Sunday, 26 February 2012

संगम के शहर की लड़की

दयानंद पांडेय 

वह रास्ते में अचानक रुक गया। नजारा ही कुछ ऐसा था। एक बीस-बाइस साल की गोरी चिट्टी लड़की तेज-तेज चलती जा रही थी और उस के पीछे-पीछे एक पचास-पचपन साल का आदमी लगभग दौड़ता हुआ, ‘सुनो तो! मेरी बात तो सुनो।’ घिघियाता जा रहा था। साथ में एक सिपाही भी रायफल लिए उनके पीछे-पीछे, धीरे-धीरे चल रहा था। बिलकुल ख़ामोश अंदाज में। बिना कोई हस्तक्षेप किए। और वह, ‘सुनो तो, सुनो तो।’ घिघियाता ही जा रहा था। लेकिन लड़की उस की एक नहीं सुन रही थी। उस ने गाड़ी सड़क के किनारे खड़ी की। फाटक खोल कर बाहर निकला। फाटक बंद कर टेक लगा कर खड़े-खड़े उन दोनों को देखने लगा। लड़की थी कि मान नहीं रही थी। और वह अधेड़ व्यक्ति था कि उसे छोड़ नहीं रहा था। मामला बढ़ते देख वह उन दोनों के पास पहुंचा। पूछा, ‘बात क्या है?’

‘क्या बताऊँ भइया, कुछ समझ में नहीं आ रहा है।’ अधेड़ व्यक्ति ने लगभग हथियार डालते हुए कहा, ‘जरा आप ही समझाइए!’

‘आखि़र बात क्या है?’

‘मैं कह रहा हूं कि यह तलाक ले ले। लेकिन यह मान ही नहीं रही है!’

‘क्या बात कर रहे हैं?’ वह बोला, ‘आप ने इस से शादी की ही क्यों? शर्म नहीं आई आप को? आप की बेटी जैसी है!’

‘बेटी जैसी नहीं, बेटी ही है यह हमारी!’

‘ओह!’ वह बोला, ‘फिर किससे तलाक लेने को कह रहे हैं?’

‘इस के पति से।’ वह बोला, ‘लेकिन यह मान ही नहीं रही है।’

‘आप पिता हो कर भी बेटी से तलाक की बात क्यों कर रहे हैं?’

‘इस लिए कि इस की शादी ग़लत हो गई है।’

‘ग़लत हो गई मतलब?’

‘उस की एक बीवी पहले से ही है।’

‘तो उस से शादी की ही क्यों आपने?’

‘यही तो ग़लती हो गई।’

‘ओह! क्या आप को पहले से नहीं पता था?’

‘पता होता तो करता क्यों?’ माथे पर हाथ फेरते हुए वह बोला।

‘लड़का करता क्या है?’

‘कौन लड़का?’

‘मतलब आप का दामाद!’

‘रेलवे में अफसर है।’

‘मिला कैसे?’

‘विज्ञापन के थ्रू।’

‘आप ने कुछ जांच-पड़ताल नहीं की?’

‘की तो थी।’ वह बोला, ‘लेकिन चूंकि दहेज नहीं ले रहा था, इस लिए ज्यादा ठोंक-पीट नहीं की।’

‘वह रहने वाला कहां का है?’

‘गोंडा का।’

‘और आप लोग?’

‘इलाहाबाद के।’

‘किस जाति के हैं?’

‘ब्राह्मण।’

‘और वह?’

‘वह भी ब्राह्मण है।’

‘तलाक का मुकदमा दायर हो गया है?’

‘हां।’

‘किसने किया?’

‘लड़के ने ही।’

‘क्यों?’

‘अब वह अपने परिवार में लौटना चाहता है।’ वह बोला, ‘लौटना चाहता है क्या बल्कि लौट चुका है।’

‘तो यह कहां रह रही है?’ लड़की की ओर इंगित करते हुए उस ने पूछा।

‘मेरे साथ इलाहाबाद में।’

‘ओह!’ उस ने पूछा, ‘लड़के को आपने समझाया नहीं?’

‘वह अभी कहां है?’

‘अंदर कोर्ट में है।’

‘मैं उसे समझाने की कोशिश करूं?’

‘कोई फायदा नहीं।’ वह बोला, ‘अब समझाना ही है तो उसे नहीं, इसे समझाइए। वह इसे दुत्कार रहा है और यह उस के प्यार में पागल हुई जा रही है।’

‘कितने दिन दोनों साथ-साथ रहे?’

‘ज्यादा से ज्यादा दो-तीन महीने।’

‘शादी हुए कितने दिन हुए?’

‘यही कोई आठ महीने।’

‘बच्चे-वच्चे की संभावना तो नहीं है?’ उस ने लड़की के पिता के कान में फुसफुसा कर पूछा।

‘नहीं-नहीं।’

‘फिर तो ठीक है।’ उस ने पूछा, ‘क्या दोनों के साथ रहने की कोई संभावना नहीं है?’

‘अब लड़का रखने को ही तैयार नहीं है तो क्या करें?’

‘आखि़र दिक्कत क्या है?’

