचिंग की और फिर कंपनी और चेयरमैन की प्रशस्ति में धुआंधार भाषण झाड़ा।
लांचिंग प्रोग्राम संपन्न हो गया था।
और जैसा कि चेयरमैन ने आनंद से कहा था कि लंच साथ करेंगे। वह लंच के लिए आनंद को साथ ले कर चले अपनी कार में। रास्ते में वह आनंद की लैक्सिबिलिटी और लांचिंग की सक्सेस के यशोगान में लगे रहे। आगे-आगे महंत जी की कार थी, पीछे-पीछे चेयरमैन की। चेयरमैन ने बात ही बात में बताया कि महंत जी बड़े काम के आदमी हैं। इस प्रोडक्ट के लिए तमाम एजेंसियों की उन्हों ने लाइन लगवा दी है इस पूरे बेल्ट में। सो आनंद को थोड़ा उन से टैक्टफ़ुली पेश आना चाहिए। उन को लगे कि उन का ईगो हम एक्सेप्ट करते हैं और कि लंच में थोड़ा उन का इगो मसाज हो जाए!
आनंद चुप रहा।
चेयरमैन का होटल भी आ गया था। लंच क्या था, लगभग फलाहार और शाकाहार था। महंत जी की इच्छा के अनुरूप।
बातचीत चेयरमैन ने ही शुरू की पर लगाम जल्दी ही महंत के हाथ आ गई। इधर-उधर की बातों के बाद महंत जी बोले, ‘आनंद जी आप भाषण बहुत बढ़िया और सटीक देते हैं। शेरो शायरी का पुट मिला कर। पहले लोगों से सुनता था आज देख भी लिया। क्या शेर फिट किया आज आप ने।’
‘शेर नहीं दोहा था।’ आनंद धीरे से बोला।
‘अरे वही-वही।’ महंत जी बोले, ‘सच मानिए अगर आप चुनाव लड़ने भी मेरे खि़लाफ़ आए होते तो मज़ा आया होता। ई माफ़िया के लवंडे और नचनिया गवैया से लड़ने में मैं बोर हो गया। पढ़े लिखे और आप जैसे बोलने वाले आदमी से लड़ने में रस ही कुछ और होता।’
‘मैं और चुनाव?’ आनंद बोला, ‘वह भी आप के खि़लाफ़?’
‘हां भई, हां।’ वह बोले, ‘मज़ा तो मज़बूत आदमी से लड़ने में ही आता है। टक्कर बराबर की होनी चाहिए!’
‘मतलब आप जीत का रिकार्ड बनाना चाहते थे?’
‘आप जो समझिए!’ महंत जी बोले, ‘पर आप को मैडम का आफ़र एक्सेप्ट कर लेना चाहिए था।’
‘अरे इस आफ़र की जानकारी आप को कैसे हो गई?’ आनंद मुसकुराते हुए अचरज में पड़ गया।
‘मैडम का आफ़र समझा नहीं आनंद जी!’ चेयरमैन ने उत्सुकता से पूछा।
‘अरे वह जो इनकाउंटर हुआ था, जिस में इन्हों ने मुझ पर निशाना बांध कर मजमा बांध दिया था, हीरो बन गए थे। तो अपनी मैडम चीफ़ मिनिस्टर इन पर फ़िदा हो गईं। सीधा आफ़र रख दिया मेरे खि़लाफ़ इन को अपनी पार्टी से उम्मीदवार बनाने का। पर जाने क्यों यह पीठ दिखा गए।’
‘क्या यह सच है आनंद जी!’ चेयरमैन का चेहरा देखने लायक़ था।
‘हां सच है।’ आनंद बोला, ‘पर यह बात दो तीन लोगों को छोड़ कर तो कोई जानता ही नहीं। आप कैसे जान गए महंत जी?’
‘मैं लखनऊ ज़्यादा नहीं जाता, यह सच है। पर ब्यूरोक्रेसी में मेरे भी बहुत आदमी हैं। पता तो मुझे उसी दिन चल गया था।’
‘चलिए फिर कोई बात नहीं!’ आनंद ने बात ख़त्म करने की कोशिश की। पर अचानक महंत जी जैसे उसे अपमानित करने पर आ गए। बोले, ‘आप राजनीति के आदमी हो कर नौकरी क्यों करते हैं?’
‘इसलिए कि मैं अपने राजनीतिक मूल्यों से, आदर्शों से समझौता नहीं करना चाहता। ख़ैर, आप भी योगी हो कर राजनीति क्यों करते हैं?’ आनंद ने मासूमियत ओढ़ कर पूछा।
‘क्या योगी को राजनीति करने का संवैधानिक अधिकार नहीं है? वह देश का नागरिक नहीं है?’
‘क्यों नहीं है पर फिर आप को अपने नाम से योगी शब्द हटा लेना चाहिए।’
‘सुना है आप गांधी के अनुयायी हैं, फिर पंडित भी हैं। तो आप पंडित हो कर भी शराब नहीं पीते हैं? तो ऐसे तो आप को भी अपने नाम के आगे से ब्राह्मण सूचक शब्द हटा देना चाहिए! गांधीवादी होने का पुछल्ला हटा लेना चाहिए!’
‘क्यों शराब पीना क्या संविधान के खि़लाफ़ है? क्या ग़ैर क़ानूनी है?’ आनंद अब उबाल पर था, ‘यह व्यक्तिगत मसला है, सार्वजनिक नहीं।’ वह बोला, ‘शराब को मैं जायज़ भी नहीं ठहरा रहा पर यह नितांत व्यक्तिगत मसला है। पी कर मैं कभी सार्वजनिक नहीं होता, उत्पात नहीं करता। पर आप? आप महंत जी?’
