Friday 10 February 2012

बांसगांव की मुनमुन

‘पति छोड़ दूंगी पर नौकरी नहीं।’ बांसगांव की मुनमुन का यह स्वर गांव और क़स्बों में ही नहीं बल्कि समूचे निम्न मध्यवर्गीय परिवारों में बदलती औरत का एक नया सच है। पति परमेश्वर की छवि अब खंडित है। ऐसी बदकती, खदबदाती और बदलती औरत को क़स्बे या गांव का पुरुष अभी बर्दाश्त नहीं कर पा रहा। उस के सगे भाई भी नहीं। पैसा और सफलता अब परिवार में भी राक्षस बन गए हैं। सर्प बन चुकी सफलता अब कैसे एक परिवार को डंसती जाती है, बांसगांव की मुनमुन का एक ताप यह भी है। कि लोग अकेले होते जा रहे हैं। अपने-अपने चक्रव्यूह में हर कोई अभिमन्यु है। लालच कैसे भाई की लाश को भी आरी से काट कर बांटने के लिए लोगों को निर्लज्जता की हद तक ले जा चुकी है, बांसगांव की मुनमुन में यह दंश भी खदबदाता मिलता है। जज, अफसर, बैंक मैनेजर और एन.आर.आई. जैसे चार बेटों के माता पिता एक तहसीलनुमा क़स्बे में कैसे उपेक्षित, अभावग्रस्त और तनाव भरा जीवन जीने को अभिशप्त हैं, इस लाचारगी की इबारतें पूरे उपन्यास में यों ही नहीं उपस्थित हैं। बांसगांव की मुनमुन के बहाने भारतीय क़स्बों में कुलबुलाती, खदबदाती एक नई ही ज़िंदगी, एक नया ही समाज हमारे सामने उपस्थित होता है। बहुत तफ़सील में न जा कर अंजुम रहबर के एक शेर में जो कहें कि, ‘आइने पे इल्ज़ाम लगाना फिजूल है, सच मान लीजिए चेहरे पे धूल है।’ बांसगांव की मुनमुन यही बता रही है।

 



बांसगांव की मुनमुन  
पृष्ठ सं.150 
मूल्य-175 रुपए

प्रकाशक
डायमंड पॉकेट बुक्स [ प्रा ] लि 
X  ए  30  , ओखला 
प्रकाशन वर्ष-2012इंडस्ट्रियल एरिया , फ़ेज़ - 11  , नई दिल्ली - 110020 

प्रकाशन वर्ष-2023 

अमेज़न पर यह लिंक 

https://www.amazon.in/Baansgaon-Ki-Munmun-%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%B8%E0%A4%97%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%B5-%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%A8%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%A8/dp/9359207209





बांसगांव की मुनमुन
पृष्ठ सं.176
मूल्य-300 रुपए

प्रकाशक
संस्कृति साहित्य
30/35-ए,शाप न.2, गली नंबर- 9, विश्वास नगर
दिल्ली- 110032
प्रकाशन वर्ष-2012

परिवार और समाज में संघर्ष कर रही दुनिया भर की औरतों के लिए


मुनक्का राय के टूटने की यह इंतिहा थी। पांच बेटे और तीन बेटियों वाले इस पिता की जिंदगी में पहले भी कई मोड़ आए थे, परेशानियों और झंझटों के कई ज़ख़्म, कई गरमी बरसात और चक्रवात वह झेल चुके थे, पर कभी टूटे नहीं थे। पर आज तो वह टूट गए थे। उन का सब से छोटा बेटा राहुल कह रहा था, 'ऐसे मां बाप को तो चौराहे पर खड़ा कर के गोली मार देनी चाहिए।' पिता पर ज़ोर उस का ज़्यादा था। सतहत्तर-अठहत्तर साल की उमर में क्या यही सुनना अब बाक़ी रह गया था? वह अपने दुआर पर खड़े सोच रहे थे और दरवाज़े पर लगी अपने ही नाम की नेम प्लेट को घूर रहे थे; मुनक्का राय, एडवोकेट! ग़नीमत यही थी कि बेटा घर के आंगन में ही तड़क रहा था और वह बाहर दुआर पर चले आए थे। बेटे में जोश भी है, जवानी भी और पैसे का गुरूर भी। एनआरआई है। यही सोच कर वह उस से उलझने या कुछ कहने की बजाय आंगन से निकल कर दुआर पर आ गए हैं। बेटा राहुल चिग्घाड़ रहा है, 'इस आदमी की यही पलायनवादिता पूरे परिवार को ले डूबी है।' वह बोल रहा है, 'यह आदमी सीधा किसी बात को फे़स ही नहीं कर सकता। बात को टाल देना और घर की बातों में भी कचहरी की तरह तारीख़ ले लेना इस आदमी की फ़ितरत हो गई है।'

ज़हर का घूंट पी कर रह गए हैं, मुनक्का राय। पर चुप हैं।

बेटे राहुल की ज़िद है कि बहन की विदाई अभी और इसी वक्त हो जानी चाहिए। और मुनक्का राय की राय है कि, 'बेटी को इस तरह वह मर जाने के लिए उस की ससुराल नहीं भेज सकते।'

'तो यहीं अपनी छाती पर बिठा कर उसे आवारगी के लिए छुट्टा छोड़ देंगे? रंडी बनाएंगे?' बेटा बोल रहा है, 'पूरे बांसगांव में इस की आवारगी की चर्चा है। इतनी कि किसी की दुकान, किसी के दरवाज़े पर बैठना मुश्किल हो गया है। यहां तक कि अपने दरवाज़े पर भी बैठने में शर्म आती है।'

लेकिन मुनक्का राय अड़ गए हैं तो अड़ गए हैं। बेटे को बता दिया है कि, 'बांसगांव में मैं रहता हूं तुम नहीं। मुझे कोई दिक्क़त नहीं होती। न अपने दरवाज़े पर बैठने पर न किसी और के दरवाजे़ या दुकान पर। कचहरी में मैं रोज़ बैठता ही हूं।' और कि, 'मेरी बेटी रंडी नहीं है, आवारा नहीं है।'

'आप की बुजुर्गियत का, आप की वकालत का लोग लिहाज़ करते हैं, इस लिए आप से कुछ नहीं कहता कोई। पर पीठ पीछे सब कहते हैं।' कहते हुए वह बहन के बाल पकड़ कर खींचते हुए कमरे में से बाहर आंगन में आ जाता है, 'अब यह यहां नहीं रहेगी।' मां रोकती है तो वह मां को भी झटक देता है, 'इस का कपड़ा-लत्ता, गहना-गुड़िया सब बांधो। इसे मैं अभी इस की ससुराल छोड़ कर आता हूं।'

'मैं नहीं जाऊंगी भइया, अब बस कीजिए।' वह सख़्ती से भाई से अपने बाल छुड़ा लेती है। पलट कर वह बोलती है, 'मुझे मरना नहीं, जीना है। और अपनी शर्तों पर।'

'तो क्या इसी लिए आठ-दस लाख रुपए ख़र्च कर तुम्हारी शादी की थी?'

'मेरी शादी नहीं की आप ने आठ-दस लाख ख़र्च कर के।' वह बोली, 'अपना बोझ उतार कर मेरी ज़िंदगी बर्बाद कर दी।'

'क्या बात करती हो?'

'ठीक कह रही हूं।' वह लपक कर एक फ़ोटो अलबम दिखाती हुई बोली, 'देखिए इस घर के एक दामाद यह हैं, दूसरे दामाद यह हैं और यह रहे तीसरे! क्या यह भी इस घर के दामाद होने लायक़ थे? आप देख लीजिए ध्यान से अपने तीनों बहनोइयों को फिर कुछ कहिए।'

'तुम्हारी ये अनाप शनाप बातें मुझे नहीं सुननीं।' वह बोला, 'तुम बस चलो।'

वह आंगन में से झटके से उठी और अपने कमरे में चली गई। भीतर से दरवाज़ा धड़ाम से बंद करती हुई बोली, 'भइया अब आप जाइए यहां से, मैं कहीं नहीं जाऊंगी।'

'मुनमुन सुनो तो!' उस ने दरवाज़ा पीटते हुए दुहराया, 'सुनो तो!'

पर मुनमुन ने नहीं सुना। न ही वह कुछ बोली।

'तो तुम यहां से जाओगी नहीं?' राहुल ने फिर से अपनी बात दुहराई। पर मुनमुन फिर कुछ नहीं बोली। थोड़ी देर चुप रह कर राहुल फिर बोला, 'पिता जी के तो नाक रही नहीं। तेरी मोह में अपनी नाक उन्हों ने कटवा ली है। पर सोच मुनमुन कि तेरे भाइयों की नाक अभी है।'

मुनमुन फिर चुप रही।

'इतने बड़े-बड़े जज, अफ़सर, बैंक मैनेजर और एनआरआई की बहन इस तरह आवारा फिरे यह हम भाइयों को मंज़ूर नहीं है।' राहुल बोला, 'मत कटवाओ हम भाइयों की नाक!'

मुनमुन फिर चुप रही।

'लो तो जब तुम नहीं जा रही तो मैं ही जा रहा हूं।' राहुल बोला, 'अम्मा जान लो अब मैं भी फिर कभी लौट कर बांसगांव नहीं आऊंगा।'

अम्मा भी चुप रही।

'तुम लोगों की चिता को अग्नि देने भी नहीं।' राहुल जैसे चीखते हुए शाप दे रहा था अपनी अम्मा को। फिर अम्मा बाबू जी के बिना पांव छुए ही वह घर से बाहर आया और बाहर खड़ी कार में बैठ कर छोड़ गया बांसगांव। इस के पहले तो नहीं पर अब मुनमुन राय एक ख़बर थी। ख़बर थी बांसगांव की सड़कों पर। गलियारों, चौराहों से चौबारों और बाज़ारों तक। यह मुनमुन जब पैदा हुई थी तो यही राहुल उसे गोदी में ले कर खिलाता-पुचकारता घूमता और गाता-मेरे घर आई एक नन्हीं परी! और राहुल ही क्यों बड़े भइया रमेश, मझले भइया धीरज और छोटे भइया तरुण भी गाते। अम्मा बाबू जी तो ख़ैर भाव विभोर हो गाते-मेरे घर आई एक नन्हीं परी! साथ में बड़ी दीदी विनीता और रीता भी सुर में सुर मिलातीं; चांदनी के हसीन रथ पे सवार मेरे घर आई एक नन्हीं परी! सचमुच पूरा घर चांदनी में नहा गया था। घर के लोग जैसे समृद्धि की सीढ़ियों पर सीढ़ियां चढ़ने लगे। उन्हीं दिनों एक बुआ आई थीं। अम्मा से कहने लगीं, 'ई पेट पोंछनी तो बड़ी क़िस्मत वाली है। आते ही देखो रमेश को हाई स्कूल फ़र्स्ट डिविज़न पास करवा दिया। बाप की कचहरी की लुढ़की प्रैक्टिस फिर से चमका दी।'

'ये तो है दीदी!' मुनमुन की अम्मा कहतीं। मुनमुन नाम की यह नन्हीं परी जैसे-जैसे बड़ी होती गई, परिवार की खुशियां भी बड़ी होती गईं। इसी बीच घर में पट्टीदारी की नागफनी भी उगने लगी। यह पट्टीदारी की नागफनी ही मुनमुन के घर परिवार को आज इस राह पर ला पटके थी।

मुनक्का राय के एक चचेरे बड़े भाई थे गिरधारी राय। गिरधारी और मुनक्का की एक समय ख़ूब पटती थी। बचपन में तो बहुत ही। संयुक्त परिवार था। मुनक्का राय के पिता दो भाई थे। बड़े भाई रामबली राय उन दिनों वकील थे और छोटे भाई श्यामबली राय प्राइमरी स्कूल में मुदर्रिस। यानी मास्टर। दोनों भाइयों में ख़ूब बनती। बड़ा भाई ख़ूब स्नेह करता तो छोटा भाई ख़ूब आदर। मुनक्का के पैदा होने के कुछ दिनों बाद ही मुनक्का की मां टी.बी. की बीमारी से चल बसीं। तो बड़े भाई रामबली ने छोटे भाई श्यामबली की दूसरी शादी करवा दी। अब मुनक्का सौतेली माता के हाथ पड़ गए। ममत्व और दुलार तो वह नहीं मिला उन्हें लेकिन खाने पीने के लिए सौतेली मां ने कभी उन को नहीं तरसाया। इस बीच रामबली राय की वकालत चल पड़ी थी। और पूरी तहसील में उन के मुक़ाबले कोई और वकील खड़ा नहीं हो पाता। नाम और नामा दोनों उन के ऊपर बरस रहा था। इतना कि अब वह गांव में खेत ख़रीद रहे थे, पक्का मकान बनावा रहे थे। और सब कुछ संयुक्त। मतलब छोटे भाई श्यामबली को घर मकान सब में बराबरी का हिस्सा। इस एका को देख कर गांव में ईर्ष्या उपजनी स्वाभाविक थी। बहुत लगाने-बझाने की भी कोशिश हुई पर दोनों भाइयों में जीते जी कभी कोई दरार नहीं पड़ी। लेकिन परिवार बढ़ा, बच्चे बढ़े, बच्चों के बच्चे हुए तो थोड़ा बहुत रगड़ा-झगड़ा भी बढ़ा। तो रामबली राय एडवोकेट ने अकलमंदी से काम लिया। एक बड़ा सा मकान बांसगांव तहसील में भी बनवा लिया। और धीरे-धीरे अपने बीवी बच्चों और नातियों को बांसगांव में ही शिफ़्ट कर दिया। बार-बार गांव आने जाने से भी फ़ुर्सत हो गई। और गांव का मुसल्लम राजपाट, खेती बारी सब कुछ छोटे भाई के सुपुर्द कर दिया।

अब गांव की पट्टीदारी में कोई शादी-व्याह होता तभी रामबली राय गांव आते। नहीं तो बांसगांव में ही डेरा जमाए रहते। इसी बीच उन्हों ने शहर में भी एक तिमंज़िला मकान बनवा दिया। यह सोच कर कि बच्चों के पढ़ने लिखने में आराम रहेगा। वह यह भी बहुत चाहते थे कि उन का भी कोई बेटा वकील बन कर उन का तख़त संभाल ले। लेकिन उन के दोनों बेटों ने उन्हें बेहद निराश किया। बड़े बेटे गिरधारी राय को तो उन्हों ने बड़े अरमान के साथ इलाहाबाद यूनिवर्सिटी भेजा था। पढ़ने को। लेकिन गिरधारी राय कोई दस-बारह साल बिता कर भी बमुश्किल बी.ए. करने के बाद एल.एल.बी. कंपलीट नहीं कर पाए। लौट आए बांसगांव। कभी कोई नौकरी नहीं की और ज़िंदगी भर बाप की कमाई उड़ाते हुए ऐश करते रहे। छोटा बेटा गंगा राय तो इंटर भी कई साल में पास नहीं हो पाया। पर बाप के पैसे से व्यापार करता रहा। किसिम-किसिम के व्यापार में घाटा उठाते हुए वह बाप की कमाई उड़ाता रहा। पर रामबली राय के दोनों बेटे भले एल.एल.बी. नहीं कर पाए पर उन के अनुज श्यामबली राय के बेटे मुनक्का राय ने एम.ए. भी किया और एल.एल.बी. भी। भले एक-एक क्लास में दो-दो साल लगाए तो क्या हुआ। रामबली राय का सपना पूरा किया। आखि़र कचहरी में उन का तख़ता संभालने के लिए उन का कोई वारिस तो मिला। अनुज पुत्र के साथ मिल कर उन्हों ने अपनी वकालत के झंडे को और ऊंचा किया।

गिरधारी राय को यह सब फूटी आंख भी अच्छा नहीं लगा। हार मान कर उन्हों ने राजनीति में हाथ पैर मारने की कोशिश की। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से वह एल.एल.बी. भले नहीं पास कर पाए हों उन के साथ पढ़े कुछ लोग अफ़सर और नेता तो हो ही गए थे। फिर तब तक ज़माना और लोग न इतने बेशर्म हो पाए थे न एहसान फ़रामोश! गिरधारी राय को उन के साथी अफ़सरों ने भी भाव दिया और राजनीतिकों ने भी। पर शायद गिरधारी राय के नसीब में सफलता नहीं थी। राजनीति में भी वह लगातार झटका खाते रहे। ज़िला लेबिल के कांग्रेस कमेटी में भी उन को जगह नहीं मिल पाई। वह लोगों को खिला पिला कर खादी का सिल्क, मटका या कटिया सिल्क का कुर्ता जाकेट पहन कर यानी नेता जी वाले वेश भूषा भर की ही नेतागिरी तक रह पाए। हालां कि टोपी भी वह बड़े सलीके़े से कलफ़ लगी हुई लगाते थे पर बात में वह वज़न नहीं रख पाते थे। विचारों से भी दरिद्र थे सो भाषण या बातचीत के स्तर पर भी वह कट जाते थे। तीन तिकड़म भी पारिवारिक स्तर पर ही कर पाते। धैर्य बिलकुल नहीं था और बात-बात पर जिज्ञासा भाव में मुंह बा देते। सो वेशभूषा का भी असर उतर जाता। हार मान कर वह ग्राम प्रधानी के चुनाव में कूदे। यह कहते हुए कि ग्रास रूट से शुरू राजनीति ज़्यादा प्रभावी होती है। पर यहां भी उन के हिस्से हार आई। पिता का रसूख़ भी काम नहीं आया। गिरधारी राय से अब अपनी हार पर हार हज़म नहीं हो रही थी।

उधर मुनक्का राय का तख़ता अब रामबली राय से अलग हो गया था। अब वह जूनियर नहीं सीनियर वकील हो चले थे। चकबंदी का ज़माना था। मुक़दमों की बाढ़ थी। इतनी कि वकील कम पड़ रहे थे। मुनक्का राय पर जैसे पैसे की बरसात हो रही थी। मूसलाधार। गिरधारी राय मन मसोस कर रह जाते। यह सोच कर कि उन्हीं के बाप के पैसे से पढ़ा यह मुनक्का मलाई काट रहा है, नाम-नामा दोनों कमा रहा है और उन की हालत धोबी के कुत्ते सरीखी हो गई है। न घर के रह गए हैं वह, न घाट के। अवसाद के इन्हीं कमज़ोर क्षणों में उन्हों ने तय किया कि वह भले खुद वकील नहीं बन पाए तो क्या अब अपने बेटे को ज़रूर वकील बनाएंगे। ताकि उन के बाप के तख़ते का वारिस कम से कम यह मुनक्का राय तो न ही बने। रामबली राय के बेटे गिरधारी राय की यह दमित कुंठा हंसते-खेलते परिवार के दरकने की बुनियाद का पहला बीज, पहला पत्थर बना।

गिरधारी राय के बच्चे हालां कि अभी छोटे थे पर छोटा भाई अब बड़ा हो गया था। इंटरमीडिएट का इम्तहान भले ही नहीं पास कर पाया वह पर पिता के रसूख़ के बल पर उस की शादी एक अच्छे परिवार में तय हो गई। तब के दिनों की शादी में बारात तीन दिन की हुआ करती थी। रामबली राय के छोटे बेटे गंगा राय की शादी भी तीन दिन वाली थी। मरजाद के दिन की बारात का दृश्य गांव के पुराने लागों की आंख और मन में आज भी जस का तस बसा हुआ है। लोग जब-तब आज भी उस का ज़िक्र चला बैठते हैं। बारात का तंबू काफ़ी बड़ा था। आम का बड़ा और घना बाग़ीचा था। तंबू के पश्चिम की ओर बीचो-बीच कालीन पर मसनद लगाए रामबली राय बैठे थे। सामने संदूक़ बग़ैरह सजे थे जैसा कि उन दिनों बारात में चलन था। रामबली राय दुल्हे के साथ ऐसे अकड़ कर बैठे थे जैसे अकबर अपना दरबार लगाए बैठे हों। और जब घर के मुखिया किसी शहंशाह की तरह पेश आ रहे थे तो राजकुमार लोग भला कैसे पीछे रहते?

गिरधारी राय ने तंबू का दक्षिणी सिरा पकड़ा और मुनक्का राय ने उत्तरी सिरा। दोनों नहा धो कर मूंगा सिल्क का कुरता पहन कर अपने-अपने तख़त पर मसनद लगा-लगा कर विराजमान हो गए। दोनों के साथ आस-पास चारपाइयां बिछा कर उन के दरबारी भी बैठ गए। अब बारात से कोई रिश्तेदार विदा मांगने जाता था या फिर आता तो रामबली राय का पैर छू कर बारी-बारी इन दोनों के पास भी अभिवादन के लिए जाता। अगर कोई पहले गिरधारी राय के पास आता तो वह बैठे-बैठे लेकिन सिर झुका कर हाथ जोड़ कर पूछते, 'अच्छा तो जा रहे हैं? प्रणाम!' और जो जाने वाला रामबली राय के बाद पहले मुनक्का राय के पास पहले चला जाता फिर गिरधारी राय के पास आता तो उन के पास आता तो उन की भौंहें तन जातीं। बोलने का सुर बदल जाता। बल्कि तीखा हो जाता। बड़ी लापरवाही से कहते, 'जा रहे हैं? प्रणाम!' और यह प्रणाम वह ऐसे बोलते जैसे जाने वाले को उन्हों ने प्रणाम नहीं किया हो जूता मारा हो। ठीक यही दृश्य मुनक्का राय की तरफ भी घटता। उन की तरफ जो कोई पहले आता तो वह प्रणाम ऐसे विनम्र हो कर करते जैसे प्रणाम नहीं फूलों की बरसात कर रहे हों। और जो कोई गिरधारी राय की तरफ से हो कर आता तो प्रणाम ऐसे करते जैसे भाला मार रहे हों। लेकिन यह दृश्य ज़्यादा देर नहीं चला।

कुछ मुंहलगे लोग मुनक्का राय के पास इकट्ठे हो गए। और उन से मुग़ले आज़म के डायलाग्स सुनाने का अनुरोध करने लगे। थोड़े ना नुकुर के साथ उन्हों ने डायलाग्स सुनाने शुरू कर दिए। कभी वह सलीम बन जाते तो कभी अकबर तो कभी अनारकली के हिस्से के ब्यौरे बताने लगते। और फिर 'सलीम तुझे मरने नहीं देगा और अनारकली हम तुम्हें जीने नहीं देंगे।' सुनाने लगते पर जल्दी ही उन्हों ने डायलागबाज़ी बंद कर दी। फिर तरह-तरह की चर्चाएं और क़यास शुरू हो गए मुनक्का राय को ले कर।

मुनक्का राय की कई बातें जो कभी उन के हिस्से का अवगुण थीं, अब उन के गुण बन उस शेर को फलितार्थ कर रही थीं कि, 'जिन के आंगन में अमीरी का शजर लगता है/उन का हर ऐब ज़माने को हुनर लगता है।' मुनक्का राय अब यहां मुनक्का बाबू हो चले थे। लोग बतिया रहे थे कि अइसे ही थोड़े, मुनक्का बाबू जब छोटे थे, मिडिल में पढ़ते थे तबै से रात-रात भर घर से भागे रहते थे, नौटंकी देखने ख़ातिर। और जब शहर में पढ़ते थे तो भले एक क्लास में दू साल-तीन साल लग जाता था लेकिन पिक्चर तो वह फर्स्ट डे-फर्स्ट शो ही देखते थे। और ई मुग़ले आज़म तो लगातार तीन महीने बिना नागा रोज देखे थे। रिकार्ड था भइया। वइसे थोड़े आज भी उन को एक-एक डायलाग याद हैं। एक बार तो भइया इन का साला शहर गया अपनी बीवी का इलाज करवाने। डाक्टर-वाक्टर को दिखाया। दवा लाने की बात हुई तो मुनक्का बाबू को पैसा दिया यह सोच कर कि पढ़े लिखे हैं, दुकानदार घपला नहीं करेगा। भेजा मुनक्का बाबू को दवा लेने। पर मुनक्का बाबू तो पैसा लिए और चले गए मुग़ले आज़म देखने। अइसा नशा था मुनक्का बाबू को मुग़ले आज़म का। साला इंतज़ार ही करता रह गया। बीवी की दवा का। खैनी ठोंक कर।

मुनक्का बाबू की मुग़ले आज़म गाथा की तंद्रा तब टूटी जब एक टीन एजर लड़के ने टोका। और मुनक्का बाबू से पूछा कि, 'ऐसा क्या था मुग़ले आज़म में जो तीन महीने लगातार देखने जाते रहे?' पहले तो उन्हों ने उस टीन एज लड़के की बात पर ध्यान नहीं दिया। पर उसने जब दो से तीन बार यही सवाल दुहराया तो वह खिन्न हो गए। पर बोले धीरे से, 'अरे मूर्ख सिर्फ़ देखने नहीं, समझने जाता था उस के डायलाग्स! हिंदी में तो थे नहीं। उर्दू और फ़ारसी में डायलाग्स थे।' उन्हों ने बैठे-बैठे बैठने की दिशा बदली, हवा ख़ारिज किया और ताली पीटते हुए बोले, 'तो डायलाग्स समझने जाता था। और फिर जब डायलाग्स समझ में आने लगे तो उस की मुहब्बत का जो जादू था, जो नशा था और जो मुहब्बत का इंक़लाब था उस में, वह मज़ा देने लगा।' कहते हुए वह ऊपर आम के पेड़ को निहारने लगे। फिर मुग़ले आज़म का ही एक गाना धीरे से बुदबुदाए, 'पायल के ग़मों का इल्म नहीं, झंकार की बातें करते हैं।'

इधर मुनक्का बाबू के कैंप में मुग़ले आज़म और मुहब्बत की दास्तान ख़त्म भी नहीं हुई थी कि गिरधारी राय के कैंप में तू-तड़ाक शुरू हो गया। लगा कि मारपीट हो जाएगी। गिरधारी राय फुल वैल्यूम में आग बबूला थे, 'बताइए इस दो कौड़ी के आदमी की औक़ात है कि हम को झूठा कहे!'

'झूठ?' वह आदमी चिल्लाया, 'सरासर झूठ बोल रहे हैं आप। जिस को सफ़ेद झूठ कहते हैं।'

'देखिए फिर-फिर... फिर हम को झूठा कह रहा है।' गिरधारी राय अब लगभग उस व्यक्ति को पीट देना चाहते थे। वह व्यक्ति किसी डिग्री कालेज में लेक्चरर था। और कन्या पक्ष की ओर से था। बरात में बस यों ही औपचारिक रूप से पूछताछ करने आया था कि, 'बारातियों को कोई दिक्क़त-विक्क़त तो नहीं है?' फिर बैठ गया गपियाने के लिए। मिल गए गिरधारी राय। पहले तो सब कुछ औपचारिक रहा। पर जब गिरधारी राय ने देखा कि यह डिग्री कालेज का मास्टर उन के ऊपर कुछ ज़्यादा ही रौब गांठ रहा है। तो उन्हों ने बड़ी विनम्रता से उसे बताया कि वह भी इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से पढ़े हुए हैं। बात की रौ में पहले उन्हों ने झोंका कि, 'वह भी एल.एल.बी हैं।'

'तो वकालत कहां करते हैं?' उस ने पूछा।

'वकालत?' गिरधारी राय ने बताया कि, 'समय कहां है वकालत के लिए?'

'क्यों तब और क्या करते हैं?' लेक्चरर की उत्सुकुता बढ़ी।

'घर की ज़िम्मेदारियां हैं। राजनीति की व्यस्तता है।' फिर इसी रौ में उन्हों ने झोंक दिया कि, 'पी.सी.सी. के भी मेंबर हैं वह।'

'पी.सी.सी.?'

'प्रदेश कांग्रेस कमेटी।' गिरधारी राय ने उसे रौब में लिया, 'इतना भी नहीं जानते मास्टर साहब!'

'मैं मास्टर नहीं हूं किसी प्राइमरी स्कूल का, डिग्री कालेज का लेक्चरर हूं।' हर्ट होते हुए वह बोला।

'हां-हां, वही-वही। जो भी हो।' गिरधारी राय ने उसे बातचीत के निचले पायदान पर ही रखा।

'पर बैठे ठाले पी.सी.सी. का मेंबर होना तो इतना आसान नहीं है राय साहब!' उस ने अपनी राजनीतिक समझ और सूचना की तफ़सील में जाते हुए कहा।

'क्यों नहीं आसान है?' गिरधारी राय बोले, 'आप को पता है हेमवती नंदन बहुगुणा और नारायण दत्त तिवारी जैसे नेता मेरे क्लासफे़लो रहे हैं?'

'अब राय साहब आप ज़रा ज़्यादा बोल रहे हैं।'

'क्या?' गिरधारी राय बमके।

'आप सरासर झूठ बोल रहे हैं।' वह लेक्चरर भी भड़क गया।

'तुम्हारी यह हिम्मत कि मुझे झूठा बता रहे हो?'

'मैं बता नहीं रहा हूं।' वह और भड़का, 'आप सरासर झूठ बोल रहे हैं और बदतमीज़ी भी कर रहे हैं।'

'अब तुम चुप रहो और जाओ यहां से।' गिरधारी राय चीख़े। भीड़ इकट्ठी हो गई इस चीख़ से। सारे बाराती इकट्ठे हो गए। कुछ कन्या पक्ष के लोग आ बटुरे। मामला बढ़ता देख बारात में आए एक वकील खरे साहब ने बीच बचाव किया। गिरधारी राय और उस लेक्चरर के बीच की दूरी बढ़ाई और धीरे से पूछा उस लेक्चरर से कि, 'आखि़र बात क्या है?'

'बात यह है कि यह दो कौड़ी का मास्टर मुझे झूठा बता रहा है।' गिरधारी राय बीच में ही कूद पड़े।

'अब आप बताइए कि क्यों इन को झूठा कह रहे हैं?' हाथ जोड़ कर खरे साहब ने उन लेक्चरर साहब से पूछा।

'बताइए यह कह रहे हैं कि हेमवती नंदन बहुगुणा और नारायण दत्त तिवारी दोनों इन के क्लासफे़लो रहे हैं।'

'ठीक कह रहा हूं।' गिरधारी राय किचकिचाए।

'क्या इन सब की तरह आप हम को भी जाहिल समझ रहे हैं?' लेक्चरर डपटा, 'यह संभव ही नहीं है। दोनों की उम्र का फ़ासला आप को मालूम भी है? कम से कम दस साल का गैप है। और यह कह रहे हैं कि दोनों इन के क्लसाफ़ेलो रहे हैं, यह भला कैसे संभव है?'

'मैं समझ गया, मैं समझ गया।' खरे साहब ने दोनों हाथ जोड़ कर उस लेक्चरर से कहा, 'देखिए आप की दुविधा भी सही है, और इन का कहना भी सही है।'

'मतलब?' लेक्चरर अचकचाया, 'दोनों ही कैसे सही हो सकते हैं?'

'हैं न?' खरे साहब ने हाथ जोड़े हुए कहा, 'देखिए गिरधारी राय जी जब इलाहाबाद यूनिवर्सिटी गए तो बहुगुणा जी इन के क्लासफे़लो थे। बहुगुणा जी पढ़ कर चले गए। पर गिरधारी राय जी पढ़ते रहे। पढ़ते रहे। पढ़ते ही रहे कि नारायण दत्त तिवारी जी पढ़ने आ गए। तब नारायण दत्त तिवारी भी इन के क्लासफे़लो हो गए!'

'फिर नारायण दत्त तिवारी पढ़ कर चले गए। और यह पढ़ते रहे।' लेक्चरर ने बात पूरी करते हुए मुंह गोल कर मुसकुराते हुए कहा, 'तो यह बात है!'

'तब?' खरे साहब ने जैसे समाधान का क़िला जीतते हुए कहा, 'मतलब यह कि गिरधारी राय जी झूठ नहीं बोल रहे हैं।' फिर वह ज़रा रुके और अंगरेज़ी में उस से पूछा, 'इज़ इट क्लीयर?'

'एब्सल्यूटली क्लीयर!' लेक्चरर मुसकुराते हुए बोला, 'इन के सच पर तो कोई चाहे रिसर्च पेपर तैयार कर सकता है।'

'मतलब गिरधारी चाचा फ़ुल फ़ेलियर हैं!' एक टीन एजर लड़का छुट से बोला।

'भाग सारे यहां से!' खरे साहब ने लड़के को झिड़का।

बाद में मुनक्का बाबू ने इस पूरे प्रसंग का फुल मज़ा लिया। और गिरधारी राय ने बहुत सूंघा कि कहीं इस सब के पीछे मुनक्का की साज़िश तो नहीं थी? क्यों कि उन को लग रहा था कि इस पूरे प्रसंग में उन का अपमान हो गया है। बाद के दिनों में उन्हों ने मुनक्का बाबू और उन के परिवार को कई पारिवारिक खु़राफ़ातों से तंग किया। फिर तो उन की खु़राफ़ातें गांव के स्तर पर भी शुरू हो गईं। गांव हर बार बाढ़ में डूब जाता था। बांध बनाने की योजना बनी, बजट आया। पर बांध नहीं बना। जिस-जिस के खेत बांध में पड़ते थे उन्हों ने उन में से कुछ लोगों को ऐसे कनविंस किया कि तुम्हारा खेत तो बांध में जाएगा ही, गांव में भी विनाश आ जाएगा। तीन चार मुक़दमे हो गए। बहुत बाद में गांव वालों को गिरधारी राय की खु़राफ़ात और साज़िश दिखी तो उन को समझाया-बुझाया। सब कुछ सुन समझ कर गिरधारी राय बोले, 'दो शर्तों पर बांध बन सकता है। एक तो हमें प्रधान बनवाओ निर्विरोध, दूसरे बांध का पेटी ठेकेदार मैं ही होऊंगा कोई और नहीं।'

गांव वालों ने उन की दोनों शर्तें नामंज़ूर कर दीं। उलटे कुछ लड़कों ने उन्हें एक रात रास्ते में घेर लिया। उन के साथ बदतमीज़ी से पेश आए और धमकाया कि, 'अपना शैतानी दिमाग़ अपने पास रखिए, नहीं ले चल कर नदी में मार कर गाड़ देंगे। पंचनामे के लिए भी लाश नहीं मिलेगी।'

गिरधारी राय डर गए। गांव छोड़ बांसगांव रहने लगे। बांसगांव में उन का परिवार भी था और मुनक्का राय भी। अब वह मुनक्का राय से खटर-पटर करने लगे। पिता ने समझाया भी गिरधारी राय को कि, 'मुनक्का को परेशान मत करो।'

पर गिरधारी राय कहां मानने वाले थे। मुनक्का परेशान हो गए। रामबली राय के पास गए फ़रियाद ले कर और कहा कि, 'मैं अब अपने रहने का अलग इंतज़ाम करना चाहता हूं। आप की इजाज़त चाहता हूं।'

'देखो मुनक्का तख़ता तो तुम्हारा मैं ने पहले ही अलग कर दिया था यह सोच कर कि अब तुम लायक़ वकील हो गए। कब तक मेरे जूनियर बन कर मुझे ढोओगे?' वह बोले, 'पर अभी इतने लायक़ नहीं हो गए हो कि घर से भी अलग कर दूं। कम से कम जब तक हम दोनों भाई ज़िंदा हैं तब तक तो अलग होने की कभी सोचना नहीं। सोचो कि लोग क्या कहेंगे? हां, रही बात गिरधारी से तुम्हारी मतभिन्नता की तो उस का भी मैं कुछ सोचता हूं। और फिर तुम जानते ही हो कि ख़ाली दिमाग शैतान का घर है।'

मुनक्का मन मसोस कर रह गए। लेकिन बीच का रास्ता उन्हों ने यह निकाला कि शाम को कचहरी के बाद ज़्यादातर दिनों में गांव जाने लगे। फिर तो धीरे-धीरे वह गांव से ही आने-जाने लगे। आने-जाने की दिक्क़त अलग थी, मुवक्किलों की अलग। प्रैक्टिस गड़बड़ाने लगी। इसी बीच एक नई तहसील बन गई गोला। रामबली राय ने मुनक्का को बुलवाया और कहा कि, 'देख रहा हूं तुम्हारी दिक्क़त यहां बढ़ती जा रही है। तुम गोला क्यों नहीं चले जाते?'

मुनक्का बांसगांव नहीं छोड़ना चाहते थे। पर अब चूंकि रामबली राय का संकेतों भरा आदेश था तो वे बेमन से गोला चले गए। लेकिन गोला में उन की प्रैक्टिस ठीक से नहीं चली। बच्चे बड़े हो रहे थे और ख़र्च भी। दो ढाई साल में ही वह फिर से बांसगांव लौट आए। रामबली राय भी अब वृद्ध हो रहे थे। पर मुनक्का की प्रैक्टिस शुरू हो गई। उन्हीं दिनों मुनमुन पैदा हुई।

मुनमुन जैसे लक्ष्मी बन कर आई मुनक्का और उन के परिवार के लिए। गृहस्थी की गाड़ी चल क्या दौड़ पड़ी। गिरधारी राय के लिए यह सब कुछ बहुत ही अप्रिय था। ख़ास कर इस लिए भी कि वह भले वकील नहीं बन पाए पर सोचे थे कि बच्चों को वकील बना कर इस की भरपाई करेंगे। ताकि पिता की वकालत की विरासत मुनक्का के हाथ न चली जाए। लेकिन उन का बड़ा बेटा शहर में चाचा गंगा राय के सानिध्य में घनघोर पियक्क्ड़ और औरतबाज़ निकल गया। उस के लिए बी.ए. पास करना ही मुश्किल हो गया। गिरधारी राय में झूठ बोलने, दिखावा करने और तमाम खुराफात और साज़िश करने की बीमारी भले थी पर शराब-औरत वग़ैरह की अय्याशी में वे कभी नहीं पड़े। न वह, न मुनक्का राय।

जो हो बड़े बेटे ने गिरधारी राय का सपना तोड़ दिया था। अब उन्हें दूसरे नंबर के बेटे से उम्मीद बढ़ी। वह पढ़ने लिखने में बहुत तेज़ नहीं, औसत ही था। दो चार बार फे़ल होने के बावजूद उस ने एल.एल.बी. कंपलीट किया। गिरधारी राय की खु़शी का ठिकाना नहीं था। पर गिरधारी राय का यह दूसरा बेटा तहसील में नहीं, ज़िला अदालत मेें प्रैक्टिस करना चाहता था। रामबली राय भी यही चाहते थे। उन्हों ने तर्क भी दिया कि, 'तेली का बेटा तेली ही बने आज के दौर में ज़रूरी नहीं है।' और कि, 'तहसील में अब कुछ नहीं रखा है।' वह ज़िला अदालत या हाई कोर्ट भेजना चाहते थे नाती को प्रैक्टिस के लिए। पर रामबली राय की नहीं चली, नाती की नहीं चली। गिरधारी राय की ज़िद चली।

गिरधारी राय की ज़िंदगी में यह उन की पहली फ़तह थी। अपने दूसरे नंबर के बेटे से उन्हों ने मुनक्का राय को शह दे दी थी। पर मुनक्का राय इस से बेख़बर थे। प्रैक्टिस उन की चटकी हुई थी, यह सब देखने सुनने की उन को फ़ुर्सत कहां थी? उन्हों ने तो फ़राख़दिली दिखाते हुए भतीजे का कचहरी में वेलकम किया और कहा कि, 'चलो कचहरी में हमारे परिवार की ताक़त और बढ़ गई। दो से अब हम तीन हो गए।'

'लेकिन तीन टिकट महाविकट!' एक वकील ने चुटकी ली।

'शुभ-शुभ बोलिए वकील साहब!' मुनक्का राय ने आंख तरेर कर कहा तो वह वकील सटपटा गया। पर गिरधारी राय का यह लड़का ओम जिसे घर में सब लोग ओमई कहते थे बड़ी तेज़ी से मुनक्का राय की घेरेबंदी में लग गया। वह वकालत के पेंच कसना कम सीखता, मुनक्का राय को कहां-कहां और कैसे-कैसे मात दिया जा सकता है, इस के पेंच ज़्यादा ढंूढता। पहले दौर में उस ने मुनक्का राय के कुछ होशियार जूनियर तोड़े। फिर मुंशी तोड़ा। पर इन को ओमई ने तोड़ा मुनक्का राय को इस की भनक नहीं लगी। मुनक्का राय तो अपनी प्रैक्टिस, बच्चों की अच्छी पढ़ाई और सुखी पारिवारिक जीवन में मस्त थे। उधर रामबली राय का स्वास्थ्य बिलकुल साथ नहीं दे रहा था। आखें भी लाचार हो गई थीं। दिखाई कम देता था। अब ज़्यादातर मामलों में वह नाती को राय दे कर मुक़दमे निपटाते। कभी कोई बहुत ख़ास मुक़दमा होता तभी वह कोर्ट जाते। कोर्ट में उन का खड़ा हो जाना ही मुक़दमा जीतने की गारंटी हो जाता। लोग उन्हें चलती फिरती कोर्ट कहते। ओमई उन की इस गुडविल को जितना एक्सप्लाइट कर सकता था, करता।

मुनक्का राय की ज़मीन अब उन के नीचे से खिसक रही थी। उन के पुराने मुक़दमे भी अब ओमई के पास जा रहे थे, नए मुक़दमों की आवग कम हो गई थी। मुनक्का राय का बड़ा बेटा रमेश तब एम.एस.सी. की पढ़ाई कर रहा था और सिविल सर्विस की तैयारी भी। पर मुनक्का राय ने उस से कहा कि, 'अब तुम एल.एल.बी. करो।'

'पर मैं तो सर्विसेज़ की तैयारी कर रहा हूं।'

'सर्विसेज़ छोड़ो।' मुनक्का राय ने स्पष्ट आदेश दे दिया, 'जो मैं कहा रहा हूं, वह करो।'

'पर बाबू जी.......!'

'कुछ नहीं!' मुनक्का राय बोले, 'बाप मैं हूं कि तुम?'

'पर बाबू जी यह एम.एस.सी. तो कंपलीट कर लूं?'

'हां, यह कर लो!'

पिता के इस व्यवहार पर मुनक्का राय का यह बड़ा बेटा हतप्रभ था। क्यों कि अभी तक की ज़िंदगी में पिता ने कभी उस से ऐसी और इस तरह बात नहीं की थी। ख़ैर, रमेश ने एम.एस.सी. मैथ का इम्तहान डिस्टिंक्शन के साथ पास किया और अगले सेशन में एल.एल.बी. में एडमिशन ले लिया। इसी बीच उस का एक बैंक में भी सेलेक्शन हो गया। पर मुनक्का राय ने मना कर दिया। कहा कि, 'जो बात वकालत में है, वह बैंक में कहां?' मुनक्का राय को गिरधारी के बेटे को शिकस्त देने के सिवाय कुछ सूझता ही नहीं था उन दिनों। उन्हें लगता था कि उन का बेटा रमेश ओमई से पढ़ने लिखने तथा तमाम और मामलों में अव्वल है। वह कचहरी में आएगा और आते ही ओमई को पस्त कर के मुनक्का राय का झंडा फिर से लहरा देगा।

इसी बीच गिरधारी का छोटा भाई गंगा राय भी मर गया। उस की मौत को ले कर बहुतेरे सवाल उठे। कुछ लोगों ने संदेह जताया कि प्रापर्टी हड़पने के फेर में गिरधारी राय ने गंगा राय को शराब में ज़हर दिलवा कर मरवा दिया। बाद में लोगों का यह शक और पुख़्ता हुआ जब खेती बारी और अन्य पुश्तैनी जायदाद में गिरधारी ने भाई गंगा राय के परिवार को आधा हिस्सा देने के बजाय कुल 6 हिस्से लगवाए। वह इस हिसाब से कि गिरधारी राय के चार बेटे थे और गंगा राय के दो बेटे। तो 6 हिस्से लगवाए। पिता रामबली राय के जीते जी! रामबली राय इन दिनों पूरी तरह अशक्त हो गए थे सो गिरधारी राय उन से जो चाहते थे करवा लेते थे। गिरधारी राय अब अपने पिता के साथ ज़ुल्मो सितम भी करने लगे। ऐसा लोग दबी ज़बान कहते। छोटे भाई गंगा राय की बीवी मारे डर के अपने दोनों बेटों को ले कर मायके चली गई। उसे बराबर डर बना रहता कि गिरधारी राय पति की तरह कहीं उस के बेटों को भी न मरवा दें। इसी बीच रामबली राय का भी निधन हो गया।

अब गिरधारी राय थे, उन के साथ उन का झूठ, उन की लालच और मुनक्का राय को बात-बात में नीचा दिखाने, अपमानित करने की अदम्य लालसा थी। पिता के मरते ही गांव की जायदाद का बंटवारा करवाया उन्हों ने। मुनक्का राय की सौतेली मां को उन्हों ने मोहरा बनाया। मुनक्का राय का एक सौतेला भाई भी था। वह भी वकील था। पर गुमनामी में जीवन गुज़ार रहा था। उसे भी धो पोंछ कर खड़ा किया गिरधारी राय ने मुनक्का राय के खि़लाफ़। खेती-बारी के बंटवारे में तो पर्ची पड़ गई। जिस को जो हिस्सा मिला ले कर संतोष कर गया। हालां कि गिरधारी राय किचकिचा कर कहते कि, 'सारा किया धरा हमारे बाप रामबली राय का पर भोग रहे हैं श्यामबली राय के पुत्र लोग। और ये मुनक्का!' वह जोड़ते, 'लगता है जैसे रामबली राय का असली वारिस यही हो मैं नहीं!' ख़ैर घर के बंटवारे में काफ़ी कोहराम मचा। गिरधारी को यहां रहना तो था नहीं। उन का पूरा परिवार बांसगांव में था। दो बेटे शहर वाले घर में। शहर वाले और बांसगांव वाले घर में मुनक्का का कोई हिस्सा बनता नहीं था। क्यों कि यह दोनों घर रामबली राय ने अपनी पत्नी के नाम बनवाए थे। समस्या गांव वाले घर में आई। पहले उस का आधा हिस्सा लिया गिरधारी राय ने। फिर मुनक्का के आधे वाले हिस्से को भी दो हिस्सों में बंटवा दिया उन के सौतेले भाई को खड़ा कर के। अब मुनक्का के हिस्से घर का चौथाई हिस्सा आया। जो परिवार पूरे घर में रहता था, चौथाई हिस्से में सिमट गया। तिस पर गिरधारी राय ने दालान से हो कर अपने हिस्से में एक दरवाज़ा भर की जगह फोड़ ली। मुनक्का राय और उन के परिवार ने समझाया भी कि जो घर का मुख्य दरवाज़ा है, वह सब के साझे में रहे तो अच्छा है, और कि उन लोगों को कोई ऐतराज़ नहीं होगा। जब जो चाहे आए जाए। पर गिरधारी राय नहीं माने। बोले, 'ऐतराज़ तो मुझे है। दरवाज़ा जब मेरे हिस्से में नहीं आया है तो मैं उस का इस्तेमाल भी नहीं करूंगा।' और उन्हों ने दरवाज़े भर की जगह फोड़ ली। लेकिन वहां दरवाज़ा नहीं लगाया।

अब दुआर पर से आंगन साफ़ दिखता था। हर आने जाने वाले की निगाह बरबस आंगन में चली जाती। मुनक्का की एक बेटी विनीता जवान हो रही थीं। दो बेटियां और थीं। पत्नी थी। घर की लाज और सुरक्षा दोनों ख़तरे में आ गई। मुनक्का राय ने सारा इगो ताक़ पर रख कर सीधे गिरधारी राय से बात की। गिरधारी राय ने कहा, 'अभी पैसा नहीं है। पैसा होते ही दरवाज़ा लगवा दूंगा।'

'पैसा हम से ले लीजिए।' मुनक्का राय ने हाथ जोड़ कर कहा, 'या कहिए तो हम ख़ुद दरवाज़ा लगवा देते हैं।'

'इतना ही पैसा है तो आंगन के अपने हिस्से में बाउंड्री लगवा लीजिए।'

'सुरक्षा और लाज फिर भी ख़तरे में रहेगी।' मुनक्का बोले, 'बाउंड्री तो कोई भी कूद सकता है।'

'तो पुलिस में रपट कीजिए!' गिरधारी राय बोले, 'आखि़र बड़का वकील हैं आप!'

'देखिए घर की लाज हमारी ही नहीं आप की भी है। विनीता और रीता आप की भी बेटी हैं। मेरी पत्नी आप की भी बहू है। हमारा ख़ानदान एक है। कहीं कुछ ऊंच-नीच हो गई तो आप का भी सिर नीचा हो जाएगा।'

'ऐसा कुछ नहीं है।' गिरधारी राय अड़े रहे, ' गांव में इतनी किसी की हिम्मत नहीं है जो हमारे ख़ानदान को आंख भी उठा कर देखे। आंख नोच लूंगा। सिर काट दूंगा।'

'पर दरवाज़ा नहीं लगाएंगे!'

'कहा न पैसा होते ही लगवा देंगे।'

'तो पैसा होने पर ही दरवाज़ा फोड़े होते।'

'आप हमारे एडवाइज़र तो हैं नहीं कि हर बात पर आप से सलाह ले कर ही हम कुछ करें। न हमारे बाप हैं!'

बाद में मुनक्का राय ने कुछ पट्टीदारों रिश्तेदारों को भी बीच में डाला। सब ने समझाया। पर गिरधारी राय का सब को एक ही जवाब था, 'पैसा होते ही लगवा देंगे दरवाज़ा!' और पैसा किसी से लेने को वह तैयार नहीं हुए। हार मान कर मुनक्का राय ने आंगन में खपरैल से भी ऊंची बाउंड्री करवाई। पर एकाध कुत्ते फिर भी बाउंड्री कूद आते। एक बार दो चोर भी कूदे। मुनक्का राय ने अंततः बांसगांव में एक मकान किराए पर लिया। और परिवार शिफ़्ट किया। चटकी प्रैक्टिस पुटुक गई थी। बच्चे पढ़ रहे थे। ख़र्चा बढ़ गया था। जब प्रैक्टिस चटकी हुई थी तब कुछ बचत की नहीं। दोनों हाथ कमा रहे थे तो चारो हाथ ख़र्च कर रहे थे। हां, मुनक्का की पत्नी ने भी पैसे को पानी ही समझा और मान लिया था कि नदी में जो बाढ़ आई है, कभी जाएगी नहीं। पर बाढ़ तो चली गई थी। एक-एक पैसे की मुश्किल होने लगी। जो जूनियर और मुंशी ओमई तोड़ कर ले गया था, वह जूनियर और मुंशी पुराने मुवक्किल भी तोड़ रहे थे। ख़ैर, इसी आपाधापी में बड़े बेटे रमेश ने एल.एल.बी. पूरा कर लिया। और पिता से इच्छा ज़ाहिर की कि अभी भी वह सिविल सर्विस की आस नहीं छोड़े है। दो बार प्रिलिमनरी में वह आ भी चुका था इस बीच। पर मुनक्का राय ने कहा कि, 'अब जो होना था हो गया। प्रैक्टिस शुरू करो और मेरा बोझ कम करो।'

'तो मैं इलाहाबाद हाई कोर्ट में प्रैक्टिस करना चाहूंगा, अगर आप इजाज़त दें तो।' रमेश ने पिता से अनुनय किया।

'हाई कोर्ट?' मुनक्का राय भड़क गए, 'पांच साल तक भूजा भी नहीं खरीद पाओगे दो रुपए का। एक पइसा नहीं मिलेगा। उलटे हमसे ही ख़र्चा मांगोगे वहां रहने- खाने के लिए।'

'तो चालिए शहर में कम से कम डिस्ट्रिक्ट कोर्ट में तो यह दिक्क़त नहीं रहेगी?'

'वहां भी कम से कम दो साल-तीन साल एक-एक पैसे के लिए तरसोगे।'

'तब?'

'हमारे साथ यहीं बांसगांव तहसील में डटो और ई ओमई सारे की छुट्टी करो!' वह बोले, 'अब ई हमारी नहीं तुम्हारी लड़ाई है। उस से ज़्यादा पढ़े लिखे हो, उस से ज़्यादा होशियार हो!'

'कहां मेरी ज़िंदगी नष्ट करना चाहते हैं बाबू जी?'

'कुछ इफ़-बट नहीं करो।' मुनक्का राय रमेश को पुचकारते हुए बोले, 'अब मैं फ़ैसला कर चुका हूं।'

इधर रमेश ने प्रैक्टिस शुरू की और उधर मुनक्का राय ने उस की शादी तय कर दी। रमेश अभी नहीं-अभी नहीं करता रहा और मुनक्का ने उस की शादी कर दी। दूसरा बेटा धीरज भी अब तक एम.एस.सी. में आ गया था। मुनक्का राय चाहते थे कि वह भी एल.एल.बी. कर ले और बांसगांव कचहरी में वह भी आ जाए। पर वह रमेश की तरह पिता की बातों में नहीं आया। एम.एस.सी. कंपलीट कर वह एक कालेज में लेक्चरर हो गया। इधर रमेश बांसगांव में पिता का बोझ बांटने भले उन के कहे पर आ गया था पर वह कारगर साबित नहीं हो पा रहा था। तहसील की वकालत के लिए जो थेथरई, जो कुटिलता और कमीनापन वांछित था, वह उस में रत्ती भर भी निपुण नहीं था, न ही वह इस का प्रशिक्षण लेना चाहता था। कचहरी में तारीख़-वारीख़ लेने का भी वह क़ायल नहीं था। केस हारे चाहे जीते वह मेरिट पर ही लड़ता। और नतीजतन केस हार जाता। वह मारे शेख़ी में बोलता भी, 'मैं तो वन डे मैच खेलता हूं, हारूं चाहे जीतूं इस की परवाह नहीं।' वह कचहरियों में अपनाए जाने वाले ट्रिक से नफ़रत करता। मुनक्का राय ने उसे एकाध बार समझाया भी कि, 'यह कचहरी है; कोई क्रिकेट का मैदान नहीं। यहां दुर्योधन, अर्जुन, युधिष्ठिर-शकुनी सभी चालें चलनी पड़ती हैं। साम, दाम, दंड भेद के सारे हथकंडे आज़मा कर ही कोई सिद्ध और सफल वकील बन पाता है। होता होगा तुम्हारी मैथ में दो और दो चार। पर यहां तो दो और दो पांच भी हो सकता है और आठ या दस भी। शून्य भी हो सकता है। कुछ भी हो सकता है।' वह बताते कि, 'कचहरी में बातें मेरिट से नहीं क़ानून से नहीं, जुगाड़ और ट्रिक से तय होती हैं।'

पर रमेश को बाबू जी की यह सारी बातें नहीं सुहातीं। बाप बेटे दोनों की प्रैक्टिस खटाई में थी। ओमई दोनों की वकालत पर सवार था। कचहरी में ओमई, समाज में गिरधारी राय। बाप बेटे दोनों मिल कर मुनक्का बाप बेटे का जीना हराम कर रखे थे। गिरधारी राय के उकसाने में मुनक्का राय के मकान मालिक घर ख़ाली करने को कह देते। तीन साल में चार मकान बदल कर मुनक्का राय परेशान चल ही रहे थे कि एक मुवक्किल को भड़का कर ओमई ने मुनक्का राय और रमेश राय दोनों की पिटाई करवा दी। विरोध में वकीलों की एसोसिएशन आई। दो दिन कचहरी में हड़ताल रही। पिटाई करने वाला मुवक्किल गिरफ़्तार हुआ तो हड़ताल टूटी। अख़बारों में ख़बर छपी। जिस को नहीं जानना था, वह भी जान गया कि मुनक्का बाप बेटे पिट गए।

मुनक्का के घर में भी खटपट शुरू हो गई थी। रमेश की अम्मा और बीवी में अनबन रोज़ की बात हो चली थी। अंततः आजिज़ आ कर मुनक्का राय ने रमेश को गोला तहसील शिफ़्ट होने को कह दिया। जैसे कभी रामबली राय ने मुनक्का को शिफ़्ट किया था। बांसगांव में तो मुनक्का राय की छांव में रमेश को रोटी दाल की चिंता नहीं करनी पड़ती थी। गोला में रोटी दाल की भी दिक्क़त हो गई। हार कर रमेश की पत्नी जो सोशियालाजी से एम.ए. थी, ने एक नर्सरी स्कूल में पढ़ाना शुरू किया तो किसी तरह खींचतान कर गृहस्थी चल जाती। अब रमेश के एक बेटा भी हो गया था। पर रमेश न बेटे को देख पाता था, न अपने आप को। गोला कचहरी में भी उस की क्रांति मशहूर हो चली थी। वह विद्रोही वकील मान लिया गया था। लोग उस से कहते कि, 'यार यह तहसील है!' तो वह कहता, 'क्या तहसील में क़ानून और संविधान काम नहीं करता?' वह पूछता, 'अगर ऐसा ही था तो फिर हम लोगों को क़ानून पढ़ कर यहां आने की क्या ज़रूरत थी? किसी मुंसिफ़ या एस.डी.एम. को भी यहां आने की क्या ज़रूरत थी? ये वकीलों के मुंशी और कचहरियों के पेशकार ही जब कचहरी चला लेते हैं।' लेकिन उस की कोई सुनने वाला नहीं था। धीरे-धीरे वह क्रांतिकारी से विद्रोही और फिर पागल और सनकी वकील मान लिया गया।

रमेश अब डिप्रेशन का शिकार हो चला था। रमेश के इन्हीं डिप्रेशन के दिनों में मुनक्का राय ने बांसगांव में एक ज़मीन ख़रीदी। वह भी एक खटिक से। ग़लती हुई। रजिस्ट्री तुरंत नहीं करवाई। गिरधारी राय ने तुरंत मौक़े का फ़ायदा उठाया। खटिक को भड़काया। खटिक ने हरिजन एक्ट की धौंस दी और फिर दोगुनी क़ीमत ले कर रजिस्ट्री की। यह ज़मीन भी ख़रीदने के लिए मुनक्का राय के लेक्चरर बेटे धीरज ने पैसा दिया। उसी ने फिर उस ज़मीन पर दो कमरा भी बनवाया। और धीरे-धीरे पूरा घर बनवा दिया। घर का ख़र्च भी वह उठा ही रहा था। अब मुनक्का राय ने उस की भी शादी तय कर दी। शादी हुई। बहू घर आई। पर वह सास के साथ लंबे समय तक रहने को तैयार नहीं हुई। दहेज ढेर ले कर आई थी सो वह किसी से दबने को तैयार नहीं थी। उस ने धीरज को भी बता दिया कि, 'मैं बांसगांव में नहीं रहूंगी।'

धीरज उसे शहर ले आया। भाई तरुण और राहुल पहले ही से उस के साथ रहते थे। पढ़ाई के लिए। बीवी के आने के बाद धीरज ने बांसगांव पैसा भेजने में कटौती शुरू कर दी। जब कि पहले वह पिता को नियमित कुछ पैसा सुनिश्चित समय पर भेज देता था। इतना कि मुनक्का राय मारे ख़ुशी के उसे कभी नियमित प्रसाद कहते तो कभी सुनिश्चित प्रसाद। मुनक्का राय ने इस बात की भरपूर नोटिस ली कि धीरज अब न तो सुनिश्चित रह गया है न नियमित! पर तरुण और राहुल की पढ़ाई का ज़िम्मा वह उठा रहा था, इसी से उन्हों ने संतोष कर लिया। फिर एक दिन वह शहर गए और धीरज को बताया कि विनीता भी बी.ए. कर के बैठी है, उस की शादी अब हो जानी चाहिए! धीरज ने हामी भर दी। शादी भी तय हो गई। अधिकतम ख़र्च धीरज ने उठाया पर गांव की एक ज़मीन भी बेचनी पड़ी।

शादी धूमधाम से हुई। शादी की तैयारी, बारात की अगुआनी, विदाई, सब का आना जाना, सब कुछ की कमान धीरज ने ही संभाल रखी थी। मुनक्का राय भी धीरज के पीछे-पीछे ही थे। सब से बुरी गति रमेश की थी। बड़ा भाई होने के बावजूद रमेश की हैसियत किसी नौकर से भी गई गुज़री थी। अपनी हीनता में क़ैद रमेश और उस की पत्नी डरे-सहमे ही सभी को दिखे। रिश्तेदारों, पट्टीदारों ने भले रमेश से बात की पर घर के लोगों ने उस से ऐसे व्यवहार किया जैसे उस का कोई अस्तित्व ही न हो। और धीरज ने तो पग-पग पर रमेश को जैसे अपमानित करने की कसम ही खा रखी थी। एक पट्टीदार ने टिप्पणी भी की कि, 'एक होनहार और प्रतिभाशाली व्यक्ति पट्टीदारी की आग में कैसे तो होम हो गया!'

विनीता का पति थाइलैंड में नौकरी करता था। उस का सारा परिवार वहीं रहता था। दो पीढ़ी से। विनीता को दस दिन बाद थाइलैंड उड़ जाना था। धीरज के श्वसुर ने यह शादी तय करवाई थी। यह बात कम लोग जानते थे। लेकिन दामाद, डाल और बारात की तारीफ में हर कोई मगन था। मुनमुन भी अपनी मझली दीदी रीता के साथ जीजा जी को इंप्रेस करने में लगी थी। मुनमुन अब टीन एजर थी और भारी मेक अप में उस की जवानी किसी जवान लड़की से भी ज़्यादा छलक रही थी, यह बात भी लोगों ने नोट की। वह अपने जीजा से इठलाती हुई चुहुल भी कर रही थी, 'हम को भी अपने साथ उड़ा कर ले चलिए न!'

जीजा लजा कर रह गया। रमेश भी चोरी छुपे अपने छोटे बहनोई की ख़ुशामद में लगा था। एक रिश्तेदार से रमेश ने खुसफुसा कर कहा भी कि, 'अब विनीता हमारे परिवार की क़िस्मत बदल देगी। दस दिन बाद ख़ुद थाईलैंड जा रही है। क्या पता पीछे-पीछे हम लोगों को भी बुला ले!'

'क्या रमेश!' उस के एक फुफेरे भाई दीपक ने अफ़सोस जताते हुए कहा, 'अब तुम्हारे यह दिन आ गए!' उस ने जोड़ा कि, 'सोचो कि तुम कितने ब्रिलिएंट थे। पट्टीदारी-रिश्तेदारी के लड़कों में तुम आइडियल माडल माने जाते थे। और अब बहन के पैरासाइट बनना चाहते हो? चचच्च!'

रमेश झेंप गया था। यह भी लोगों ने नोट किया। और हां, यह भी कि गिरधारी राय और उन का परिवार इस शादी में नहीं था। मुनक्का राय से किसी ने पूछा तो जवाब धीरज ने दिया, 'नागपंचमी तो थी नहीं कि दूध पीने को बुलाते।'

विनीता सचमुच दस दिन बाद थाइलैंड के लिए उड़ गई। अब अलग बात है कि उस का संघर्ष वहां जा कर नए सिरे से शुरू हो गया। उस ने अम्मा को एक चिट्ठी में संकेतों में लिखा भी, 'दूर के ढोल सुहावने होते हैं।' अम्मा तो उतना नहीं पर बाबू जी ठीक से समझ गए। उसे जवाबी चिट्ठी में मुनक्का राय ने दांपत्य को धैर्य से निभाने की सीख लिख भेजी और मनुहार की कि हमारी लाज बचाना, हमारा सिर नीचा मत करवाना। थोड़ा त्याग, तपस्या और बर्दाश्त से रहोगी तो सब ठीक हो जाएगा। ध्यान रखना कि अभी तुम्हारे पीछे तुम्हारी दो बहनें रीता और मुनमुन भी हैं। विनीता ने बाबू जी की सीख को माना और अपने दांपत्य को धीरे-धीरे साध ले गई। पर सास के घर से अलग हो कर। बाद में फिर वापस सास ससुर के घर आई और अम्मा को चिट्ठी में लिखा कि, 'अब वह नहीं मैं उन की सास हूं।'

मुनक्का राय ने फिर बेटी को चिट्ठी में लिखा कि, 'सास को ही सास रहने दो और तुम बहू ही बन कर रहोगी तो सुखी रहोगी। अन्यथा बाद में कांटे और रोड़े बहुत मिलेंगे ज़िंदगी में।' विनीता बाबू जी की यह बात भी मान गई। इधर मुनक्का राय की ज़िंदगी जैसे ख़ुशियों की लंबी राह देख रही थी जो अचानक ऐसे पूरी हुई कि पूरा बांसगांव और उन का गांव भी उछल पड़ा। धीरज पी.सी.एस. मेन में चुन लिया गया था। अख़बारों में उस की फोटो छपी थी। चहुं ओर खुशियों की पुरवाई थी। पर इस पुरवाई के झोंके में कोई सूख भी रहा था। वह थे गिरधारी राय और उन का बेटा ओमई। फिर भी गिरधारी राय जाने रस्म अदायगी में, जाने भय से या जाने किस भाव से ख़ुद चल कर मुनक्का राय के घर गए बधाई देने। यह ख़बर जब कचहरी में दौड़ी तो एक वकील ने कहा कि एक कविता है, 'भय भी शक्ति देता है!' बहरहाल कचहरी में भी मिठाई बंटी और एस.डी.एम. और मुंसिफ़ मजिस्ट्रेट दोनों ने मुनक्का राय को उन के घर पर आ कर बधाई दी। बांसगांव के साथ मुनक्का राय भी झूम गए।

रमेश आई.ए.एस. प्रिलिमनरी तक ही आ कर रह गया था पर धीरज पी.सी.एस. हो गया। मुनक्का राय अब रमेश के प्रति थोड़ा दयालु हो गए। उन्हें अपने पर अफ़सोस हुआ और ख़ुद को रमेश का अपराधी मानने लगे। उन को लगा कि अगर ज़िद कर के उन्हों ने रमेश को एल.एल.बी. न करवाया होता और फिर बांसगांव तहसील में ही ओमई से निपटने के लिए उसे न भिड़ाया होता तो वह भी शायद इस समय कहीं अच्छी जगह होता। वह बुदबुदाए भी, 'दूध को हम ने नाबदान में डाल दिया!'