‘अब यह तो वही जाने।’

‘लड़की तलाक से मना क्यों कर रही है?’

‘यह उस के प्यार में पड़ गई है।’

‘क्या यह उसे पहले से जानती थी?’

‘नहीं साहब। हम इलाहाबाद में थे और वह लखनऊ में। जानने की कोई सूरत ही नहीं थी।’ लड़की का पिता बोला, ‘विज्ञापन के मार्फत जो भी पत्राचार-बातचीत हुई, मुझ से ही हुई।’

‘शादी बाजे-गाजे के साथ हुई या कोर्ट में?’

‘मंदिर में।’

‘लड़के की ओर से भी कोई था?’

‘उस के चार-छः दोस्त थे।’

‘क्यों उस के मां-बाप?’

‘उस ने बताया था कि मां-बाप से पटती नहीं है।’

‘और भाई-बहन, नाते-रिश्तेदार?’

‘कोई नहीं आया था।’

‘तो आप को खटका नहीं?’

‘खटका तो था।’ सिर खुजलाते हुए लड़की का पिता बोला, ‘चूंकि रेलवे की अच्छी नौकरी में था, दहेज नहीं ले रहा था इस लिए यह सब कुछ सूझ कर भी नहीं सूझा। क्या बताऊं!’

‘अच्छा चलिए कोर्ट में लड़के से बात करते हैं।’

‘वो मानेगा नहीं साहब।’ बड़ी देर से पास में खड़ा सिपाही रायफल पर टेक लिए हुए बहुत उदास स्वर में बोला, ‘पर आप भी ट्राई मार लीजिए।’

‘तुम क्या इनके रिश्तेदार हो या जानने वाले?’

‘नहीं साहब हम तो ड्यूटी पर हैं।’

‘तो अपनी ड्यूटी करो, यहां बीच में क्यों घुस रहे हो?’

‘हमारी ड्यूटी इन्हीं के साथ है साहब!’ सिपाही बोला, ‘हम इनकी रच्छा में हैं साहब!’

‘ओह! तो तुम भी इलाहाबाद से आए हो?’

‘हां, हुजूर।’

‘क्या आप की सुरक्षा को भी ख़तरा है?’ उस ने लड़की के पिता से पूछा।

‘असल में क्या हुआ कि लड़के ने जब हमारी बेटी को अपने घर से निकाल दिया, तो हमने उस के खिलाफ दहेज के मुकदमे की अर्जी थाने में दे दी। इलाहाबाद में ही। लड़का अरेस्ट हो गया। लेकिन फिर समझौता हो गया और लड़का उसी दिन छूट गया। लेकिन उस ने समझौते को माना नहीं और हमारी लड़की को अपने घर नहीं ले गया। हम फिर थाने गए। लेकिन थाने वाले माने नहीं। बोले तुम ड्रामा करते हो।’ यह बताते-बताते लड़की का पिता रो पड़ा। वह बताने लगा, ‘फिर हम फेमिली कोर्ट गए। मेंटीनेंस के लिए। इलाहाबाद में ही। लेकिन तब तक लड़के ने लखनऊ के फेमिली कोर्ट में तलाक का मुकदमा दायर कर दिया। आज दूसरी पेशी है। पहली पेशी में उस ने गालियां दीं हम बाप-बेटी को। मारने की धमकी दी। तो अब की इलाहाबाद से सुरक्षा-व्यवस्था ले कर चले ताकि कुछ अप्रिय न हो जाए।’ इधर लड़की का पिता बोलता जा रहा था उधर वह लड़की लगातार रोए जा रही थी। लग रहा था जैसे गंगा-जमुना में भारी बाढ़ आ गई हो।

खूब चटक सिंदूर लगाए, फेमिली कोर्ट के अहाते के बाहर उस के आंसुओं की धारा शायद कोई संगम ही ढूंढ रही थी, जो उसे मिल नहीं रहा था। संगम के शहर की यह लड़की अपने पिता की मूर्खता, दहेज बचाने के लालच की यातना में, अपने पति से प्यार की याचना में ऐसे रोए जा रही थी, निःशब्द गोया किसी छलनी से आटा गिरा जा रहा हो, झर-झर, झर-झर। उसे कोई राह नहीं मिल रही थी। हालां कि वह बला की सुंदर थी, और उस की सुंदरता देख कर ही वह यहां रुका भी था। उसे नहीं मालूम था कि इस लड़की की जिंदगी में इतना बड़ा तूफान आया हुआ है। उस की अबोधता, मासूमियत, आंखों से लगातार बहते आंसू और माथे पर उस का चटक सिंदूर सब मिलजुल कर एक ऐसा कंट्रास्ट रच रहे थे कि बरगद के पेड़ के नीचे लग रहा था जैसे कोई नदी फूट पड़ेगी, आग की नदी। हां, उस के मन में तो आग की नदी ही हिलोरे मार रही थी। पिता की मूर्खता और पति की यातना में बिलबिलाई-तिलमिलाई वह लड़की किसी की बात को मानने को भी तैयार नहीं थी। उस की जिद थी और लगातार थी कि वह अपने पति के साथ ही रहेगी, चाहे जो हो जाए।
‘आप कुछ कोशिश क्यों नहीं करते?’ उस ने लड़की के पिता से मुखातिब हो कर कहा।

‘क्या करें? अब उस की पहली पत्नी लखनऊ में रहने लगी है उस के साथ।’

‘पहले नहीं रहती थी?’

