भोजपुरी में एक कहावत है कि जे गुड खाई ते कान छेदाई! दुर्भाग्य से जनसंदेश के पूर्व प्रधान संपादक सुभाष राय के साथ यही हो गया है। जब गुड खा रहे थे तब उन को किसी की सुधि नहीं थी। साहित्य संस्कृति के नाम पर पूरे अखबार में सिर्फ़ काकस कहिए नेक्सस कहिए के ही काम के लिए वह जाने गए। अभी पोद्दार को लिखी चिट्ठी में भी उन्हों ने अपने सिर्फ़ तीन सहयोगियों के ही नाम लिए हैं। तो क्या बाकी सहयोगी लोग भेड बकरी थे? उन को बडा गुमान है कि उन्हों ने जनसंदेश को साहित्य संस्कृति से लबरेज़ कर दिया है। यह सही भी है कि जहां तमाम अखबारों ने साहित्य संस्कृति के नाम पर शून्य कर रखा है, सुभाष राय ने उसे अपनी भरसक पूरा क्या कुछ ज़्यादा ही स्पेस दिया जनसंदेश में।। इस के लिए उन्हें ज़रुर साधुवाद दिया जाना चाहिए। लेकिन क्या सिर्फ़ स्पेस दे देना ही काफी हो जाता है? क्या वह बताएंगे कि कौन सी ऐसी खबर थी साहित्य में ही सही जिसे उन के समय में जनसंदेश ने ब्रेक की? बाकी खबरों में तो आप की दिलचस्पी थी ही नहीं तो खैर क्या ब्रेक करते? हालां कि सच यह है कि किसी भी अखबार में खबर ही उस की देह होती है। फ़ीचर, साहित्य, संस्कृति आदि वस्त्र, आभूषण और श्रृंगार होते हैं। और जब देह ही नहीं रहेगी तो बाकी चीज़ों क होना न होना कोई मायने नहीं रखता। तो बाकी खबरों को देखने का शायद अवकाश नहीं था आप के पास। प्रबंधन का निर्देश भी हो सकता है रहा हो। क्यों कि कुशवाहा तो अभी बागी हुए हैं न? और खबरें तो सरकार के खिलाफ़ तब लिखी भी जातीं तो भला कैसे? लेकिन यह कमी छुपाने के लिए साहित्य से बडी मुफ़ीद चीज़ और क्या हो सकती थी भला? फिर आप तो कवि भी थे। विचार विमर्श ज़रुरी था आप के लिए। चलिए माना। पर जनसंदेश के निकलने के समय एक बडी घटना घटी साहित्यिक हलके में। कि बरसों से चले आ रहे हिंदी संस्थान के ८३ में से ८० पुरस्कार मायावती सरकार ने एक झटके में खत्म कर दिए। हिंदी संस्थान में लंबे समय तक कोई कार्यकारी अध्यक्ष या निदेशक नहीं रहा। हमारे साहित्यकार संपादक ने कौन सी अलख जगाई? बताएंगे कि कौन सी बहस चलाई। कि हिंदी संस्थान के पुरस्कार बहाल हों? कि कार्यकारी अध्यक्ष या निदेशक भी आ जाएं? वह तो भला हो पुलिस अधिकारी अमिताभ ठाकुर की पत्नी और एक्टिविस्ट नूतन ठाकुर का। जिन्हों ने मेरी प्रार्थना स्वीकार कर एक जनहितत याचिका उच्च न्यायालय में दाखिल की और हिंदी संस्थान को कार्यकारी अध्यक्ष और निदेशक मिल गए। नहीं किसी भी अखबार या चैनल में तो दम नहीं ही था कि मायावती सरकार के इस तुगलकी फ़ैसले को चुनौती दे कर मुहिम चला पाता। अखबारों ने तो इस मसले पर नामवर सिंह सरीखे लेखकों की टिप्पडियों को भी खुल कर नहीं छापा। कि मायावती कहीं नाराज न हो