रमेश को भी ख़ुशी हुई भाई धीरज के पी.सी.एस. होने पर। लेकिन क्षणिक। रमेश की पत्नी से भी किसी ने इस की चर्चा की तो वह बोली, 'कोई नृप होए हमें का हानि!' क्यों कि जैसे धीरज रमेश को विनीता के ब्याह में अपमानित करता रहा वैसे ही घर में धीरज की पत्नी उसे अपमानित करती रही थी। जेठानी होने का मान तो उस ने क्षण भर के लिए भी नहीं दिया। हां, लेकिन रमेश ने धीरज को फ़ोन कर के बधाई ज़रूर दी। तो धीरज भावुक हो गया। बोला, 'भइया यह सब आप के ही पढ़ाए-समझाए का परिणाम है। आप ने ही हाई स्कूल और इंटर में हमारी ऐसी रगड़ाई करवा दी थी कि मुझे आगे बहुत आसानी हो गई।' उस ने बताया, 'आप की ही छोड़ी आई.ए.एस. की तैयारी वाली किताबें और नोट्स भी मेरी इस सफलता में काम आए। भइया आप न होते तो मैं पी.सी.एस. न होता।'

'चलो ख़ुश रहो और ख़ूब तरक्क़ी करो!' रमेश ने फ़ोन रख दिया। उसे लगा कि वह तो मर गया था, आज ज़िंदा हो गया। धीरज की बातों ने, उस ने जो मान दिया, उस की भावुकता ने उसे रुला दिया। बेटे रंजीव ने पूछा भी कि, 'क्या हुआ पापा?'

'कुछ नहीं बेटा पुरानी-नई ख़ुशियां याद आ गईं।' रंजीव तो रमेश की इस बात को नहीं समझा पर रमेश पुरानी बातों की यादों में डूब-डूब गया। उसे याद आया कि कैसे तो धीरज के हाई स्कूल में केमेस्ट्री के एक फार्मूला न याद करने के लिए उस ने उस की जम कर पिटाई की थी। कई बार वह अपनी पढ़ाई से ज़्यादा धीरज की पढ़ाई पर ज़ोर देता। हाई स्कूल, इंटर क्या बी.एस.सी. तक वह उस की मंजाई करता रहा। छोटा होने के बावजूद वह उस से काम नहीं करवाता था। एक कमरे के किराए के मकान में कैसे तो वह रहता था। खाना ख़ुद बनाता था, बरतन भी धोता था। और धीरज ही क्यों तरुण को भी उस ने क्या वही स्नेह नहीं दिया! यह सब और ऐसी तमाम छोटी मोटी बातें याद कर-कर के वह पत्नी को बताता रहा। बता- बता कर सुबुकता रहा। फिर अचानक पत्नी से बोला, 'बहुत दिन हो गए हम लोग सरयू जी में नहाए नहीं। चलो आज डुबकी मार आते हैं।'

पति की इस ख़ुशी में पत्नी भी शरीक हो गई। दोनों बेटों को ले कर वह घाट पर गया। बच्चों को डुबकी लगवाने के बाद पत्नी के साथ ख़ुद भी कई डुबकियां लगाईं और जम कर तैराकी की। इतवार का दिन था। घाट पर अपेक्षाकृत भीड़ थी। वकील साहब को इस तरह तैरते देख कर कुछ लोगों ने कौतुक जताया तो एक आदमी ने सब की जिज्ञासा शांत की, 'अरे छोटा भाई पी.सी.एस. में सेलेक्ट हो गया है। अख़बारों में फ़ोटो छपी है भाई!'

'अच्छा!'

फिर तो वकील साहब को बधाइयों का तांता लग गया। बांसगांव के साथ अब गोला भी झूम रहा था। छोटी जगहों पर मामूली ख़ुशियां भी बहुत बड़ी हो जाती हैं। गोला में एस.डी.एम. प्रमोटी था, तहसीलदार से पी.सी.एस. हुआ था, उस ने भी कचहरी में रमेश का हाथ पकड़ कर बधाई दी। मुनक्का राय के गांव में भी यह सिलसिला चला। गांव की छाती फूल गई।

ज़िंदगी फिर अपने सामान्य ढर्रे पर आ गई। बल्कि मुनक्का राय की मुश्किलें थोड़ी बढ़ गईं। धीरज ट्रेनिंग पर चला गया। और उस की बीवी अपने बच्चे को ले कर मायके। नियमित और सुनिश्चित प्रसाद तो धीरज का पहले ही गुम हो रहा था अब तरुण और राहुल को शहर में पढ़ाई, रहने-खाने और किराए का ख़र्च भी भेजना पड़ता था। मुनक्का राय अब सारी ख़ुशियों के बावजूद क़र्ज में डूब रहे थे। गिरधारी राय यह सब देख रहे थे और लोगों से खुसफुसा रहे थे, 'घर में भूजी भांग नहीं, दुआरे हरि कीर्तन!'

अब अलग बात है कि गिरधारी राय के यहां भी स्थितियां ऐसी ही हो रही थीं। ओमई की प्रैक्टिस लड़खड़ा गई थी। पिता रामबली राय का रखा पैसा कितने दिन चलने वाला था। आधा मकान किराए पर उठ गया था। शहर के मकान का भी दो तिहाई किराए पर था। किराया न मिलता तो घर ख़र्च चलना मुश्किल था। बड़ा बेटा पियक्कड़ निकल ही गया था। बाक़ी तीसरा भी बिना विवाह के ही एक लड़की के साथ रह रहा था। जो जाति की तेली थी। एक बेटी ब्याहने को पड़ी थी।

इधर धीरज की ट्रेनिंग समाप्त हुई और उसे एस.डी.एम. की तैनाती मिल गई। इधर तीसरा भाई तरुण भी एक बैंक में पी.ओ. हो गया। मुनक्का राय का घर एक बार फिर खुशियों से छलछला गया। एक दिन रमेश की पत्नी ने रमेश से पूछा, 'आप भी तो पहले बैंक में सेलेक्ट हुए थे?'

'हुए तो थे पर बाबू जी ने जाने कहां दिया?' वह लाचार हो कर बोला, 'चले गए होते तो यह गोला की गंदगी कहां से देखता?'

'इतनी पितृभक्ति भी ठीक नहीं थी।' वह बोली, 'नरक में डाल दिया हम लोगों को।'

'ई ओमई की पट्टीदारी में सब हो गया। बाबू जी हम को वकील बनाए ओमई को रगड़ने के लिए हमीं रगड़ा गए।'

'आप अब से इम्तहान नहीं दे सकते?'

'किस का?'

'पी.सी.एस. का, बैंक का?'

'इस उमर में?' रमेश बोला, 'अरे, अब हम ओवर एज हो गए। तुम ख़ुद पढ़ी लिखी हो, इतना तो समझ ही सकती हो।'

रमेश की पत्नी चुप हो गयी। पर रमेश के मन में पत्नी का सवाल मथता रहा। उसने सोचा हो सकता है पत्नी एक साथ घर और नौकरी नहीं साध पा रही हो। पत्नी अब एक जूनियर हाई स्कूल में पढ़ाने लगी थी। बस गोला से थोड़ा दूर जाना पड़ता था। वह पढ़ाने से ज़्यादा आने-जाने में थक जाती थी। घर में भी रमेश एक गिलास पानी तक ले कर नहीं, मांग कर पीता था। सो घर का बोझ अलग था। वह अब दुबली भी होती जा रही थी। उस की प्रैक्टिस अब लगभग निल थी। कई बार तो वह कचहरी जाने से भी कतराने लगा। पत्नी के साथ देह संबंधों में भी वह पराजित हो रहा था। चाह कर भी कुछ नहीं कर पाता। एक दिन उस ने पत्नी से लेटे-लेटे कहा भी कि, 'लगता है मैं नपुंसक हो गया हूं।'

पत्नी कसमसा कर रह गई। आखों के इशारों से ही कहा कि, 'ऐसा मत कहिए। पर रमेश ने थोड़ी देर रुक कर जब फिर यही बात दुहराई कि, 'लगता है मैं नपुंसक हो गया हूं।' तो पत्नी ने पलट कर कहा, 'ऐसा मत कहिए।' वह धीरे से बोली, 'अब मेरी भी इच्छा नहीं होती।' क्या पैसे की तंगी और बेकारी आदमी को ऐसा बना देती है? नपुंसक बना देती है? रमेश ने अपने आप से पूछा।

दिन बीतते रहे। अब घर में रीता के ब्याह की चिंता सब के सिर पर थी। हालां कि रीता ने घर में कहा भी कि, 'मैं भी भइया लोगों की तरह नौकरी वाले इम्तहान देना चाहती हूं।' उस ने जोड़ा भी, 'अम्मा मैं भी पी.सी.एस. बनना चाहती हूं।' धीरज भइया का मान सम्मान देख कर उस के मन में यह इच्छा जागी थी। पर मां ने उस की इच्छाओं पर पानी फेरते हुए कहा, 'जहां जाओगी, वहीं जा के पी.सी.एस. बनना। यहां अब कहां समय है। अभी मुनमुन भी है। पता नहीं तब तक क्या होगा? समय हमेशा एक सा नहीं होता।'

रीता चुप हो गई। उधर रमेश भी चुप था। पर अब वह अपनी नपुंसकता से आजिज़ आ गया था। लगातार तरकीब पर तरकीब सोचता रहा। अंततः एक दिन पत्नी से कहा, 'तुम ठीक ही कहती थीं।'

'क्या?'

'कि मुझे इम्तहान देने चाहिए।'

'पर आप तो कह रहे थे कि ओवर एज हो गए हैं।'

'नहीं अभी ज्यूडिश्यिली के इम्तहान दे सकने भर की उम्र है।'

'ओह!' वह रमेश के गले में हाथ डाल कर झूम गई। बोली, 'इस से अच्छी बात क्या होगी। और मैं बताऊं आप कर भी लेंगे।' कह कर वह लपक कर रमेश के पांव पर गिर गई। बोली, 'मैं तो आप के साथ हमेशा से थी, हूं और रहूंगी। आप अब घर समाज सब की चिंता मुझ पर छोड़िए और इम्तहान की तैयारी कीजिए।'

'दो तीन साल लग सकते हैं। पढ़ाई लिखाई से नाता छूटे आखि़र समय हो गया है। रिवाइज़ करने में ही साल भर लग जाएगा।' वह बोला, 'और पैसा भी लगेगा कापी, किताब, कोचिंग में सो अलग!'

'मेरे सारे जे़वर बेच डालिए!' वह बोली, 'पर करिए आप!' वह सुबकने लगी, 'यह अपमान और तंगी और नहीं बर्दाश्त होती!'

'ठीक है मुझ से भी अब भड़ुवागिरी और दलाली वाली यह वकालत का तमाशा और नहीं होता। ज़िंदगी भर निठल्ला बने रहने से अच्छा है कि एक बार आग में कूद ही जाऊं। देखूं क्या होता है!'

यही बात उस ने बांसगांव जा कर बाबू जी को भी बताई। तो वह बोले, 'मुश्किल तो बहुत है रमेश पर आज़मा लेने में नुक़सान भी नहीं है।' वह बोले, 'कहोगे तो खेत बारी बेंच कर तुम्हें फिर से पढ़ाऊंगा।'

'नहीं, इस की ज़रूरत शायद न पड़े।' कह कर बाबू जी के पैर छू कर वह शहर चला गया। पुराने साथियों को खोजा। एकाध कोचिंग सेंटर पर भी गया। फार्म-वार्म का पता किया। कुछ किताबें और नोट्स जुगाडे़। दो दिन बाद गोला लौट आया। प्राण-प्रण से वह पढ़ाई में जुट गया। फिर मुंसिफ़ी, एच.जे.एस. दोनों के फार्म उस ने भर दिए। यू.पी., एम.पी., बिहार, राजस्थान तमाम जगहों से। काफ़ी पैसा ख़र्च हो गया। कोचिंग में भी पैसा ख़र्च हुआ। पर उसे इस की चिंता नहीं थी। बाबू जी का आशीर्वाद और पत्नी के समर्पण भरे प्यार ने रंग दिखाया। वह दो जगह मुंसिफ़ी और एक जगह एच.जे. एस. के रिटेन में आ गया। पर इस बात को कहीं डिस्क्लोज़ नहीं किया। उस ने सोचा कि सेलेक्ट होने पर ही सब को बताएगा। नहीं सेलेक्ट न होने पर बेवजह की छींछालेदर होगी सो अलग। पत्नी को छोड़ और कोई यह बात नहीं जानता था। और दुर्भाग्य देखिए कि वह तीनों जगह इंटरव्यू में छंट गया। वह थोड़ा हताश तो हुआ पर टूटा नहीं। बोला, 'एक दो बार और ट्राई करता हूं। कानफिडेंस गेन करने में थोड़ा समय तो लगता ही है।'

'हां आप ने तो कहा ही था कि दो तीन साल लगेंगे।'

'हां।'

इसी बीच रीता की शादी भी एक इंजीनियर से तय हो गई। धीरज और तरुण दोनों ने मिल कर ख़र्च वर्च किया। विनीता भी थाईलैंड से शादी में आई और बाबू जी से बोली, 'अब तरुण की भी शादी कर दीजिए। ताकि यह न ये कहे कि मेरी शादी में नहीं आई। और आने-जाने में बार-बार ख़र्चा होता है।'

'अरे अभी रीता की तो हो जाने दो।' बाबू जी बोले, 'फिर तरुण की भी सोचते हैं।'

रीता की शादी में भी लोगों ने पाया कि रमेश और उस की पत्नी को घर वालों ने उपेक्षित ही रखा। एक पट्टीदार खुसफुसाया भी, 'इस घर में जिस के पास पैसा नहीं, उस की इज़्ज़त नहीं।' फिर भी रमेश का चेहरा विनीता की शादी की तरह धुआं-धुआं नहीं था। थोड़ा कानफिडेंस दिखा। रमेश का यह कानफिडेंस भी लोगों को रास नहीं आया।

एक जनाब बोले, 'थेथर हो गया है और बेशर्म भी!'

रमेश की पत्नी ने यह बात सुनी पर रिएक्ट करने के बजाय चुप ही रही। बहनों ने भी रमेश और उस की पत्नी को बहुत भाव नहीं दिया। हालां कि रमेश कोशिश करता कि जल्दी किसी के सामने न पड़े सो वह अनजाने बारातियों की ही देख रेख में लगा रहा। फिर बारात विदा होने के बाद ही गोला लौट गया। सपरिवार।

दूसरी बार उस ने फिर तमाम जगहों से फ़ार्म भरे। पर अब की के इम्तहान में वह कहीं रिटेन में भी नहीं आया। अब उस के टूटने की बारी थी। पत्नी को पकड़ कर वह ख़ूब रोया। पर पत्नी ने उसे ढाढस बंधाया। वह फिर से तैयारियों में लग गया।

हालां कि आर्थिक स्थिति पूरी तरह डांवांडोल हो चुकी थी। छुटपुट क़र्जे भी कोई नहीं देता था। बीवी के सारे जे़वर बिक चुके थे। लेकिन मनोबल उस का पूरा बना रहा। बाबू जी की प्रैक्टिस भी डांवांडोल थी। उधर ओमई अब किसी मंत्री से सिफ़ारिश करवा कर सरकारी वकील बन गया था। बाबू जी को और परेशान करने लगा। धीरज और तरुण की मदद से घर का ख़र्च चल रहा था। राहुल भी तरुण के साथ रह कर पढ़ने लगा था। अब बांसगांव में बाबू जी, अम्मा और मुनमुन थी। मुनमुन अब इंटर में थी। रमेश का मन हुआ कि धीरज और तरुण से वह भी कुछ दिनों के लिए ख़र्च मांग ले पर उस का ज़मीर गवारा नहीं हुआ। अंततः पत्नी गई अपने मायके और अपने भाइयों से थोड़ा-थोड़ा कर के कुछ पैसे ले आई। कुछ किताबों और कोचिंग का काम हो गया।



रमेश ने तय कर लिया कि अब की जो वह नहीं सेलेक्ट हुआ तो सपरिवार ज़हर खा कर सो जाएगा। ऐसी ख़बरें जब-तब अख़बारों में वह पढ़ता रहता था। गिरधारी राय कभी-कभी भटकते-फिरते गोला भी चले जाते। रमेश के ज़ख़्मों पर नमक छिड़कने। एक बार गए तो रमेश से बोले, 'सुना है आज कल तुम कचहरी भी नहीं जाते? मेहरी की कमाई पर खाट तोड़ते रहते हो। ऐसा कब तक चलेगा?'

रमेश चुप ही रहा। कुछ बोला नहीं। बोला वह तभी जब उस का एच.जे.एस. में फाइनली सेलेक्शन हो गया। सब से पहले वह पत्नी को ले कर मंदिर गया। फिर बांसगांव गया अम्मा बाबू जी के पांव छुए और कहा कि, 'आशीर्वाद दीजिए। एच.जे.एस. में सेलेक्शन हो गया है।' मुनक्का राय ने लपक कर रमेश को गले लगा लिया। बोले, 'आज मैं तुम्हारे अपराध से मुक्त हो गया हूं।' अम्मा एच.जे.एस. का मतलब नहीं समझीं। फिर बताया मुनक्का राय ने जब छाती चौड़ी कर के कि, 'अरे जज की नौकरी पा गया है।' तो वह मारे ख़ुशी के रोने लगीं। बोलीं, 'एह उमिर में भी जज की नौकरी मिल जाती है?'

रमेश की पत्नी ने हां की स्वीकृति में सिर हिलाया। अब वह रमेश की पत्नी को अंकवार भर के रोने लगीं। मुनक्का राय बोले, 'ई भरत मिलाप बंद भी करो और आस पास मिठाई बांटने का बंदोबस्त करो। कह तो दिया मुनक्का राय ने फिर ध्यान आया कि इतना पैसा होगा भी कहां? पर रमेश की अम्मा ने कमरे में जा कर संदूक खोला और अपने जोड़े हुए अतरधन से मुनमुन को पैसे देते हुए कहा कि, 'पांच किलो लड्डू ले आओ।'

लड्डू बंटते ही बांसगांव में सब को ख़बर हो गई कि मुनक्का राय का बड़का बेटा भी जज हो गया है। गिरधारी राय को जब किसी ने बताया कि रमेश भी एच.जे.एस. में सेलेक्ट हो गया है तो वह मुंह बा गए। बोले, 'एच.जे.एस. मतलब?'

'हायर ज्यूडिशियल सर्विस!'

'तो हाई कोर्ट में जज?' वह लगभग बौखलाए।

'अरे नहीं भाई आप तो एल.एल.बी. पढ़े हैं, इतना भी नहीं जानते?'

'नहीं भाई बताइए तो?'

'अरे सीधे एडिशनल जज होगा। मुंसिफ़-वुंसिफ़ नहीं।'

'अच्छा-अच्छा।' उन्हों ने जैसे संतोष किया, 'हाई कोर्ट में नहीं न!'

'नहीं।'

जैसे धीरज के पी.सी.एस. होने पर बांसगांव झूम गया था, अख़बारों में ख़बर छपी थी, वैसा कुछ रमेश के एच.जे.एस. होने पर तो नहीं हुआ पर मुंसिफ़ मजिस्ट्रेट ज़रूर मुनक्का राय के घर आए। बधाई देने। रमेश से वह 'सर-सर' कर के मिले और बोले, 'क्या पता सर कभी आप के साथ काम करने का मौक़ा मिले हमें भी।'

'बिलकुल-बिलकुल।' रमेश भी उन से पानी की तरह मिला। भाइयों को जब पता चला तो सब ने फ़ोन कर के रमेश को बधाई दी। विनीता ने भी थाईलैंड से फ़ोन किया। भाई सब बाद में बांसगांव भी आए। फिर रमेश ने एक दिन पत्नी से कहा कि 'चलो अब गोला चलें।'

'अब भी गोला?' पत्नी ने जैसे इंकार कर दिया।

'चलना तो पड़ेगा।' रमेश बोला, 'अभी सेलेक्शन हुआ है। पर हमारी अग्नि-परीक्षा ख़त्म नहीं हुई है।'

'मतलब?'

'अभी ट्रेनिंग के लिए बुलावा जाने कब आएगा। हो सकता है कुछ महीने लगें। क्या पता साल लग जाए। फिर ट्रेनिंग होगी। फिर कहीं पोस्टिंग!' वह बोला, 'तब तक यहां क्या करेंगे?'

रमेश गोला पहुंचा तो वाया बांसगांव वहां के वकीलों में यह ख़बर पहुंच चुकी थी। छोटी जगहों के यही सुख हैं कि ज़रा सी अच्छी ख़बर मिलते ही एक-एक आदमी जान जाता है। उस के देखने का नज़रिया बदल जाता है। अब रमेश गोला में वकील साहब से जज साहब बन चला था। ऐसा जज जिसे कोई भी छू कर देख सकता था। नहीं तो छोटी क्या बड़ी जगहों पर भी आम लोग जजों की परछाई भी नहीं देख पाते। उधर रमेश की पत्नी के स्कूल में भी उस की इज़्ज़त बढ़ गई थी। उस का भी प्रमोशन हो गया था। वह अब मस्टराइन या वकीलाइन से जजाइन बन गई थी। लोग खुद ही कहते, 'हां भई जजाइन तो अब यहां कुछ ही दिनों की मेहमान हैं।'

लेकिन दिल्ली थी कि दूर होती जा रही थी। ट्रेनिंग में बुलावे का इंतज़ार लंबा होता जा रहा था। माली हालत निरंतर बिगड़ती जा रही थी। जज होने का उल्लास पैसे के अभाव में टूटता जा रहा था। ख़ैर, कुछ महीने बाद ट्रेनिंग का लेटर आ गया। ट्रेनिंग के बाद पोस्टिंग भी हो गई। रमेश गया गोला परिवार और सामान लेने। गाढ़े समय में सब को मदद के लिए धन्यवाद दिया। पत्नी के स्कूल वाले चाहते थे कि वह उस के स्कूल भी आ जाए। वह गया भी। एक छोटा मोटा अभिनंदन समारोह हो गया। उस ने अपने संबोधन में अपनी सफलता के लिए इस स्कूल का योगदान रेखांकित किया। कहा कि, 'मेरी प्रैक्टिस तो कुछ ख़ास चलती नहीं थी। बाद के दिनों में तो मैं ने कचहरी जाना तक बंद कर दिया था। तो इस स्कूल में मेरी पत्नी की नौकरी से ही हमारी गृहस्थी, हमारी रोटी दाल चली। इस स्कूल के कारण ही हम सीना तान कर जी पाए। और यहां तक पहुंच पाए। इस स्कूल को मैं ज़िंदगी भर नहीं भूलूंगा। आप लोग जब भी, जैसे भी याद करेंगे, बुलाएंगे मैं हमेशा-हमेशा आप के पास आऊंगा, आप के साथ रहूंगा।' बोलते समय उस ने मंच पर बैठी पत्नी की ओर कनखियों से देखा, उस की आंख डबडबा आई थी। शायद मारे ख़ुशी के। स्कूल से चलते समय पत्नी ने प्रिंसिपल को इस्तीफ़ा सौंप दिया था।

उसे उम्मीद थी कि गोला और बांसगांव कचहरी के वकील भी बार एसोसिएशन की तरफ से शायद उस को स्वागत के लिए बुलाएं। पर किसी ने नोटिस भी नहीं ली। बुलाना तो दूर की बात थी। सामान कुछ ख़ास था नहीं। पर एक पिकअप वैन में भर कर जब वह पत्नी के साथ चला तो बोला, 'चलो यहां से आबोदाना उठ गया। देखो अब ज़िंदगी कहां-कहां ले जाती है।' पत्नी मुसकुरा कर रह गई।

'मैं नहीं जानता था कि आदमी का अपमान भी उसे तरक्क़ी के रास्ते पर ले जा सकता है। अब यह भी जान गया।' रमेश बोला, 'बताओ ये हमारे घर वाले, ये समाज, रिश्तेदार, पट्टीदार और ख़ास कर धीरज ने हमें अगर इतना अपमानित नहीं किया होता तो क्या हम आज जज साहब कहे जाते?' उस ने पत्नी को बांहों में भरते हुए कहा, 'और तुम्हारा प्यार, तुम्हारा समर्पण और तुम्हारा संघर्ष जो मेरे साथ नहीं होता तब भी नहीं। बल्कि मैं तो मर गया होता।' वह ज़रा रुका और बोला, 'एक बार तो मैं ने तय किया था कि जो अब की सेलेक्ट नहीं हुआ तो सपरिवार जीवन समाप्त कर लूंगा। यह अपराध तुम्हें आज बता रहा हूं।'

'अब तो ऐसा मत बोलिए।' कहते हुए पत्नी ने रमेश के मुंह पर हाथ रख दिया।

बाहुबली ठाकुरों के इस गांव बांसगांव, जो तहसील भी थी, में अब मुनक्का राय की धाक जम गई थी। बीच में जो लोग उन से कतराने लगे थे वह भी अब उन्हें प्रणाम करने लगे थे। कचहरी में ओमई भी अब बुझा-बुझा रहने लगा। मुनक्का राय को पहले देखते ही सीना तान कर चलने लगता था, अब सिर झुका लेता था और 'चाचा जी प्रणाम!' कह कर पैर भी छूता था।

पर गिरधारी राय?

उनकी हेकड़ी अभी भी बरक़रार थी। इतना सब होने पर भी वह मुनक्का राय को नीचा दिखाने का कोई मौक़ा नहीं चूकते थे। सिल्क का कुर्ता-जाकेट और टोपी लगाए अब वह नेता नाम से जाने जाने लगे थे। जाने क्यों क्या घर, क्या बाहर लोग उन्हें नेता जी नहीं, सिर्फ़ नेता ही कहते। और नेता को इस पर कोई विशेष ऐतराज़ भी नहीं था। बहुत बार लोग उन्हें नेता बाबा, नेता भइया या नेता चाचा कह कर संबोधित करते। और वह खैनी मलते, फटकते, फूंकते, खाते, थूकते मगन रहते। जब-तब तेज़ आवाज़ में हवा ख़ारिज करते घूमते रहते। कई बार तो वह जैसे कपड़े का थान फाड़ने जैसी आवाज़ लगातार करते। दिन गुज़रते जा रहे थे और बांसगांव की सांस में दोनों चचेरे भाइयों की पट्टीदारी राणा प्रताप बनी चेतक पर चढ़ी हुई थी। यह इबारत कोई भी साफ़ पढ़ सकता था।

पढ़ाई खत्म ही की थी राहुल ने कि उस की शादी का भी समय आ गया। विनीता ने शादी तय करवाई थी। लड़की थी तो इसी ज़िले की मूल पर थाईलैंड में थी। उस के माता पिता दो पीढ़ियों से वहीं थे। सो वह वहीं पैदा हुई और वहीं की नागरिक थी। राहुल को फ़ायदा यह था कि थाईलैंड की इस लड़की से शादी करने पर उसे वहां की नागरिकता मिल जाती और नौकरी भी आसानी से मिल जाती। बाक़ी भाइयों की तरह कंपटीशन वग़ैरह के मूड में वह नहीं था। वह फटाफट सब कुछ हासिल कर लेना चाहता था। रमेश और धीरज दोनों ने उसे समझाया और कहा कि, 'वैसे शादी करना चाहते हो तो कोई हर्ज नहीं। पर अगर इस लालच में कर रहे हो कि थाईलैंड की नागरिकता मिल जाएगी और वहां नौकरी पा जाओगे तो ऐसा मत करो।' पर राहुल को विनीता ने इस क़दर कनविंस कर लिया था कि वह किसी की सुनने को तैयार नहीं हुआ। मुनक्का राय ने भी संकेतों में ही सही कहा कि, 'टैलेंटेड हो, कैरियर अच्छा है। भाइयों की तरह कम्पटीशन में बैठो। कहीं न कहीं सेलेक्ट भी हो जाओगे।' उन्हों ने जोड़ा भी कि, 'अगर रमेश बुढ़ौती में भी सफलता प्राप्त कर सकता है तो तुम तो अभी गबरू जवान हो। अपनी एम.एस.सी. गारत मत करो इस तरह!'

लेकिन राहुल पर विनीता का जादू चल गया था।

अंततः लड़की वाले थाईलैंड से आए और राहुल को ब्याह ले गए। जी हां, जैसे लड़के वाले लड़की ब्याह कर ले जाते हैं वैसे ही राहुल की ससुराल वाले राहुल को ब्याह कर ले गए। बस ब्याह के बाद कोई दो महीने इंडिया में रहने का प्रोग्राम दुल्हन का पहले ही से बन कर आया था। कोर्ट मैरिज और वीज़ा आदि की फार्मेलिटीज़ के लिए। पासपोर्ट राहुल ने पहले ही से बनवा रखा था।

ख़ैर, इस शादी में मुनक्का राय को बाक़ी लड़कों की अपेक्षा दहेज आदि भी पर्याप्त रूप से मिला। आखि़र लड़का ए.डी.जी., ए.डी.एम. और बैंक मैनेजर का भाई था। लड़की वालों के पास थाईलैंड की कमाई थी और उसे दिखाने का शौक़ भी। धूमधाम से शादी हुई। बारात बांसगांव से शहर को गई। बारात में द्वारपूजा के बाद जज साहब, और उन के चाचा की खोज हुई। दोनों ग़ायब। दो तीन घंटे तक दोनों की यहां वहां खोज हुई। कहीं पता नहीं। बारात में गुपचुप सन्नाटा पसर गया। नौबत अब पुलिस में रिपोर्ट करने की आ गई। पर एक वकील साहब ने राय दी कि 'जल्दबाज़ी नहीं की जानी चाहिए। थोड़ी देर और इंतज़ार कर लिया जाए। रिपोर्ट तो बाद में भी लिखवाई जा सकती है।' बारात में सन्नाटा बढ़ता जा रहा था। सारी बारात की ख़ुशी मातम में बदल रही थी। द्वारपूजा के बाद रस्में रुक गई थीं। लोग कह रहे थे कि बांसगांव से तो दोनों ही चले थे। फिर तय हुआ कि बांसगांव घर पर फ़ोन कर के पूछ लिया जाए। लेकिन मुनक्का राय ने यह कह कर फ़ोन करने से रोक दिया कि, 'घर में सिर्फ़ औरतें हैं। और रो पीट कर पूरा बांसगांव इकट्ठा कर लेंगी। बदनामी भी होगी और भद्द भी पिटेगी।'

खाना-पीना हो चुका था। घराती बार-बार आ कर बारात में आगे की रस्मों के लिए ज़ोर डाल रहे थे। अगली रस्म त्याग-पात की थी जिसे पंडित जी लोग कन्या निरीक्षण कहते थे। इस रस्म को दुल्हे का बड़ा भाई संपन्न करवाता है। पर यहां बड़के भइया यानी जज साहब ही ग़ायब थे। सो जनवासे में मुर्दनी छाई पड़ी थी। एक आदमी ने तजवीज़ की कि ए.डी.एम. साहब या बैंक मैनेजर साहब से ही यह रस्म पूरी करवा ली जाए। पर ए.डी.एम. साहब यानी धीरज धीरे से बोला, 'जज साहब को आ जाने दीजिए।'

जज साहब आए अपने चाचा जी के साथ रात के कोई बारह बजे। सब की जान में जान आई। पता चला कि चाचा जी ने एक कुर्ता सिलने के लिए उर्दू बाज़ार में ख़ास दर्जी मटका टेलर्स को दिया था। ख़ास इसी बारात के लिए। दुकान पर पहुंचे तो पता चला कि जो दर्जी उस कुर्ते को सिल रहा था, उस दिन आया नहीं था। और कुर्ता चूंकि हाथ से सिलना था सो वह घर पर लेता गया था। और घर उस का शहर के पास ही एक गांव में था। चाचा जी अब उस के गांव गए। जज साहब की कार साथ में थी ही। दर्जी के गांव गए तो कुर्ते में कुछ काम बाक़ी था। काम करवाया। कुर्ता पहना और चले। रास्ते में जाम मिल गया। जाम से निकले तो गाड़ी ख़राब हो गई। फिर रिक्शा लिया और बारात में पहुंचे। मुनक्का राय यह सब सुन कर बहुत नाराज़ हुए। पर मौक़े की नज़ाकत देख कर बहुत बोले नहीं। उधर दुल्हा राहुल भी जज साहब पर कुपित हुआ। उन की वजह से उस की शादी में खरमंडल हो गया। यह बात वह आगे के दिनों में भी कभी नहीं भूला।

ख़ैर, शादी हुई। औपचारिकताएं पूरी हुईं। कोर्ट मैरिज और वीज़ा हुआ। राहुल को ले कर उस की दुल्हन थाईलैंड उड़ गई। अब बांसगांव में रह गए मुनक्का राय, उन की पत्नी और बेटी मुनमुन राय।

यह भी एक अजब संयोग था कि जैसे मुनक्का राय का परिवार बांसगांव में धीरे-धीरे जनसंख्या में कम हुआ, ठीक वैसे ही बांसगांव तहसील का भी क्षरण हो रहा था। आस पास के क़स्बे बढ़ रहे थे, विस्तार के पंख लगाए। पर बांसगांव ठिठुर रहा था, सिकुड़ रहा था। देश की जनसंख्या बढ़ रही थी, पर बांसगांव की न सिर्फ़ जनसंख्या बल्कि तहसील का रक़बा भी घट रहा था। 1885 में बनी इस तहसील में पहले लगभग बाइस सौ कुछ गांव थे। 1987 में दो नई तहसीलें गोला और खजनी बन जाने से अब बांसगांव में सिर्फ़ चार सौ पचीस गांव ही रह गए। कहां तो तमाम तहसीलें ज़िला बन रही थीं, कहां बांसगांव अपने तहसील होने के अस्तित्व पर ही हांफ रहा था।

1904 में बनी तहसील की बिल्डिंग भी ख़स्ताहाल हो चली थी। लेकिन बांसगांव के बाबू साहब लोगों की दबंगई और गुंडई अभी भी अपनी शान और रफ़्तार पर थी। और यह शान और रफ़्तार इतनी थी कि बांसगांव बसने के बजाय उजड़ रहा था। कोई व्यवसायी यहां फूलता फलता नहीं दिखता था। कोई उद्योग या रोज़गार था नहीं। ले दे कर एक कचहरी, एस.डी.एम. का दफ़्तर और कोतवाली थी। पोस्ट आफ़िस, ब्लाक का दफ़्तर और प्राथमिक चिकित्सालय था। एक लड़कों का और दूसरा लड़कियों का इंटर कालेज और एक प्राइवेट डिग्री कालेज था। पर इन सब के भरोसे कहीं आबादी बसती है? सड़कों में एक-एक फ़ीट के गडढ़े। दूसरे, बाबू साहब लोगों की दबंगई। उन की रंगदारी। चाय पी लें, पान खा लें। पैसा न दें। ग़लती से दुकानदार पैसा मांग ले तो उस को लातों-जूतों धुन दें। बाबू साहब लोग यहां पहले दर्जे के नागरिक थे। बाक़ी लोग दूसरे-तीसरे दर्जे के नागरिक। तिस पर कब गोली-बंदूक़ चल जाए कोई नहीं जानता था।

शहर की यूनिवर्सिटी में उन दिनों एक यह वाक़या अकसर घटता था। अव्वल तो बाबू साहब लोग पढ़ाई में यूनिवर्सिटी तक पहुंचते कम थे। पहुंचते भी थे तो पूरी दबंगई के साथ। बग़ल के ज़िले में भी दो गांव कईन और पैना बाबू साहब लोगों के ही थे। यूनिवर्सिटी में दबंगई चलती और अगला बताता कि हमारा घर कईन है तो लोग चुप लगा जाते। लेकिन अगर कोई दूसरा दबंग आ जाता और उस से कहता कि, 'तुम्हारा घर कईन है न? हमारा घर पैना है।' तो कईन वाला चुप हो जाता। और जो तीसरा आ कर बताता कि, 'हमारा घर बांसगांव है!' तो पैना वाला भी चुप हो जाता। तो यह थी बांसगांव की तासीर!

वैसे भी आस पास के गांवों में एक बात बड़ी मशहूर थी कि अगर सुबह-सबेरे कोई बांसगांव का नाम ले ले तो उसे दिन भर पानी नसीब नहीं होता। खाना तो दूर की बात। बांसगांव मतलब विपत्ति। बल्कि विपत्ति का पिटारा। मुनक्का राय के गांव में तो एक बुज़ुर्ग बड़े ठसके से कहते कि, 'मैं ने बांसगांव नहीं देखा है। आज तक नहीं गया।' कोई लड़का पूछ लेता तो गुस्सा हो जाते। कहते, 'कोई चोर चकार हूं क्या जो बांसगांव जाऊं?' मुख़्तसर में बांसगांव क्या था पूरा तालिबान था।

और ऐसे बांसगांव में मुनमुन जवान हो गई थी। अब हम कइसे चलीं डगरिया लोगवा नज़र लड़ावे ला गाना जो वह बचपन में सुन चुकी थी, उस की जवानी में साकार हो रहा था। उस की शेख़ी भरी शोख़ी बांसगांव में एक नई सनसनी परोस रही थी। कोई रोक छेंक नहीं थी। सहेलियां टोकतीं तो वह कहती- ख़ुदा जब हुस्न देता है, नज़ाकत आ ही जाती है।

मुनक्का राय और उन के अफ़सर बेटे उस के इस हुस्न और नज़ाकत से बेख़बर थे। राहुल की शादी के बाद भाइयों में जाने बारात में कुर्ते वाली घटना से या किस से मनमुटाव के बीज पड़ गए थे। या उन की व्यस्तता और शहरों की दूरी उन्हें दूर कर रही थी, समझना कठिन था। पर यह फ़र्क़ मुनक्का राय साफ़ महसूस कर रहे थे। अब न जज साहब, न ए.डी.एम. साहब, न बैंक मैनेजर साहब के फ़ोन आने कम हो गए थे बल्कि घर कैसे चल रहा है इस की सुधि भी कोई नहीं ले रहा था। अलबत्ता थाईलैंड से राहुल का फ़ोन हफ़्ते में एक दो बार ज़रूर आ जाता। बाद के दिनों में जब अम्मा ने घर ख़र्च और बीमारी, दवा की दिक्क़तें बताईं तो राहुल रेगुलर तो नहीं पर जब तब पैसे भी भेज देता। हवाला के ज़रिए। लेकिन जैसे बांसगांव की स्थिति बिगड़ रही थी, वैसे ही मुनक्का राय के घर की आर्थिक स्थिति भी बदतर होती जा रही थी। और ऐसे में जब फ़ोन का बिल चार हज़ार रुपए से अधिक का आ गया तो मुनक्का राय का माथा ठनका।

वह टेलीफ़ोन आफ़िस जा कर भिड़ गए और बताया कि, 'फ़ोन आता ज़्यादा है, किया कम जाता है।' पर एस.डी.ओ. कुछ सुनने को तैयार नहीं था। उस का कहना था, 'कम्प्यूटराइज़ बिल है इस में कुछ नहीं किया जा सकता। आगे से काल पर कंट्रोल कीजिए।' इस पर मुनक्का राय बोले, 'पर इस बिल को कहां से जमा करूं?'

'अरे आप के बेटे इतने बड़े-बड़े ओहदों पर हैं दिक्क़त क्या है?'

'अब क्या दिक्क़त हम बताएं आप को? और क्या समझेंगे आप?' मुनक्का राय तिलमिलाए।

'समझा नहीं।' एस.डी.ओ. बोला।

'अरे, अब किस बेटे के आगे हाथ फैलाऊं कि वह टेलीफ़ोन का बिल जमा करवा दे?'

'ओह!' एस.डी.ओ. समझ गया मुनक्का राय की मुश्किल। बोला, 'लाइए इस को दो पार्ट में कर देता हूं। दो बार में जमा कर दीजिएगा। पर फ़ोन पर या तो डायनमिक लाक ले लीजिए या बाज़ार वाला ताला लगा लीजिए। नहीं यह दिक्क़त हर बार आएगी।'

'क्यों आएगी?'

'क्यों कि फ़ोन तो हो रहा है। चाहे घर वाले कर रहे हों या बाहर वाले।'

'ठीक है।'

घर आ कर उन्हों ने समस्या बताई तो मुनमुन भड़क गई। बोली, 'मैं कहीं फ़ोन सोन नहीं करती।'

'मैं करता नहीं, तुम्हारी अम्मा करती नहीं, तुम करती नहीं तो कौन करता है? क्या भूत करता है?'

'अब हमें क्या मालूम?' मुनमुन फिर भड़क गई।

मुनक्का राय बेटी के इस भड़कने से व्यथित हो गए। डायनमिक लाक के कोड वग़ैरह उन को समझ में नहीं आए सो बाज़ार से ताला ला कर फ़ोन में लगा दिया। अगली बार बिल डेढ़ हजार रुपए का आया। मुनक्का राय ने फिर घर में झांय-झांय की और धमकी दी कि, 'अगर अगली बार भी बिल बढ़ा हुआ आया तो फ़ोन कटवा दूंगा।' पर टेलीफ़ोन का बिल चंद्रमा की तरह घटता-बढ़ता रहा लेकिन एवरेज बिल पर नहीं आया। दिक्क़त यह थी कि फ़ोन कटवाना भी व्यावहारिक नहीं था। बच्चों से संपर्क का यही एक सेतु था। ख़ास कर थाईलैंड में राहुल से संपर्क का। पर मुनमुन थी कि मान नहीं रही थी। इधर मुनक्का राय ने नोट किया कि राहुल के एक पुराने दोस्त का उन के घर आना जाना कुछ ज़्यादा ही बढ़ गया था। उन्हों ने पत्नी से पूछा भी कि, 'यह इतना हमारे घर क्यों आता जाता है।'

'राहुल का दोस्त है। हालचाल लेने आ जाता है।' पत्नी ने बताया।

'पर राहुल के रहने पर भी इतना नहीं आता था, अब क्यों आता है?' उन्हों ने पूछा कि, 'हमारे घर के हालचाल से इस को क्या मतलब?'

'आप तो बिना वजह शक करते हैं।'

'शक नहीं कर रहा। लेकिन घर में एक जवान बेटी है। फ़िक्र तो करनी ही पड़ती है।'

इधर मुनक्का राय की फ़िक्र, उधर बांसगांव की सड़कों पर मुनमुन राय का ज़िक्र। दोनों ही का ग्राफ़ बढ़ता जा रहा था। होने को विनीता और रीता भी इसी बांसगांव में जवान हुई थीं। पर मुनक्का राय को कभी उन की फ़िक्र नहीं करनी पड़ी। भाइयों का निरंतर बांसगांव आना-जाना और जब-तब बांसगांव में ही रह जाना एक बड़ा फ़ैक्टर था। उन दोनों बहनों को इस तरह बहकते-चहकते नहीं देखा बांसगांव ने। उन का ज़िक्र बांसगाव की सड़कों ने नहीं सुना। अंकुश में थी उन की जवानी और जवानी की धड़कन। लेकिन मुनमुन राय?

एक तो जज, अफ़सर और बैंक मैनेजर की बहन होने का ग़ुरूर। दूसरे, बूढ़े माता-पिता का ढीला अंकुश। तीसरे, जवानी का जादू। जिस में किसी दूसरे की रोक-टोक सिर्फ़ और सिर्फ़ ज़हर लगती है। मुनमुन को भी लगती थी। अब वह बी.ए. फ़ाइनल में पढ़ती थी और बांसगांव की सरहद लांघते ही राहुल के उस दोस्त की बाइक पर देखी जाती। कभी किसी मक्के के खेत में, कभी गन्ने या अरहर के खेत में उस के साथ बैठी बतियाती दिख जाती। और जब अकेले भी होती तो गाती चलती, 'सइयां जी दिलवा मांगे लैं अंगोछा बिछाई के।' वह गाती जाती, 'हम दिल दे चुके सनम!' अब वह मेक-अप भी ख़ूब करने लगी थी। बांसगांव में जब उस को कोई नया आदमी देखता और किसी से पूछता कि, 'कवन है ई भइया!' तो दूसरा जवाब देता, 'अरे अफ़सर और जज की बहन है।' फिर जोड़ता, 'मत देखो उधर नहीं, सब आंख निकाल लेंगे।'

पर बात जब ज़्यादा बढ़ी तो मुनक्का राय ने एक दिन घर में उस की जम कर क्लास ली। मुनमुन जवाब में कुछ कहने के बजाय सीधे उन के गले में दोनों हाथ डाल कर झूल गई। बिलकुल किसी नन्हीं गुड़िया की तरह। और बोली, 'लोगों की बातों में क्यों जाते हैं बाबू जी। क्या हम पर आप को विश्वास नहीं है।' वह बोली, 'किसी के साथ बाइक पर बैठ जाने या कहीं बैठ कर बात करने भर से क्या कोई लड़की आवारा हो जाती है? सोसाइटी बदल रही है बाबू जी, आप भी बदलिए। ये सड़े गले दक़ियानूसी ख़याल दिमाग़ से निकाल कर बाहर फेंक दीजिए। और हम पर विश्वास कीजिए।'

मुनक्का राय मान गए। रीझ गए बेटी के इस आधुनिक ख़याल पर। मिट गए उस के इस भोलेपन पर। पिता के वात्सल्य प्रेम का चश्मा उन की आंखों पर चढ़ गया। उन्हों ने अभी तक जैसे सभी बच्चों पर विश्वास किया था, आंख मूंद कर, मुनमुन पर भी कर लिया। उन्हीं दिनों वह अपने गांव गए। घर तो गिर कर घूर बन गया था। लेकिन खेती जो बटाई पर थी, उसी का हिसाब किताब करने। वहीं पता चला कि गांव के प्राइमरी स्कूल में शिक्षा मित्र की भर्ती होनी है। और कि गिरधारी राय अपनी एक बहू को शिक्षा मित्र प्रस्तावित करवा रहे हैं। मुनक्का राय के कान खड़े हो गए। उन्हों ने वहीं तय कर लिया कि गिरधारी को पटकनी देनी है। और चाहे जो हो जाए उन की बहू को शिक्षा मित्र नहीं बनने देना है। मुनक्का राय की आर्थिक स्थिति अभी बिगड़ रही थी, पर गिरधारी राय की आर्थिक स्थिति चरमरा गई थी। मुनक्का राय के पास बेटों की एक परदेदारी भी थी और वक्त बेवक्त बेटे काम भी आ सकते थे। आते ही थे। पर गिरधारी राय के सारे बेटे निकम्मे हो चुके थे, एक ओमई को छोड़ कर। और ओमई के यहां भी कोई पैसा बरस नहीं रहा था। वह भी जैसे तैसे गाड़ी खींच रहा था।

बहरहाल, मुनक्का राय ने निचले स्तर पर ग्राम प्रधान वग़ैरह के बजाय शहर जा कर सीधे बेसिक शिक्षा अधिकारी से मिलने की सोची। हालां कि इन दिनों हो यह गया था कि आदमी ज़िलाधिकारी से तो फिर भी मिल सकता था पर बेसिक शिक्षा अधिकारी तो गूलर का फूल था, ईद का चांद था। उस से मिलना भगवान से मिलना था। ख़ैर, बड़ी कोशिशों के बाद बेसिक शिक्षा अधिकारी मुनक्का राय को मिल गया। उन्हों ने अपने जज और ए.डी.एम. बेटे का हवाला दिया और बेटी मुनमुन को शिक्षा मित्र बनाने का प्रस्ताव रखा। बेसिक शिक्षा अधिकारी मुनक्का राय के पी.सी.एस. बेटे धीरज को जानता था। किसी ज़िले में कभी दोनों एक साथ थे। उस ने मुनक्का राय को पूरा आदर दिया और कहा कि, 'ऐसे भाइयों की बहन को शिक्षा मित्र बनना शोभा नहीं देगा।'

'पर हमारे सभी बच्चे स्वाभिमानी हैं। संघर्ष कर के ही आगे बढ़े हैं यह भी जगह पा जाएगी तो आगे बढ़ेगी। और फिर कोई यह शिक्षा मित्र की नौकरी ही तो अंतिम नहीं है। वह कंपटीशंस में बैठेगी, मेहनत करेगी और ज़रूर कहीं न कहीं हो जाएगी।' मुनक्का राय ने बेसिक शिक्षा अधिकारी को झांसा दिया। और वह मान गया। पर इधर मुनमुन तैयार नहीं थी। उस ने भी यही तर्क दिया कि जज और अफ़सर की बहन हो कर इतनी छोटी नौकरी। शिक्षा मित्र की नौकरी? मुनक्का राय ने समझाया कि अपने पैरों पर खड़ी होओगी और कि कोई काम छोटा या बड़ा नहीं होता। अंततः मुनमुन भी मान गई।

मुनक्का राय ने अप्लीकेशन तैयार करवाया, सर्टिफ़िकेटों की फ़ोटो कापी नत्थी की और दे आए बेसिक शिक्षा अधिकारी को। मुनमुन राय अब अपने गांव के स्कूल की शिक्षा मित्र हो गई। गिरधारी राय ने जब यह सुना तो अकबका गए। एक नज़दीकी से बोले भी कि, 'ई मुनक्का ने हम को पटकनी दी है। नहीं उस को क्या ज़रूरत थी अपनी बेटी को शिक्षा मित्र बनवाने की।' खैनी बगल में कोना देख कर थूकते हुए उन्हों ने जैसे जोड़ा, 'ज़रूरत तो हम को थी।' मुनमुन राय शिक्षा मित्र भले ही हो गई थी पर गिरधारी राय को उम्मीद थी कि वह यह नौकरी ज़्यादा दिन नहीं चला पाएगी। दो कारणों से। एक तो बांसगांव से गांव आते-जाते उस का पाउडर छूट जाएगा। फिर भी नहीं मानी तो शादी के बाद तो छोड़ेगी ही। वैसे उन्हों ने इसी बहाने मुनक्का के घर में भेद डालने की एक चाल भी चली। धीरज को गांव के एक आदमी से फ़ोन करवा कर यह ख़बर परोसवाई यह पूछते हुए कि, 'क्या तुम लोगों की कमाई कम पड़ रही थी जो फूल सी बहन को शिक्षा मित्र बनवा दिया?'

धीरज यह ख़बर सुनते ही भड़क गया। पलट कर बांसगांव फ़ोन किया। बाबू जी नहीं मिले, न ही मुनमुन। अम्मा मिलीं। अम्मा से ही उस ने अपना विरोध दर्ज किया। पर अम्मा ने एक सवाल कर उस की बोलती बंद कर दी। अम्मा बोलीं, 'बाबू तुम्हारे बाबू जी की प्रैक्टिस अब कितनी चलती है, तुम अब भले न जानो, पूरा बांसगांव जानता है। तुम जब मास्टर थे तो घर ख़र्च चलाते थे। अब अफ़सर होने के बाद घर का ख़र्च कैसे चल रहा है तुमने पूछा कभी?'

'हम सोचे कि जज साहब हैं, तरुण हैं और अब तो राहुल भी है।' दबी जबान में धीरज बोला।

'और वह सब सोचते हैं कि तुम हो।' अम्मा बोलीं, 'बाबू एक राजा था। उस ने सोचा कि वह दूध से भरा एक तालाब बनवाए। तालाब खुदवाया और प्रजा से कहा कि फला दिन सुबह-सुबह राज्य की सारी प्रजा एक-एक लोटा दूध इस तालाब में डालेगी। यह अनिवार्य कर दिया। प्रजा तुम्हीं लोगों जैसी थी। एक आदमी ने सोचा कि सब लोग दूध डालेंगे ही तालाब में हम अगर एक लोटा पानी ही डाल देंगे तो कौन जान पाएगा? उस ने पानी डाल दिया। राजा ने दिन में देखा पूरा तालाब पानी से भर गया था। दूध का कहीं नामोनिशान नहीं था। तो बाबू तुम्हारे बाबू जी अपने परिवार के वही राजा हैं। सोचते थे कि सब बेटे लायक़ हो गए हैं थोड़ा-थोड़ा भी देंगे तो बुढ़ापा सुखी-सुखी गुज़र जाएगा। पर जब उन की आंख खुली तो उन्हों ने देखा कि उन के तालाब में तो पानी भी नहीं था। यह कैसा तालाब खोदा है तुम्हारे बाबू जी ने बेटा मैं आज तक नहीं समझ पाई।' कह कर अम्मा रोने लगीं।

धीरज ने फ़ोन रख दिया था। शाम को जब कचहरी से मुनक्का राय लौटे तो चाय पानी के बाद पत्नी ने बताया कि, 'धीरज का फ़ोन आया था। मुनमुन की नौकरी से बहुत नाराज़ है।' पर मुनक्का राय ने पत्नी की बात को अनसुना कर दिया। प्रत्यक्ष रूप से मुनक्का राय ने मुनमुन को शिक्षा मित्र की नौकरी दिलवा कर गिरधारी को पटकनी भले दे दी थी पर अप्रत्यक्ष रूप से घर में एक निश्चित आमदनी का स्रोत भी खोला था। यह भी एक निर्मम सच था। सच यह भी था कि मुनमुन राय छोटी हो कर भी, लड़की हो कर भी उन के बुढ़ापे की लाठी बन गई थी। धीरे-धीरे मुनमुन राय का भी इस आर्थिक वास्तविकता से वास्ता पड़ने लगा। शिक्षा मित्र के वेतन को मुनमुन पहले जेब ख़र्च के रूप में उड़ाने लगी। फिर कभी-कभी मिठाई और फल लाने लगी घर में। बाद में सब्ज़ी भी लाने लगी कभी-कभी। फिर नियमित। और अब सब्ज़ी ही नहीं साबुन-सर्फ़ और बाबू जी की दवाई भी लाने लगी। पहले के दिनों में वह सोचती कि कैसे ख़र्च करे वह यह पैसा। अब के दिनों में वह सोचती कि कैसे ख़र्च चलाए वह इन पैसों से।

फ़र्क़ आ गया था मुनमुन राय के ख़र्च में, सोच में और चाल में। बांसगांव की सड़क यह दर्ज कर रही थी। किसी ज़मीन की खसरा, खतियौनी, चौहद्दी और रक़बा की तरह। वह अब गा रही थी, 'ज़माने ने मारे हैं जवां कैसे-कैसे!' वह अब जी भी रही थी और मर भी रही थी। उसे लग रहा था कि बाबू जी और अम्मा की तरह वह भी अब बूढ़ी हो रही है। बाबू जी और अम्मा का आर्थिक संघर्ष उस का संघर्ष बन चुका था। उस की शेख़ी भरी शोख़ी को संघर्ष का सर्प जैसे डस रहा था। एक दिन रात में खाना खाने के बाद वह बाबू जी के पास आ कर बैठ गई। बोली, 'बाबू जी मैं एल.एल.बी. कर लूं?' बाबू जी हंसते हुए बोले, 'तुम एल.एल.बी. कर के क्या करोगी?'

'आप का हाथ बंटाऊंगी!'

'तो शिक्षा मित्र की नौकरी छोड़ दोगी?' पूछते हुए मुनक्का राय डर गए।

'नहीं-नहीं।' वह बोली, 'मैं इवनिंग क्लास ज्वाइन करना चाहती हूं। और क्लास में जाऊंगी कम, घर में ज़्यादा पढ़ूंगी। और जो कुछ फंसेगा तो आप तो हैं ही बताने के लिए।'

'वो तो है। पर शहर जाना और फिर रात में आना। यह सब मुश्किल है। फिर यह बांसगांव है। लोग क्या कहेंगे?'

'लोगों का तो काम है कहना!' वह ठनक कर फ़िल्मी गाने पर आ गई, 'कुछ तो लोग कहेंगे!'

'यह तुम बाप से बात कर रही हो या फ़िल्मी डायलाग मार रही हो।'

'आप से बात कर रही हूं।' वह बोली, 'फ़िल्मी गाने का भाव डाल रही हूं और आप को बता रही हूं कि किसी के कुछ कहने सुनने का मुझ पर फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला।'

'ठीक है।' मुनक्का राय बोले, 'बेटी तुम्हें जो करना हो करो।' पर अब बांसगांव में वकालत का कोई भविष्य नहीं है। मुक़दमे घटते जा रहे हैं और वकील बढ़ते जा रहे हैं। वह बोले, 'फिर यहां कोई महिला वकील नहीं है। महिलाओं के लिए शायद बांसगांव की आबोहवा भी ठीक नहीं है।'

'महिलाओं के लिए तो सारे समाज की आबोहवा ठीक नहीं है। बांसगांव भी उस का एक हिस्सा है।' मुनमुन बोली।

मुनक्का राय बेटी की यह बात सुन कर उसे टुकटुक देखते रह गए। मुनमुन जो पहले ब्यूटीफुल थी, अब बोल्ड भी हो रही थी। राहुल का वह दोस्त जिसका नाम विवेक सिंह था, जिस की बाइक पर वह अकसर देखी जाती थी उसे बोल्ड एंड ब्यूटीफुल कहने भी लगा था। वह ख़ुश हो जाती।

संयोग ही था कि विवेक का बड़ा भाई भी थाईलैंड में था। विवेक और मुनमुन की दोस्ती की ख़बर जब उस तक पहुंची तो उस का माथा ठनका। उस ने राहुल से बात की और कहा कि, 'भई अपनी बहन को समझाओ, मैं भी अपने भाई को समझाता हूं। नहीं, जो कहीं ऊंच-नीच हो गई तो दोनों परिवारों की बदनामी होगी।' राहुल विवेक के भाई की बात सुन कर बौखला गया। उस ने पहला फ़ोन विवेक को ही किया और जितना भला-बुरा उस को कह सकता था कह गया। और बोला, 'मेरी ही बहन मिली थी तुम्हें दोस्ती करने के लिए। बाइक पर बिठा कर घुमाने के लिए? क्यों मेरी पीठ में छुरा घोंप रहे हो?'

'बात तो सुनो!' विवेक ने कुछ कहने की कोशिश की।

'मुझे अब कुछ नहीं सुनना।' राहुल बोला, 'जो सुनना था तुम्हारे भइया से सुन चुका हूं। दोस्ती तुम्हारी मुझ से थी। मैं अब वहां नहीं हूं, सो तुम्हें मेरे घर जाने की कोई ज़रूरत नहीं है। और आगे से जो तुम मेरे घर गए और मेरी बहन से मिले तो मुझ से बुरा कोई नहीं होगा। अभी तक तुम ने मेरी दोस्ती देखी है, अब दुश्मनी देखना। वहीं आ कर तुम्हें काट डालूंगा।' कह कर राहुल ने फ़ोन काट दिया।बांसगांव अपने घर पर फ़ोन मिलाया तो पता चला कि फ़ोन नान पेमेंट में कट चुका था। पड़ोस के फ़ोन पर फ़ोन कर के अम्मा को बुलवाया और पूछा कि, ' कब से फ़ोन कटा है?'

'बिल नहीं जमा होगा तो कट गया होगा।' अम्मा डिटेल में नहीं गईं। फिर राहुल ने संक्षेप में मुनमुन-विवेक कथा बताते हुए अम्मा से बता दिया कि, 'मुनमुन से कह दो कि अपनी आदतें सुधार ले। नहीं वहीं आ कर काट डालूंगा। कह दो कि बाप भाई की इज़्ज़त का खयाल रखे।' उस ने यह भी बताया कि, 'विवेक को ख़ूब हड़का दिया है। भरसक तो वह आएगा नहीं। और जो आए भी तो उसे दरवाज़े से कुत्ते की तरह दुत्कार कर भगा देना।' अम्मा कुछ कहने के बजाय, 'हूं-हां' करती रहीं। क्यों कि पड़ोसी के घर में थीं। बात फैलने और बदनामी का डर था।

मुनक्का राय जब कचहरी से शाम को वापस आए तो मुनमुन की अम्मा ने राहुल के फ़ोन का ज़िक्र कर के सारा वाक़या बताया तो मुनक्का के होश उड़ गए। बोले, 'बात थाईलैंड तक पहुंच गई और हमें पता तक नहीं।' फिर अचानक पूछा कि, 'फ़ोन तो काम नहीं कर रहा फिर कैसे बात हुई?'

'पड़ोसी गुप्ता जी के फ़ोन पर फ़ोन आया था।' पत्नी ने संक्षिप्त सा जवाब दिया।

'फिर तो वह सब भी जान गए होंगे।' वह माथा सहलाते हुए बोले, 'और अब मुसल्लम बांसगांव जान जाएगा!'

'जान जाएगा?' पत्नी ने कहा, 'जान चुका है। आखि़र बात थाईलैंड तक अगर पहुंची है तो बिना किसी के जाने तो पहुंची नहीं।'

'हां, हमीं लोगों की आंख पर पट्टी बंध गई है। बेटी के दुलार में हम लोग अन्हरा गए हैं।' फिर वह भड़के, 'कहां है वह?'