‘नहीं।’

‘तो क्या हुआ? मैं फिर भी साथ रह लूंगी!’ लड़की रोती हुई बोली।

‘पर वह रखे तब तो?’

‘वह नहीं रखे, तब भी मैं रह लूंगी।’ वह अपने पिता और सिपाही की ओर देखती हुई बोली, ‘मुझे कोई मुकदमा, कोई तलाक नहीं चाहिए!’

‘क्यों? क्यों नहीं चाहिए?’ लड़की का पिता बिलबिलाया।

‘क्यों कि मैं उनके बिना रह नहीं सकती।’ वह बोली, ‘और मैं दूसरी शादी भी नहीं कर सकती जैसा कि आप चाहते हैं।’

‘हे भगवान! अब मैं क्या करूं?’ अपना सिर पकड़ कर जमीन पर बैठते हुए लड़की का पिता रो पड़ा। अभी तक तो सिर्फ लड़की रो रही थी, अब पिता भी रोने लगा। उस ने सिपाही की ओर देखा और लगा कि अब सिपाही भी रोने ही वाला है। अजब थी यह यातना। उसे लगा कि अब वह भी रो पड़ेगा। उस ने सिपाही की ओर देखा और पूछा, ‘तुम उस लड़के को पहचानते हो?’

‘हां हुजूर! लंबा सा है।’ वह रायफल संभालते हुए तेजी से फेमिली कोर्ट की ओर चला और बोला, ‘आइए!’
कोर्ट के बरामदे में वह लड़का मिल गया। लंबा सा। हैंडसम सा। लगभग तीसेक साल का। मतलब लड़की से लगभग आठ साल बड़ा।

‘हजूर!’ सिपाही लड़के से मुखातिब होता हुआ बोला, ‘ई साहब आप से बात करना चाहते हैं।’

‘बोलिए!’ वह उस की ओर तरेरता हुआ बोला।

‘आप जरा, इधर आएंगे!’ वह लड़की और लड़की के पिता की ओर दिखाता हुआ बोला।

‘नहीं, आप यहीं बताइए।’ वह धीरे से गुर्राया। आंखों में उस की बेतरह घृणा पसरी हुई थी।

‘अच्छा, वहां नहीं, न सही, इस तरफ आएंगे? जरा भीड़ से हट कर!’ वह एक दूसरा पेड़ उसे दिखाते हुए बोला।
‘नहीं, आप यहीं बताइए।’ वह बरामदे से जरा निकलता हुआ बोला।

‘चलिए यहीं बात करते हैं।’ उस ने बात शुरू की, ‘आख़िर आप को अपनी पत्नी से दिक्कत क्या है?’

‘कोई दिक्कत नहीं है।’ वह आंखें फैलाता हुआ बोला, ‘मैं अपनी पत्नी के साथ बाखुशी रह रहा हूं।’

‘मैं आप की पहली पत्नी की नहीं, दूसरी पत्नी की बात कर रहा हूं।’ वह उस की आंखों में आंखें डालता हुआ बोला, ‘आखि़र, उस को भी साथ रखने में दिक्क़त क्या है?’

‘दिक्कत यह है कि मुझे अपनी और अपनी बीवी-बच्चे की जान प्यारी है।’ वह लगभग चबाता हुआ बोला, ‘और यह हम लोगों की जान की दुश्मन है!’

‘वह कैसे?’

‘साथ रखेंगे तो यह हम सब को जहर दे देगी।’

‘क्या बात कर रहे हैं आप?’

‘बिलकुल ठीक कह रहा हूं।’ वह लगभग डपटता हुआ बोला, ‘समझौते की कोई गुंजाइश नहीं है। बताइए भला, जिसने दहेज बचाने के लिए मैं शादीशुदा हूं जान कर भी, अपनी लड़की की शादी की, उसी ने दहेज लेने का मुकदमा मेरे खि़लाफ लिखवाने की कोशिश की। तो उस की लड़की कुछ भी कर सकती है।’

‘शादी के पहले उन को मालूम था कि आप शादीशुदा हैं?’

‘सब मालूम था।’

‘विज्ञापन किसने दिया था?’

‘मैंने दिया था।’

‘तो विज्ञापन में लिखा था कि आप शादीशुदा हैं?’

‘नहीं।’

‘यह तो चीटिंग हो गई?’

‘लेकिन बाद में मैं ने बता दिया था।’

‘क्या बता दिया था?’

‘यही कि पहली पत्नी से मेरी नहीं पटती, क्यों कि वह जाहिल है, इस लिए दूसरी शादी कर रहा हूं।’

‘और वह अब जाहिल नहीं रही? और पटने लगी?’

