राजनाथ सिंह सूर्य आप कभी शीशा भी नहीं देखते क्या? कभी देख लिया कीजिए। इस लिए भी कि दर्पण ही एक ऐसी चीज़ है कि अगर उसे सोने के फ़्रेम में भी मढवा लीजिए तो भी वह झूठ नहीं बोलता। आप लिख रहे हैं कि वर्तमान और भावी पत्रकारों की आप के प्रति जो आस्था है उसे आघात न लगे इस लिए कुछ तथ्य स्पष्ट कर रहे हैं। अरे, वो कौन पत्रकार हैं जो आप में कभी आस्था भी रखते रहे हैं? या रखेंगे? यह तो शेख चिल्ली वाली बात हो गई। कुछ-कुछ वैसी ही बात हो गई जैसे अमर सिंह कहें कि राजनीति में वह लोहिया के वारिस हैं। और कि आदर्शवादी राजनीति के लिए याद किए जाएंगे। और आप आघात की बात कर रहे हैं? अरे आघात ही आघात है। राजनीति में जो चेहरा अमर सिंह का है, पत्रकारिता और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ में उस से भी ज़्यादा गया-बीता चेहरा आप का है। रज्जू भैया के एहसान भूल कर आप ने बार-बार बाला साहब देवरस की बात की है। वह आप को पहचानते भी हैं भला? कि आप को पत्रकारिता में पचास साल पहले भेज दिए? और फिर राजनीति में भी? भई वाह ! अपने मुंह मिया मिट्ठू ! शायद इसी को कहते हैं। और फिर आप के वह सर संघ चालक रहे हैं। परंपरा है संघ में उन्हें परम पूजनीय कहने की। आप तो पूजनीय भी नहीं कह रहे। अच्छा आप सुबह या शाम की किसी शाखा में जाते हैं अभी? या फिर कितने दिन हो गए आप को शाखा में जा कर ध्वज-प्रणाम किए? या नमस्ते सदाव्रत सले मातृभूमे ! गाए हुए? नहीं याद है? तो जाने दीजिए। आखिर मार्निंग वाक से फ़ुर्सत मिले तब तो जाएं भला? अच्छा यह बता दीजिए कि अभी चुनाव के दौर हैं, कहीं भाजपा के प्रचार के लिए भी गए क्या? अच्छा कोई नहीं पूछता या नहीं बुलाता? हां, तब कैसे जाते भला? आप के जूनियर कलराज मिश्र तो जहां आप रहते हैं उसी क्षेत्र से लडे हैं। कभी यह भी मन हुआ कि उन के लिए डोर टू डोर ही हो लें? चलिए जाने दीजिए इन बातों को भी। आप की सफाई पर गौर करते हैं।
आप ने जो अपनी सफाई के ६ बिंदु पेश किए हैं उस से तो आप का चेहरा और मलिन हो जाता है। न पेश किए होते तो ज़्यादा अच्छा था। खैर पेश किया है तो ज़रा उस का ज़ायका भी लीजिए ना प्लीज़! बताइए भला कि आप अपने को वर्तमान और भावी पत्रकारों का आदर्श मनवाने पर तुले हुए हैं। और झूठ पर झूठ गढे जा रहे हैं। आप बता रहे हैं कि स्वतंत्र भारत में आप ने दस पेज का इस्तीफ़ा दिया था। जो आप के मित्रों के पास दस्तावेज रुप में मौजूद है। इस्तीफ़ा पायनियर प्रबंधन को दिया था कि मित्रों को? बताइए भला इस्तीफ़ा भी दस पेज का होता है? अरे, आप को पहले ही इस का खुलासा करना चाहिए था। यह तो वर्ल्ड रिकार्ड का मामला हो गया। कहां हैं गिनीज रिकार्ड वाले भाई ! दर्ज करें इस दस पेज के इस्तीफ़े का रिकार्ड ! अब समझ में आया कि जब आप ने अपने नाम के आगे सूर्य लगाया था तो लोग क्यों आप को राजनाथ सिंह सूर्य की जगह राजनाथ सिंह जुगनू कहने लग गए थे। बताइए भला कि आप को पता ही नहीं है कि आप के सहपाठी और तत्कालीन मुख्यमंत्री वीरबहादुर सिंह ने स्वतंत्र भारत में आप को संपादक बनवाने के लिए सिफ़ारिश की कि नहीं। बताइए वो बेचारा सब कुछ दांव पर लगा कर सूचना विभाग से विज्ञापन मद में ३६ लाख पायनियर को एडवांस दिला कर आप को संपादक बनवाता है। और आप को मलूम ही नहीं पडता। ए भाई आप तो बडे मासूम हैं। इतना