Tuesday 21 February 2012

सुंदर लड़कियों वाला शहर

दयानंद पांडेय 

बरसों बाद वह इस अपने पुराने शहर आया था। पुरानी यादों में डूबता उतराता। साथ में अपने एक ख़ास दोस्त को भी लाया था। लाया क्या था वह खुद नत्थी हो कर आ गया था। नत्थी हो कर आया था और अब नकेल बन कर सारे शहर को धांग लेना चाहता था। ऐसे जैसे वह कोई शहर न हो किसी औरत की देह हो और एक-एक पोर, एक-एक अंग, एक ही सांस में भोग लेना चाहता था। उस ने कहा भी कि, यह औरत नहीं शहर है ! वह शहर जो कभी उस का सपना था। इस सपने की शिफत में बड़ी शिद्दत और तफसील में वह उसे घुमाना चाहता था, उसी मन, उसी तड़पन के साथ जो कभी बीते बरसों में उस ने शेयर किया था।

कैमरा कंधे पर लटकाए वह भी साथ घूम रहा था लेकिन एक हड़बड़ी की तख़्ती टांगे हुए। उस की यह हड़बड़ी ही उस के सपनों के इस शहर में पैबंद बन रही थी। एक जगह चाट का ठेला लगा देखा तो वह बोला, ‘शरद, चाट खिलाओगे अपने शहर की ?’

‘बिलकुल, क्यों नहीं !’ शरद ने जोड़ा, ‘मेरे शहर की चाट में जो असीर है वह तुम्हें किसी और शहर में मिलेगी भी नहीं।’

चाट खा कर चलते हुए वह बोला, ‘हां भई, तुम्हारी चाट सचमुच बड़ी उम्दा थी।’ उस ने जोड़ा, ‘तुम्हारे शहर की चाट !’

‘और खाओगे ?’

‘नहीं अब कल फिर खा लेंगे ?’ वह रुका और छह-सात के झुंड में वहां से गुजरती हुई लड़कियों को भर आंख देखने लगा। पूरी बेहयाई से। शरद का मन हुआ कि उसे इस तरह देखने से टोके। पर जाने क्यों झिझक गया। टोका नहीं चुपचाप खुद भी खड़ा लड़कियों को देखता रहा। पर संजीदगी से। उस की तरह बेहयाई से नहीं। उन लड़कियों का ग्रुप अभी पूरी तरह से आंख से ओझल भी नहीं हुआ था कि लड़कियों के दो ग्रुप और सामने आ गये। शरद समझ गया कि यह सिलसिला यूं ही थमने वाला नहीं। लड़कियों के हिप्स की मूवमेंट, उस की दलदल में आंखों को धंसाते हुए शरद ने एक रिक्शा रोक लिया और बोला, ‘चल प्रमोद तू भी बैठ!’ प्रमोद रिक्शे पर बैठ गया तो शरद बोला, ‘चलो, तुम्हें वह नर्सरी स्कूल दिखाऊं जहां मैं पढ़ता था।’ वह बोला, ‘यहीं पास में ही है।’ फिर रिक्शे वाले को स्कूल का नाम बताया। रिक्शा चलने लगा तो दूसरे रिक्शों पर या पैदल चलती लड़कियों, औरतों को भी प्रमोद घूरता चला। अचानक बोला, ‘शरद एक बात है, तुम्हारे शहर की चाट ही नहीं, तुम्हारे शहर की लड़कियां भी सुंदर हैं। बहुत सुंदर हैं।’ उस ने जोड़ा, ‘सुंदर और सीधी।’

‘अच्छा !’

‘हां, शांत, गंभीर। सीधी, सुंदर और भोली। किसी तालाब में सोए हुए कमल के फूल की तरह।’ वह बोला, ‘छोटे शहर की लड़कियों की तुलना महानगरीय लड़कियों से करना बेमानी है।’

‘ये तो है !’

‘अब समझ में आती है पुरानी फिल्मों के गानों की तासीर। तब के शायर छोटे-छोटे शहरों और गांवों से गए थे मुंबई। तो उन के गानों में इन्हीं सुंदर और भोली लड़कियों के अक्स आए और वह गाने अमर हो गए। अब तो फिष्ल्मों में गाने वैसे भी अमूमन शायर लोग नहीं लिखते। कोई भी ‘लिरिक’ लिख देता है। लिख देता है महानगरीय लड़कियों के नाज-नखरे और मशीनी चेहरा देख कर। और गाने पिट जाते हैं।’

‘लड़कियों पर क्या रिसर्च कर रहे हो इन दिनों के गानों पर ?’

‘बात को तोड़ो नहीं।’ प्रमोद बोला, ‘पुराने गानों की तासीर यूं ही नहीं है।’ वह तफसील में आ गया, ‘अभी कुछ बरस ही हुए एक फिष्ल्म आई थी, ‘राजा हिंदुस्तानी।’

‘हां आई तो थी ! चली भी थी ठीक-ठाक !’

‘उस में एक गाना था, ‘परदेसी, परदेसी जाना नहीं।’ वह बोला, ‘यह गाना भी ख़ूब बजा था लेकिन अब कहीं जल्दी सुनाई नहीं देता। चला गया जाने कहां। तब जब कि गाने के बोल ही थे, ‘परदेसी जाना नहीं, मुझे छोड़ के।’ प्रमोद कहने लगा, ‘लेकिन कोई तीन दशक पहले एक फिल्म आई थी ‘जब-जब फूल खिले।’ उस में भी एक गाना था, ‘परदेसियों से ना अंखियां मिलाना, परदेसियों को है एक दिन जाना। जिसे लता और रफी ने अलग-अलग एक ही धुन पर गाया था। यह गाना तो आज भी बजता है अपनी पूरी मिठास, अपनी पूरी मेलोडी के साथ। यह गाना नहीं गया। जानते हो क्यों ?’ वह बोला, ‘क्यों कि यह गाना जरूर ऐसे ही किसी छोटे शहर की किसी भोली और सुंदर लड़की को नजर कर के उसकी ही आंच में लिखा गया रहा होगा। जब कि ‘परेदसी जाना नहीं, जाना नहीं मुझे छोड़ के’ निश्चित ही किसी महानगरीय लड़की के ताप में लिखा गया होगा। इस लिए यह गरमी जल्दी उतर गई। पर वह ‘परदेसियों से ना अंखियां मिलाना’ की आंच आज भी बाकी है।

‘किसी लड़की की आंच लग गई हो इस शहर में तुम्हें भी, तो बताओ ?’ शरद चुहुल करता हुआ बोला, ‘कि तुम भी कोई गाना ही लिख के बताओगे, बांचोगे इस आंच को ?’