‘हां, अब पटने लगी क्यों कि वह धोखेबाज नहीं है इस की तरह। पहली पत्नी ने कोई रिपोर्ट नहीं लिखवाई इस की तरह। जब कि वह लिखवा सकती थी।’

‘हो सकता है जल्दबाजी में उस से कोई ग़लती हो गई हो?’ वह बोला, ‘पिता के कहने में आ गई हो।’

‘नहीं ऐसा नहीं है।’ मैं ने थाने में उस से कहा था, ‘देखो जिंदगी हमारी-तुम्हारी है, पढ़ी-लिखी समझदार हो, किसी के कहने में मत आओ। लेकिन इसने मेरी एक न सुनी और पुलिस मुझे बेइज्जत करती रही। वह बेइज्जती मैं नहीं भूल सकता।’

‘लेकिन वह कितनी अबोध और निर्दोष है!’

‘अगर इतनी अबोध और निर्दोष है तो आप खुद क्यों नहीं शादी कर लेते?’ वह उस की आंखों में आंखें डालते हुए बड़ी बदतमीजी से बोला, ‘आप ही कर लीजिए शादी। कर दीजिए उस का उद्धार!’

‘क्या बेवकूफी की बात कर रहे हो?’

‘बेवकूफी की बात मैं नहीं, आप कर रहे हैं। जब मैं ने एक बार कह दिया कि कोई समझौता नहीं हो सकता तो नहीं हो सकता।’

‘आप सरकारी नौकरी में हैं, आप जानते हैं कि अगर वह शिकायत कर दे आप के ऑफिस में तो आप की नौकरी भी जा सकती है।’

‘जानता हूं और अच्छी तरह जानता हूं कि वह कुछ भी नहीं कर सकती!’

‘क्यों नहीं कर सकती?’

‘क्यों कि इस मामले में कानून उस का साथ नहीं देता। अगर देता तो अब तक वह शिकायत कर चुकी होती।’
‘आप को उस की सुंदरता पर भी तरस नहीं आता?’

‘नहीं आता।’ वह बड़ी हिकारत से बोला, ‘वह सुंदर नहीं, विष कन्या है। जहर से भरा हुआ दिमाग़ है उस का।’
‘वह आप से बहुत प्यार करती है और कहती है कि आप के बिना रह नहीं सकती। आप के लिए अपने मां-बाप को भी छोड़ने को तैयार है।’

‘वह प्यार नहीं ड्रामा करती है। और बाप भी उस का बहुत धूर्त है।’

‘तो कोई गुंजाइश नहीं बनती? कोई रास्ता नहीं निकलता?’

‘बिलकुल नहीं।’

‘एक बार फिर से सोच कर देखिए। मेरा कहा मान लीजिए।’

‘इस मुद्दे पर तो मैं विधाता का भी कहना मानने वाला नहीं हूं। उस से कहिए जो करना हो कर ले!’
‘यह तो सरासर गुंडई है!’

‘जो भी है अब आप जाइए! मुझे कोई बात नहीं करनी है।’ कह कर उस ने हाथ जोड़ लिए।
वह वापस लड़की और लड़की के पिता के पास आ गया। सिपाही भी साथ था। वह अचानक किचकिचा कर लड़की के पिता से मुखातिब होता हुआ बोला, ‘दूबे जी, अगर आप कहें तो कोर्ट के बाहर निकलते ही एही रायफल के कुंदा से साले को कूंच के रख दूं। आप की रच्छा में हई हूं। कह दूंगा कि आप पर हमला किया था। साले की सारी शेखी निकल जाएगी।’

‘कूंच दो साले को!’

‘नहीं कुछ मत करना!’ लड़की बिलबिलाती हुई बोली, ‘अगर उन को छुआ भी तो जान पर खेल जाऊंगी। गवाही भी दे दूंगी तुम लोगों के खि़लाफ!’

‘ओह! क्या करूं इस लड़की की समझ में नहीं आता! अभी दो और लड़कियां पड़ी हैं।’ लड़की का पिता मेरी ओर मुखातिब होता हुआ बोला, ‘समझाइए जरा इस को कि वह तलाक दे रहा है तो ले ले। फिर कहीं इस की दूसरी शादी कर दूंगा। बाकी दो और इस से छोटी हैं। यह ऐसे ही रहेगी तो उन की भी शादी में मुश्किल होगी। समझाइए भइया कुछ इस को समझाइए!’