मासूम होना अच्छी बात नहीं है। खैर तब तो आर टी आई नहीं था, पर अब है। कहिए तो पता करवा कर आप को बताऊं सप्रमाण? अच्छा आप को यह तो पता ही होगा कि आप ने किस विषय में पढाई की है? गोरखपुर विश्वविद्यालय से ? और कब ? नहीं ! ए भाई, आप की याददाश्त भी बहुत कमजोर है। बताइए भला कि वीरबहादुर सिंह आप से जूनियर हो कर भी आप के सहपाठी बन गए ? कैसे भला ? वीरबहादुर सिंह तो भूगोल में एम ए किए थे १९६५-६६ में। और आप? आप तो १९५९-६० में ही वहां विद्यार्थी परिषद के उम्मीदवार बन कर छात्र संघ का चुनाव लड कर हार गए थे युवक कांग्रेस के माधवानंद त्रिपाठी से। नहीं याद है? भूल जाइए। हम भी भूल जाते हैं।
आप ने कहा है कि आप को दो लाख ग्रेच्युटी आदि "आज" से मिली तो गोमती नगर वाले मकान का रजिस्ट्रेशन करवाया। रजिस्ट्रेशन और रजिस्ट्री का फ़र्क भी आप अपने आदर्श झूठ में गडमड किए जा रहे हैं। गोमती नगर के जिस मकान में अब आप रह रहे हैं उस का तब रजिस्ट्रेशन शुल्क था १८ हज़ार रुपए। नारायणदत्त तिवारी तब मुख्यमंत्री थे। ४० प्रतिशत सबसिडी के साथ। उन्हीं की बनाई योजना थी यह। सच यह है कि तब मेरे जैसों के पास पैसा नहीं था कि उस का रजिस्ट्रेशन करवाते। खैर वीर बहादुर सिंह जब मुख्यमंत्री हुए तब उस मकान का कब्जा लेने के लिए ७ हज़ार रुपए और जमा करने पडे पत्रकारों को। मतलब कुल पचीस हज़ार में कब्जा मिला। ९०० रुपए महीने की किश्त बंधी। मकान का कुल मूल्य तब ९० हज़ार रुपए था, ८० हज़ार नहीं जैसा कि आप ने लिखा है। छोटे वाले मकान का तो और भी कम था। और किसी भी संस्थान में ग्रेच्युटी किस आधार पर और कितनी मिलती है आप जानते भी हैं भला? स्वतंत्र भारत में आप ही की श्रेणी के एक पत्रकार थे शिव सिंह सरोज। १५ अगस्त, १९४७ से स्वतंत्र भारत में थे। लेकिन सब लोग रिटायर होते गए वह नहीं। और जब १९८७ में वह प्रतीकात्मक रुप से रिटायर किए गए तब भी उन्हें ग्रेच्युटी आदि के दो लाख रुपए नहीं मिले थे। तो आप से तो वह न सिर्फ़ उम्र, सेवा अवधि बल्कि वेतन में भी हर हाल में आगे थे। तो आप कैसे दो लाख पा गए ग्रेच्युटी आदि के, समझना कुछ नहीं, बहुत कठिन है। फिर स्वतंत्र भारत में तो पी एफ़, पी एफ़ आफ़िस में जमा होता था, अच्छा खासा व्याज जुडता जाता था। पर "आज" तो अपने ही ट्रस्ट में पी एफ़ जमा करता रहा था। सो पी एफ़, ग्रेच्युटी आदि से दूसरों को भरमाइए, हम जैसों को नहीं।
आप कह रहे हैं कि बहुतेरे मुख्यमंत्री आदि आप के घर आते थे। क्या करने आते थे भाई ? रामायण पाठ करने ? एक वीर बहादुर सिंह आप के ठाकुरवाद में आ गए तो आप ने सब को जोड दिया ? अच्छा एक बार मान ही लेते हैं कि सब आते थे। तो क्या कल्याण सिंह, राजनाथ सिंह भी आए ? मुख्यमंत्री रहते हुए ? आखिर आप की पार्टी के थे। या कि अटाल बिहारी वाजपेयी आए ? वह तो आप के घर के बगल ही में रहते भी थे और वहीं पास में वोट भी डालते थे। लेकिन नहीं आए। जानते हैं क्यों? उन सब लोगों को पता था कि आप क्या-क्या करते धरते हैं? मैं तो राजनाथ सिंह जब इमरजेंसी लगी तब विद्यार्थी था। मूंछें भी ठीक से नहीं आई थीं। लेकिन इमर्जेंसी के खिलाफ़ जुलूस में शामिल हो कर लाठियां खाते हुए जेल भी गया था। आप भी जेल गए थे क्या? लखनऊ से तो कई पत्रकार भी जेल गए थे तब। और फिर आप तो संघ के प्रचारक रहे थे, पत्रकार भी