‘हां, हां बताइए क्या कहना चाहते हैं? कहिए!’ महंत जी मुसकुराए। मुसकुराए यह देख कर कि आनंद तिलमिला गया है। पर आनंद ने उन की मुसकुराहट में ही धीरे से जवाब दिया,
‘पर आप तो महंत जी दंगे करवाते हैं, योगी हो कर भी, भगवा पहन कर भी भोग के कार्यों में संलग्न दिखते हैं। आप को लोग हत्यारा कहते हैं।’
‘आनंद जी मैं दंगे नहीं करवाता। दंगाइयों का शमन करता हूं, करवाता हूं।’ महंत जी किचकिचाए, हत्यारा नहीं हूं मैं।’
‘क्यों क्या आप प्रशासन के अंग हैं? डी.एम. हैं कि एस.पी. क्या हैं? आखि़र किस क़ानून के तहत आप दंगाइयों के शमन का ठेका ले लेते हैं?’
‘मैं सांसद हूं। अपनी जनता के प्रति जवाबदेह हूं।’
‘क़ानून हाथ में लेकर?’ आनंद बोला, ‘क्षमा करें महंत जी, आप जिस पीठ के महंत हैं, उस पीठ के प्रति मेरे मन में गहरा आदर है, पूरी निष्ठा है। पर अफ़सोस कि उस गोरक्ष पीठ जिसके कि आप महंत हैं, सारे कार्य उस के विपरीत करते हैं?’
‘अब आप जैसों से हमें अपना आचरण, अपना कार्य सीखना होगा?’ महंत भड़के।
‘जी नहीं। मैं क्यों आप को कुछ सिखाने लगा। मुझे योग का क ख ग भी नहीं आता। पर जिस नाथ संप्रदाय का आप अपने को बताते हैं, उस नाथ संप्रदाय का थोड़ा बहुत साहित्य मैं ने भी पढ़ा है। आप ही के मंदिर से नाथ संप्रदाय की कुछ पुस्तकें बहुत पहले ख़रीदी थीं और पढ़ी थीं। उन्हीं के आधार पर यह बात कह रहा हूं।’
‘अच्छा-अच्छा!’ महंत जी जबरिया मुसकुराते हुए बोले, ‘तो आज आप मुझ से शास्त्रार्थ के मूड में हैं?’
‘जी नहीं मैं नाथ संप्रदाय का कोई आचार्य नहीं हूं, कोई विशेषज्ञ या संत भी नहीं हूं। पर थोड़ी बहुत जो जानकारी है उसी के आधार पर यह कह रहा हूं कि आप अपनी पीठ के विपरीत कार्य कर रहे हैं।’
‘जैसे? ज़रा मैं भी जानूं?’
‘आप को पता है कि जैसे पतंजलि के बिना भारत में योग की कोई अर्थवत्ता नहीं है, ठीक वैसे ही गुरु गोरख के बिना भारत में संत परंपरा की कोई अर्थवत्ता नहीं है। गुरु गोरख के बिना परम सत्य को पाने के लिए विधियों की जो तलाश शुरू हुई, साधना की जो व्यवस्था प्रतिपादित की गुरु गोरखनाथ ने, मनुष्य के भीतर अंतर-खोज के लिए जितने आविष्कार किए गुरु गोरखनाथ ने, किसी ने नहीं किए। मनुष्य के अंतरतम में जाने के लिए इतने द्वार तोड़े हैं गुरु गोरखनाथ ने कि लोग द्वारों में उलझ गए।’ वह बोला, ‘क्षमा करें महंत जी आप गुरु गोरखनाथ को भूल कर गोरखधंधे में लग गए हैं।’
‘यह आप कह रहे हैं!’ महंत संक्षिप्त सा बोले।
‘जी नहीं, गुरु गोरखनाथ कह रहे हैं मैं नहीं।’ आनंद बोला, ‘गुरु गोरखनाथ तो कहते हैं; मरौ वे जोगी मरौ, मरौ मरन है मीठा/तिस मरणी मरौ, जिस मरणी गोरख मरि दीठा। तो गुरु गोरखनाथ तो मरना सिखाते हैं। अहंकार को मारने की, द्वैत को मारने की बात करते हैं। उन की सारी साधना ही समय को मार कर शाश्वतता पाने की है, शाश्वत हो जाने की है, इसी लिए वह अब भी शाश्वत हैं। आप को पता है कबीर, नानक, मीरा यह सभी गोरख की शाखाएं हैं। इन के बीज गुरु गोरखनाथ ही हैं।’ वह बोला, ‘गुरु गोरखनाथ अहंकार को मारने की बात करते हैं। वह कहते हैं आप जितने अकड़ेंगे, छोटे होते जाएंगे। अकड़ना अहंकार को मज़बूत करता है। वह तो कहते हैं कि आप जितने गलेंगे, उतने बड़े हो जाएंगे, जितना पिघलेंगे उतने बड़े हो जाएंगे। अगर बिलकुल पिघल कर वाष्पी भूत हो जाएंगे तो सारा आकाश आप का है। गुरु गोरख सिखाते हैं कि आप का होना, परमात्मा का होना एक ही है।’ आनंद बोला, ‘पर महंत जी आप ध्यान दीजिए कि आप क्या कर रहे हैं, योगी हो कर भी यहां के लोगों को क्या सिखा रहे हैं? अपनी न सही, अपनी पीठ और गुरु गोरखनाथ का ही मान रख लीजिएगा तो सब ठीक हो जाएगा।’
‘आप को तो कहीं प्रोफ़ेसर होना चाहिए, कथावाचक होना चाहिए!’ महंत बोले, ‘कहां राजनीति में फंस गए हैं?’
‘राजनीति में नहीं महंत जी, नौकरी में हूं।’ वह बोला, ‘आप जैसे लोग राजनीति को साफ़ सुथरी होने नहीं देंगे और हमारे जैसे लोग फिर कहां आ पाएंगे राजनीति में?’