जाएं। खोखले और अमूर्त विषयों पर बहस चलाना बहुत आसान है। बहुत आसान है चीन वियतनाम, अमरीका रुस, या इराक और इरान पर बात करना। मुस्लिम, दलित या स्त्री विमर्श पर लफ़्फ़ाज़ी हांकना और हंकवाना। गोलमोल और आध्यात्मिक ज़ुमलेबाज़ी करना। पर ज़मीनी सचाई बयान करना और उस को निबाहना तो ज़मीनी आदमी या अखबार ही कर सकता है। और अब क्या करें कि अब हमारे पास न तो ज़मीनी पत्रकार रह गए हैं, न लेखक। रही बात अखबार चैनल आदि की तो जब सारे गिरहकट, माफ़िया, भ्रष्ट राजनीतिग्य, बिल्डर या पूंजीपति ही चला निकाल सकते हैं, निकाल रहे हैं तो उन से ज़मीनी होने की उम्मीद करना दिन में तारे देखना हो गया है। हां इन के अखबारों में एक से एक मेधावी, एक से एक प्रोफ़ेशनल कहार बन कर पानी भर रहे हैं। भडुवई, चमचई, लबारी और लायज़निंग कर रहे हैं।चाकरी कर रहे हैं। तो ऐसे में सुभाष राय जी डींगें हांकना ज़्यादा दिन मेरा या आप का चलने वाला है। नहीं इसी लखनऊ में एक पत्रकार थे एस के त्रिपाठी। इंडियन एक्सपेस के संवाददाता थे। कभी झुकते नहीं थे। न हांकते थे। चुपचाप काम करते थे।एक नहीं अनेक खबरें ब्रेक करने का उन मे हौसला था। बहुतेरी खबरें उन के खाते में दर्ज हैं। इटावा के रहने वाले थे। लेकिन मुलायम सिंह की पूरी हिस्ट्रीशीट छाप दी थी। डाकू तक लिखा ही नहीं स्टैब्लिश भी किया। तब वह चौधरी चरण सिंह के सिपाहसलार थे। बल्कि महासचिव थे। लेकिन त्रिपाठी जी को संकेतों में भी कुछ कहने की वह हिम्मत नहीं कर पाए। यह १९८३-८४ की बात है। अब तो खैर वही मुलायम सिंह खुले आम जब - तब पत्रकारों से उन की हैसियत पूछते रहते हैं और कि नौकरी ले कर उसकी हैसियत बताते भी रहते हैं। चारा घोटाला तो सभी लोग जानते हैं। पर एक चारा मशीन घोटाला भी हुआ था। एक छोटी सी खबर इंडियन एक्सप्रेस में दिल्ली डेटलाइन से छपी तो त्रिपाठी जी ने लखनऊ से उस का एक बडा सा फ़ालो-अप लिखा और केंद्र सरकार में तब के कृषि मंत्री बलराम जाखड का इस्तीफ़ा हो गया था। मुझे याद है कि उन दिनों देवीलाल हरियाणा के मुख्यमंत्री थे। वृद्धों को उस समय ९०० रुपए का पेंशन देने का पुन्य कमा रहे थे। घूम घूम कर। लखनऊ भी आए थे। वी आइअ पी गेस्ट हाऊस में प्रेस कानफ़्रेंस कर रहे थे। मैं त्रिपाठी जी के बगल में ही बैठा था। उन्हों ने देवीलाल से धीरे से कुछ अप्रिय सवाल पूछ लिए। देवीलाल ने अपनी अप्रिय हरियाणवी लंठई में टालने की कोशिश की।