'अभी आई नहीं है पढ़ा कर।'

'अंधेरा हो गया है और अभी तक आई नहीं है।'

थोड़ी देर बाद मुनमुन आई तो घर में कोहराम मच गया। मुनमुन किसी आरोप को मानने को तैयार नहीं थी और मुनक्का राय उस की किसी दलील को सुनने को तैयार नहीं थे। अंततः उन्हों ने किसी न्यायाधीश की तरह निर्णय सुना दिया, 'कोई बहस, कोई जिरह, कोई गवाही नहीं। सारा मामला यहीं समाप्त। अब तुम को कल से घर से बाहर नहीं जाना है। पढ़ाने भी नहीं।'

उस रात मुनक्का राय के घर चूल्हा नहीं जला। पानी पी कर ही सब सो गए। दूसरे दिन मुनक्का राय कचहरी भी नहीं गए। उन का ब्लड प्रेशर, शुगर और अस्थिमा तीनों ही बढ़ कर उन्हें तबाह किए हुए थे। और मुनमुन सारे गिले शिकवे भूल कर उनकी सेवा में लग गई थी। मुनक्का राय की एक समस्या यह भी थी कि इतनी सारी बीमारियों के बावजूद वह एलोपैथिक दवा भूल कर भी नहीं लेते थे। भले मर जाएं पर आयुर्वेदिक दवाओं पर ही उन्हें यक़ीन था। आयुर्वेदिक दवाओं के साथ दो तीन दिक्क़तें थीं। एक तो फौरी तौर पर आराम नहीं देती थीं। दूसरे, जल्दी मिलती नहीं थीं हर जगह। तीसरे, अपेक्षाकृत मंहगी थीं। फिर भी आयुर्वेदिक दवाओं की तासीर और मुनमुन की अनथक सेवा ने मुनक्का राय को हफ़्ते भर में फिट कर दिया। वह कचहरी जाने लायक़ हो गए। इधर वह कचहरी गए, उधर मुनमुन पढ़ाने गई। जाते समय अम्मा ने रोका भी कि, 'तुम्हारे बाबू जी ने मना किया है तो कुछ सोच कर ही मना किया होगा।'

'कुछ नहीं अम्मा वह गुस्से में थे सो मना कर दिया। ऐसी कोई बात नहीं है।' वह बोली, 'वह बात अब ख़त्म हो चुकी है।' और निकल गई। वह जानती थी कि शिक्षा मित्र की नौकरी छोड़ने का मतलब था रूटीन ख़र्चों की तंगी। भाई लोग अफ़सर, जज भले हो गए थे पर घर के ख़र्च की, अम्मा-बाबू जी के स्वास्थ्य की सुधि किसी को नहीं थी। सभी अपनों-अपनों में सिमट कर रह गए थे। वह तो गांव से बटाई पर दिए खेत से अनाज मिल जाता था। खाने के लिए रख कर बाकी अनाज बिक जाता था। कुछ उस से, कुछ बाबू जी की प्रैक्टिस और कुछ शिक्षा मित्र की उस की तनख़्वाह से घर ख़र्च जैसे तैसे चल जाता था। बाबू जी तो पैदल ही कचहरी जाते थे पर उस का गांव बांसगांव से पंद्रह किलोमीटर दूर था। सीधी सवारी नहीं थी। दो बार सवारी बदलनी होती थी। थोड़ा पैदल भी चलना पड़ता था। कभी कभार रिक्शा भी। तो कनवेंस का ख़र्च भी था। और इस सब से भी बड़ी बात थी कि वह ख़ाली नहीं थी अपनी तमाम समवयस्क लड़कियों की तरह। जो शादी के इंतज़ार में घर में पड़ी-पड़ी खटिया तोड़ रहीं थीं। ख़र्च चलाना भले थोड़ा मुश्किल था पर अपने ख़र्चों के लिए किसी के आगे हाथ नहीं फैलाना पड़ता था, इसी से वह ख़ुश थी। बस उस को थोड़ा यह अपराधबोध ज़रूर होता था कि इस दौड़-धूप और आपाधापी में वह विवेक के क़रीब पहुंच गई थी। पहले तो यों ही, फिर भावनात्मक और अब देह भी जीने लगी थी वह। यह सब कब अचानक हो गया वह समझ ही नहीं पाई। पर आज रास्ते में न आते, न जाते विवेक नहीं दिखा तो उसे खटका भी और अखरा भी।

शाम को घर आई तो उस ने नोट किया कि बाबू जी का कचहरी का काला कोट तो खूंटी पर टंगा है पर वह नहीं हैं। फिर भी उस ने अम्मा से कुछ पूछा नहीं। न ही अम्मा ने उस से कुछ कहा-सुना। थोड़ी देर बाद बाबू जी भी आ गए। वह बाबू जी के पास चाय ले कर गई। उन्हों ने चाय पी ली पर मुनमुन से कुछ कहा नहीं। ज़िंदगी रूटीन पर आ गई। पर सचमुच में नहीं।

राहुल ने उधर विवेक-मुनमुन कथा रमेश, धीरज और तरुण तीनों बड़े भाइयों को फ़ोन कर के परोस दी थी। तीनों ही बौखलाए। पर घर का फ़ोन कटा होने के कारण भड़ास निकाल नहीं पाए। पड़ोस में किसी ने राहुल की तरह फ़ोन किया नहीं। तय हुआ कि कोई बांसगांव जा कर मामले को रफ़ा-दफ़ा करे। रमेश और धीरज को लगा कि जजी और अफ़सरी के रुतबे में बांसगांव में जा कर किसी से तू-तू, मैं-मैं करना ठीक नहीं है। प्रोटोकाल भी टूटता है सो अलग। बदनामी होगी अलग से। अंततः तय हुआ कि तरुण जाए और समझा-बुझा कर मामला शांत करा दे। तरुण गया भी। पर वह किसी से उलझा नहीं। मुनमुन को ही जितना डांट-डपट सकता था डांटा-डपटा। बाबू जी की तरह उस ने भी आदेश दिया कि, 'घर से बाहर जाना बंद करो नहीं टांगें तोड़ दूंगा।' साथ ही यह भी कहा कि, 'शिक्षा मित्र की नौकरी ने तुम्हारा दिमाग ख़राब कर रखा है। यह भी बंद करो। कोई ज़रूरत नहीं है इस नौकरी की। यह हम सभी का फ़ैसला है।'

'पर बाबू हम लोगों का ख़र्चा वर्चा भी सोचते हो कभी तुम लोग?' अम्मा ने पूछा।

'तो आप ही लोगों ने इस को पुलका रखा है। सिर चढ़ा रखा है।' तरुण भड़का, 'इस की तनख़्वाह है कितनी? और क्या इस की तनख़्वाह से ही आज तक घर चला है?'

'पहले तो नहीं पर अभी तो थोड़ी बहुत मदद कर ही रही है।' अम्मा ने शांत स्वर में ही कहा।

तरुण चुप हो गया। शाम को उस ने बाबू जी से भी इस बाबत विचार-विमर्श किया। पर बाबू जी हूं-हां के अलावा कुछ बोले ही नहीं। तरुण बांसगांव से वापस लौट गया। लौट कर दोनों भाइयों को पूरी रिपोर्ट दी। दोनों भाइयों ने भी हूं-हां में ही बात कर अपने कर्त्तव्यों की इतिश्री कर ली। राहुल ने भी तरुण को फ़ोन कर के सारा हाल चाल लिया। तरुण ने राहुल को साफ़ बता दिया कि, 'मुनमुन जो भी कुछ कर रही है या बिगड़ रही है वह बाबू जी और अम्मा की शह पर ही। उन लोगों ने उसे सिर चढ़ा रखा है। और इस से भी ज़्यादा शिक्षा मित्र की नौकरी ने उस का दिमाग़ ख़राब कर रखा है। इतना ही नहीं अम्मा का तो मानना है कि मुनमुन ही घर ख़र्च चला रही है।'

'यह तो हद है!' राहुल ने कहा और फ़ोन रख दिया। उस ने इस पूरे मसले पर थाईलैंड में विनीता से राय मशविरा किया। और तय हुआ कि रीता को रिक्वेस्ट कर के बांसगांव भेजा जाए। वही जा कर मुनमुन को समझाए। राहुल ने रीता को फ़ोन कर के सारी समस्या बताई और कहा कि, 'तुम्हीं जा कर समझाती मुनमुन को तो शायद वह मान जाती।' रीता ने अपनी ढेर सारी पारिवारिक समस्याएं और प्राथमिकताएं बताईं और कहा कि, 'मेरा अभी तो जाना मुश्किल है।' ज़रा रुक कर उस ने राहुल से कहा कि, 'भाभी लोगों को क्यों नहीं भेजते?'

'रीता तुम भी!' राहुल बोला, 'भइया लोगों के पास समय नहीं है बहन के लिए और तुम भाभी लोगों की बात कर रही हो। अरे भाभी लोगों को यह सब जानने के बाद ख़ुद ही बात संभालनी चाहिए थी पर किसी ने सांस तक नहीं ली। मैं इतनी दूर हूं और इसी लिए तुम पर यह ज़िम्मेदारी डाल रहा हूं।'

'चलो अभी तुरंत नहीं पर जल्दी ही जाऊंगी बांसगांव।' रीता बोली।

'ठीक है।' राहुल आश्वस्त हो गया।

कुछ दिन बाद रीता गई बांसगांव। अम्मा, बाबू जी की दशा देख कर वह विचलित हो गई। मां तो सूख कर कांटा हो गई थी। लग रही थी जैसे हैंगर पर टांग दी गई हो। मुनमुन भी बीमार थी। डाक्टरों ने उसे टी.बी. बताया था। अब ऐसे में वह मुनमुन को कैसे तो और क्या समझाती? आए थे हरिभजन को ओटन लगे कपास वाली गति हो गई उस की। फिर भी मौक़ा देख कर उस ने अम्मा, बाबू जी मुनमुन तीनों की उपस्थिति में मुनमुन विवेक कथा का ज़िक्र किया। और मुनमुन को सलाह दी कि, 'परिवार की इज़्ज़त अब तुम्हारे हाथ है। इस पर बट्टा मत लगाओ।'

'मैं तो समझी थी कि तुम हम लोगों का हालचाल लेने आई हो रीता दीदी।' मुनमुन बोली, 'पर अब पता लग रहा है कि तुम तो दूत बन कर आई हो।'

'नहीं, नहीं मुनमुन ऐसी बात नहीं है।'

'अरे दूत बनना ही है तो विभीषण की तरह राम की बनो, विदुर और कृष्ण की तरह पांडवों की बनो।' मुनमुन बोली, 'दूत बनना ही है तो उन भाइयों के पास जाओ जो जज और अफ़सर बने बैठे हैं। उन्हें घर की विपन्नता, दरिद्रता और मुश्किलों के बारे में बताओ। बताओ कि उन के बूढ़े मां-बाप और छोटी बहन बीमारी, भूख और असुविधाओं के बीच कैसे तिल-तिल कर रोज़-रोज़ जी और मर रहे हैं। बताओ कि उन की फूल सी छोटी बहन मां-बाप के साथ ही बूढ़ी हो रही है।'

रीता के पास मुनमुन के इन सवालों का कोई जवाब नहीं था। पर मुनमुन सुलग रही थी, 'पूरा बांसगांव क्या जवार जानता था कि यह घर जज और अफ़सरों का घर है। समृद्धि जैसे यहां सलमे-सितारे टांक रही है। पर यह ऊपरी और दिखावे की, घर के बाहर दरवाज़े और दुआर की बातें हैं। घर के भीतर आंगन और दालान की बातंे नहीं हैं। आंगन, दालान और कमरे में बूढ़े मां बाप सिसक रहे हैं। किसी से कुछ कहते नहीं। ब्लड प्रेशर, शुगर और अस्थमा है बाबू जी को। बिना दवाइयों के भी कभी-कभी कैसे दिन गुज़ारते हैं जानती हो? मां के कपड़े लत्ते देख रही हो?' वह बोलते-बोलते बाबू जी का कचहरी वाला काला कोट खूंटी पर से उतार कर ला कर दिखाती हुई बोली, 'यह फटा और गंदा कोट पहन कर जब बाबू जी इजलास में मुंसिफ़ मजिस्ट्रेट से किसी बात पर बड़े नाज़ से कहते हैं कि हुज़ूर हमारा बेटा भी न्यायाधीश है तो लोग हंसते हैं। पर क्या उस न्यायाधीश को भी चिंता है कि उस का बाप फटी कोट पहन कर कचहरी जा रहा है।' वह बोली, 'एस.डी.एम. मिलता है तो बाबू जी बड़े ताव से बताते हैं कि मेरा बेटा भी ए.डी.एम. है तो वह सुन कर चौंकता है और इनका हुलिया देख कर मुसकुरा कर चल देता है। बैंक में जाते हैं तो बताते हैं कि मेरा भी बेटा बैंक में मैनेजर है। सब काम तो कर देते हैं पर एक फीकी मुससकुराहट भी छोड़ देते हैं। लोगों से बताते फिरते हैं कि मेरा एक बेटा थाईलैंड में भी है। एन.आर.आई है। पर वही लोग जब देखते हैं कि उन्हीं की एक बेटी शिक्षा मित्र भी है तो लोग घर की हक़ीक़त का भी अंदाज़ा लगा लेते हैं।' वह बोली, ' रीता दीदी अब जब दूत बन ही गई हो तो जा कर भइया लोगों को यह सब भी बताओ। और जो मेरी बात पर यक़ीन न हो तो बांसगांव तुम्हारा भी जाना पहचाना है। दो चार गलियों, घरों में जाओ और देखो तो व्यंग्य भरी नज़रें तुम्हें भी देखती मुसकुराती न मिलें तो हमें बताना।'

रीता ने बढ़ कर मुनमुन को सीने से लगा लिया और फफक कर रो पड़ी। सब को समझा बुझा कर रीता दो दिन बाद बांसगांव से लौट गई। फिर जब राहुल का फ़ोन आया तो रीता ने घर की विपन्नता और समस्याओं का पिटारा खोल दिया। और साफ़ बता दिया कि, 'दोष भइया तुम्हीं लोगों का है। जिस मां बाप के चार-चार सफल, संपन्न और सुव्यवस्थित बेटे हों, जिन की अफ़सरी और जजी के क़िस्से पूरा जवार जानता हो वह ऐसी स्थिति में जो जी रहा है तो तुम लोगों को धिक्कार है।'

'अरे मैं पूछ रहा हूं कि मुनमुन को कुछ समझाया कि नहीं।' इन सारी बातों को अनसुनी करते हुए राहुल बोला।

'समझाया मुनमुन को भी।' रीता बोली, 'पता है तुम्हें मुनमुन को भी टी.बी. हो गई है। बाबू जी की दवाइयों का ख़र्च पहले से था, अब यह ख़र्च भी है।'

'पहले यह बताओ कि मुनमुन मानी कि नहीं?' राहुल अपनी ही बात दुहराता रहा।

'मैं अम्मा बाबू जी और मुनमुन की मुश्किलें बता रही हूं और तुम अपना ही रिकार्ड बजाए जा रहे हो।' रीता बोली, 'तुम चारो भाई मिल कर अम्मा बाबू जी के ख़र्च का जिम्मा लो। और हो सके तो मुनमुन की शादी तय कर दो। जब तक शादी नहीं तय होती तब तक मुनमुन को बांसगांव से कोई भइया अपने पास बुला लें और उस की टी.बी. का इलाज करवा दें। मेरी राय में सारी समस्या का इलाज यही है। मुनमुन को सुधारना भी ऐसे ही हो सकता है। बल्कि अच्छा तो यह होता कि अब अम्मा बाबू जी को भी कोई अपने पास ही रखता। वह लोग भी अब अकेले रहने लायक़ नहीं रह गए हैं।'

'तो भइया लोगों को यही बात समझाओ!' राहुल बोला, 'मैं तो इतनी दूर हूं कि क्या बताऊं?'

'देखो तुम ने पूछा तो तुम्हें बता दिया। भइया लोग पूछेंगे तो उन्हें भी बता दूंगी। अपने आप बताने नहीं जाऊंगी।' रीता ने साफ़-साफ़ बता दिया। फिर राहुल ने भइया लोगों से इस पूरे मामले पर डिसकस किया। पर हर कोई बस खयाली पुलाव पकाता मिला। और मुनमुन को या अम्मा बाबू जी को भी कोई अपने पास ले जाने को सहमत नहीं दिखा। सब की अपनी-अपनी दिक्क़तें थीं। राहुल हार गया।

उस की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे? उस की बीवी उस से कहती, 'तुम पागल हो गए हो।' सुन कर वह खौल जाता। वह कहती, 'तुम्हारे भइया लोग वहीं हैं, वह कुछ नहीं कर रहे तो तुम क्यों जान दिए पड़े हो? ख़ामख़ा ख़ून जलाते हो और फ़ोन पर पैसा बरबाद करते हो।'

पर राहुल बीवी की बातों में नहीं आया। विनीता दीदी के पास गया। और कहा कि, 'आप ही भइया लोगों को समझाइए।'

'भइया लोग भाभी लोगों की राय से चलते हैं, वह लोग नहीं समझेंगे।' वह बोली, 'बदनामी ज़्यादा फैले उस से बेहतर है उस की शादी कर दो।'

'शादी के लिए तो भइया लोगों से बात कर सकती हैं आप?'

'हां, पहले तुम करो फिर मैं भी करती हूं।'

मुनमुन की शादी करने की बात पर सभी सहमत दिखे। पर दुविधा फिर खड़ी हुई कि तय कौन करे और फिर ख़र्च वर्च भी आड़े आए। अंततः तय हुआ कि चारो भाई चंदा कर लें। इस में भी रमेश ने हाथ बटोर लिए यह कह कर कि मेरा बेटा इंजीनियरिंग करने जा रहा है उस के एडमिशन वग़ैरह में ही वह परेशान है। धीरज ने कहा कि दो लाख रुपए वह दे देगा। तरुण ने भी कहा कि दो लाख रुपए वह भी दे देगा। बाक़ी ख़र्च की बात आई तो राहुल ने कहा, 'जो भी लगेगा मैं दे दूंगा पर आप लोग वहां हैं शादी तो पहले तय करिए।' लेकिन कोई खुल कर तैयार नहीं हुआ। राहुल ने हार कर बाबू जी से ही कहा कि, 'आप शादी तय करिए। बाक़ी ज़िम्मा हमारा।'

मुनक्का राय ने मुनमुन की शादी खोजनी शुरू की। जो ही उन्हें शादी की तलाश में इधर-उधर जाते देखता तो कहता कि 'आप के चार-चार बेटे वह भी इतने अच्छे ओहदों पर हैं और आप की यह उमर! काहें इतनी दौड़ धूप कर रहे हैं वकील साहब?' वह एक थकी सी हंसी परोसते हुए कहते, 'बेटों के पास टाइम कहां है? सब व्यस्त हैं अपने-अपने काम में।' इधर मुनक्का राय ने शादी खोजनी शुरू की उधर गिरधारी राय सक्रिय हो गए। उन को लगा कि यही मौक़ा है मुनक्का की शेख़ी की हवा निकालने का। मुनमुन विवेक कथा की सुगबुगाहट उन के तक भी पहुंच चुकी थी। मुनक्का राय इधर शादी देख कर लौटते, उधर गिरधारी राय चोखा चटनी लगा कर मुनमुन विवेक कथा परोसवा देते किसी न किसी माध्यम से। अव्वल तो लड़की के भाई जज, अफ़सर हैं सुनते ही लोग दहेज के लिए ढाका भर मुंह फैला देते। तिस पर मुनमुन विवेक कथा मिल जाती। बात बिगड़ जाती। मुनक्का राय परेशान हो गए। बल्कि तार-तार हो गए।

बुढ़ौती में पैदा यह बेटी उन्हें सुख भी दे रही थी और दुख भी। वह व्यथित थे बेटों के असहयोग से। बीमारी और आर्थिक लाचारी से। एक बार राहुल का फ़ोन आया तो उस ने शादी की रिपोर्ट पूछी। 'रिपोर्ट' शब्द से ही वह भड़क गए। बोले, 'यह कोई प्रशासनिक या अदालती कार्य तो है नहीं कि तुम को रिपोर्ट पेश करूं?' वह बोले, 'शादी ब्याह का मामला है। परचून का सामान तो ख़रीदना नहीं है कि दुकान पर गए और तौलवा कर लेते आए। बूढ़ा आदमी हूं, पैसा कौड़ी है नहीं। कोई संग साथ है नहीं। किसी को कहीं ले भी जाऊं तो किराया भाड़ा लगता है। अपना ही आना जाना दूभर है। बीमारी है, बूढ़ी हड्डियां हैं और तुम हो कि रिपोर्ट पूछ रहे हो?'

'बाबू जी अभी आप का मूड ठीक नहीं है बाद में बात करता हूं।' कह कर राहुल ने फ़ोन काट दिया। बाबू जी की कठिनाई भी उस ने समझी। हवाला के ज़रिए पचीस हज़ार रुपए दूसरे ही दिन उस ने बाबू जी के पास भेज दिया। साथ ही मामा, मौसा, फूफा जैसे कुछ रिश्तेदारों को फ़ोन कर के रिक्वेस्ट किया कि, 'मुनमुन की शादी खोजने में बाबू जी को सपोर्ट करें।' लोग मान भी गए।

लेकिन शादी का जो बाज़ार सजा था उस में मुनमुन फिट नहीं हो पा रही थी। इंजीनियर लड़के को इंजीनियर लड़की ही चाहिए थी। डाक्टर को डाक्टर चाहिए थी। कोई एम.सी.ए. लड़की मांग रहा था तो कोई एम.बी.ए.। इंगलिश मीडियम तो चाहिए ही चाहिए थी। और मुनमुन में यह सब कुछ भी नहीं था। दहेज भी विकराल था। जैसे कोई क्षितिज और पृथ्वी के बीच की दूरी नाप रहा हो, ऐसा था दहेज का पैरामीटर। मुनक्का राय कहते 'जस-जस सुरसा बदन बढ़ावा तास दुगुन कपि रूप दिखावा/सोरह योजन मुख ते थयऊ तुरत पवनसुत बत्तीस भयऊ।' वह कहते, 'हे गोस्वामी जी आप ने सोरह योजन की सुरसा के आगे पवन सुत को तुरत बत्तीस का बना दिया पर अब मैं इस दहेज की सुरसा के आगे कहां से दुगुन रूप दिखाऊं? और कहां से लाऊं इंगलिश मीडियम, इंजीनियर, डाक्टर, एम.सी.ए., एम.बी.ए.?'

यहां तो शिक्षा मित्र थी। और शिक्षा मित्र सुनते ही लोग बिदक जाते। कहते, 'भाई अफ़सर, जज, बैंक मैनेजर, एन.आर.आई. और बहन शिक्षा मित्र!' कई लोग तो शिक्षा मित्र भी नहीं जानते थे। जब वह बताते तो कहते, 'तो कोई प्राइमरी स्कूल का मास्टर या क्लर्क फ्लर्क ही क्यों नहीं ढूंढते?' और जोड़ते, 'माथा फोड़ लेने भर से तो ललाट चौड़ा नहीं न हो जाएगा?' अब लोग मैच चाहते थे। जैसे साड़ी पर ब्लाऊज, जैसे सूट पर टाई, जैसे सोने पर सुहागा। मुनमुन के लिए सुहाग ढूंढना अब मुनक्का राय के लिए कठिन होता जा रहा था। उन्हें याद आ रहे थे अमीर ख़ुसरो और वह गुनगुना रहे थे बहुत कठिन है डगर पनघट की, कैसे मैं भर लाऊं मधुआ से मटकी, बहुत कठिन है डगर पनघट की!

कठिन डगर ही थी उन के ससुराल की भी। उन के बड़े साले का निधन हो गया है। वह पत्नी और मुनमुन को साथ लिए जा रहे हैं और भुनभुना रहे हैं कि, ' इन को भी इसी समय जाना था!' वह पहले दो बार डोली में ससुराल गए थे। शादी और गौने में। तब सवारी के नाम पर बैलगाड़ी, डोली, घोड़ा और साइकिल का ज़माना था। कहीं-कहीं जीप और बस भी दीखती थी। दो-आबे में बसी उन की ससुराल में जाना तब भी कठिन था और अब भी। कुआनो और सरयू के बीच उन की ससुराल का गांव दो पाटों के बीच फंसा दिखता। ऐसे कि कबीर याद आ जाते, 'चलती चक्की देख कर दिया कबीरा रोय, दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय।' यही हाल उन के बड़े साले का भी हुआ था। दो छोटे भाइयों के बीच वह पिस कर रह गए थे। मुनक्का राय के ससुर कलकत्ते में मारवाड़ियों की नौकरी में थे। मारवाड़ियों की तरह उन्हों ने भी ख़ूब पैसा कमाया। ख़ूब खेत ख़रीदे। घर बनवाया। बाग़ लगवाया, कुएं खुदवाए। घर की समृद्धि के लिए वह सारे जतन किए जो वह कर सकते थे। पर एक काम जो मूल काम था, बच्चों को पढ़ाना लिखाना, वह उन्हों ने ठीक से नहीं किया। बड़ा बेटा राम निहोर राय तो थोड़ा बहुत मिडिल तक पढ़ लिख गया और बाद में कलकत्ते जा कर पिता के काम में लग गया। हालां कि पिता जितना पैसा तो नहीं पीट पाया लेकिन घर संभाल लिया। बाक़ी दोनों भाई में से मझला राम किशोर राय प्राइमरी के बाद स्कूल नहीं गया तो सब से छोटा वाला राम अजोर राय दर्जा एक के बाद ही स्कूल नहीं गया।

मुनमुन राय के नाना को किसी ने तब के दिनों में समझा दिया था कि बच्चों को बहुत पढ़ाना लिखाना नहीं चाहिए। बहुत पढ़ लिख लेने से वह ख़ुद तो आगे बढ़ जाते हैं पर माता पिता की सेवा नहीं करते। माता पिता की बात नहीं सुनते। इस लिए भी वह बेटों की पढ़ाई के प्रति बहुत उत्सुक नहीं थे। अब अलग बात है कि जो बड़ा बेटा थोड़ा बहुत पढ़ लिख गया था, उसी ने न सिर्फ़ उन की विरासत संभाली बल्कि उन की सेवा टहल भी अंतिम समय में ही क्या ज़िंदगी भर की। बाक़ी दोनों बेटे तो जब तब लड़ते-झगड़ते उन के जी का जंजाल बन गए थे। बात-बात पर लाठी भाला निकाल लेते। इस के उलट बड़ा बेटा राम निहोर राय विवेकवान और धैर्यवान दोनों ही था। भाइयों को हरदम समझा-बुझा कर रखता। बस एक दिक्क़त थी राम निहोर राय की कि उस की कोई संतान नहीं थी। यह दुख बड़ा था पर कभी राम निहोर राय ने किसी पर यह दुख ज़ाहिर नहीं किया।

हां, मझले भाई राम किशोर राय ने ज़रूर उन की इस कमज़ोर नस का फ़ायदा उठाया। अपने बड़े बेटे को बचपन में ही उसे कलकत्ता ले जा कर उन्हें सौंप कर भावुक बना दिया और कहा कि, 'आज से यह मेरा नहीं, आप का बेटा हुआ। प्रकृति और भगवान से तो मैं कुछ कह-कर नहीं सकता पर अपने तईं तो कर ही सकता हूं।' और बेटा उन की गोद में डाल कर उन के क़दमों में लेट गया। राम निहोर भाव-विभोर हो गए। राम किशोर राय के बेटे को छाती से लगा कर रो पड़े। फफक-फफक कर रोते रहे। फिर तो वह राम किशोर राय के हाथों जैसे बिक से गए। सरयू-कुआनो में पानी बहता रहा और राम किशोर, राम निहोर का लगातार भावनात्मक दोहन करता रहा। उधर राम किशोर का बेटा बड़ा हो गया और अपने को सन आफ़ राम निहोर राय लिखने लगा। राम अजोर को जब यह बात एक रिश्तेदार के मार्फ़त पता चली तो चौंकना लाजमी था। क्यों कि राम किशोर राय के दो बेटे थे और राम अजोर राय के एक। राम निहोर राय के चूंकि संतान नहीं थी सो सारी जायदाद आधी-आधी इन्हीं दोनों में बंटनी थी। तो इस तरह राम अजोर राय का बेटा राम किशोर के बेटों से दोगुनी जायदाद का मालिक होता था। लेकिन राम किशोर राय की इस शकुनि चाल में राम अजोर के बेटे का भी हिस्सा उन्हीं दोनों के बराबर हो जाता। राम अजोर राय ने इस की बड़ी काट सोची पर कोई हल नहीं निकला।

चूंकि राम निहोर राय का यह भावनात्मक मामला था सो सीधे उन से बात करने की हिम्मत नहीं पड़ी राम अजोर राय की। फिर भी वह देख रहे थे कि राम निहोर भइया सारा विवेक, सारा धैर्य ताक पर रख कर तराज़ू का एक पलड़ा पूरा का पूरा राम किशोर की ओर झुकाए पड़े थे। हालां कि वह सारा उपक्रम कुछ ऐसे करते गोया दोनों भाई उन के लिए बराबर थे। दोनों के परिवारों का वह पूरा-पूरा ख़याल रखते। कलकत्ते से जब आते तो कपड़े लत्ते दोनों परिवारों के लिए लाते। और जो कहते हैं संयुक्त परिवार उस की भावना को भी वह पूरा मान देते। तो भी उन का पक्षपात देखने वालों को दिख जाता। कुछ रिश्तेदार तो उन्हें इस के मद्देनज़र धर्मराज युधिष्ठिर तक कहने लग गए थे। बतर्ज़ अश्वत्थामा मरो नरो वा कुंजरो! पर उन के तराज़ू का पलड़ा राम किशोर की ओर गिरा रहा तो गिरा रहा। पिता मुनीश्वर राय ने कई बार संकेतों में राम निहोर को समझाया लेकिन वह सब कुछ समझ कर भी कुछ नहीं समझना चाहते थे।

पिता के निधन के बाद तीनों भाइयों में जायदाद का बंटवारा हो गया। लेकिन राम निहोर के हिस्से की खेती-बारी, घर-दुआर पर व्यावहारिक कब्जा राम किशोर का ही बना रहा। क्यों कि राम निहोर ख़ुद तो कलकत्ता में ही रहते थे। गरमियों की छुट्टी में ही कुछ दिनों के लिए आते थे। जब शादी ब्याह का समय होता था। वह जब आते तो राम किशोर राय उन के लिए पलक पांवड़े बिछाए मिलते। राम निहोर भी भावुक हो कर इतना मेहरबान हो जाते राम किशोर पर कि सोचते क्या पाएं, क्या दे दें। राम अजोर और उन का परिवार यह सब देख कर अकुलाहट से भर जाता। एक ही घर था, रसोई भले अलग हो गई थी पर आंगन एक था, दालान, ओसारा, दुआर एक था। तो किसी से कुछ छुपता नहीं था। बाद के दिनों में यह खपरैल का घर भी धसकने लगा। और देखिए राम किशोर का नया घर बनने लगा। ज़ाहिर है पैसा राम निहोर का ही ख़र्च हो रहा था। कुछ दिन में राम किशोर का पक्का घर बन कर तैयार हो गया। घर भोज यानी गृह प्रवेश के बाद राम किशोर का परिवार नए पक्के मकान में चला गया।

पर राम अजोर?

नाम भले राम अजोर था, उन के आंगन में अजोर यानी उजाला नहीं हुआ। उसी टुटहे धसकते घर में रह गए। बाद में एक-एक कमरा कर के दो कमरा बना कर आगे पीछे झोपड़ी डाल कर लाज बचाई और धसकते घर से जान छुड़ाई। फिर धीरे-धीरे कर के कई सालों में पूरा मकान बनवाया। अब तक राम निहोर राय भी रिटायर हो कर गांव आ चुके थे। पत्नी का निधन हो चुका था। अब वह नितांत अकेले थे और पूजा पाठ में रम गए थे। गांव के मंदिर में उन का समय पुजारी जी के साथ ज़्यादा गुज़रने लगा था। वह देख रहे थे कि राम किशोर तथा उन के परिवार की उन के प्रति भावुकता और समर्पण समाप्त हो चला था। उन की सारी जायदाद, सारी कमाई, ग्रेच्युटी, फंड सब का सब राम किशोर के हवाले हो चुका था। परिवार की उपेक्षा से वह पीड़ित हो कर मंदिर, पुजारी और पूजा-पाठ में समय बिता रहे थे कि तभी एक वज्रपात और हो गया उन के ऊपर।

उम्र के इस पड़ाव पर चर्म रोग ने उन की देह पर दस्तक दे दिया। वह राम किशोर के परिवार में अब वी.आई.पी. से अचानक अछूत हो गए। उन की थाली, लोटा, गिलास, कटोरी, बिस्तर, चारपाई सब अलग कर दिया गया। एक कमरे में वह अछूत की तरह रख दिए गए। अपने ही पैसे से बनवाए घर में वह बेगाने और शरणार्थी हो गए। सब को शरण देने वाले राम निहोर खुद अनाथ हो कर, शरणागत हो गए थे। राम किशोर की यह अभद्रता, अमानवीयता देख कर वह अवाक थे। वह चाहते थे अपने इस चर्म रोग की दवा करना पर अब पैसा उन के हाथ में नहीं था। कुछ लोगों ने उन्हें बताया कि अगर तुरंत इलाज शुरू कर दिया जाए तो यह रोग ठीक हो सकता है। और जो नहीं भी ठीक हो तो कम से कम देह में और फैलने से रुक सकता है। नहीं यह पूरी देह में फैल सकता है। लेकिन राम किशोर के कान पर जूं नहीं रेंगा। और अब तो राम किशोर का जो बड़ा लड़का राकेश अपने को सन आफ़ राम निहोर राय लिखता था, वह भी खुल कर राम निहोर राय की मुख़ालफत करने लगा। अभद्र टिप्पणियां करने लगा। निरवंसिया, निःसंतान, नपुंसक न जाने क्या-क्या बोलने लगा। न सिर्फ़ अप्रिय संबोधनों से उन्हें नवाज़ता राकेश बल्कि अपने छोटे भाई मुकेश के साथ मिल कर उन्हें जब-तब मारने पीटने भी लगा। राम निहोर जब कभी राम किशोर से रोते हुए गुहार लगाते कि, 'बताओ इस तरह लात मार खाने के लिए बूढ़ा हुआ हूं? सारी जायदाद, सारी कमाई इसी दिन के लिए सौंपी थी तुम्हें?'

'क्या करूं अब यह लड़के हमारी भी नहीं सुनते।' राम किशोर कहते, 'ज़्यादा तू तड़ाक करूंगा तो ससुरे हमें भी मारेंगे।'

हालां कि राम निहोर ही क्या सारा गांव जानता था कि राम किशोर के बेटे जो कुछ भी कर रहे हैं उन्हीं की शह पर कर रहे हैं। बाद के दिनों में तो राम निहोर भरपेट भोजन के लिए भी तरसने लगे। गांव में अगर कोई उन पर तरस खा कर कुछ खाने के लिए दे देता तो राम किशोर के बेटे उसे जा कर गरिया आते। अपमान और उपेक्षा से अंततः राम निहोर टूट गए। एक रात नींद से उठ कर राम किशोर के पास गए। जगाया और छोटे भाई के पैर पकड़ कर फूट-फूट कर रो पड़े। लेकिन राम किशोर नहीं पिघला। आखि़र राम निहोर ने कहा, 'हमें मार क्यों नहीं डालते? इस नरक भरे जीवन से तो अच्छा है कि हमें मार डालते।'

'आप अपने हिस्से का खेत-बारी हमारे बड़े बेटे के नाम लिख दीजिए!'

'अरे वह तो उस का हई है। मेरे मर जाने के बाद स्वतः उस का हो जाएगा।'

'कैसे हो जाएगा?'

'अपने सारे सर्टिफ़िकेटस में वह मुझे अपना पिता ही लिखता है। तो वह मेरा बेटा साबित हो जाएगा। अपने आप मेरा वारिस हो जाएगा।'

'इतना नादान समझते हैं?' राम किशोर बोला, 'ब्लाक के कुटुंब रजिस्टर में वह मेरा बेटा दर्ज है। सर्टिफ़िकेट में लिखा कोई काम नहीं आएगा।'

'ठीक है लिखवा लो पर मेरी सांसत बंद कर दो।'

'ठीक है।' राम किशोर बोला, 'जाइए सो जाइए।'

दूसरे दिन से राम निहोर की दशा में सचमुच सुधार आ गया। अछूत तो वह बने रहे पर भोजन-पानी, बोली बर्ताव में राम किशोर और उस के परिवार में फ़र्क़ आ गया। राम निहोर लेकिन मन ही मन व्यथित थे। यह सोच-सोच कर कि क्या वह इतने पापी हैं जो इस स्वार्थी भाई से चिपके पड़े हैं? जिस भाई के लिए सारी कमाई, सारा जीवन न्यौछावर कर दिया वही इतना नीच और स्वार्थी निकला? फिर उन्हों ने सोचा कि अगर वह खेती बारी लिख भी देते हैं तो क्या गारंटी है कि वह फिर उन के साथ दुर्व्यवहार नहीं करेगा? वह सोचते रहे पर कोई स्पष्ट फ़ैसला नहीं ले पा रहे थे।

पर हफ़्ते-दस दिन की आवभगत के बाद ही राम किशोर और उस के लड़कों का दबाव बढ़ गया कि जल्दी से जल्दी बैनामा लिख दें। वह आज कल पर टालते रहे। अंततः राम किशोर के बेटों ने उन्हें कमरे में बंद कर पीटना शुरू कर दिया। पीट कर दबाव बनाना शुरू किया। अंततः उन्हों ने घुटने टेक दिए। गए रजिस्ट्री आफ़िस। लिखत पढ़त की कार्रवाई शुरू हुई। ऐन समय पर वह बोले, 'बैनामा नहीं लिखूंगा। बैनामा की जगह वसीयत लिखूंगा।' वापसी में बीच रास्ते में उन की ख़ूब पिटाई हुई। राम किशोर के बड़े बेटे ने एक जगह उन का गला दबा कर मारने की कोशिश की। हाथ पैर जोड़ कर राम निहोर ने जान बचाई। बोले, 'छोड़ दो मुझे! बैनामा ही लिख दूंगा।'

हताश मन घर आए। बेमन से खाना खाया। सो गए। पर नींद कहां थी आंखों में? आधी रात को जब सारा गांव सो रहा था, वह उठे और घर-गांव छोड़ गए। सुबह उठने पर जब राम किशोर को पता चला कि राम निहोर भइया ग़ायब हैं तो उस का माथा ठनका। परेशान हुआ। पर परेशानी किसी पर ज़ाहिर नहीं की। तो भी गांव में गुपचुप ख़बर फैल गई राम निहोर घर छोड़ कर रातों-रात ग़ायब हो गए हैं। दो तीन दिन बीत जाने पर भी जब राम निहोर का पता नहीं चला तो राम किशोर ने बेटों को भेज कर सारी रिश्तेदारियों में छनवा मारा। पर राम निहोर नहीं मिले। पुलिस में उन की गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज हो गई। वह तब भी नहीं मिले।

कोई पंद्रह दिन बाद राम निहोर मिले बनारस में। गंगा नदी में डूबते हुए जल पुलिस को। नाव से वह बीच नदी में कूद पड़े। हाय तौबा हुई, शोर मचा। जल पुलिस दौड़ी और गोताख़ोर जवानों ने उन्हें बचा लिया। पुलिस वाले घाट पर लाए। भीड़ बटुर गई। एक आदमी ने उन्हें पहचान लिया। कलकत्ता में वह राम निहोर के साथ नौकरी कर चुका था। और उस का गांव भी राम निहोर के गांव के पास ही था। राम निहोर के पास जब वह गया तो राम निहोर ने उसे पहचानते हुए भी पहचानने से इंकार कर दिया। लेकिन राम निहोर के उस जानने वाले ने न हार मानी न राम निहोर को छोड़ कर गया। अनुनय-विनय कर उस ने राम निहोर को विश्वास में लिया। राम निहोर पिघले और उस के गले लिपट कर रो पड़े। बोले, 'इस बुढ़ौती में आत्महत्या कोई ख़ुशी से तो कर नहीं रहा था। पर क्या करूं? इस अभागे को गंगा मइया ने भी अपनी गोदी में लेने से इंकार कर दिया।' उन्हों ने जैसे पूछा, 'निःसंतान होना क्या इतना बड़ा पाप है? पर इस में मेरा क्या दोष?'

राम निहोर के उस साथी ने उन्हें मन दिया और विश्वास भी। बहुत समझाया-बुझाया। पर राम निहोर अपने घर या गांव लौटने को किसी क़ीमत पर तैयार नहीं हुए। हार कर वह उन्हें अपने घर ले आया। कोई पंद्रह-बीस दिन उस साथी के घर रहने के बाद राम निहोर थोड़ा संयत हुए और अपनी एक बहन के घर जाने की इच्छा जताई। साथी ने बहन के घर राम निहोर को पहुंचा दिया। बहन भाई को देखते ही मूसलाधार रोई। राम निहोर भी रोए और फूट-फूट रोए। सारी व्यथा-कथा आदि से अंत तक बताई और कहा कि अब अपने घर और गांव वह नहीं जाएंगे। बहन ने मान लिया और कहा कि, 'ऐसे पापियों के पास जाने की ज़रूरत भी नहीं है। यहीं रहिए और जैसे हम रहते, खाते-पीते हैं, आप भी रहिए, खाइए-पीजिए।'

राम निहोर गदगद हो गए। पर कुछ दिन बाद बहन ने छोटे भाई राम अजोर के बेटे जगदीश को संदेश भेज कर अपने घर बुलवाया। वह आया तो राम निहोर को देखते ही, 'बड़का बाबू जी, बड़का बाबू जी' कहते हुए उन से लिपट कर फूट-फूट कर रोने लगा। राम निहोर भी फफक पड़े। जगदीश दो दिन रह कर बड़का बाबू जी की सारी कथा, अंतर्कथा, पीड़ा-व्यथा-अपमान-उपेक्षा और लांछन की सारी उपकथाएं सुन गया। और बोला, 'बड़का बाबू जी, आप यह अब सारा कुछ भूल जाइए। और हमारे साथ चलिए। हमारी तरफ़ रहिए। मैं आप की अपनी ताक़त भर सेवा करूंगा। मुझे आप से कुछ नहीं चाहिए। जो खाऊंगा, खिलाऊंगा पर इज़्ज़त आप की और मान आप का जाने नहीं दूंगा। और जो आप की इज़्ज़त और सम्मान की ओर कोई फूटी आंख भी देखेगा तो उस की आंखें फोड़ दूंगा।'

बड़ी मुश्किल से राम निहोर राय गांव आने को तैयार हुए। आए। और पूरे गांव में राम निहोर की वापसी की ख़ुशी फैल गई। साथ ही राम किशोर और उन के परिवार की थू-थू भी। जगदीश जिस विश्वास से राम निहोर को ले आया था उसी निष्ठा से उन की सेवा में भी लग गया। उस ने उन के चर्म रोग की भी परवाह नहीं की। न उन के लिए बर्तन अलग किया, न बिस्तर चारपाई। उन के लिए नया एक जोड़ी धोती कुर्ता, अंगोछा, बंडी और जांघियां भी ख़रीद दिया। राम निहोर यह प्यार और सम्मान पा कर पुलकित हो गए। पुलकित भी हुए और शर्मिंदा भी। कि जिस भाई को उन्हों ने अपनी कमाई और जायदाद का शतांश भी नहीं दिया उसी भाई का बेटा निःस्वार्थ उन की सेवा कर रहा था। जगदीश के पिता राम अजोर ने भी बड़े भाई को सहज मन से लिया। राम निहोर के जीवन में अब सुख ही सुख था। वह फिर से गांव के मंदिर और पुजारी जी के साथ पूजा-पाठ में रम गए। एक दिन भरी दुपहरिया में राम निहोर ने छोटे भाई राम अजोर और जगदीश को साथ बिठाया और कहा कि, 'अपनी सारी खेती बारी जगदीश के नाम लिखना चाहता हूं।'

'नहीं बड़का बाबू जी ऐसा मत करिए।' जगदीश बोला।

'क्यों?' राम निहोर बोले, 'क्यों नहीं करूं?'

'इस लिए कि यह उचित नहीं है।' जगदीश बोला, 'आप को लिखना ही है तो दोनों भाइयों को आधा-आधा लिखिए। यही न्यायोचित होगा।'

'नहीं यह तो अन्याय होगा।' राम निहोर बोले, 'राम किशोर और उन के बेटों ने जो मेरे साथ किया है वह मैं अगले सात क्या सौ जनम में नहीं भूल पाऊंगा। मैं तो उन्हें एक धूल नहीं देने वाला हूं चाहे जो हो जाए।'

'चलिए फिर कभी ठंडे दिमाग़ से इस फ़ैसले पर सोचिएगा। अभी आप परेशान हैं।' राम अजोर ने भी कहा।

'फै़सला हो चुका है। अब कुछ सोचना-समझना नहीं है।'

'पर लोग क्या कहेंगे बड़का बाबू जी!' जगदीश बोला, 'लोग तो यही कहेंगे कि हम ने आप को फुसला लिया।'

'मैं कोई दूध पीता बच्चा तो हूं नहीं। कि तुम हमें फुसला लोगे। अरे फुसला तो उन सभों ने लिया था।' वह बोले, 'फिर यह फै़सला तो मेरा अपना है। तुम ने तो मुझ से कुछ कहा नहीं।'

'फिर भी लोक लाज है। लोग हम को बेईमान कहेंगे।'

'कैसे बेईमान कहेंगे?' राम निहोर बोले, 'जीवन भर की कमाई उन सबों को सौंप दिया। मकान बनवा दिया। अब खेती बारी तुम्हें दे रहा हूं। हिसाब बराबर।'

'पर आप का खेत भी तो अभी वही लोग जोत बो रहे हैं। उन्हीं का क़ब्ज़ा है।'

'खेत पहले बैनामा कर दूं फिर क़ब्ज़ा भी ले लूंगा।' वह बोले, 'अभी वह सब जोते-बोए हैं। काट लेने दो फिर अगली बार से तुम जोतना बोना।'

और सचमुच राम निहोर ने अपने हिस्से की सारी खेती बारी जगदीश के नाम लिख दिया। और फसल कट जाने के बाद खेत भी राम किशोर से ले लिया। लेकिन अभी तक राम किशोर या किसी अन्य को यह नहीं मालूम था कि राम निहोर ने सब कुछ जगदीश के नाम लिख दिया है। हां, यह अंदाज़ा ज़रूर लगा लिया कि अब राम निहोर भइया खेत बारी जगदीश के नाम लिख सकते हैं। इस को रोकने की तजवीज़ में ही वह एक वकील से मिले कि इस को कैसे रोका जाए। वकील ने बताया कि अगर पुश्तैनी जायदाद है यानी पैतृक है तो मुक़दमा कर के रोका जा सकता है। खसरा, खतौनी तथा ज़रूरी काग़ज़ात मंगवाए। तब पता चला कि राम निहोर ने तो बैनामा कर दिया है। राम किशोर धक से रह गए। वकील ने कहा कि फिर भी मुक़दमा हो सकता है अगर दाखि़ल ख़ारिज न हुआ हो। मालूम किया गया तो पता चला कि दाखि़ल ख़ारिज नहीं हुआ है। फिर तो ढेर सारी मनगढ़ंत बातें जोड़ कर दाखि़ल ख़ारिज रोकने के लिए मुक़दमा कर दिया राम किशोर ने। अब राम किशोर और राम अजोर जानी दुश्मन हो गए। दोनों के घरों के बीच छत बराबर बाउंड्री खड़ी हो गई। बात-बात पर लाठी भाला उन के बेटों के बीच निकलने लगा।

एक दिन राम निहोर और राम किशोर आमने-सामने पड़ गए। राम निहोर ने राम किशोर को देखते ही कहा कि, 'पापी तुम्हें नरक में भी जगह नहीं मिलेगी।'

'नरक तो आप झेल रहे हैं अभी से कोढ़ी हो कर।' उन के चर्म रोग को इंगित करते हुए राम किशोर ने दांत किचकिचा कर कहा। बात बढ़ गई। हमेशा शांत रहने वाले राम निहोर राम किशोर को मारने को लपके। राम किशोर भी राम निहोर की ओर मारने के लिए लपका। अभी बात हाथापाई तक ही आई थी कि गांव के कुछ लोग आ गए और बीच बचाव कर छुड़ाया। एक आदमी बोला, 'राम निहोर चाचा आप भी इस उमर में इस पापी के मुंह लगते हैं?'

तो राम किशोर उस के ऊपर भी किचकिचा गया। राम निहोर सिर झुका कर घर आ गए। घर में सारा हाल बताया। जगदीश ने कहा कि, 'बड़का बाबू जी अब से आप घर से कहीं अकेले नहीं जाया करेंगे।'

राम निहोर मान गए। पर राम किशोर नहीं माना। राम निहोर की सारी खेती बारी इस तरह से अपने हाथ से जाता देख वह हज़म नहीं कर पा रहा था। कहां तो उस ने सोचा था कि उस के दोनों बेटों के नाम जगदीश के बराबर ही खेती होगी। कहां जगदीश के पास उस के बेटों से चार गुनी खेती हो गई थी। वह चिंता में घुला जा रहा था। हफ़्ते भर में उस का ब्लड प्रेशर ज़्यादा बढ़ गया। इतना कि पैरालिसिस का अटैक हो गया। दायां हिस्सा पूरा का पूरा लकवाग्रस्त। दवा डाक्टर बहुत किया पर कुछ ख़ास काम नहीं आया सब। अब राम किशोर बिस्तर के हवाले था। गांव के लोगों ने स्पष्ट कहा कि उस के पाप की सज़ा उसे इसी जनम में मिल गई। राम निहोर के साथ उस का दुर्व्यवहार, उस की बेइमानी लोगों की ज़बान पर रही। उस के साथ इक्का-दुक्का को छोड़ कर किसी की सहानुभूति नहीं हुई।

पर राम निहोर को हुई। आखि़र छोटा भाई था। राम निहोर गए भी उस के घर उसे देखने। उस के माथे पर हाथ फेरते हुए उसे सांत्वना दिया और हाथ ऊपर उठा कर कहा कि, 'भगवान जी सब ठीक करेंगे।'

'बड़का भइया!' कह कर राम किशोर भी फफक कर रो पड़ा। पर आवाज़ स्पष्ट नहीं निकल पा रही थी। आवाज़ लटपटा गई थी। चिंतित राम निहोर घर लौटे। राम अजोर से बोले, 'हमारे घर के सुख पर किसी की नज़र लग गई। थाना, मुक़दमा हो गया। हमें यह बीमारी हो गई, राम किशोर ने बिस्तर पकड़ लिया।' राम अजोर ने उन की बात पर ग़ौर नहीं किया तो राम निहोर तड़प कर बोले, 'आखि़र हम हैं तो एक ही ख़ून! मुनीश्वर राय की संतान!'

राम अजोर समझ गए कि बड़का भइया भावुक हो गए हैं। दिन बीतते गए और मुक़दमा चलता रहा। घर के बीच की दीवार से भी बड़ी दीवार दिलों में बनती गई। यहां तक कि ख़ुशी, त्यौहार और शादी ब्याह में भी राम किशोर और राम अजोर के परिवार में आना जाना बातचीत सब बंद हो गया। लोगों को लगने लगा कि राम किशोर के लड़के राम अजोर के लड़के जगदीश का ख़ून कर देंगे। कुछ लोगों ने जगदीश को समझाया भी कि, 'अब से राम निहोर के हिस्से का खेत बारी आधा-आधा कर लो नहीं किसी दिन ख़ूनी लड़ाई छिड़ जाएगी।' जगदीश आधे मन से तैयार भी हो गया। पर राम निहोर एक प्रतिशत भी इस बात से सहमत नहीं हुए। उन्हों ने जगदीश को गीता के कुछ सुभाषित सुनाए और कहा कि, 'डर कर मत रहा करो।'

'जी बड़का बाबू जी!'

मुनक्का राय जब ससुराल पहुंचे तब तक दोपहर हो चुकी थी। लेकिन वहां जो नज़ारा उन्हों ने देखा तो आ कर पछताए। सारा शोक विवाद की भेंट चढ़ा हुआ था। गांव इकट्ठा था, रिश्तेदार और परिचित इकट्ठे थे और राम किशोर के दोनों लड़के कह रहे थे कि, 'बड़का बाबू जी दोनों भाइयों के बड़े भाई थे। सो उन का सब कुछ आधा-आधा बंटेगा। उन की लाश भी।' वह सब छटक-छटक कर उछल रहे थे कि, 'आधी लाश हमारी, आधी लाश तुम्हारी।'

'कहीं लाश का भी बंटवारा होता है?' गांव के किसी ने अफ़सोस करते हुए कहा तो राम किशोर के बेटे मुकेश ने लपक कर उस का गला दोनों हाथों से दाब दिया और बोला, 'चुप साले!'

विवाद बढ़ चुका था। आरी आ चुकी थी। राम निहोर की लाश को आधा-आधा करने के लिए। फ़ोटोग्राफ़र आ चुका था। फ़ोटो खींचने के लिए। राम किशोर के दोनों बेटे छटक-छटक कर राम निहोर की लाश के साथ फ़ोटो खिंचवा रहे थे। कभी इस एंगिल से, कभी उस एंगिल से। राम अजोर और जगदीश अपना-अपना माथा पकड़े चुप-चाप बैठे यह असहनीय तमाशा अभिशप्त हो कर देख रहे थे। आजिज़ आ कर किसी ने थाने पर फ़ोन कर पुलिस को ख़बर कर दिया। पुलिस आई तब कहीं जा कर मामले का निपटारा हुआ। राम निहोर की लाश के दो टुकड़े होने से बचे। राम किशोर के एक बेटे की फिर भी ज़िद थी कि 'बड़का बाबू जी को मुखाग्नि वही देगा।' अंततः पुलिस ने पूछा कि, 'अंतिम समय में राम निहोर राय किस के साथ थे और किस ने उन की सेवा की?' गांव वालों ने स्पष्ट बता दिया कि, 'राम अजोर राय और उन के बेटे जगदीश ने उन की सेवा की और वह उन्हीं के साथ रहते थे। सारी जायदाद भी उन्हों ने इन्हीं के नाम लिख दी है।'

'पर इस का मुक़दमा अभी चल रहा है।' मुकेश तमतमा कर बोला, 'दाखि़ल ख़ारिज अभी नहीं हुआ है।'

'तो अब मैं तुम्हें दाखि़ल कर दूंगा अभी थाने में।' दरोग़ा ने जब डपट कर मुकेश से यह बात कही तो वही भीड़ में दुबक गया।

'राम नाम सत्य है' के उद्घोष के साथ राम निहोर की शव यात्रा शुरू हुई। पुलिस के पहरे में। गांव से भीड़ उमड़ पड़ी। आस पास के गांवों की भी भीड़ जुड़ती गई। यह सोच कर कि श्मशान घाट पर भी कुछ बवाल ज़रूर होगा। राम निहोर राय की लाश के दो टुकड़े करने की बात गांव के आस पास के गांवों तक में आग की तरह फैल गई। ऐसा पहले कभी किसी ने न सुना था, न देखा था। सो यह उत्सुकता सरयू नदी के श्मशान घाट तक सब को खींच ले गई। मुनक्का राय भी अभी तक हतप्रभ थे। ज़िंदगी भर की वकालत में उन्हों ने किसिम-किसिम के झगड़े, प्रपंच और पेंच देखे थे पर ऐसा तो 'न भूतो, न भविष्यति!' वह बुदबुदाए।

श्मशान घाट पर मुकेश एक बार फिर कुलबुलाया, 'मुखाग्नि मैं दूंगा।'

पर ज्यों दरोगा ने उसे घूरा वह फिर भीड़ में दुबक गया। फिर कोई विवाद नहीं हुआ। ज़्यादातर भीड़ आ कर पछताई। कि कोई तमाशा न हुआ! मुनक्का राय भी श्मशान घाट से लौट कर आए। थोड़ी देर अनमना हो कर बैठे। राम अजोर से संवेदना जताई। पत्नी और मुनमुन को ले कर देर रात बांसगांव लौट आए। घर आ कर पत्नी से बोले, 'ई तुम्हारा मझला भाई राम किशोर शुरू से दुष्ट है। तुम्हें पता है जब हमारी शादी के लिए हमें देखने आया था तो तरह तरह के खुरपेंची सवाल पूछता था। इतना ही नहीं सुबह-सुबह जब लोटा ले कर दिशा मैदान गया तो बात ही बात में मुझे ललकार कर कोस भर दौड़ा दिया कि देखें कौन जीतता है? मैं समझ गया कि यह हमारी दौड़ नहीं देखना चाहता, हमारी परीक्षा लेना चाहता है। वह मेरा अस्थिमा चेक करना चाहता था मुझे दौड़ा कर। मैं दौड़ तो गया पर भगवान की कृपा से मेरी सांस तब नहीं फूली और यह बेवक़ूफ़ मुझे अपनी परीक्षा में पास कर गया। शादी हो गई हमारी। बेवक़ूफ़ कहीं का बड़ा होशियार समझता है अपने आप को।' कहते हुए मुनक्का राय इस शोक की घड़ी में भी पत्नी की ओर देख कर मुसकुरा पड़े।

वह जानते हैं कि पत्नी की मझले भइया से ज़्यादा पटती है। मझले भइया मतलब राम किशोर भइया। उस को अच्छा नहीं लग रहा है फिर भी वह बता रहे हैं कि, 'एक बार तो ससुरे ने हद ही कर दी। अचानक कचहरी आ गया भरी दुपहरिया में। उन दिनों नया-नया कोका कोला आया था देश में। मैं ने सोचा कि साले साहब का स्वागत कोका कोला से कर दूं। मुंशी से कह कर कोका कोला मंगवाया। आठ-दस लोग बैठे थे तख़ते पर। सो इस के चक्कर में सब के लिए मंगवाया। सब ने कोका कोला पिया। पर इस ने नहीं। हाथ जोड़ लिया। और देहाती भुच्च ने सारी नातेदारी रिश्तेदारी में मुझे पियक्कड़ डिक्लेयर कर दिया। सब को पूरा विस्तार देते हुए बताता कि बताइए बोतल चल रही है। खुल्लम खुल्ला। वह भी दिनदहाड़े। मैं गया तो बेशर्म मुझे भी पिलाने लगा। किसी तरह से हाथ जोड़ कर छुट्टी ली। मैं सफ़ाई दे-दे कर हार गया। पर कोई मानता ही नहीं था। तब के दिनों में कोका कोला का इतना चलन भी नहीं था। सो लोग कोका कोला समझे नहीं। बोतल समझे। और बोतल मतलब शराब!' वह भड़के, 'अब पड़ा है अपने पापों की गठरी लिए बिस्तर पर हगता मूतता हुआ। नालायक़ अपने धर्मात्मा भाई राम निहोर भाई साहब को भी नहीं छोड़ा। ज़िंदगी भर तो डसता ही रहा, मरने के बाद भी अपने संपोलों को भेज दिया आधी लाश काटने के लिए। नालायक़ को नर्क में भी यमराज महराज जगह नहीं देंगे।'

मुनक्का राय का एकालाप चालू था कि मुनमुन ने आ कर उन को टोका, 'बाबू जी कुछ खाएंगे-पिएंगे भी या मामा जी को कोस-कोस कर ही पेट भरेंगे?'

'हां, कुछ रूखा सूखा बना दो।'

'सब्जी बना दी है। नहा धो लीजिए तो रोटी सेकूं।'

'ठीक है।'

'और हां, अम्मा तुम भी कुछ खा लो।'

'मैं कुछ नहीं खाऊंगी आज। इन्हीं को खिला दो।'

खा पी कर सो गए मुनक्का राय। दूसरे दिन से फिर वही कचहरी, वही खिचखिच, वही मुनमुन, वही शादी खोजने की रामायण फिर से शुरू हो गई। और शादी काटने की गिरधारी राय की सक्रियता भी। राम निहोर राय की लाश आधी-आधी काटने के त्रासद तमाशे की रिपोर्ट गिरधारी राय को भी मिल गई थी। सो वह विवेक-मुनमुन कथा में खाने के बाद स्वीट डिश की तरह इस कथा को भी परोसने-परोसवाने लगे। वह कहते, 'जिस लड़की का ननिहाल इतना गिरा हुआ, इतना बवाली हो उस लड़की का किसी परिवार में आना कितना भयानक होगा? आखि़र आधा ख़ून तो उस का उसी ननिहाल का है।'

और जब उन्हों ने देखा कि मुनक्का राय अब शादी खोजेते-खोजते फ़ुल पस्त हो गए हैं और कहीं बात बन नहीं रही है तो बाहर से दिखने में चकाचक पर भीतर से पूरी तरह खोखले एक परिवार से रिश्ता करने की तजवीज़ एक वकील साहब के मार्फ़त परोसवा दिया। वह परिवार कभी रमेश का मुवक्क़िल भी रहा था और गिरधारी राय के ससुराल पक्ष से दूर के रिश्ते में भी। लड़का गिरधारी राय की तरह ही इलाहाबाद यूनिवर्सिटी का बेस्ट फेलियर था। साथ ही स्रिजनोफेनिया का पेशेंट भी था और फ़ुल पियक्कड़ भी। गिरधारी राय के हिसाब से मुनक्का राय को निपटाने के लिए फ़िट केस था। जब कि लड़के का पिता घनश्याम राय एक इंटर कालेज में लेक्चरर था और अपना एक हाई स्कूल भी चलाता था। दबंगई में भी वह थोड़ा बहुत दख़ल रखता था। ब्लाक प्रमुख रह चुका था, घर में ट्रैक्टर, जीप सहित खेत मकान सब था। मुनक्का राय जब उस के यहां पहुंचे तो उस ने उन की ख़ूब ख़ातिरदारी की। ख़ूब सम्मान दिया। मुनक्का राय गदगद हो गए। पर जब उन को पता चला कि लड़का राधेश्याम राय अभी इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में एम.ए. में पढ़ ही रहा है तो वह बिदके। पर लड़के के पिता ने झूठ बोलते हुए कहा कि, 'होनहार है और पी.सी.एस. की तैयारी भी कर रहा है।' तो उन की जान में जान आई। फिर लड़के के पिता घनश्याम राय ने कहा, 'आप के बेटे उच्च पदों पर प्रतिष्ठित हैं इस को भी अपनी तरह कहीं खींच लेंगे। और जो फिर भी कुछ नहीं हुआ तो अपना हाई स्कूल तो है ही। दोनों मियां-बीवी इसी में पढ़ाएंगे। आप की बेटी के शिक्षा मित्र होने का अनुभव भी काम आएगा।'

'हां-हां, क्यों नहीं?'

मुनक्‍का राय को इस रिश्ते में एक सुविधा यह भी दिखाई दी कि यहां इंगलिश मीडियम, इंजीनियर, एम.बी.ए., एम.सी.ए. वग़ैरह की चर्चा या फ़रमाईश लड़के के पिता ने नहीं की। लेकिन जब बात लेन देन की चली तो उस में उस ने कोई रियायत नहीं की। दस लाख रुपए सीधे नगद मांग लिए उस ने। मुनक्का राय थोड़ा भिनभिनाए तो वह बोला, 'आप के बेटे सब इतने प्रतिष्ठित पदों पर हैं। तो आप के लिए क्या मुश्किल है। आप के तो हाथ का मैल है दस लाख रुपए।'

'पर आप मांग बहुत ज़्यादा रहे हैं।' मुनक्का राय इस बार थोड़ा स्वर ऊंचा कर के बोले, 'यह रेट तो नौकरी वाले लड़कों का भी नहीं है। फिर आप का लड़का तो अभी पढ़ रहा है।'

'पढ़ ही नहीं रहा, पी.सी.एस. की तैयारी भी कर रहा है।' वह बोला, 'जब पी.सी.एस. में सेलेक्ट हो जाएगा तो आप को पचास लाख में भी नहीं मिलेगा। उड़ जाएगा।' वह मुनक्का राय से भी थोड़ा ऊंचे स्वर में बोला, 'पकड़ लीजिए अभी नहीं जब उड़ जाएगा तब नहीं पकड़ पाइएगा।'

'फिर भी!' मुनक्का राय फीके स्वर में बोले।

'अरे मुनक्का बाबू वह भी इस लिए हां कर रहा हूं कि आप के सभी बेटे प्रतिष्ठित पदों पर हैं, अच्छा परिवार है, कुलीन है तो मैं आंख मंूद कर हां कर रहा हूं।'

फिर ही-हा के बीच पंडित जी बुलाए गए। कुंडलियों की मिलान की गई। पंडित जी ने बताया कि, 'शादी बाइस गुण से बन रही है।'

फिर तो दोनों पक्षों ने एक दूसरे को बधाई दी। गले मिले। मुनक्का राय वापस बांसगंाव के लिए चल दिए। बिलकुल गदगद भाव में। उन्हों ने रास्ते में एक बार अपने कटिया सिल्क के कुर्ते और जाकेट पर नज़र डाली। उन्हें अच्छा लगा। फिर उन्हों ने सोचा कि कहीं इस कुर्ता जाकेट की फ़ोकसबाज़ी ने ही तो नहीं बात बना दी? फिर उन्हों ने यह भी सोचा कि कहीं इस जम रहे कुर्ता जाकेट के भौकाल में ही तो नहीं लड़के के पिता ने दहेज के लिए इतना बड़ा मुंह बा दिया?

फिर भी उन्हें यह रिश्ता जाने क्यों पहली नज़र में बहुत अच्छा लगा। अब उन्हें यह क्या पता था कि वह गिरधारी राय की बिछाई बिसात पर प्यादा बन कर रह गए हैं। राहुल का फ़ोन आने पर उन्हों ने बता दिया कि, 'तमाम देखी शादियों में एक शादी मुझे जम गई है। वह घनश्याम राय का बेटा राधेश्याम राय है। लड़का होनहार है। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में पढ़ रहा है और पी.सी.एस. की तैयारी भी कर रहा है।'

'मतलब आप को पूरी तरह पसंद है।'

'हां, पसंद तो है लेकिन वह दहेज थोड़ा ज़्यादा मांग रहा है।'

'कितना?'