‘चलिए आप हम से मतभेद भले रखें, लाख रखें पर आप के लिए मेरे मन में इज़्ज़त हो गई है।’
‘मैं भी चाहता हूं कि जैसी इज़्ज़त जैसी भावना मेरे मन में आप की पीठ के लिए है, गुरु गोरखनाथ के लिए है, आप के लिए भी हो जाए!’ वह बोला, ‘गुरु गोरखनाथ का वह पद याद कीजिए; शून्य शहर गढ़ बस्ती, कौन सोता कौन जागे रे/लाल हमारे हम लालन के, तन सोता ब्रम्ह जागे रे! और आप हैं कि तन को जगाए हैं ब्रम्ह को सोने दे रहे हैं। यह कोई अच्छी बात है क्या? इस पद को कुमार गंधर्व की आवाज़ में कभी सुनिए। मर्म समझ में और जल्दी आएगा।’
‘मतलब आप चाहते हो आनंद जी की हम आध्यात्मिक हो जाएं, राजनीति छोड़ दें?’ वह बोले, ‘भइया इस जनम तो होने से रहा। बिना राजनीति के हम तो न रह पाएंगे?’
‘राजनीति छोड़ने के लिए मैं ने कहा भी नहीं!’ आनंद बोला, ‘आचरण छोड़ने के लिए कहा!’
‘यह आचरण छोड़ कर सड़क पर कटोरा ले कर बैठ जाऊं?’ महंत बोले, ‘ऐसे तो एक भी वोट न देगा कोई। क्यों बरबाद करना चाहते हो आनंद जी।’ उठते हुए महंत जी बोले, ‘आप अपने औज़ार चमकाओ, और हमें अपने औज़ार चमकाने दो। हमें आप की तरह नौकरी नहीं, राजनीति करनी है, देश की राजनीति, समाज को बचाने की राजनीति। अच्छा तो चेयरमैन साहब चलते हैं अब! अच्छी मीटिंग रही आज की।’
‘चलिए आप के गिले शिकवे तो दूर हो गए हम से?’
‘हां भई, फुल शास्त्रार्थ हो गया आज तो। अब बाक़ी क्या रहा?’
महंत जी को चेयरमैन सहित सारा अमला होटल के बाहर तक सी आफ़ करने गया। आनंद भी!
चेयरमैन के वापसी का अब समय हो चला था। वह बोले, ‘ओ.के. आनंद जी, अच्छी मीटिंग हो गई महंत जी के साथ। बिलकुल फ्रुटफुल!’ वह बोले, ‘पर मैडम ने सचमुच आप को इस सीट से टिकट आफ़र किया था?’
‘किया तो नहीं, पर हां करवाया था!’
‘तो आप को मान जाना था!’
‘आप जानते हैं सर कि मैं नौकरी में भले कंप्रोमाइज़ कर लूं। जीवन यापन है यह। पर राजनीति में मैं कंप्रोमाइज़ नहीं कर सकता। वह भी उस मैडम के साथ! हरगिज़ नहीं।’
‘इटस योर पर्सनल आनंद जी!’
‘थैंक यू सर!’
‘सुनता था कि आप की स्टडी बहुत अच्छी है, अच्छे ओरेटर हैं, आज देख भी लिया। इट्स नाइस! यू आर द एसेट आफ़ माई कंपनी।’
आनंद चुप रह गया।
यह तमाचा खा कर वह करता भी तो क्या?
तो क्या अब वह इस कंपनी की संपत्ति हो गया? अब वह आदमी नहीं रहा, कर्मचारी नहीं रहा, संपत्ति हो गया! कारपोरेट सेक्टर की नौकरी क्या कम थी उसे मारने के लिए? जो आज उसे यह तमग़ा भी मिल गया? उसे अपने आप से घिन आने लगी।
वह भी होटल से चलने को हुआ। और सिगरेट जला ली। कि तभी चेयरमैन का पी.ए. ही ही करता आया। बोला, ‘वेल सर! आनरेबिल चेयरमैन सर इज़ वेरी हैप्पी! हैप्पी टू यू सर!’
‘क्यों?’
‘महंत जी का इगो मसाज बहुत अच्छे से हो गया। अब देखिएगा प्रोडक्ट यहां बहुत अच्छे से रन करेगा!’
‘अच्छा!’ कह कर उस ने पुच्च से वहीं थूक दिया और सिगरेट भी फेंक दी। पर वह बेहया पी.ए. फिर बोला, ‘वेरी नाइस सर!’
‘उफ!’ कहते हुए उस ने माथे पर अपना हाथ फेरा।
‘वेरी सॉरी सर!’ कह कर पी.ए. सरक गया।
उस ने एम.डी. को बता दिया कि वह प्लेन छोड़ रहा है। वह अपने गांव जाना चाहता है। एम.डी. मान गए। वह बोले, ‘चाहें तो आप के लिए कंपनी की एक कार छोड़ दें?’
वह मान गया।
फिर वह अपने गांव चला गया है। पट्टीदारी में एक लड़के की तिलक आई है। अम्मा कहती हैं, ‘बाबू तुम को भी उन के दरवाज़े पर जाना चाहिए!’
‘पिता जी तो जाएंगे न?’
‘नहीं उन की तबीयत कुछ ठीक नहीं है।’
‘क्या हो गया है?’
‘वैसे ही कुछ अनमने से हैं। तुम नहीं होते तो जाते ही। अब जब तुम हो तो ज़रा देर के लिए हो आओ!’
‘अच्छा अम्मा!’
वह जाता है तो लड़के का पिता उसे देखते ही उल्लसित हो जाता है। बोला, ‘अरे आनंद! कब आए बैठो-बैठो!’
वह तिलकहरुओं के बीच ही उसे बिठा कर जलपान करवाते हैं। सीना चौड़ा कर तिलकहरुओं से आनंद का परिचय भी कराते हैं। ख़ूब-ख़ूब बखान करते हैं।
वह चुपचाप बैठा मुसकुराता रहता है। लड़के के पिता फिर व्यस्त हो जाते हैं। तमाम लोग आ रहे हैं जा रहे हैं। तिलक समारोह की ऱफ्तार बनी हुई है।
दो आदमियों की बातचीत चल रही है। आनंद आंख और कान वहीं केंद्रित कर लेता है। एक आदमी उस के गांव का ही कहार है। तिलकहरुओं की सेवा में लगा वह बातचीत चालू रखे है, ‘तो साहब आप लोग शहर से आए हैं?’
‘हां! क्यों?’