‘नहीं भई, तुम संजीदगी को तोड़ो नहीं।’ वह रिक्शे पर बैठे-बैठे कैमरे के थैले को बाएं कंधे से उतार कर दाएं कंधे पर लटकाते हुए बोला, ‘मुझे तो कई बार अलीगढ़ जैसे शहर पर रश्क हो आता है। जानते हो क्यों ?’

‘क्यों ?’

‘क्यों कि वहां एक से बढ़ कर एक उम्दा गीतकार हुए। जां निसार अख़्तर ने कितने संजीदा, कितने भावुक और रोमांटिक गाने लिखे हैं और उन का वह ख़ून ही दौड़ा जावेद अख़्तर की देह में तो जावेद ने भी एक से एक लाजवाब गीत लिखे। मसलन ‘एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा !’ और तो और नीरज के गीतों में ख़ास कर उनके फिल्मी गीतों में जो मांसलता, जो सौंदर्य इस सलीके से छलकता है तो क्या समझते हो इस में सिर्फ नीरज की काबिलियत है ?’ वह बोला, ‘हरगिज नहीं! इस में अलीगढ़ की उन सुंदर लड़कियों का भी बहुत बड़ा शेयर है। आगरा और कानपुर की लड़कियों का भी। तब उन्हों ने लिखा, ‘शोखि़यों में घोला जाए थोड़ा-सा शबाब, उस में फिर मिलाई जाए थोड़ी-सी शराब, होगा नशा जो तैयार, वो प्यार है, प्यार है ! वो प्यार !’

‘क्या बात है !’

‘और वो शहरयार भी तो अलीगढ़ के हैं। अलीगढ़ की ही किसी लड़की की आंखों पर ही तो उन्हों ने लिखा होगा, ‘इन आंखों की मस्ती के मस्ताने हजारों हैं!’

‘ऐसे तो फिर मजरुह सुलतानपुरी ने भी सुलतानपुर या लखनऊ की लड़कियों को अपने गानों में गूंथा होगा। कैफी आजमी ने भी आजमगढ़ या लखनऊ की लड़कियों पर रीझ कर अपने गाने लिखे होंगे। फिर ऐसे ही शैलेंद्र, साहिर, शकील, गुलजार, वगैरह हर किसी के साथ उन के छोटे-छोटे शहरों या गांवों की लड़कियां भोली-भोली, सुंदर-सुंदर लड़कियां, उन के गानों में सोती मिल जाएंगी। तुम किस- किस को जगाते चलोगे ?’ शरद बोला, ‘और जो कोई लड़की बुरा मान जाए, जागने से इंकार कर दे तो ?’

‘तो क्या एक फोटो खीचूंगा और भाग चलूंगा !’ कह कर वह खिलखिला कर हंसा और बोला, ‘सच में झूठ नहीं बोल रहा, तुम्हारे शहर की लड़कियां सचमुच बहुत सुंदर हैं !’

‘पर क्या करोगे, यह अलीगढ़ नहीं है !’ शरद ने तंज भरा जवाब दे कर उसे टोका।

‘पर इस शहर की सारी लड़कियां तुम्हारी बहन भी नहीं हैं !’ शरद के तंज का जवाब प्रमोद ने भी ताने में डुबो कर दिया।

‘बेवकूफी की बात मत करो !’ रिक्शे से उतरते हुए शरद बोला।

‘सॉरी यार तुम तो बुरा मान गए !’ वह फिर से बोला, ‘सॉरी, वेरी सॉरी !’

स्कूल आ गया था। रिक्शे वाले को पैसे दे कर दोनों स्कूल के आहाते में घुस आए। बच्चों की छुट्टी हो चुकी थी पर स्कूल अभी खुला था। स्कूल का बड़ा-सा मैदान वैसा ही था जैसे शरद के बचपन के दिनों में था। वह यह देख कर खुश हुआ। लेकिन हरी घास नहीं थी, पहले की तरह। यह देख कर थोड़ी आंखों को तकलीफ हुई। मैदान के चारों ओर लगे पेड़ों का घनापन भी गायब था। पेड़ थे, लेकिन कुछ-कुछ। आम, लीची और यूकलिप्टस के पेड़। एक पेड़ के नीचे वह दुकान भी नहीं थी जहां से कभी कभार टिफिन टाइम में वह चूरन, चर्खी, पपड़ी और लेमनचूस ख़रीदता था। कभी पैसे दे कर तो कभी रफ कापियों की रद्दी बेंच कर। उस ने यह सब डिटेल्स प्रमोद को दिए तो प्रमोद ने कैमरा निकालते हुए मुसकुरा कर कहा, ‘तुम्हारे बचपन की दो चार फोटो ले सकता हूं ?’

‘अब मेरा बचपन कहां है ?’ शरद बोला, ‘अब तो बचपन की याद है बस।’

‘तो उसी याद की !’ कैमरे की लेंस ठीक करते हुए प्रमोद बोला, ‘और क्या?’

इधर-उधर शरद को खड़ा कर प्रमोद फोटो खींचने लगा और शरद उसे बचपन की बातों का बेबात विस्तार देते हुए। छिटपुट शैतानियों का, टीचर्स और बचपन के दोस्तों की यादों का कोलाज परोसने लगा। छोटी-छोटी बातों का बेबात विस्तार देते हुए। कि, ‘बरसात में यहां पानी भर जाता था तो वह मेढक पकड़ता था, उधर गुल्ली-डंडा खेलता था, इधर कबड्डी और उन पेड़ों के झुरमुटों के बीच आइस-पाइस और यहां क्लास की लड़कियों के साथ एक्खट-दुक्खट !’