'दस लाख रुपए नगद।'

'हां, यह तो थोड़ा नहीं बहुत ज़्यादा है।' राहुल बोला, 'आप भइया लोगों को भी बता दीजिए। क्या पता बातचीत से कुछ कम कर दे।'

'ठीक है।' मुनक्का राय आश्वस्त हो गए।

रमेश से बात हुई तो उस ने कहा कि, 'बाबू जी घनश्याम राय तो हमारा मुवक्किल रहा है उस का फ़ोन नंबर दीजिए तो मैं एक बार बात करता हूं। कुछ क्या ज़्यादा पैसे कम करवा लूंगा।'

'फ़ोन नंबर अभी तो नहीं है पर पता कर के बताऊंगा।'

'और हां, लड़के के बारे में ज़रा ठीक से जांच पड़ताल कर लीजिएगा। वैसे भी घनश्याम राय ज़रा दबंग और काइयां टाइप का आदमी है। यह भी देख लीजिएगा।'

'ठीक है।'

बाद में जब रमेश ने घनश्याम राय से बात की तो वह 'जज साहब, जज साहब!' कह-कह कर विभोर हो गया। कहने लगा, 'धन्यभाग हमारे कि आप ने हम को फ़ोन किया। हम को तो विश्वास ही नहीं हो रहा।'

'वह तो सब ठीक है पर आप जो दस लाख रुपए मांग रहे हैं उस का क्या करें?' वह बोला, 'एक बेरोज़गार लड़के का इतना दहेज तो सोचा भी नहीं जा सकता। और आप इस तरह मांग ले रहे हैं।'

'आप जैसा कहें हुज़ूर हम तो आप के पुराने मुवक्किल हैं।' कह कर वह घिघियाने लगा।

'नक़द, दरवाज़ा, सामान वग़ैरह कुल मिला कर पांच लाख रुपए में तय रहा। अब आप तय कर लीजिए कि क्या सामान लेना है और कितना नक़द। यह सब पिता जी को बता दीजिए।' रमेश ने लगभग फ़ैसला देते हुए कहा।

'अरे जज साहब इतना मत दबाइए।' घनश्याम राय फिर घिघियाया।

'हम को जो कहना था घनश्याम जी, कह दिया। बाक़ी आप तय कर लीजिए और पिता जी को बता दीजिए। प्रणाम!' कह कर रमेश ने फ़ोन काट दिया। फिर बाबू जी को यह सारी बात बताते हुए कहा कि, 'बाक़ी उत्तम मद्धिम आप अपने स्तर से देख लीजिएगा। ख़ास कर लड़का और लड़के का स्वभाव वग़ैरह। चाल-चलन, सूरत-सीरत। यह सब भी ज़रूरी है।'

'बिलकुल बेटा।' मुनक्का राय बोले, 'बस एक बार तुम सब भाई भी आ कर देख लेते तो अच्छा होता।'

'अब उस के घर हम को तो मत ले चलिए।' रमेश बोला, 'धीरज, तरुण से बात कर लीजिए।'

लेकिन धीरज और तरुण भी टाल गए। कहा कि, 'बाबू जी, आप ने देख लिया है, आप को पसंद आ गया है। आप अनुभवी भी हैं। आप का फ़ैसला ही अंतिम फ़ैसला है।'

मुनक्का राय बेटों की इस बात से गदगद हो गए। अंततः चार लाख रुपए नगद, मोटरसाइकिल और तमाम घरेलू सामान, घड़ी, चेन, टीवी, फ्रि़ज और फ़र्नीचर सहित चीज़ें तय हो गईं। शादी की तारीख़ और तिलक की तारीख़ बेटों की राय से दो तीन दिन के गैप में ही रखी गईं। ताकि समय ज़्यादा नष्ट न हो। और एक ही बार के आने में सब कुछ संपन्न हो जाए। अब दिक्क़त यह आई कि धीरज और तरुण ने जो दो-दो लाख रुपए देने को कहा था, घट कर एक-एक लाख रुपए पर आ गए। मुनक्का राय ने राहुल को बताया। राहुल थाईलैंड में ही अपने ससुर के पास गया। समस्या बताई। ससुर ने उसे आश्वस्त किया और कहा कि, 'ख़र्च-वर्च की चिंता मत करो। जो भी ख़र्च हो बताओ मैं सब दे दूंगा। बस यह ध्यान रखना कि शादी में कोई कमी न हो। पूरे धूम धाम से हो।' वह बोले, 'दो बेटियों की शादी कर चुका हूं। मान लेता हूं कि यह भी हमारी तीसरी बेटी है।'

'नहीं मैं एक-एक पाई बाद में वापस कर दूंगा।'

'मैं जानता हूं। पर इस की ज़रूरत नहीं है।' राहुल का ससुर दरअसल राहुल की इसी ख़ुद्दारी का क़ायल था। राहुल की सिंसियरिटी, उस की मेहनत और क़ाबिलियत पर उस के ससुर मोहित थे। वह सब से कहते भी थे कि, 'मैं बड़ा भाग्यशाली हूं जो ऐसा दामाद मिला।'

राहुल ने मुनमुन की शादी का सारा ख़र्च ओढ़ लिया। हवाला के जरिए पांच लाख रुपए बाबू जी को भेज दिया। और कहा कि, 'बाक़ी ख़र्च भी जो हो बताइएगा।'

कार्ड वार्ड भी छप गया। हलवाई वग़ैरह भी तय हो गए। मुनक्का राय कहते कि, 'पैसा हो तो कोई काम रुकता नहीं है।' तरुण तिलक के तीन दिन पहले सपरिवार आ गया। मुनमुन ने उस के पैर पकड़ लिए बोली, 'भइया एक बार लड़का देख आइए कि कैसा है? व्यवहार कैसा है? चाल-चलन कैसा है?'

'बाबू जी ने देखा है न?'

'कहां देखा है?' वह बोली, 'बाबू जी ने सिर्फ़ लड़के का घर और उस के पिता को देखा है। बाबू जी को उस के पिता ने जो बता दिया उन्हों ने वही मान लिया है। एक बार भी अपनी ओर से कुछ दरियाफ़्त नहीं किया।'

'लेकिन मुनमुन कार्ड छप कर बंट चुका है।' वह बोला, 'अब क्या किया जा सकता है?'

'क्यों बारात दरवाज़े से लौट जाती है जब कोई गड़बड़ होती है तो यहां तो सिर्फ़ कार्ड बंटा है।'

'अरे अब दिन भी कितने बचे हैं?'

'भइया आप लोग मेरी बलि मत चढ़ाइए।' वह फिर हाथ जोड़ कर बोली।

'मुनमुन अब कुछ नहीं हो सकता।' तरुण सख़्त हो कर बोला।

दूसरे दिन धीरज आया तो उस ने धीरज से भी पैर पकड़ कर चिरौरी की कि, 'भइया आप तो प्रशासन चलाते हैं। एक बार अपने होने वाले बहनोई को जा कर देख आइए। उस के बारे में कुछ पता करवा लीजिए!'

'क्या बेवक़ूफी की बात करती हो?' धीरज ने भी डपट दिया।

रमेश भइया से भी मुनमुन ने हाथ जोड़ा तो वह बोला, 'मैं जानता हूं उस परिवार को।'

'अपने होने वाले बहनोई को भी जानते हैं?'

'अब शादी हो रही है, उसे भी जान लेंगे।'

तिलक के दिन राहुल आया थाईलैंड से तो मुनमुन ने उस से भी कहा कि, 'भइया आप इतना पैसा ख़र्च कर रहे हैं मेरी शादी में, एक बार अपने होने वाले बहनोई के बारे में भी कुछ जांच पड़ताल कर लीजिए।'

'अब आज के दिन?'

'आदमी कपड़ा भी ख़रीदता है तो देख समझ कर और आप लोग मेरे होने वाले जीवन साथी को भी नहीं देखना समझना चाहते हैं?'

'आज तिलक चढ़ाने जा रहे हैं देख समझ लेंगे।' राहुल बोला, 'फिर बाबू जी ने तो देख समझ लिया ही है। वह कोई दुश्मन तो हैं नहीं तुम्हारे?'

'पर गिरधारी चाचा तो हैं न?'

'क्या?'

'उन की ससुराल के रिश्ते में हैं वह सब।'

'क्या?'

'हां।'

'तुम्हें कैसे पता?'

'बाबू जी की बातों से ही पता चला।'

'ओह तो बाबू जी यह सब जानते हैं न?' राहुल बोला, 'फिर घबराने की कोई बात नहीं।'

'बाबू जी ने तो अपने होने वाले दामाद को भी अभी तक नहीं देखा है कि लूला है कि लंगड़ा है। बस उस के बाप को देखा है और उस की फ़ोटो देखी है बस!'

‘चलो अगर तिलक में लूला-लंगड़ा, काना-अंधा या ऐसा वैसा दिखा तो शादी कैंसिल कर देंगे। बस!’ राहुल बोला, ‘तुम इतना शक क्यों कर रही हो बाबू जी के फ़ैसले पर?’ ‘इस लिए कि यह मेरी ज़िंदगी है, मेरे भविष्य का सवाल है। ज़माना बदल गया है। पर बाबू जी नहीं। वह अभी भी पुराने पैटर्न पर चल रहे हैं जब बाल विवाह का ज़माना था और लोग मां-बाप, घर दुआर देख कर शादी कर देते थे।’ ‘ओह इतनी सी बात?’ राहुल बोला, ‘बाबू जी पर इतना अविश्वास करना ठीक नहीं है। ख़ुशी-ख़ुशी शादी करो सब ठीक होगा।’ कह कर राहुल ने अपनी ओर से बात समाप्त करनी चाही। ‘आप लोग दीदी लोगों की शादी में तो इतने निश्ंिचत नहीं थे। एक-एक चीज़ खोद-खोद कर ठोंक पीट कर तय कर रहे थे।’

‘तब मुनमुन समय बहुत था।’ राहुल बोला, ‘तब की बात और थी। हम लोग तब कमज़ोर थे। आज नहीं हैं। आज कोई हम लोगों की तरफ़ सपने में भी आंख उठा कर नहीं देख सकता।’

‘इतना अहंकार ठीक नहीं है राहुल भइया!’ मुनमुन बोली, ‘रावण इसी में डूब गया था और बरबाद हो गया।’

‘क्या बेवक़ूफी की बात करती हो?’ राहुल बोला, ‘तुम्हारी शादी है शुभ-शुभ बोलो!’

‘शुभ-शुभ ही आगे भी रहे भइया इसी लिए तो कह रही हूं कि एक बार अपने होने वाले बहनोई को शादी के पहले ठीक से जांच पड़ताल लीजिए।’ मुनमुन बोली, ‘आखि़र मैं कोई दुश्मन तो हूं नहीं आप लोगों की जो इस तरह बिना जांचे-समझे हमें एक अनजाने खूंटे से बांध दे रहे हैं। आख़िर हमारी जिंदगी का सवाल है।’

‘बाबू जी पर तुम को भरोसा नहीं हैं?’ राहुल परेशान हो कर बोला।

‘पूरा भरोसा है। पर अब वह उतने शार्प नहीं रह गए। उमर हो गई है। दूसरे वह सिर्फ़ घर और लड़के के पिता को देखे हैं। लड़के को नहीं।’

‘क्यों बरिच्छा में तो देखे ही होंगे?’

‘कहां?’ मुनमुन अकुला कर बोली, ‘उस के छोटे भाई ने बरिच्छा लिया। वह तो इलाहाबाद से आया ही नहीं था, बरिच्छा में।’

‘क्यों?’

‘हां, बाबू जी सिर्फ़ फ़ोटो से ही काम चला रहे हैं।’

‘चलो अब आज तिलक तो कैंसिल हो नहीं सकती।’ राहुल बोला, ‘पर मैं कोशिश करूंगा कि उस को आज ठीक से देख-समझ लूं। कहीं कोई दिक्क़त हुई तो कैंसिल कर दूंगा यह शादी।’

‘सच राहुल भइया!’ वह राहुल के पैर पकड़ कर बैठ गई, ‘भूलिएगा नहीं।’

‘बिलकुल!’

धूमधाम से तिलक गई और चढ़ी। वापस आ कर सब लोगों ने तिलक में ख़ातिरदारी और इंतज़ाम की बड़ाई के पुल बांध दिए। फिर इस फ़िक्र में पड़ गए कि यहां इंतज़ाम में कोई कोर कसर न रह जाए! सारी बातें थीं पर नहीं कुछ था तो वह थी दुल्हे की बात। कोई दुल्हे के बारे में ज़िक्र भी नहीं कर रहा था, भूले से भी। सुबह से शाम हो गई। मुनमुन कान लगाए-लगाए थक गई। सभी इंतज़ाम में डूबे थे। अंततः मौक़ा देख कर मुनमुन ने फिर राहुल को पकड़ा। पूछा, ‘मेरा काम किया?’

‘कौन सा काम?’

‘दुल्हा देखा?’ वह खुसफुसाई।

‘हां, भई हां दुल्हा देखा!’ राहुल ज़रा ज़ोर से बोला।

‘धीरे से नहीं बोला जा रहा?’ मुनमुन फिर खुसफुसाई।

‘हां, भई देखा।’ राहुल भी मुनमुन की तरह खुसफुसाया।

घर में सब लोग यह सब देख कर खिलखिला कर हंस पड़े। मुनमुन लजा कर अपने कमरे में भाग गई। लेकिन थोड़ी देर बाद फिर से उस ने मौक़ा देख कर राहुल को पकड़ा और उस का हाथ पकड़ कर उसे छत पर ले गई। बोली, ‘मेरा मज़ाक उड़ाने का समय नहीं है यह। मेरी ज़िंदगी और मौत का सवाल है यह।’

‘अच्छा?’ राहुल ने आंख फैला कर मज़ा लेते हुए कहा।

‘तो तुम नहीं मानोगे? न बताओगे?’

‘देखो सच बात यह है कि तुम्हारा होने वाला दुल्हा एक आंख और एक पैर दोनों से लाचार है।’ राहुल मज़ा लेते हुए बोला, ‘इसी लिए मैं वहां सब के सामने कुछ बताने से हिचक रहा था। अब तुम पूछोगी कि फिर भी मेरी शादी क्यों उस से की जा रही है? तो मैं देखो बस इतनी सी बात कहूंगा कि यह बाबू जी का फ़ैसला है और हम भाइयों में से कोई भी बाबू जी का फ़ैसला चैलेंज करने की स्थिति में नहीं है। ठीक?’ राहुल ने बात ख़त्म करते हुए पूछा, ‘अब मैं जाऊं? बहुत से काम बाक़ी हैं।’

‘ओफ़्फ़ राहुल भइया यह मज़ाक का विषय नहीं है।’

‘तुम को अब मेरी बात पर भरोसा नहीं है तो मैं क्या कर सकता हूं?’ कह कर राहुल हंसता हुआ छत से सीढ़ियां उतरता भाग गया। और फिर जब तीसरी बार मुनमुन ने राहुल को पकड़ा तो राहुल ने सच बता दिया, ‘देखो मुनमुन तुम्हारा दुल्हा दिखने में औसत है। ठीक ठाक कह सकता हूं। अगर अमिताभ बच्चन नहीं है तो मुकरी या जगदीप या जानी लीवर जैसा भी नहीं है। क़द तुम से निकला हुआ ही है और रंग भी तुम्हारे जैसा ही है।’

‘और बात व्यवहार?’ मुदित होती हुई मुनमुन बोली।

‘अब तुम जो इतना पीछे पड़ी हो तो सच बताऊं मेरी बहन, ज़रा देर में किसी का बात व्यवहार कैसे कोई जान सकता है? और ऐसे मौक़े पर वैसे भी सभी लोग ज़रूरत से ज़्यादा फ़ार्मल हो जाते हैं। हैलो हाय और एक दूसरे के परिचय के अलावा कुछ ख़ास बात भी नहीं हुई।’

‘चलो राहुल भइया इतना बताने और पहले ख़ूब सताने के लिए शुक्रिया।’ वह हाथ जोड़ कर विनयवत बोली।

‘और हां, अगर ज़्यादा डिटेल जानना हो तो रमेश भइया से पूछ लो। उन्हों ने उस से ज़्यादा देर तक बात की। आखि़र उन के पुराने मुवक्किल का बेटा था। और फिर सच पूछो तो पूरे तिलक समारोह में उन्हीं का भौकाल भी था। वी.वी.आई.पी. वही थे। हर कोई जज साहब, जज साहब की ही धुन में था। धीरज भइया की कलफ़ लगी अफ़सरी भी उन की जज साहबियत के आगे नरम पड़ गई थी।’

‘रमेश भइया!’ मुनमुन ऐसे बोली गोया उस के मुंह में कोई कड़वी चीज़ आ गई हो, ‘मेरी औक़ात नहीं है उन से यह सब पूछने की।’

‘तो अब मेरी आधी-अधकचरी सूचनाओं से काम चलाओ।’

‘देखते हैं!’

पर दूसरे दिन कोहराम मच गया। पर गुपचुप। कुछ ऐसे कि ख़ामोश अदालत जारी है। घनश्याम राय का फ़ोन आया था। उन के मुताबिक़ किसी विवेक सिंह ने फ़ोन कर उन के बेटे राधेश्याम को धमकी दी थी कि, ‘बारात ले कर बांसगांव मत आना। नहीं पूरी बारात और तुम्हारे हाथ पांव तोड़ कर बांसगांव में गाड़ दूंगा। मुनमुन हमारी है और हमारी रहेगी।’ घनश्याम राय यह डिटेल देते हुए पूछ भी रहे थे कि, ‘यह विवेक सिंह कौन है?’

जानता तो हर कोई था कि विवेक सिंह कौन है पर सब ने अनभिज्ञता ज़ाहिर की। और कहा कि, ‘चिंता मत करें कोई सिरफिरा होगा और उस का पता करवा कर इंतज़ाम कर दिया जाएगा। आप ख़ुशी-ख़ुशी बारात ले कर आइए।’ यह आश्वासन धीरज ने अपनी ज़िम्मेदारी पर दिया। लेकिन घनश्याम राय ने कहा, ‘ऐसे नहीं आ पाएगी बारात।’

‘फिर?’

‘मैं पहले अपनी होने वाली बहू से सीधे बात करुंगा फिर कोई फ़ैसला लूंगा।’

‘सुनता था आप बड़े दबंग हैं, ब्लाक प्रमुख रहे हैं। पर आप तो कायरता की बात कर रहे हैं?’ धीरज ने कहा।

‘आप जो समझिए पर मैं लड़की से बात किए बिना कोई फ़ैसला नहीं ले सकता।’

‘रुकिए मैं अभी बात करवाता हूं।’

‘नहीं फ़ोन पर नहीं। मैं मिल कर आमने-सामने बात करूंगा। और आज ही।’

‘तो कब आना चाहेंगे?’

‘अभी दो-तीन घंटे में।’

‘आ जाइए!’ धीरज भी सख़्त हो गया।

फिर राहुल को बुलाया धीरज ने। राहुल के आते ही वह बऊरा गया। लग रहा था जैसे वह राहुल को ही मार डालेगा। राहुल ने कहा भी कि, ‘भइया मैं संभालता हूं।’

‘कोई ज़रूरत नहीं।’ धीरज ने सख़्ती से कहा, ‘तुम अभी मुनमुन को संभालो और समझाओ। अभी थोड़ी देर में घनश्याम राय आ रहे हैं वह ख़ुद मुनमुन से बात करेंगे। तब फ़ैसला करेंगे कि बारात आएगी कि नहीं।’ कह कर धीरज अम्मा के पास गया और कहा कि, ‘अम्मा समझाओ मुनमुन को कि अभी तो शादी कर ले। बाद में चाहे जो करे। इस तरह भरी सभा में हम लोगों की पगड़ी मत उछाले। सिर नीचा मत कराए।’ फिर धीरज ने पत्नी को भी समझाया कि, ‘वह भी मुनमुन को समझाए।’ और रमेश की पत्नी के पास भी गया कि, ‘भाभी आप भी समझाइए।’ इस के बाद उस ने एस.डी.एम. को फ़ोन कर के बुलवाया। एस.डी.एम. से अकेले में बात की और बताया कि, ‘विवेक सिंह नाम का लाखैरा शादी में अड़चन बन रहा है। उसे संजीदगी से बांसगांव की बजाय किसी और थाने की पुलिस से तुरंत गिरफ़्तार करवा कर, हाथ पैर तुड़वा कर हफ़्ते भर के लिए बुक करवा दो।’ उस ने जोड़ा, ‘हमारी इज़्ज़त का सवाल है।’

‘सर!’ कह कर एस.डी.एम. चला गया। और धीरज के कहे मुताबिक़ उस ने उसे दूसरे थाने की पुलिस द्वारा विवेक सिंह को आर्म्स एक्ट में अरेस्ट करवा कर अच्छे से पिटाई कुटाई करवा दी। और मामला क्या है इस की गंध भी नहीं लगने दी। आखि़र सीनियर के घर की इज़्ज़त का सवाल था।

इधर मुनमुन इस सब से बेख़बर थी। पर जब एक साथ अम्मा और भाभियां उसे समझाने लग गईं तो वह बेबस हो कर रो पड़ी। बाद में बहनों ने भी उसे समझाया। लेकिन मुनमुन ने जिस तरह पूरे मामले से अनभिज्ञता जताई और पूरी तरह निर्दोष दिखी तो धीरज को लगा कि दाल में कुछ काला है। और फ़ौरन उस को लगा कि हो न हो यह कहीं गिरधारी चाचा की लगाई आग न हो। उस ने फ़ौरन घनश्याम राय से कहा कि या तो वह कालर आई डी फ़ोन लगवा लें या फिर फ़ोन पर आने वाले काल्स को एक्सचेंज के थ्रू वाच करवा लें। ताकि शरारत करने वाले को दबोचा जा सके। घनश्याम राय ने बताया कि आलरेडी वह कालर आई डी फ़ोन लगाए हुए हैं और नंबर चेक कर लिया है। यह नंबर बांसगांव के ही एक पी.सी.ओ. का है। फिर उन्हों ने वह नंबर भी दे दिया। उस नंबर वाले पी.सी.ओ. पर भी धीरज ने जांच पड़ताल करवाई। कोई ठोस जानकारी नहीं मिल सकी कि किस ने फ़ोन किया था। धीरज का मन हुआ कि एक बार गिरधारी चाचा की भी शेख़ी वह निकलवा दे। करवा दे उन की भी इस बुढ़ौती में कुटाई। पर कहीं लेने के देने न पड़ जाएं और अपनी ही छिछालेदर हो जाए। सो वह ज़ब्त कर गया।

ख़ैर, घनश्याम राय बांसगांव आए। गुपचुप उन्हें मुनमुन से मिलवा भी दिया गया। दी गई ट्रेनिंग के मुताबिक़ वह पल्लू किए हुए उन से मिली। मिलते ही चरण स्पर्श किए। और हर सवाल का पूरी शिष्टता से सकारात्मक जवाब दिया और यह भी बताया पूरी ताक़त और विनम्रता से कि, ‘मैं किसी विवेक सिंह को नहीं जानती।’ घनश्याम राय पूरी तरह संतुष्ट हो कर बांसगांव से गए। हुई असुविधा के लिए क्षमा मांगी और कहा कि, ‘निश्चिंत रहिए किसी शरारती तत्व के बहकावे में अब हम नहीं आने वाले। बारात निश्चित समय से आएगी।’

धीरज ने झुक कर उन के चरण स्पर्श कर उन का शुक्रिया अदा किया। इतना सब घट गया पर मुनक्का राय को इस सब की ख़बर नहीं दी गई। जान-बूझ कर। कि कहीं यह सब जान सुन कर उन का स्वास्थ्य न बिगड़ जाए। अम्मा को भी धीरज ने समझा दिया कि, ‘बाबू जी को यह सब मत बताना नहीं कहीं उन की तबीयत बिगड़ गई तो मुश्किल हो जाएगी।’

अम्मा मान गई थीं। फिर धीरज ने सोचा कि क्यों न शादी के दिन फ़ोर्स की भी व्यवस्था कर ले। एस.डी.एम. से कह कर सादे कपड़ों में पुलिस लगवाने की व्यवस्था करवा दी और एस.एस.पी. से कह कर घुड़सवार पुलिस भी स्वागत के लिए दरवाज़े पर तैनात करवाने की व्यवस्था कर ली। फिर उस घड़ी को कोसा जब बाबू जी ने बांसगांव में रहने का तय किया। अपने को भी कोसा कि क्यों यह घर बांसगांव जैसी लीचड़ जगह में बनवाया जहां की गुंडई की चर्चा पहले पहुंचती है, आदमी बाद में पहुंचता है। इस से अच्छा रहा होता कि उसने यह घर गांव में बनवाया होता। ख़ैर, अब तो जो होना था, हो गया था, आगे की सुधि लेनी थी। फ़िलहाल तो घर में रौनक़ थी। लगता ही नहीं था कि यह वही घर है जिस में मुनक्का राय, मुनमुन और उस की अम्मा संघर्ष भरे दिन गुज़ारते रहे हैं। एक-एक पैसे जोड़ते और तिल-तिल मरते रहे हैं। कभी दवाई के लिए तो कभी रोजमर्रा की चीज़ों के लिए।

अभी तो घर गुलज़ार था और चकाचक पुताई और सजावट से सराबोर चहकते और महकते लोगों से भरा यह घर यक़ीन दिला रहा था कि हां, इस घर में जज और अफ़सरों का बसेरा है। चिकने-चुपड़े बच्चे भी इस बात की तसदीक़ कर रहे थे। गिरधारी राय तक इस घर की ख़ुशी में खनकती सजावट और चहक की रिपोर्ट भी मुसलसल पहुंच रही थी। कुछ पट्टीदार और रिश्तेदार कबूतर बने हुए थे। पर गिरधारी राय पल-पल बेचैन थे। घर की ख़ुशियों और उस की खनक से नहीं बल्कि जो बबूल वह फ़ोन पर घनश्याम राय और उस के बेटे को परोसवा चुके थे, उस से आम की फसल कैसे मिल रही थी, इस से! उन्हें तो उम्मीद थी कि अब तक तो कोहराम मच जाएगा। पर यहां तो सब गुड-गुड न्यूज़ की बौछार थी। एक रिश्तेदार महिला जो प्रौढ़ा से वृद्धावस्था में जा रही थीं, शादी की तैयारियों, इंतज़ामात, ज़ेवरात वग़ैरह के ब्यौरे परोस रही थीं और गिरधारी राय के दिमाग़ में मक्खी भिनभिना रही थी। जब बहुत हो गया तो वह बुदबुदाए, ‘चार दिन की चांदनी फिर अंधेरी रात है!’

‘शुभ-शुभ बोलो भइया। अइसा काहें बोल रहे हो!’ रिश्तेदार महिला बोली।

‘अरे नहीं हम दूसरी बात पर बोल रहे हैं।’ कह कर गिरधारी राय ने बात काट दी।

खै़र, तय समय पर बारात आई। पर द्वारपूजा के ठीक पहले ख़ूब ज़ोरदार बारिश शुरू हो गई। सारी व्यवस्था थोड़ी देर के लिए छिन्न भिन्न हो गई। गिरधारी राय की ख़ुशी का ठिकाना नहीं था। किसी ने मुनक्का राय से कहा कि, ‘बारिश तो बंद ही नहीं हो रही? क्या होगा?’

‘कुछ नहीं हमारे बेटे सब हैं न! सब संभाल लेंगे!’

‘ये बारिश भी संभाल लेंगे?’ पूछने वाला बिदका।

‘अरे नहीं, वह तो भगवान संभालेंगे। मैं तो व्यवस्था की बात कर रहा था।’

‘अच्छा-अच्छा!’

मुनक्का राय मुदित थे। मुदित थे; व्यवस्था पर, ताम झाम पर, बेटों की सक्रियता पर।

ख़ैर बारिश बंद हुई द्वारपूजा की तैयारियां शुरू र्हुइं। ज़मीन गीली हो गई थी। सो चार तख़त बिछा कर उसी पर द्वारपूजा के लिए तैयारी की गई। द्वारपूजा पर दामाद के पांव पूजते हुए मुनक्का की आंखें भर आईं। भर आईं यह सोच कर कि अब मुनमुन भी कुछ दिनों बाद चली जाएगी और वह अकेले रह जाएंगे, मुनमुन की अम्मा के साथ। छत से पड़ रही द्वारचार की अक्षतों के बीच जो औरतें फंेक रही थीं मुनक्का की ख़ुशी का भी कोई ठिकाना नहीं था। तिस पर बैंड बाजे पर बज रही छपरहिया धुन ने उन्हें इस बुढ़ौती में भी मस्त कर दिया। इतना कि द्वारपूजा के बाद तख़त पर से छटक कर कूदे और अपने पीछे बज रहे बैंड के बीच घुस कर नचनिया का नाच देखने लगे। उन के किसी रिश्तेदार ने बुदबुदा कर पूछा भी आंख मटका कर कि, ‘का हो मुनक्का बाबू?’

‘अरे बड़ा सुंदर नाच रहा है?’ वह बुदबुदाए और शरमा गए। शरमा कर वहां से छिटक गए।

बारातियों का जलपान वगै़रह संपन्न हो गया था और बाराती उस इंटर कालेज में लौट चुके थे जहां वह ठहराए गए थे। विवाह की बाक़ी तैयारियां और खाने पीने की व्यवस्था चल रही थी। दरवाजे़ पर रमेश कुछ लोगों के साथ बैठा था। लोग रमेश यानी जज साहब के पास आते और प्रणाम कह कर या चरण स्पर्श कर के आते जाते रहे। तभी मुनक्का राय के एक सहयोगी वकील दो लोगों के साथ आ गए। कुर्सियां कम थीं। अचानक एक ख़ाली कुर्सी पर वह बैठ गए और बड़ी बेफ़िक्री से बोले, ‘हे रमेश ज़रा जाओ उधर से दो तीन ठो कुर्सी उठा लाओ।’ वहां उपस्थित लोग भौंचकिया कर उन वकील साहब को देखने लगे। पर जिस बेफ़िक्री से वकील साहब ने रमेश से कुर्सी लाने को कहा था, उसी फुर्ती से रमेश उठ कर कुर्सी लेने चला गया। कुर्सी ला कर वह रख ही रहा था कि एक दूसरे वकील ने उन वकील साहब से बड़ी संजीदगी से कहा, ‘आप को पता है वकील साहब आप ने एक न्यायाधीश से कुर्सी मंगवाई है।’

‘अरे, क्या बोल रहे हैं आप?’ शर्मिंदा होते हुए वह बोले, ‘बेटा माफ़ करना मुझे याद नहीं था।’

‘अरे कोई बात नहीं चाचा जी!’ रमेश पूरी विनम्रता से बोला, ‘आप कहिए तो दो चार और कुर्सियां ला दूं?’

‘अरे नहीं, बेटा बस!’ वकील साहब हाथ जोड़ कर बोले।

‘अब यह हाथ जोड़ कर मुझे शर्मिंदा तो मत करिए।’ रमेश ने ख़ुद हाथ जोड़ कर कहा।

ऐसे ही कुछ न कुछ चलता-घटता रहा। फिर भसुर द्वारा त्याग-पात यानी कन्या निरीक्षण हुआ; जयमाल हुआ, खाना पीना हुआ। सब ने खाने की और इंतज़ाम की डट कर तारीफ़ की। क्या घराती, क्या बाराती सब ने। ज़्यादातर बाराती चले गए। घराती, पड़ोसी चले गए। रिमझिम बारिश के बीच विवाह की रस्में शुरू हुईं तब तक आधी रात हो चुकी थी। कहीं कुछ अप्रिय नहीं घटा। सब ने चैन की सांस ली। लावा परिछाई हुई, पांव पुजाई हुई, कन्यादान हुआ। सुबह हो गई पर बारिश की रिमझिम नहीं थमी। बीच रिमझिम ही नाश्ते के बाद कोहबर में दुल्हा-दुल्हन ने पासा खेला। माथ ढंकाई हुई और मड़वा अस्थिल की रस्में हुईं। दुल्हा दुल्हन की सखियों और घर की महिलाओं से मिला। बची खुची बारात जब विदा हुई तब भी रिमझिम थमी नहीं थी। दुल्हन विदा नहीं हुई। क्यों कि घनश्याम राय के यहां विवाह में दुल्हन की विदाई विवाह में सहती नहीं थी। गौना तय हुआ था बरस भर के भीतर।

ख़ैर, शादी ठीक निपट गई, यह सोच कर सब ने संतोष किया। पूरी शादी में रिश्तेदारों और परिवारीजनों ने यह भी नोट किया कि रमेश को बड़े भाई के नाते का सम्मान भी मिल गया था। बाक़ी बहनों की शादियों में नौकरों से भी गई बीती हैसियत हो गई थी उस की, अब की नहीं। रमेश भी सिर झुकाए नहीं, सिर उठाए घूम रहा था। मुनक्का राय भी हर्ष में थे।

और जैसा कि सभी शादियों में होता है कि बारात की विदाई के बाद जो जहां जगह पाता है, सो जाता है और जो रिश्तेदार रात में सो चुका होता है, वह विदाई की तैयारी में होता है। यहां भी वही मंज़र था। पर यहां थोड़ा फ़र्क़ भी था। दोपहर होते-होते रमेश, धीरज और तरुण भी सपरिवार बांसगांव से विदाई की तैयारी में थे। अम्मा ने टोकते हुए रोका भी कि, ‘अभी कई रस्में बाक़ी हैं। फूलसेरऊवा बाद जाते तो अच्छा था। पर इस सब के लिए किसी के पास समय नहीं था। सब की अपनी-अपनी व्यस्तताएं थीं। फिर हुआ यह कि घर में रिश्तेदार रह गए, घर वाले चले गए। मुनक्का राय का सारा हर्ष विषाद में बदल गया। बीच रिमझिम में ही तीन बेटे सपरिवार चले गए। सब के पास अपनी-अपनी गाड़ियां थीं। स्टार्ट हो गईं। बारी-बारी। अब रह गया था राहुल और उस का परिवार। विनीता और रीता दोनों बहनें, उन के पति और बच्चे। छिटपुट और रिश्तेदार। राहुल को अभी सारे बचे खुचे हिसाब किताब करने थे। सब की विदाई करनी थी। सब से छोटा होने के बावजूद उसे बड़ों की ज़िम्मेदारी निभानी पड़ रही थी। ख़र्च-वर्च की तो वह ख़ैर थाईलैंड से ही प्लानिंग कर के आया था। पर यह ज़िम्मेदारी भी निभानी पड़ेगी, उस ने सोचा नहीं था। बड़े भाइयों पर वह किंचित क्रोधित भी हुआ। वह अम्मा से कह भी रहा था कि, ‘मत कुछ करते लोग बस घर में बने रहते तो अच्छा लगता।’

‘हां, बेटा बारात जाते ही घर सूना हो गया। मुझे भी अच्छा नहीं लग रहा।’ अम्मा ने कहा।

दो दिन बाद राहुल भी चलने को तैयार हो गया तो अम्मा ने टोका कि, ‘तुम को तो बेटे अगले हफ़्ते जहाज़ पकड़नी थी?’

‘हां, है तो अगले हफ़्ते का ही जहाज़ पर दिल्ली में कुछ ज़रूरी काम हैं।’ वह बोला, ‘फिर सारे काम-धाम भी निपट गए हैं। कुछ बाक़ी तो रहा नहीं अब?’

‘हां, वो तो है पर दो चार दिन और रह जाते तो अच्छा लगता।’

‘नहीं अम्मा अब जाने दो!’

‘तो फिर अब कब आओगे?’ अम्मा बोलीं, ‘इस के गौने में तो आओगे न?’

‘कहां अम्मा?’ राहुल बोला, ‘इतनी जल्दी फिर छुट्टी और इतना ख़र्चा आने-जाने का। कहां आ पाऊंगा?’

‘हां, ख़र्चा तो तुम्हारा बहुत हो गया।’

अम्मा बोलीं, ‘पर जब मौक़ा मिले जल्दी आना।’

‘ठीक अम्मा।’ कह कर उस ने बाबू जी के भी पांव छुए। मुनक्का राय की आंखों में आंसू आ गए। वह फफक कर रो पड़े और राहुल से लिपट गए। रोते-रोते ही बोले, ‘बुढ़ापे में तुम ने मेरी लाठी बन कर मेरी लाज बचा ली। और क्या कहूं? तुमने बहुत किया।’

‘कुछ नहीं बाबू जी यह तो मेरा धर्म था।’ कह कर राहुल चलने लगा तो मुनमुन उस से लिपट कर फफक पड़ी।

‘अरे अभी तो तुम्हारी विदाई हो नहीं रही, तुम क्यों रो रही हो अभी से।’ राहुल ने हंसते हुए पूछा। पर वह चुपचाप आंसू बहाती रही। कृतज्ञता के आंसू। फिर राहुल ही उस का चेहरा हाथों में ले कर बोला, ‘अब घर की लाज तुम्हारे हाथों में है। अब कुछ ऐसा वैसा सुनने को न मिले तो अच्छा है।’

मुनमुन ने स्वीकृति में सिर हिला दिया। राहुल के जाने के बाद बाक़ी रिश्तेदार भी दो तीन दिन में चले गए। रह गए फिर वही तीन मुनक्का राय, मुनमुन और उस की अम्मा। फिर वही कचहरी, वह स्कूल, वही बीमारी, वही दवाई और वही रोज़मर्रा का संघर्ष।

मुनक्का राय एक दिन मुनमुन की अम्मा से बोले, ‘कैसा तो सांय-सांय कर रहा है घर!’

‘हां, उधर कुछ दिन के लिए कैसा तो गुलज़ार हो गया था घर। सब लोग इकट्ठे थे तो रौनक़ बढ़ गई थी।’ मुनमुन की अम्मा बोलीं।

‘लगता है जैसे यह घर, घर नहीं कोई गेस्ट हाऊस हो गया था। कि मुसाफ़िर आए। खाए-पिए, रहे और चले गए।’ घर की छत को निहारते हुए वह बोले, ‘जैसे किसी पेड़ पर पतझड़ बरपा हो गया हो।’

पर मुनमुन की अम्मा चुप हो गईं। मुनक्का राय के दुख को अपने दुख में मिला कर बड़ा नहीं करना चाहती थीं वह।

इधर मुनमुन ने भी शादी के बाद विवेक की ख़बर नहीं ली, न ही विवेक ने मुनमुन की। रास्तों में भी कहीं मुनमुन को विवेक नहीं मिला। दिखता भी भला कैसे? वह तो ज़मानत के बाद घर में घायल पड़ा दवाइयां खा रहा था। वह सोच नहीं पा रहा था कि उस का कसूर क्या था? जो पुलिस ने उसे फ़र्ज़ी तौर पर आर्म्स एक्ट मंे गिरफ़्तार कर के पिटाई कर जेल भेज दिया। बाइक चलाना, पान खाना, थोड़ी बहुत सिटियाबाजी बस यही तीन शौक़ थे उस के। कट्टा वग़ैरह का शौक़ कभी नहीं रहा उस को। यह बात उस के घर वाले भी जानते थे। पर पुलिस ने उस के पास कट्टा दिखा कर गिरफ़्तार कर लिया। वह भी बांसगांव की नहीं, गगहा की पुलिस ने। यह सब उस के और उस के परिवार की समझ से परे था।

ख़ैर, विवाह के बाद मुनमुन ने संयमित जीवन जीना शुरू कर दिया। उस की शेख़ी भरी शोख़ी जाने कहां बिला गई थी। उस की चाल भी बदल गई थी। अब वह पहले की तरह चपलता, चंचलता और मादकता जैसे भूल गई थी। मांग में ख़ूब चटक सिंदूर लगाए जब वह धीर गंभीर चाल में चलती तो लोग ताज्ज़ुब करते और कहते कि, ‘अरे क्या ये वही मुनमुन है? वही मनुमुन बहिनी?’

हां, अब मुनमुन बदल गई थी। यह वह पहले वाली मुनमुन नहीं थी। बांसगांव की सड़क भी यह दर्ज कर रही थी, उस के गांव का प्राइमरी स्कूल भी और लोग भी। आंख उठा कर लप-लप देखने वाली मुनमुन की आंखें अब नीची हो कर अपनी राह भर देखतीं। वह ख़ुद भी कभी अपने बारे में सोचती कि क्या विवाह एक लड़की को इतना बदल देता है? चुटकी भर सिंदूर का वज़न क्या इतना भारी होता है कि एक चंचल शोख़ लड़की गंभीर औरत में बदल जाती है? हैरत होती थी उसे अपने आप पर। कि उस की बाडी लैंगवेज इतनी बदल कैसे गई?

पर बदल तो गई थी।

लेकिन गिरधारी राय नहीं बदले थे। वह मुनमुन को बदनाम करना चाहते थे। ठीक वैसे ही जैसे कोई सड़क के किनारे-किनारे चल रहा हो और उस के पीछे से कोई मोटरसाइकिल, कोई कार, कोई जीप, कोई बस तेज़ रफ़्तार आए और सड़क किनारे के कींचड़ का छींटा अनायास उस पर मारती चली जाए। वैसे। पर मुनमुन में अचानक आए बदलाव ने उन की इस शकुनी बुद्धि पर लगाम लगा दी थी। फिर भी उन की बूढ़ी आंखें कीचड़ का छींटा कहां से मारा जाए, इस पर शोध करती रहीं।

गिरधारी राय की फ़ितरत थी कि वह अपनी इच्छाएं पूरी करने के लिए हमेशा दूसरों का, दूसरों के औज़ारों का इस्तेमाल करते। जैसे कि अगर किसी को मारना हो तो वह चाहते थे कि बंदूक़ भी किसी और की हो, कंधा भी किसी और का और ट्रिगर भी कोई और ही दबाए। बस निशाना भर उन का हो। और आदमी मार दिया जाता था। बांसगांव में लंठों और मूर्खों की ऐसी जमात बहुतायत में थी। जो गिरधारी राय या गिरधारी राय जैसों के हाथों इस्तेमाल होने के लिए ही जैसे पैदा हुई थी। ठाकुर बहुल बांसगांव में गिरधारी राय ख़ुराफ़ाती जीनियस यूं ही नहीं कहे जाते थे। खैनी बनाते, खाते, थूकते गांधी टोपी लगाते-उतारते बैठे-बैठे, बैठने की दिशा बदल कर ज़ोर से हवा ख़ारिज करते गिरधारी राय बड़ों-बड़ों को निपटा देते। हालां कि उन के पिता रामबली राय जब जीवित थे तो उन के लिए कहते थे ख़ाली दिमाग़ शैतान का घर! पर गिरधारी राय कहते कि, ‘इलाहाबाद यूनिवर्सिटी का पढ़ा हूं। और कोई कोदो दे कर नहीं पढ़ा हूं।’

एक बार एक पूर्व विधायक गिरधारी राय से उलझ गए। दबंग भी थे और ठाकुर भी। हमेशा गोली बंदूक़ लिए चार लोगों से घिरे रहते थे। देशी शराब की कई भट्टियां थीं, ईंट के भट्टे थे, कट्टे भी वह बनवाते थे अपने शोहदों के लिए। ठेका पट्टा भी करते थे। और सब कुछ खुले आम। कोई परदेदारी नहीं। उलटे स्थानीय प्रशासन भी उन से डरता था। क्यों कि तब के ठाकुर मुख्यमंत्री से उन के बिरादराना संबंध थे। बड़े संकट में पड़ गए थे गिरधारी राय। फिर भी उन विधायक महोदय को उन्हों ने अपनी ताक़त भर हिदायत दी और कहा कि, ‘हम से मत उलझिए बाबू साहब! नहीं जब सरे बाज़ार आप की पगड़ी उछलेगी तो पछताइएगा!’

‘जो उखाड़ना हो उखाड़ लेना गिरधारी राय!’ उन पूर्व विधायक ने अपनी मूछें ऐंठते हुए कहा था।

गिरधारी राय तब चुप हो गए थे। पर यह घाव वह किसी घायल नागिन की तरह सीने में दफ़न किए बैठे रहे। कुछ दिन बाद एक नया एस.डी.एम. आया। वह न तो प्रमोटी था, न पी.सी.एस.। बल्कि आई.ए.एस. था। बिहार का रहने वाला था। उस की पहली पोस्टिंग थी। ख़ूब लंबा चौड़ा। ईमानदारी और बहादुरी का भरपूर जज़्बा था। बस गिरधारी राय ने उसे कैच कर लिया। फ़ोन पर उस एस.डी.एम. को पूर्व विधायक बाबू साहब के ग्रास रूट लेबिल की पूरी कुंडली सौंप दी। और उसे चढ़ाते हुए कहा, ‘अभी तक के तो सारे एस.डी.एम. सब कुछ जानते हुए भी इस बाहुबली के सामने सरेंडर किए रहे हैं। लेकिन सुना है कि आप नौजवान हैं, बहादुर हैं और ईमानदार भी। सो आप से ही उम्मीद है!’

‘आप चिंता मत कीजिए!’ कह कर एस.डी.एम. ने फ़ोन काट दिया।

और सचमुच दो तीन दिन बाद से ही एस.डी.एम. ने उस पूर्व विधायक के देशी शराब की भट्टियों, कट्टों की फैक्ट्रियों, ईंट भट्टों पर छापेमारी शुरू कर दी। हफ़्ते भर में ही पूर्व विधायक के ग्रास रूट लेबिल के सारे कारोबार छिन्न भिन्न हो गए। एक रात उस पूर्व विधायक ने एस.डी.एम. को फ़ोन कर पहले तो चेतावनी दी फिर मां बहन की गालियों से नवाज़ा। और कहा कि, ‘नौकरी करनी हो तो सुधर जाओ वरना कटवा कर फेंकवा दूंगा।’ और उधर से एस.डी.एम. कुछ कहता उस के पहले ही फ़ोन काट दिया। एक दिन वह पूर्व विधायक महोदय अपने पूरे दल-बल के साथ बांसगांव बाज़ार से गुज़र रहे थे। उसी बीच एस.डी.एम. भी सी.ओ. पुलिस और एस.ओ. बांसगांव सहित बाज़ार से गुज़रा। एक साथ इतने हथियार बंद लोगों को देख कर एस.डी.एम. भड़का और सी.ओ. से पूछा, ‘यह कौन जा रहा है, किस का कारवां है?’ सी.ओ. ने फुसफुसा कर उस पूर्व विधायक का नाम लिया। तो एस.डी.एम. और भड़क गया। सी.ओ. से बोला, ‘इसे फ़ौरन अरेस्ट करवाइए!’ सी.ओ. प्रमोटी भी था और अधेड़ भी। अचकचाते हुए बोला, ‘सर, इस तरह बाज़ार में?’ उस ने जोड़ा, ‘ठीक नहीं रहेगा।’

‘यहीं ठीक रहेगा।’ कह कर एस.डी.एम. ने अपनी जीप पूर्व विधायक के सामने ले जा कर रुकवा दी। और ड्राइवर से पूछा, ‘इन में से वह कौन है?’ ड्राइवर ने धीरे से इंगित कर दिया। एस.डी.एम. जीप से उतर कर सीधे उस बाहुबली पूर्व विधायक के पास चला गया। पीछे-पीछे पूरी फोर्स मय सी.ओ. और एस.ओ. के।

‘आप ही पूर्व विधायक मिस्टर चंद हैं?’

‘हूं तो, तुम कौन?’

‘मैं यहां का एस.डी.एम. हूं।’

‘ओह तो तुम्हारा दिमाग इतना ख़राब क्यों है?’

‘वह तो बाद में बताऊंगा।’ एस.डी.एम. बोला, ‘पहले आप बताइए आप उस रात भद्दी-भद्दी गालियां क्यों दे रहे थे?’

‘कहो कि गालियों से ही तुम्हें माफ़ कर दिया। नहीं मन तो हो रहा था कि तुम्हारा सिर कलम करवा दूं।’ कह कर पूर्व विधायक ने फिर से एस.डी.एम. पर मां बहन सहित गालियों की पूरी कारतूस ख़ाली कर दी।

एस.डी.एम. ने फिर से सी.ओ. की तरफ़ घूर कर देखा। पर सी.ओ. ने इशारों-इशारों में संकेत दिया कि यहां से निकल लिया जाए। पर एस.डी.एम. बुदबुदाया, ‘तुम सब कायर हो।’ और ख़ुद पूर्व विधायक पर झपट पड़ा। तड़ातड़ तीन चार थप्पड़ जड़े और गरेबान पकड़ कर नीचे ज़मीन पर ढकेल दिया। ज़मीन पर गिरते ही एस.डी.एम. ने तीन चार लात भी रसीद कर दिए। और बोला, ‘बहुत बड़े गुंडे हो, बहुत बड़ी ताक़त समझते हो अपने आप को?’

वह बोला, ‘आइंदा से गालियां देने की हिम्मत मत करना और सारे नाजायज़ धंधे बंद कर लो वरना बंद कर दूंगा। और ऐसी-ऐसी धाराएं लगाऊंगा कि हाईकोर्ट से भी जमानत नहीं पाओगे!’

‘तुम्हारी नौकरी खा जाऊंगा!’ बाहुबली पूर्व विधायक ज़मीन पर लेटे-लेटे गुर्राया, ‘तुम को मालूम नहीं है कि तुम ने किस पर हाथ उठाया है।’

‘देखो मैं जिस जगह और जिस झा परिवार से आता हूं। वहां दो ही तरह के लोग पैदा होते हैं। या तो आई.ए.एस. होते हैं या नचनिया। और मैं हूं आई.ए.एस. जो बिगाड़ना हो मेरी बिगाड़ लेना।’ कह कर एस.डी.एम. ने उन को एक और लात रसीद कर दिया। बाहुबली के सारे हथियार बंद साथी और बाज़ार के लोग टुकुर-टुकुर देखते रह गए। और एस.डी.एम. मय फ़ोर्स के वहां से चला गया। भीड़ में गिरधारी राय भी थे। एस.डी.एम. के जाते ही वह मूंछों में मुसकुराए और बड़ी फुर्ती से लेटे पड़े बाहुबली विधायक को जा कर उठाया ज़मीन से और उस की धूल झाड़ते हुए बुदबुदाए, ‘का बाबू साहब किस से उलझ गए आप भी। सब को गिरधारी राय समझ लेते हैं आप भी! हरदम ठकुराई ठोंकने से नुक़सान भी हो जाता है।’

बाहुबली ने अचकचा कर गिरधारी राय को देखा और उन्हें आग्नेय नेत्रों से घूरा। गिरधारी राय फिर बुदबुदाए, ‘रस्सी जल गई, पर ऐंठ नहीं गई।’ कह कर गिरधारी राय सरक गए। बाहुबली भी अपमान से आहत पर अकड़ते हुए लाव-लश्कर समेत चले गए। पहुंचे लखनऊ। मुख्यमंत्री से मिले। और जो कहते हैं, पुक्का फाड़ कर रोना, तो पुक्का फाड़ कर रोए। और फिर लौटे तो एस.डी.एम. को ट्रांसफर करवा कर ही। फिर उस एस.डी.एम. ने जो कहा था कि हमारे परिवार में दो ही लोग होते हैं, एक आई.ए.एस और एक नचनिया। तो उस बाहुबली ने उसे नचा दिया और भरपूर। हर तीन महीने, चार महीने पर उस का ट्रांसफर होता रहा। और दुर्गम से दुर्गम स्थानों पर। उन दिनों उत्तराखंड उत्तर प्रदेश में ही था सो सारा पहाड़ नचवा दिया। गिरधारी से किसी ने इस बात की चर्चा की तो उन्हों ने साफ़ कह दिया कि, ‘अब वह नचनिया बने चाहे पदनिया हमसे क्या?’ वह बोले, ‘हमारा काम तो हो गया न?’

और सचमुच उस दिन के बाद उस बाहुबली पूर्व विधायक ने मारे अपमान के बांसगांव की ज़मीन पर फिर पैर नहीं रखा। सो गिरधारी राय बात ही बात में जिस-तिस से शेख़ी बघारते हुए कहते, ‘बड़े-बड़े चंद को चांद बना दिया तो तुम क्या चीज़ हो जी?’ चंद को चांद बनाने के बाद अब वह मुनमुन को भी मून बनाना चाहते थे पर कोई तरकीब निकाले नहीं निकल रही थी। उन को विवेक भी दिख नहीं रहा था। उन्हों ने सोचा कि क्यों न एक बार विवेक सिंह के घर हो कर हालचाल ले लिया जाए। लेकिन फिर उन्हों ने सोचा कि कहीं उन की पोल न खुल जाए और फिर लेने के देने पड़ जाएं। एक तो घर और पट्टीदारी का मामला था दूसरे, मुनमुन के भाई जज और अफ़सर थे ही। सो वह डर गए और मन मसोस कर रह गए। वैसे भी अब वह बूढ़े हो चले थे। पिता का कमाया पैसा समाप्त हो चुका था और बेटे नाकारा हो चले थे। अपनी परेशानियां कुछ कम नहीं थीं उन की पर दूसरों को परेशान करने में उन्हें जो सुख मिलता था उस का भी वह क्या करें?’

विवश थे। अवश थे वह। इस सुख के आगे। मुनमुन को मून बनाने की तड़प में वह एक विज्ञापन का स्लोगन भी गुनगुनाते- ये दिल मांगे मोर! बिलकुल किसी बच्चे की तरह। उधर मुनमुन की, मुनक्का की, मुनमुन की अम्मा की तकलीफें़ बढ़ चली थीं। ख़र्चे बढ़ चले थे। साथ ही बीमारियां भी। ख़ास कर मुनमुन की टी.बी. ने उसे परेशान कर दिया था। अब उस की खांसी में कभी कभार ख़ून भी आने लगा था। हालां कि टी.बी. अब कोई असाध्य बीमारी नहीं रह गई थी। लेकिन इलाज और दवाई जो नियमित होनी चाहिए थी, नहीं हो पा रही थी। डाक्टर कहते कि एक दिन भी अगर दवाई का गैप हो गया तो बेकार। दवाई का पूरा कोर्स बिना किसी गैप के पूरा करना था। पर दवाई में आर्थिक थपेड़ों के चलते, कभी लापरवाही के चलते गैप हो जाती। मामला बिगड़ जाता। बाबू जी समझाते भी कि, ‘सारा कुछ छोड़ कर दवाई लग कर करो।’ फिर पत्नी से भनभनाते भी, ‘मुनमुन की मनमानी बढ़ गई है। उसे रोको। नहीं किसी दिन वह अपनी जान ले लेगी।’

‘मेरी भी वह अब कहां मानती है?’ मुनमुन की अम्मा भी भनभनातीं।

धीरे-धीरे दिन बीते। दिन, ह़ते और महीना, महीनों में बीता। मुनमुन की ससुराल से गौने का दिन आ गया। मुनमुन थोड़ा मुनमुनाई। कि, ‘अभी नहीं। पहले मेरी बीमारी ठीक हो जाए।’ पर मुनक्का नहीं माने। गौने का दिन स्वीकार कर लिया। एक महीने बाद का दिन। बेटों को भी सूचना दे दी। राहुल ने हमेशा की तरह फिर हवाला से बीस हज़ार रुपए भेज दिए और बता दिया कि, ‘मैं नहीं आ सकता।’ तरुण ने कहा, ‘मुश्किल है पर कोशिश करूंगा।’ धीरज ने कुछ स्पष्ट नहीं कहा। पर रमेश ने कहा कि, ‘आऊंगा। पर कुछ घंटे के लिए। सिर्फ़ विदाई के समय।’

सो सारी तैयारी मुनक्का ने अकेले की। ख़रीददारी से ले कर मिठाई-सिठाई तक की। पर पहला काम उन्हों ने यह किया कि राहुल के भेजे पैसों से मुनमुन की टी.बी. की दवा डेढ़ साल के लिए इकट्ठे ख़रीद दी। और उसे हिदायत दे दी कि बिना नागा वह दवा खाए। आधी अधूरी तैयारियों के बीच गौना हुआ। ऐन विदाई के आधा घंटे पहले रमेश बांसगांव सुबह-सुबह पहुंचा। और मुनमुन की विदाई करवा कर अम्मा, बाबू जी को बिलखता छोड़ कर चला गया। अम्मा ने कहा भी कि, ‘बाबू तुम पहले तो इतने निष्ठुर नहीं थे?’ जवाब में वह मौन ही रहा। बाद में चौथ भी ले कर मुनक्का राय अकेले ही गए। लेकिन मुनमुन उन्हें ससुराल में ख़ुश नहीं दिखी। वह चिंतित हुए। भारी मन से बांसगांव लौट आए। गौने के कोई पंद्रह दिन बाद ही मुनमुन का फ़ोन आया कि, ‘बाबू जी, अगर हमें ज़िंदा चाहते हैं तो फ़ौरन आ कर हमें लिवा ले चलिए।’ कह कर उस ने फ़ोन काट दिया।

मुनक्का राय ने किसी से राय मश्विरा भी नहीं किया और सरपट भागे मुनमुन की ससुराल। लौटे तो मुनमुन को ले कर ही। मुनमुन की अम्मा मुनमुन को अचानक देखते ही हतप्रभ रह गईं। बोली, ‘ई क्या हुआ?’ मुनमुन अम्मा से लिपट गई और दहाड़ मार-मार कर रोने लगी। रोते-रोते ही अपने दुख की गाथा बताने लगी। रोना-धोना सुन कर आस-पड़ोस की औरतें भी जुटीं। शाम तक सारे बांसगांव को मुनमुन के ससुराल से बैरंग वापस आ जाने की ख़बर मालूम हो गई। मुनमुन के घर उस रात चूल्हा नहीं जला। मुनक्का राय पर इस बुढ़ौती में जैसे वज्र टूट पड़ा था। जैसे काठ मार गया था उन्हें। रात भर उन्हें नींद भी नहीं आई। सुबह एक पड़ोसन ही चाय नाश्ता ले कर आईं। कुछ शुभचिंतक, हित-चिंतक और मज़ा लेने वाले जन भी आए। किसी से न तो मुनक्का कुछ बोले, न मुनमुन न ही मुनमुन की अम्मा। मुनमुन और मुनमुन की अम्मा हर सवाल पर जवाब में बस रोती ही रहीं। और जब बहुत हो गया तो मुनक्का राय एक शुभचिंतक के बार-बार पूछने पर कि, ‘आखि़र हुआ क्या?’ के जवाब में बस इतना ही बुदबुदाए, ‘अब क्या बताएं कि क्या हो गया?’ और सिर झुका लिया।

कई लोगों ने पीठ पीछे कहा, ‘जो भी हो इतनी जल्दी बेटी को वापस नहीं ले आना चाहिए था मुनक्का राय को।’ किसी ने कहा, ‘किसी से राय मश्विरा भी नहीं किया।’ तो किसी ने अंदाज़ा लगाया, ‘लगता है बेटों को भी अभी नहीं बताया।’ तरह-तरह की बातें, तरह-तरह के लोग। ‘वकील हैं भइया। ख़ुद समझदार हैं। दूसरों को सलाह देते हैं, ख़ुद नहीं लेते।’ एक एक्सपर्ट कमेंट भी आया जो मुनक्का राय के कानों तक भी गया। पलट कर उन्होंने सिर्फ़ घूर कर देखा इस टिप्पणीकार को तो वह धीरे से उठ कर खिसक गया। कि कहीं वकील साहब का सारा गुस्सा उसी पर न बरस जाए! ख़ैर, लोगों का आना जाना कम हुआ। और बात धीरे-धीरे खुली। खुली और खुलती गई। तिल का ताड़ बन कर बांसगांव में गीले उपले के धुएं की तरह सुलगती हुई फैलती गई। बात विवेक तक भी पहुंची। पर वह चाह कर भी नहीं आया। मारे डर के। कि कहीं फिर पिट-पिटा गया तो?

ह़फ्ते भर बाद घनश्याम राय दो लोगों के साथ आए और मुनक्का राय से बोले, ‘वकील साहब उस वक्त आप गुस्से में थे इस लिए आप से तब कुछ नहीं कहा और आप की बेटी को विदा कर दिया। अब गुस्सा शांत कीजिए और निवेदन है कि हमारी बहू को विदा कर दीजिए!’ पर मुनक्का राय शांत रहे। कुछ बोले नहीं। बोलीं मुनमुन की अम्मा और दरवाज़े की आड़ से ख़ूब बोलीं, ‘आप का लड़का जब लुक्कड़ और पियक्कड़ था तो आप क्यों झूठ बोले कि पी.सी.एस. की तैयारी कर रहा है? आप का लड़का जब पगलाया-पगलाया घूमता है यहां-वहां तो आप ने बताया कि इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में पढ़ता है? और इतने बड़े घर में मेरी बेटी को उपवास कर के रहना पड़ा। आप के घर में भरपेट खाना खाने तक के लिए तरस गई मेरी बेटी। आप का बेटा अभी तक मेरी बेटी का चेहरा तक नहीं देख पाया। यह सब क्या है? आप की पत्नी और बेटी मेरी बेटी को सताती हैं और ताने मारती हैं? नई नवेली बहू से कैसे-कैसे तो काम करवाए आप लोगांे ने? और चाहते हैं कि अपनी बेटी को उस दोज़ख में भेज दूं। मरने के लिए? लांछन और अपमान भुगतने के लिए?’

‘देखिए समधिन जी आप नाहक गुस्सा हो रही हैं। बात इतनी बड़ी नहीं है जितनी आप समझ रही हैं।’

‘मैं सब समझ रही हूं।’ मुनमुन की अम्मा दरवाज़े की आड़ से ही बोलीं, ‘मेरी बेटी ऐसे नहीं जाएगी बस कह दिया।’

‘चलिए जब आप की ऐसी ही राय है समधिन जी तो मैं क्या कर सकता हूं?’ घनश्याम राय ने मुनक्का राय से मुख़ातिब होते हुए कहा, ‘वकील साहब आप ही कुछ विचार कीजिए और समधिन जी को समझाइए।’

पर मुनक्का राय चुप रहे। बोलीं उन की पत्नी ही, ‘समझाइए पहले आप अपने घर में लोगों को और अपने बेटे को पहले सुधारिए। फिर आइए।’

‘हमारे घर में तो वकील साहब औरतें घर आए मर्दों से इस तरह नहीं बोलती हैं।’ घनश्याम राय बोले, ‘क्या आप के घर में औरतें ही बोलती हैं, मर्द नहीं।’

‘ख़ैर, मनाइए कि मर्द अभी हमारे घर के आप की करतूतों को जान नहीं पाए हैं।’ मुनमुन की अम्मा दरवाज़े की ओट से ही बोलीं, ‘जिस दिन हमारे बेटे जान गए आप की करतूतों को तो कच्चा चबा जाएंगे। अभी आप जानते नहीं हैं कि किस परिवार से आप का पाला पड़ा है?’

‘जानते हैं समधिन जी, जानते हैं। आप के घर में सब लाट गवर्नर हैं। इतने बड़े लाट गवर्नर कि एक बहन को संभाल नहीं पाए। कि बहन आवारा हो गई। बूढ़े मां बाप को देख नहीं पाते हैं कि वह मर रहे हैं कि जी रहे हैं।’ घनश्याम राय बोले, ‘हम भी जानते हैं आप के परिवार की लाट गवर्नरी!’

‘अब आप कृपा कर के चलिए और, विदा लीजिए!’ मुनक्का राय बिलकुल शांत स्तर में हाथ जोड़ कर घनश्याम राय से बोले, ‘आप कुछ ज़्यादा ही बोल रहे हैं।’

‘अब आप अपने दरवाज़े पर हमारा अपमान कर रहे हैं वकील साहब!’ घनश्याम राय और भड़के।

‘जी नहीं, मैं पूरे सम्मान सहित आप से विनती कर रहा हूं कि कृपया आप विदा लें और तुरंत प्रस्थान करें।’ मुनक्का राय ने फिर से विनयवत हाथ जोड़े शांत स्वर में घनश्याम राय से कहा।

‘चलिए जा तो रहा हूं पर आप के दरवाज़े का यह अपमान मैं फिर नहीं भूलूंगा।’

‘मत भूलिएगा और फिर मत आइएगा।’ पूरी सख़्ती और पूरी शांति से मुनक्का राय ने कहा।

‘तो यह अंतिम है हमारी ओर से?’ घनश्याम राय तड़के।

‘जी हां, ईश्वर करे यह अंतिम ही हो।’ मुनक्का राय अब अपना धैर्य खो रहे थे।

‘आखि़र परेशानी क्या हो गई वकील साहब?’ घनश्याम राय हथियार डालते हुए बोले, ‘आखि़र हम लड़के वाले हैं!’