‘शहर में तो देवता रहते हैं!’
‘क्या मतलब?’ तिलक चढ़ाने आया आदमी भौंचक हो कर पूछता है, ‘तो फिर गांव में?’
‘गांव में तो राक्षस रहते हैं।’
‘तो फिर आदमी कहां रहते हैं?’ वह आदमी अब मज़े ले कर पूछ रहा है।
‘क़स्बा में, तहसील में।’
‘अच्छा!’
‘हां साहब!’
‘वो कैसे?’
‘देखिए साहब आज तो आप लोग तिलक में आए हैं। पहले से सब कुछ तय है। तो सारी तैयारी है। खाना जलपान। हर चीज़ का। पर मान लीजिए आप अचानक आ गए। हम आप को बढ़िया काला नमक चावल का भात खिलाना चाहते हैं। बढ़िया-बढ़िया तरकारी खिलाना चाहते हैं। ख़ूब मिठाई खिलाना चाहते हैं। जेब में भरपूर पइसा भी है। पर नहीं खिला सकते।’
‘क्यों?’
‘पइसा भी है और इच्छा भी। पर नहीं खिला सकते?’
‘क्यों नहीं खिला सकते?’
‘दुकान ही नहीं है ई सब सामान की गांव में तो कहां से खिलाएंगे?’
‘अच्छा-अच्छा!’
‘लेकिन क़स्बा में दुकान मिल जाएगा, शहर में मिल जाएगा।’
‘ओह तो ये बात है।’
‘तब नहीं तो और क्या?’ वह बोला, ‘अच्छा अभी मान लीजिए गांव में आधी रात को हमारा तबीयत ख़राब हो गया। पैसा है डॉक्टर का फीस देने का भी, दवाई का भी! पर यहां कहां डॉक्टर है? दवाई का दुकान कहां है? और शहर जो जाना भी चाहें तो सवारी कहां है आधी रात में। सवारी भी जुगाड़ लें तो रास्ता कहां है सवारी आने-जाने के लिए?’ वह अपने पैर पर का मच्छर मारते हुए बोला, ‘अब ई मच्छर शहर में तो दवाई फेंक कर मार देंगे पर इहां? मच्छर आप को मार डालेंगे।’
‘ये बात तो है!’
‘तो एही मारे कह रहा हूं कि शहर में देवता रहते हैं और गांव में राक्षस!’
वह खाना-वाना खा कर घर आता है। पिता के पास जाता है और पूछता है, ‘तबीयत ठीक तो है?’
‘हां ठीक है?’
वह सोने चला जाता है।
सो नहीं पाता। बड़ी देर तक करवट बदलता रहता है। नींद आती है तो नींद में सपना आता है। ख़ौफ़नाक सपना! वह भाग रहा है। बेतहाशा भाग रहा है। किसी नदी की ओर। कुछ लोग जाल ले कर उस के पीछे पड़े हैं। ढेर सारे लोग हैं। अपना-अपना जाल लिए। कुछ चेहरों को वह पहचान रहा है। कंपनी का चेयरमैन है, मंदिर का महंत है, मैडम चीफ़ मिनिस्टिर हैं। सभी एक साथ दौड़ा रहे हैं अपना-अपना जाल संभाले। पीछे से मुनव्वर भाई चिल्ला रहे हैं, ‘बचिए आनंद जी!’ अशोक जी कह रहे हैं, ‘और तेज़ भागिए!’ माथुर एडवोकेट कह रहा है, ‘घबराना मत आनंद तुम्हारी रिट फाइल कर दूंगा। इन सब को पार्टी बनाऊंगा।’ इस भीड़ में एक दारोग़ा भी है। उस के हाथ में जाल नहीं रिवाल्वर है जो वह हाथ में नचाता हुआ दौड़ रहा है। कह रहा है, ‘अब की नहीं छोडूंगा।’ नदी क़रीब आती जा रही है। नदी उस पार अम्मा-पिता जी हैं, पत्नी है, बच्चे हैं, सादिया है, सादिया की अम्मी हैं। यह सब पुकार रहे हैं, ‘भाग आओ बाबू इस पार भाग आओ!’ वह अपनी दौड़ और तेज़ करता है। कि तभी रेत में क़ासिम का दबा शव मिलता है। एक क्षण को वह फिर रुकता है। अब पत्नी पुकारती है, ‘भाग आइए इस पार!’ और वह नदी के जल में कूद जाता है। वह पाता है कि नदी के जल में पहले ही से जाल बिछा हुआ है। वह किसी मछली की मानिंद फंस जाता है। छटपटाने लगता है। उस का छटपटाना देख कर जमाल हंसता है, ‘बड़े आए थे साफ़ सुथरी राजनीति करने! ख़ुद साफ़ हो गए!’
उसकी नींद टूट जाती है।
सुबह नाश्ते के साथ पिता से बात भी करता जा रहा है। अचानक कहता है, ‘पिता जी अब मैं यहीं रहना चाहता हूं।’
‘क्यों क्या प्रधानी का चुनाव लड़ने का इरादा है?’ वह जैसे तंज़ करते हैं।
‘नहीं-नहीं।’
‘फिर?’
‘अब खेती-बाड़ी करना चाहता हूं।’
‘अच्छा-अच्छा!’ पिता अंगोछे से अपना हाथ मुंह पोंछते हुए बोलते हैं, ‘तो अब गांव में क्रांति करने का इरादा है? समाजवाद अब यहां भी आने वाला है?’
‘नहीं-नहीं।’ आनंद बोला, ‘आजीविका के तौर पर। असल में अब नौकरी छोड़ना चाहता हूं। नहीं हो पा रही हम से अब नौकरी। बड़ी ज़लालत है इस नौकरी में।’
‘ओह!’ पिता चिंतित हो गए हैं। और चुप भी।
आनंद भी चुप हो जाता है। चुप्पी अम्मा तोड़ती हैं, ‘फिर इतनी खेती भी कहां है जो पूरे परिवार का गुज़ारा चल सके। तुम्हारे और तुम्हारे बच्चों के ख़र्चे भी तो बढ़ गए हैं।’
‘नहीं बच्चे वहीं रहेंगे। बच्चे पढ़ेंगे। पत्नी नौकरी करती रहेगी।’ वह बोला, ‘मन होगा तो बाद में वह भी आ जाएगी।’
‘यहां रह भी पाओगे?’ पिता बोले, ‘ए.सी. में रहने वाला आदमी बिना बिजली के गांव में कैसे रहेगा?’