‘अब मान जाओ बिटिया!’ सिपाही भी मनुहार करता हुआ बोला, ‘ऊ लवंडा मानने वाला है नहीं।’

‘आप लोगों को जो करना हो करिए, मुझे जो करना होगा मैं करूंगी।’ कहती हुई वह मेरी तरफ मुख़ातिब हुई, ‘प्लीज, अब आप भी जाइए!’ और वह फिर से रोने लगी।


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इस कहानी का भोजपुरी अनुवाद 



दयानंद पांडेय 

अनुवादक- अनुराग रंजन


उ रास्ता में अचके रोक गइल। ओजूगा के नजारा कुछ अइसन रहे। एगो बीस-बाईस बरिस के गोर लईकी हाली-हाली चलत जात रहे आ ओकरा पाछे-पाछे एगो पचास-पचपन बरिस के आदमी लगभग दउरत, ‘सुन तs! हमार बात तs सुन!’ घेघियात जात रहे। संगही एगो सिपाहियों राइफल लेले ओह लो के पाछे गते-गते चलत रहे। एकदमे चुपचाप, बिना कुछों बोलले। बिना कवनों रोकटोक कइले। आ उ, ‘सुन तs, सुन तs।’ घेघियाते जात रहस। बाक़िर लईकी उनकर इचिकों ना सुनत रहे। उ आपन गाड़ी सड़क का किनार पs ठाड़ कइलस। फाटक खोल के बहरी निकलल। फाटक बन के टेक लगा के खाड़ भइल ओह दुनों लो के देखे लागल। लईकी रहे कि मानते ना रहे। आ उ अधेड़ आदमी रहे कि ओकरा के छोड़ते ना रहे। ममिला बढ़त देख उ ओह दुनों के लगे पहुंचल। पुछलस, ‘का बात बा?’

‘का बताई भइया, कुछो समझ में आवते नइखे नइखे।’ अधेड़ आदमी लगभग हथियार डालत कहलस, ‘तनी रउये समझाई!’
‘आखिर बात का बा?’
‘हम क़हत बानी कि ई तलाक ले लेव। बाक़िर ई मानते नइखे!’
‘का बात करत बानी?’ उ बोलल, ‘रुउआ इनका से बियाहे काहे कइनी? शरम ना आइल रउआ के? राउर बेटी जइसन बाड़ी!’