थे। अच्छा तब भी नहीं गए। इमर्जेंसी का विरोध नहीं कर रहे थे क्या ? ओह ! हां लोग बताते तो हैं कि आप तब के मुख्यमंत्री नारायणदत्त तिवारी से सिफ़ारिश करवा कर इमेरजेंसी में बंद लोगों को जेल से पेरोल पर रिहा करवाते थे। इस के बदले कुछ 'खर्चा' ले लेते थे तो क्या ? लोग तो यह भी बताते हैं कि नाना जी देशमुख ने पोस्टर का एक बंडल भेजा था रेल से तब इंदिरा गांधी की तानाशाही के खिलाफ़। और आप को जिम्मा सौंपा गया था कि वह पोस्टर ला कर लखनऊ की दीवारों पर चिपकवा दें। पर यह पोस्टर चिपकवाना तो दूर आप तो स्टेशन से यह पोस्टर भी लाने नहीं गए। ऐसी बहुत सी कहानियां हैं आप की निष्ठा, नैतिकता और चरित्र की लोगों के पास। तिस पर भी आप कह रहे हैं कि आप कभी किसी से उपकृत नहीं हुए। वह जो लारेंस टैरेस यानी नवल किशोर रोड पर जो आप का दो कमरे का फ़्लैट है क्या बिना उपकृत हुए आप को आवंटित हो गया ? क्या ऐसे मकान किसी भी ऐरु- गैर, नत्थू- खैरु को आवंटित हो जाता था क्या तब के दिनों ? सौ-पचास रुपए के मामूली किराए पर ? जिस को आप ने बाद में एक लाख दस हज़ार में जैसा कि आप बता रहे हैं, आप ने खरीद लिया। बताइए आप तो यहां भी फंस गए। लखनऊ विकास प्राधिकरण का नियम है कि कोई भी व्यक्ति अपने या अपने परिवारीजन के नाम से एक से अधिक मकान नहीं रख सकता। शपथ पत्र भी इस बारे में देना पडता है। आप ने भी दिया ही होगा? अगर कोई कानून का जनकार आप के पीछे लग गया तब क्या होगा?
खैर आप को बहुत इल्हाम है अपनी खबरों को ले कर भी। लखनऊ में तो हम या हमारे जैसे लोग राजनाथ सिंह को प्रायोजित खबरों और खबरों की प्लांटिंग के लिए ही जानते हैं। जब राजनाथ रिपोर्टर थे तब के दिनों के लिए भी या जब संपादक थे तब भी। तो भी अच्छा लगेगा जो राजनाथ सिंह अगर अपनी टाप फ़ाइव या टाप टेन खबरों की एक सूची परोस दें हम अज्ञानियों के लिए और बता दें कि देखिए हम ने इन-इन खबरों के मार्फ़त फ़ला-फ़ला का भंडाफोड किया था ! हम लोगों के ज्ञान में भी थोडी वृद्धि हो जाएगी। इंडियन एक्स्प्रेस वाले एस के त्रिपाठी की याद है ? कि ब्लिट्ज़ वाले बिशन कपूर की ? तरुण काति भादुडी या विक्रम राव जैसों के नाम तो खबरों के लिए लखनऊ में हम सुनते ही रहते थे अपनी जवानी के दिनों में। पर आप ? अभी तक तो हम ने देखा है कि आप को खबरों की समझ भी नहीं है। आप को तो याद भी नहीं होगा कि इराक ने कुवैत पर कब्जा कब किया था। सुविधा के लिए आप को हम बता देते हैं कि तब आप स्वतंत्र भारत के संपादक थे। और स्वतंत्र भारत के लखनऊ संस्करण में एक लाइन खबर तक नहीं थी, इस बारे में। जब कि स्वतंत्र भारत के ही मुरादाबाद और कानपुर के संस्करण में ८ कालम की खबर गई थी। मतलब बैनर। बाकी अखबारों में भी। ऐसे तमाम राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय खबरों की अकसर भद पिट्ती रहती थी। और आप संपादकीय लिखते रहते थे सियाराम मय सब जग जानी ! और रात ८ बजते ही संपादकीय डेस्क को ले कर मदिरा गोष्ठी के लिए निकल लेते थे। कभी कुछ लिखते भी थे तो यह कि जब मैं गोंडा में था, जब मैं संडीला में था कह कर। आप को याद होगा तब पाठकों की चिट्ठियां आती थीं यह पूछते हुए कि और संपादक लिखते हैं कि जब मैं अमरीका में था, जब मैं लंदन में था। पर स्वतंत्र भारत के संपादक संडीला, गोंडा तक ही क्यों रह जाते हैं?