‘मैं रह लूंगा!’
‘चलो ठीक बात है। पर यहां आए दिन नाली के झगड़े, पानी के झगड़े, ट्रैक्टर, कंबाइन और पट्टीदारी के झगड़े फे़स कर लोगे? तिस पर मज़दूरों की समस्या, उन के झगड़े, यह सब है तुम्हारे वश का?’ वह बोले, ‘और इस सब से भी ऊपर यह कि गांव वाले भी तुम्हें बर्दाश्त कर लेंगे? या कि तुम गांव वालों को बर्दाश्त कर पाओगे?’
‘हां, बिलकुल!’
‘सोच लो बेटा!’ पिता जी बोले, ‘गांव का, वह भी इस गांव का जीवन अब आमूल चूल बदल गया है। अहा ग्राम्य जीवन भी क्या जीवन है! कविता अब काठ हो चली है। ग्राम्य जीवन अब अहा नहीं आह भरा हो गया है। शहर की, टी.वी. की सारी गंदगी यहां बजबजा रही है। तिस पर एक नई कहानी भी शुरू हो गई है।’
‘वह क्या?’
‘दलित उत्पीड़न नाम का एक नया हथियार आया है इन दिनों हमारे गांव में।’
‘यह तो पुराना क़ानून है।’
‘हां, पर इस्तेमाल नए ढंग से हो रहा है।’
‘मतलब?’
‘खदेरू का एक लड़का है। खदेरू जब भिलाई में काम करता था, तभी वहीं पैदा हुआ। अब खदेरू रिटायर हो कर गांव आ गया है। उस का लड़का भी। जवान जहान है। पर कोई काम धंधा नहीं करता। गांव में उस ने चोरी शुरू की। चोरी में कुत्ते आड़े आने लगे तो लाइन से गांव के सारे कुत्ते धीरे-धीरे कर के निर्बाध मार डाले। अब चोरी में आसानी हो गई। तांता लग गया गांव में चोरी का। लोगों को खदेरू के लड़के पप्पू पर शक हुआ। चोरियां बढ़ती गईं। पुलिस रिपोर्ट भी नहीं लिखती। लोग परेशान हो कर एस.पी. से मिले। पप्पू के खि़लाफ़ नामज़द रिपोर्ट हो गई। वह फ़रार हो गया। कुर्की आ गई। पर उस के नाम कुछ हो तब न कुर्की हो। चार साल तक फ़रार रहा पप्पू। अब साल भर से फिर गांव में लौटा है। फु़ल हेकड़ी में रहता है। एक बार रमेश ने कुछ कह दिया तो उस ने फ़ौरन थाना दिवस में उस के खि़लाफ़ अर्ज़ी लगा दी। दोनों पक्ष बुलाए गए। सुलहनामा हुआ। पप्पू को सुलहनामे में एक हज़ार रुपए मिले। उस की छाती चौड़ी हो गई। रमेश ने कहा भी कि यह चोर है। तो पप्पू बोला कि हम को साज़िशन फंसाया है पंडितों ने। रमेश के पास दो ही विकल्प था। या तो सुलहनामे में पैसा दे या दलित एक्ट में जेल जाए। उस ने पैसा दे दिया। अब पप्पू आए दिन किसी न किसी के खि़लाफ़ थाना दिवस या तहसील दिवस में एक अर्ज़ी डाल देता है। सुलहनामा होता है, वह पैसा लेता है। छाती चौड़ी कर लेता है। बाद में बात उठी कि हरदम गांव के लोग इसी को क्यों तंग करते हैं? तो बाद में इस ने पैंतरा बदल लिया। दूसरे किसी न किसी दलित को बहकाने लगा। अर्ज़ी दिलवाने लगा इस सौदेबाज़ी के साथ कि सुलहनामे में मिले पैसे में आधा हमारा, आधा तुम्हारा। दलित उत्पीड़न की जैसे इस गांव में बाढ़ आ गई है। गांव के आधे से अधिक लोग इस सुलहनामा के शिकार हो चुके हैं। कई लोग तो गांव में नहीं रहते तब भी। पप्पू अब यह सुलहनामे की हवा दूसरे गांवों में भी ले गया है। वह अब मोबाइल लिए मोटरसाइकिल से घूमता है। लोग उसे देखते ही दहशत में आ जाते हैं। रह पाओगे तुम इस गांव में?’ पिता पूछते हैं।
वह चुप है।
‘तुम साफ़ सुथरी राजनीति, गांधीवादी राजनीति का रट्टा लगवाओगे। यहां हिंदू युवा वाहिनी के नेता हैं। मसल पावर, मनी पावर वाली राजनीति के आदी। सर्वाइव कर पाओगे इन के बीच गांव में? कर पाओगे यह ज़मीनी राजनीति!’ पिता बोले, ‘तो भइया तुम शहर में रह कर ही नौकरी करो, राजनीति करो वही ठीक है। मैं जानता हूं तुम यहां सांस नहीं ले पाओगे। सुविधाओं में रहने के आदी मक्खियां-मच्छर देख कर भाग जाओगे। तुम्हारे बीवी बच्चे तुम्हें कोसेंगे तब भाग जाओगे।’
वह फिर चुप है।
‘तुम खेती की बात करते हो? खेती करोगे? खेती भी अब इनवेस्टमेंट मांगती है। खेती भी अब बिज़नेस हो गई है। पैसा नहीं लगाने पर खेती चौपट हो जाती है। पेंशन न मिले मुझे तो खेती नहीं कर सकता। पेंशन का पैसा खेती में लगाता हूं तो चार दाना पा जाता हूं। जिन के घर में नक़द पैसा नहीं है, उन की या तो खेती बरबाद है या फिर वह साहूकारों के हाथ में जा कर बरबाद हैं। तिस पर खेती भी कई बार शेयर मार्केट सा रिज़ल्ट देने लगती है। चार दिन भी जो देर से बुआई हुई या ज़रा भी खाद पानी देने में देरी हुई तो खेती भी दांव दे जाती है। पैदावार कम हो जाती है। खेती भी अब टाइमिंग मांगती है। जैसे कि अब की सूखा पड़ गया है, सारी टाइमिंग, सारा पैसा डूब गया है। ऐसे में कर पाओगे खेती? खाद, बीज, डीज़ल, मज़दूरी सब तो मंहगा हो गया है। टैªक्टर, कंबाइन का किराया भी। बस हमारी मेहनत और हमारा पैसा सस्ता रह गया है। कर पाओगे खेती?’