‘बेटी जइसन ना, बेटिये हिय हमार ई!’ 
‘ओह!’ उ बोलल, ‘फेर केकरा से तलाक लेवे के बात रउआ करत बानी?’ 
‘इनका मरद से।’ उ बोलले, ‘बाक़िर ई मानते नइखी।’
‘रउआ बाप होखला के बादो बेटी से तलाक के बात काहे करत बानी?’
‘एहसे कि इनकर बियाह गलत हो गइल बा।’
‘गलत हो गइल माने?’
‘उनकर एगो मेहरारू पहिलही से बाड़ी।’
‘तs उनका से बियाहे काहे करवनी रउआ?’
‘इहे तs गलती हो गइल।’
‘ओह! का रउआ पहिले से पाता ना रहे?’
‘पाता रहित तs करबे काहे करती?’ माथ पs हाथ फेरत उ कहले। 
‘लईका का करेला?’
‘कवन लईका?’
‘माने राउर दामाद!’
‘रेलवे में अफसर बाड़े।’ 
‘मिलले कइसे?’
‘विज्ञापन से।’ 
‘रउआ तनिको जांच ओंच ना कइनी?’
‘कइले तs रही।’ उ बोलले, बाक़िर एहसे की उ दहेज ना लेत रहले, बेसी ठोंक-पीट ना कइनी।’ 
‘उ रहे आला कहां के हवे?’
‘गोंडा के।’
‘आ रउआ लो?’
‘इलाहाबाद के।’
‘कवन जात हई?’
‘ब्राह्मण।’
‘आ उ?’
‘उहो ब्राह्मण हवे।’
‘तलाक के मुकदमा दायर हो गइल बा?’
‘हs।’
‘के कइलस?’
‘लईका।’
‘काहे?’
‘अब उ अपना परिवार में लवटल चाहत बा।’ उ बोलल, लवटल चाहत बा का बलुक लवट चुकल बा।’
‘तs ई कहवां रहत बाड़ी?’ लईकी कावर देखावत उ पुछलस। 
‘हमरा संगे इलाहाबाद में।’
‘ओह!’ उ पुछलस। ‘लईका के रउआ ना समझवनी?’
‘उ अभी कहां बाड़े?’
‘भीतरी कोर्ट में।’
‘हम उनका के समझावे के कोसिस करी?’
‘कवनो फायदा नइखे।’ उ बोलल, समझावही के बा तs उनका के ना, एकरा के समझाई। उ एकरा के दुत्कारत बा आ ई ओकरा पेयार में पागल भइल जा तिया।’
‘केतना दिन ले दुनों लो संगे-संगे रहल?’ 
‘बेसी से बेसी दु-तीन महीना।’
‘बियाह भइला केतना दिन भइल?’
‘इहे कवनों आठ महीना।’
‘लईका- फ़ईका के कवनो उमेद तs नइखे?’ उ लईकी  के बाप से कान में फुसफुसा के पुछलस। 
‘ना- ना।’
‘फेर तs ठीक बा।’ उ पुछलस, का दुनों के संगे रहे के कवनों उमेद नइखे?’
‘अब लईका रखहीं के तईयार नइखे तs का करी?’
‘लईकी तलाक से माना काहे करत बाड़ी?’
‘ई ओकरा पेयार में पड़ गइल बिया।’
‘का ई पहिलही से उनका के जानत रहली हs?’
‘ना साहेब। हम इलाहाबाद में रहनी आ उ लखनउ में। चिन्हे-जाने के कवनो सवाले ना रहे।’ लईकी के बाप बोलले, ‘विज्ञापन के जरी जवन चिट्ठी बतकही भइल, तवन हमरे से भइल।’ 
‘बियाह बाजा-गाजा के संगे भइल कि कोर्ट में?’
‘मंदिर में।’
‘लईका ओरि से केहु रहे?’
‘उनके चार-छव गो इयार रहे लो।’ 
‘काहे उनकर माई- बाबूजी?’
‘उ बतवले रहस कि माई- बाबूजी से ना पटेला।’
‘आ भाई- बहिन, नाता-रिश्ता में के केहु?’
‘केहु ना आइल रहे।’ 
‘तs रउआ खटकल ना?’
‘खटकल तs रहे।’ मुड़ी खुजावत लईकी के बाप बोलल, ‘काहे से की लईका रेलवे के निमन नौकरी में रहे, दहेज ना लेत रहे एहीसे ई सब बुझाइयों के ना बुझा सकल। का बताई!’
‘आछा चली कोर्ट  में लईका से बतियावल जाव।’
‘उ ना मनिहे साहेब।’ ढेरे देर से लगही ठाड़ सिपाही राइफल पs टेक लेलही बहुते उदास आवाज में बोलल, ‘बाक़िर रउओ ट्राई मार ली।’
तू का एह लो के रिश्तेदार हवs कि जाने आला?’
‘ना साहेब हम तs अपना ड्यूटी पs बानी।’
‘तs आपन ड्यूटी करs। इहवां बीचे काहे घुसत बाड़s?’
‘हमार ड्यूटी इहें का संगे बा साहेब!’ सिपाही बोलल, ‘हम इहां के राक्षा में बानी!’
‘ओ, तs तुहु इलाहाबाद से आइल बाड़?’
‘हs, हुजूर।’
‘का राउर सुरछो के खतरा बा?’ उ लईकी के बाबूजी से पुछलस। 
‘असल में का भइल कि लईका जब हमरा बेटी के अपना घर से निकाल देलस, तs हम ओकरा खिलाफ दहेक के मोकदमा के अरजी थाना में दे देनी। इलहेबाद में। लईका धरा गइल। बाक़िर फेर समझौता हो गइल आ लईका ओहि दिन छूट गइल। बाक़िर उ समझौता के ना मनलस आ हमरा लईकी के अपना संगे ना ले गइल। हमनी के फेर थाना गइनी सन। बाक़िर थाना वाला ना मानल लो। बोलल लो तू ड्रामा करेलs।’ ई बतावत बतावत लईकी के बाप रो देलस। उ बतावे लागल, ‘फेर हमनी के फ़ैमिली कोर्ट गइनी सs। मेंटीनेंस खातिर। इलहेबाद में। बाक़िर तब ले लईका लखनऊ के फैमिली कोर्ट में तलाक के मोकदमा कs देले रहे। आजू दुसरका पेसी बा। पहिलका पेसी में उ हमनी दुनों बाप- बेटी के गरीयवलस। मारे के धमकी देलस। तs एह बेर हम इलाहाबाद सुरक्षा वेवस्था लेके चलनी हs कि कवनो अनेत ना हो जाव।’ एने लईकी के बाप बोलत जात रहे ओने लईकी रोवते जात रहे। लागत रहे जइसे गंगा-जमुना में बाढ़ आ गइल होखे। 