‘लड़के वाले हैं तो हमारे सिर पर मूतेंगे?’ मुनक्का राय बोले, ‘हम ने अपनी बेटी की असुविधाओं के बारे में बात की और आप ने हमारी बेटी को आवारा घोषित कर दिया। हमारे रत्न जैसे बेटों पर जिन पर हमें ही नहीं पूरे बांसगांव और पूरे गांव जवार को नाज़ है, उन पर छिछली टिप्पणी कर दी। इस लिए कि आप लड़के वाले हैं और हम लड़की वाले? और पूछ रहे हैं कि परेशानी क्या है? मैं बात टालने के लिए चुप हूं तो आप कह रहे हैं कि मेरे घर में मर्द नहीं बोलते हैं? आप का बेटा पी.सी.एस. क्या बला है की ए.बी.सी.डी. नहीं जानता और आप उसे झूठी पी.सी.एस. की तैयारी का ड्रामा रच कर हमारी फूल सी बेटी का जीवन तहस-नहस कर देते हैं और मर्द बनते हैं? यह कहां की मर्दानगी है?’ मुनक्का राय ने अपनी संजीदगी फिर भी मेनटेन रखी और हाथ जोड़ते हुए फिर से कहा, ‘कृपया प्रस्थान करें।’ उन के इस ‘प्रस्थान’ करें संबोधन में ध्वनि पूरी की पूरी यही थी कि जूता खा लिए और अब जाएं। घनश्याम राय और उन के साथ आए दोनों परिजनों के चेहरे का भाव भी जाते समय ऐसा ही लगा जैसे सैकड़ों जूते खा कर वह जा रहे हों। घनश्याम राय को समधियान में ऐसे स्वागत की उम्मीद नहीं थी। वह हकबक थे।

उन के साथ आए परिजन भी अपने को कोस रहे थे कि वह घनश्याम राय के साथ यहां इस तरह अपमानित होने क्यों आ गए? एक परिजन घनश्याम राय को रास्ते में कोसते हुए कह भी रहा था कि, ‘बांसगांव के लोग वैसे ही दबंग और सरकश होते हैं। तिस पर इस के बेटे जज और अफ़सर। करेला और नीम चढ़ा! किस ने कहा था कि बेटे की शादी बांसगांव में करिए?’ दूसरा परिजन भी पहले के सुर में सुर मिला कर बोला, ‘बांसगांव थाना कचहरी, मार-झगड़ा की जगह है। रिश्तेदारी करने की जगह नहीं है।’

‘अब आप लोग चुप भी रहेंगे? कि ऐसे ही बांसगांव के सांप से डसवाते रहेंगे?’ घनश्याम राय आजिज़ आ कर बोले, ‘वैसे ही दिमाग़ ससुरा बौखलाया हुआ है।’

घनश्याम राय सचमुच होश में नहीं थे। दो दिन बाद उन्हों ने रमेश को फ़ोन किया और रो पड़े, ‘जज साहब हमारी इज़्ज़त संभालिए! हमारी इज़्ज़त अब आप के हाथ है!’

‘अरे हुआ क्या घनश्याम जी? कुछ बताएंगे भी या औरतों की तरह रोते ही रहेंगे?’

‘आप को कुछ पता ही नहीं है?’ घनश्याम राय ने बुझक्कड़ी की।

‘अरे बताएंगे भी या पहेली ही बुझाते रहेंगे?’ रमेश खीझ कर बोला।

‘अरे आप के बाबू जी नाराज हो कर हमारी बहू को पंद्रह दिन बाद ही लिवा ले गए और अब बात करने को भी तैयार नहीं हैं। मैं बांसगांव गया, लड़का वाला हो कर भी। छटाक भर भी हमारी इज़्ज़त नहीं की।’ घड़ियाली आंसू बहाते हुए वह बोले, ‘और बताइए कि आप को कुछ पता ही नहीं है।’

‘पता तो नहीं है पर बाबू जी हमारे इस स्वभाव के हैं नहीं, जैसा कि आप बता रहे हैं।’ रमेश बोला, ‘फिर भी अगर ऐसा कुछ हुआ है तो आप के यहां से ज़रूर कोई भूल-चूक हुई होगी। फिर भी मैं पता करता हूं पहले कि आखि़र बात क्या है? तभी कुछ कह सकूंगा।’

‘हां, जज साहब अब आप ही हमारी आस, हमारे माई-बाप हैं।’

‘ऐसा मत कहिए और धीरज रखिए।’ कह कर रमेश ने फ़ोन काट दिया।

वह चिंतित हो कर थोड़ी देर अवाक बैठा रहा। दुनिया भर के पेंचदार मामले निपटाने और फ़ैसले सुनाने वाला रमेश अपने घर के मामले में घबरा गया। पत्नी को बुला कर बैठाया और घनश्याम राय के फ़ोन वाली बात बताई। रमेश की पत्नी भी चिंतित हुई और बोलीं, ‘पहले बांसगांव फ़ोन कर सारी बात जान लीजिए फिर कुछ कीजिए।’

‘वह तो करूंगा ही पर इस तरह रिश्ते में खटास आने से डर लग रहा है कि कहीं रिश्ता टूट न जाए।’

‘मुनमुन बहिनी शादी के पहले से ही कुछ संदेह में थीं इस रिश्ते को ले कर। पर किसी ने उन की बात को गंभीरता से नहीं लिया। सब मज़ाक में टालते रहे।’

‘तो तुम ने हम को क्यों नहीं बताया तब?’ रमेश ने पूछा।

‘क्या बताती जब सब कुछ तय हो गया था। ऐन तिलक में क्या बताती?’

‘हां, चूक तो हुई।’ रमेश बोला, ‘चलो देखते हैं।’ फिर उस ने बांसगांव फ़ोन मिलाया। फ़ोन पर अम्मा मिलीं। रोने लगीं। बोलीं, ‘अब जब सब कुछ बिगड़ गया तब तुम्हें सुधि आई है?’

‘फिर भी अम्मा हुआ क्या?’

‘सब कुछ क्या फ़ोन पर ही जान लेना चाहते हो?’ अम्मा ने पूछा, ‘क्या मुक़दमों के फ़ैसले फ़ोन पर ही लिखवा देते हो?’

‘नहीं अम्मा फिर भी?’

‘कुछ नहीं बाबू अगर बहन की तनिक भी चिंता है तो दो दिन के लिए आ जाओ। मिल बैठ कर मामला निपटाओ।’

‘ठीक है अम्मा!’ कह कर रमेश ने फ़ोन काट कर धीरज को मिलाया और मामला बताया और कहा कि, ‘अम्मा चाहती हैं कि बासंगांव पहुंच कर मिल बैठ कर मामला निपटाया जाए।’

‘तो भइया मेरे पास तो समय है नहीं। घनश्याम राय आप का पुराना मुवक्किल है। समझा-बुझा कर मामला निपटवा दीजिएगा।’ धीरज बोला, ‘और मुझे लगता है कि मुनमुन की वही नासमझियां होंगी, शादी के पहले वाली। बातचीत कर के ख़त्म करवा दीजिएगा।’

‘चलो देखते हैं।’ कह कर रमेश ने फिर तरुण को फ़ोन मिलाया और सारा मसला बताया। कहा कि, ‘तुम भी साथ रहते तो बातचीत में आसानी रहती। क्यों कि सारी बात मैं ही करूं तो मामले की गंभीरता टूटेगी। तू-तू-मैं-मैं से भी मैं बचना चाहता हूं। धीरज आ नहीं पाएंगे और राहुल इतनी दूर है। किसी और को घर के मामले में डालना ठीक नहीं है।’

‘ठीक है भइया कोई लगातार दो दिन की छुट्टी देख कर दिन तय कर लीजिए। और बता दीजिए, पहुंच जाऊंगा।’

रमेश ने दिन तय कर के तरुण को बता दिया और घनश्याम राय को भी। और साफ़-साफ़ कह दिया कि, ‘बातचीत में आप और आप का बेटा दोनों रहेंगे। तीसरा कोई और नहीं।’

‘तो क्या पंचायत का प्रोग्राम बनाए हैं का जज साहब, कि इजलास लगवाएंगे?’ घनश्याम राय बिदक कर बोले।

‘देखिए घनश्याम जी अगर मामला निपटाना हो तो इस तरह बात मत करिए। मुझे फिर आने में दिक्क़त होगी। बोलिए आऊं कि आना कैंसिल करूं?’

‘अरे नहीं-नहीं जज साहब आप तो ज़रा से मज़ाक पर नाराज़ हो गए!’ घनश्याम राय जी हुज़ूरी पर आ गए।

‘आप जानते हैं कि हमारा आप का मज़ाक का रिश्ता नहीं है।’ रमेश पूरी सख़्ती से बोला, ‘आइंदा इस बात का ख़याल रखिएगा। और हां, अभी बात क्या हुई है मैं बिलकुल नहीं जानता। बासंगांव आ कर ही बात जानूंगा, समझूंगा और फिर कुछ कहूंगा। यह बात एक बार फिर जान लीजिए कि बातचीत में आप और आप का बेटा ही होगा। तीसरा कोई और नहीं। हां, अगर आप चाहें तो राधेश्याम की माता जी को ला सकते हैं। बस। और यह भी बता दूं कि हमारे यहां से भी मेरी बहन, मेरा एक भाई और अम्मा, बाबू जी ही होंगे। कोई और नहीं।’

‘जी जज साहब!’

‘और हां, बातचीत के लिए खुले मन से आइएगा। पेशबंदी वग़ैरह मुझे पसंद नहीं है पारिवारिक मामलों में।’

‘जी, जज साहब!’ कह कर घनश्याम राय घबरा गए। यह सोच कर कि अपने लड़के की नालायक़ी को वह कैसे कवर करेंगे? तिस पर जज साहब ने कह दिया था कोई पेशबंदी नहीं। जज की निगाह है तड़ तो लेगी ही पेशबंदी! फिर भी वह पेशबंदी में लग गए। बिना इस के चारा भी क्या था? पहली पेशबंदी उन्हों ने यह की कि अकेले ही बांसगांव जाने की सोची। और तय किया कि बहुत ज़रूरत हुई तो बेटे से फ़ोन पर बातचीत करवा देंगे। ज़रूरत हुई तो पत्नी से भी फ़ोन पर ही बातचीत करवा देंगे। पर जाएंगे अकेले ही। जो भी इज़्ज़त-बेइज़्ज़त लिखी होगी, अकेले ही झेलेंगे। फ़ोन पर संभावित सवालों के जवाबों को भी पत्नी और बेटे को रट्टा लगवा दिया। और समझा दिया कि विनम्रता पूरी बातचीत में रहनी चाहिए। बस एक बार जज की बहन आ जाए घर में फिर उस की सारी जजी के परखचे उड़ा देंगे। बस एक बार आ जाए।

तय कार्यक्रम के मुताबिक़ रमेश बांसगांव एक दिन पहले ही पहुंच गया। तरुण भी आ गया था सपत्नीक। यह उस ने अच्छा किया था। मुनमुन को समझाने में आसानी रहेगी। ऐसा उस ने सोचा। पर जब मुनमुन की ससुराल और उस के पति की तफ़सील अम्मा ने रोते बिलखते बताई तो उस के पांव के नीचे से ज़मीन खिसक गई। वह हिल सा गया। सोचा कि दुनिया भर को न्याय का पाठ पढ़ाने वाला वह कैसे तो अपनी ही बहन के साथ ही अन्याय कर बैठा। ज़रा सी आलस, ज़रा से अहंकार और ज़रा सी व्यस्तता ने घनश्याम राय के परिवार की थाह नहीं लेने दी। बहन के वर की जांच पड़ताल नहीं करने दी। वृद्ध बाबू जी के भरोसे सब छोड़ दिया। और इस चार सौ बीस घनश्याम राय के झांसे में सब आ गए। सारे भाई सबल हो कर भी कैसे तो अपनी बहन को अबला बना बैठे? सोच कर उस ने अपने को धिक्कारा। पर अब क्या हो सकता था इस पर उस ने सोचना शुरू किया। आख़िर इसी में ही कोई विकल्प तलाशना था। और कोई चारा नहीं था। रात भर वह ठीक से सो नहीं सका। सुबह उठ कर उस ने सोचा कि क्यों न घनश्याम राय को अभी आने के लिए मना कर दे और कह दे कि वर्तमान हालात में बातचीत मुमकिन नहीं। फिर कुछ सोच कर टाल गया। बाबू जी से इस बारे में बात की तो वह बिलख कर रो पड़े। बोले, ‘बेटा हमारी बुद्धि कुछ काम नहीं कर रही। बूढ़ा हो गया हूं। ग़लती हो गई जो मुनमुन को उस नरक में ब्याह दिया। उस वक्त ब्याह तय कर देने के दबाव में आंख पर जल्दी की पट्टी बंध गई थी। कुछ जांच-पड़ताल भी नहीं कर पाया। लड़का इतना नाकारा निकल गया। मैं घनश्याम राय की चिकनी-चुपड़ी बातों में आ गया। तुम्हीं लोगों से तभी कह दिए होता कि मेरे वश का नहीं है शादी-ब्याह ढूंढना तो शायद यह दिन नहीं देखना पड़ता। मैं भी बेटों के साथ अहंकार की तकरार में ज़िद में आ बैठा। भूल गया कि परिवार में और वह भी बेटों के साथ अहंकार की गठरी बांधने से क्या फ़ायदा? छोटा थोड़े ही हो जाता? पर मति मारी गई थी, आज तो छोटा हो ही गया हूं। फूल सी बेटी की जिंदगी नरक बना कर।’ वह रोते हुए बोले, ‘अरे नरक में भी मुझे जगह नहीं मिलेगी!’

‘ऐसा मत कहिए बाबू जी!’ कह कर रमेश की आंखें भी भींग गईं, ‘हम सभी इस पाप के भागीदार हैं।’ वह बोला, ‘आप अनुभवी हैं कोई रास्ता तो निकालने की सोचिए ही।’

‘मुझे तो कुछ सुझाई नहीं पड़ता। न सोच पा रहा हूं। तुम बड़े बेटे हो, तुम्हीं सोचो।’

‘चलिए घनश्याम राय को आज बुलाया हुआ है। बातचीत करते हैं। शायद कोई रास्ता निकल जाए!’

‘अरे उस नालायक़, चार सौ बीस को बुलाने की क्या ज़रूरत थी?’ मुनक्का राय बोले, ‘उस पापी को तो मैं ने फिर घर आने से ही मना कर दिया था। वह भला क्या आएगा चोर कहीं का!’

‘आएगा, आएगा!’ रमेश बोला, ‘उस ने मुझे फ़ोन किया था और गिड़गिड़ा रहा था। तो मैं ने बातचीत के लिए उसे और राधेश्याम को बुला लिया है। बाप बेटे दोनों को।’

‘चलो अब तुम ने बुला लिया है तो और बात है। नहीं पिछली बार आया था तो मैं ने तो उसे फिर आने के लिए मना कर दिया था।’ रमेश ने फिर अम्मा और मुनमुन को भी समझाया कि, ‘रास्ता तो देखो कोई न कोई निकालना ही पड़ेगा।’ फिर उस ने बताया कि, ‘घनश्याम राय और राधेश्याम राय को बातचीत के लिए बुलाया है। थोड़ी देर में दोनों आते ही होंगे।’

मुनमुन और अम्मा दोनों ही चुप रहीं। कुछ बोलीं नहीं। घनश्याम राय तय समय पर आए और अपनी योजना के मुताबिक़ अकेले ही आए। बेटे को नहीं लाए। रमेश ने पूछा भी कि, ‘राधेश्याम कहां रह गए?’

‘असल में उस की तबीयत ख़राब हो गई है।’ घनश्याम राय ने बहानेबाज़ी की।

‘फिर तो बात नहीं हो पाएगी घनश्याम जी!’ रमेश बोला, ‘मूल समस्या तो राधेश्याम से ही थी, वही नहीं है तो बात क्या होगी?’

‘आप को जो कुछ पूछना हो वह फ़ोन से ही पूछ लीजिएगा उस से।’ घनश्याम राय ने चिरौरी की।

‘फ़ोन से ही जो बात निपटने वाली होती तो मैं बांसगांव क्यों आता?’ रमेश ने तल्ख़ हो कर कहा।

‘अब क्या करें उस की तबीयत ख़राब हो गई अचानक।’ घनश्याम रिरियाये, ‘आप बस बहू को विदा कर दीजिए अब कोई समस्या नहीं आएगी। मैं वचन देता हूं।’

‘आप के वचन की कोई क़ीमत भी है? कोई मतलब भी है?’ रमेश ने पूछा, ‘आप तो बता चुके हैं कि वह पी.सी.एस. की तैयारी कर रहा है? कैसे यक़ीन करें आप के वचन पर?’

‘देखिए जज साहब जो बात बीत गई उस को बार-बार दुहराने से कोई फ़ायदा तो अब है नहीं। आगे की सुधि लीजिए।’ घनश्याम राय ने फिर मनुहार की। बातचीत शुरू हुई। तय हुआ कि घनश्याम राय मुनमुन पर हुई ज़्यादतियों पर सफ़ाई दें और कि मुनमुन से जो भी शिकायत हो वह भी बताएं। घनश्याम राय ने पहले तो कहा कि, ‘इन सब विवादों को सिरे से भूल कर नए सिरे से बात शुरू करें और हमारी बहू को हमारे साथ विदा करें। आगे कोई तकलीफ़ नहीं होगी। न ही कोई शिकायत।’

‘नहीं ऐसा तो नहीं हो सकता घनश्याम जी!’ रमेश ने कहा, ‘आप को बिंदुवार जवाब देना होगा।’

‘देखिए यह कोई अदालत नहीं है जज साहब कि गवाही, जिरह और बहस हो। पारिवारिक मामला है और इसे पारिवारिक ढंग से हल करना चाहिए।’

‘मैं ने कब कहा कि अदालत है?’ रमेश ने कहा, ‘अगर आप का बेटा लुक्कड़ और पियक्कड़ है, आप के घर में हमारी बहन को भरपेट भोजन नहीं मिल सकता, आप की पत्नी और बेटी मेरी बहन से उचित व्यवहार करने के बजाए तंग करेंगी, ताने मारेंगी तो ऐसे में इन समस्याओं का कोई हल निकाले बगै़र आप के साथ हम अपनी बहन को विदा नहीं कर सकते।’

‘देखिए जज साहब आप लोग बार-बार भोजन-भोजन का पहाड़ा पढ़ रहे हैं तो यह बताइए कि अगर सगी पट्टीदारी में आप के यहां गमी हो जाए तो आप के यहां क्या दोनों टाइम भोजन बनेगा? नहीं न?’ घनश्याम राय बोले, ‘तो दुर्भाग्य से उन दिनों गौने के दो दिन बाद ही हमारे चाचा का निधन हो गया। इस लिए यह दिक्क़त आई।’

‘चलिए माना पर फलाहार आदि की व्यवस्था तो होनी चाहिए थी?’

‘वह तो हुई ही थी।’

‘और राधेश्याम की लुक्कड़ई-पियक्कड़ई?’

‘यह एक ऐब उस में आ गया है। उस को हम सुधार रहे हैं।’ घनश्याम राय बोले, ‘कहीं उस को रोज़ी रोज़गार दिलवा देते आप लोग तो थोड़ी आसानी होती।’

‘और आप के घर में महिलाओं का व्यवहार?’

‘मैं उन को भी समझाऊंगा।’ घनश्याम राय बोले, ‘पर आप भी ज़रा कुछ हमारी बहू को समझा दीजिए।’

‘जैसे?’ रमेश ने पूछा।

‘कि अब वहां से शिक्षा मित्र की नौकरी नहीं चलेगी।’ घनश्याम राय बोले, ‘वह चाहती है कि रोज़ हमारे गांव से आप के गांव पढ़ाने जाए। यानी रोज़ ससुराल से मायके जाए। यह शोभा देगा भला?’

‘और?’

‘हमारे परिवार की महिलाओं को धौंसियाना बंद करे। कि हमारे भैया लोग तो ये, हमारे भैया लोग तो वो। हम यह करवा देंगे, हम वह करवा देंगे।?!’

‘और?’

‘यह भी बता दीजिए कि हमारी बहू को बीमारी क्या है जो संदूक़ भर के दवाई रखती है?’

‘और?’

‘और बस विदा कर दीजिए!’ घनश्याम राय हाथ जोड़ कर बोले, ‘बड़ी बदनामी हो रही है, पट्टीदारी, नातेदारी में। सिर उठा कर चलना मुश्किल हो गया है। जो मन सो कोई सवाल पूछ लेता है बहू के बारे में तो जवाब देते नहीं बनता।’

‘अच्छा, ज़रा राधेश्याम से फ़ोन पर बात करवाइए।’ रमेश ने घनश्याम राय से कहा, ‘और हां, मोबाइल का स्पीकर आन कर लीजिए ताकि बातचीत सभी लोग पूरी तरह सुन सकें।’

‘जी जज साहब!’ घनश्याम राय बोले। हालां कि मोबाइल का स्पीकर आन करने की बात पर वह थोड़ा सकपकाए। पर मोबाइल से राधेश्याम का फ़ोन मिलाया, स्पीकर आन किया। उधर से फ़ोन घनश्याम राय की पत्नी ने उठाया। घनश्याम राय ने कहा कि, ‘राधेश्याम से ज़रा बात कराओ। जज साहब बात करेंगे।’

‘पर उस की तो तबीयत ख़राब है न?’

‘हां, है। पर बात कराओ!’

‘आप तो जानते हैं कि......।’ घनश्याम राय की पत्नी थोड़ा लटपटाईं।

‘मैं कह रहा हूं कि बात कराओ!’ डपटते हुए घनश्याम राय बोले।

‘जी कराती हूं।’ कह कर फ़ोन उन्हों ने राधेश्याम को दे दिया। वह बोला, ‘हलो कौन?’

‘हां, बेटा तुम्हारा बाबू जी बोल रहा हूं लो तुम से जज साहब बात करना चाहते हैं?’ कह कर मोबाइल उन्हों ने जज साहब के हाथ में दे दिया।

‘कौन जज?’ उधर से राधेश्याम पूछ रहा था।

‘अरे भइया राधेश्याम जी मैं बांसगांव से रमेश बोल रहा हूं।’

‘अच्छा-अच्छा मेरा साला जज!’ उधर से बहकी-बहकी आवाज़ में राधेश्याम बोला, ‘आई लव यू जज साहब! आई लव यू!’

‘क्या?’ रमेश बिदका।

‘आई लव यू। आई लव मुनमुन। आई लव बांसगांव। आल आफ़ बांसगाव। लव-लव-लव!’

‘क्या बक रहे हो?’ रमेश फिर बिदका।

‘चोप्प साले!’ राधेश्याम लड़खड़ाई आवाज़ में मां बहन की गालियां भी उच्चारने लगा। और बोला, ‘लव यू आल मादर..।’

‘लीजिए घनश्याम जी अब आप ही बात कीजिए!’ कह कर रमेश ने मोबाइल घनश्याम राय को देते हुए हाथ जोड़ लिया।

राधेश्याम उधर से लगातार लड़खड़ाती आवाज़ में गालियों और लव यू का प्रलाप जारी रखे था। घनश्याम राय ने हड़बड़ा कर फ़ोन काट दिया। और माथे पर हाथ रख कर बैठ गए।

‘कुछ और बाक़ी रह गया हो तो बताएं घनश्याम जी!’ रमेश ने तल्ख़ी और नफ़रत से पूछा।

‘कुछ नहीं जज साहब।’ घनश्याम राय ने अपने माथे पर हाथ फेरा और बोले, ‘जब अपना ही सिक्का खोटा है तो क्या करूं?’

‘तो फिर?’

‘अब आज्ञा दीजिए!’ घनश्याम राय हाथ जोड़ कर बोले, ‘अब जब उस को पूरी तरह सुधार लूंगा तब ही बात करूंगा।’ कह कर घनश्याम राय घर से बाहर आ गए। पर घर का एक भी सदस्य उन्हें सी आफ़ करने घर से बाहर नहीं आया। न ही चलते समय किसी ने उन्हें नमस्कार किया। अपमानित घनश्याम राय मुनक्का राय के घर से बाहर निकल कर अपनी जीप में बैठे और ड्राइवर को चलने को कह कर अपने घर फ़ोन मिलाया। उधर से उन की पत्नी थीं। पत्नी की पहले तो उन्हों ने मां बहन की। फिर कहा कि, ‘इतना समझा कर आया था। बात पटरी पर आ कर गुड़ गोबर हो गई।’

‘अब मैं क्या बताऊं?’

‘इस ने कब शराब पी ली दिन दहाड़े?

‘पता नहीं।’ पत्नी बोलीं, ‘मैं ने देखा नहीं।’

‘तो जब शराब पी कर अनाप शनाप बक रहा था तभी फ़ोन काट नहीं सकती थी?’

‘वह बिलकुल बहका हुआ था, मैं मना करती तो हमारे ऊपर हाथ उठा देता तो?’

‘मना क्या करना था, चुपचाप फोन काट दी होती।’

‘वह तो आप भी काट सकते थे।’

‘बेवकूफ़ औरत फ़ोन मेरे हाथ में नहीं जज साहब के हाथ में था।’ वह बोले, ‘और फिर स्पीकर आन था। सभी लोग उस की ऊटपटांग बात सुन रहे थे। इतनी बेइज़्ज़ती हुई कि अब क्या बताएं।?’

पत्नी कुछ बोलने के बजाय चुप रहीं।

‘अभी कहां है?’ घनश्याम राय ने भड़क कर पूछा।

‘कौन?’

‘नालायक़ अभागा राधेश्याम और कौन?’

‘मोटरसाइकिल ले कर कहीं निकला है?’

‘कहां?’

‘पता नहीं।’

‘इस तरह वह पिए था।’ घनश्याम राय तड़के, ‘ऐसे में मोटरसाइकिल ले कर जाने क्यों दिया उसे?’

‘हमारे मान का था रोकना उस को?’ पत्नी भी बिलबिलायी।

‘चलो आता हूं तो देखता हूं।’ कह कर घनश्याम राय ने फ़ोन काट दिया। इधर रमेश और घनश्याम राय की बातचीत के बीच मोबाइल के स्पीकर पर राधेश्याम की बातचीत दरवाज़े की आड़ से मुनमुन और उस की अम्मा ने भी सुनी। मुनमुन का रो-रो कर बुरा हाल था। घनश्याम राय के जाने के बाद रमेश मुनमुन के पास गया। उसे चुप कराते हुए दुखी मन से बोला, ‘माफ़ करना मुनमुन हम लोगों के रहते हुए भी तुम्हारे साथ भारी अन्याय हो गया। शायद क़िस्मत में यही बदा था।’ रमेश बोला, ‘फिर भी घबराओ नहीं। कुछ सोचते हैं और देखते हैं।’ मुनमुन और ज़्यादा रोने लगी। और मुनमुन की अम्मा भी। इतना कि रुलाई सुन कर अड़ोस-पड़ोस की औरतें इकट्ठी हो गईं। इधर मुनक्का राय भी रो रहे थे। पर निःशब्द। औरतों को आता देख उन्हों ने अपनी आंखें पोछीं और चादर ओढ़ कर, मुंह ढंक कर लेट गए।

तरुण और तरुण की बीवी कुछ समझ ही नहीं पा रहे थे कि क्या करें? तरुण की बीवी ने मुनमुन के पति और ससुर के लिए बढ़िया सा नाश्ता बनाया था, भोजन की भी तैयारी थी। पर सब धरा का धरा रह गया। तरुण की बीवी अब आ कर पछता रही थी। और आंखों ही आंखों में तरुण को इशारा कर रही थी कि अब बांसगांव से निकला जाए। बहुत हो गया। लेकिन तरुण ने उस से खुसफुसा कर कह दिया, ‘आज नहीं। माहौल नहीं देख रही हो?’

‘मगर माहौल तो कल भी यही रहेगा?’ तरुण की बीवी भी खुसफुसाई।

‘तो भी आज नहीं।’ तरुण ने पूरी सख़्ती से कहा। लेकिन रमेश ने जाने की तैयारी कर ली। पर अम्मा ने कहा कि, ‘बाबू खाना खा लेते तब जाते!’

‘अब अम्मा खाना अच्छा नहीं लगेगा।’

‘तो भी बिना खाए हम नहीं जाने देंगे।’ अम्मा बोलीं, ‘ख़ाली पेट जाना ठीक नहीं है।’

‘चलो ठीक है।’ कह कर रमेश थोड़ी देर के लिए रुक गया। फिर धीरज को फ़ोन कर रमेश ने सारा डिटेल बताया और कहा कि, ‘मेरी अक़ल तो काम नहीं कर रही। तुम्हीं कुछ सोचो।’ यही बात उस ने राहुल को भी फ़ोन कर कही। तरुण को भी बुला कर पूछा, ‘तुम क्या सोचते हो? क्या किया जाए आखि़र?’

‘क्या बताऊं भइया कुछ समझ नहीं आ रहा।’ तरुण हताश हो कर बोला।

‘फिर भी कुछ सोचो।’ रमेश बोला, ‘अक़ल तो मेरी भी काम नहीं कर रही है।’ कह कर रमेश सोफे़ पर ही बैठे-बैठे लेट गया। थोड़ी देर में खाना बन गया तो तरुण ने आ कर बताया कि,

‘भइया खाना बन गया है ले आऊं?’

‘हां, बस थोड़ा ही ले आना।’ रमेश बोला, ‘नाम मात्र का।’

खाना खा कर रमेश चलने लगा तो फिर मुनमुन को समझाया, ‘घबराओ नहीं, कुछ न कुछ उपाय सोचते हैं।’ मुनमुन फिर रो पड़ी। अम्मा भी। बाबू जी और अम्मा के पांव छूते हुए रमेश की भी आंखें भर आईं। पर बिना कुछ बोले वह घर से बाहर आ गया। पीछे-पीछे तरुण भी आ गया। पैर छू कर घर में लौट गया। कार बांसगांव पार कर ही रही थी कि रमेश के ड्राइवर ने गाना लगा दिया, ‘मेरे घर आई एक नन्हीं परी!’ रमेश को सुन कर अच्छा लगा। इस गाने से जुड़ी मीठी यादों में वह खो सा गया। उसे याद आया कि जब मुनमुन छोटी सी थी, तब वह उसे गोद में ले कर खिलाता था और गाता था, ‘मेरे घर आई एक नन्हीं परी, चांदनी के हसीन रथ पे सवार.....।’ और वही क्यों घर के लगभग सारे लोग मुनमुन को खिलाते और यह गाना गाते। पर चांदनी के रथ पे सवार इस नन्हीं परी के इतने बुरे दिन आएंगे तब यह कोई नहीं जानता था। अब यह गाना अचानक उसे ख़राब लगने लगा। उस ने ड्राइवर से ज़रा तल्ख़ी से कहा,‘गाना बंद करो।’

ड्राइवर ने सकपका कर गाना बंद कर दिया। वह समझ ही नहीं पाया कि ग़लती क्या हुई है? दूसरे दिन तरुण और उस की पत्नी भी चले गए। अम्मा ने हालां कि तरुण की पत्नी से कहा था कि, ‘हो सके तो कुछ दिन के लिए मुनमुन को अपने साथ लेती जाती। थोड़ा सा उस का मन बदल जाता। यहां बांसगांव में तानेबाज़ी से उस का दिल टूट जाएगा।’

‘कहां अम्मा जी, आप तो जानती हैं कि मकान हमारा छोटा है। दूसरे, बच्चों की पढ़ाई। तीसरे, इन के ट्रांसफर का भी टाइम हो गया है। पता नहीं कहां जाना पड़े।’ तरुण की पत्नी बोली, ‘न हो तो बड़े भइया या छोटे भइया के यहां भेज दीजिए।’

‘ठीक है देखती हूं।’ अम्मा ने बात ख़त्म कर दी।

जब तरुण और उस की पत्नी चले गए तो मुनमुन ने अम्मा से कहा, ‘अम्मा एक बात कहूं?’

‘कहो?’

‘आगे से कभी भी किसी भइया या भाभी से मुझे साथ ले जाने के लिए मत कहिएगा। क्यों कि मुनमुन के लिए सब का घर छोटा है। उस के लिए किसी के पास जगह नहीं है। और तुम जानती हो कि मुझे टी.बी. है फिर कोई क्यों अपने घर ले जाएगा?’ मुनमुन बोली, ‘जिन भाइयों ने पट्टीदारी और अहंकार में, अपने पद और पैसे के मद में चूर हो कर एक बहन की शादी ढूंढना गवारा नहीं किया, उन का बहनोई कैसा है, शादी के पहले जानने की कोशिश नहीं की उन भाइयों से तुम उम्मीद करती हो कि वह मुझे ले जाएंगे अपने साथ और अपने घर में रखेंगे?’

‘तो बेटी आखि़र किस से उम्मीद करें?’ अम्मा बोलीं।

‘किसी से नहीं। सिर्फ़ अपने आप से उम्मीद रखिए।’ मुनमुन ज़रा कसक के साथ बोली, ‘सोचो अम्मा जो मैं भइया लोगों की बहन नहीं बेटी होती तो क्या तब भी ऐसे ही मेरी शादी ये लोग किए होते? ऐसे ही लापरवाही से पेश आए होते?’

अम्मा चुप रहीं।

‘नहीं न?’ मुनमुन बोली, ‘फिर ऐसे जल्लाद और कसाई भाइयों से फिर कभी मदद या भीख का कटोरा मत फैलाना।’

‘अब मैं क्या करूं फिर?’

‘चलो मैं तो बहन हूं। तुम और बाबू जी भी क्या भइया लोगों की ज़िम्मेदारी नहीं हो? इतने बड़े जज हैं, अफ़सर हैं, बैंक मैनेजर हैं। एन.आर.आई. हैं। थाईलैंड में हैं; चार-चार खाते कमाते ऐश करते बेटे हैं। क्या मां बाप के लिए एक-एक या दो-दो हज़ार रुपए भी हर महीने लोग रुटीन ख़र्च के लिए नहीं भेज सकते? या फिर साथ रख सकते? तो फिर मैं तो वैसे भी अभागी हूं। मेरा क्या?’

अम्मा रोने लगीं। चुपचाप। पर मुनमुन नहीं रोई। उस ने अम्मा से भी कहा, ‘अम्मा अब मत रोओ। मैं भी नहीं रोऊंगी अब। अपने हालात अब हम ख़ुद बदलेंगे। ख़ुद के भरोसे, दूसरे के भरोसे नहीं।’

लेकिन अम्मा फिर भी रोती रहीं। उन की देह पहले ही हैंगर पर टंगे कपड़े जैसी कृशकाय हो चली थी पर अब वह मन से भी टूट गई थीं। बेटी के दुख ने इस बुढ़ापे में उन पर जैसे वज्रपात कर दिया था। मुनमुन फिर से अपने गांव के स्कूल में शिक्षामित्र की नौकरी पर जाने लगी। मुनक्का राय कचहरी जाने लगे। दोनों का दिन कट जाता था। पर अम्मा क्या करें? उन का दिन कटना मुश्किल पड़ गया। दूसरे, आस पड़ोस की औरतें दुपहरिया में आतीं। बात ही बात में पहले तो सहानुभूति जतातीं मुनमुन के हालात पर। फिर कटाक्ष करतीं और पूछतीं कि, ‘ऐसे कब तक जवान जहान बेटी को घर पर बिठाए रखेंगी बहन जी?’

अब बहन जी क्या जवाब देतीं सो चुप ही रहतीं। एक दिन एक पड़ोसन दूसरी पड़ोसन से खड़ी बतिया रही थी। मुनमुन की अम्मा को सुनाती हुई बोली, ‘लड़के तो कुछ भेजते नहीं, वकील साहब की प्रैक्टिस चलती नहीं हां, बेटी का रोज़गार ज़रूर चल रहा है सो घर का ख़र्चा चल रहा है।’ ‘रोज़गार’ शब्द पर उस पड़ोसन का ज़ोर ज़रा ज़्यादा था। ऐसे जैसे मुनमुन नौकरी कर के नहीं देह का धंधा कर के घर चला रही हो। तिस पर दूसरी पड़ोसन बोली, ‘हमारे यहां तो बहन जी बेटी की कमाई खाना हराम होता है, पाप पड़ता है। हम तो बेटी की कमाई का पानी भी न छुएं।’

मुनमुन की अम्मा का कलेजा छलनी हो गया। मुनमुन की अम्मा का कलेजा भले छलनी हो रहा था पर मुनमुन का कलेजा मज़बूत हो रहा था। वह जान गई थी कि अब उसे ज़माने से लड़ना है। और इस लड़ने के लिए पहले अपने को मज़बूत बनाना होगा। तभी इस पुरुष प्रधान समाज से, इस के बनाए पाखंड से वह लड़ सकेगी। जिस चुटकी भर सिंदूर से उस की चाल, उस की बाडी लैंगवेज बदल गई थी, सब से पहले उस ने इसी सिंदूर को तिलांजलि दी। चूड़ी छोड़ कंगन पहनने लगी। बिछिया छोड़ी। इस पर सब से पहले अम्मा ने टोका, ‘बेटी सुहाग के चिन्ह ऐसे मत छोड़ो। लोग क्या कहेंगे?’ और उस का हाथ अपने हाथ में लेती हुई बोलीं, ‘ये डंडा जैसा हाथ अच्छा नहीं लगता। चलो पहले चूड़ी पहनो, सिंदूर लगाओ।’

‘नहीं अम्मा नहीं!’ कह कर मुनमुन पूरी सख़्ती से बोली, ‘जब हमारा सुहाग ही हमारा नहीं रहा तो यह सुहाग-फुहाग का चिन्ह और सिंदूर-चूड़ी हमारे किस काम का? मैं अब नहीं पहनने वाली यह बेव़कूफ़ी की चीज़ें।’

‘नहीं बेटी! राम-राम!’ मुनमुन की अम्मा मुंह बा कर, मुंह पर हाथ रखती हुई बोलीं, ‘ऐसी अशुभ बातें मत बोलो अपने मुंह से।’

‘अच्छा अम्मा यह बताओ वह गांव वाला घर गिर गया न?’ वह बेधड़क बोली, ‘पर वह जगह तो है न? हम लोग क्यों नहीं चल कर वहां रहते हैं? आखि़र हमारे पुरखों का घर था वहां?’

‘अब वहां कैसे रह सकते हैं?’ मुनमुन की अम्मा बोलीं, ‘न छांह, न सुरक्षा। न दीवार, न छत।’

‘बिलकुल अम्मा!’ मुनमुन बोली, ‘यही बात, बिलकुल यही बात मैं भी कह रही हूं कि इस चूड़ी, इस सिंदूर की न तो छत है, न दीवार है, न छांह है, न सुरक्षा तो मैं कैसे लगाऊं इसे? कैसे पहनूं इसे? जब सुहाग ही हमारा हमारे लायक़ या हमारे लिए नहीं रहा तो ये सुहाग चिन्ह हमारा कैसे रहा? हमारे किस काम का रहा?’

‘इन सब बातों में इस तरह के तर्क या मनमानी नहीं चलती।’

‘मत चलती हो पर मैं जानती हूं कि अब मेरे लिए इन सब बातों का न तो कोई अर्थ है न कोई मायने?’

‘पर लोग क्या कहेंगे?’

‘मैं ने लोगों का कोई ठेका नहीं लिया है। लोग अपनी जानें, मैं अपनी जानती हूं।’

‘बाद में पछताओगी बेटी।’

‘बाद में?’ मुनमुन बोली, ‘अरे अम्मा मैं तो अभी ही से पछता रही हूं। कि क्यों नहीं शादी के पहले ही मैं ने बिगुल बजाया। जो शादी के पहले ही भइया लोगों से तन कर बोल दी होती कि पहले मेरे दुल्हे की जांच पड़ताल ठीक से कर लीजिए तब शादी कीजिए। पर मैं तो लोक लाज की मारी राहुल भइया से मनुहार करती रही। और वह मेरी शादी में अपने पैसे ख़र्च कर के ही अपने आप पर इतना मुग्ध था कि उसे मेरा कुछ कहा सुनाई ही नहीं दिया। मेरा मर्म उसे समझ में ही नहीं आया। वह तो पैसा ख़र्च कर ऐसे ख़ुश था जैसे बहन की शादी नहीं कर रहा हो, भिखारी के कटोरे में पैसे डाल रहा हो। भले बुरे की परवाह किए बिना। बस यह सोचता रहा कि इस पुण्य का उसे अगले जनम में लाभ मिलेगा। और इस जनम में उस की वाहवाही होगी कि देखो तो अकेले दम पर बहन के लिए कितना पैसा ख़र्च कर रहा है। और नाते-रिश्तेदारों, पट्टीदारों में उस की वाहवाही हुई। मैं ख़ुद धन्य-धन्य हो गई थी। पर राहुल भइया ने यह नहीं देखा कि भिखारी के कटोरे में जो पैसा वह पुण्य के लिए डाल रहा था, वह पैसा नाबदान में बहता जा रहा था, भिखारी के कटोरे में तो वह रुका ही नहीं। अंधा था राहुल और उस की भिखारी बहन भी, जो नहीं देख पाए कि कटोरे में छेद है और कटोरा नाबदान के ऊपर है!’

‘तुम्हारा भाषण मेरे समझ में तो आ नहीं रहा मुनमुन और तुम्हें मेरी बात नहीं समझ में आ रही। हे राम मैं क्या करूं?’ अम्मा दोनों हाथ से अपना माथा पकड़ कर बोलीं।

मुनमुन अब बांसगांव में मशहूर हो रही थी। बात-बात में सब को चुनौती देने के लिए। वह लोगों से तर्क पर तर्क करती। लोग कहते यह बांसगांव की विद्योत्तमा है। विद्योत्तमा की विद्वता और हेकड़ी जिस डाल पर बैठा था, उसी डाल को काटने वाले मूर्ख कालिदास ने शास्त्रार्थ में हरा कर शादी कर के उतारी थी। उसी तरह यह बांसगांव की विद्योत्तमा अपने लुक्कड़ और पियक्कड़ पति के प्रतिरोध में शादी के बाद ऐसे खड़ी थी गोया राधेश्याम और घनश्याम ही नहीं समूचा पुरुष समाज ही उस की जिंदगी नष्ट कर गया हो, सारा पुरुष समाज ही उस का दुश्मन हो। वह अब लगभग पुरुष विरोधी हो चली थी। पुरुषों की तरह पुरुषों को वह बस मां बहन की गालियां भर नहीं बकती थी, बाक़ी सब करती थी।

उस का साथी भी अब बदल गया था। विवेक की जगह प्रकाश मिश्रा अब उस का नया साथी था। विवेक अपने मुक़दमे में पैसा-वैसा ख़र्च-वर्च कर के फ़ाइनल रिपोर्ट लगवा कर पासपोर्ट वीजा बनवा कर अपने बडे़ भाई के पास थाईलैंड चला गया था। बल्कि कहें तो एक तरह से उस के बड़े भाई ने ही उसे योजना बना कर थाईलैंड बुला लिया था। एक तो मुनमुन के साथ उस के संबंध, दूसरे, आर्म्स एक्ट में उस की गिऱफ्तारी, तीसरे बांसगांव की आबोहवा। उस के भाई ने सोचा कि कहीं उस की ज़िंदगी न नष्ट हो जाए सो उसे बांसगांव से हटाना ही श्रेयस्कर लगा और उस ने विवेक को थाईलैंड बुलवा लिया।

प्रकाश मिश्रा बांसगांव के पास ही एक गांव का रहने वाला था। वह भी शिक्षा मित्र था। शिक्षा मित्र की एक ट्रेनिंग में ही मुनमुन से उस का परिचय हुआ था। फिर परिचय दोस्ती में और दोस्ती प्रगाढ़ता में तब्दील हो गई। प्रकाश मिश्रा हालां कि शादीशुदा था और दो बच्चों का पिता भी था फिर भी उम्र उस की मुनमुन के आस पास की ही थी। विवेक की तरह प्रकाश-मुनमुन कथा भी बांसगांव में लोग जान गए और फ़ोन के मार्फ़त मुनमुन के भाइयों को भी इस प्रकाश-मुनमुन कथा का ज्ञान हुआ। सब कसमसा कर रह गए। पर मुनक्का राय और उन की पत्नी ने इस प्रकाश-मुनमुन कथा का संज्ञान नहीं लिया। लोगों द्वारा लाख ज्ञान कारवाने के बावजूद। लेकिन घनश्याम राय ने इस प्रकाश-मुनमुन कथा का संज्ञान लिया। और गंभीरता से लिया। उन्हों ने बारी-बारी मुनक्का राय और मुनमुन राय को फ़ोन कर के बाक़ायदा इस पर प्रतिरोध जताया और कहा कि, ‘मुनमुन हमारे घर की इज्ज़त है, इस पर इस तरह आंच नहीं आने देंगे!’

मुनक्का राय तो चुप रहे। प्रतिवाद में कुछ भी नहीं बोले। तो घनश्याम राय ने उन्हें दुत्कारते हुए कहा भी कि, ‘मौनं स्वीकृति लक्षणम्।’ फिर भी मुनक्का राय चुप रहे। पर जब घनश्याम राय ने मुनमुन से भी वही बात दुहराई कि, ‘तुम हमारे घर की इज़्ज़त हो और हम अपने घर की इज़्ज़त पर आंच नहीं आने देंगे।’ तो मुनमुन राय चुप नहीं रही। उस ने बेलाग कहा, ‘तो आइए इस आंच में झुलसिए। क्यों कि आंच तो आ गई है।’

घनश्याम राय को मुनमुन से ऐसे जवाब की उम्मीद हरगिज़ नहीं थी। वह हड़बड़ा गए और रमेश को फ़ोन किया। सारा हाल बताया और मुनमुन का जवाब भी। रमेश भी यह सब सुन कर सन्न रह गया। पर बोला, ‘घनश्याम जी अब मैं क्या कहूं। सिर शर्म से झुक गया है यह सब सुन कर। पर अब किया ही क्या जा सकता है?’ रमेश बोला, ‘कुछ हो सकता है तो बस यही कि आप अपने बेटे को सुधारिए और हमारी बहन को अपने घर ले जाइए। यही एक रास्ता है। बाक़ी तो मुझे कुछ सूझता नहीं।’

‘इलाज तो हम करवा रहे हैं बेटे का। डाक्टर का कहना है कि बहू आ जाए तो इस का सुधार जल्दी हो जाएगा।’

‘देखिए अब इस में मैं अभी कुछ नहीं कह सकता।’

‘पर विचार तो कर ही सकते हैं।’

‘बिलकुल। ज़रूर।’ रमेश ने कहा।

फिर घनश्याम राय का फ़ोन काट कर रमेश ने धीरज को फ़ोन मिलाया। सारा हाल बताया तो धीरज ने कहा कि हां, उसे भी बांसगांव से फलां ने फ़ोन कर के बताया था। फिर जब रमेश ने धीरज को घनश्याम राय और मुनमुन की बातचीत ख़ास कर मुनमुन के जवाब को बताया कि, ‘तो आइए इस आंच में झुलसिए। क्यों कि आंच तो आ गई है।’ तो धीरज बौखला गया। बोला, ‘तो भइया अब मेरा तो बांसगांव से संबंध अब ख़त्म समझिए और यह भी समझिए कि मुनमुन अब मेरे लिए मर गई है। आप को जो करना हो करिए मैं कुछ नहीं जानता। आखि़र इसी समाज में रहना है। सार्वजनिक जीवन जीना है। किस-किस को क्या-क्या सफ़ाई दूंगा?’ वह बोला, ‘घनश्याम आप का पुराना मुवक्किल है, आप ही जानिए। और भइया हम को इस मामले में क़तई क्षमा कीजिए!’ कह कर उस ने फ़ोन काट दिया।

मुनमुन और उस की आंच लेकिन बढ़ती ही जा रही थी। उसे इस बात की बिलकुल परवाह नहीं थी कि कौन इस आंच में झुलस रहा है और कि कौन इस आंच को ताप रहा है या इस आंच में अपनी रोटी सेंक रहा है। वह तो किसी बढ़ियाई नदी की तरह चल रही थी, जी रही थी जिस को आना हो उस के बहाव में आए, किनारे लग जाए या डूब जाए। इस सब की उसे परवाह नहीं थी। इसी बीच एक घटना घट गई। मुनमुन के आंगन में गेहूं धो कर सूखने के लिए पसारा गया था। दुपहरिया में पड़ोसी का बछड़ा आया और काफ़ी गेहूं चट कर गया। मुनमुन की अम्मा हमेशा की तरह तब अकेली थीं। जब उन्हों ने देखा तो बछड़े को हांक कर आंगन से बाहर किया और पड़ोसन से जा कर बछड़े की शिकायत भी की। पर पड़ोसन शिकायत सुनने की बजाय मुनमुन की अम्मा से उलझ गई। और ताने देने लग गई। बात बेटों की उपेक्षा से होती हुई मुनमुन के चरित्र तक आ गई। मुनमुन की अम्मा ने इस का कड़ा प्रतिरोध किया। भला-बुरा कहते हुए कहा कि, ‘आइंदा ऐसा कहा तो राख लगा कर जीभ खींच लूंगी। फिर बोलने लायक़ नहीं रहोगी।’ ऐसा कहते ही पड़ोसन न सिर्फ़ भड़क गई बल्कि मुनमुन की अम्मा की तरफ़ झपटी, ‘देखूं कैसे ज़बान खींचती हो?’ कह कर उस ने मुनमुन की अम्मा के बाल पकड़ कर खींचा और उन्हें ज़मीन पर गिरा कर मारने लगी। कहने लगी, ‘बड़का भारी कलक्टर और जज की महतारी बनी घूमती हैं। बेटी क्या गुल खिला रही है। आंख पर पट्टी बांधे बैठी हैं जैसे कुछ पता ही नहीं। आई हैं हमारा बछड़ा बंधवाने। अपनी बेटी बांध नहीं पा रहीं, बछड़ा बंधवाएंगी!’

इस मार पीट में मुनमुन की अम्मा का मुंह फूट गया। हाथ पांव में भी चोट आ गई। सारी देह छिल गई थी। देह में वैसे ही दम नहीं था, बुढ़ापा अलग से! तिस पर ताना और ये मारपीट। अपमान और लांछन से लदी मुनमुन की अम्मा ने बिस्तर पकड़ लिया। शाम को जब मुनमुन घर लौटी तो कोहराम मच गया। मुनमुन से मां का घाव और तकलीफ़ देखी नहीं गई। तमतमाई हुई वह पड़ोसन के घर गई। और पड़ोसन को देखते ही आव देखा न ताव, न कोई सवाल न कोई जवाब तड़ातड़ चप्पल निकाल कर मारना शुरू कर दिया। बाल खींच कर पड़ोसन को ज़मीन पर पटका और घसीटती हुई अपने घर खींच लाई। कहा कि, ‘मेरी मां के पैर छू कर माफ़ी मांग डायन नहीं तो अभी मार डालूंगी तूम्हें।’ घबराई पड़ोसन ने झट से मुनमुन की अम्मा के पांव छू कर माफ़ी मांगी और कहा कि, ‘माफ़ कर दीजिए बहन जी!’ फिर मुनमुन ने एक लात उसे और मारी और कहा, ‘भाग जा डायन और फिर कभी मेरे घर की तरफ़ आंख भी उठा कर देखा तो आंखें नोच लूंगी।’

मुनक्का राय इसी बीच घर आए और पूरा वाक़या सुना तो घबरा गए। बोले, ‘अभी जब उस के घर के लड़के और मर्द आएंगे तो वह भी मार पीट करेंगे। क्या ज़रूरत थी इस मार पीट की?’

‘कुछ नहीं बाबू जी आप घवबराइए मत अभी मैं उस का इंतज़ाम भी करती हूं।’ कह कर उस ने एस.डी.एम. बांसगांव को फ़ोन मिलाया और रमेश भइया तथा धीरज भइया का रेफरेंस दे कर पड़ोस से झगड़े का डिटेल दिया और कहा कि, ‘जैसे रमेश भइया, धीरज भइया हमारे भइया, वैसे ही आप भी हमारे भइया, मैं आप की छोटी बहन हुई। हमारी इज़्ज़त बचाना और हमारी सुरक्षा करना आप का धर्म हुआ। फिर मेरे घर में सिर्फ़ मैं और मेरे वृद्ध माता पिता भर ही हैं। काइंडली हमें सुरक्षा दीजिए और हमें सेव कीजिए। हमारे सम्मान का यह सवाल है।’ उस ने जोड़ा, ‘आखि़र आप के भी माता पिता आप के होम टाउन या विलेज में होंगे। उन पर कुछ गुज़रेगी तो क्या आप उन की मदद नहीं करेंगे?’

एस.डी.एम. मुनमुन की बातों से कनविंस हुआ और कहा कि, ‘घबराओ नहीं मैं अभी थाने से कहता हूं। फ़ोर्स पहुंच जाएगी।’

और सचमुच थोड़ी देर में बांसगांव का थानेदार मय फ़ोर्स के आ गया। मुनमुन से पूरी बात सुनी और पड़ोसी के घर जा कर उन की मां बहन कर पूरे परिवार को ‘टाइट’ कर दिया और कहा कि ज़रा भी दुबारा शिकायत मिली तो पूरे घर को उठा कर बंद कर दूंगा।’

पड़ोसी का परिवार सकते में आ गया। पड़ोसन ने जवाब में कुछ कहना चाहा पर थानेदार ने, ‘चौप्प!’ कह के भद्दी गाली बकी और कुछ भी सुनने को तैयार नहीं हुआ। बोला, ‘कलक्टर और जज का परिवार है तुम लोगों की हिम्मत कैसे हुई उधर आंख उठाने की?’

‘पर सर....!’ पड़ोसन का लड़का कुछ बोलना चाहा लेकिन थानेदार ने उस को भी, ‘चौप्प!’ कह कर भद्दी सी गाली दी और डपट दिया।

मुनमुन ने थानेदार से कहा कि, ‘कहीं रात में सब ख़ुराफ़ात करें?’

‘कुछ नहीं करेंगे। आप निश्चिंत रहिए।’ थानेदार बोला, ‘रात में दो सिपाहियों की यहां एहतियातन गश्त लगा देता हूं। थोड़ी-थोड़ी देर में आते-जाते रहेंगे। घबराने की ज़रूरत नहीं है।’

फिर मुनमुन ने सोचा कि अम्मा को किसी डाक्टर को ले जा कर दिखा दे। लेकिन सोचा कि जो नहीं देखे होगा वह भी अम्मा के घाव देखेगा, बात फैलेगी और बदनामी होगी। सो उस ने लगे हाथ थानेदार से कहा कि, ‘भइया एक फ़ेवर आप और कर देते तो अच्छा होता।’

‘हां-हां बोलिए।’

‘ज़रा कोई एक डाक्टर अपनी जीप से बुलवा लेते तो अम्मा का चेक-अप कर लेता। वैसे ले जाने, ले आने में दिक्क़त होगी।’ मुनमुन की यह बात सुन कर थानेदार थोड़ा बिदका तो लेकिन चूंकि एस.डी.एम. साहब का सीधा आदेश था, जज और कलक्टर का परिवार था सो विवशता में ही सही वह, ‘बिलकुल-बिलकुल’ कहते हुए जीप में बैठ गया और बोला, ‘अभी ले आता हूं।’

फिर थोड़ी देर में वह सचमुच एक डाक्टर को लेकर आया। डाक्टर ने मुनमुन की अम्मा को देखा। घाव पर दवाई लगाई, पट्टी किया। ए.टी.एस. की सुई लगाई। पेन किलर दिए। और बिना पैसा या फ़ीस लिए हाथ जोड़ कर थानेदार के साथ ही जाने लगा। मुनक्का राय से बोला, ‘और यह भी अपना ही परिवार है। क्या पैसा लेना? भइया लोगों से कह कर कभी मेरा भी कोई काम करवा दीजिएगा। बस!’

और सचमुच फिर उस पड़ोसी परिवार ने मुनक्का राय के परिवार की ओर आंख उठा कर नहीं देखा। उन का बछड़ा भी बंधा रहने लगा। मुनमुन को इस से बड़ी ताक़त मिली। वह समझ गई कि प्रशासन में ताक़त बहुत है। सो वह भी क्यों न किसी प्रशासनिक नौकरी के लिए तैयारी करे। भइया लोग तैयारी कर सकते हैं, सेलेक्ट हो सकते हैं तो वह भी क्यों नहीं हो सकती? उस ने बाबू जी से एक रात खाना खाने के बाद उन के सिर पर तेल लगाते समय यह बात कही भी। और जोड़ा भी कि, ‘आखि़र आप का ही खून हूं।’

‘वो तो ठीक है बेटी पर भइया लोगों की पढ़ाई और तुम्हारी पढ़ाई में थोड़ा फ़र्क़ है।’

‘क्या फ़र्क़ है?’ वह उखड़ती हुई बोली।

‘एक तो वह सब साइंस स्टूडेंट थे। दूसरे इंगलिश भी उन की ठीक थी। पर तम्हारे पास न तो साइंस है न इंगलिश। हाई स्कूल से ही बिना मैथ, इंगलिश और साइंस से तुम्हारी पढ़ाई हुई है। दूसरे, तुम्हारा पढ़ाई का अभ्यास भी छूट गया है। और फिर प्रशासनिक नौकरी कोई हलवा पूरी नहीं है। बहुत मेहनत करनी पड़ती है।’

‘वो तो मैं करूंगी बाबू जी।’ मुनमुन बोली, ‘इंगलिश, साइंस कोई बपौती नहीं है प्रशासनिक सेवा की। हिंदी मीडियम से भी उस की तैयारी हो सकती है। मैं ने पता कर लिया है। रही बात इंगलिश की तो उस की भी पढ़ाई फिर से करूंगी। बस आप अब की जब अनाज बेचिएगा तो थोड़ा पैसा उस में से हमारे लिए भी निकाल लीजिएगा।’

‘वह किस लिए?’

‘वही कोचिंग और किताबों के लिए।’ मुनमुन बोली, ‘जब रमेश भैया इतने लंबे गैप के बाद कंपटीशन कंपलीट कर सकते हैं तो मैं भी कर सकती हूं।’

‘अगर बेटी ऐसी बात है तो तुम तैयारी करो। अनाज क्या है मैं इस के लिए खेत बेच दूंगा, अपने आप को बेच दूंगा। पैसे की कमी नहीं होने दूंगा। अगर तुम में जज़्बा है तो कुछ भी कर सकती हो। करो मैं तुम्हारे साथ हूं।’ कहते-कहते मुनक्का राय लेटे-लेटे उठ कर बैठ गए। उठ कर बेटी का माथा चूम लिया, ‘तुम कुछ बन जाओ तो सारी चिंता मेरी दूर हो जाए!’ कह कर वह अनायास रोने लगे। सिसक-सिसक कर।

‘मत रोइए बाबू जी।’ मुनमुन बोली, ‘अब सो जाइए। सब ठीक हो जाएगा।’

मुनक्का राय फिर से लेट गए। लेटे-लेटे रोते रहे। पर मुनमुन नहीं रोई। पहले बात बे बात रोने वाली मुनमुन ने अब रोना छोड़ दिया था।

गिरधारी राय का निधन हो गया है।

अंतिम समय में उन की बड़ी दुर्दशा हुई। बेटों ने दवाई, भोजन तक नहीं पूछा। बिस्तर साफ़ करने वाला भी कोई नहीं था। कोई नात-रिश्तेदार ग़लती से उन्हें देखने जाता तो फ़ौरन भागता। देह में उन के कीड़े पड़ गए थे। दूर से ही बदबू मारते थे। कोई नाक दबा कर बैठ भी जाता तो उस से वह दस-पांच रुपए भी मांगने लगते। रुपए मांगने की आदत उन की पहले भी थी। बिना संकोच वह किसी से भी पैसा मांग लेते। पट्टीदार, रिश्तेदार, परिचित, अपरिचित जो भी हो। कोई दे देता, कोई नहीं भी देता। फिर भी उन का मांगना नहीं रुकता। अब वह जब चले ही गए तो शव यात्रा में भी उन की ज़्यादा लोग नहीं गए। पर मुनक्का राय गए हैं। लाश उन की जला दी गई है पर ठीक से जल नहीं पा रही है। बीमारी वाली देह है, तिस पर लकड़ी भी गीली है। श्मशान घाट पर बैठे लोग उन की अच्छाइयां-बुराइयां बतिया रहे हैं। और उन की लाश है कि लाख यत्न के बावजूद ठीक से जल नहीं पा रही है। डोम, पंडित, परिजन सभी परेशान हैं। परेशान हैं मुनक्का राय भी। एक पट्टीदार से बतिया रहे हैं, ‘चले गए गिरधारी भाई पर मुझ को लाचार कर के। मुझे बरबाद करने में उन्हों ने अपनी ओर से कोई कोर कसर नहीं छोड़ी।’

‘तो भुगत भी तो रहे हैं।’ पट्टीदार बोला, ‘देखिए मरने के बाद भी जल नहीं पा रहे हैं। देह में कीड़े पड़ गए थे सो अलग। दाने-दाने के लिए तरस कर मरे हैं। भगवान सारा स्वर्ग नरक यहीं दिखा देते हैं। जस करनी तस भोगहू ताता, नरक जात फिर क्यों पछताता! क्या वइसेही कहा गया है?’

‘सो तो है!’ मुनक्का राय कहते हुए जम्हाई लेने लगते हैं। वह कहना चाहते हैं कि गिरधारी भाई के साथ एक युग समाप्त हुआ की तर्ज पर गिरधारी भाई के साथ एक दुष्ट समाप्त हुआ। पर सोच कर ही रह जाते हैं। यह मौक़ा नहीं है यह सब कुछ कहने का। पर अपने मन की चुभन और टीस का वह क्या करें? इन को कहां दफ़न करें? किस चिता में जलाएं इसे? और मुनमुन? मुनमुन की























चिंता उन्हें चिता से भी ज़्यादा जलाए दे रही है। वह क्या करें?

वह क्या करें? किंकर्त्तव्य विमूढ़ हुआ एक वृद्ध पिता सिवाय अफ़सोस, मलाल और चिंता के कर भी क्या सकता था? लोग समझते थे कि उन का परिवार प्रगति के पथ पर है। पर उन की आत्मा जानती थी कि उन का परिवार पतन की पराकाष्ठा पर है। वह सोचते और अपने आप से ही कहते कि भगवान बच्चों को इतना लायक़ भी न बना दें कि वह माता पिता और परिवार से इतने दूर हो जाएं। अपने आप में इतना खो जाएं कि बाक़ी दुनिया उन्हें सूझे ही नहीं। अख़बारों में वह पढ़ते थे कि अब दुनिया ग्लोबलाइज़ हो गई है। जैसे एक गांव हो गई है समूची दुनिया। पर उन को लगता था कि अख़बार वाले ग़लत छापते हैं।

बेटियों से तो कोई उम्मीद थी नहीं। पर उन के चारों बेटे जाने किस ग्रह पर रहते थे कि उन का दुख, उन की यातना उन्हें दिखती ही न थी। बेटों की इस उपेक्षा और अपमान की बाबत वह किसी से कुछ कह भी नहीं पाते थे। मारे लोक लाज के। कि लोग क्या कहेंगे? वह सोचते यह सब और अपने आप से ही पूछते कि, ‘क्या इसी को ग्लोबलाइजे़शन कहते हैं?’

सवाल तो उन के पास कई थे। पर इन का जवाब एक भी नहीं। कहा जाता है कि दिल पर जब बोझ बहुत हो तो किसी से शेयर कर लेना चाहिए। दिल का बोझ कुछ कम हो जाता है। पर मुनक्का राय यह सोचते कि किस से वह अपने बेटों की शिकायत करें? वह मर न जाएंगे जिस दिन अपने बेटों की शिकायत किसी से करेंगे। उलटे वह तो जब भी कहीं बेटों का ज़िक्र आता तो कहते कि, ‘हमारे बेटे तो सब रत्न हैं रत्न!’