वह लगातार चुप है। और पिता का एकालाप जारी है।
‘यहां चीन अमरीका की बहस, सांप्रदायिकता के खि़लाफ़ लड़ाई, मानवाधिकार की बातों से खेती नहीं हो पाती। यह गांव है, सेमिनार नहीं। बहस नहीं होती यहां रगड़ाई और लड़ाई होती है, रगड़ जाओगे तो भूसी छूट जाएगी। ज़मीनी सच्चाई की बात तुम अपने भाषणों में करते हो न! तो यहां की ज़मीनी सच्चाई यह है। इज़्ज़त पानी इसी में है कि गांव आते-जाते रहो। यहां रहो नहीं। यहां रहोगे तो सारा भ्रम टूट जाएगा। यहां रहोगे तो कभी न कभी तुम्हारा सोशल एक्टिविस्ट का कीड़ा कुलबुलाएगा। मानोगे नहीं। कुछ नहीं तो नरेगा में घपला देखने लगोगे। ग्राम प्रधान दलित है और क्रिमिनल भी। या तो गोली ठोंक देगा या दलित एक्ट! चुप रह नहीं पाओगे। बोलोगे ज़रूर। नहीं कुछ तो सांप्रदायिक सद्भाव बताने लगोगे। समूचा गांव घेर लेगा। तब क्या करोगे?’
‘कोशिश करूंगा कि गांव को बदलूं। लोगों को, लोगों की सोच को बदलूं।’ वह धीरे से बोला।
‘गांव वाले तुम्हें बदल देंगे। तुम क्या गांव बदलोगे? अख़बारों में बयान छपवा कर। प्रेस कानफ्रेंस कर के? ऐसे नहीं बदलेगा गांव। नहीं बदलता लिख कर रख लो! बडे़-बड़े अक्षरों में लिख कर रख लो!’
वह समझ गया है कि पिता की पैसे भर की मर्ज़ी नहीं है कि वह गांव में रहे।
तो वह कैसे रह सकता है?
पिता से उसका कोल्डवार बचपन से चला आ रहा है। पर वह पिता से कभी उलझता नहीं है। चुपचाप खिसक लेता है। पिता अपनी वाली करते हैं, और वह अपनी वाली। पर दोनों आमने-सामने नहीं होते। वह पाता है कि पिता पीठ पीछे उस पर नाज़ भी करते हैं और उसे बच्चा भी समझते हैं। चाहते हैं कि वह किसी सैनिक की तरह उन्हें फ़ालो करे।
शायद हर पिता ऐसा ही चाहता है, ऐसे ही करता है। कम से कम उस पीढ़ी के पिता तो ऐसे ही हैं। गांव में एक बुजुर्ग हैं वह कहते ही रहते हैं कि हर पिता अपने बेटे में राम चाहता है, पर ख़ुद दशरथ नहीं बन पाता। हर पति अपनी पत्नी में सीता चाहता है, पर ख़ुद राम नहीं बन पाता।
ऐसा क्यों है?
‘पता है बाबू! मियां को सरकार ने लाखों रुपए का मुआवज़ा दिया है। मियां ने अपना फुटहा घर पक्का बना लिया है और घर पर पत्थर लगवा दिया है-क़ासिम के नाम का। क़ासिम मंज़िल!’ अब अम्मा सूचना परोस रही है। गांव का इतिहास भूगोल बता रही हैं, ‘लोग कहते हैं कि क़ासिम अपनी ज़िंदगी में तो इतना कमा नहीं पाता कि घर पक्का बनवा लेता। जानते हो बाबू फ़ौजी पंडित तुम्हारे पिता जी से कहने लगे कि आनंद ने पैसा दिलाया है तो आप को भी अपना हिस्सा लेना चाहिए। तो इन्हों ने उस को झिड़क दिया। कि, हराम का पैसा नहीं चाहिए, किसी की लाश का पैसा नहीं चाहिए। तो फ़ौजी पंडित अपना मुंह ले कर चले गए।’ फिर वह किसी के खेत, किसी की मेड़, किसी की नाली, किसी की सास के झगड़ों की फेहरिस्त और ब्यौरों में चली गईं।
अम्मा को सुनते-सुनते वह खाना खाता रहा। हूं हां करता हुआ। उसे याद आया कि जब वह पढ़ता था और गांव आता था तो वह जब वैसे ही बाग़ की ओर टहलने निकलता तो उस का एक छोटा भाई उस के साथ बड़ी फुर्ती से लग लेता। गांव की एक-एक सूचनाएं परोसता। गांव के झगड़े की, लोगों के भूत-प्रेत और चुड़ैल की। आस-पास के गांव तक की। किस का भूत कैसे उतरा, किस की चुड़ैल कैसे गई सारे ब्यौरे लगातार वह बोलता जाता।
खाना खा कर वह बोला, ‘अम्मा अब चलना चाहता हूं।’
‘लखनऊ?’
‘हां।’
‘एक दिन और रह जाते!’