‘मतलब लड़कियां तुम्हारी जिंदगी में बचपन से ही शुमार रही हैं ?’

‘क्या बेवकूफी की बात करते हो ?’ शरद बोला, ‘बचपन था तब। नर्सरी स्कूल है यह, डिग्री कालेज या यूनिवर्सिटी नहीं।’

‘हां, पर इतना बड़ा कैंपस तो अब के डिग्री कालेजों को भी मयस्सर नहीं !’ वह बात को रंग देता हुआ बोला, ‘जितना बड़ा कैंपस तुम नर्सरी स्कूल में ही देख गए हो !’

‘ये बात तो है !’

‘पर ये स्कूल है कि थिएटर !’ लाल रंग की उस बिल्डिंग का मुआयना करते हुए वह बोला, ‘आओ इधर खड़े हो जाओ, एक फोटो तुम्हारी यहां भी खींच दूं।’ फोटो खींचने के बाद अपनी दाढ़ी खुजाते हुए उस ने सवाल फिर दुहराया, ‘ये स्कूल है कि थिएटर !’

‘है तो असल में थिएटर ही !’

‘क्या ?’

‘हां !’ शरद बोला, ‘कभी अंगरेज बहादुर यहां थिएटर और डांस ही देखते थे। ब्रिटिश पीरिएड की बिल्डिंग है यह।’

‘वो तो दिख ही रही है।’

‘हां, पर अब भी थिएटर होता है यहां कभी-कभार !’

‘अच्छा ?’ प्रमोद हैरत में पड़ता हुआ बोला, ‘तो पढ़ाई कब होती है ?’

‘पढ़ाई दिन में, थिएटर रात में।’

‘क्यों तुम्हारे शहर में कोई दूसरा थिएटर नहीं है ?’

‘नहीं, प्रोफेशनल थिएटर और इस तरह का तो नहीं।’ शरद बोला, ‘हां, बनने की बात हो गई है। दो बरस पहले सुना था शिलान्यास भी हो चुका है।’

‘अच्छा ?’ प्रमोद पास की रेलवे पटरी को उचक कर देखते हुए वह बोला, ‘अच्छा तो जब ट्रेन यहां से गुजरती है तो क्या नाटक में खलल नहीं पड़ता ?’’

‘बिलकुल नहीं।’ शरद बोला, ‘दो एक मिनट में ट्रेन गुजर जाती है और जब ट्रेन गुजरती है तो जो कलाकार जहां होता है, वहीं फ्रिज हो जाता है। ट्रेन गुजर जाती है तो वह जस का तस शुरू हो जाता है।’

‘तुम ने भी यहां नाटक देखे हैं ?’

‘बहुत !’ शरद बोला, ‘नाट्य प्रतियोगिताएं भी।’ वह बोला, ‘कई स्टेट लेबिल ड्रामा फेस्टिवल हुए हैं यहां।’

‘गजब !’
‘असित सेन की याद है तुम्हें ?’

‘वही कॉमेडियन असित सेन ?’

‘हां।’

‘पर उस का तो निधन हो चुका है।’

‘हां, पर सुनता हूं कि एक समय असित सेन भी यहां थिएटर कर चुके हैं।’

‘तो क्या असित सेन इसी शहर के थे ?’

‘तो ?’

‘नहीं मैं समझ रहा था, बंगाली आदमी कलकत्ते वगैरह का होगा !’

‘तुम असित सेन को सिर्फ कॉमेडियन के तौर पर ही जानते हो ?’

‘हां, वह भी बोगस कॉमेडियन ! हमेशा एक ही स्टाइल। वही बों बों कर के बोलना !’

‘तुम ने राजेश खन्ना, वहीदा रहमान वाली ‘ख़ामोशी’ या अशोक कुमार, सुचित्रा सेन वाली ‘ममता’ फिल्में देखी हैं ?’

‘देखी हैं।’ प्रमोद बोला, ‘क्यों क्या हुआ ?’

‘कैसी लगी ?’

‘गजब ! फैंटास्टिक !’ वह बोला, ‘रेयर और सीरियस फिल्में हैं यह और इन के गाने भी !’

‘जानते हो इन का डायरेक्टर कौन था ?’

‘पता नहीं, याद नहीं आ रहा !’

‘तो सुनोगे तो चौंकोगे !’

‘कौन था ?’

‘यही असित सेन ! जिन्हें तुम अभी बोगस कॉमेडियन बोल रहे थे।’

‘वो बों-बों करने वाला !’

‘हां, वही !’ शरद बोला, ‘दिक्कत यही है कि असित सेन कॉमेडियन को तो लोग जानते हैं पर उन के डायरेक्टर रूप को बहुत कम लोग जानते हैं। जब कि वह गजब के डायरेक्टर थे ! राजेश खन्ना की और भी कई हिट फिल्में असित सेन ने डायरेक्ट की हैं।’ वह बोला, ‘एक समय में विमल रॉय जिन्हों ने दिलीप कुमार वाली देवदास बनाई थी, उन विमल रॉय के भी असिस्टेंट रहे थे असित सेन !

‘रहे होंगे यह तुम्हारे असित सेन विमल रॉय के असिस्टेंट और कॉमेडियन भी।’ प्रमोद बोला, ‘पर ख़ामोशी और ‘ममता’ फिल्मों के डायरेक्टर जो असित सेन थे वह दूसरे असित सेन तो बंगला फिल्मों के भी मशहूर डायरेक्टर रहे हैं। अभी कुछ समय पहले ही उनका भी निधन हुआ है। जबकि तुम्हारे इस असित सेन को गुजरे कुछ साल हो गए।’

‘अच्छा !’ शरद अचकचाते हुए बोला।

‘उदास मत हो।’ प्रमोद बोला, ‘फिर भी इस तुम्हारे स्कूल और असित सेन के थिएटर को अंदर से भी देखना चाहिए !’