त्रिपाठी जी ने फिए सवाल दुहरा दिया तो देवीलाल ने पूरी लंठई में उन को लगभग डांट कर कहा, 'चु्प्प कर!' त्रिपाठी जी धीरे से खडे हो गए जाने के लिए। मैं ने पूछा, 'क्या हुआ?' तो वह बोले, 'देख तो रहे हैं कि क्या और कैसे बात कर रहे हैं यह?' मैं भी उठ कर खडा हो गया। बगल में यू एन आई के सुरेंद्र दुबे बैठे थे। उन्हों ने पूछा कि, 'क्या हुआ?' मैं ने बताया कि देवीलाल जी ने त्रिपाठी जी से बदसलूकी से बात की है।' सुरेंद्र दुबे तमतमा कर खडे हो गए। लगभग आह्वान किया कि,' प्रेस कांफ़्रेंस यहीं खत्म !' सभी लोग उठ कर खडे हो गए। बाइकाट के लिए। अंतत: देवीलाल को हाथ जोड कर त्रिपाठी जी से माफ़ी मांगनी पडी। यह १९८५-८६ का दृष्य है। पर अब कहां वो फ़ुर्सतें, अब कहां वो रात दिन! अखबार तब भी पूंजीपतियों के ही थे, अब भी हैं। पर दृष्य बदल गया है।
मायावती और मुलायम सिंह यादव दोनों के ही खिलाफ़ आय से अधिक संपत्ति के मामले वर्षों से लंबित है सुप्रीम कोर्ट में। सी बी आई ने कोर्ट में सूची सौंप रखी है। है किसी अखबार या चैनल में दम जो यह सूची छाप दे या दिखा दे? कहा न कि दृष्य बदल गया है। और अपने सुभाष राय ज़मीनी पत्रकारिता, दैनिक अखबार में ज़्यादातर छपी सामग्री को दुबारा परोस कर साहित्यिक सांस्कृतिक स्पेस देने का दम भर रहे हैं। यह तो उंगली कटा कर शहीद बनने का उपक्रम है भाई। अगर नहीं है तो यही बता दीजिए कि साल भर में आप ने किसी नए कवि, कहानीकार या आलोचक को प्रस्तुत किया क्या? या स्थापित किया क्या? उस का नाम तो बता दीजिए। अच्छा मुश्किल है? तो किसी स्थापित रचनाकार का ही नाम बता दीजिए जिस की रचना या आलोचना ने जनसंदेश में छप कर पाठकीय जगत या आप के साहित्यिक जगत में धूम मचा दी हो? बताइएगा ज़रुर। देर सवेर।
अभी पोद्दार को लिखी चिट्ठी से पता चला कि आप का जनसंदेश लेखकों को पारिश्रमिक भी देता था। जो कि अब ६ महीने से पोद्दार दाब बैठे हैं। ए भाई कब से? यह तो भाई नई सूचना है। अभी तक तो आप अपने अखबार से लगायत फ़ेसबुक पर लिख-लिख कर यही कह रहे थे कि हम पैसा नहीं दे पा रहे हैं। और कि फ़ेसबुक पर तो कई उत्साहियों ने अपना वेतन तक देने की पेशकश कर दी थी। मैं ने तो तब एक लंबा लेख भी लिखा था कि हिंदी लेखकों और पत्रकारों के साथ घटतौली की अनंत कथा। पर आप ने उस लेख पर सांस भी नहीं ली। हां यह ज़रुर हुआ कि उस लेख के बाद आप ने लेखकों से पैसा न लेने की अपील लिखनी ज़रुर बंद कर दी। सच तो यह है सुभाष राय जी आप ने जनसंदेश के मार्फ़त लेखकों में सिर्फ़ और सिर्फ़ राजनीति की औए एक खेमे की गोद में जा कर बैठ गए। उन्हों ने कहा उठो तो आप उठ गए। उन्हों ने कहा बैठो तो आप बैठ गए। कभी कभार लेट भी गए। और साहित्यिक स्पेस देने का स्वांग भरते रहे। राजनीति करना और बात है, साहित्यिक स्पेस देना और बात। गुड आप खाएं और कान कोई और छेदाय यह आज तक कभी किसी समाज में हुआ नहीं। खेत खाय गदहा मार खाय जुलहा ज़रुर बार-बार होता रहा है, रहेगा। अब जिन लेखकों का पारिश्रमिक आप मार कर जा चुके हैं उन लेखकों का क्या जुलाहा वाला हाल नहीं हुआ?