‘रहने ही तो आया था। पर पिता जी नहीं चाहते जब तो कैसे रह सकता हूं।’ सांस खींचते हुए वह बोला।
‘तुम को मालूम नहीं पर मैं बताती हूं कि वह तुम्हें बहुत चाहते हैं।’
‘वह तो देख रहा हूं।’
‘जब तुम नहीं होते हो तो सब से तुम्हारी बहुत तारीफ़ बतियाते हैं। बतियाते-बतियाते मारे ख़ुशी में रोने लगते हैं।’ अम्मा बोलीं, ‘पर पता नहीं क्यों जब तुम सामने पड़ते हो तो वह पलट जाते हैं। पता नहीं क्या हो जाता है उन को कि तुम्हारी सारी बुराई देखने लगते हैं!’ कहते-कहते अम्मा रुआंसी हो गई।
‘कोई बात नहीं अम्मा, वह मेरे पिता हैं कुछ भी कह सकते हैं मुझे। मैं उन की बात का बिलकुल बुरा नहीं मानता। बस हम लोगों के सोचने का तरीक़ा थोड़ा अलग है। बस और कुछ नहीं। रही बात उन के विरोध की तो वह तो मैं बचपन से ही भुगत रहा हूं। अब तो आदत पड़ गई है!’
‘अच्छा बाबू फिर कब आओगे?’
‘देखो देखते हैं।’
‘हां बाबू जल्दी आना।’ अम्मा बोलीं, ‘इन की बात का बुरा मत मानना।’
‘ठीक अम्मा!’ कह कर उस ने अम्मा के पांव छुए और घर से बाहर आ गया।
लखनऊ आ कर वह रुटीन में समा गया।
हां पर उसने ग़ौर किया कि आफ़िस में उस का भाव फिर बढ़ गया था। लोग अब उसे रश्क की नज़र से देखते। पर वह अपनी ही नज़रों में और गिर जाता।
एक दिन वह अख़बार में विधान परिषद की एक रिपोर्ट पढ़ रहा था। रिपोर्ट बता रही थी कि विधान परिषद में सरकार ने स्वीकार किया है कि दलित एक्ट के फ़र्ज़ी मुक़दमे लिखवाए जा रहे हैं। कुछ महीनों में ही सैकड़ों फ़र्ज़ी मुक़दमे जांच में पाए गए हैं। एक शिक्षक नेता ने तो विधान परिषद में साफ़ कहा कि जिन स्कूलों में भी दलित अध्यापक हैं, वहां प्रधानाचार्यों को स्कूल चलाना मुश्किल हो गया है। अगर दलित अध्यापक या अध्यापिका स्कूल देर से आते हैं, या क्लास में नहीं पढ़ाते हैं और जो प्रधानाचार्य उन से इस बारे में पूछ ले तो वह दलित एक्ट की धमकी देते हैं। कुछ ने मुक़दमा लिखवा भी दिया है और निर्दोष होते हुए भी कई प्रधानाध्यापक जेल गए हैं दलित एक्ट में।
एक अधिकारी आनंद के घर आए हुए हैं। उन से इस बारे में चर्चा चली तो वह जैसे बर्स्ट कर गए। कहने लगे, ‘अच्छा है आनंद जी आप प्राइवेट सेक्टर में हैं। अभी वहां आरक्षण नहीं है।’
‘बात तो चल ही रही है।’
‘वह बाद की बात है। पर अभी तो नहीं है न?’ वह बताने लगे, ‘सरकारी आफ़िसों में तो हर जगह वर्ग संघर्ष की स्थिति आ गई है। चार-छह दलित कर्मचारी जो किसी आफ़िस में हैं तो वह पूरे आफ़िस को बंधक बना बैठे हैं। जिस को चाहते हैं, मुर्ग़ा बना देते हैं। जो काम चाहते हैं ले लेते हैं, जो चाहते हैं करवा लेते हैं। मामूली से मामूली दलित बाबू भी सीधे मंत्रियों से संपर्क में रहते हैं। दलित अधिकारी उन की फ़ौरन सुनते हैं। तो फिर आफ़िसों में किस की हिम्मत है जो दलितों की मनमर्ज़ी न चलने दे। वह ग़लत करें चाहे सही, सब कुछ सब को मानना है। नहीं मानिएगा तो भुगतिए दलित एक्ट!’ वह बोला, ‘क्या कर लिया रीता बहुगुणा जोशी ने? माफ़ी भी मांगी, मुर्ग़ा बन कर जेल गईं और घर भी फंुकवा बैठीं। यह क्या है? यह प्रजातंत्र है? क़ानून का राज है? कि सवर्ण उत्पीड़न है? मैं तो कहता हूं कि अब सवर्ण उत्पीड़न का भी एक क़ानून बन ही जाना चाहिए।’
‘ये तो मैं भी मानता हूं कि रीता बहुगुणा ने जो भी कुछ कहा वह ग़लत था, निदंनीय था पर इस को ले कर आधी रात को पुलिस की मौजूदगी में उन का घर जला दिया जाए यह तो हरगिज़ नहीं होना चाहिए था।’
‘और फिर उस में भी लीपापोती!’ अधिकारी मित्र बोला, ‘बिजली बोर्ड में तो परिणामी ज्येष्ठता को ले कर जैसे सेनाएं आमने-सामने होती हैं वैसे ही सवर्ण और दलित इंजीनियर आमने-सामने हैं। सचिवालय में भी कमोबेश यही स्थिति है।’ वह पूछता है, ‘भाई साहब, यह कौन सा दलितोत्थान है? सामाजिक समानता हमें किस असमानता, किस वर्ग संघर्ष की ओर ले जा रही है? ऐसे तो प्रदेश और देश जल जाएगा।’
‘हूं। है तो मामला गंभीर!’
‘यह वोट बैंक अब हमारे समाज के लिए, देश के लिए ज़हर होता जा रहा है। जल्दी ही कुछ नहीं हुआ तो समझिए कि कुछ अनर्थ हो जाएगा!’