‘चलो देखते हैं !’ कह कर शरद प्रमोद को ले कर स्कूल बिल्डिंग कम थिएटर में दाखि़ल होने लगा तो एक चपरासी ने टोकते हुए रोका। शरद ने बड़ी विनम्रता से हाथ जोड़ कर बताया कि ‘वह यहां का पुराना स्टूडेंट है, पुरानी याद ताजी करना चाहता है !’ तो वह चपरासी मुसकुराते हुए मान गया।

इस थिएटर का आर्किटेक्ट देख प्रमोद विस्मित हुआ। फिर शरद ने बताया कि यहां स्टेज पर भी उस ने पढ़ाई की है। तब शायद वह थर्ड या फोर्थ में था। यहां स्टेज पर तब दो क्लासें लगती थीं। एक घटना भी उसे याद आई। एक लड़की ने उस की स्याही की दावात चुरा ली थी। नाम था उस का सविता। सुंदर-सी थी। भोली-सी। बहुत कम बोलती थी। बहुत झगड़ा हुआ था उस से उसका। तीन-चार दिन तक चला था झगड़ा। उस ने उसके बाल पकड़ कर एक दिन खींचा तो उस ने शरद की पीठ पर जोर से काट लिया। इस का बदला शरद ने एक दिन आइस पाइस खेलते हुए लिया। एक पेड़ के पीछे दोनों छुपे थे। दो और लड़के थे। पर शरद ने मौका पाते ही सविता को काटने की कोशिश की। वह जोर से चिल्ला पड़ी। सो शरद ठीक से काट नहीं पाया। वह डर गया। तो सविता हंसने लगी। बाकी लड़के भी। फिर सविता से उस की दोस्ती हो गई।’ वह याद करते हुए बोला, ‘फिर तो क्लास में किसी भी से झगड़ा होता तो सविता और शरद दोनों मिल कर लड़ते।’

‘मतलब मामला जम गया !’

‘नहीं, तब ऐसा कुछ ध्यान में भी नहीं था। फिर भी जैसा कि फ्रायड मानता है, बचपन के सेक्स पर उस की जो मान्यता है, वह कहीं सही भी है। मैं ने और सविता ने भी एक पेड़ के पीछे इसी स्कूल में खेल-खेल में सही, सेक्स-सेक्स भी खेला। ‘डॉक्टर-डॉक्टर’ वाले खेल में’ शरद भावुक होता हुआ बोला, ‘तब सच में वह सेक्स नहीं था, एक जिज्ञासा भर थी, देखने, छूने और महसूस करने की। वह जिज्ञासा जो मुझ में थी, वह जिज्ञासा सविता में भी थी शायद। वह भी यह ‘डॉक्टर-डॉक्टर’ खेली। पर बाद में बोली, ‘गंदी बात ! छि !’ फिर कई दिनों तक वह उस से बोली नहीं। और फिर एक दिन अचानक वह स्याही वाली दावात देती हुई बोली, ‘अपनी दावात ले लो, लेकिन अब कुट्टी।’ फिर उस ने एक अंगुली से अपने गाल, ठुड्डी और माथा छूती हुई बोली, ‘दाल, भात, रोटी, सब्जी कुट्टी।’ उस ने जोड़ा, ‘पक्की कुट्टी !’ और ठुड्डी पर हाथ मार कर दांत से दांत ‘कट्ट’ करा दिए। वह उठने लगी तो जल्दबाजी में दावात की स्याही उस के स्कर्ट पर गिर गई। वह झटके से बोली, ‘कल स्याही भी ला कर दे दूंगी।’

‘वह दूसरे दिन स्याही लाई ?’

‘हां भाई।’ शरद बोला, ‘पर पहले मैं ने ली नहीं। कहा कि कुट्टी है तो स्याही क्यों लूं ? दोस्ती करो तभी लूंगा स्याही। नहीं, नहीं लूंगा।’

‘फिर ?’

‘फिर उस ने दाल, भात, रोटी, सब्जी कह कर चेहरे पर उंगलियां घुमाई और कुट्टी कैंसिल कर मुच्ची कर ली। दोस्ती कर ली तो मैं ने स्याही ले ली। हम लोग फिर से ‘आइस-पाइस’ और ‘एक्खट-दुक्खट’ खेलने लगे।’

‘अब कहां है वह ?’

‘कौन ?’

‘वही तुम्हारी सविता ?’

‘पता नहीं।’ शरद एक गहरी सांस ले कर बोला, ‘है तो पर स्मृतियों में !’

‘क्यों ? सिर्फ स्मृतियों में क्यों ?’

‘क्यों कि उस का घर, उस का मुहल्ला, उसके पिता का नाम मैं न तब जानता था, न अब जानता हूं। तब भी सिर्फ नाम जानता था, अब भी सिर्फ नाम जानता हूं।’

‘कभी पता करने की कोशिश नहीं की ?’

‘बिलकुल मूर्ख हो क्या ?’ शरद बोला, ‘वह उम्र लड़कियों का पता मालूम करने की होती है क्या ? तब इतनी समझ होती है क्या ?’

‘हां, तब तो सिर्फ ‘डॉक्टर-डॉक्टर’ खेलने की समझ होती है !’ कह कर प्रमोद जोर से हंसा। बोला, ‘कोई और ऐसी याद ! जो तुम्हारी स्मृतियों में हो !’

‘हां एक लड़का सम मुखर्जी था। हम लोग जब मेढक पकड़ते तो वह उन छोटे-छोटे मेढकों को मक्खी की तरह मार कर खा जाता। बल्कि निगल जाता ! ऐसी बहुतेरी यादें हैं। टीचरों की, प्रिंसिपल की, दोस्तों की, बार-बार हुए झगड़ों की। अब तो उन झगड़ों की भी बस मीठी-मीठी याद है। जाने कौन टीचर, कौन साथी कहां-कहां होंगे ? किसी के बारे में कोई नहीं जानता !’ वह बोला, ‘पर हो सकता है सब की स्मृतियों में वह सब कुछ ऐसे ही बसा हो। हमें तो लगता है जैसे कल ही की बात हो। अभी घंटी बजेगी, प्रार्थना होगी, राष्ट्रगान होगा, क्लास शुरू होगी, टिफिन होगी, खेलेंगे, खाएंगे, झगड़ेंगे, फिर घंटी बजेगी, क्लास लगेगी, छुट्टी होगी और लड़ते झगड़ते घर जाएंगे। पीठ पर बैग लादे।’