खुबे चटकार सेनूर लगवले, फ़ैमिली कोर्ट के पांचिल के बहरी ओकर लोर के धार सायद कवनो संगम के खोजत रहे, जवन ओकरा ना मिलत रहे। संगम के शहर के ई लईकी अपना बाप के बोकई, दहेज बचवला के लालच के कस्ट में, अपना मरद से पेयार के आस में अइसे रोवत जात रहे, चुपचाप जइसे कवनो चलनी से आटा झरत होखे, झर-झर, झर-झर। ओकरा कवनों राह ना मिलत रहे। वइसे तस उ बहुते सुनर रहे। आ उ ओकर एहे सुंदरता के देखी के इहवां रोकलो रहे। ओकरा ना पाता रहे कि एह लईकी के जिनगी में एतना बड़हन तूफान आइल बा। ओकर अबोधपना, मासूमियत, आंखिन से लगातार बहत लोर आ माथ पs के चटक सेनूर सब मिलके एगो अइसन कांट्रास्ट रचत रहे कि लागत रहे कि बरगद के एही गाछ के नीचे कवनो नदी फुट पड़ी। आग के नदी। हs ओकरा मन में तs आग के नदिए हिलोर मारत रहे। बाप के बोकई आ मरद के बेरुखी से बिलबिलाईल आ तिलमिलाईल उ लईकी केहुओ के बात माने के तइयार ना रहे। ओकर जिद रहे आ बेर-बेर रहे कि उ अपना मरदे के संगही रही, चाहे जवन हो जाव। 
‘रउआ कुछ कोसिस काहे नइखी करत?’ उ लईकी के बाप कावर तिकवत कहलस। 
‘का करी? अब उनकर पहिलका मेहरी उनका संगही लखनऊ में रहत बिया।’
‘पहिले ना रहत रहे?’
‘ना।’
‘तs का भइल? हम एकरा बादो संगे रह लेब!’ लईकी रोवते बोलल। 
‘बाक़िर उ रखे तब नु?’
‘उ ना रखिहे, तबो हम संगे रह लेम।’ उ अपना बाप आ सिपाही कावर देखत बोलल, ‘हमरा कवनो मोकदमा, तलाक ना चाही!’
‘काहे? काहे ना चाही?’ लईकी के बाप बिलबिलाईल। 
‘काहे कि हम उनका बिना नइखी रह सकत।’ उ बोलल, ‘आ अब हम दोसर बियाहों नइखी कs सकत जइसन रउआ चाहत बानी।’
‘हे भगवान! अब हम का करी?’ आपन माथ धs के माटी पs बइठत लईकी के बाप रो पड़ल। अब ले खालों लईकी रोवत रहे, अब बापो रोवे लागल। उ सिपाहिके ओरि देखलस आ लागल कि उहो बस अब रोवही आला बा। उ सिपाही के ओरि देखलस आ पुछलस, ‘तू ओह लईका के चिन्हे लs?’
‘हs हुजूर! लामा बाड़े।’ उ राइफल संभारत हाली से फ़ैमिली ओरि चलल आ बोलल, आई!’
कोर्ट के बरामदा में उ लईका मिल गइल। लमहर रहे। हैंडसम लेखा। तीस बरिस के अगरी-कगरी के। माने लईकी से आठ बरिस बड़। 
‘हुजूर!’ सिपाही लईका से जाके  बोलल। ‘ई साहेब रउआ से बतियावे के चाहत बानी।’ 
‘बोली!’ उ उनका ओरि आँख तरेरत बोलल। 
‘रउआ तनी, हेने आयेम!’ उ लईकी आ लईकी के बाप के देखावत बोलल। 
‘ना। रउआ एहिजे बताई!’ उ गते से गुराईल। आंखिन में ओकरा ओकरे लेखा घिरना भरल रहे। 
‘आछा उहवां ना, ना सही, हेने कवर आयेम? तनी भीड़ से हट के!’ उ एगो गाछ देखावत बोलल। 
‘ना, रउआ इहवें बताई।’ उ बात शुरू कइलस, ‘आखिर रउआ अपना मेहरारू से का दिक्कत बा?’
‘कवनो दिक्कत नइखे।’ उ आँख फईलावत बोलल, ‘हम अपना मेहरी संगे खुसी से रहत बानी।’ 
‘हम राउर पहिलका मेहर के ना, दुसरका मेहरी के बात करत बानी।’ उ ओकरा आँख में आँख डाल के बोलल, ‘आखिर उनको के संगे राखे में का दिक्कत बा?’
‘दिक्कत ई बा कि हमरा आपन मेहरारू आ लईकन के जन से पेयार बा।’ उ लगभग चबावत बोलल, ‘आ ई हमनी के जान के दुश्मन बाड़ी!’
‘उ कइसे?’
‘संगे राखब तs ई हमनी सभे के जहर दे दिही।’ 
‘का बात करत बानी रउआ?’
‘एकदमे ठीक क़हत बानी।’ उ डपततट बोलल। ‘समझौता के इचिकों गुंजाइस नइखे। बताई भला, जे दहेज ब्चवे खातिर ई जनला के बादो कि हम बियहल बानी, अपना लईकीके बियाह हमरा से कs देलस, उहे दहेज लेहला के मोकदमा हमरा खिलाफ लिखावे के कोसिस कइलस। तs ओकर लईकी कुछो कs सकत बिया।’ 
‘बियाह के पहिले उनका पाता रहे कि रउआ बियहल बानी?’
‘सब पाता रहे।’
‘विज्ञापन के देले रहे?’
‘हम देले रही।’
‘तs विज्ञापन में लिखल रहे कि रउआ बियहल बानी?’
‘ना।’
‘ई त चीटिंग हो गइल?’ 
‘बाक़िर बाद में हम बता देले रही।’
‘का बता देले रही?’
‘इहे कि पहिलका मेहरारू से हमरा ना बनेला, काहेकि उ जाहिल हई, एहिसे दोसर बियाह करत बानी।’
‘आ अब उ जाहिल ना रहली? आ पटे लागल?’
‘हs अब पटे लागल काहेकि उ धोखेबाज ना हई एकरा लेखा। पहिलका मेहरारू एह तरे के कवनो रपट ना लिखवली। जबकि उ लिखव सकत रही।’
‘हो सकत बा हाली-हाली में कवनो गलती हो गइल होख?’ उ बोलल, ‘बाप के कहला में आ गइल होखस।’
‘ना अइसन नइखे।’ हम थाना में इनका से कहले रहनी, ‘देखs जिनगी हमार तहार बा, पढ़ल- लिखल समझदार बाडु, केहु के कहला में मत आवs। बाक़िर हमार ई तनिको ना सुनली आ पोलिस हमार बेइज्ज्ती हम नइखी भुला सकत।’
‘बाक़िर उ केतना अबोध आ निर्दोष बाड़ी!’
‘अगर एतने अबोध आ निर्दोष बाड़ी तs रउआ खुदे काहे नइखी बियाह कs लेत?’ उ ओकरा आँख में आँख डाल के बहुते बदतमीजी से बोलल, ‘रउये कs ली बियाह। कs दी ओकर उद्धार!’
‘का बोका लेखा के बात करत बाड़?’
‘बोका लेखा बात हम ना, रउआ करत बानी। जब हम एक बेर कह देनी कि कवनो समझौता नइखे हो सकत तs नइखे हो सकत।’
‘रउआ सरकारी नौकरी में बानी, रउआ जानत बानी कि उ अगर शिकायत कs देहली रउआ ऑफिस में तs राउर नौकरियों जा सकत बा।’
‘जानतबानी आ खुबे आछा से जानतानी कि उ कुछो नइखे कs सकत!’
‘काहे नइखी कs सकतs?’
‘काहेकि एह ममिला में कानून ओकर साथ ना देवेला। अगर दीहित तs अबले उ शिकायत कs देले रहती।’ 
‘रउआ उनका सुनर रूपो पs तरस ना आवेला?’