एक बात और बताऊं आप को। जनसत्ता जब शुरु हुआ तो विज्ञापन का टोटा बहुत रहता था। तो वह बडी बडी खबरें छापता था। फ़ीचर छापता था। यही टोटा आप के जनसंदेश में भी था। आप के पास बडी बडी खबरें नहीं थीं, फ़ीचर नहीं था तो आप ने लेखकीय सरोकार खोज लिया। इतने ज़्यादा पैसे वाले के अखबार में लोगों को कम वेतन पर रखना आप को शुरु में ही कैसे सुहाया? बता सकेंगे आप? लेखकों की तो खैर बात छोड ही दें। पैसे के लिए लोग लिखते भी नहीं। आप ने बार - बार आपनी चिट्ठी में सम्मान का रोना जो रोया है न, बस ये लेखक यही भर चाहते हैं। कुछ और नहीं। पर दिक्कत यह है कि जब लोग नए-नए संपादक बनते हैं न तो बनिए को तरह-तरह से बताते फिरते हैं कि ऐसे-ऐसे पैसा बच सकता है। और राजा बेटा बन कर घूमते रहते हैं। जब अपने पेट पर लात पडती है तो सारे आदर्श, मूल्य और जाने क्या क्या याद आ जाता है।
एक एस पी सिंह संपादक हुए हैं।पूरा नाम सुरेंद्र प्रताप सिंह। आज तक से जाने जाते हैं। रविवार में भी थे। नवभारत टाइम्स में समीर जैन को एक से एक नुस्खे बताते थे पैसे बचाने के। डेढ हज़ार, दो हज़ार जब कनवेंस अलाउंस था दिल्ली में रिपोर्टरों का तब वह डेढ दो हज़ार पर स्ट्रिंगर रखवाते थे। पर जब अपने पर आई तो सीधे राज्यसभा चले गए सवाल उठवाने। बडे-बडे किस्से हैं मेरे पास ऐसे संपादकों के। कि राजा का बाजा बजाने के चक्कर में बहुत सारे साथियों का बाजा बजवा गए हैं। आप कोई एक अकेले नहीं हैं सुभाष राय जी। समूची संपादकों की फ़ौज यत्र-तत्र खडी है जो अपने ज़रा से फ़ायदे के लिए अखबार मालिको के आगे कर्मचारियों, सहयोगियों के मसले पर जयचंद, मानसिंह,विभीषण बन कर खडे हो जाते हैं। और जब अपने पर आती है उन्हें राणा प्रताप याद आ जाते हैं। क्रांति और जाने क्या-क्या आदर्श, मूल्य आदि इत्यादि आ जाते है।पब्लो नेरुदा, नाजिम हिकमत, दुष्यंत कुमार याद आ जाते हैं। खुद तो गदहा बन कर खेत खा जाते हैं, बिचारे जुलाहों को पिटने के लिए छोड जाते हैं। यह यों ही थोडे ही हो गया है कि अखबारों में आज की तारीख में भी लोग दो चार पांच हज़ार की नौकरी करने को अभिशप्त हो गए हैं। इन्हीं गधे संपादकों की कृपा है कुछ और नहीं। आगे फिर कहीं संपादक बनिएगा तो याद रखिएगा कि गधा बन कर खेत खा कर पिटने के लिए सहयोगियों और लेखकों को जुलाहा मत बनाइएगा। आप कवि हैं, बाकी भडुए, दलाल टाइप साक्षर संपादकों से सचमुच कुछ अलग भी हैं। सो बिन मांगी राय दे दी है। आप जल्दी ही कहीं अच्छी जगह फिर संपादक बनें और यह गलतियां करने से बचें यही कामना है। क्यों कि अभी कहीं बडी मुग्धता के साथ आप ने लिखा है कि बाबूलाल कुशवाहा ने कभी अपने संपादक से मिलने की कोशिश नहीं की और मैं भी कभी उन से मिलने नहीं गया। क्या कवि लोग इतने नादान होते हैं? अरे कुशवाहा कैसे मिलते भला आप से? वह तो एक तो तब नोट गिनने से