‘चलो मैं ने भी कैमरा अब कंधे पर लाद लिया है।’ प्रमोद बोला, ‘घंटी बजवाओ कि बाहर कहीं और चलें।’

स्कूल की स्मृतियां सहेजे शरद प्रमोद को लिए स्कूल से बाहर आने लगा तो यूकलिप्टस के पेड़ के नीचे से वह फिरंगियां बीनने लगा जो कि तब के दिनों में बीनता था और नचाता था। उस ने दो तीन फिरंगियां सड़क पर उंकड़ई बैठ के नचाईं भी और प्रमोद को दिखाया। बताया कि, ‘यह खेल भी था बचपन में।’

प्रमोद ने भी कोशिश की यूकलिप्टस वाली फिरंगियां नचाने की। पर नचा नहीं पाया।

‘तुम कैमरा ही नचाओ, वही बहुत है !’

‘ये तो है।’

दोनों स्कूल से बाहर आ गये। सड़क पर कुछ लड़कियों को देख कर प्रमोद फिर बोला, ‘‘सचमुच तुम्हारे शहर की लड़कियां बहुत सुंदर हैं। बहुत भोली !’

‘पर कहा न तुम से कि यह अलीगढ़ नहीं है। लेकिन लड़कियां सुंदर है, क्लिक करती हैं ये मैं मानता हूं।’ शरद बोला, ‘जानते हो जब मैं बी॰ ए॰ में पढ़ता था तो मार्निंग क्लास में एडमिशन लिया था। दिन के ग्यारह बजे तक छुट्टी हो जाती थी और मुहल्ले की ज्यादातर क्या हर जगह लड़कियों के स्कूलों की छुट्टी तकरीबन शाम को ही होती। अब इन्हें कैसे देखूं ? तो शाम को किसी न किसी बहाने लड़कियों के स्कूल के रास्ते साइकिल ले कर निकल पड़ता। वह सब भागी-भागी, पैदल-पैदल घर आती होतीं और इधर से मैं साइकिल से जाता होता। धीरे-धीरे।’ वह बोला, ‘लड़कियां भी समझती थीं रोज-रोज मैं क्या करता हूं। और बिन बोले बात हो जाती।’ उस ने जोड़ा, ‘और आंखों को यूरिया मिल जाती। मन को स्फूर्ति !’

‘गजब !’ प्रमोद बोला, ‘अभी कहीं लड़कियों के किसी स्कूल की तुरंत-तुरंत छुट्टी हुई हो तो चलें ?’

‘छुट्टी हुए तो बहुत देर हो गई होगी।’ वह बोला, ‘अब किसी भी रास्ते पर जाना बेकार है !’

‘ख़ैर छोड़ो !’ प्रमोद ने कहा, ‘कुछ और भी दिखाओगे ?’

‘बिलकुल।’ शरद बोला, ‘तो कम से कम चार छः रोज तो रुको ही। एक दो रोज में क्या देख पाओगे। फिर चलो तुम्हें गांव की स्मृतियों से भी रूबरू कराऊं !’

‘गांव वगैरह तो रहने दो अभी।’ वह रुका फिर बोला, ‘यह बताओ तुम्हारे गांव में बाग है ?’

‘है ! क्यों ?’

‘कुछ नहीं।’ वह बोला, ‘जब तुम्हारे गांव चलेंगे तब बाग में रुकेंगे। वहीं बाग में मटन, चिकन कुछ बनाएंगे, दारू पिएंगे और मजा लेंगे !’

‘ठीक ! तो इसी बार चलो।’

‘नहीं अगली बार कभी।’

‘चलो तुम्हें कुछ और चीजें दिखाता हूं।’

‘मसलन !’

‘एक बड़ा मंदिर है यहां। ख़ूब मशहूर !’

‘मंदिर वगैरह भी रहने दो !’

‘इस मंदिर की ख़ासियत यह है कि मनौती तो सब की यहां पूरी होती ही है, मेला भी लगता है हर साल। बड़ा भारी कैंपस है।’ उस ने जोड़ा, ‘इस शहर के सारे जोड़े भी यहीं मिलते हैं। कई लोगों की शादियां भी यहीं तय होती हैं। लड़कियां भी लोग यहीं देखते हैं। और जाने क्या-क्या तो होता है यहां !’

‘इंटरेस्टिंग !’ वह बोला, ‘यह बताओ कोई लड़की मेरी शादी के लिए मुझे अभी दिखा सकते हो ?’

‘तुम्हें शादी करनी भी है ?’

‘मैं सीरियस हूं।’ वह बोला, ‘तुम्हारे शहर की लड़कियों को देख कर !’

‘कितनी बार इस तरह तुम सीरियस हो चुके हो ?’

‘इस बार सचमुच सिरीयसली सिरियस हूं !’

‘सच !’

‘हां, भाई !’

‘तो अगली बार कभी फिर आना तो देखा जाएगा !’

‘अगली बार क्यों ? इसी बार क्यों नहीं ?’

‘कुछ ढंग के कपड़े भी तो पहने होते तुम !’

‘क्यों यह सिल्क का कुर्ता ढंग का नहीं है ? और ये पैंट भी ठीक है।’ वह बोला, ‘हां दाढ़ी थोड़ी करीने से नहीं है !’

‘तो ?’

‘तो क्या वहां यह बताने की जरूरत भी क्या है कि मैं लड़की देखने आया हूं।’ वह बोला, ‘रुटीन में देख लूंगा। समझ आई तो ठीक। बाद में बात हो जाएगी।’

‘तो चलो !’ कह कर दोनों एक परिचित के घर पहुंचे। जहां एक लड़की थी शादी के इंतजार में। प्रमोद को लड़की पसंद भी आ गई और प्रमोद ने आंखों-आंखों में शरद को संकेत किया कि बात अभी शुरू कर दिया जाए। पर शरद टाल गया।

घर से बाहर निकल कर प्रमोद बड़बड़ाने लगा, ‘बात शुरू करने में हर्ज क्या था?’