‘ना आवे।’ उ बहुते घिरना से बोलल, ‘उ सुनर ना, बिश कन्या हियs। जहर भरल बा दिमाग में ओकरा में।’
‘उ रउआ से बहुते पेयार करेली आ क़हत बाड़ी कि रउआ बिना नइखी रह सकत। रउआ खातिर माई-बाबूजी तक के छोड़े के तइयार बाड़ी।’
‘उ पेयार ना ड्रामा करेले। आ ओकर बापो बहुते चालाक आ धूरत हs।’ 
‘तs कवनो गुंजाइस नइखे? कवनो रास्ता नइखे निकलत?’
‘एकदम ना।’
‘एक बेर फेरु से सोंच के देखी। हमार कहल मान ली।’
‘एह मुदा पs हम तs विधना के कहल माने आला नइखी। ओकरा से कही जवन करे होखे तवन कs लेव!’
‘ई तs सरासर गुंडई बा!’
‘जवने बा अब रउआ जाई! हमरा कवनो बात नइखे करे के।’ कहि के उ हाथ जोड़ लेलस। 
उ वापस लईकी आ लईकी के बाप लगे आ गइल। सिपाहियो संगही रहे। उ अचके किचकिचा के लईकी के बाप से बोलल, ‘दुबे जी, अगर रउआ कही तs कोर्ट के बहरी निकलते एही राइफल के कुंदा से से सारे के कूंच के राख़ दी। रउआ राक्षा में बड्ले बानी। कह देम कि रउआ पs हमला कइले रहल हs। सारे के सभ सेखी निकल जाई। 
‘कूंच दs सारे के!’
‘ना कुछो मत करिह!’ लईकी बिलबिलात बोललस, ‘अगर उहां के छुवबो कईलs तs जान पs खेल जायेम। गवाहियों दे देम तहरा लो के खिलाफ। 
‘ओह! का करी हम एह लईकी के बुझाते नइखे! अभी दुगों लईकी आउर बाड़ी सs.’ लईकी के बाप हमरा ओरि तिकवत बोलल, ‘समझाई तनी एकरा के कि उ तलाक देता तs ले लेव। फेर कही दोसर बियाह कs देब। बाकी दुगों एकरा से छोट बाड़ी सs। ई अइसही रही तs ओकनियों के बियाह में दिक्कत होई। समझाई भइया तनी एकरा के समझाई!’
‘अब मान जा बेटी!’ सिपाहियों मनावत कहलस, उ लव्ण्डा माने आला नइखे।’
‘रउआ लो के जवन करे के बा करी, हमरा जवन करे के होई तवन हम करेम।’ क़हत उ हमरा ओरि आइल आ कहलस, ‘प्लीज, अब रउओ जाई!’ आ उ फेर रोवे लागल।    



[लेखक- दयानन्द पाण्डेय
अनुवादक- अनुराग रंजन

 “ईश्वर बृज” फ़ाउंडेशन के तहत माटी परियोजना के अंतर्गत अनूदित
कहानी- संगम के शहर की लड़की ]



         



 


5 comments:

  1. शादी के ऐसे केस बड़े जटिल होते हैं और लड़की की जिंदगी तबाह हो जाती है l

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  2. कभी कभी परिस्थितियां इससे इतर भी होती हैं,जहां लड़के और उसके परिवार वालो की ज़िंदगी लड़की और उसके परिवार,नात रिश्तेदारो की वजह से बर्बाद हो जाती है।
    खैर अगर कोई लड़की वाकई निर्दोष है तो उसको उसके परिवार के गलती की सजा किसी भी सूरत में नही मिलनी चाहिए।

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  3. बेहतरीन
    बिल्कुल जीवंत वर्णन,जैसे सामने देख रहें हों

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  4. लग रहा है जैसे अधूरी रह गयी कहानी....!

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  5. बहुत जल्दी खत्म हो गयी कहानी

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