पर यह बेटे सब जाने किस राजा के रत्न बन बैठे थे कि माता पिता के दुखों को देखे बिना बिसार बैठे थे। एक बार धीरज से फ़ोन पर उन्हों ने कहा भी था कि, ‘बेटा जब तुम अध्यापक थे तो ज़्यादा अच्छे थे। हम लोगों का दुख-सुख ज़्यादा समझते थे। तुम्हें याद होगा उन दिनों तुम्हारे नियमित मदद के वशीभूत मैं ने तुम्हारा नाम कभी नियमित प्रसाद तो कभी सुनिश्चित प्रसाद रखा और कहा करता था।’ पर वह इस पर कुछ बोला नहीं उलटे अपनी व्यस्तताएं और ख़र्चे बताने लगा था।

चुप रह गए थे मुनक्का राय। उन्हीं दिनों टी.वी. पर आ रहे कवि सम्मेलन पर एक कवि ने कविता सुनाई थी, ‘कुत्ते को घुमाना याद रहा पर गाय की रोटी भूल गए/साली का जनम दिन याद रहा पर मां की दवाई भूल गए।’ सुन कर वह फिर अपने आप से बोले, ‘हां, ज़माना तो बदल गया है।’ बाद में पता चला धीरज की दो-दो सालियां उस के साथ नियमित रह रही हैं। और वह ससुराल पर ख़ासा मेहरबान है। एक बड़ा सा कुत्ता भी रख लिया है। शायद इसी लिए वह अपने नियमित प्रसाद और सुनिश्चित प्रसाद को भूल गया। भूल गया कि अम्मा बाबू जी खाना भी खाते हैं और दवाई भी। बाक़ी ज़रूरतें भी अलग हैं। नातेदारी, रिश्तेदारी, न्यौता हकारी। सब भूल गया नियमित प्रसाद उर्फ सुनिश्चित प्रसाद उर्फ धीरज राय।

क्या डिप्टी कलक्टरी ऐसे ही होती है?

ऐसे ही होते हैं न्यायाधीश?

ऐसे ही होते हैं बैंक मैनेजर?

और ऐसे ही होते हैं एन.आर.आई?

क्या एन.आर.आई. राहुल भी गाता होगा, ‘हम तो हैं परदेस में देस में निकला होगा चांद।’ और वो पंकज उधास का गाना सुनता होगा कभी क्या कि, ‘चिट्ठी आई है, वतन से चिट्ठी आई है! सात समंदर पार गया तू हम को जिंदा मार गया तू!’ सुनता होगा क्या, ‘मैं तो बाप हूं मेरा क्या है/तेरी मां का हाल बुरा है।’ सुनता होगा इस गाने की तासीर, ‘कम खाते हैं, कम सोते हैं बहुत ज़ियादा हम रोते हैं।’ क्या पता सुनता हो? सुनते हों बाक़ी भी। न्यायाधीश भी, डिप्टी कलक्टर भी और बैंक मैनेजर भी। या हो सकता है यह गाना सुनते ही बंद कर देते हों। सुनना ही नहीं चाहते हों। जैसे कि धीरज अब फ़ोन भी नहीं सुनता। मोबाइल या तो उठता नहीं या स्विच आफ़ रखता है। लैंड लाइन फ़ोन कोई कर्मचारी उठाता है और किसी मीटिंग या बाथरूम में बता देता है। कितनी भी ज़रूरी बात हो वह नहीं सुनना चाहता। क्या वह अपने क्षेत्र की जनता की भी ऐसे ही अनसुनी करता होगा? सोच कर मुनक्का राय कांप जाते हैं।

कांप गई थी मुनमुन भी जब एक दिन अचानक उस का पति राधेश्याम बांसगांव उस के घर आ गया। मुनमुन और अम्मा दोनों ही बाहर दरवाजे़ पर ओसारे में बैठी एक पड़ोसन से बतिया रही थीं। मुनमुन को बुख़ार था। इस लिए स्कूल नहीं गई थी। राधेश्याम आया। मोटरसाइकिल दरवाजे़ पर खड़ी कर ओसारे में आया। ख़ाली कुर्सी पर धप्प से बैठ गया। मुनमुन से बोला, ‘चलो मेरे साथ और अभी चलो!’

‘कहां?’ मुनमुन अचकचा गई। पूछा, ‘आप कौन?’

‘तो अब अपने मर्द को भी नहीं पहचानती?’ राधेश्याम मां की गाली देते हुए बोला, ‘पहचान लो आज से मैं तुम्हारा हसबैंड हूं।’

‘अरे?’ कह कर वह घर में भागी। राधेश्याम शराब के नशे में धुत था। आवाज़ लड़खड़ा रही थी पर उस ने लपक कर, मुनमुन को झपट्टा मार कर पकड़ लिया। बोला, ‘चल कुतिया अभी मेरे साथ चल!’

अम्मा ने हस्तक्षेप किया और हाथ जोड़ कर बोलीं, ‘भइया पहले चाय पानी तो कर लीजिए।’

‘हट बुढ़िया!’ अम्मा को राधेश्याम ने ढकेलते हुए कहा, ‘चाय पीने नहीं आया हूं। आज इस को ‘लेने’ आया हूं।’

अम्मा का सिर दीवार से टकरा कर फूट गया। और वह गिर कर रोने लगीं, ‘हे राम कोई बचाओ मेरी बेटी को।’ मुनमुन ने प्रतिरोध किया तो राधेश्याम ने उसे भी बाल पकड़ कर पीटना शुरू कर दिया। वहां बैठी पड़ोसन बचाव में आई तो उसे भी मां बहन की गालियां देते हुए लातों जूतों से पिटाई कर दी। चूंकि यह मार पीट घर के बाहर घट रही थी सो कुछ राहगीरों ने भी हस्तक्षेप किया और राधेश्याम से तीनों औरतों को छुड़ाया। राधेश्याम को दो तीन लोगों ने कस कर पकड़ा और औरतों से कहा कि, ‘आप लोग घर में चली जाइए।’

मुनमुन और उसकी अम्मा ने घर में जा कर भीतर से दरवाज़ा बंद कर लिया। पड़ोसन अपने घर भागी। फिर राहगीरों ने राधेश्याम को छोड़ा। राधेश्याम ने राहगीरों की भी मां बहन की। और बड़ी देर तक मुनमुन के घर का दरवाज़ा पीटता गरियाता रहा। फिर चला गया। घर का दरवाज़ा शाम को तभी खुला जब मुनक्का राय कचहरी से घर आए। उन्हों ने जब यह हाल सुना तो माथा पकड़ कर बैठ गए। बोले, ‘अब यही सब देखना बाक़ी रह गया है इस बुढ़ौती में? हे भगवान कौन सा पाप किया है जो यह दुर्गति हो रही है?’

थोड़ी देर में वह गए एक डाक्टर को पकड़ कर लाए। मां बेटी की सुई, दवाई, मरहम पट्टी कर के वह चला गया। देह के घाव तो दो चार दिन में सूख जाएंगे पर मन पर लगे घाव?

शायद कभी नहीं सूखेंगे। देह के घाव अभी ठीक से भरे भी नहीं थे कि अगले ह़ते राधेश्याम फिर आ धमका। अब की वह मोटरसाइकिल दरवाज़े पर खड़ी कर ही रहा था कि मां-बेटी भाग कर घर में घुस गईं और भीतर से दरवाज़ा बंद कर लिया। लेकिन राधेश्याम माना नहीं दरवाज़ा पीट-पीट कर गालियां बकता रहा और कहता रहा, ‘खोलो-खोलो आज ले कर जाऊंगा।’

लेकिन मुनमुन ने दरवाज़ा नहीं खोला। फिर राधेश्याम बगल के एक घर में गया। वहां भी गाली गलौज की। वह लोग जानते थे कि यह मुनक्का राय का दामाद है सो हाथ जोड़ कर उसे जाने को कहा। वह फिर मोटरसाइकिल ले कर गिरधारी राय के घर गया। जब उसे पता चला कि गिरधारी राय मर गए तो भगवान को संबोधित कर के कुछ गालियां बकीं। और चाय पीते-पीते उन की एक बहू को पकड़ लिया और बोला, ‘मुनमुन नहीं जा रही है तो तुम्हीं चलो। तुम पर भी हमार हक़ बनता है।’

गिरधारी राय के बेटे भी पियक्कड़ थे सो उन की बहू पियक्कड़ों से निपटना जानती थी। सो बोली ‘हां-हां क्यों नहीं पहले कपड़ा तो बदल लूं। आप तब तक बाहर बैठिए।’ कह कर उस ने राधेश्याम को बाहर बैठा कर भीतर से दरवाज़ा बंद कर लिया। राधेश्याम ने फिर यहां भी तांडव किया। दरवाज़ा पीट-पीट कर गालियों की बरसात कर दी। फिर तो आए दिन की बात हो गई राधेश्याम के लिए। वह पी-पा कर आता। उस को देखते ही औरतें घर के भीतर हो कर दरवाज़ा बंद कर लेतीं। मुनमुन के घर वह दरवाज़ा पीट-पीट कर गालियां बकता, पड़ोसियों के घर और फिर गिरधारी राय के घर भी। जैसे यह सब उस का रूटीन हो गया था। मुनमुन के घर तो वह पलट-पलट कर आता। कई-कई बार। जैसे मुनमुन के घर गाली गलौज कर पड़ोसी के घर जाता। फिर पलट कर मुनमुन के घर आता। फिर गिरधारी राय के यहां जाता। फिर मुनमुन के यहां आता। फिर किसी पड़ोसी, फिर मुनमुन। जब तक उस पर नशा सवार रहता वह आता-जाता रहता।

एक दिन राधेश्याम गाली गलौज के दो राउंड कर के जा चुका था कि मुनमुन का फुफेरा भाई दीपक आ गया मुनमुन के घर। यह फुफेरा भाई दिल्ली में रहता था और दिल्ली यूनिवर्सिटी के एक कालेज में पढ़ाता था। दीपक बहुत दिनों बाद दिल्ली से अपने घर आया था तो सोचा कि मामा-मामी से भी मिलता चले। क्यों कि वह बचपन में अकसर मामा-मामी के पास आता था और मामी बड़े शौक़ से किसिम-किसिम के पकवान बना-बना कर उसे खिलाती रहती थीं। वह मामी के पास ह़फ्ते-ह़फ्ते रह जाता था गरमियों की छुट्टियों में। मामी उसे मानती भी बहुत थीं। तब मामी ख़ूब भरी-पुरी और ख़ूब सुंदर सी दीखतीं थीं। बिलकुल फ़िल्मी हिरोइनों की तरह सजी संवरी रहतीं। मामा भी सब के सामने ही उन से हंसी ठिठोली करते रहते। मुनमुन तब छोटी सी नटखट सी थी। मामा की प्रैक्टिस तब ख़ूब चटकी हुई थी। फ़ौजदारी और दीवानी दोनों में उन की चांदी थी। लक्ष्मी जी की अगाध कृपा थी उन दिनों मामा-मामी पर। कहने वाले कहते कि मुनमुन बड़ी भाग्यशाली है। बड़े भाग ले कर आई है। साक्षात लक्ष्मी बन कर आई है। ऐसा लोग कहते। ज़िले में उन दिनों बाह्मण-ठाकुर बाहुबलियों का बोलबाला था। और बांसगांव के पास सरे बाज़ार एक गुट के सात लोग जीप से उतार कर मार दिए गए थे। अगले ह़फ्ते ही दूसरे गुट ने अगले ग्रुप के नौ लोगों को एक बाज़ार में घेरा। पांच मार दिए सरे बाज़ार और चार नदी में कूद कर तैरते हुए जान बचा कर भाग गए। शहर में सरे शाम एक छात्र नेता की हत्या मुख्य बाज़ार में हो गई तो एक विधायक की हत्या सुबह-सुबह रेलवे स्टेशन पर हो गई। यह सारी ताबड़तोड़ हत्याएं बांसगांव के लोग ही कर करवा रहे थे।

बांसगांव तब तहसील नहीं, अपराध की भट्ठी बन गया था। धर पकड़ की जैसे महामारी मची थी। और इन्हीं दिनों मुनक्का राय की प्रैक्टिस जमी हुई थी। ज़मानत करवाने में वह माहिर थे। उन का कोर्ट में खड़ा होना मतलब ज़मानत पक्की! पर वह और दिन थे, यह और दिन। अब तो मामा की प्रैक्टिस चरमरा गई थी और वह हिरोइन सी दिखने वाली मामी की भरी-पुरी देह हैंगर पर टंगे कपड़े सी हो गई थी। देह क्या हड्डियों का ढांचा रह गई थीं-मामी। उन की देह की ढलान एक बेटे की मृत्यु के बाद जो शुरू हुई तो फिर नहीं रुकी। मामी के आज चार बेटे हैं पर पहले पांच बेटे थे। तरुण और राहुल के बीच का शेखर। शेखर ने बस हाई स्कूल विथ डिस्टिंक्शन पास किया ही था कि उस की तबीयत ख़राब रहने लगी। बांसगांव के डाक्टर इलाज कर-कर के थक गए तो शहर के डाक्टरों को दिखाया मुनक्का राय ने शेखर को। दुनिया भर की जांच पड़ताल के बाद पता चला कि शेखर की दोनों किडनी फेल हो गई हैं। डायलिसिस वग़ैरह शुरू हुई। और अंततः तय हुआ कि बनारस जा कर बी.एच.यू. में किडनी ट्रांसप्लांट करवाया जाए।

मुनक्का राय ख़ुद अपनी एक किडनी देने को तैयार हो गए। बोले, ‘बेटे के लिए कुछ भी करने को तैयार हूं मैं।’ फिर भी वह बेटे से कहते, ‘बाबू शेखर जो भी खाना हो खा लो, जो भी पहनना हो पहन लो फिर पता नहीं क्या हो? पर तुम्हारी कोई इच्छा शेष नहीं रहनी चाहिए। सारी इच्छाएं पूरी कर लो।’ पर शेखर अम्मा-बाबू जी की परेशानी देख कर कहता, ‘नहीं बाबू जी हम को कुछ नहीं चाहिए।’ फिर वह जैसे जोड़ता कि, ‘बाबू जी मत करवाइए हमारा आपरेशन। बहुत पैसा ख़र्च हो जाएगा।’ वह दरअसल देख रहा था कि बाबू जी की लगभग सारी कमाई उस के आपरेशन में दांव पर लगने जा रही थी। क़र्जा अलग से। सो वह कहता, ‘आपरेशन के बाद भी जाने मैं ठीक होऊंगा कि नहीं। रहने दीजिए।’

तो भी मुनक्का राय ने शेखर के किडनी ट्रांसप्लांट में होने वाले ख़र्च के लिए पूरी व्यवस्था जब कर ली तो एक दिन वह शहर गए। शेखर को ले कर। एक हार्ट स्पेशलिस्ट थे डाक्टर सरकारी। वह बी.एच.यू. के ही पढ़े हुए थे। उन के कोई परिचित डाक्टर बी.एच.यू. में थे जो किडनी ट्रांसप्लांट करते थे। उन के लिए सिफ़ारिशी चिट्ठी डाक्टर सरकारी से लिखवाने के लिए मुनक्का राय गए थे उन के पास। डाक्टर सरकारी के सामने शेखर को लिए वह बैठे हुए थे। बातचीत के बाद डाक्टर सरकारी चिट्ठी लिख ही रहे थे कि शेखर की छाती में अचानक ज़ोर से दर्द उठा। वह छटपटाने लगा। डाक्टर सरकारी ने चिट्ठी लिखनी छोड़ दी। दौड़ कर उसे अटेंड किया। उन का पूरा अमला लग गया शेखर को बचाने के लिए। लेकिन सोलह साल का शेखर जो किडनी का पेशेंट था, हार्ट स्पेशलिस्ट के सामने हार्ट अटैक का शिकार हो गया था। और वह हार्ट स्पेशलिस्ट लाख कोशिश के उसे बचा नहीं पाया। शेखर जब मरा तो मुनक्का राय की बाहों में ही था। वह रोते-बिलखते शेखर का शव लिए बांसगांव आए। शेखर की मां पछाड़ खा कर गिर पड़ीं। कई दिनों तक बेसुध रहीं। जवान बेटे की मौत ने उन्हें तोड़ दिया था। मुनक्का राय ख़ुद भी कहते, ‘जिस बाप के कंधे पर जवान बेटे की लाश आ जाए उस से बड़ा अभागा कोई और नहीं होता।’ टूटे फूटे मुनक्का राय बहुत दिनों तक कचहरी नहीं गए।

पर धीरे-धीरे वह संभले। जाने लगे कचहरी-वचहरी। पर शेखर की अम्मा नहीं संभलीं। शेखर की याद में, शेखर के ग़म में वह गलती गईं। फिर पारिवारिक समस्याएं एक-एक कर आती गईं और वह किसी मकान के किसी कच्ची दीवार की तरह धीरे-धीरे भहराती रहीं। गलती रहीं। फिर उन की सुंदर देहयष्टि उन से जैसे बिसरने लगी। रूठ गई। वह बीमार रहने लगीं। रही सही कसर मुनमुन की तकलीफ़, बेटों की उपेक्षा और अचानक आई दरिद्रता ने पूरी कर दी। वह किसी हैंगर पर टंगी कमीज की मानिंद चलता फिरता कंकाल हो गईं। जैसे वह नहीं, उन का ढांचा चलता था। उन की मांसलता, उन की सुंदरता, उन का बांकपन उन से विदा हो गया था। उन की कंटली चाल, उन के गालों के गड्ढे और उन की आंखों की शोख़ी जैसे किसी डायन ने सोख ली थी। तो भी इस मामी का ममत्व दीपक नहीं भूल पाता था। उन के वह सुख भरे दिन याद करता और जब-जब अपने गांव आता मामी के भी चरण छूने ज़रूर आ जाता बांसगांव।

तो इस बार भी आया दीपक बांसगांव। बड़ी देर तक दरवाज़ा पीटने पर धीरे से मुनमुन की मिमियाई हुई आवाज़ आई, ‘कौन?’

‘अरे मैं दीपक!’

‘अच्छा-अच्छा।’ मुनमुन ने पूछा, ‘कोई और तो नहीं है आप के साथ?’

‘नहीं तो मैं अकेला हूं।’

‘अच्छा-अच्छा!’ कहती हुई मुनमुन ने किसी तरह दरवाज़ा खोला। बोली, ‘भइया अंदर आ जाइए।’

दीपक के अंदर जाते ही उस ने तुरंत दरवाज़ा बंद कर लिया। मुनमुन और मामी दोनों के चेहरे पर दहशत देख कर दीपक ने पूछा कि, ‘आखि़र बात क्या है?’

‘बात अब एक हो तो बताएं भइया।’

कहती हुई मामी फफक पड़ीं। बोलीं, ‘बस यही जानो कि मुनमुन का भाग फूट गया और क्या बताएं?’ फिर मामी और मुनमुन ने बारी-बारी आपनी यातना और अपमान कथा का रेशा-रेशा उधेड़ कर रख दिया। सब कुछ सुन कर दीपक हतप्रभ हो गया। उस ने मुनमुन से कहा, ‘अगर ऐसा था तो तुम ने हम को बताया होता मैं चला गया होता शादी के पहले जांच पड़ताल कर आया होता।’

‘कहां भइया आप तो दिल्ली में थे। और फिर मैं ने यहां जितेंद्र भइया से कहा था पर वह भी टाल गए।’ जितेंद्र दीपक का छोटा भाई था और यहीं शहर में रहता था। रेलवे में काम करता था।

‘अच्छा!’ दीपक बोला, ‘ऐसा तो नहीं करना चाहिए था उसे। फिर भी तुम एक बार फ़ोन या चिट्ठी पर हमें बता तो सकती ही थी। और फिर जब शादी में आया था तब भी कह सकती थी।’

‘अब शादी के समय आप भी क्या कर सकते थे?’

‘खै़र, रमेश, धीरज या तरुण को यह सब जो कुछ हो रहा है बताया?’

‘वही लोग जो हम लोगों का ख़याल रखते तो उस पियक्कड़ की हिम्मत थी जो हम लोगों के साथ यह सब करता?’ दीपक के सामने चाय का कप रखती हुई मुनमुन बोली, ‘और फिर जो इतना मेरा ख़याल रखा होता तो यह पियक्कड़ और पागल मेरी जिंदगी में आया ही क्यों होता?’

‘ये तो है!’ दीपक धीरे से बोला।

‘जानते हैं भइया इस पियक्कड़ का चेहरा शादी में जयमाल के बाद फिर पिटाई के बाद ही मैं ने यहां देखा। लगभग पंद्रह दिन वहां ससुराल में रही तो कभी भूल कर भी इस की शकल देखने को नहीं मिली। दो तीन दिन बाद हार कर इस की बहनों और भाइयों से मैं ने पता करना शुरू किया कि तुम्हारे भइया कहां सोते हैं? तो पता चला कभी बाग में सो जाते हैं, कभी टयूबवेल पर, कभी कहीं तो कभी कहीं। क्या तो गंजेड़ियों अफीमचियों और चरसियों की महफ़िल जुटती है जहां तहां। तो लत के चक्कर में इस को अपनी बीवी की तब सुधि ही नहीं थी। अब हुई है तो आ कर मार पीट करने के लिए।’

‘बताओ तमाम नातेदारी, रिश्तेदारी में इस परिवार को लोग रश्क से देखते हैं। भाइयों के गुणगान करते नहीं थकते।’

‘कुछ नहीं भइया चिराग़ तले अंधेरा वैसे ही तो नहीं कहा गया है।’

‘ये तो है।’

यह सब देख सुन कर दीपक का मन ख़राब हो गया। सोचा था कि बांसगांव वह एक रात रह कर जाएगा। मामा-मामी से ख़ूब बतियाएगा। पर यहां का माहौल देख कर वह तुरंत चलने को तैयार हो गया। मामी ने कहा, ‘अरे आज तो रुको। शाम तक मामा भी आ जाएंगे। बिना उन से मिले चले जाओगे?’

‘मामा से अभी कचहरी जा कर मिल लूंगा।’ दीपक ने बहाना बनाया, ‘शहर में कुछ ज़रूरी काम निपटाना है। इस लिए जाना तो पड़ेगा।’

‘अच्छा भइया थोड़ी देर तो रुक जाइए। अम्मा कह रही हैं तो मान जाइए।’

‘चलो ठीक है। थोड़ी देर रुक जाता हूं।’ कह कर वह रुक गया। वह देख रहा था कि घर की समृद्धि, दरिद्रता में तब्दील हो रही थी। विपन्नता देह और देह के कपड़े लत्तों, घर के सामान, भोजन आदि में ही नहीं बातचीत में भी बिखरी पड़ी थी। बात-बात में उस ने मुनमुन से रमेश, धीरज और तरुण के फ़ोन नंबर ले लिए और कहा कि, ‘देखो मैं बात करता हूं फिर बताता हूं। और हां, राहुल का फ़ोन आए तो मेरा नंबर उसे देना और कहना कि मुझ से बात करे। और हां, अपना भी नंबर दो और अपनी ससुराल का भी नंबर दो। ताकि पूछूं कि वह यह हरकत क्यों कर रहा है?’

मुनमुन ने सब के नंबर दे कर दीपक का नंबर ख़ुद ले लिया। और बताया कि, ‘धीरज भइया का फ़ोन मिल पाना बहुत मुश्किल होता है। अव्वल तो उठता नहीं। उठता भी है तो कोई कर्मचारी उठाता है और उन्हें बाथरूम या मीटिंग में भेज देता है। बात नहीं कराता है।’

‘चलो फिर भी देखता हूं।’

‘और हां, जो मेरी ससुराल फ़ोन करिएगा तो हाथ पैर जोड़ कर उन सब का दिमाग़ मत ख़राब कीजिएगा। जो भी बात करिएगा वह सख़्ती से करिएगा।’

‘नहीं-नहीं यह बात तो मैं सख़्ती से करूंगा ही कि वह यहां इस तरह शराब पी कर न आया करे। यह तो कहना ही पड़ेगा।’

‘चाहिए तो अभी कर लीजिए।’ मुनमुन उत्साहित होती हुई बोली।

‘नहीं अभी नहीं।’ दीपक बोला, ‘पहले थोड़ी प्लानिंग कर लूं। रमेश, धीरज वगै़रह से भी राय मशविरा कर लें। तब। जल्दबाज़ी में यह सब ठीक नहीं है।’

‘चलिए जैसा आप ठीक समझिए।’ मुनमुन बोली, ‘पर भइया लोग आप को मेरे मसले पर शायद ही कोई राय मशविरा दें।’

‘क्यों?’

‘अरे कोई राय मशविरा होता तो लोग ख़ुद आ कर कोई उपाय नहीं करते?’ वह बोली, ‘एक बार घनश्याम राय के कहने पर रमेश भइया ज़रूर आए पर समस्या का कोई हल निकाले बिना चले गए। फिर पलट कर फ़ोन पर भी आज तक नहीं पूछा कि तुम लोग जिंदा भी हो कि मर गए? मेरी तो छोड़िए अम्मा बाबू जी की भी कोई ख़ैर ख़बर नहीं लेता। घर का ख़र्च वर्च कैसे चल रहा है, दवाई वग़ैरह का ख़र्च से किसी भइया को काई मतलब नहीं रह गया है।’ कहती हुई मुनमुन बिलकुल फायरी हो गई। और उस की अम्मा यानी दीपक की मामी निःशब्द रोने लग गईं। दीपक भी चुप ही रहा।

माहौल ग़मगीन हो गया था। फिर थोड़ी देर में मुनमुन ने ही सन्नाटा तोड़ा और बोली, ‘जाने किस जनम की दुश्मनी थी जो बाबू जी और भइया लोगों ने मिलजुल कर मुझ से निकाली है। जीते जी मुझे नरक के हवाले कर दिया है। दूसरे, यह आए दिन की मारपीट, बेइज़्ज़ती। अब तो मेरे स्कूल पर भी जब तब आता है और गरिया कर चला जाता है। आगे मेरी जिंदगी का क्या होगा, यह कोई नहीं सोचता।’ मुनमुन किसी बढ़ियाई नदी की तरह बोलती जा रही थी।

‘इस मार-पीट की रिपोर्ट तुम पुलिस में क्यों नहीं करती?’

‘कैसे करूं?’ मुनमुन बोली, ‘इस में भी तो अपनी ही बेइज़्ज़ती है। अभी दो चार घरों के लोग जानते हैं। फिर पूरा बांसगांव, गांव और जवार जान जाएगा। किस-किस को सफ़ाई देती फिरूंगी? फिर अख़बार और समाज हमें बिलकुल ही जीने नहीं देंगे।’

‘ये तो है।’

‘और फिर संबंधों के झगड़े पुलिस तो निपटा नहीं सकती। छिंछालेदर होगी सो अलग।’ वह बोली, ‘बाबू जी के पास ऐसे मामले आते रहते हैं, मैं देखती रहती हूं।’

‘ये तो है!’ दीपक बोला, ‘काफ़ी समझदार हो गई हो।’

‘परिस्थितियां सब को समझदार बना देती हैं।’ मुनमुन बोली, ‘मेरे ऊपर गुज़र रही है। मैं नहीं समझूंगी तो भला कौन समझेगा?’

‘चलो तुम्हारा हौसला ऐसे में भी बना हुआ है तो अच्छी बात है।’ दीपक बोला, ‘यह बड़ी बात है।’

‘अब आप जो कहिए।’ मुनमुन बोली, ‘मेरे नाम तो नरक का पट्टा लिखवा ही दिया है बाबू जी और भइया लोगों ने मिल कर।’

‘ऐसे दिल छोटा मत करो।’ वह बोला, ‘कोई न कोई उपाय निकलेगा ही। बस ऊपर वाले पर भरोसा रखो।’

‘अच्छा यह सब बिना ऊपर वाले की मर्ज़ी से हो रहा है क्या कि उस पर भरोसा रखूं?’

दीपक फिर चुप हो गया। थोड़ी देर में शाम हो गई। मुनक्का राय कचहरी से आए तो घर पर दीपक को देख कर ख़ुश हो गए। ख़ूब ख़ुश। दीपक ने उन के पैर छुए तो ढेरों आशीर्वाद देते हुए उसे गले से लगा लिया। बोले, ‘तब हो दीपक बाबू और क्या हाल चाल हैं? घर दुआर कैसा है? बाल बच्चे सब ठीक तो हैं न? और मेरी दीदी कैसी हैं? और हमारे जीजा जी कैसे हैं?’

‘आप के आशीर्वाद से सभी ठीक हैं।’ दीपक बोला, ‘और आप कैसे हैं?’

‘हम तो दीपक बाबू बस जाही विधि राखे राम ताही विधि रहिए पर हैं।’ वह बैठे-बैठे छत निहारते हुए बोले, ‘बस राम जी ज़रा नज़र फेर लिए हैं आज कल हम से। और क्या कहें!’ मुनक्का राय हताश होते हुए बोले, ‘बाक़ी हालचाल मिल ही गया होगा अब तक!’ वह मुनमुन की ओर आंख से इशारा करते हुए बोले। दीपक ने उदास हो कर मुंह बिचकाते हुए स्वीकृति में सिर हिलाया।

‘बड़े-बड़े मुक़दमे निपटाए। जिरह और बहस की। दुनिया भर का झमेला देखा। सौतेली मां देखी जाने कितनी गरमी बरसात देखी। सब को फे़स किया। बहादुरी से फे़स किया। उस अभागे-नालायक़ गिरधारी भाई को फे़स किया। पर बाबू दीपक, जिंदगी के इस मोड़ पर यहां आ कर हम पटकनी खा गए। पटका गए। इस की कोई काट नहीं मिल रही।’ कहते हुए मुनक्का राय का गला रुंध गया, आंखें बह चलीं। आगे वह कुछ बोल नहीं पाए।

दीपक फिर चुप रहा। मामा के घर आए प्रलय की आंच अब वह और सघन रूप से महसूस कर रहा था। ऐसी विपत्ति में उस ने अभी तक पारिवारिक स्तर पर किसी को भी नहीं देखा था। इस समय मामा के घर में फैला सन्नाटा टूट नहीं रहा था। शाम गहराती जा रही थी, साथ ही डूबते सूरज की लाली भी। कि अचानक बिजली आ गई।

दीपक उठा खड़ा हुआ। बोला, ‘मामा जी आप से भी भेंट हो गई अब आज्ञा दीजिए।’

‘अरे दीपक बाबू आज रहिए। कल जाइएगा।’ मुनक्का राय उसे रोकते हुए बोले, ‘कुछ दुख-सुख बतियाएंगे।’

‘नहीं मामा जी कुछ ज़रूरी काम है शहर में। जाना ज़रूरी है।’

‘ज़रूरी काम है तो फिर कैसे रोक सकता हूं। जाइए।’ किंचित खिन्न होते हुए बोले मुनक्का राय।

दीपक ने मामा मामी के पैर छुए और मुनमुन ने दीपक के। चलते-चलते दीपक ने मुनमुन से फिर कहा, ‘घबराओ नहीं कोई रास्ता निकालते हैं।’

हालां कि दीपक चला था शहर के लिए पर शहर जाने के बजाय वापस अपने गांव आ गया। घर पहुंच कर दीपक ने अपने अम्मा बाबू जी को मामा-मामी और मुनमुन की व्यथा-कथा बताई। दीपक के अम्मा बाबू जी ने भी इस पर अफ़सोस जताया। पर अम्मा धीरे से बोलीं, ‘पर मुनमुन भी कम नहीं है।’

दीपक ने कोई प्रतिवाद नहीं किया। पर मामा-मामी और मुनमुन का दुख उसे परेशान करता रहा। बाद में उस ने छोटे भाई जितेंद्र से भी इस बारे में बात की। तो जितेंद्र ने भी माना कि, ‘मुनमुन की शादी ग़लत हो गई है।’

‘पर जब मुनमुन ने तुम से कहा कि एक बार शादी के पहले लड़का देख लो तो तुम्हें लड़का देख कर वस्तुस्थिति बता देनी चाहिए थी।’

‘क्या बताता?’

‘क्यों दिक्क़त क्या थी?’

‘दिक्क़त यह थी कि मैं बियहकटवा डिक्लेयर हो जाता।’

‘क्या बेवकू़फी की बात करते हो?’ दीपक बोला, ‘यह शादी होने से अच्छा था कि तुम भले बियहकटवा डिक्लेयर हो जाते यह शादी तो रद्द हो जाती।’

‘मैं ने मामा से बात की थी। मुनमुन के कहने पर कि एक बार मैं भी चलना चाहता हूं लड़का देखने। पर मामा बोले-सब ठीक है तिलक में चल कर लड़का देख लेना। फिर मैं ने धीरज भइया से बात की तो वह बोले रमेश भइया का पुराना मुवक्क़िल है। सब जाना पहचाना है। घबराने की बात नहीं है। तो मैं क्या करता?’ जितेंद्र बोला, ‘जब सारा घर तैयार था मैं अकेला क्या करता?’

‘तुम ने रमेश से बात की?’

‘नहीं। उन से बात करने की हिम्मत नहीं पड़ी मेरी।’

‘तो एक बार मुझ से ज़िक्र किया होता।’ दीपक बोला, ‘तुम क्या समझते हो यह सब जो हो रहा है मुनमुन के साथ इस में क्या हम लोगों की भी बेइज़्ज़ती नहीं हो रही? आख़िर ननिहाल है हम लोगों का। हम लोगों की देह में वहां का भी ख़ून है। उस दूध का क़र्ज़ है हम पर। यह बात तुम कैसे भूल गए? हमारी भी कुछ ज़िम्मेदारी बनती थी।’

‘हां, यह ग़लती तो हो गई भइया।’ जितेंद्र सिर झुका कर धीरे से बोला।

दीपक को उस रात खाना अच्छा नहीं लगा। दिल्ली लौट कर भी वह बहुत दिनों तक अनमना रहा। एक दिन उस ने पत्नी को मुनमुन की समस्या बताई और कहा कि, ‘तुम्हीं बताओ क्या रास्ता निकाला जाए?’

‘उन के घर में एक से एक जज, कलक्टर बैठे हैं। वह लोग नहीं समाधान निकाल पा रहे हैं तो अब आप निकालेंगे?’ वह बोली, ‘अपनी समस्याएं क्या कम हैं?’

‘वो तो ठीक है पर हम लोग भी कोशिश तो कर ही सकते हैं।’

‘चलिए सोचती हूं।’ कह कर दीपक की पत्नी सो गई।

पर दीपक नहीं सोया। उस ने रमेश को फ़ोन मिलाया। और बताया कि, ‘पिछले दिनों बांसगांव गया था। मुनमुन के बारे में जान कर दुख हुआ। तुम लोग आखि़र क्या सोच रहे हो?’

‘हम तो भइया कुछ सोच ही नहीं पा रहे हैं।’ रमेश बोला, ‘हम लोगों में आप सब से बड़े हैं आप ही कुछ सोचिए और कोई रास्ता निकालिए। आप जो और जैसे कहिएगा मैं तैयार हूं।’

‘पर तुम लोगों ने ऐसी बेवक़ूफी की शादी आंख मूंद कर कैसे कर दी?’

‘अब तो भइया ग़लती हो गई।’

‘तुम लोगों को पता है कि मुनमुन का हसबैंड पी पा कर जब-तब बांसगांव आ जाता है और मुनमुन तथा मामी की पिटाई कर, गाली गलौज करता है। जीना मुश्किल किए है वहां वह उन लोगों का?’

‘अरे यह क्या बता रहे हैं आप? यह तो नहीं पता था।’

‘अब सोचो कि तुम अब अपने घर की ख़बर से भी बेख़बर हो। वृद्ध मां बाप और जवान बहन कैसे रह रहे हैं, इस से तुम सभी भाइयों का कोई सरोकार ही नहीं रहा?’ दीपक बोला, ‘भई यह तो ठीक बात नहीं है।’

‘क्या बताऊं भइया।’ रमेश सकुचाते हुए बोला, ‘देखता हूं।’

‘कम से कम तुम घर में सब से बड़े हो, तुम्हें तो यह सब सोचना ही चाहिए।’ दीपक बोला, ‘चलो मुनमुन की समस्या बड़ी है दो चार दिन में तो नहीं सुलझती पर मामा-मामी के वेलफ़ेयर का इंतज़ाम तो तुम लोगों को करना ही चाहिए। समझो कि वह लोग साक्षात नरक जी रहे हैं। और तुम लोगों के जीते जी। यह बात कम से कम मुझे तो ठीक नहीं लगती।’

पर उधर से रमेश चुप ही रहा। दीपक ने ही उसे कोंचा, ‘चुप क्यों हो बोलते क्यों नहीं?’

‘जी भइया।’ रमेश धीरे से बोला।

‘नहीं मेरी बात अगर अच्छी नहीं लग रही तो फ़ोन रखता हूं।’

‘नहीं-नहीं ऐसी बात नहीं है।’

‘तो ठीक है। सोचना इन बातों पर। और हां, मुनमुन के बारे में भी।’

‘ठीक भइया। प्रणाम।’

‘ख़ुश रहो।’ कह कर दीपक ने फ़ोन रख दिया। वह रमेश की इस सर्द बातचीत से बहुत उदास हो गया। बाद के दिनों में उस ने धीरज और तरुण से भी यह बातें कीं। इन दोनों की बातचीत में भी वही ठंडापन पा कर दीपक समझ गया कि अब मुनमुन की समस्या का समाधान सचमुच बहुत कठिन है। अब उस ने एक दिन मुनमुन को फ़ोन किया और राहुल का फ़ोन नंबर मांगा।

‘क्या इन तीनों भइया से बात हो गई आप की?’

‘हां, हो गई।’ दीपक टालता हुआ बोला।

‘क्या बोले ये लोग?’ मुनमुन उत्सुक हुई।

‘वह बाद में बताएंगे पर पहले तुम राहुल का नंबर दो।’ दीपक खीझ कर बोला।

‘लीजिए लिखिए।’ कह कर उस ने राहुल का नंबर आई.एस.डी. कोड सहित लिखवा दिया। फिर दीपक ने राहुल का फ़ोन मिलाया। राहुल बोला, ‘भइया प्रणाम। अभी गाड़ी ड्राइव कर रहा हूं। थोड़ी देर में मैं ख़ुद आप से बात करता हूं।’ कह कर उस ने फ़ोन काट दिया। दीपक परेशान हो गया। बावजूद इन परेशानियों के वह मुनमुन समस्या का समाधान चाहता था। यह समस्या जैसे उस के दिल पर बोझ बन गई थी। वह जैसे एक घुटन में जी रहा था। उस की आंखों के सामने एक गहरी धुंध थी और इस धुंध में से ही उसे कोई रास्ता ढूंढना था। दिल्ली की व्यर्थ की भागदौड़ भरी ज़िंदगी और इस की आपाधापी से वह इन दिनों यों ही तनाव में रहता था। तिस पर मुनमुन उस के दिलो-दिमाग़ पर सांघातिक तनाव बन कर सवार थी। उसे लगता था जैसे उस के दिमाग़ की नसें फट जाएंगी। जब-तब तिल-तिल कर मरती मुनमुन उस के सामने आ कर खड़ी हो जाती और पूछती, ‘भइया कुछ सोचा आप ने मेरे लिए?’

और वह हर बार निरुत्तर हो जाता।

यह क्या था?

बचपन में मामी के खिलाए पकवानों का कर्ज़ था?

या ननिहाल के नेह और मां के दूध का दर्द था?

कि मुनमुन ही के साथ हुए अन्याय के प्रतिकार का जुनून था?

या यह सब कुछ एक साथ मिश्रित था? जो भी हो उस की जिंदगी गडमड हो गई थी। थोड़ी देर बाद राहुल का फ़ोन आया तो उस ने राहत की सांस ली। राहुल कहने लगा, ‘भइया आप का फ़ोन पा कर मैं तो चकित रह गया। पहली बार यहां आप का फ़ोन आया और माफ़ कीजिए उस वक्त बात नहीं कर पाया।’

‘कोई बात नहीं, कोई बात नहीं।’ दीपक ने कहा।

‘और भइया सब ठीक तो है न!’

‘राहुल अगर सब ठीक होता तो मैं तुम्हें फ़ोन क्यों करता भला?’

‘हां, भइया बताइए क्या हो गया?’

‘मैं पिछले महीने बांसगांव गया था।’

‘अच्छा-अच्छा।’ राहुल ने पूछा, ‘क्या हालचाल है वहां का?’

‘तो तुम को कुछ भी नहीं मालूम?’

‘नहीं इतना तो मालूम है कि बाबू जी मुनमुन को विदा करवा लाए हैं।’

‘बस!’

‘क्या कुछ और गड़बड़ हो गया क्या?’

‘हो तो गया है।’ कह कर दीपक ने वह सारी बातें राहुल से भी कहीं जो रमेश, धीरज और तरुण से कही थीं।

राहुल ने पूरी बात सुनी और परेशान हो गया। बाक़ी तीनों भाइयों की तरह ठंडापन नहीं दिखाया उस ने जब कि आई.एस.डी. काल का ख़र्चा था। फिर भी वह बोला, ‘भइया मामला तो बहुत गंभीर हो गया है। अगर राधेश्याम घर पर आ कर अम्मा और मुनमुन की पिटाई और गाली गलौज कर रहा है तब तो बात और भी गंभीर हो गई है। रही बात अम्मा बाबू जी के वेलफ़ेयर की तो उधर तो मैं जब तब पैसा भेजता ही था। आप जानते ही हैं कि मुनमुन की शादी में सारा ख़र्च लगभग मुझे ही करना पड़ा था तो वह क़र्ज़ा निपटाने में लगा हूं। और मैं सोचता था कि भइया लोग ख़याल रख रहे होंगे।’

‘देखो तुम्हारा पैसा बहुत ख़र्च हो रहा होगा फ़ोन पर।’ राहुल की उत्सुकता देखते हुए दीपक बोला, ‘तुम अपनी आई.डी. बताओ हम लोग मेल के थ्रू बात करते हैं या फिर तुम याहू मैसेंजर पर भी आ सकते हो। तब हम लोग सीधी बातचीत कर सकेंगे।’

‘हां, भइया आप ठीक कह रहे हैं। कह कर उस ने अपनी याहू आई.डी. लिखवा दी और दीपक की भी आई.डी. लिख ली। और कहा कि, ‘हम लोग फिर नेट पर ही बात करते हैं।’

‘हां, क्यों कि बात लंबी है और मामला गंभीर!’

‘ठीक भइया। प्रणाम!’ कह कर उस ने फ़ोन काट दिया।

राहुल की इस बातचीत से दीपक जो गहरे डिप्रेशन में जा रहा था, उबर आया। उस को लगा कि अब कोई रास्ता ज़रूर निकल जाएगा। घुप्प अंधेरे में कोई रोशनी दिखी तो थी। और सचमुच दूसरे दिन राहुल की लंबी मेल दीपक को मिली। राहुल ने विस्तार से सारी बातें रखी थीं घर के प्लस-माइनस बताए थे और माना था कि मुनमुन के साथ पूरे घर ने मिल कर अनजाने में सही अन्याय कर दिया था। जिस में कि सब से ज़्यादा दोषी वह ख़ुद है। कि सिर्फ़ पैसा ख़र्च करना ही अपनी ज़िम्मेदारी समझी। घर बार और वर देखने की भी ज़िम्मेदारी उसे निभानी चाहिए थी जो समय की कमी और बाक़ी घर वालों पर विश्वास के चलते नहीं निभा पाया। फिर उस ने मुनमुन का एक तर्क भी जोड़ा था विवाह पूर्व का कि आदमी एक कपड़ा भी ख़रीदता है तो दस कपड़े देख कर और ठोंक बजा कर फिर हम लोग तो उस का लाइफ़ पार्टनर तय कर रहे थे। और फिर भी नहीं देखा। जब कि मुनमुन लगातार आशंका जता रही थी और सब से चिरौरी कर रही थी कि लड़के को ठीक से देख जांच लिया जाए। पर सब एक दूसरे पर टाल गए। और मान लिया गया कि बाबू जी ने देख लिया है तो सब ठीक ही होगा। शायद अति विश्वास और संयुक्त परिवार में ज़िम्मेदारियों को एक दूसरे पर टालने की त्रासदी है यह। फिर एक लड़के से मुनमुन का बढ़ता मेल जोल एक बड़ा दबाव था जो उस की शादी में जल्दबाज़ी का कारण बना और सब ने एक ड्यूटी की तरह शादी शायद नहीं की, शादी की कार्रवाई की। यह नहीं सोचा किसी ने कि अगर मुनमुन के साथ कुछ अप्रिय होगा, और वह हो भी गया है तो वह इसी परिवार की ज़िम्मेदारी होगी और कि जो एक दाग़ लगेगा वह सभी के दामन पर लगेगा। फिर राहुल ने अपनी चिट्ठी में दीपक से इस बात पर बेहद ख़ुशी और संतोष जताया था कि हमारे परिवार और इस पीढ़ी में आप सब से बड़े हैं और आप इस में जो इस शिद्दत से जुड़ाव महसूस कर रहे हैं तो ज़रूर इस समस्या का कोई सम्मानजनक समाधान भी निकलेगा। फिर उस ने सुझाया था कि उस की राय में मुनमुन की ससुराल में बातचीत कर के उस की सम्मानजनक ढंग से विदाई करवा कर इस समस्या को सुलझाना ठीक रहेगा। मुनमुन वहां जा कर अपने बिगड़ैल पति को सुधार भी सकती है। ऐसा कई बार देखा भी गया है कि पत्नी के प्यार में बहुत सारे बिगड़े लोग सुधर भी गए हैं। बस प्रयास सकारात्मक होना चाहिए।

राहुल की इस साफ़गोई, सुझाव और मेच्योरिटी का दीपक क़ायल हो गया। और रमेश को फ़ोन किया कि, ‘थोड़ा समय निकालो तो बांसगांव चल कर मुनमुन के ससुराल वालों के साथ मिल बैठ कर कोई रास्ता निकाला जाए।’ रमेश सहमत हो गया और बोला, ‘मैं आप को बताता हूं। ख़ुद फ़ोन करूंगा।’

दीपक को लगा कि अब तो बात बन ही जाएगी। कुछ दिन बाद रमेश का फ़ोन आया कि, ‘भइया मैं ने मुनमुन की विदाई का दिन तय कर दिया है। आप भी फला तारीख़ को पहुंचिए विदाई संपन्न करवा दीजिए।’

‘चलो यह बहुत अच्छा काम किया।’ दीपक बोला, ‘पर मेरा पहुंचना कोई ज़रूरी तो है नहीं। और फिर जब विदाई का दिन तय हो गया है तो विदाई हो ही जाएगी। मेरे आने न आने से क्या फ़र्क़ पड़ता है?’

‘फ़र्क़ पड़ जाएगा भइया।’ रमेश बोला, ‘मैं ने मुनमुन की ससुराल वालों को विदाई के लिए राज़ी किया है। अपने घर वालों को नहीं।’

‘तो उन्हें भी राज़ी कर लो।’

‘कैसे राज़ी करूं?’ रमेश चिढ़ कर बोला, ‘मुनमुन किसी सूरत तैयार नहीं है और अम्मा उस को शह दे रही हैं। जबकि बाबू जी हमेशा की तरह तटस्थ हो गए हैं।’

‘तो फिर कैसे होगी विदाई?’ दीपक चिंतित हो कर बोला।

‘कुछ नहीं भइया आप आ जाएंगे तो सब ठीक हो जाएगा।’

‘कैसे भला?’ दीपक ने आश्चर्य से पूछा, ‘मेरे पास कोई जादू की छड़ी है क्या?’

‘हां है न!’

‘क्या बेवक़ूफ़ी की बात करते हो?’

‘अरे भइया आप को नहीं पता पर मैं जानता हूं कि आप की बात न तो मुनमुन टालेगी, न अम्मा, न बाबू जी। आप को शायद पता नहीं कि हमारे घर में जितनी आप की एक्सेप्टेंस है शायद किसी और की नहीं। भगवान झूठ न बोलवाए और माफ़ करे तो मैं कहूंगा कि शायद उतनी भगवान की भी नहीं।’ वह बोला, ‘बस आप उस दिन पहुंच भर जाइए।’

‘भई मुझे तो यह बात नहीं जम रही।’ दीपक बोला, ‘अगर मुनमुन की सहमति नहीं है तो मैं नहीं समझता कि विदाई होनी चाहिए।’

‘फिर?’ रमेश हताश हो कर बोला।

‘फिर क्या?’ दीपक बोला, ‘पहले तो मुनमुन को ही समझाना ज़रूरी है। वह छोटी है और हम लोग बड़े। उस को समझाना, बताना हम लोगों का धर्म है। फिर वह वयस्क है, पढ़ी लिखी है, अपना अच्छा-बुरा समझती है, उस की अपनी जिंदगी और अपना स्वाभिमान है। तुम भी पढ़े लिखे हो। एक ज़िम्मेदार पद पर हो। किसी के साथ इस तरह ज़ोर ज़बरदस्ती! भई मुझे तो नहीं समझ में आती और न ही तुम्हें शोभा देती है।’ वह बोला, ‘फिर यह मसला इतना नाज़ुक है कि इस में बहुत जल्दबाज़ी भी ठीक नहीं लगती मुझे।’

‘कुछ नहीं भैया आप पहुंचिए।’

‘अच्छा चलो मैं पहुंचूं और मुनमुन मामी वग़ैरह मेरी भी बात टाल गईं तो?’

‘तो क्या?’ रमेश बोला, ‘झोंटा पकड़ कर, खींच कर जबरिया घसीट कर विदा कर दूंगा।’

‘फिर तो भई मैं ऐसी विदाई में बिलकुल नहीं आऊंगा।’ दीपक बोला, ‘और तुम्हें भी सलाह दूंगा कि तुम भी हरगिज़ ऐसा मत करो।’

‘फिर क्या करूं?’

‘दोनों पक्षों को आमने-सामने बैठा कर सम्मानजनक हल निकालने की कोशिश करो।’

‘कर चुका हूं यह कोशिश भी पर हल निकलने के बजाय बात और बिगड़ गई।’

‘एक बार फिर कोशिश करो। दो बार, तीन बार, चार बार, हज़ार बार कोशिश करो।’ दीपक बोला, ‘ऐसे हार मान जाने से और इस तरह हड़बड़ाने से तो बात नहीं बनने वाली है।’

‘पर मुनमुन का क्या करूं तब तक?’ रमेश बोला, ‘वह तो पतंग हुई जा रही है। पतंग बन कर परिवार की इज्ज़त पूरे बांसगांव में उड़ा रही है!’

‘मतलब?’

‘मतलब यह भइया!’ रमेश रुआंसा होता हुआ बोला, ‘कहते हुए अच्छा भी नहीं लगता पर कहना भी पड़ रहा है कि मुनमुन चरित्रहीन हो गई है। और क्या कहूं?’

‘ओह!’

‘इसी लिए कह रहा हूं कि येन केन प्रकारेण उसे विदा कर देना ही परिवार के हित में है।’ रमेश बोला, ‘आप को बताऊं भइया कि इसी चक्कर में हड़बड़ा कर ही उस की आनन-फानन शादी भी करनी पड़ी। और शादी में भी उस ने क्या-क्या नाटक नहीं करवाया। वह तो धीरज ने मामला संभाला किसी तरह। और क्या-क्या बताऊं आप को!’

‘चलो थोड़ा धीरज और रखो।’ दीपक बोला, ‘बात बिगड़ी हुई है तो थोड़ा समय लगेगा और समझदारी से काम लेना पड़ेगा।’

‘अब क्या बताऊं?’

‘नहीं सोचो कि अभी जल्दबाज़ी में शादी ग़लत हो गई। और जल्दबाज़ी में कहीं बात कुछ और न बिगड़ जाए। वो कहते हैं न कि पेंच ज़्यादा कसने से पेंच टूट भी जाता है।’

‘हां, यह तो है।’

‘चलो तुम भी कुछ सोचो, मैं भी कुछ सोचता हूं।’

‘ठीक भइया प्रणाम!’ कह कर रमेश ने फ़ोन काट दिया।

दीपक ने रमेश से हुई सारी बात राहुल को लिख भेजी। राहुल बहुत आशान्वित हुआ। उस ने अपनी मेल में लिखा कि, ‘अब आप दोनों भइया इस काम में लग गए हैं तो मुझे पूरी उम्मीद है कि बात बन जाएगी और कोई न कोई सम्मानजनक हल निकल आएगा।’ दीपक ने इस के जवाब में राहुल को लिखा, ‘मामला इतना आसान नहीं है और बहुत जल्दी नतीजे की उम्मीद करना भी बेमानी है।’

फिर दीपक ने धीरज को फ़ोन किया। पर धीरज का फ़ोन नहीं उठा। मुनमुन को मिलाया तो उस का फ़ोन स्विच आफ़ मिला। कुछ दिन बाद रमेश का फ़ोन आया और वह पूछने लगा, ‘भइया क्या सोचा?’

‘सोचना क्या है मैं ने तुम्हें पहले ही बता दिया है कि मुनमुन की इस तरह विदाई के ख़िलाफ हूं मैं। इस में मैं तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकता।’ दीपक ने कहा, ‘हां, तुम जब चाहो दोनों पक्षों को आमने सामने बैठ कर बातचीत से पहले कोई हल निकालने की कोशिश की जाए फिर विदाई की बात आए तो मेरे हिसाब से ठीक रहेगा।’

‘भइया मैं आप से फिर कह रहा हूं कि विदाई ही एकमात्र हल है। नहीं मुनमुन कुछ अनर्थ करवा कर ही छोड़ेगी।’

‘तो करो विदाई मैं क्या कर सकता हूं?’

‘आप विदाई के समय आ सकते हैं।’

‘मैं तुम्हें कैसे और कितनी बार बताऊं रमेश कि ऐसे और इस तरह से विदाई से मैं सहमत नहीं और न ही आ सकता हूं।’

‘चलिए भइया मैं फिर फ़ोन करूंगा। आप फिर इस पर सोचिएगा। प्रणाम।’

रमेश के फ़ोन के बाद उस ने मुनमुन का फ़ोन मिलाया। लेकिन उस का फ़ोन पहले ही की तरह स्विच आफ़ मिला। वह जब-जब मिलाता हर बार स्विच आफ़ मिलता। अंततः एक दिन उस ने मुनमुन को एस.एम.एस. किया कि, ‘ज़रूरी बात करनी है और तुम्हारा फ़ोन हरदम स्विच आफ़ मिलता है। मुझे फ़ोन करो।’

दूसरे दिन ही मुनमुन की मिस काल मिली। दीपक ने तुरंत उसे फ़ोन मिलाया। उधर से मुनमुन ने फ़ोन रिसीव भी कर लिया। दीपक ने उस से पूछा, ‘तुम्हारा फ़ोन जब मिलाओ स्विच आफ़ रहता है। आखि़र बात क्या है?’

‘क्या बताएं भइया वह दुष्ट फ़ोन कर-कर के गालियां बकता रहता है। अनाप-शनाप बकता रहता है। इस लिए स्विच-आफ़ रखना पड़ता है।’

‘ऐसे तो सब से कट जाओगी।’ बताओ कोई तुम्हें मेसेज देना चाहे तो कैसे देगा। औरों की छोड़ो मैं ही परेशान हो गया।’

‘तो करूं क्या?’

‘सीधी बात नंबर बदल लो। और परिचितों को जिन को ज़रूरी समझो नंबर बता दो। जिन को न बताना हो मत बताओ।’

‘और यह परिचित ही नया नंबर फिर से उस राक्षस को दे देंगे। भइया कोई फ़ायदा नहीं।’

‘तो यह स्विच आफ़ तो कोई रास्ता नहीं है।’ रमेश बोला, ‘ख़ैर, छोड़ो यह बताओ कि रमेश से तुम्हारी कोई बात हुई है?’

‘हां, हुई तो थी, उधर दो बार।’

‘क्या कह रहा था?’

‘अब क्या बताऊं?’ कह कर मुनमुन रोने लगी। बोली, ‘ज़बरदस्ती मेरी विदाई करना चाहते हैं। मैं ने मना किया तो मुझे रंडी, कुत्ती बनाने लगे। कहने लगे झोंटा खींच कर, घसीट कर घर से बाहर कर दूंगा। कैसे नहीं जाओगी अपनी ससुराल।’

‘अरे?’ दीपक ने हैरत में आते हुए पूछा, ‘फिर?’

‘बताइए बहन से कोई इस तरह भला बात करता है?’ मुनमुन बोली, ‘मैं ने तो फिर भी मना कर दिया और कह दिया कि जो भी करना हो कर लीजिए। चाहिए तो मेरा गला दबा कर यहीं मार डालिए। पर ऐसे तो मैं उस राक्षस के यहां नहीं जाऊंगी। हां, भइया अगर आप की रमेश भइया से फिर कभी बात हो तो उन्हें बता दीजिएगा कि झोंटा पकड़ कर ज़बरदस्ती मेरी विदाई की कोशिश नहीं करें। वह जज हैं घरेलू हिंसा का क़ानून वह जानते ही होंगे। मैं उन पर आज़मा भी सकती हूं यह क़ानून। फिर उन की सारी जजी धरी की धरी रह जाएगी। मैं भी थोड़ा बहुत क़ानून जानती हूं।’

‘ऐसा करने की ज़रूरत नहीं है। तुम भी थोड़ा पेशेंस रखो।’ वह बोला, ‘अच्छा ज़रा मामी से बात करवाओ!’

‘करवाती हूं ज़रा रुकिए!’ कह कर उस ने कहा, ‘अम्मा दीपक भइया का फ़ोन है।’

‘अच्छा-अच्छा!’ कह कर मामी बोलीं, ‘हां, दीपक भइया!’

‘मामी जी प्रणाम।’ दीपक ने पूछा, ‘और क्या हालचाल है?’

‘हालचाल तो भइया तुम को मालूम ही है सब आगे क्या बताऊं? बस बुढ़ापा है।’

‘वो तो है। पर यह बताइए रमेश से बात हुई आप की?’

‘हां, हुई तो है। मुनमुन की विदाई ज़बरदस्ती करने को कह रहा है। भइया उस को समझाओ जज है, जज ही रहे, जानवर न बने।’ वह बोलीं, ‘बताओ वह इतना बौखला गया है कि बहन के घाव पर मरहम लगाने के बजाय गालियां दे रहा है। तमाम ऊल जलूल बक रहा है। उस का घाव और गहरा कर रहा है। यह ठीक नहीं है।’

‘अच्छा मामी समझाता हूं रमेश को।’ दीपक बोला, ‘आप चिंता मत करिए।’

‘चिंता कैसे न करूं? आखि़र करूं भी क्या?’

‘अच्छा मामी प्रणाम!’ कह कर दीपक ने फ़ोन काट दिया। अब वह चिंता में पड़ गया कि क्या करे?

अंततः उस ने सोचा कि अब वह मुनमुन की ससुराल वालों से ख़ुद बात करेगा। इस बारे में दीपक ने पत्नी से भी राय मशविरा किया। पत्नी बोली, ‘यह सब तो ठीक है पर बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना बहुत ठीक नहीं है।’

‘मतलब?’

‘मुनमुन के भाई लोग ख़ुद इतने सक्षम हैं और वह लोग कुछ नहीं कर रहे हैं और आप हैं कि अब की जब से बांसगांव से लौटे हैं पगला गए हैं। जब देखो तब मुनमुन-मुनमुन! मुनमुन न हो आप का ओढ़ना बिछौना हो! कहिए तो किसी चैनल वालों से कहूं कि सब एक ख़बर चला दें कि आग लगी है बांसगांव में, फ़ायर ब्रिगेड की गाड़ियां दौड़ रही हैं दिल्ली में।’

‘क्या बेवक़ूफी की बात करती हो वह मेरी भी बहन है।’ दीपक तमतमा गया, ‘मेरी भी ज़िम्मेदारी है।’

पत्नी चुप हो गई। दीपक ने फिर राहुल को एक मेल लिखा। और सारा हाल बताते हुए पूछा कि, ‘क्या मुनमुन की ससुराल से सीधे मेरा बात करना ठीक रहेगा?’

राहुल का जवाब उसी दिन आ गया। उस ने रमेश की गाली गलौज वाली भाषा पर हैरत जताते हुए अफ़सोस किया। और लिखा कि उन को इस तरह मुनमुन से पेश नहीं आना चाहिए। लेकिन अब वह बड़े हैं सो कुछ कहते भी नहीं बनता। अम्मा बाबू जी का हाल सुन कर वह दुखी हुआ। लेकिन मुनमुन का फ़ोन हरदम स्विच आफ़ रहने के कारण वह बांसगांव बात नहीं कर पा रहा। रही बात मुनमुन के ससुराल से बात करने की तो इस से अच्छी बात क्या होगी? उस ने लिखा था कि, आप के पास कोई पूर्वाग्रह नहीं है, कोई गांठ या कोई इगो नहीं है आप के पास। आप बात करिए दोनों पक्ष से। मेरा मतलब है मुनमुन से भी और मुनमुन की ससुराल वालों से भी। क्या पता कोई बात बन जाए, कोई रास्ता निकल जाए। दीपक दो एक दिन तक लगातार राहुल की चिट्ठी पर सोचता रहा। सोचता रहा कि वह करे तो क्या करे? अंततः उस ने मुनमुन की ससुराल फ़ोन किया। मुनमुन के ससुर घनश्याम राय फ़ोन पर मिले। वह बड़े ख़ुश हुए कि, ‘इतने लंबे गैप के बाद कोई तो बातचीत के लिए आगे आया।’ वह बोले, ‘नहीं मैं ही दो बार गया और बेइज़्ज़त हो कर लौट आया।’

‘ऐसा तो नहीं है।’ दीपक बोला, ‘रमेश ने इस बीच आप से विदाई के बाबत बात की है।’

‘हां-हां। फ़ोन आया तो था जज साहब का। लेकिन फिर वह भी भभक कर बुता गए।’

‘मतलब?’

‘मतलब यह कि विदाई हुई नहीं और वह कहते रहे कि यह कर दूंगा, वह कर दूंगा।’

‘देखिए बात अचानक विदाई की करना ठीक भी नहीं है।’ दीपक बोला, ‘पहले जो राह के रोड़े हैं उन्हें साफ़ कर लिया जाए फिर बात आगे बढ़ाई जाए।’

‘समझा नहीं मैं।’ घनश्याम राय थोड़ा बिदक कर बोले।

‘मतलब यह कि जिन कारणों से विदाई रुकी पड़ी है या मुनमुन को आप के यहां से लौटना पड़ा है, पहले उन समस्याओं का वाजिब हल ढूंढ लिया जाए। समाधान हो जाए तो फिर विदाई में कोई समस्या ही नहीं है।’

‘देखिए दीपक जी मेरा मानना है कि विदाई हो जाएगी तो बाक़ी समस्याएं स्वतः हल हो जाएंगी।’

‘नहीं मुझे लगता है पहले कोर इशू जो है, जो रूट काज़ है पहले उसे सुलझाया जाए।’

‘क्या है रूट काज़? क्या है कोर इशू?’ बिदकते हुए घनश्याम राय बोले, ‘आप तो पाकिस्तानी मुशर्रफ की तरह बोल रहे हैं कि जैसे वह आतंकवाद पर ब्रेक लगाने के बजाय कश्मीर-कश्मीर चिल्लाता था और कोर इशू, रूट काज़ कश्मीर बताता था। आप वैसे ही बोल रहे हैं। बताइए आप का कश्मीर, आप का रूट काज़, कोर इशू क्या है?’

‘देखिए हमारा नहीं आप का ही है कश्मीर, आप का ही है रूट काज़ और कोर इशू।’

‘मतलब?’

‘आप का बेटा राधेश्याम है कश्मीर। राधेश्याम की पियक्कड़ई है रूट काज़ और उस की बदतमीज़ी है कोर इशू। इस को निपटा लीजिए। सारी समस्याओं का समाधान हुआ समझिए!’