‘हर्ज था। तभी तो बात नहीं की।’

‘क्या हर्ज था ?’

‘पहले लड़की की, लड़की के घर वालों की राय भी तो जाननी होगी।’ शरद बोला, ‘चलो तुम तैयार हो पर क्या गारंटी है कि लड़की और लड़की के घर वालों को तुम भी पसंद हो ?’ वह बोला, ‘यह कोई हिंदी फिल्म का सीन तो है नहीं कि देखा और ख़यालों-ख़यालों में शादी हो गई ।’

‘चलो तुम बात कर के बताना !’ प्रमोद बोला, ‘नाराज क्यों होते हो !’ कह कर वह एक जगह रुका और सिगरेट में चरस भरने लगा। चरस भर कर सिगरेट सुलगाते हुए बोला, ‘चलेगी ?’

‘चलेगी। लेकिन प्लेन।’ शरद बोला, ‘यह चरस वाली नहीं।’

‘कोई एकांत जगह है यहां ?’

‘क्यों ?’

‘कोई पार्क ? या कोई और जगह ! जहां बैठ कर सिगरेट पी जा सके। सुकून से बैठ कर गाने गुनगुनाए जा सकें।’

‘हां, है थोड़ी दूर पर।’ वह बोला, ‘आइडिया अच्छा है !’

रिक्शा रोक कर दोनों सिगरेट सुलगाए बैठ गए। एक प्लेन सिगरेट पर था, दूसरा चरस वाली सिगरेट पर। अचानक प्रमोद बोला, ‘यहां कहीं शराब की दुकान होगी ?’

‘क्यों ?’

‘क्वार्टर-अद्धा कुछ ले लेते हैं। थोड़ी-थोड़ी खींच लेंगे।’

‘ठीक है !’ कह कर रिक्शे वाले से उस ने कहा, ‘किसी अंगरेजी शराब की दुकान पर चलो। जो पास में हो !’

एक अद्धा विह्स्की के साथ दो तीन पानी की ठंडी बोतलें, दो गिलास और नमकीन का पैकेट लेकर फिर दोनों चल पड़े। रिक्शा उस पार्क के पास आ गया था पर शरद को पार्क दिखाई नहीं दे रहा था। रिक्शा वाला बोला, ‘यही जगह है !’ तो बड़बड़ाते हुए वह उतर पड़ा। प्रमोद भी उतरा।

‘यहीं कहीं वह पार्क होता था। काफी बड़ा-सा।’

‘पार्क है तो !’ प्रमोद बोला।

‘कहां ?’

‘वो देखो उधर। पर बड़ा नहीं छोटा है।’

‘यह तो बाजार है।’

‘बाजार भी है और पार्क भी !’

‘पर यहां पहले तो बाजार नहीं था। न ही यह पार्क इतना छोटा था। न ही ये बिल्डिंगें थीं, न सामने यह कॉलोनी, न इतनी चमचमाती ट्यूब-लाइटें।’

‘कितने साल बाद तुम अपने इस शहर आए हो ?’

‘यही कोई दस बारह साल हुए होंगे।’

‘तो तुम चाहते हो इतने सालों में तुम्हारा शहर बिलकुल न बदले ?’ प्रमोद बोला, ‘तुम्हारे स्कूल के मैदान में घास गशयब थी तो तुम दुखी हो गए। पेड़ कम देख कर दुखी हो गए।’ वह बोला, ‘अब तुम यहां बाजार, आफिसों की बिल्डिंग और नई कॉलोनी देख कर दुखी हो रहे हो। यह तो कोई बात नहीं हुई ! अरे, मैं कहता हूं कि इस नास्टेल्जिया से छुट्टी लो, छुट्टी ! दुखी होना बंद करो !’

‘मैं दुखी नहीं हो रहा।’ शरद बोला, ‘मै तो सिर्फ एक बात कह रहा हूं। कह रहा हूं कि यहां ऐसा नहीं था।’

‘हां, ये बात और है।’

‘जानते हो इस को हम लोग पार्क के नाते नहीं स्कूल के नाते जानते थे। एक छोटा-सा हिस्सा पार्क के तौर पर भी था। बस ! बड़ा-सा मैदान था इतना कि जिश्ला स्तर पर स्कूलों के खेल यहीं होते थे। तुम्हें पता है यहीं मैं एक पेड़ के पीछे एक लड़की से जब-तब मिलता था जो तब मेरे साथ पढ़ती थी।’

‘अब तुम कहोगे कि वह पेड़ दिखाई नहीं दे रहा !’

‘हां, बिलकुल।’ शरद बोला, ‘वह बड़ा-सा इमली का पेड़ था। था तो इमली का पेड़ पर काया उस की बरगद के पेड़-सी विशाल थी।’ वह पुरानी यादों में खोता हुआ बोला, ‘जानते हो इमली जब फली होती तो वह जब-तब बड़े मनुहार से कहती, ‘मेरे लिए इमली नहीं तोड़ोगे ?’ ख़ास कर कच्ची इमली तोड़ने पर वह ज्यादा जशेर देती और जब मैं कहता कि, ‘नहीं, नहीं तोड़ पाऊंगा।’ तो वह कहती, ‘लोग अपनी माशूकाओं के लिए चांद तारे तोड़ लाते हैं और तुम थोड़ी सी कच्ची इमली नहीं तोड़ सकते ?’ वह धिक्कारती, ‘तुम मेरे लिए कुछ करना ही नहीं चाहते !’

‘क्यों नहीं तोड़ देते थे तुम इमली ?’ प्रमोद सिगरेट पीता हुआ बोला, ‘क्यों उस का दिल तोड़ते थे ?’