‘यह बाज़ार, जातीयता और सांप्रदायिकता हमें कहां ले जाएगी यह हम सभी के लिए यक्ष प्रश्न है। गुंडई, भ्रष्टाचार वगै़रह अलग हैं। और हमारी सम्मानित जनता इस से त्रस्त है, इस का निदान चाहती है, वोट डालना नहीं चाहती। ड्राइंग रूम में बैठ कर चाहती है कि सब कुछ सुंदर-सुंदर सा हो जाए। पूंजीपति चाहते हैं कि आदमी अब आदमी न रहे, उन के लाभ के लिए रोबोट हो जाए। बहुत सारे लोग रोबोट हो भी गए हैं। वह सवाल नहीं पूछते, आदेश सुनते हैं। हमारे जैसे लोग रोबोट नहीं आदमी ही बने रहना चाहते हैं। अब इस आदमी का क्या करें जो रोबोट के साथ ट्यून नहीं हो पा रहा?’
यह कौन सी प्यास है?
वह फिर अपने शहर गया है। एक शादी में है। जयमाल के बाद दुल्हा अपनी दुल्हन के साथ नाच रहा है। डांस नंबर बज रहा है। दुल्हे की मां भी साथ आ गई है नाचने। कुछ टीनएज लड़कियां भी हैं। सभी नाचे जा रहे हैं। नाच में धुत्त हैं। कुछ शोहदे लड़के मौक़े का फ़ायदा उठाते हुए डांस लोर पर पहुंच गए हैं। नाचते-नाचते लड़कियों को छू छा कर अभद्रता पर उतर आए हैं। एक लड़की का पिता यह सब देख रहा है। रहा नहीं जाता उस से। वह सीधे डांस फ्लोर पर जा कर अपनी बेटी का हाथ पकड़ कर डांस फ्लोर से बाहर खींचता है। कोने में ले जा कर समझाते हुए उस के कान में धीरे से कुछ कहता है। पर लड़की कंधे उचकाती हुई लगभग चिल्ला पड़ती है, ‘आई डोंट केयर!’ और डांस फ्लोर पर फिर से भाग कर पहुंचती है और फिर धुत्त हो कर नाचने लगती है! अब गाना बदल गया है। ‘कजरारे-कजरारे तेरे कारे-कारे नयना’ बज रहा है। लड़की का पिता बेबस हो कर अपनी बेटी को देख रहा है। लगभग अवश! और गाना बज रहा है, ‘मेरा चैन बैन सब उजड़ा, ज़ालिम नज़र हटा ले/बरबाद हो रहे हैं जी तेरे अपने शहर वाले! कजरारे-कजरारे!’
आनंद उस पिता की बेबसी को देख रहा है। और लड़की का बोला, ‘आई डोंट केयर!’ अभी तक किसी हथौड़े की तरह उस के कान में गूंज रहा है।
तो क्या सचमुच मेरे शहर वाले बरबाद हो रहे हैं? आनंद जैसे लोग उफ़ करते हैं, जैसे उस लड़की का पिता। सिस्टम फिर भी बरबाद होता जाता है। और कुछ कहने पर ये रोबोट बने लोग बोलते हैं, ‘आई डोंट केयर!’
तो केयर कौन करेगा भाई? यह रोबोट में तब्दील होता आदमी? तुम जो रोबोट में तब्दील हो चुके हो? पूंजीपति कहता है कि जैसे-जैसे, जो-जो हम विज्ञापन में दिखा रहे हैं वही देखो, वही समझो। हमारा प्रोडक्ट ख़रीदो, हम को मालामाल बनाओ रोबोट। रोबोट तुम को सोचने का अधिकार नहीं है, सवाल करने का अधिकार नहीं है, सिर्फ़ ख़रीदने का अधिकार है। सिर्फ़ सुनने का अधिकार है बोलने का नहीं, ज़्यादा बालोगे तो हम छंटनी कर देंगे। हज़ारों रोबोट निकाल देंगे। ख़ास कर अधेड़ और बूढे़ रोबोट! फिर एक ट्रस्ट खोल देंगे। यह ट्रस्ट भंडारा चलाएगा। तुम भंडारे में आ कर खाना खा लेना!
हा-हा हा हा!
रोबोट बनाने वाला आदमी हाहाकारी हंसी हंसता है। हंसता ही जा रहा है! कोई सुन भी रहा है?
यह भी एक प्यास है।
प्यास है या सिर के चौखट से टकराने का त्रास? वह जैसे छात्र जीवन में सर्वेश्वर की कविता पढ़ता था, ‘जब-जब सिर उठाया/चौखट से टकराया।’ वह भुनभुनाता है, ‘यह चौखट आखि़र कब बदलेगा? बदलेगा भला?’
....समाप्त....
यह तो उपन्यास की शक्ल में समकालीन भारतीय राजनीति का एक बेहद रोचक इतिहास है। आपने तथ्यों के पीछे सत्यों का भी काफी कुछ उदघाटन किया है, जो की एक श्रमसाध्य एवं जोखम भरा काम है । बधाई एवं साधुवाद दयानन्द जी।
ReplyDeleteनमस्कार! पढ़्ते हुए लगा कि सारी घट्नायें आसपास घटित हो रही हैं. आज के भारत की पूरी संस्कृति को प्रस्तुत कर दिया है आपने. इसे आपने ब्लाग से भी पढ़ लेने का अवसर प्रदान किया है. धन्यवाद , अभिनन्दन.
ReplyDeleteGajab ka lekhan .
ReplyDeleteबहुत वैचारिक संपदा खर्च करनी पड़ती है ऐसा लिखनेमें।
ReplyDeleteसर सादर प्रणाम।
रोचक और कुछ मायने में सम सामयिक ऐतिहासिक भी
ReplyDeleteइसका भाग ३ भी है क्या?
ReplyDeleteसमाजवाद और वामपंथ की अंतिम परिणीति यही है।
ReplyDeleteदुनिया के जितने भी समाजवादी देश रहे सबमें अनैतिकता और भ्रष्टाचार का बोलबाला रहा।
लाख बुराईयों के बाद भी पूंजीवादी व्यवस्था में लोंगों की जिजीविषा बची ही नही रहती किन्तु पल्लवित भी होती रहती।
समाजवाद समानता के नाम पर सामंतवाद का ही पोषण करता रहा है आज तक।