‘कोशिश तो हम कर रहे हैं दीपक बाबू।’ घनश्याम राय बोले, ‘पर अकेले हमारे बेटे का ही क़सूर नहीं है।’

‘समझा नहीं।’

‘समझना यह है कि पहले मेरा बेटा पियक्कड़ नहीं था। शादी के बाद बल्कि गौने के बाद जब बहू चली गई तो लोग ताना देने लगे। किसिम-किसिम का ताना। हम से ही लोग कहते हैं कि का घनश्याम बाबू आप की पतोहू भाग गई क्या? तो मैं तो सिर झुका कर सुन लेता हूं। वह नहीं सुन पाता। फ्रस्ट्रेट हो जाता है। फ्रस्ट्रेशन में पीने लगता है। बवाल करने लगता है। घर में भी। बाहर भी। तो इसी लिए बार-बार मैं कहता हूं कि विदाई हो जाएगी तो सब ठीक हो जाएगा।’

‘चलिए कुछ सोच विचार करता हूं। फिर आप को फ़ोन करता हूं।’

‘ठीक है दीपक बाबू मैं इंतज़ार करता हूं आप के फ़ोन का।’ घनश्याम राय बोले, ‘अरे दीपक बाबू एक बात और कह दूं कि हमारे घर में रहने के लिए मुनमुन को अपनी नौकरी छोड़नी पडे़गी। और इस में कोई तर्क-वितर्क नहीं। कोई इफ़-बट नहीं। क्यों कि मेरा मानना है कि उस की यह शिक्षा मित्र की टुंटपुंजिया नौकरी ही सारी समस्याओं की जड़ है। इसी ने उस का दिमाग़ ख़राब कर रखा है। नहीं हमारे घर रही होती तो अब तक बाल बच्चे हो गए होते। उसी में उलझी रहती। बग़ावत नहीं करती इस तरह। तो कोर इशू यह भी है।’

‘चलिए देखते हैं।’

‘देखते नहीं यह फ़ाइनल है।’

‘बिलकुल।’ कह कर दीपक ने फ़ोन काट दिया। फिर बांसगांव फ़ोन मिलाया। जो हमेशा की तरह स्विच आफ़ मिला। अंततः उस ने एक एस.एम.एस. कर दिया मुनमुन को कि बात करे। दूसरे दिन मुनमुन का मिस काल आया। सुबह-सुबह। दीपक मार्निंग वाक की तैयारी में था तब। लेकिन उस ने मुनमुन का मोबाइल तुरंत मिलाया। यह सोच कर कि फिर जाने कब तक बंद रहे। फिर मुनमुन को घनश्याम से हुई सारी बात बताई और पूछा कि, ‘तुम्हारी क्या राय है? आमने सामने एक बार बात हो जाए?’

‘आप भी भइया क्यों पानी पीट रहे हैं?’ मुनमुन बोली, ‘मुझे नहीं लगता कि वह सुधरेगा और कोई रास्ता निकलेगा।’

‘क्यों? ऐसा क्यों लगता है?’ दीपक ने पूछा।

‘अभी कल ही वह आया था। गाली गलौज कर के दरवाज़ा पीट कर गया है। और आप हैं कि सुधार की उम्मीद कर रहे हैं!’

‘देखो मुनमुन उम्मीद पर दुनिया क़ायम है। तो यहां भी हम नाउम्मीद नहीं हैं।’ दीपक बोला, ‘इतना सब के बावजूद भारत-पाकिस्तान से बात कर सकता है तो हम लोग भी उन लोगों से बात क्यों नहीं कर सकते?’

‘बिलकुल कर सकते हैं आप कह रहे हैं तो।’ मुनमुन बोली, ‘पर भइया यह जान लीजिए कि बातचीत के बाद जो नतीजा पाकिस्तान-भारत को देता है वही नतीजा यहां भी वह सब देंगे।’

‘ठीक है चलो देखते हैं एक बार बात कर के भी।’

‘हां पर यह बातचीत किसी तीसरी जगह रखिएगा। न मेरे घर बांसगांव में न उस के घर।’ मुनमुन बोली, ‘और हां, यह भी कि वह पी कर नहीं आए।’

‘ठीक बात है।’ दीपक बोला, ‘अच्छा एक बात और। वह लोग चाहते हैं कि तुम यह शिक्षा मित्र की नौकरी छोड़ दो।’

‘यह नौकरी तो भइया हरगिज़ नहीं छोडूंगी।’ मुनमुन बोली, ‘यही तो एक आसरा है मेरे पास जीवन जीने का। यही तो एक हथियार है मेरे पास अपनी जंग लड़ने का। और इसी को छोड़ दूं?’

‘तो इस टुंटपुंजिया नौकरी के लिए पति और घर बार छोड़ दोगी?’

‘टुंटपुंजिया ही सही है तो मेरी नौकरी!’ मुनमुन बोली, ‘ऐसे अभागे पति के लिए मैं अपनी यह नौकरी नहीं छोडूंगी। पति छोड़ दूंगी पर नौकरी नहीं। हरगिज़ नहीं।’ मुनमुन पूरी सख़्ती से बोली, ‘आप लोग चाहते हैं कि मैं जियूं और अपने पंख काट लूं। ताकि अपने खाने के लिए उड़ कर दाना भी नहीं ला सकूं। माफ़ कीजिए भइया ऐसा मैं नहीं कर पाऊंगी। जान दे दूंगी पर नौकरी नहीं छोड़ूंगी। यही तो मेरा स्वाभिमान है।’

‘ठीक बात है।’ दीपक बोला, ‘ पर मुनमुन एक बात बताऊं कि थोड़ा झुक जाने में कोई नुक़सान नहीं है।’

‘किस के आगे?’

‘अपने पति और ससुराल के आगे।’

‘आप भी भइया!’

‘देखो मुनमुन जो औरत अपने पति के आगे नहीं झुकती उसे अंततः सारी दुनिया के आगे झुकना पड़ता है। और बार-बार झुकना पड़ता है।’

‘क्या भइया!’ वह बोली, ‘चाहे जो हो मैं नहीं झुकने वाली किसी के भी आगे।’

‘चलो ठीक है पर सोचना ज़रूर मेरी बात पर एक बार।’ कह कर दीपक ने फ़ोन काट दिया। मुनमुन की बात पर चिंता में पड़ गया। यह एक नया बदलाव था। दूसरे दिन धीरज को फ़ोन मिलाया। इत्तफ़ाक़ से धीरज ने फ़ोन उठा लिया। दीपक ने अब तक रमेश, राहुल, मुनमुन, घनश्याम राय से हुई बातचीत के डिटेल्स देते हुए उसे बताया कि, ‘एक फ़ाइनल बातचीत आमने सामने की होनी है। और मैं चाहता हूं कि इस मौक़े पर तुम भी रहो तो अच्छा रहेगा।’

‘ठीक है भइया मैं रह जाऊंगा पर बातचीत का ज़िम्मा आप ही संभालिएगा।’

‘ठीक है। बस तुम आ जाओ।’ कह कर दीपक ने धीरज का फ़ोन काट कर घनश्याम राय का फ़ोन मिलाया। और कहा कि, ‘भई देखिए अगले महीने के सेकेंड संडे को हम लोग बातचीत के लिए मिलेंगे। बातचीत में मुनमुन और उस के अम्मा पिता जी, धीरज और मैं रहूंगा। और आप अपनी तरफ़ से राधेश्याम और उन की मम्मी को ले कर आइएगा। यह बातचीत न आप के यहां होगी न बांसगांव में। बल्कि कौड़ीराम के डाक बंगले में होगी। और हां, राधेश्याम को समझा लीजिएगा कि पी कर नहीं आएंगे।’

‘ठीक है दीपक जी। ऐसा ही होगा। पर अब की बात फ़ाइनल हो जानी चाहिए। और जो कहिए तो एक वकील भी लेते आऊं। फिर जो भी फ़ैसला हो वह स्टैम्प पेपर पर दर्ज कर दिया जाए। ताकि रोज़-रोज़ की चिक-चिक ख़त्म हो जाए।’ घनश्याम राय बोले।

‘यह बताइए पारिवारिक बातचीत में वकील या स्टैम्प पेपर की बात कहां से आ गई भला?’ दीपक बिदक कर बोला।

‘अब बात पारिवारिक कहां रही?’ घनश्याम राय बोले, ‘बात पारिवारिक होती तो अब तक विदाई हो गई होती। पारिवारिक बात होती तो आप को बीच में नहीं आना पड़ता।’

‘घनश्याम जी आप भूल रहे हैं कि मैं परिवार का ही हूं। परिवार से ज़रा भी अलग नहीं हूं। ननिहाल है मेरा। मेरी देह में दूध और ख़ून वहीं का है।’

‘ननिहाल है आप का दीपक बाबू! रिश्तेदारी हुई। घर नहीं। वहां की विरासत आप नहीं मुनक्का राय के लड़के संभालेंगे।’ घनश्याम राय तल्ख़ हो कर बोले, ‘क्या मुनक्का राय के लड़कों ने चूड़ियां पहन रखी हैं जो अब आप को बात करनी पड़ रही है?’

‘घनश्याम जी आप की बात में मामला सुलझाने की नहीं उलझाने की गंध आ रही है। क्षमा करें ऐसे तो मैं बात नहीं कर पाऊंगा। न ही आ पाऊंगा।’

‘मामला सुलझाने के लिए ही यह सब करने को कह रहा हूं दीपक बाबू।’ घनश्याम राय बोले, ‘पर आप तो बुरा मान गए। और जो आप पारिवारिक मामला बता रहे हैं, वह सचमुच पारिवारिक कहां रहा? समाज में तो हमारी पगड़ी उछल गई है। और बांसगांव में?’ वह ज़रा रुके और बोले, ‘बांसगांव में आदमी-आदमी की ज़बान पर हैं मुनमुन की कहानियां। विश्वास न हो तो किसी पान वाले, खोमचे वाले, ठेले वाले से जा कर पूछ लीजिए। आंख मूंद कर बता देगा। तो अब भी आप कहंगे कि मामला पारिवारिक है?’

‘हां, है यह मामला पारिवारिक ही। और परिवार के स्तर पर ही मामला निपटाया जाएगा।’ दीपक बोला, ‘और जो आप को लगता है कि मैं बाहरी हूं तो चलिए मैं अपने को इस बातचीत से अलग कर लेता हूं। मैं नहीं आऊंगा। सिर्फ़ धीरज ही जाएगा।’

‘अरे तब तो ग़ज़ब हो जाएगा!’ घनश्याम राय बोले, ‘आप अवश्य आइए। नहीं धीरज बाबू हों चाहे रमेश बाबू ई लोग तो हरदम ऐसे बात करते हैं जैसे कोई आदेश लिखवा रहे हैं। डिक्टेशन दे देते हैं और बात ख़त्म। अगले पक्ष की बात ही नहीं सुनते।’

‘पर आप के हिसाब से तो मैं बाहरी आदमी हूं।’

‘हैं तो पर आप आइए परिवार के ही बन कर ताकि यह झंझट ख़त्म हो।’

‘चलिए ठीक है।’ दीपक खीझता हुआ बोला, ‘पर कोई वकील नहीं, कोई स्टैम्प पेपर नहीं।’

‘ए भाई, ई तो आप भी डिक्टेशन देने लगे।’ घनश्याम राय बोले, ‘आप भी मास्टर हैं, मैं भी मास्टर हूं। हम लोग तो मास्टरों की तरह बात करें। अधिकारियों की तरह नहीं।’

‘घनश्याम जी मैं प्रोफ़ेसर हूं मास्टर नहीं जैसा कि आप समझ रहे हैं।’

‘चलिए प्रोफ़ेसर साहब अब आप का लेक्चर ही सुन लेते हैं डिक्टेशन की जगह।’ घनश्याम राय बोले, ‘पर बातचीत में कोई सुलहनामा तो करना ही पड़ेगा। भले ही किसी सादे क़ाग़ज पर ही क्यों न किया जाए। और हां, एक बात और जो मैं पहले भी कह चुका हूं कि हमारे घर में रहने के लिए मुनमुन को अपनी नौकरी छोड़नी पड़ेगी।’

‘चलिए कोई रास्ता निकलेगा तो यह देख लिया जाएगा।’ दीपक ने कहा, ‘तो हम लोग उस दिन, दिन के 11-12 बजे मिलेंगे।’

‘जैसा आप का हुकुम प्रोफ़ेसर साहब!’

‘ओ.के. घनश्याम जी!’ कह कर दीपक ने फ़ोन काट दिया। फिर मुनमुन और धीरज को तारीख़ समय और जगह की सूचना देते हुए एस.एम.एस. कर दिया। धीरज को एक एस.एम.एस. और किया कि वह कौड़ीराम का डाक बंगला उस दिन के लिए आरक्षित करवा ले। बाद में धीरज का कनफ़र्मेशन भी आ गया। पर मुनमुन का कोई जवाब नहीं आया। दीपक ने पत्नी से यह सब बताते हुए घनश्याम राय की वकील, स्टैम्प पेपर और सुलहनामे वाली तफ़सील बताई तो पत्नी बोली, ‘फिर वह आदमी बहुत ही काइयां है और डरपोक भी।’

‘मतलब?’

‘वह एक साथ दो निशाने साध रहा है।’

‘क्या मतलब?’

‘पहला काम वह यह कर रहा है कि विदाई का मामला वह आन रिकार्ड करना चाहता है। ताकि कभी बात और बिगड़ने पर मुनमुन लोग दहेज वाला मुक़दमा लिखवाएं तो उसे ज़मानत के लिए ग्राउंड बना ले कि मामला दहेज का नहीं विदाई का है। दूसरे, विदाई न हो तो इसी ग्राउंड पर वह तलाक़ फ़ाइल कर देगा।’

‘बड़ा धूर्त है साला।’ दीपक खीझ कर बोला।

‘आप असल में हर मामला भावुकता में ले लेते हैं। और यह मामला अब भावुकता का नहीं लगता मुझको। अब यह मामला दांव पेंच का हो गया है। अब वह दहेज विरोधी मुक़दमे से बचने और तलाक़ लेने की जुगत में है।’ दीपक की पत्नी बोली, ‘अब वह मुनमुन नाम की झंझट से छुटकारा पाना चाहता है।’

‘तो अब क्या किया जाए?’ दीपक सिर पकड़ कर बोला।

‘कुछ नहीं। मेरी मानिए तो अभी जाने-वाने का कार्यक्रम कैंसिल कीजिए। नहीं यश मुश्किल से मिलता है और अपयश बहुत जल्दी।’ दीपक की पत्नी बोली, ‘कुछ दिन के लिए मामला यों ही छोड़ दीजिए। भूल जाइए सब कुछ। ठीक होना होगा तो अपने आप सब ठीक हो जाएगा। समय बहुत कुछ करवा देता है। नहीं अभी हड़बड़ी में वह तलाक़ के ग्राउंड तलाश कर तलाक़ का मुक़दमा दायर कर देगा और ठीकरा आप के माथे फूटेगा कि आप ने तलाक़ करवा दिया।’

‘इतनी जल्दी तलाक़ मिलता है कहीं हिंदू विवाह में?’

‘दोनों पक्ष जब तैयार हों तो मिल भी जाता है।’

‘तो?’

‘कुछ नहीं सब कुछ भूल कर सो जाइए।’ दीपक की पत्नी बोली। पर दीपक सोने की बजाय जा कर कंप्यूटर पर बैठ गया। नेट कनेक्ट किया। और राहुल को सारी बातों के मद्देनज़र तफ़सील में एक चिट्ठी लिखी। और बताया कि थोड़े दिन शांत रह जाना ही ठीक है। दूसरे दिन राहुल की संक्षिप्त सी, हताश सी चिट्ठी आई। उस ने लिखा, ‘ठीक है जैसा आप उचित समझिए।’ फिर उसी दिन मुनमुन की मिस काल आई। दीपक ने मुनमुन को तुरंत फ़ोन मिलाया। मुनमुन उधर से बिलकुल फायरी हो रही थी, ‘भइया आप समझौते की बात कर रहे हैं और वह दुष्ट यहां रह-रह कर ख़ुराफ़ात कर रहा है। आज वह फिर आया था।’

‘कौन राधेश्याम?’

‘हां, मैं तो थी नहीं। स्कूल गई थी। बाबू जी कचहरी में थे। उस ने अम्मा की ऐसी पिटाई की कि मुंह फूट गया, हाथ में फ्रै़क्चर हो गया। बचाने आई एक पड़ोसन को भी उस ने पीटा। उस का पैर टूट गया। बताइए अब क्या करूं?’ वह बोली, ‘मन तो करता है जाऊं अभी उस को गोली मार दूं!’

‘गोली कैसे मारोगी?’

‘अरे भइया बांसगांव में रहती हूं। कट्टा खुले आम मिलता है। जिसे आप लोग इंगलिश में कंट्री गन कहते हैं।’

‘क्या बेवक़ूफ़ी की बात करती हो!’ दीपक बोला, ‘यह सब करने की ज़रूरत नहीं है तुम्हें।’

‘तब?’

‘मैं कुछ करता हूं।’

‘चलिए कर लीजिए आप भी।’

‘कुछ अंट शंट मत करना मुनमुन। मैं तुम्हें बाद में फ़ोन करता हूं। फ़ोन क्या एस.एम.एस. करता हूं।’

‘ठीक है भइया, प्रणाम।’

दीपक ने तुरंत घनश्याम राय को फ़ोन मिलाया। उन की पत्नी ने फ़ोन उठाया और बताया कि, ‘राय साहब तो कहीं गए हैं। रात तक आएंगे।’

‘और राधेश्याम?’

‘हां, ऊ तो है।’

‘ज़रा बात कराएंगी?’

‘आप कौन बोल रहे हैं?’

‘मैं दिल्ली से दीपक राय हूं।’

‘रुकिए बुलाती हूं।’ कह कर उन्हों ने राधेश्याम को आवाज़ दी, ‘देखो कोई दिल्ली से फ़ोन आया है।’ थोड़ी देर में राधेश्याम आया। बोला, ‘हलो कौन बोल रहा है?’

‘मैं दिल्ली से दीपक राय बोल रहा हूं।’

‘तुम कौन हो? क्या काम है?’

‘मुनमुन मेरी ममेरी बहन है।’

‘अच्छा बोलो!’ वह भड़कता हुआ बोला, ‘क्या तुम भी उस के आशिक़ हो?’

‘क्या बेवक़ू़फ़ी की बात करते हो?’ दीपक चिढ़ कर बोला, ‘बता रहा हूं कि मेरी बहन है।’

‘अच्छा बोलो।’ कह कर राधेश्याम ने मां बहन दोनों गालियों से न्यौता।

‘देखो गाली मत बको।’

‘चलो नहीं बकता अब बोलो।’

‘यह बताओ कि आए दिन बांसगांव जा कर तुम गाली गलौज और मार पीट क्यों करते हो?’

‘शौक़ है मेरा। मुझे अच्छा लगता है। तुम से मतलब?’ कह कर फिर उस ने गालियों की जैसे बौछार कर दी।

‘तुम अभी भी पिए हुए हो क्या?’

‘तुम से मतलब?’ गालियां देते हुए राधेश्याम बोला, ‘तुम्हारे बाप ने पिलाई है क्या?’

‘ओ़फ़ तुम से तो बात करना भी मुश्किल है।’

‘तो मत करो।’

‘तुम्हें पता है तुम्हारी हरकतों की पुलिस में रिपोर्ट हो सकती है। तुम गिऱफ्तार भी हो सकते हो?’

‘अभी उस तेलिया ने मुनमुन की मां को पटक कर मारा उस के जने उस तेली का कुछ नहीं कर पाए तो मेरा क्या कर लेंगे साले सब!’ उस ने फिर तीन चार गालियां बकीं और बोला, ‘तुम को भी जो उखाड़ना हो उखाड़ लो।’

‘तुम तो सचमुच बहुत बदतमीज़ हो।’

‘हां, हूं आओ मेरी नोच लो।’

‘ओ़फ़! कह कर दीपक ने फ़ोन काट दिया। थोड़ी देर अनमना हो कर वह बैठा रहा। फिर दुबारा घनश्याम राय के घर फ़ोन मिलाया तो उन की बेटी ने फ़ोन उठाया।

‘बेटी ज़रा अपनी मम्मी से बात कराएंगी?’

‘हां, अंकल होल्ड कीजिए!’ थोड़ी देर में वह फ़ोन पर आईं तो दीपक ने अपना परिचय बताते हुए कहा कि, ‘अभी राधेश्याम ने जो गालियां हमें दी हैं आप ने सुनी ही होंगी।’

‘भइया इलाहाबाद यूनिवर्सिटी का पढ़ा हुआ लड़का है ज़रा गाली दे भी दिया तो क्या हुआ?’

‘अरे मां हो कर भी आप क्या कह रहीं हैं?’

‘ठीक कह रही हूं।’

‘आप को पता है कि वह बांसगांव भी जा कर गाली गलौज और मारपीट करता है?’

‘करता होगा।’ वह बोलीं, ‘वह लोग भी तो विदाई नहीं कर रहे। कितनी बेइज़्ज़ती हो रही है हमारे ख़ानदान की।’

‘इज़्ज़त है भी आप की और आप के ख़ानदान की?’ दीपक भड़क गया।

‘अब इस का जवाब आप को राधेश्याम और हमारे राय साहब ही दे सकते हैं। हम तो औरत हैं। आप को शोभा नहीं देता यह पूछना हम से। मर्दों से पूछिए।’ वह ज़रा रुकीं और भड़क कर बोलीं, ‘बुलाती हूं राधेश्याम को वही आप को हमारे ख़ानदान की इज़्ज़त कितनी है बताएगा!’

दीपक ने फ़ोन काट दिया। वह समझ गया कि कुएं में ही भांग पड़ी हुई है। किसी से बात करना दीवार में सिर मारना है। फिर भी वह राधेश्याम की गालियों से बुरी तरह आहत हो गया। उस ने राहुल को एक लंबी मेल लिखी। और बता दिया कि, ‘इस प्रसंग के बाद मुनमुन मामले से मैं अपने को पूरी तरह अलग कर रहा हूं।’ साथ ही उस ने राहुल से अफ़सोस भी जताया कि, ‘बहुत चाहने पर भी यह मामला सुलझने के बजाय और उलझ गया है। सिवाय अफ़सोस के और क्या कर सकता हूं। तुम छोटे हो फिर भी तुम से क्षमा मांगता हूं।’

राहुल का भी लंबा जवाब आया और पूरी तरह खौलता हुआ। उस ने दीपक से राधेश्याम की गालियों के लिए क्षमा मांगी थी और लिखा था कि, ‘यह आप का ही अपमान नहीं हम सब का अपमान है।’ उस ने लिखा था कि मेल पढ़ने के बाद पहला काम उस ने मुनमुन की ससुराल फ़ोन करने का ही किया था। तो राधेश्याम की मां ने उस से भी राधेश्याम के इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में पढ़े होने का गौरव गान गाया। तो राहुल ने उन से कहा, ‘आप का बेटा तो इलाहाबाद यूनिवर्सिटी की टुंटपूंजिया और फ़र्ज़ी पढ़ाई किए है जिसका कोई मतलब नहीं है। पर हमारे दीपक भइया दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ाते हैं और प्रोफ़ेसर हैं।’ तो राधेश्याम की मां बोली, ‘इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से बड़ी तो नहीं है न दिल्ली यूनिवर्सिटी।’ राहुल ने भी फिर इस बात का ब्लंटली जवाब दिया था। उस ने लिखा था कि, ‘इतना ब्लंटली और लंठई से भरा वह जवाब था कि उसे मैं आप को लिख नहीं सकता।’

दीपक ने उसे संक्षिप्त जवाब में लिखा कि, ‘जो बीत गया, सो बीत गया। बहुत भावुक होने की ज़रूरत नहीं है। और मामला कैसे सुलझे तथा और क्या विकल्प हो सकते हैं इस पर सोचने की ज़रूरत है।’ उस ने विकल्प पर ज़्यादा ज़ोर देते हुए मुनमुन के दूसरे विवाह के लिए स्पष्ट संकेत दिया था। और तर्क दिया था कि, ‘उस की शादी ग़लत तो हो ही गई है। और जब हम लोग राधेश्याम और उस के परिवार की फ़ोन पर बात नहीं बर्दाश्त कर पा रहे तो वह बेचारी वहां जा कर रहेगी भी कैसे तो भला?’

पर राहुल ने जाने क्यों दीपक के इस पत्र का जवाब नहीं दिया। पी गया यह पत्र। शायद मुनमुन की दूसरी शादी का विकल्प उसे अच्छा नहीं लगा था। लेकिन दीपक से राधेश्याम ने गाली गलौज की है। यह बात उस ने रमेश, धीरज, तरुण, मुनमुन और अम्मा बाबू जी सभी को ज़रूर बताई। और सभी ने दीपक को फ़ोन कर इस बात पर अफ़सोस जताया। राहुल ने घनश्याम राय को भी फ़ोन कर इस पर सख़्त विरोध जताया और उन्हें बताया कि, ‘दीपक भइया हम सब में न सिर्फ़ बड़े हैं हमारी आन और मान भी हैं। राधेश्याम की हिम्मत कैसे हुई उन से गाली गलौज करने की? और फिर जो यही रवैया रहा आप लोगों का तो हम लोगों से संबंध ख़त्म समझिए और नतीजा भुगतने को तैयार रहिए।’ उस ने जोड़ा, ‘ईंट से ईंट बजा देंगे आप के राधेश्याम की और आप के पूरे परिवार की।’ राहुल की इस धमकी से घनश्याम राय डर गया। उस ने राहुल से तो माफ़ी मांगी ही, दीपक को भी ख़ुद फ़ोन कर राधेश्याम के व्यवहार के लिए माफ़ी मांगी। ग़नीमत थी कि वह फ़ोन पर था, नहीं सामने होता तो पैर पकड़ लेता। राहुल ने घनश्याम राय को डपटते हुए कहा था कि, ‘राधेश्याम को समझा लीजिए। नहीं जो अब वह बांसगांव जा कर हमारे अम्मा बाबू जी या मुनमुन से अभद्रता या बदतमीज़ी करेगा तो उस की ख़ैर नहीं।’

घनश्याम राय ने राधेश्याम के पैर पकड़ कर समझाया, ‘अब मत जाना बांसगांव बवाल काटने। नहीं बड़ा बवाल हो जाएगा।’ राधेश्याम मान गया था। पर कब तक मानता भला? उस दिन मुनमुन अम्मा के हाथ का प्लास्टर कटवा कर घर आई थी। आंगन में बैठी अम्मा के हाथ की सिंकाई मोम से कर रही थी कि झूमता झामता राधेश्याम पहुंचा। मुनमुन उसे देखते ही ऐसे मुसकुराई गोया उस का इंतज़ार ही कर रही थी। बोली, ‘लेने आए हैं?’

‘हां, चल अभी।’ कहते हुए राधेश्याम ने गालियों की बरसात कर दी।

‘ज़्यादा शिष्टाचार की ज़रूरत नहीं है।’ मुनमुन राधेश्याम की गालियों को इंगित करती हुई पर इतराती हुई मुसकुरा कर बोली, ‘चलिए चलती हूं अब की। आप भी क्या कहेंगे!’

‘आ गई न लाइन पर।’ कहते हुए राधेश्याम ने फिर मां की गालियों से उसे नवाज़ दिया।

‘हां, क्या करती!’ मुनमुन फिर इठला कर बोली, ‘आना ही पड़ा।’

‘तो चल!’

‘कपड़ा तो बदल लूं?’ मुनमुन बैठे-बैठे इठलाई, ‘कि ऐसे ही चलूं?’

‘चलो बदल लो!’ अकड़ता हुआ राधेश्याम बोला।

‘आप बाहर ओसारे में बैठिए मैं अभी कपड़ा बदल कर आती हूं।’

‘पर बेटी!’ मुनमुन की अम्मा तड़पड़ाईं।

‘कुछ नहीं अम्मा अब मैं जाऊंगी। मुझे जाने दो।’ मुनमुन फिर राधेश्याम की ओर मुड़ती हुई बोली, ‘आप बाहर बैठिए न!’

‘बैठता हूं। जल्दी आओ।’ गरज कर राधेश्याम ऐसे बोला जैसे उस ने दिल्ली जीत ली हो। फिर आ कर बाहर ओसारे में बैठ गया। कोई गाना गुनगुनाता हुआ। वह बाहर के ओसारे में कुर्सी पर बैठा गाना गुनगुना ही रहा था कि पीछे से मुनमुन हाथ में एक लाठी लिए आई। और राधेश्याम के सिर पर निशाना साध कर तड़ातड़ लाठी से उसे मारने लगी। अचानक लाठी के प्रहार से वह अकबका गया। उस का सिर फूट गया। ख़ून बहने लगा। फिर भी वह कुर्सी से उठ कर गाली बकता हुआ तेज़ी से पलटा और मुनमुन की तरफ़ लपका। लेकिन तब तक मुनमुन उस के पैरों को निशाना बना चुकी थी। वह लड़खड़ा कर गिर पड़ा और ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगा। इतना कि रास्ता चलते राहगीर रुक गए। अड़ोसी पड़ोसी आ गए। मुनमुन की अम्मा घर में से बाहर आ गईं। लेकिन मुनमुन रुकी नहीं, न ही उस की लाठी। वह मारती रही। राधेश्याम छटपटाता और चिल्लाता रहा, ‘बचाओ-बचाओ मुझे मार डालेगी यह।’ दो एक राहगीर लपके उसे बचाने के लिए लेकिन पड़ोसियों ने उन्हें रोक लिया। मुनमुन मारती रही लाठियों से राधेश्याम को और वह हाथ जोड़ कर रहम की भीख मांगता रहा। फ़रियाद करता रहा, ‘तुम्हारा पति हूं, तुम्हारा सुहाग हूं।’

‘पति नहीं, तुम पति के नाम पर कलंक हो।’ हांफती हुई मुनमुन बोल रही थी और अपनी ताक़त भर उसे पीट रही थी। वह चीख़ रहा था, ‘तुम ने धोखा किया मेरे साथ। धोखे से मुझ पर पीछे से वार किया!’

‘तुम और तुम्हारे बाप धोखा करो तो ठीक, हम करें तो धोखा!’ मुनमुन हांफती और उसे मारती हुई बोली। वह उसे तब तक मारती रही, जब तक वह अधमरा नहीं हो गया। अंततः राधेश्याम ने मुनमुन के पांव पकड़ लिए और बोला, ‘माफ़ कर दो मुनमुन, मुझे माफ़ कर दो।’ मुनमुन के दरवाज़े पर यह वही जगह थी जहां द्वारपूजा में मुनमुन के बाबू जी ने राधेश्याम के पैर धोए थे, भले ही बरसात की वजह से तख़ते पर। और आज उसी जगह धूल धूसरित ख़ून और पिटाई से लथपथ राधेश्याम मुनमुन के पांव पकड़ कर अपनी जान की भीख मांग रहा था। द्वारपूजा में भी भीड़ थी बारात की। इस समय भी भीड़ थी बांसगांव की। जो जहां था, वहीं से भागा आया। पर मुनमुन को रोका किसी ने भी नहीं। और मुनमुन भी थी कि रुकी नहीं। रुकी तो वह बाबू जी के रोकने से। हां, यह ख़बर जब कचहरी में भी पहुंची तो मुनक्का राय भागे-भागे घर आए। मुनमुन का हाथ पकड़ा और उसे रोकते हुए बोले, ‘इस अभागे को मार ही डालोगी क्या?’

‘हां, बाबू जी, आज इस को मार ही डालने दीजिए!’

‘क्यों विधवा हो कर जेल जाना चाहती हो?’ मुनक्का राय बोले, ‘आख़िर तुम्हारा सुहाग है!’

‘सुहाग?’ कहते हुए मुनमुन ने मुंह ऐसे बनाया गोया कोई कड़वी चीज़ मुंह में आ गई हो। और राधेश्याम के मुंह पर ‘पिच्च’ से थूकती हुई बोली, ‘थूकती हूं ऐसे सुहाग पर जिस ने मेरी ज़िंदगी जहन्नुम बना दी।’ और फिर एक लात उस ने राधेश्याम के चूतड़ पर लगा दिया। मुनक्का राय ने पलट कर भीड़ की तरफ़ देखा तो पाया कि ख़ामोश खड़ी भीड़ में अधिकांश की आंखों में मुनमुन के लिए प्रशंसा के भाव थे। वह मंद-मंद मूछों में ही मुसकुराए। और बड़े गर्व से मुनमुन को भर आंख देखा फिर भीड़ की तरफ़ पलटे और बोले, ‘इस नालायक़ को कोई यहां से उठा ले जाओ भाई! कि अइसे ही तमाशा देखते रहेंगे आप लोग?’

पर कोई भी राधेश्याम को उठाने के लिए आगे नहीं बढ़ा। उलटे सब लोग ओसारे में आ बैठी मुनमुन को घेर लिए। एक पड़ोसी औरत बोली, ‘वाह मुनमुन बिटिया वाह। ई काम तुम को बहुत पहले करना चाहिए था। मारे था जीना हराम किए था। जब मन तब दरवाज़ा पीट-पीट कर गरिया जाता था। हम लोग सोचते थे कि वकील साहब का दामाद है क्या बोलें। पर ऐसे पियक्कड़ और बदतमीज़ आदमी की यही दवाई है।’

फिर धीरे-धीरे सब ने मुनमुन के इस काम के क़सीदे पढ़े। और उधर राधेश्याम ज़मीन पर पड़ा-पड़ा दर्द और अपमान से छटपटाता रहा। थोड़ी देर बाद उस ने भीड़ में से एक आदमी को इशारे से बुलाया और कहा कि, ‘कोई रिक्शा या टैम्पू ला दीजिए।’

‘मैं नहीं लाता।’ वह आदमी मुंह पिचका कर बोला, ‘यहीं मरो।’ भीड़ धीरे-धीरे छंटने लगी। मुनक्का राय, मुनमुन और उस की अम्मा भी घर में अंदर जा कर भीतर से दरवाज़ा बंद कर बैठ गईं। थोड़ी देर बाद पुलिस ने मुनक्का राय के घर का दरवाज़ा खटखटाया। दरवाज़ा मुनक्का राय ने खोला। पूछा, ‘क्या बात है?’

‘कोई घटना हुई है यहां पर?’ दारोगा ने पूछा।

‘नहीं तो।’

‘सुना है कोई मारपीट हुई है?’

‘हां, हां।’ मुनक्का राय ज़रा रुके और बोले, ‘एक पियक्कड़ आ गया था।’

‘अच्छा-अच्छा!’ दारोगा बोला, ‘तो रिपोर्ट लिखवाएंगे।’

‘हमें तो नहीं लिखवानी है।’ मुनक्का राय बोले, ‘वह पियक्कड़ लिखवाना चाहे तो लिख लीजिए!’

‘वह कहां है?’

‘कौन?’

‘वह पियक्कड़?’

‘हमें क्या पता?’

पुलिस चुपचाप चली गई। लेकिन बांसगांव चुप नहीं था। बांसगांव की सड़कों पर मुनमुन की चर्चा थी। मुनमुन की बहादुरी की चर्चा थी। पान की दुकान पर, मिठाई की दुकान और कपड़े की दुकान पर। परचून की दुकान और शराब की दुकान पर। चहुं ओर मुनमुन, मुनमुन, मुनमुन! सांझ होते-होते एक पान वाला बाक़ायदा वीर रस में गा रहा था यह मुनमुन कथा, ‘ख़ूब लड़ी मरदानी यह तो बांसगांव की रानी है।’ फिर धीरे-धीरे जिसे देखो वही, ‘ख़ूब लड़ी मरदानी यह तो बांसगांव की रानी है!’ पूरे बांसगांव की जु़बान पर आ गया। दूसरे दिन कचहरी में जब मुनक्का राय तक यह स्लोगन बन कर बात आई कि ख़ूब लड़ी मरदानी यह तो बांसगांव की रानी है। तो वह मंद-मंद मूछों में ही मुसकुरा कर रह गए। वीर रस का यह स्लोगन पहुंचाने वालों ने रमेश, धीरज और तरुण तक भी फ़ोन कर पहुंचाया। और तीसरे दिन तो एक लोकल अख़बार में पूरी घटना बिना किसी का नाम लिए एक औरत, एक पति कर के ख़ूब ललकार के छपी थी। रमेश और धीरज ने बाबू जी को फ़ोन कर के इस घटना पर अफ़सोस जताया और कहा कि, ‘इसे और तूल नहीं दिया जाना चाहिए। इस से हम लोगों की बदनामी होगी!’

‘क्यों जब तुम्हारी बहन और अम्मा को वह नालायक़ पीट रहा था तब बदनामी नहीं हो रही थी, अब बदनामी हो रही है?’ कह कर मुनक्का राय ने दोनों बेटों को डपट दिया। और यह देखिए इस घटना को बीते अभी हफ्ता भर भी नहीं बीता कि बांसगांव के बस स्टैंड पर मुनमुन के नाम से चनाजोर गरम बेचने वाले तिवारी जी अपना चनाजोर गरम भी बेचने लगे, ‘मेरा चना बना है चुनमुन/इस को खाती बांसगांव की मुनमुन/सहती एक न अत्याचार/चनाजोर गरम!’ वह इस में आगे और जोड़ते, ‘मेरा चना बड़ा बलशाली/मुनमुन एक रोज़ जब खा ली/ खोंस के पल्लू निकल के आई/गुंडे भागे छोड़ बांसगांव बाजा़र/चनाजोर गरम!’ जल्दी ही यह मुनमुन नाम से चनाजोर गरम कौड़ीराम और आस पास के कस्बों में भी फैल गया। और इधर बांसगांव बस स्टैंड पर तिवारी जी इस में और लाइनें जोड़ रहे थे, ‘मेरा चना बड़ा चितचोर/इस का दूर शहर तक शोर/इस के जलवे चारो ओर/इस ने सब को दिया सुधार/बहे मुनमुन की बयार/चनाजोर गरम!’ वह और जोड़ते, ‘मेरा चना सभी पर भारी/मुनमुन खाती हाली-हाली/इस को खाती जो भी नारी/पति के सिर पर करे सवारी/जाने सारा गांव जवार/चना जोर गरम!’

और देखते ही देखते मुनमुन के नाम का चनाजोर गरम सारी हदें लांघ कर शहर में भी बिकने लगा। न सिर्फ़ बस स्टैंड पर शहर के मुख्य बाज़ार गोलघर में भी। लोग चनाजोर गरम खाते हुए पूछते, ‘भइया ये मुनमुन है कौन?’

‘बांसगांव की रानी है साहब अत्याचारियों के पिछाड़ी में भरने वाली पानी है साहब!’

‘अभी तक तो बांसगांव के गुंडों का नाम सुनते थे। अब ये रानी कहां से आ गई?’

‘आ गई साहब, आ गई। बड़े-बड़े गुंडों को पानी पिलाने।’

‘क्या?’

‘और क्या?’

गोया मुनमुन, मुनमुन न हो पतियों के अत्याचार के खि़लाफ बिकने वाली ब्रांड हो! हां, अब मुनमुन ब्रांड हो चली थी। कम से कम बांसगांव में तो वह अत्याचार के खि़लाफ ब्रांड थी ही। ख़ास कर बांसगांव के बस स्टैंड या टैम्पो स्टैंड पर तिवारी जी जब मुनमुन को देख लेते तो अपना स्वर और तेज़ और ओजपूर्ण कर लेते। फिर लगभग पंचम सुर में आ कर उच्चारते, ‘इस को खाती बांसगांव की मुनमुन/सहती एक न अत्याचार/चनाजोर गरम!’ मुनमुन मंद-मंद मुसकाती धीरे-धीरे चलती हुई तेज़-तेज़ चलने लगती। मुनमुन की पहचान पहले एक वकील की बेटी फिर अधिकारी और जज की बहन के रूप में थी। लोग उसे सम्मान से देखते। फिर वह अपनी शोख़ी के लिए जानी जाने लगी। लोग उसे ललक के साथ देखने लगे। बिजलियां गिराती इतराती चलती वह। और जल्दी ही एक सताई हुई औरत हो गई वह। लोग उसे सहानुभूति मिश्रित करुणा या फिर उपेक्षा की दृष्टि से देखने लगे। पर अब उपेक्षा की जगह अपेक्षाकृत सम्मान से देखने लगा बांसगांव। कोई-कोई उसे बोल्ड एंड ब्यूटीफुल कहता, कोई झांसी की रानी, कोई कुछ, कोई कुछ। सब के अपने-अपने पैमाने थे। पर परिवार तथा समाज में सताई हुई, वंचित और अपमानित औरतें मुनमुन में अब अपनी मुक्ति तलाशतीं। ऐसी औरतें उस के पास सलाह लेने आने लगीं। धीरे-धीरे वह शिक्षामित्र ही नहीं सताई हुई औरतों की मित्र भी बन गई। लगभग एक काउंसलर की छवि बन गई उस की।

पास के गांव की एक औरत थी सुनीता। पिता मिलेट्री में थे। अब रिटायर्ड थे। पर सुनीता जब नाइंथ में थी, सेंट्रल स्कूल में पढ़ती थी। उस की किसी कापी में उस की मां ने अमिताभ बच्चन की कोई मैगज़ीन से काटी हुई फ़ोटो पा लिया। उस को बहुत डांटा। पर कुछ दिन बाद फिर आमिर ख़ान की फ़ोटो मिल गई उस की कापी में। मां ने बवाल कर दिया। बात पिता तक पहुंची। आनन फ़ानन उस की शादी कर दी गई। ज़ाहिर है तब लड़का भी छोटा था और इंटर में पढ़ता था। संयोग था कि दुर्भाग्य शादी के दस साल बाद भी कोई बच्चा नहीं हुआ। सास के ताने सुन-सुन कर वह आजिज़ आ गई। पति भी जब-तब तलाक़ की धमकी देने लगा। पर ससुर सरकारी नौकरी में था सो बचा कर रहता था। फिर अचानक जाने क्या हुआ कि वह प्रिगनेंट हो गई। सब के भाव बदल गए। वह कुलच्छिनी से लक्ष्मी हो गई। पर जल्दी ही यह लक्ष्मी का भाव भी उतर गया जब उस ने एक लक्ष्मी को जन्म दे दिया। पर बांझ होने का कलंक उस के माथे से मिट गया। जल्दी ही वह फिर गर्भवती हुई। फिर उम्मीदें बंधीं। पर फिर लक्ष्मी के आ जाने से उस की दुर्दशा बढ़ गई। मार पीट और तानों में इज़ाफ़ा हो गया। ससुर रिटायर हो गए थे। ख़र्चे बढ़ गए थे और पति पियक्कड़ और निकम्मा हो गया था। हार कर सुनीता बेटियों को लेकर मायके आ गई। प्राइवेट हाई स्कूल का इम्तहान दिया। पास हो गई तो दो साल बाद इंटर का इम्तहान दिया। फिर पास हो गई। बी.ए. का प्राइवेट फ़ार्म भरा। अब पति ने सुनीता को मायके में आ कर तंग करना शुरू कर दिया। अंततः सुनीता के पिता ने उसे ससुराल भेज दिया। पर सुनीता का पति एक दिन सुनीता के पिता के पास पहुंचा। बोला, ‘ठेकेदारी शुरू करना चाहता हूं।’

‘तो शुरू करो।’ सुनीता के पिता ने कहा।

‘आप से मदद चाहिए।’

‘क्या मदद चाहते हो?’ सुनीता के पिता बिदके।

‘पैसे की मदद।’

‘वो मैं कहां से दूं?’

‘अभी-अभी आप रिटायर हुए हैं। फंड, ग्रेच्युटी मिली होगी।’

‘तो वह हमारे बुढ़ापे के लिए मिली है। तुम्हें शराब पिलाने के लिए नहीं।’

‘उधार समझ कर दे दीजिए।’ सुनीता का पति बोला, ‘जल्दी ही वापस कर दूंगा।’

‘शराबी पैसा वापस कहां से देगा और कैसे देगा?’ सुनीता के पिता ने स्पष्ट कह दिया, ‘मैं नहीं दूंगा। अपने बाप से मांग लो।’

‘वह नहीं दे रहे, आप ही दे दीजिए।’ कह कर वह ससुर के पैरों पर गिर पड़ा।

‘चलो जहां ख़र्च लगे बताना मैं ख़र्च करूंगा। पर पैसा तुम्हारे हाथ में नहीं दूंगा।’

‘ठीक है आप ही ख़र्च करिएगा। पर कितना एमाउंट देंगे यह तो बता दीजिए।’

‘तुम को चाहिए कितना?’

‘चाहिए तो दस लाख रुपए।’

‘इतना पैसा तो मुझे मिला भी नहीं है।’

‘तो फिर?’

‘मैं तुम्हें ज़्यादा से ज़्यादा पचास हज़ार दे सकता हूं। बस!’

‘पचास हज़ार में कौन सी ठेकेदारी होगी भला?’ वह उदास हो कर बोला।

‘जाओ पहले किसी ठेकेदार के यहां नौकरी करो। ठेकेदारी सीखो। फिर ठेकेदारी करना।’

‘पैसा देना हो तो दीजिए।’ सुनीता का पति बोला, ‘ज्ञान और उपदेश मत दीजिए!’

‘चलो यह भी नहीं देता।’

फिर सुनीता के पति ने सुनीता को ख़ूब मारा पीटा। और अंततः अपने माता पिता से अलग रहने लगा। सुनीता के साथ शहर में अलग किराए पर घर ले कर। अब सुनीता के उपवास के दिन आ गए। ससुर के घर लाख ताने, लाख मुश्किल थी पर दो जून की रोटी और बेटियों को पाव भर दूध तो मिल ही जाता था। यहां यह भी तय नहीं था। तिस पर मार पीट आए दिन की बात हो गई थी। अंततः हार कर सुनीता के पिता ने बाल पुष्टाहार में एक लिंक खोजा और दस हज़ार रुपए की रिश्वत दे कर बेटी को उस के गांव में आंगनवाड़ी की कार्यकर्त्री बनवा दिया।

रोटी दाल चलने लगी। बस दिक्क़त यही हुई कि सुनीता को शहर छोड़ कर गांव में आ कर रहना पड़ा। पर भूख और लाचारी की क़ीमत पर शहर में रहने का कोई मतलब नहीं था। लेकिन सुनीता के पति ने यहां आंगनवाड़ी में भी उसे चैन से रहने नहीं दिया। आंगनवाड़ी की दलिया बिस्कुट बेच कर शराब पीना शुरू कर दिया। सुनीता ने विरोध किया तो उस ने आंगनवाड़ी कार्यालय में उस की लिखित शिकायत कर दी। कि वह निर्बल आय वर्ग की नहीं है। मैं बी ग्रेड का ठेकेदार हूं। घर में खेती बारी है आदि-आदि। सो सुनीता को आंगनवाड़ी से बर्खास्त कर दिया जाए। सुनीता को नोटिस मिल गई कि क्यों न उस की सेवाएं समाप्त कर दी जाएं! वह भागी-भागी पिता के पास पहुंची। पिता ने जिस आदमी को दस हज़ार रुपए दे कर सुनीता को आंगनवाड़ी में भर्ती करवाया था उसी आदमी को पकड़ा। उस ने दो हज़ार रुपए और ले कर मामला रफ़ा-दफ़ा करवाया।

अब सुनीता का पति कहने लगा कि, ‘तुम्हारे आंगनवाड़ी में काम करने से हमारी बेइज़्ज़ती हो रही है। या तो आंगनबाड़ी छोड़ दो या मुझे छोड़ दो।’

सुनीता घबरा गई। किसी ने उसे मुनमुन से मिलने की सलाह दी। सुनीता बांसगांव आ कर मुनमुन से मिली। सारा वाक़या बताया। और पूछा कि, ‘क्या करूं? इधर खंदक, उधर खाई? पति छोडूं कि आंगनवाड़ी?’

‘खाना कौन दे रहा है?’ मुनमुन ने पूछा, ‘पति कि आंगनवाडी?’

‘आंगनवाड़ी!’

‘तो पति को छोड़ दो।’ मुनमुन बोली, ‘जो पति अपनी पत्नी को प्यार और परिवार का भरण पोषण करने के बजाय उस पर बोझ बन जाए, उलटे मारपीट और उत्पीड़न करे, ऐसे पति का यही इलाज है। ऐसे पति को कह दो कि बातों-बातों में बोए बावन बीघा पुदीना और खाए उस की चटनी। हमें नहीं खानी यह चटनी!’ मुनमुन ने सुनीता को रघुवीर सहाय की एक कविता भी सुनाई, ‘पढ़िए गीता/बनिए सीता/फिर इन सब में लगा पलीता/किसी मूर्ख की हो परिणीता/निज घर-बार बसाइए।’ कविता सुना कर बोली, ‘हमें ऐसा घर बार नहीं बसाना, नहीं बनना ऐसी सीता, ऐसी गीता पढ़ कर। समझी मेरी बहन सुनीता।’

‘हूं।’ कह कर सुनीता जैसे संतुष्ट और निश्चिंत हो गई। फिर मुनमुन ने सुनीता को अपनी कथा सुनाई और कहा, ‘तुम्हारे पास तो दो बेटियां हैं, इन के सहारे जी लोगी। मेरे पास तो मेरे वृद्ध माता पिता हैं, जो मेरे सहारे जीते हैं। सोचो भला कि मैं किस के सहारे जियूंगी?’ कह कर मुनमुन उदास हो गई।

‘हम हैं मुनमुन दीदी आप के साथ!’ कह कर सुनीता रो पड़ी। और मुनमुन से लिपट गई। पर मुनमुन नहीं रोई। यह सुनीता ने भी ग़ौर किया। मुनमुन समझ गई। सुनीता से बोली, ‘तुम सोच रही होगी कि अपनी विपदा कथा बता कर मैं रोई क्यों नहीं? है न?’ सुनीता ने जब स्वीकृति में सिर हिलाया तो मुनमुन बोली, ‘पहले मैं भी बात-बेबात रोती थी। बहुत रोती थी। पर समय ने पत्थर बना दिया। अब मैं नहीं रोती। रोने से औरत कमज़ोर हो जाती है। और यह समाज कमज़ोरों को लात मारता है। सो मैं नहीं रोती। तुम भी मत रोया करो। कमज़ोर औरत को लात मारने वाले समाज को उलटे लतियाया करो। सब ठीक हो जाएगा!’

लेकिन सुनीता फिर रो पड़ी। बोली, ‘कैसे सब ठीक हो जाएगा भला?’

‘हो जाएगा, हो जाएगा। मत रोओ।’ मुनमुन बोली, ‘भरोसा रखो अपने आप पर। और यह सोचो कि तुम अब अबला नहीं हो। क्यों कि ख़ुद कमाती हो, ख़ुद खाती हो। अपने बारे में ऐसे सोच कर देखो तो सब ठीक हो जाएगा।’

‘जी दीदी!’ कह कर सुनीता मुसकुराई और मुनमुन से विदा मांग कर चली गई बांसगांव से अपने गांव। और फिर सुनीता ही क्यों? रमावती, उर्मिला, शीला और विद्यावती जैसी जाने कितनी महिलाएं मुनमुन से जुड़ती जा रही थीं। और मुनमुन सब को सबला बनने का पाठ पढ़ा रही थी। वह बता रही थी कि, ‘अबला बनी रहोगी तो पिटोगी और अपमानित होगी। ख़ुद कमाओ, ख़ुद खाओ। तो सबला बनोगी, पिटोगी नहीं, अपमानित नहीं होओगी। स्वाभिमान से रहोगी।’

मुनमुन शिलांग जैसी जगहों का हवाला देती। बताती कि वहां मातृ सत्तात्मक समाज है, मातृ प्रधान समाज है। प्रापर्टी औरतों के नाम रहती है, पुरुषों के नाम नहीं। जितना पुरुषों से यहां औरतें कांपती हैं, उस से ज़्यादा वहां शिलांग में औरतों से पुरुष कांपते हैं। जानती हो क्यों?’ वह साथी औरतों से पूछती। और जब वह न जानने के लिए सिर हिला कर नहीं बतातीं तो मुनमुन उन्हें बताती, ‘क्यों कि वहां सारी शक्ति, जायदाद औरतों के हाथ है। इतना कि शादी के बाद वहां औरत पुरुष के घर नहीं, पुरुष औरत के घर जा कर रहता है। बड़े-बड़े आई.ए.एस. अफ़सरों तक को बीवी के घर जा कर रहना पड़ता है और दब के रहना पड़ता है। क्यों कि वहां औरत सबला है।’ वह बताती कि, ‘हैं तो वहां ज़्यादातर क्रिश्चियन लेकिन वह सब मूल रूप से दरअसल आदिवासी लोग हैं। तो जब दबी कुचली आदिवासी औरतें सबला बन सकती हैं तो यहां हम लोग क्यों नहीं बन सकतीं?’ मुनमुन बताती कि, ‘ऐसा ही थाईलैंड में भी है। वहां भी औरतें मर्दों को कुत्ता बना कर रखती हैं। वहां भी मातृ सत्तात्मक परिवार और समाज है। औरतें वहां भी सबला हैं।’

‘क्या आप शिलांग और थाईलैंड गई थीं मुनमुन दीदी?’

‘नहीं तो!’

‘तो फिर कैसे जानती हैं?’

‘तुम लोग दिल्ली के बारे में जानती हो?’

‘हां, थोड़ा-बहुत!’

‘तो क्या दिल्ली गई हो?’ मुनमुन बोली, ‘नहीं न? अरे कहीं के बारे में जानने के लिए वहां जाना ज़रूरी है क्या? पढ़ कर, सुन कर भी जाना जा सकता है। मैं ने इन दोनों जगहों के बारे में पढ़ कर ही जाना है।’ वह बोली, ‘मैं तो चंद्रमा पर भी नहीं गई और अमरीका भी नहीं गई। तो क्या वहां के बारे में जानती भी नहीं क्या?’ उस ने पूछा और ख़ुद ही जवाब भी दिया, ‘पर जानती हूं। पढ़ कर, टी.वी. देख कर।’

मुनमुन की छवि अब धीरे-धीरे मर्द विरोधी होती जा रही थी। तो क्या वह अपने पति, ससुर और भाइयों से एक साथ प्रतिशोध ले रही थी? यह एक बड़ा सवाल था। बांसगांव की हवा में। बांसगांव की सड़कों और समाज में। हालां कि वह साथी औरतों से कहती, ‘जैसे पुरुष औरत को ग़ुलाम बना कर, अत्याचार और सता कर रखे तो यह ठीक नहीं है, ठीक वैसे ही औरत भी पुरुष को या पति को कुत्ता बना कर रखे यह भी ठीक नहीं है।’ वह जैसे जोड़ती, ‘हमारे संविधान ने स्त्री और पुरुष को बराबरी का दर्जा दिया है, हमें वही बराबरी चाहिए। वही सम्मान और वही स्वाभिमान चाहिए जो किसी भी सभ्य समाज में होना चाहिए।’

तो क्या मुनमुन राय अब राजनीति का रुख़ कर रही थी? बांसगांव की सड़कें एक दूसरे से यह पूछ रही थीं। मुनमुन राय की लोकप्रियता का ग्राफ़ मजबूर कर रहा था लोगों को यह सोचने के लिए। लेकिन एक औरत एक रोज़ मुनमुन से कह रही थी, ‘क्या बताएं मुनमुन बहिनी ये बांसगांव की विधानसभा और संसद की दोनों ही सीटें अगर सुरक्षित सीट नहीं होतीं तो तुम को यहां से निर्दलीय चुनाव लड़वा देते। और तुम जीत भी जाती।’

‘अरे क्या कह रही हो चाची एक घर तो चला नहीं पा रही राजनीति क्या ख़ाक करूंगी?’ मुनमुन बोली, ‘इस बांसगांव में तो रह नहीं पा रही। तो राजनीति तो वैसे भी काजल की कोठरी है। मर्द लोग उसे वेश्या भी जब तब कहते ही रहते हैं।’

‘मर्द तो हमेशा के हरामी हाते हैं।’ औरत बोली, ‘उन की बात पर क्या ग़ौर करना?’

‘ऐसा?’ मुनमुन बोली, ‘क्या तुम भी मर्दों की सताई हुई हो चाची? दिखती तो बड़ी सुखी और संतुष्ट हो?’

‘विधाता ने औरतों को शायद सुखी और संतुष्ट रहने के लिए इस समाज में भेजा ही नहीं।’ वह औरत बोली, ‘सब बाहरी दिखावा है। नहीं कौन औरत सुखी और संतुष्ट है यहां?’

‘ये तो है चाची!’ मुनमुन बोली, ‘उपेक्षा और अपमान जब घर में ही लोग देने लगें तो बाहर वालों की क्या कहें? मेरी कहानी तो तुम से क्या किसी से छुपी नहीं है। पर वीना शाही का क्या करें?’

‘क्या हुआ वीना को? उस का भाई तो पुलिस में बड़ा अफ़सर है।’

‘हां, है तो! आजकल कहीं एस.पी. है। पर बहन को नहीं पूछता। इकलौती बहन है। पति ने मार पीट कर दो बच्चों सहित छोड़ दिया है। तलाक़ का मुक़दमा लड़ रही है। बच्चे तक बाप से डरे हुए हैं वीना के। बाप की चर्चा चलते ही बच्चे रोने लगते हैं- पापा के पास नहीं जाना। बहुत मारते हैं। बेटी बच्चों को ले कर मेरी तरह मां बाप की छाती पर बैठी हुई है। इंगलिश मीडियम की पढ़ी बेचारी वीना कहीं की नहीं रही।’ मुनमुन हताश होती हुई बोली, ‘लगता है बांसगांव अब धीरे-धीरे दबंगों की नहीं पियक्कड़ों और परित्यकताओं की तहसील बनती जा रही है।’

जो हो मुनमुन राय अब न सिर्फ़ बांसगांव बल्कि बांसगांव के आस-पास की परित्यक्ताओं, सताई और ज़ुल्म की मारी औरतों का सहारा बनती जा रही थी। एक तरह से धुरी। इस में अधेड़ वृद्ध, जवान हर तरह की औरतें थीं। कोई पति की सताई, तो कोई पिता की। तो कोई बेटों की सताई हुई। ज़्यादातर मध्य वर्ग या निम्न मध्य वर्ग की। मुनमुन कहती भी कि हमारे समाज में शोहदों, पियक्कड़ों, अवैध संबंधों और परित्यक्ताओं का जो बढ़ता अनुपात है और वह लगातार घना हो रहा है। इस पर जाने क्यों किसी समाजशास्त्री की नज़र नहीं जा रही। नज़र जानी चाहिए और इस के कारणों का पता लगा कर इस का कोई निदान भी ज़रूर ढूंढा जाना चाहिए।

एक दिन सुबह-सुबह सुनीता का पति मुनमुन के घर आया। आते ही तू-तड़ाक से बात शुरू की। कहने लगा, ‘तुम मेरी बीवी को भड़काना बंद कर दो। नहीं एक दिन चेहरे पर तेज़ाब फेंक दूंगा। भूल जाओगी नेतागिरी करना।’

शुरू में तो मुनमुन चुपचाप सुनती रही। पर जब पानी सिर से ऊपर जाने लगा तो बोली, ‘ज़्यादा हेकड़ी दिखाओगे तो अभी पुलिस बुला कर जेल की हवा खिला दूंगी। सारी हेकड़ी निकल जाएगी।’

सुनीता का पति फिर भी बड़बड़ाता रहा। तो मुनमुन बोली, ‘तुम शायद मुझे ठीक से जानते नहीं। मेरे भाई सब जज हैं, बड़े अफ़सर हैं।’ उस ने मोबाइल उठाते हुए कहा, ‘अभी एक फ़ोन पर पुलिस यहां आ जाएगी। फिर तुम्हारा क्या हाल होगा, सोच लो। और फिर मैं ने भी कोई चूड़ियां नहीं पहन रखी हैं बाक़ी औरतों की तरह!’ मुनमुन यह सब बोली और इतने सर्द ढंग से बोली कि सुनीता के पति की अक्की-बक्की बंद हो गई। वह जाने लगा तो मुनमुन ने उसे फिर डपटा, ‘और जो घर जा कर सुनीता को कुछ कहा या हाथ लगाया तो पुलिस तुम्हारे घर भी पहुंच सकती है, इतना जान लो।’

सुनीता का पति उसे घूरता, तरेरता चला गया। मुनक्का राय तब घर पर ही थे। सुनीता के पति के चले जाने के बाद वह मुनमुन से बोले, ‘बेटी क्या अपनी विपत्ति कम थी जो दूसरों की विपत्ति भी अपने सिर उठा रही हो?’

‘क्या बाबू जी आप भी!’

‘नहीं बेटी तुम समझ नहीं पा रही हो कि तुम क्या कर रही हो?’ मुनक्का राय बोले, ‘तुम बांसगांव को बदनामी की किस हद तक ले गई हो तुम्हें अभी इस की ख़बर नहीं है।’

‘क्या कह रहे हैं बाबू जी आप?’ मुनमुन चकित होती हुई बोली, ‘क्या बांसगांव के बाबू साहब लोग मर गए हैं क्या जो मैं बांसगांव को बदनाम करने लग गई?’

‘अरे नहीं बेटी बाबू साहब लोगों की दबंगई से वह नुक़सान नहीं हुआ जो तुम्हारी वजह से हो रहा है।’

‘क्या?’ मुनमुन अवाक रह गई।

‘हां, लोग अकसर हमें कचहरी में बताते रहते हैं कि तुम्हारी वजह से बांसगांव की लड़कियों की शादी कहीं नहीं तय हो पा रही। लोग बांसगांव का नाम सुनते ही बिदक जाते हैं। कहते हैं लोग अरे वहां की लड़कियां तो मुनमुन जैसी गुंडी होती हैं। अपने मर्द को पीटती हैं। उन से कौन शादी करेगा? लोग कहते हैं कि बांसगांव की लड़कियों के नाम से चनाजोर गरम बिकता है। ऐसी लड़कियों से शादी नहीं हो सकती।’

‘क्या कह रहे हैं बाबू जी आप?’

‘बेटी जो सुन रहा हूं वही बता रहा हूं।’ मुनक्का राय बोले, ‘बंद कर दो अब यह सब। तुम कंपटीशन की तैयारी करने वाली थी, वही करो। कुछ नहीं धरा-वरा इन बेवक़ूफ़ी की चीज़ों में। फिर तुम्हारे सामने तुम्हारी लंबी ज़िंदगी पड़ी है।’

‘कंपटीशन की तैयारी तो बाबू जी मैं कर ही रही हूं।’ मुनमुन बोली, ‘पर जो मैं कर रही हूं वह बेवक़ूफ़ी है, यह आप कह रहे हैं बाबू जी!’

‘हां, मैं कह रहा हूं।’ मुनक्का राय बोले, ‘यह बग़ावत, यह आदर्श सब किताबी और फ़िल्मी बातें हैं, वहीं अच्छी लगती हैं। असल जिंदगी में नहीं।’

‘क्या बाबू जी!’

‘ठीक ही तो कह रहा हूं।’ मुनक्का राय उखड़ कर बोले, ‘तुम्हारी बग़ावत के चलते तुम्हारे सारे भाई घर से बिदक गए। इस बुढ़ापे में बिना बेटों का कर दिया हमें तुम ने और तुम्हारी बग़ावत ने। हक़ीक़त तो यह है।’ वह ज़रा रुके और बोले, ‘हक़ीक़त तो यह है कि तुम्हारे चलते इस बुढ़ापे में भी संघर्ष करना पड़ रहा है। साबुन, तेल, दवाई तक के लिए तड़पना पड़ रहा है। लायक़ बेटों का बाप हो कर भी अभावों और असुविधा में जीना पड़ रहा है। तो सिर्फ़ तुम्हारी बग़ावत के चलते। तुम्हारी बग़ावत को समर्थन देने के चक्कर में।’

‘तो बाबू जी आप क्या चाहते हैं। कसाइयों के आगे घुटने टेक दूं? बढ़ा दूं अपनी गरदन उन के आगे कि लो मेरी बलि चढ़ा लो?’ मुनमुन बोली, ‘बोलिए बाबू जी, आप अगर यही चाहते हैं तो?’