‘इस लिए कि मैं अपने हाथ पांव नहीं तोड़ना चाहता था।’ शरद बोला, ‘उस पेड़ पर चढ़ना आसान नहीं था, कोई बड़ा डंडा पास नहीं होता था। हां, फिर भी मैं उसे इमली खिलाता था।’ वह बोला,

‘खरीद कर लाया होता था। कभी कच्ची, खट्टी इमली, कभी मीठी-खट्टी और पकी इमली। और वह ज्यों इसरार करती, इमली का पैकेट उसे थमा देता ! उस का इसरार फिर भी इमली तोड़ने पर रहता तो उसे जगजीत सिंह की गाई एक गजल गुनगुना कर सुना देता था, ‘तेरा चेहरा कितना सुहाना लगता है। तेरे आगे चांद पुराना लगाता है।’ इस गजल में कहीं यह भी बात आती थी कि तुझ से मिल कर खट्टी इमली भी मीठी लगती है और न मिलने पर शहद भी खारा लगता है। कुछ-कुछ ऐसा ही। पर वह मिसरे अभी ठीक-ठीक याद नहीं आ रहे।’ वह बोला, ‘यह सुनते ही वह खुश हो जाती और फिर उस के खट्टेपन की सिसकारी भरने लगती। बेपरवाह हो जाती। इसी बीच कभी-कभी मैं उसे कस के पकड़ कर चूम लेता। तो कभी वह खिस्स से हंसती हुई शरमा जाती तो कभी नाराज होती हुई उठ कर खड़ी हो जाती। अपनी साइकिल उठाती और लाख रोकने पर भी चली जाती। उस का मूड ही कुछ और था। अजीब मूडी थी।’

‘कहां है इन दिनों यह तुम्हारी मूडी इमली वाली गर्ल फ्रेंड ?’ प्रमोद तंज करता हुआ बोला, ‘या कि नर्सरी स्कूल वाली सविता की तरह इस का भी अता पता मालूम करने की उम्र तब नहीं थी ? कि तब भी नादान थे ?’

‘नहीं तब ऐसी उम्र थी।’ शरद बोला, ‘पता भी है कि कहां है ?’

‘कहां है ?’

‘जाने भी दो, शादी-वादी हो गई है उस की।’

‘अच्छा ?’ प्रमोद बोला, ‘शादी के बाद भी कभी भेंट हुई इस इमली वाली से तुम्हारी ?’

‘हां, दो तीन बार। लेकिन यूं ही रुटीन !’

‘अब तो बच्चे भी हो गए होंगे ?’

‘हां, दो बच्चे हैं।’

‘अच्छा इस इमली वाली के साथ भी कभी, डॉक्टर-डॉक्टर खेला तुम ने ?’

‘क्या बेवकूफी की बात करते हो ?’

‘इस में बेवकूफी क्या है ?’

‘इस उम्र में डॉक्टर-डॉक्टर खेला जाता है भला ?’

‘तो ?’

‘तो क्या ?’

‘मतलब कुछ हुआ ही नहीं ?’ प्रमोद बोला, ‘ऐसा तो हो नहीं सकता तुम्हारे साथ कि ‘मैं ने तुम को छुआ और कुछ नहीं हुआ।’ वह बोला, ‘कुछ तो हुआ ही होगा इमली वाली के साथ !’

‘हां, सिनेमा देखा !’ शरद बोला, ‘उसी में जो उसे टटोल पाया टटोला, चूमा! बस। वह भी बड़ी मुश्किल से !’

‘मतलब बात ‘आइस-पाइस’ तक रह गई। डॉक्टर-डॉक्टर नहीं खेल पाए। क्यों ?’ उस ने पूछा, ‘क्या इमली वाली तैयार नहीं हुई ?’

‘वह तो तैयार थी !’

‘तो ?’

‘जगह ही नहीं मिली।’ शरद बोला, ‘तब हम संकोची बहुत थे। यह छोटा शहर हमारे संकोच को और बड़ा कर देता। तब इतना खुलापन भी नहीं था। हमारे घर भी दूर-दूर थे।’ वह बोला, ‘चाह कर भी संभव नहीं हुआ !’

‘शादी क्यों नहीं की तुम ने इमली वाली से ?’

‘संकोच !’ शरद बोला, ‘यह कहने की सोचता ही रह गया और उस की शादी तय हो गई।’

‘शादी में गए थे तुम ?’

‘गया था !’

‘बुरा नहीं लगा ?’

‘‘बुरा-भला सब संकोच के पत्थर में दब-दबा गया था !’

‘चलो यह भी एक ट्रेजिडी है। मिडिल क्लास ट्रेजिडी !’ प्रमोद बोला, ‘ऐसा बहुतों के साथ होता है ! प्यार करते-करते भइया बन जाते हैं।’ वह रुका और बोला, ‘तुम तो भइया नहीं बन गए ?’ उस ने जोड़ा, ‘इमली वाली के भइया !’

‘नहीं।’ शरद बोला, ‘इतनी दुर्गति नहीं हुई।’

‘चलो फिर लकी हो !’

‘क्यों ?’

‘अब मेरा ही लो।’ शराब देह में ढकेलता हुआ प्रमोद बोला, ‘तीन चार बार भइया बन चुका हूं।’

‘अच्छा ?’

‘तो और क्या ?’

‘छोड़ो भी कुछ और बात करते हैं।’ शराब ख़त्म करते हुए प्रमोद ने बोतल नीचे फेंक दी। बोला, ‘तुम्हारे इस शहर में रेड-लाइट-एरिया है कहीं ?’

‘होता तो था पहले।’ शरद बोला, ‘पता नहीं अब क्या हालत होगी ?’

‘हां, हो सकता है उस का भी नक्शा बदल गया हो !’

‘हो सकता है !’

‘तुम कभी गए हो इस शहर के रेड-लाइट-एरिया में ?’

‘हां, जब पढ़ता था यहां तो दो चार दफा गया हूं।’ शरद बोला, ‘हस्त मैथुन से आजिज आ कर !’

‘अच्छा, यहां जाते संकोच नहीं लगा ?’

‘लगा ! पर छुपते-छुपाते चोरों की तरह गए।’ शरद बोला, ‘पर यहां की औरतों के साथ संभोग करना, न करना बराबर ही है।’

‘क्यों ?’