खैर, आप लिख रहे है कि आप कभी लखनऊ महोत्सव नहीं गए। अरे, लखनऊ महोत्सव का वह किस्सा जब संतोषानंद ने उन्हें ललकारा था, तब मैं ने अपनी आंखों देखा था यह वाकया। झूठ की भी एक सीमा होती है राजनाथ सिंह। आप याद कीजिए अनूप श्रीवास्तव उस कवि सम्मेलन के संयोजक थे। बेगम हज़रत महल में वह कवि सम्मेलन हुआ था। और अनूप आप को बडे नाज़ नखरों के साथ ले आए थे। नहीं याद आ रहा है? फ़ोटो देखेंगे तभी याद आएगा? और विनोद शुक्ला का मैं ने तो नाम भी नहीं लिया था। खुद राजनाथ ने ले लिया। पर राजनाथ ने यह तो बताया है कि विनोद शुक्ला उन के परम मित्र थे, पर यह नहीं बताया है कि जब वह इन के परम मित्र थे तब काफी हाऊस जब इन्हों ने बेच दिया था तब इन के खिलाफ़ धारावाहिक खबरें न सिर्फ़ अपने अखबार जागरण और नवभारत टाइम्स में भी क्यों छपवाईं? बताएंगे राजनाथ सिंह? ऐसे ही तमाम और बातों और आरोपों को भी वह पी गए हैं। ठीक वैसे ही जैसे उन्हों ने कहा था कि मेरे खिलाफ चारित्रिक आरोप थे तब मुझे स्वतंत्र भारत से निकाला गया। लेकिन शुचिता का ध्यान रख कर वह उन बातों को यहां नहीं रख रहे। मैं ने तो उन्हें चुनौती दे कर कहा कि मेरे चरित्र की परवाह छोड कर वह उन्हें सार्वजनिक करें। पर अब वह अनुशासनहीनता की बात पर आ गए। कितनी बातें बदलेंगे आप राजनाथ? तब जब कि भाजपा में तो आप खुद अनुशासनहीनता के लिए जाने गए और नोटिसें पाते रहे। इस बारे में खबरें अखबारों में तब बार-बार छपी हैं। और मेरे खिलाफ़ तो आज तक कोई अनुशासनहीनता साबित भी नहीं हुई जो आरोप के तौर पर इन की शकुनि चाल में मुझ पर मढा गया था।
राजनाथ सिंह एक बात और अच्छी तरह जान लीजिए कि आप ने मेरा कोई खेत नहीं जोता है, न ही आप से मेरी कोई व्यक्तिगत रंजिश है, जैसा कि आप बार-बार दुहाई दे रहे हैं। ऐसा कुछ भी नहीं है। आप के मन में यह पाप हो तो हो । मेरे मन में ऐसा कुछ नहीं है। और कि मैं आप की तमाम व्यक्तिगत बातों पर आ भी नहीं रहा हूं। मैं ने तो आप को ले कर जो भी सवाल उठाए हैं, वह सभी सार्वजनिक हैं और कि सार्वजनिक शुचिता के हैं। अगर आप या आप जैसों ने यह सब नहीं किया होता न तो आज पत्रकारिता खास कर हिंदी पत्रकारिता इतनी पतित न हुई होती। कि हम या हमारे जैसे लिखने पढने वाले पत्रकार हाशिए से भी आज बाहर हो गए हैं। दलालों और चाटुकारों की फौज ने पत्रकारिता की कमान संभाल ली है। बोया आप और आप जैसों ने यह बबूल और इस के कांटे हम या हमारे जैसों के हिस्से आ गए। तो विरोध प्रवृत्तियों का है, आप का नहीं। यह बात कहीं बडा-बडा नोट कर लीजिएगा और आगे जवाब देने या सफाई देने में पारदर्शिता बरतिएगा तो खुशी होगी। क्यों कि यह बातें सार्वजनिक और वैश्विक भी हैं। यह बातें सिर्फ़ लखनऊ ही नहीं पढ रहा, समूची दुनिया पढ रही है। वो गाना सुना ही होगा आप ने मन्ना डे ने गाया है उपकार फ़िल्म के लिए। प्राण पर फ़िल्माया गया है। कस्मे, वादे प्यार वफ़ा सब बातें हैं, बातों का क्या। तो इसी तर्ज़ पर आप के लिए मुझे गाने को मन हो रहा है: निष्ठा, नैतिकता, चरित्र, शुचिता वगैरह सब बातें हैं बातों का क्या ! और देखिए न मन करे तो आप भी मिल कर कोरस में गाइए, देते हैं भगवान को धोखा, इंसा को क्या छोडेंगे ! निष्ठा, नैतिकता, चरित्र, शुचिता,......!
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