मुनक्का राय कुछ बोले नहीं। चारपाई पर चद्दर ओढ़ कर लेट गए। मुनमुन बाबू जी के पैताने जा कर खड़ी हो गई। बोली, ‘ज़ाहिर है आप ऐसा नहीं चाहते। और मैं ऐसा करूंगी भी नहीं। आप चाहेंगे तो भी नहीं। मैं भले मर जाऊं इस तरह। पर हथियार डाल कर नहीं, लड़ते हुए मरना चाहूंगी। सारे कसाइयों को मार कर मरूंगी।’ अचानक वह रुकी फिर बोली, ‘और मरूंगी भी क्यों? मरें मेरे दुश्मन। मैं तो शान से जिऊंगी। जिस को जो कहना सुनना हो कहे सुने।’

फिर तैयार हो कर बाबू जी को सोता छोड़ वह स्कूल जाने के लिए बस स्टैंड पर आ गई। उधर सुनीता का पति घर जा कर सुनीता से तो कुछ नहीं बोला। पर शहर जा कर बेसिक शिक्षा अधिकारी के यहां मुनमुन की लिखित शिकायत कर आया। शिकायत में लिखा कि मुनमुन शिक्षामित्र की नौकरी करने के बजाय नेतागिरी कर रही है। और इस नेतागिरी की आड़ में तमाम औरतों को भड़का-भड़का कर उन के परिवार में विद्रोह करवा कर परिवार तोड़ रही है। नज़ीर के तौर पर उस ने अपना ही हवाला दिया था और लिखा था कि मुनमुन राय के हस्तक्षेप के चलते उस की बीवी भी नेता बनने की कोशिश कर रही है और मेरा घर टूट रहा है। उस ने यह भी लिखा था कि जिस औरत के नाम से चनाजोर गरम बिकेगा वह अपने स्कूल में भी क्या पढ़ाएगी? नेतागिरी ही करेगी। इस से बच्चों का भविष्य ख़राब होगा।

उस ने अपने लंबे से शिकायती पत्र के अंत में यह भी ख़ुलासा किया था कि इसी नेतागिरी के चक्कर में मुनमुन ने अपना परिवार भी तोड़ दिया है और कि अपने पति का घर छोड़ कर अपने बाप के घर रह रही है। यहां तक कि अपने गांव में रहने के बजाय बांसगांव में रहती है। स्कूल जाने की बजाय क्षेत्र की औरतों को भड़का कर नेतागिरी कर रही है। सो इस पूरे प्रकरण की उच्च स्तरीय जांच करवा कर मुनमुन राय को शिक्षामित्र की नौकरी से तत्काल बर्खास्त करने की अपील भी की थी सुनीता के पति ने। उस ने शिकायती पत्र में यह बात भी जोड़ी थी कि मुनमुन राय अपने भाइयों के ऊंचे ओहदों पर बैठे होने की भी सब को धौंस देती रहती है कि मेरे भाई जज और कलक्टर हैं। वग़ैरह-वग़ैरह। और यह भी कि वह एक नंबर की चरित्रहीन भी है। बाप वकील है। इस लिए उसका कोई कुछ बिगाड़ नहीं पाता। लेकिन अगर शिक्षा विभाग ने उस की हरकतों पर अंकुश नहीं लगाया तो बांसगांव इलाक़े के समाज में किसी दिन ऐसा भूकंप आएगा कि संभाले नहीं संभलेगा।

सुनीता के पति के इस शिकायती पत्र ने रंग दिखाया और बेसिक शिक्षा अधिकारी ने ख़ुद ही इस प्रकरण की जांच करने की सोची। चूंकि मुनमुन राय शिक्षामित्र थी, नियमित शिक्षिका नहीं थी सो कोई नोटिस देने के बजाय उस ने पी.ए. से फ़ोन करवा कर मुनमुन राय को मिलने के लिए बुलवाया। मुनमुन गई तो बेसिक शिक्षा अधिकारी ने उसे एक घंटा बाहर ही बैठाए रखा। फिर बुलवाया। तब तक मुनमुन इंतज़ार में बैठे-बैठे पक चुकी थी। दूसरे घर से खाना खा कर नहीं गई थी। सो भूख भी ज़ोर मार रही थी। वह अंदर जा कर खड़ी हो गई। और बोली, ‘सर!’

‘तो तुम्हीं मुनमुन राय हो?’

‘हूं तो!’

‘गांव में रहने के बजाय बांसगांव में रहती हो?’

‘जी सर, गांव वाला घर गिर गया है। बांसगांव में माता-पिता जी के साथ रहती हूं।’

‘शादी हो गई है?

‘जी सर!’ वह ज़रा रुकी और धीरे से बोली, ‘पर टूट चुकी है।’

‘क्यों?’

‘सर! यह हमारा व्यक्तिगत मामला है। आप इस बारे में कुछ न ही पूछें तो उचित होगा।’

‘अच्छा?’ बेसिक शिक्षा अधिकारी ने उसे तरेरते हुए पूछा, ‘तुम्हारा व्यक्तिगत व्यक्तिगत है, और किसी दूसरे का व्यक्तिगत व्यक्तिगत नहीं हो सकता है?’

‘सर मैं समझी नहीं।’ मुनमुन बोली, ‘ज़रा इस बात को स्पष्ट कर के बता दें!’

‘तुम्हारे खि़लाफ शिकायत आई है कि तुम स्कूल में पढ़ाने के बजाय नेतागिरी करती हो। क्षेत्र की औरतों को भड़का कर उन का परिवार तोड़ती हो! अपनी नेतागिरी चमकाती हो!’

‘जिस भी किसी ने यह शिकायत की है सर, ग़लत की है। स्कूल मैं नियमित जाती हूं। हस्ताक्षर पंजिका मंगवा कर आप देख सकते हैं। विद्यार्थियों से, गांव वालों से और स्टाफ़ से दरिया़त कर सकते हैं। मैं नियमित और समय से स्कूल जाती हूं। और कि कहीं कोई नेतागिरी नहीं करती हूं। किसी का परिवार नहीं तोड़ा है। अगर कोई ऐसा कहता है तो उसे पेश किया जाए।’ मुनमुन राय पूरी सख़्ती से बोली।

‘सुना है तुम्हारे नाम से चनाजोर गरम बिकता है।’

‘मैं यह व्यवसाय नहीं करती सर!’

‘जो बात पूछी जाए उस का सीधा जवाब दो!’

‘किस बात का सीधा जवाब दूं?’

‘यही कि तुम्हारे नाम से चनाजोर गरम बिकता है?’

‘मैं ने आप को पहले ही बताया कि यह या ऐसा कोई व्यवसाय मैं नहीं करती!’ मुनमुन ज़रा रुकी और बेसिक शिक्षा अधिकारी को तरेर कर देखती हुई बोली, ‘अगर आप इजाज़त दें तो मैं बैठ जाऊं? बैठ कर आप के सवालों का जवाब दूं?

‘हां, हां बैठ जाओ!’

‘थैंक यू सर!’ कह कर मुनमुन बैठ गई। उस के बैठते ही बेसिक शिक्षा अधिकारी के फ़ोन पर किसी का फ़ोन आ गया। वह फ़ोन पर बतियाने लगा। इधर मुनमुन पशोपेश में थी कि आखि़र किस ने उस की शिकायत की होगी? कहीं भइया लोगों में से ही तो किसी ने शिकायत नहीं कर दी उस की? यही सोच कर वह शुरू से ही मारे संकोच के भइया लोगों का नाम भी नहीं ले रही थी। फ़ोन पर बेसिक शिक्षा अधिकारी की बातचीत संक्षिप्त ही थी। बात ख़त्म करते ही उस ने मुनमुन की ओर बिलकुल पुलिसिया अंदाज़ में देखा जैसे कि मुनमुन कितनी बड़ी चोर हो और कि उस की पकड़ में आ गई हो। देखते हुए ही वह बोला, ‘तो?’

‘जी?’ मुनमुन बोली, ‘क्या?’

‘तो तुम्हें इस शिकायत का क्या दंड दिया जाए?’

‘किस शिकायत का?’

‘जो मेरे पास आई है!’

‘मुझे मालूम तो पड़े कि मेरे खि़लाफ शिकायत क्या है? शिकायतकर्ता कौन है?’ वह बोली, ‘फिर जो आरोप सिद्ध हो जाते हैं तो जो भी विधि सम्मत कार्रवाई हो आप करने के लिए स्वतंत्र हैं।’

‘क़ानून मत छांटो!’ बेसिक शिक्षा अधिकारी गुरेरते हुए बोला, ‘जानता हूं कि वकील की बेटी हो।’

‘वकील की बेटी ही नहीं, न्यायाधीश की बहन भी हूं। मेरे एक भाई प्रशासन में भी हैं।’ मुनमुन अब पूरे फ़ार्म पर आ गई, ‘आप अंधेरे में तीर चला कर कार्रवाई करना चाहते हैं तो बेशक करिए।’ वह ज़रा रुकी और बेसिक शिक्षा अधिकारी को उसी की तरह तरेरती हुई अपना हाथ दिखाती हुई बोली, ‘यह देखिए कि मैं ने भी कोई चूड़ियां नहीं पहन रखी हैं।’

‘अरे तुम तो सिर पर चढ़ती जा रही हो?’

‘सिर पर नहीं चढ़ रही, साफ़ बात कर रही हूं।’ वह बोली, ‘मेरे खि़लाफ जो भी शिकायत हो मुझे लिखित रूप में दे दीजिए। मैं लिखित जवाब दे दूंगी। फिर आप को जो कार्रवाई करनी हो कर लीजिएगा।’

‘तो अपने भाइयों का धौंस दे रही हो?’

‘जी नहीं सर!’ वह बोली, ‘मैं ने अपने भाइयों का ज़िक्र किया। वह भी तब जब आप ने मुझे वकील की बेटी कहा। तो मैं ने प्रतिवाद में यह कहा।’

‘अच्छा-अच्छा!’ बेसिक शिक्षा अधिकारी नरम पड़ता हुआ बोला, ‘जब तुम्हारे भाई लोग उच्च पदों पर आसीन हैं तो तुम शिक्षामित्र की नौकरी क्यों कर रही हो?’

‘इस लिए कि मैं स्वाभिमानी हूं।’ वह ज़रा रुकी और बोली, ‘आप तो शिक्षामित्र की नौकरी को ऐसे उद्धृत कर रहे हैं जैसे शिक्षामित्र न हो चोर हो।’

‘नहीं-नहीं ऐसी बात तो नहीं कही मैं ने।’ वह अब बचाव में आ गया।

‘सर, आप को बताऊं कि मेरे एक भइया बैंक में मैनेजर हैं और एक एन.आर.आई भी हैं तो भी मैं शिक्षामित्र की नौकरी कर रही हूं। और यह कोई आखि़री नौकरी नहीं है।’ वह ज़रा रुकी और बोली, ‘मैं कंपटीशंसन की तैयारी कर रही हूं। जल्दी ही किसी अच्छी जगह भी आप को दिख सकती हूं।’

‘यह तो बहुत अच्छी बात है।’ अधिकारी बोला, ‘तो फिर बेवजह के कामों में क्यों लगी पड़ी हो?’ अधिकारी का सुर अब पूरी तरह बदल गया था। सुनीता के पति का शिकायती पत्र दिखाता हुआ वह बोला, ‘कि ऐसी शिकायतों की नौबत आए!’

‘यह शिकायती पत्र मैं भी देख सकती हूं सर!’

‘हां-हां क्यों नहीं?’ कह कर उस ने वह शिकायती पत्र मुनमुन की तरफ़ बढ़ा दिया।

मुनमुन ने बड़े ध्यान से वह पत्र देखा फिर पढ़ने लगी। पढ़ कर बोली, ‘आप भी सर, इस पियक्कड़ की बातों में आ गए?’

‘नहीं आरोप तो है!’

‘ख़ाक आरोप है।’ वह बोली, ‘एक आदमी आपनी बीवी की कमाई से शराब पी कर उस की पिटाई करता है। बीवी उस पर लगाम लगाती है तो वह ऊल जलूल शिकायत करता है। और हैरत यह कि आप जैसे अफ़सर उस की शिकायत सुन भी लेते हैं!’

‘अब कोई शिकायत आएगी तो सुननी तो पड़ेगी।’

‘तो सर सुनिए!’ वह बोली, ‘एक तो यह शिकायत मेरे शिक्षण कार्य के बाबत नहीं है। शिक्षाणेतर कार्यों के लिए है। और आप को बताऊं कि मैं शिक्षामित्र हूं। और किसी शिक्षक का काम सिर्फ़ उस के स्कूल तक ही सीमित नहीं होता। समाज के प्रति भी उस का कुछ दायित्व होता है। और मैं इस दायित्व को भी निभा रही हूं। अपनी सताई हुई बहनों को स्वाभिमान और सुरक्षा का स्वर दे रही हूं कि वह अन्याय बर्दाश्त करने के बजाय उस का प्रतिकार करें, डट कर मुक़ाबला करें और पूरी ताक़त से उस का विरोध करें। और इस के लिए एक नहीं हज़ार शिकायतें आएं मैं रुकने वाली नहीं हूं।’

बेसिक शिक्षा अधिकारी हकबक हो कर मुनमुन को देखने लगा।

‘और सर, आप जो यह चाहते हैं कि मैं स्कूल में बच्चों को मिड डे मील के पकाने और बंटवाने में ज़िंदगी ज़ाया करूं तो क्षमा कीजिए यह नहीं करने वाली।’ वह बोलती रही, ‘अब तो अख़बारों में भी स्कूलों में बंटने वाले मिड डे मील के बारे में ही ख़बरें छपती हैं। कि मिड डे मील घटिया था। कि मिड डे मील किसी दलित महिला के बनाने से सवर्ण बच्चों ने नहीं खाया वग़ैरह-वग़ैरह। यह ख़बर नहीं छपती कि अब इन स्कूलों में शिक्षक नहीं हैं। कि इन स्कूलों में अब पढ़ाई नहीं होती। कि इन स्कूलों में छात्र ही नहीं हैं। कि इन स्कूलों में पंद्रह-बीस बच्चों को मिड डे मील खिला कर सौ-दो सौ बच्चों को मिड डे मील खिलाना काग़ज़ों में दर्ज हो जाता है। कि शिक्षा विभाग और प्रशासन के अधिकारी स्कलों में यह जांच करने आते हैं कि मिड डे मील का वितरण ठीक से हो रहा है कि नहीं। और इस में उन का हिस्सा उन को ठीक से पहुंच रहा है कि नहीं? अधिकारी भूल कर भी यह नहीं जांचने आते कि इन स्कूलों में पठन-पाठन का स्तर क्या है और कि इस की बेहतरी में उन का क्या योगदान हो सकता है?’

‘अरे तुम तो पूरा भाषण ही देने लग गई। वह भी मेरे ही खि़लाफ़। मेरे ही चैंबर में।’ बेसिक शिक्षा अधिकारी खिन्न हो कर बोला।

‘भाषण नहीं दे रही सर, आप को वास्तविकता बता रही हूं। कि प्राथमिक स्कूलों में अब दो ही काम रह गया है कि मिड डे मील पकवाओ और स्कूल की बिल्डिंग बनवाओ! मतलब येन केन प्रकारेण धन कमाओ! बताइए भला शिक्षक का काम है स्कूल बिल्डिंग बनवाना या इंजीनियर का? यह तो शासन प्रशासन को सोचना समझना चाहिए?’ वह बोली, ‘ट्रांसफ़र पोस्टिंग का धंधा तो आप भी जानते होंगे? सर आप ही बताइए हम अपने नौनिहालों को कौन सी शिक्षा दे रहे हैं?’

‘तुम तो बोले ही जा रही हो!’

‘हां सर, बोल तो रही हूं।’ वह बोली, ‘आप ने वह पुराना गाना तो सुना ही होगा कि इंसाफ़ की डगर पे, बच्चों दिखाओ चल के, यह देश है तुम्हारा नेता तुम्हीं हो कल के!’

‘ओह अब तुम जाओ!’

‘जा रही हूं सर, पर सोचिएगा कभी और पूछिएगा अपने आप से अकेले में कभी कि इस गाने का हम ने आप ने, हमारे समाज और सिस्टम ने क्या कर डाला? सोचिएगा ज़रूर सर!’ कह कर मुनमुन राय बेसिक शिक्षा अधिकारी के कमरे से बाहर निकल गई।

‘आप ने भी सर, किस को बुला लिया था? पूरा का पूरा बर्रइया का छत्ता है यह। चनाजोर गरम इस के नाम से ऐसे ही थोड़े बिकता है।’ बड़े बाबू कुछ फ़ाइलें लिए बेसिक शिक्षा अधिकारी के कमरे में घुसते हुए बोले।

‘हां, पर बात कुछ बहुत ग़लत कह भी नहीं रही थी।’ बेसिक शिक्षा अधिकारी बोले, ‘बड़े बाबू ध्यान रखिएगा यह लड़की कभी बहुत आगे निकल जाएगी!’

‘सो तो है साहब!’

‘हां, यह शिक्षामित्र ज़्यादा दिनों तक नहीं रहने वाली।’ अधिकारी बोले, ‘इतनी निडर लड़की मैं ने पहले नहीं देखी। सोचिए बड़े बाबू कि उस को जांच के लिए बुलाया था, उस की नौकरी जा सकती थी पर वह तो हमीं को लेक्चर पिला गई।’

‘अरे तो अनुशासनहीनता के आरोप में ससुरी की छुट्टी कर दीजिए। भूल जाएगी सारी नेतागिरी!’

‘अरे नहीं, भाई सब इस के उच्च पदों पर हैं। कहीं लेने के देने न पड़ जाएं। चनाजोर गरम वैसे ही बिकवा रही है, हम सब को भी बिकवा देगी।’

‘हां, साहब सब इस को बांसगांव की मरदानी-रानी भी कहते हैं।’

‘तो?’ बेसिक शिक्षा अधिकारी बोला, ‘जाने दो। जो वह कर रही है उसे करने दो।’

‘जी साहब!’

मुनमुन भी बेसिक शिक्षा अधिकारी के कार्यालय से निकल कर बस स्टैंड आई। बस पकड़ कर बांसगांव आ गई। घर पहुंची तो पास के गांव के एक बाप बेटी आए हुए थे। बेटी को उस के पति ने शादी के ह़फ्ते भर में ही उस से किनारा कर लिया और मार पीट, हाय तौबा कर के छह महीने में ही घर से बाहर कर दिया था। उस का क़सूर सिर्फ़ इतना ही था कि उस के बाएं हाथ की दो अंगुलियां कटी हुईं थीं। बचपन में ही चलती चारा मशीन में खेल-खेल में हाथ डालने से अंगुलियां कट गई थीं।

‘तो शादी के पहले ही यह बात लड़के वालों को बता देनी थी।’ मुनमुन लड़की का हाथ अपने हाथ में ले कर उस की अंगुलियां देखती हुई बोली, ‘यह कोई छुपाने वाली बात तो थी नहीं।’

‘छुपाए भी नहीं थे।’ लड़की का पिता बोला, ‘शादी के पहले ही बता दिया था।’

‘तब क्यों छोड़ दिया?’

‘अब यही तो समझ में नहीं आ रहा।’ लड़की का पिता बोला, ‘अब वो लोग कह रहे हैं कि शादी के पहले अंधेरे में रखा।’

‘तो अब क्या इरादा है?’

‘यही तो बहिनी आप से पूछने आए हैं कि क्या करें?’

‘जो लोग शादी में मध्यस्थता किए थे, उन को बीच में डालिए। कुछ रिश्तेदारों को बीच में डालिए। समझाएं लोग उन सब को। शायद मान जाएं।’

‘यह सब कर के हार गए हैं।’ लड़की का पिता बोला, ‘हम यह भी कहे कि हम लोग ब्राह्मण हैं, लड़की की दूसरी शादी भी नहीं कर सकते। लड़के और लड़के के बाप के पैरों पर अपना सिर रख कर प्रार्थना की। पर सब बेकार गया।’ कह कर वह बिलखने लगा।

‘तो अब?’

‘हमारी तो कुछ अक़ल काम नहीं कर रही बहिनी! तो अब आप की शरण में आ गए हैं।’

‘फिर तो थाना पुलिस, कचहरी वकील करना पड़ेगा। बोलिए तैयार हैं?’

‘ई सब के बिना काम नहीं चलेगा?’ वह जैसे घिघियाया।

‘देखिए जिस की आंख का पानी मर जाए, समाज की शर्म को जो पी जाए, घर परिवार और रिश्तों की मर्यादा जो भूल जाए, ऐसी फूल सी लड़की के साथ जो कांटों सा अमानवीय व्यवहार करे उस के साथ क़ानून का डंडा चलाने में गुरेज़ करना, अपने साथ छल करना है, आत्मघात करना है।’

‘फिर भी वह लोग इसे न रखें तब?’

‘वहां रखने की इसे अब कोई ज़रूरत भी नहीं है।’ मुनमुन बोली, ‘उन सब को सबक़ सिखाइए और इस की दूसरी शादी की तैयारी करिए।’

‘दूसरी शादी?’ पिता की घिघ्घी बंध गई। उस ने फिर दुहराया, ‘हम लोग ब्राह्मण हैं।’ वह ज़रा रुका और फिर बुदबुदाया, ‘कौन करेगा शादी? और फिर लोग-बाग क्या कहेंगे?’

‘कुछ नहीं कहेंगे।’ मुनमुन बोली, ‘बेटी जब आप की सुख से रहने लगेगी तो सब के मुंह सिल जाएंगे। हां, अगर रोज़ ऐसे ही छोड़-पकड़ लगी रहेगी तो ज़रूर सब के मुंह खुले रहेंगे। अब आप सोच लीजिए कि क्या करना है आप को?’ वह बोली, ‘जल्दबाज़ी में कोई निर्णय मत लीजिए। अभी घर जाइए। सोचिए-विचारिए। और घर में पत्नी से, बेटी से, परिजनों से विचार विमर्श करिए। ठंडे दिमाग़ से। दो-चार-दस दिन में आइए। फिर फ़ैसला करते हैं कि क्या किया जाए?’

‘ठीक बहिनी!’ कह कर वह बेटी को ले कर चला गया। दो दिन बाद फिर वह आया। बेटी को साथ ले कर। और मुनमुन से बोला, ‘हम ने फ़ैसला कर लिया है। अब आप जो कहिए, जैसे कहिए हम सब कुछ करने को तैयार हैं।’

‘अच्छी बात है।’ मुनमुन उस की बेटी की तरफ़ देखती हुई बोली, ‘क्या तुम भी तैयार हो?’

पर वह कुछ बोली नहीं। चुपचाप कुर्सी पर बैठी नीचे की ज़मीन पैर के अंगूठे से कुरेदती रही। ऐसे गोया कुछ लिख रही हो पैर के अंगूठे से।

‘पैर के अंगूठे से नहीं, हौसले से अपनी क़िस्मत लिखनी होती है।’ मुनमुन बोली, ‘अगर तुम तैयार हो तो स्पष्ट रूप से हां कहो और नहीं हो तो ना कहो। बिना तुम्हारी मंज़ूरी या मर्ज़ी के कुछ नहीं करने वाली मैं।’

वह फिर चुप रही। हां, अंगूठे से ज़मीन कुरेदना बंद कर दिया था उस ने।

‘तो तैयार हो?’ मुनमुन ने अपना सवाल फिर दुहराया।

‘जी दीदी!’ वह धीरे से बोली।

‘तो चलो फिर थाने चलते हैं।’ वह ज़रा रुकी और बोली, ‘पर पहले एक वकील पकड़ना पड़ेगा।’

‘वह किस लिए?’ लड़की के पिता ने अचकचा कर पूछा।

‘एफ़.आई.आर. का ड्रा़ट लिखवाने के लिए।’

‘तो वकील तो पैसा लेगा।’

‘हां लेगा तो।’ मुनमुन बोली, ‘पर ज़्यादा नहीं।’

‘पर मैं तो अभी किराया भाड़ा छोड़ कर कुछ ज़्यादा पैसा लाया नहीं हूं।’

‘कोई बात नहीं।’ मुनमुन बोली, ‘वकील को पैसे बाद में दे दीजिएगा। अभी सौ पचास रुपए तो होगा ही, वह टाइपिंग के लिए दे दीजिएगा।’

‘ठीक है!’

वकील के पास जा कर पूरा डिटेल बता कर, नमक मिर्च लगा कर एफ़.आई.आर. की तहरीर टाइप करवा कर मुनमुन बाप बेटी को ले कर थाने पहुंची। थाने वाले ना नुकुर पर आए तो वह बोली, ‘क्या चाहते हैं आप लोग सीधे डी.एम. या एस.एस.पी से मिलें इस के लिए? या थ्रू कोर्ट आर्डर करवाएं?’ वह बोली, ‘एफ़.आई.आर. तो आप को लिखनी ही पड़ेगी। चाहे अभी लिखें या चार दिन बाद!’

अब थानेदार थोड़ा घबराया और बोला, ‘ठीक है तहरीर छोड़ दीजिए। जांच के बाद एफ़.आई.आर. लिख दी जाएगी।’

‘और जो एफ़.आई.आर. लिख कर जांच करिएगा तो क्या ज़्यादा दिक्क़त आएगी?’ मुनमुन ने थानेदार से पूछा।

‘देखिए मैडम हमें हमारा काम करने दीजिए!’ थानेदार ने फिर टालमटोल किया।

‘आप से फिर रिक्वेस्ट कर रहे हैं कि एफ़.आई.आर. दर्ज कर लीजिए। मामला डावरी एक्ट का है। इस में आप की भी बचत ज़्यादा है नहीं। और जो नहीं लिखेंगे अभी एफ़.आई.आर. तो इसी वक्त शहर जा कर डी.एम. और एस.एस.पी. से मिल कर आप की भी शिकायत करनी पड़ेगी। आप का नुक़सान होगा और हमारी दौड़ धूप बढ़ेगी बस!’ थानेदार मान गया। रिपोर्ट दर्ज हो गई। लड़की के ससुराल पक्ष का पूरा परिवार फ़रार हो गया। घर में ताला लगा कर जाने कहां चले गए सब। रिश्तेदारी, जान-पहचान सहित तमाम संभावित ठिकानों पर छापा डाला पुलिस ने। पर कहीं नहीं मिले सब। महीना बीत गया। महीने भर बाद ही पारिवारिक अदालत में मुनमुन ने लड़की की ओर से गुज़ारा भत्ता के लिए भी मुक़दमा दर्ज करवा दिया। अब ससुराल पक्ष की ओर से एक वकील मिला बाप बेटी से। वकील ने लड़की के पिता से कहा कि, ‘सुलहनामा कर लो और वह लोग तुम्हारी बेटी को विदा करा ले जाएंगे।’

लड़की के पिता ने मुनमुन से पूछा कि, ‘क्या करें?’

‘करना क्या है?’ वह बोली, ‘मना कर दीजिए। और कोई बात मत कीजिए। अभी जब कुर्की की नौबत आएगी तब पता चलेगा। देखें, कब तक सब फ़रार रहते हैं।’

‘पर वह लोग बेटी को विदा कराने के लिए तैयार हैं।’

‘कुछ नहीं। यह मजबूरी की पैंतरेबाज़ी है। कुछ भी कर लीजिए वहां अब आप की बेटी जा कर कभी ख़ुश नहीं रह पाएगी।’

‘क्यों?’

‘क्यों कि गांठ अब बहुत मोटी पड़ गई है।’ मुनमुन बोली, ‘थोड़े दिन और सब्र कीजिए। और दूसरे विवाह के लिए रिश्ता खोजिए। इन सब को भूल जाइए।’

और अंततः सुलहनामा हुआ। मुनमुन के कहे मुताबिक़ लड़की के पिता ने दस लाख रुपए बतौर मुआवजा मांगा। बात पांच लाख पर तय हुई। दोनों के बीच तलाक़ हो गया। लड़की के पिता ने इस पांच लाख रुपए से लड़की की दूसरी शादी कर दी। लड़की के बारे में सब कुछ पहले से बता दिया। कटी अंगुली से लगायत पूर्व विवाह तक। कोई बात छुपाई नहीं। एक दिन लड़की अपने दूसरे पति के साथ मुनमुन से मिलने आई। लिपट कर रो पड़ी। मुनमुन भी रोने लगी। यह ख़ुशी के आंसू थे। बाद में लड़की बोली, ‘दीदी आप ने मुझे नरक से निकाल कर स्वर्ग में बिठा दिया। ये बहुत अच्छे हैं। मुझे बहुत मानते हैं।’ फिर उस ने धीरे से जोड़ा, ‘दीदी अब आप भी शादी कर लीजिए!’

मुनमुन चुप रह गई। कुछ देर तक दोनों चुप रहीं। और वो जो कहते हैं न कि इतिहास जैसे अपने को दुहरा रहा था। मुनमुन कुर्सी पर बैठे-बैठे पैर के अंगूठे से नीचे की मिट्टी कुरेद रही थी।

‘दीदी बुरा न मानिए तो एक बात कहूं?’ चुप्पी तोड़ती हुई लड़की बोली।

‘कहो।’ मुनमुन धीरे से बोली।

‘छोटा मुंह और बड़ी बात!’ लड़की बोली, ‘पर दीदी आप ने ही एक बार यहीं बैठे-बैठे मुझ से कहा था कि पैर के अंगूठे से नहीं, हौसले से अपनी क़िस्मत लिखनी होती है!’

‘अच्छा-अच्छा!’ कह कर मुनमुन धीरे से मुसकुराई।

‘तो दीदी आप भी शादी कर लीजिए!’ लड़की ने जैसे मनुहार की।

‘अब मेरे नसीब में जाने क्या लिखा है मेरी बहन!’ कह कर उस लड़की को पकड़ कर वह फफक पड़ी, ‘समझाना आसान होता है, समझना मुश्किल!’ कह कर वह उन दोनों से हाथ जोड़ती हुई, रोती हुई घर के भीतर चली गई। रोना घोषित रूप से छोड़ देने के बाद आज मुनमुन पहली बार ही रोई थी। सो ख़ूब रोई। बड़ी देर तक। तकिया भीग गया। जल्दी ही मुनमुन फिर रोई। चनाजोर गरम बेचने वाले तिवारी जी का निधन हो गया था। वह पता कर के उन के घर गई और तिवारी जी की विधवा वृद्धा पत्नी के विलाप में वह भी शामिल हो गई। फिर बड़ी देर तक रोई। तिवारी जी ने उस के नाम से चनाजोर गरम बेच कर जो मान, स्वाभिमान और आन बख़्शा था, वह उस की ज़िंदगी का संबल बन गया था, यह बात वह तिवारी जी के निधन के बाद उन के घर जा कर महसूस कर पाई। शायद इसी लिए उस का रुदन श्रीमती तिवारी के रुदन में अनायास मिल गया था। ऐसे जैसे छलछलाती यमुना गंगा से जा मिलती है। मिल कर शांत हो जाती है। फिर साथ-साथ बहती हुई एकमेव हो गंगा बन जाती है। और वो जो कहते हैं न कि पाट नदी का यमुना की वजह से चौड़ा होता है, पर नाम गंगा का होता है। तो यहां भी बाद में रोई ज़्यादा मुनमुन पर श्रीमती तिवारी का विलाप सब ने ज़्यादा सुना। गंगा के पाट और श्रीमती तिवारी के विलाप का यह एकमेव संयोग भी जाने क्यों मुनमुन का रुदन नहीं रोक पा रहा था। घर में तो तकिया भीग गया था। पर यहां क्या भीगा? क्या यह बहुत दिनों तक मुनमुन के नहीं रोने की ज़िद थी? कि सावन भादो में सूखा पड़ा था और क्वार कार्तिक में बाढ़ आ गई। इतनी कि बांध टूट गया! यह कौन सा मनोभाव था?

समझा रही हैं मुनमुन की अम्मा भी मुनमुन को कि, ‘अब तुम या तो अपनी ससुराल जाने का मन बनाओ और जाओ। और जो वहां न जाने की ज़िद है तो दूसरा विवाह ढूंढ कर कर लो। इस-उस के साथ घूमने से तो यही अच्छा है!’

‘क्या करें अम्मा!’ मुनमुन कहती है, ‘साथ घूमने-सोने के लिए तो सभी तैयार रहते हैं हमेशा! पर शादी के लिए कोई नहीं।’ वह जोड़ती है, ‘इस के लिए तो सब को दहेज चाहिए!’

‘तो दूसरों को दहेज बटोरने का टोटका बता सकती हो। दहेज का मुक़दमा लिखवा कर, गुज़ारा भत्ता का मुक़दमा लिखवा कर लाखों का मुआवज़ा दिलवा कर दहेज जुटा कर दूसरी शादी का रास्ता सुझा सकती हो तो ख़ुद अपने लिए यह रास्ता क्यों नहीं अख़्तियार कर सकती हो?’

‘इस लिए नहीं कर सकती अम्मा कि यह सब कर के मैं अपने तौर पर उस शादी को मान्यता दे बैठूंगी जिस को कि मैं शादी नहीं मानती!’ मुनमुन कहती है, ‘मैं यह नहीं करने वाली!’

‘लोग बदल गए, चीज़ें बदल गईं। तुम्हारे सब भाई तक बदल गए। पर तुम और तुम्हारे बाबू जी नहीं बदले।’

‘ऐसे तो बदलेंगे भी नहीं अम्मा।’ वह बोली, ‘कि बेबात सब के आगे घुटने टेक देंगे। स्वाभिमान और आन गिरवी रख देंगे? हम इस तरह तो नहीं बदलेंगे अम्मा!’

क्यों नहीं बदलती मुनमुन? और उस के बाबू जी! यह एक नहीं, अनेक जन का यक्ष प्रश्न है! घनश्याम राय का भी यह प्रश्न है। भले ही वह इस प्रश्न का उत्तर भी साथ ले कर घूमने लगे हैं। जैसे कि कहीं बात चली कि, ‘आप का लड़का जब लुक्कड़, पियक्कड़ और पागल है तो मुनमुन जैसी लड़की कैसे रह सकती है उस के साथ?’ तो घनश्याम राय का जवाब था कि, ‘लड़का हमारा पागल और पियक्कड़ है। मैं तो नहीं। मैं रख लूंगा मुनमुन को। दिक्क़त क्या है?’

सवाल करने वाला शर्मिंदा हो गया पर घनश्याम राय नहीं। सवाल करने वाले ने टोका भी कि, ‘क्या कह रहे हैं राय साहब, बहू भी बेटी समान होती है।’

‘तो?’ घनश्याम राय ने तरेरा।

घनश्याम राय का यह जवाब बड़ी तेज़ी से सब तक पहुंचा। मुनमुन तक भी। सुन कर वह बोली, ‘मैं शुरू से ही जानती हूं कि वह कुत्ता है। अघोड़ी है।’

फिर उस ने घनश्याम राय को फ़ोन कर उन की जितनी लानत-मलामत कर सकती थी किया। और कहा कि, ‘आइंदा जो ऐसी वैसी बात कही तो तुम्हारे बेटे को तो अपने दरवाज़े पर जुतियाया था, तुम्हें तुम्हारे दरवाज़े पर ही जुतियाऊंगी!’

‘इतनी हिम्मत हो गई है तेरी!’ घनश्याम राय ने हुंकार तो भरी पर डर भी गए और फ़ोन काट दिया।

फिर एक वकील से मशविरा किया। और मुनमुन की विदाई के लिए मुक़दमा दायर कर दिया। मुनमुन को जब इस मुक़दमे का सम्मन मिला तो वह मुसकुराई। वकील की बेटी थी सो तुरंत जवाब दाखिल करने के बजाय तारीख़ें लेने लगी। तारीख़ों और आरोपों के ऐसे मकड़जाल में उसने घनश्याम राय को उलझाया कि वह हताश हो गए। मुनमुन कचहरी में घनश्याम राय और उस के बेटे राधेश्याम राय को ऐसे तरेर कर देखती कि दोनों भाग कर अपने वकील के पीछे छुप जाते। कि कहीं मुनमुन भरी कचहरी में पीट न दे। लेकिन मुनमुन का सारा जोश, सारी बहादुरी घर में आ कर दुबक जाती। अम्मा तो पहले ही कंकाल बन कर रह गई थीं, बाबू जी भी कंकाल बनने की राह पर चल पड़े थे। कंधा और कमर भी उन की थोड़ी-थोड़ी झुकने लगी थी। चेहरा पिचक गया था। एक तो मुनमुन की चिंता, दूसरे बेटों की उपेक्षा, तीसरे विपन्नता और बीमारी ने उन्हें झिंझोड़ कर रख दिया था। यह सब देख कर मुनमुन भी टूट जाती। इतना कि अब वह मीरा बनना चाहती थी। ख़ास कर तब और जब कोई अम्मा बाबू जी से पूछता, ‘जवान बेटी कब तक घर में बिठा कर रखेंगे?’

वह मीरा बन कर नाचना चाहती है। मीरा के नाच में अपने तनाव, अपने घाव, अपने मनोभाव को धोना चाहती है। नहीं धुल पाता यह सब कुछ। वह अम्मा बाबू जी दोनों को ले कर अस्पताल जाती है। दोनों ही बीमार हैं। डाक्टर भर्ती कर लेते हैं। एक वार्ड में बाबू जी, एक वार्ड में अम्मा। वह चाहती है कि दोनों को एक ही वार्ड मिल जाता तो अच्छा था। डाक्टरों से कहती भी है। पर डाक्टर मना कर देते हैं कि पुरुष वार्ड में पुरुष, स्त्री वार्ड में स्त्री। अब उस के अम्मा बाबू जी पुरुष और स्त्री में तब्दील हैं। तो वह ख़ुद क्या है? वह सोचती है। सोचते-सोचते सुबकने लगती है। हार कर रीता दीदी को फ़ोन कर के सब कुछ बताती है। बताती है कि, ‘अकेले अब वह सब कुछ नहीं संभाल पा रही है। पैसे भी नहीं हैं अब।’

‘भइया लोगों को बताया?’ रीता ने पूछा।

‘मैं भइया लोगों को बताने वाली भी नहीं रीता दीदी। तुम्हें जाने कैसे बता दिया। और अब मेरे फ़ोन में पैसा भी ख़त्म होने वाला है। बात करते-करते कभी भी बात कट सकती है!’

‘ठीक है तुम रखो मैं मिलाती हूं।’ रीता बोली।

लेकिन फिर रीता का फ़ोन नहीं आया। मुनमुन ही अम्मा बाबू जी को ले कर वापस घर आती है। स्कूल के हेड मास्टर ने मदद की है। पैसे से भी और अस्पताल से आने में भी। घर आ कर बाबू जी पूछ रहे हैं आंख फैला कर मुनमुन से, ‘बेटी ऐसा कब तक चलेगा भला?’

‘जब तक चल सकेगा चलाऊंगी। पर अगर आप चाहते हैं कि अन्यायी और अत्याचारी के आगे झुक जाऊं, तो मैं हरगिज़ झुकूंगी नहीं। चाहे जो हो जाए!’ कह कर वह किचेन में चली गई। चाय बनाने।

बिजली चली गई है। वह किचेन से देख रही है आंगन में चांदनी उतर आई है। वह फुदक कर आंगन में आ जाती है, चांदनी में नहाने। ऐसे जैसे वह कोई मुनमुन नहीं गौरैया हो! उधर किचेन में भगोने में चाय उबल रही है और वह सोच रही है कि सुबह सूरज उगेगा तो वह क्या तब भी ऐसे ही नहाएगी सूरज की रोशनी में, जैसे चांदनी में अभी नहा रही है। उधर चांदनी में नहाती अपनी बिटिया को देख कर श्रीमती मुनक्का राय के मन में उस के बीते दिन, बचपन के दिन तैरने लगे हैं किसी सपने की तरह और वह गाना चाह रही हैं मेरे घर आई एक नन्हीं परी, चांदनी के हसीन रथ पे सवार! पर वह नहीं गा पातीं। न मन साथ देता है, न आवाज़! वह सो जाती हैं। किचेन में चाय फिर भी उबल रही है!

और यह देखिए सुबह का सूरज सचमुच मुनमुन के लिए खुशियों की कई किरन ले कर उगा। अख़बार में ख़बर छपी थी कि सभी शिक्षा मित्रों को ट्रेनिंग दे कर नियमित किया जाएगा। दोपहर तक डाकिया एक चिट्ठी दे गया। चिट्ठी क्या पी. सी. एस. परीक्षा का प्रवेश पत्र था। मुनमुन ने प्रवेश पत्र चहकते हुए अम्मा को दिखाया तो अम्मा भावुक हो गईं। बोली, ‘तो अब तुम भी अधिकारी बन जाओगी?’ और फिर जैसे उन का मन कांप उठा और बोलीं, ‘अपने भइया लोगों की तरह!’

मुनमुन अम्मा का डर समझ गई। अम्मा को अंकवार में भर कर बोली, ‘नहीं अम्मा, भइया लोगों की तरह नहीं, तुम्हारी बिटिया की तरह! पर अभी तो दिल्ली बहुत दूर है। देखो क्या होता है?’

पीसीएस की तैयारी तो आधी अधूरी पहले ही से थी, उस की। पर मुनक्का राय की सलाह मान कर मुनमुन ने स्कूल से छुट्टी ले ली। लंबी मेडिकल लीव। और तैयारी में लग गई। दिन-रात एक कर दिया। वह भूल गई बाक़ी सब कुछ। जैसे उस की ज़िंदगी में पीसीएस के इम्तहान के सिवाय कुछ रह ही नहीं गया था। बांसगांव के लोग तरस गए मुनमुन की एक झलक भर पाने के लिए। बांसगांव की धूल भरी सड़क जैसे उसकी राह देखती रहती। पर वह घर से निकलती ही नहीं थी। वह अंदर ही अंदर अपने को नए ढंग से रच रही थी। गोया खुद अपने ही गर्भ में हो। खुद ही मां हो, खुद ही भ्रूण। ऐसे जैसे सृजनकर्ता अपना सृजन खुद करे। बिखरे हुए को सृजन में संवरते -बनते अगर देखना हो तो तब मुनमुन को देखा जा सकता था। वह कबीर को गुनगुनाती, ‘खुद ही डंडी, खुद ही तराजू, खुद ही बैठा तोलता।’ वह अपने ही को तौल रही थी। एक नई आग और एक नई अग्नि परीक्षा से गुज़रती मुनमुन जानती थी कि अगर अब की वह नहीं उबरी तो फिर कभी नहीं उबर पाएगी। जीवन जीना है कि नरक जीना है सब कुछ इस परीक्षा परिणाम पर मुनःसर करता है, यह वह जानती थी। अम्मा कुछ टोकतीं तो मुनक्का रोकते हुए कहते, ‘मत रोको, सोना आग में तप रहा है, तपने दो!’

जाने यह संयोग था कि मुनमुन का प्रेम कि मुनमुन की इस तैयारी के समय मुनक्का राय और श्रीमती मुनक्का राय दोनों ही कभी बीमार नहीं पड़े। न कोई आर्थिक चिंता आई। हां, इधर राहुल का भेजा पैसा आया था सो मुनमुन को वेतन न मिलने के बावजूद घर खर्च में बाधा नहीं आई। बीच में दो बार मुनमुन के स्कूल के हेड मास्टर भी आए ‘बीमार’ मुनमुन को देखने। पर वह उन से भी नहीं मिली। मुनक्का राय से ही मिल कर वह लौट गए।

कहते हैं न कि जैसे सब का समय फिरता है वैसे मुनमुन के दिन भी फिरे। समय ज़रूर लगा। पर जो मुनक्का राय कहते थे कि, ‘सोना आग में तप रहा है, तपने दो!’ वह सोना सचमुच तप गया था। मुनमुन पीसीएस मेन में सेलेक्ट हो गई थी। अख़बारों की ख़बरों से बांसगांव ने जाना। पर अब की इस ख़बर पर आह भरने के लिए गिरधारी राय नहीं थे। न ही ललकार कर मुनमुन के नाम से चनाजोर गरम बेचने वाले तिवारी जी। मुनमुन ने तिवारी जी को इस मौके़ पर बहुत मिस किया। बधाई देने वाले, लड्डू खाने वाले लोग बहुत आए बांसगांव में उस के घर। पर मुनमुन के भाइयों का फ़ोन भी नहीं आया। न ही घनश्याम राय या राधेश्याम राय का फ़ोन। दीपक को फ़ोन कर के ज़रूर मुनमुन ने आशीर्वाद मांगा। दीपक ने दिल खोल कर आशीर्वाद दिया भी। हां, रीता आई और थाईलैंड से विनीता की बधाई भी फ़ोन पर। बहुत बाद में राहुल ने भी फ़ोन कर खुशी जताई।

ट्रेनिंग-व्रेनिंग पूरी होने के बाद मुनमुन अब पश्चिमी उत्तर प्रदेश की एक तहसील में एसडीएम तैनात हो गई है। बांसगांव से आते वक्त उस ने अम्मा, बाबू जी को अकेला नहीं छोड़ा। बाबू जी से बोली, ‘छोड़िए यह प्रेक्टिस का मोह और चलिए अपनी रानी बिटिया के साथ!‘

‘अब बेटी की कमाई का अन्न खाएंगे हम लोग?’ अम्मा बोलीं, ‘राम-राम, पाप न पड़ेगा!’

लेकिन मुनक्का राय चुप ही रहे। पर जब मुनमुन ने बहुत दबाव डाला तो वह धीरे से बोले, ‘तो क्या इस घर में ताला डाल दें?’

‘और क्या करेंगे?’ मुनमुन बोली, ‘अब मैं आप लोगों को इस तरह अकेला नहीं छोड़ सकती!‘ फिर उसने जोड़ा, ‘छुट्टियों में आते रहेंगे!’

‘फिर तो ठीक है!’ मुनक्का राय को जैसे राह मिल गई।

‘लेकिन!’ मुनमुन की अम्मा ने प्रतिवाद किया।

‘कुछ नहीं अब चलो!’ मुनक्का राय बोले, ‘इस का भी हम पर हक़ है। अभी तक हमारे कहने पर यह चली। अब समय आ गया है कि इस के कहे पर हम चलें।’ वह ज़रा रुके और पत्नी का हाथ थाम कर बोले, ‘चलो बेटी चलते हैं।’

मुकदमों की सारी फाइलें वग़ैरह उन्हों ने जूनियरों और मुंशी के सिपुर्द की। घर का बाहर वाला कमरा जूनियरों को चैंबर बनाने के लिए दे दिया। और अपनी नेम प्लेट दिखाते हुए जूनियरों से बोले, ‘यह नाम यहां और बांसगांव में बना रहना चाहिए। उतारना नहीं यह नेम प्लेट और न ही हमारे नाम पर बट्टा लगाना। और हां घर में दीया बत्ती करते रहना। मतलब लाइट जलाते रहना।’ जूनियरों ने हां में हां मिलाई।

बाक़ी घर में ताला लगाते हुए मुनक्का राय बांसगांव से विदा हुए सपत्नीक मुनमुन बेटी के साथ। और बोले, ‘देखते हैं आबोदाना अब कहां-कहां ले जाता है!’ फिर एक लंबी सांस ली। संयोग ही था कि पड़ोसी ज़िले में धीरज भी अब सीडीओ हो गया था। कभी कभार कमिश्नर की मीटिंग में धीरज, मुनमुन आमने-सामने पड़ जाते हैं तो मुनमुन झुक कर धीरज के चरण स्पर्श करती है। धीरज भी मुनमुन के सिर पर हाथ रख कर आशीष देता है। पर कोई संवाद नहीं होता दोनों के बीच। न सार्वजनिक रूप से न व्यक्तिगत रूप से।

ऐसी ही किसी मीटिंग के लिए एक दिन जब मुनमुन कलफ लगी साड़ी में गॉगल्स लगाए अपनी जीप से उतर रही थी तो वह बीएसए सामने पड़ गया, जिसने सुनीता के पति की शिकायत पर उस से जवाब तलब करने के लिए उस को बुलाया था। देखते ही वह चौंका और ज़रा अदब से बोला, ‘मैम आप !’और फिर जैसे उछलते हुए बोला, ‘आप तो बांसगांव वाली मुनमुन मैम हैं!’

‘हूं।’ वह गॉगल्स ज़रा ढीला करती बोली, ‘आप?’

‘अरे मैम मैं फला बीएसए।’ वह ज़रा अदब से बोला, ‘जब आप ....... !’

‘शिक्षा मित्र थी....!’

‘जी मैम, जी.... जी!’

‘तो?’ मुनमुन ने ज़रा तरेरा!

‘कुछ नहीं मैम, कुछ नहीं। प्रणाम!’ वह जैसे हकला पड़ा।

‘इट्स ओ.के.!’ कह कर मुनमुन बिलकुल अफ़सरी अंदाज़ में आगे निकली। तब तक धीरज अपनी कार से उतरता सामने पड़ गया। तो उसने हमेशा की तरह झुक कर चरण स्पर्श किया। और धीरज ने भी हमेशा की तरह उस के सिर पर हाथ रख कर आशीष दिया। निःशब्द! इस बीच मुनमुन ने कानूनी रूप से राधेश्याम को गुपचुप तलाक भी दे दिया। बड़ी खामोशी से। भाइयों को यह भी पता नहीं चला।

हां, राधेश्याम अब भी कभी कभार पी-पा कर बांसगांव आ जाता है। कभी मुनक्का राय के ताला लगे घर का दरवाज़ा पीटता है तो कभी पड़ोसियों के दरवाजे़ पीटता है। इस फेर में वह अकसर पिट जाता है। पर उसे इस का बहुत अफ़सोस नहीं होता। वह तो बुदबुदाता रहता है कि, ‘मुनमुन मेरी है!’ लोग उसे बताते भी हैं कि मुनमुन अब यहां नहीं रहती। अब वह भी अपने भाइयों की तरह अफ़सर हो गई है। राधेश्याम बहकते हुए लड़खड़ाती आवाज़ में कहता है, ‘तो क्या हुआ! है तो मेरी मुनमुन!’

मुनमुन भी कभी कभार अम्मा बाबू जी को ले कर बांसगांव आ जाती है। क्या करे वह बेबस हो जाती है। वह रहे कहीं भी पर उस के दिल में धड़कता तो बांसगांव ही है। बांसगांव की बेचैनी उसके मन से कभी जाती नहीं। कभी-कभी वह हेरती है उन तिवारी जी को बांसगांव के बस स्टैंड पर जो मुनमुन नाम से एक समय चनाजोर गरम बेचते थे। वह तिवारी जी, जो वह जानती है कि अब जीवित नहीं हैं। तो भी। करे भी तो क्या वह! सुख-दुख, मान-अपमान, सफलता-असफलता सब कुछ दिखाया इस बांसगांव ने। अल्हड़ जवानी भी बांसगांव की बांसुरी पर ही उसने गाई, सुनी और गुनी। और फिर जवानी बरबाद भी इसी बांसगांव के बरगद की छांव में हुई। उन दिनों वह गाती भी थी, ‘बरबाद कजरवा हो गइलैं !’तो भला कैसे भूल जाए इस आबाद और बरबाद बांसगांव को यह बांसगांव की मुनमुन। संभव ही नहीं जब तक वह जिएगी, जैसे भी जिएगी, बांसगांव तो उसके सीने में धड़केगा ही। लोग जब तब उस के बदले अंदाज़ या साहबी ठाट-बाट पर चकित होते हैं या उस से उस के संघर्ष पर बात करते हैं तो वह लोगों से कहती है, ‘स्थाई तो कुछ भी नहीं होता। सब कुछ बदलता रहता है। सुख हो,दुख हो या समय। बदलना तो सब को ही है।’ फिर वह जैसे बुदबुदाती है, ‘हां, यह बांसगांव नहीं बदलता तो क्या करें?’

‘उ तो सब ठीक है।’ एक पड़ोसिन कहती है, ‘मुनमुन बहिनी शादी कब कर रही हो?’

मुनमुन चुप लगा जाती है। जहां मुनमुन एस. डी. एम. है वहां भी अधिकरी कॉलोनी में उस की एक पड़ोसी औरत ने उसी के घर में उसी से ठीक मुनक्का राय के सामने पूछ लिया है, ‘दीदी आप ने अब तक शादी क्यों नहीं की?’ वह मुनमुन के विवाह और तलाक के बारे में नहीं जानती। यहां कोई भी नहीं जानता। मुनमुन जनाना भी नहीं चाहती। पर वह औरत अपना सवाल फिर दुहराती है कि, ‘दीदी आप ने अब तक शादी क्यों नहीं की?’

‘इन्हीं से पूछिए !’ मुनमुन धीरे से बाबू जी को इंगित करते हुए कहती है।

मुनक्का राय ने कोई जवाब देने के बजाय छड़ी उठा ली है। और टहलने निकल गए हैं। रास्ते में सोच रहे हैं कि क्या मुनमुन अब अपना वर भी खुद ही नहीं ढूंढ सकती? कि वह ही फिर से ढूंढना शुरू करें। मुनमुन के लिए कोई उपयुक्त वर। क्या अख़बारों में विज्ञापन दे दें? या इंटरनेट पर? घर लौटते वक्त वह सोचते हैं कि आज वह इस बारे में मुनमुन से स्पष्ट बात करेंगे। वह अपने आप से ही बुदबुदाते भी हैं, ‘चाहे जो हो शादी तो करनी ही है मुनमुन बिटिया की!’

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35 comments:

  1. आदरणीय दयानन्द पाण्डेय जी
    उपन्यास के संबंधं में शीघ्र ही विस्तृत टिप्पणी लिखूंगा। तत्कालिक टिप्पणी के रूप में इतना ही कहना चाहूंगा कि आपका यह उपन्यास वर्तमान समाज को आइना दिखाता है कि आज की पीढी जहां अपना उज्जवल भविष्य विदेशी नौकिरियों और महानगरीय सफेद कालर कही जाने वाली नौकरियों में तलाश तो रहा है परन्तु उसके अंदर का इंन्सान मर रहा है।

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  2. आदरणीय सर जी ,प्रणाम !
    कल दोपहर से जब समय मिल रहा था ,पढ़ी ,अभी समाप्त पर आई...बहुत सारी भावनाएं उमड़े-घुमड़े , आँखों के कोरे भी भींगे,,
    ऊपर डाक्टर साहेब ने जो भी लिखा है सहमत हूँ उनकी बातों से..
    कैसी बिडम्बना है अपने समाज की ... आज 99% घरों में यही स्थिति है बेटों को लेकर..
    बेटी है तो माँ बाप को समझती है...बहुए भी कहीं की बेटी हैं उन्हें क्यूँ न समझ आता सास ससुर को लेकर,क्यूँ आते बेटों को भी माँ बाप से दूर कर देती है...बड़ी भयावह होती जा रही है ये स्थति ... !मन टूटता है..दरकता है ..आज कल की ये सोच देखकर ..

    और यह भी कि उगते सूरज को सब सलाम करते हैं...... आपका यह उपन्यास टूटती हुयी स्त्रियों के लिए स्तम्भ है..अगर मुनमुन समाज की दृष्टि में बुरी थी या है तो मुझे ऐसी लाखों -लाखों मुनमुन स्वीकार हैं... !

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  3. दयानंद जी, आज कुछ देर पहले आपका उपन्यास ‘’बांसगांव की मुनमुन’’ पढ़कर समाप्त किया है l इसे पढ़ते हुये कितनी ही बार मन भर-भर आया l अंत में अग्नि परीक्षाओं से गुजर कर संघर्ष करते हुये अपने लिये मुकाम हासिल करने वाली मुनमुन के लिये आँखें बरबस बरस पड़ीं l

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  4. नमस्कार! बहुत अच्छा लगा.

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  5. अभी अभी समाप्त किया दूसरी बार! भावनाओ और रिश्तों की खबर लेती आपकी लेखनी ने कई बार अत्यंत भावुक कर दिया. इस पित्रसत्तातमक समाज में मुनमुन के संघर्ष को सलाम......

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  6. वर्त्मान समाज को आईना दिखलाती हुई अत्यंत मार्मिक कहानी है जो टूटते,बिखरते परिवारों के बीच स्वार्थपरक रिश्तों के बीच दम तोड़ती मानवता की जीवंत गाथा बन गयी और उसमे अपने अस्तित्व को तलाशती महिला हमें प्रेरणा प्रदान करती है।


    अंजु मिश्रा

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  7. मुनमुन के संघर्ष ने अपने संघर्ष के वे दिन याद दिला दिए जो कस्बाई मानसिकता में जकड़े समाज मे होनहार पर आर्थिक रूप से कमजोर बच्चियों की होजाती है, उन्हें समाज और अर्थ दोनों हो सीमा पर संघर्ष करना होता है, पर उनकी जिजीविषा उनके सपनो को मरने नही देती,कुछ प्रसंगों को छोड़कर जैसे एक स्त्री को पुनः पुनः स्वयं को सिद्ध करने की व्यवस्था संभवतः शाश्वत है, कलियुग में अग्निपरीक्षा और क्लिष्ट एवम अनिवार्य हो गयी है...बहुत सुंदर

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  8. Bahut accha marmik aur dil ko jinjhodne wala....hats off sir!

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  9. देवव्रत21 October 2018 at 20:54

    प्रणाम आदरणीय!


    बहुत ही जोरदार लेखन शैली, और विषय तथा किरदार भी पूर्ण, कुछ अपूर्ण रह गया तो , बांसगांव और वहाँ के बाबूसाहब(पहले दर्ज़े के नागरिक)।
    संभव हो और आपकी इच्छा हो तो मिलना चाहेंगें आपसे।

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    1. सहर्ष ! आप जब चाहें आएं । सर्वदा स्वागत है ।

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  10. हमारे समाज में की कड़वी सच्चाई को आपने बड़ी ही सहजता के साथ व्यक्त किया है। धारा प्रवाह और रोचक । बहुत ही शानदार। धन्यवाद।

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  11. आज फिर से पढ़ पाया आपका यह उपन्यास, पूरी तरह।टुकड़ों में तो पढ़ा ही था।वाकई आपकी कथा निर्बाध चलती है बतकही की तह रह जीवन के तनावों संघर्षों के साथ, एक बच्ची के जीवन संघर्ष की अविराम कथा कभी कभी आंखें भी गीलीं हो जारी ती हैं।प्रणाम आपकी लेखनी को।

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  12. अबला के सबला होने की कहानी। अत्यंत प्रेरणास्पद।

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  13. बहुत दिनों, नहीं -नहीं महीनों, ना ना सालों बाद कोई रचना और वह भी उपन्यास को मैंने एक बैठकी में (जिसमें लगभग ढाई घंटे लगे) आद्योपांत पढ़ा है। एक बैठकी में इसे पूरा पढ़ने को ही एक पाठक की प्रतिक्रिया मान लिया जाए, वो भी उस दौर में जब पढ़ने के प्रति ज्यादा उत्साही माहौल न दिखे। इस उपन्यास का कोई भी अंश ऐसा न लगा जो अनावश्यक हो या जहां बोरियत महसूस हो। उपन्यास के कथ्य पर यही कहूंगा कि इसने समाज की वह कटु यथार्थता दिखाई है जिसने अंतस में कहीं गहरे झकझोर दिया। आपको एवं आपके भीतर के उस उपन्यासकार को सादर नमन।

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  14. Sir, Bahoot hi bariki se aap ne samaj k sare pahluwon ko tuch kiya. Apka yah Novel aaj k yuwawon k lie urja ka sanchar krne wala hai....

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  15. श्रीमन🙏🙏
    स्वयंवर परंपरावाही देश में, तलाकशून्य धारणा वाले देश में पुनः असली भारत के दर्शन संभव हैं,बशर्ते मुनमुन और "मुनमुन बांसगांव वाली"जैसी रचना रचते रहा जाय!!
    आप साधुवाद के हकदार हैं!!और हकदार हैं उस पुण्य के जो परिश्रम का पर्यायवाची होता है!!
    सहजशैली और सधी दृष्टि से भ्रामक पुरुषचर्या समाज को उसका सच उघाडकर सामने रख दिया!!प्रेरक कथा सबला की व्यथा और फिर से उबर जाने की कला-बहुत हृदयाल्हादक रही!!पुनः पुनःधन्यवाद!!
    बांसगांव में रचना का कमल भी खिल सकता है
    -आपने उस पियांक परिक्षेत्र को ऐतिहासिक सम्मान दे दिया-अनेक मुनमुन की संभावना बलवती हो सकेगी-ऐसी संभावना जगाने वाले पुण्यकर्मा हैं आप

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  16. मान्यवर

    प्रातः काल के ५:५९ साडी रात कब निकली और अब सुबह भोर हुए पता नहीं चला ,, मध्यरात्रि जब पड़ना आरम्भ किया तब जरा भी अनुमान नहीं था किस तरह भाव विभोर किया आपकी कलम ने !
    दर्द को शब्दों में पिरोया आपने भावनाओ का बहाव सा आया और झकझोर दिया !
    के बार अखियों की कोर भीगी अंततः अश्रुओं के रूप में ह्रदय स्पंदन क्रर गया !

    मानव मन की परते उधेड़ कर रखा दी आपने !

    एक नए ही प्रेरणा मनोबल मिला मेरे मन को!
    आपसे निवेदन है की आपका यदि सम्पर्क सूत्र मोबाइल नंबर साझा कीजिये तो आपसे अपने मनोभावों को आपके समक्ष रखने का प्रयास करना चाहुगा।।

    आपका अपना अनुज सामान

    बेगराज शर्मा
    जयपुर शहर, राजस्थान

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  17. माना कि यह उपन्यास भारतीय ग्रामीण परिवेश में रचा-बसा है परंतु यह भारतीय नारी जीवन के व्यथा-कथा का आईना है। आज भी न जाने कितनी ऐसी 'मुनमुन'समाज में विद्यमान हैं, जो घरेलू यातनाएँ झेलती-झेलते अपना दम तोड़ देती हैं।

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  18. ati sunder. paramanand ki prapti

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  19. ग्रामीण हिन्दी भाषी समाज के मानसिक ताने बाने का सटीक, सधा और मर्मिक प्रस्तुीकरण हुआ है।साधुवाद।

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  20. रचना बहुत ही सुन्दर है, विषय बिल्कुल समसामयिक, कहानी पर पकड़ बहुत अच्छी है, भाषा बिल्कुल सरल मगर कहीं-कहीं गाने जबर्दस्ती ठूँसे हुए लगे, महादेव...

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  21. सुन्दर रचना रचना

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  22. दयानंद जी , आज फेसबुक से यहां पर आया और एक ही सांस में कहानी पढ़ ली, हर गांव में एक मुनमुन है, उसकी कहानी सुखांत नहीं है,
    बहुत बहुत धन्यवाद ��

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  23. बहुत ही शानदार विवेचन हमारे समय का।
    अद्भुत लेखनी।
    प्रणाम स्वीकारें अग्रज।
    निशब्द हूँ।

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  24. बहुत ही बढ़िया सर सादर प्रणाम

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  25. बहुत ही शानदार सर

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  26. निःशब्द ,सामाजिक परिवेश और रिश्तों में आये स्वार्थपरक मूल्यांकन का गहरा प्रभाव दिखा

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  27. बहुत ही सुंदर कहानी है।

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  28. हृदय भर आया इस उपन्यास को पढ़कर। चुकीं गोरखपुर मेरा गृह जनपद है। मेरी उच्च शिक्षा दीक्षा बांसगांव से ही हुई है तो थोडा लगाव भी हो गया इस कहानी से। समझ न आए रहा यह सत्य घटना पर आधारित है या फ़िर उपन्यास की आड़ में समाज के यथार्थ रूप का आइना।

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  29. आदरणीय सर प्रणाम इस उपन्यास को पढ़ते समय यह लगा कि यह समाज के आंखों देखी घटना है जो निरंतर होती रहती है आपने हिम्मत और साहस के साथ में शिक्षा का क्या महत्व को भी उजागर किया है जब तक यह उपन्यास पढ़ कर समाप्त नहीं किया तब तक इससे अलग नहीं हुआ जा सकता था और इसको मैंने कई लोगों को रिकमेंड भी किया है पढ़ने के लिए बहुत-बहुत साधुवाद आपसे शीघ्र ही लखनऊ में आपसे दर्शन मुलाकात होगी

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  30. आदरणीय सर प्रणाम इस उपन्यास को पढ़ते समय यह लगा कि यह समाज के आंखों देखी घटना है जो निरंतर होती रहती है आपने हिम्मत और साहस के साथ में शिक्षा का क्या महत्व को भी उजागर किया है जब तक यह उपन्यास पढ़ कर समाप्त नहीं किया तब तक इससे अलग नहीं हुआ जा सकता था और इसको मैंने कई लोगों को रिकमेंड भी किया है पढ़ने के लिए, बहुत-बहुत साधुवाद ! आपसे शीघ्र ही लखनऊ में आपके दर्शन मुलाकात होगी

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  31. आदरणीय दयानंद पांडेय जी
    प्रणाम सर निशब्द, बहुत ही शानदार विवेचना,हर गांव व शहर में कई मुनमुन है परन्तु यह भारतीय नारी जीवन की व्यथा कथा का परिचय है आज भी न जाने ऐसी कितनी मुनमुन समाज में मौजूद हैं घरेलू यातनाएं सहती है हमारे समाज की कड़वी सच्चाई है जो आपने बड़ी ही सहजता के साथ व्यक्त किया आपकी लेखन शैली बहुत ही सुन्दर व सरल है। जितनी तारीफ की जाए कम है।
    आजकल लोगों में झूठ,फरेब,छल भरा पड़ा है । मानवता तो जैसे शून्य हो ज्यादातर परिवारों की स्थिति यही है।
    आपने उपन्यास के माध्यम से समाज की सच्चाई को उजागर किया है आपको बहुत बहुत धन्यवाद व आभार 🙏🙏🙏

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