फ़ुर्सत नहीं पाए होंगे। दूसरे ये पैसे वाले लोग अपने चाकरों से नहीं मिलते। आप अपने को मानते रहे होंगे संपादक पर वह आप को चाकर समझता रहा होगा। और आप को क्या लगता है अच्छा बुरा जो भी आप के साथ दुर्भाग्य से घटा है, वह सब बिना कुशवाहा या सौरभ जैन आदि की मर्जी के घटा है? बहुत भोले हैं भई आप सुभाष जी। चलिए एक वाकया आप को बताता चलता हूं। एक समय स्वतंत्र भारत और पायनियर लखनऊ के सब से बडे अखबार थे। जयपुरिया ने इसे थापर को बेच दिया। यह एक लंबी कहानी है। पर थापर भी एक बार लखनऊ आए पायनियर कंपनी के शेयर होल्डर्स की मीटिंग में बतौर चेयरमैन। तब यह ताज होटल नहीं बना था। सो क्लार्क अवध होटल में मीटिग हुई। एयरपोर्ट से थापर होटल आए और गए। पर तब विधान सभा मार्ग स्थित पायनियर स्वतंत्र भारत का दफ़्तर था, रास्ते में। लेकिन थापर ज़रा देर रुक कर झांकने भी नहीं आए। इन सभी धनपशुओं का चरित्र हमेशा से एक रहा है और रहेगा। क्रांतियां और लोग आते जाते रहेंगे, इन का चरित्र नहीं बदलेगा। बाद में एक प्रधान संपादक की डिच के चलते एक शराब डील में थापर को धक्का पहुंचाया इन्हीं मुलायम सिंह यादव ने बतौर मुख्यमंत्री तो थापर का अखबार से यकीन उठ गया। और बेच दिया पायनियर और स्वतंत्र भारत कौडियों के दाम। यह दोनों अखबार अब किस तरह हांफ रहे हैं हम सब देख रहे हैं। लेकिन इस खरीद फ़रोख्त में जो सैकडो लोग बेरोजगार हुए, उन के घरों के चूल्हे अब भी कैसे जलते हैं यह भला कितने लोग देख रहे हैं? और आप को लगता है कि कुशवाहा ने आप के साथ सदाशयता की? अरे जो दस हज़ार करोड स्वास्थ्य के डकार गया, जिस ने खनन का काला करोबार किया, जेल जाने से बचने के लिए भाजपा जैसी पार्टी को खरीद बैठा, हत्या के दाग लिए सी बी आई को झांसा देता फिरता हो उस का न मिलना आप को मुग्ध कर देता है? कि उस ने कभी हस्तक्षेप नहीं किया अखबार के काम काज में? अरे जागिए पूर्व प्रधान संपादक महोदय आप के साथ जो भी कुछ अप्रिय घटा सब उसी ने किया है। कवि जी जनिए कि अगर आप किसी अधिकारी, मंत्री या और भी किसी से मिलने जाते हैं तो उस का पी. ए, चपरासी या नौकर आप से अभद्रता से पेश आता है तो समझिए कि यह पी ए, चपरासी या नौकर नहीं वह व्यक्ति ही आप से अभद्रता कर रहा है। अरे भाई उस के जाल में लिपट कर तीन -तीन डाक्टरों की हत्या हो गई। कौन जान पाया? वह तो पिछडों का स्वयंभू नेता बना घूम रहा है। और आप हैं कि मुग्ध हैं? धन्य हैं कवि जी आप भी। तिस पर दुष्यंत को गुहराते हुए कहते हैं कि मेरे सीने में हो या तेरे सीने में सही आग जलनी चाहिए। ए भाई अइसे ही आग जलाएंगे आप?
"बात कहीलें खर्रा, गोली लागे चाहे छर्रा" वाला राउर बेबाक बयानी हमेशा से काबिलेतारीफ रहल बा. आजु एह लेख के पढ़ि के मन अउरी गदगदा गइल.
ReplyDeleteबधाई, एह सपाट बयानी खातिर.
ओमप्रकाश सिंह, संपादक, अंजोरिया.कॉम