‘इन बाजारू औरतों का ध्यान तो सिर्फ पैसे पर होता है। एक ग्राहक निपटा कर, दूसरा पटाने पर ध्यान रहता है। तो संभोग का सुख ऐसे में तो मिलता नहीं। तिस पर ‘ऐसे करो, यह मत छुओ, यहां मत करो’, ‘जो करना है जल्दी करो’ जैसे काशन मन ख़राब कर देते।’ शरद बोला, ‘वो तो कहो कि तब लौंडे थे, कबड्डी-कबड्डी वाला जमाना था, जाते ही डिस्चार्ज हो जाना था, तो दो चार बार चल गया। लेकिन हस्त मैथुन से भी ज्यादा आजिज हो गया। तो फिर नहीं गया।’ वह बोला, ‘तब तो दो चार बार चला भी गया, अब तो बिलकुल संभव नहीं है। कम से कम मेरे लिए।’ शरद थोड़ा और तफसील में गया, ‘संभोग जैसी चीज सुकून और सलीके से होनी चाहिए तब उस का सुख मिलता है। कहीं तन के साथ मन भी इनवाल्व हो तब सेक्स का सुख मिलता है। जो इन बाजारू और गंदी औरतों के साथ संभव नहीं। कम से कम मैं तो उन के साथ संभोग नहीं कर सकता। बिलकुल नहीं।’

‘तो तुम वहां चल कर भी कुछ नहीं करोगे ?’

‘बिलकुल नहीं।’ शरद बोला, ‘बल्कि मेरी राय है कि तुम्हें भी नहीं जाना चाहिए।’ वह बोला, ‘वैसे भी पचासियों यौन बीमारियां सुनता हूं लोग वहां से ले कर लौटते हैं !’

‘अब भाषण झाड़ कर मेरा मूड मत ख़राब करो। चुपचाप चले चलो।’ वह बोला, ‘कंडोम का कवच किस लिए है ?’

‘पर हजूर हम अंदर नहीं जाएंगे।’ रिक्शा वाला बोला, ‘बाहर सड़क पर उतार देंगे। आप लोग चले जाइएगा।’ उस ने जोड़ा, ‘वैसे भी अब वहां कुछ रह नहीं गया है!’

‘कुछ तो है ?’ प्रमोद बलबलाता हुआ बोला।

‘अब जा कर के खुद देख लीजिए !’

अपने कहे के मुताबिक रिक्शा वाला सड़क पर ही उतार कर चलता बना।

आंख चुराते हुए शरद प्रमोद को लिए उस बदनाम गली में दाखिल हुआ। जा कर वहां की उस चाय की गंदी दुकान पर आंख झुका कर बैठा। इधर-उधर ताक झांक की। लेकिन कोई भी औरत इधर-उधर भटकती या इशारा करती नहीं दिखी। दो एक औरतें दिखीं भी तो बूढ़ी, लाचार और बेख़बर !

कोई भड़वा भी पास नहीं आया कुछ पूछने। प्रमोद बैठे-बैठे उकता रहा था। शरद ने उस से पूछा, ‘चाय पियोगे ?’

‘नशा उतारना है क्या ?’ वह उकताया हुआ बोला।

‘अच्छा चलो, दो एक दूसरी जगह चलते हैं।’

‘चलो !’ कह कर उस ने कैमरा कंधे पर टांग लिया। प्रमोद के साथ शरद इस गली, उस गली जल्दी-जल्दी भागता फिरा। फिर भी कोई औरत बुलाती, संकेत करती या उस स्टाइल की नहीं दिखी। मकान भी शरद ने गौर किया, कई बदल गए थे। कई कच्चे खपरैल के मकानों की जगह पक्के दुमंजिले मकान थे। फिर भी कुछ खपरैल वाले कच्चे मकान अभी छिटपुट बाकी थे।
‘क्या यहां भी सब कुछ बदल गया ?’ प्रमोद उतावली में बड़बड़ाया।

‘हां, काफी कुछ !’

‘यह रेड-लाइट-एरिया है भी ?’

‘है तो !’

‘मुझे तो लगता नहीं।’

‘लेकिन है यह वही जगह।’ कह कर शरद ने प्रमोद के साथ तीन चार घरों के दरवाजे भी बारी-बारी खटखटाए। पर कोई रिस्पांस नहीं मिला। उलटे दो जगह तो लोग ‘समझ’ गए और भिंड़ गए। बोले, ‘यह शरीफों का मुहल्ला है !’

शरद ने प्रमोद से हाथ जोड़ा। पर प्रमोद मानने वाला नहीं था। एक आदमी को पकड़ लिया। उस से पूछ ताछ की तो उस आदमी ने बताया कि, ‘है तो साहब रेड लाइट एरिया ही यह। पर इधर पुलिस की सख़्ती ज्यादा बढ़ गई है।’ वह बोला, ‘अभी कल ही बारह लड़कियां पकड़ी गई हैं, सो आज सन्नाटा है !’

‘मुझे तो स्टेशन छोड़ दो !’ प्रमोद बिगड़ता हुआ बोला।

‘क्यों ?’ शरद ने पूछा, ‘क्या शादी में नहीं चलोगे ?’

‘मैं अब फेड-अप हो गया हूं।’ वह बोला, ‘किसी शादी वादी में नहीं जाना। बस तुम मुझे स्टेशन छोड़ दो।’

‘तुम पर इस समय शराब सवार है कि चरस ?’ शरद ने पूछा, ‘यह औरत की तलब तो है नहीं ?’

‘आई डोंट नो।’ प्रमोद अंगरेजी पर उतर आया, ‘यू डोंट आर्गू !’

‘लेकिन ?’ शरद ने कुछ कहना चाहा।

‘नो फरदर डिसकसन !’ प्रमोद आजिज हो कर बोला।

शरद भी तब कुछ नहीं बोला। प्रमोद को रिक्शे से स्टेशन छोड़ कर शादी अटेंड करने चला गया। उन्हीं लस्त पस्त कपड़ों में। क्यों कि यह उस का अपना ही शहर था। सुंदर लड़कियों वाला शहर ! कोई अलीगढ़ नहीं था !


सुंदर लड़कियों वाला शहर
पृष्ठ-192
मूल्य-200 रुप॔ए

प्रकाशक
जनवाणी प्रकाशन प्रा. लि.
30/35-36, गली नंबर- 9, विश्वास नगर
दिल्ली- 110032
प्रकाशन वर्ष-2003


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