Wednesday, 8 February 2012

एकतरफा और तिहरे तलाक़ की तलवार सिर्फ़ हिंदुस्तान में ही है

इन दिनों चुनावी मौसम है। और चुनावी मौसम में मुसलमान बड़ी तेज़ी से वोट बैंक की भी बाड़ को लांघते हुए लगभग प्रोडक्ट बन चला है। राजनीतिक पार्टियों के लिए। मुस्लिम आरक्षण की छौंक ने इस प्रोडक्ट को बहुआयामी बना दिया है। लेकिन इस मुस्लिम आरक्षण के शोर में मुस्लिम महिलाओं की आवाज़ को आवाज़ देने वाला कोई नहीं है। हमेशा ही की तरह उसे वायसलेस कर दिया गया है। जैसे कि उस का कोई वजूद ही नहीं इस चुनाव में, इस समाज में, इस हिंदुस्तान में। 

यह सही है कि दुनिया के बाकी देशों के मुकाबले हिंदुस्तान में मुस्लिम पुरूष बहुत बेहतर स्थिति में हैं पर मुस्लिम महिला उतनी ही बदतर स्थिति में हैं। हिंदुस्तान में मुस्लिम पर्सनल लॉ औरतों के गले की फांस बना हुआ है। बताइए कि 16 या 18 साल की कोई लड़की तीन बच्चों की मां बन जाए और उस का इसी उम्र में तलाक भी हो जाए। तो उसका क्या होगा? उस समाज का क्या होगा? यह एकतरफा तिहरे तलाक की त्रासदी है। कुछ और नहीं। और यह सिर्फ़ और सिर्फ़ हिंदुस्तान में है। कहीं और नहीं। दुनिया के मुस्लिम देशों में भी नहीं। पड़ोसी देश पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी नहीं। मुस्लिम महिलाओं की सामाजिक और पारिवारिक स्थिति गाँव में भी चौपट है और शहरों में भी। उनकी विपन्नता और त्रासदी देख दिल दहल जाता है और कलेजा मुँह को आता है। लेकिन इस तरफ किसी योजनाकार, शासन, प्रशासन और समाज का ध्यान बिल्कुल नहीं है। सामाजिक ढाँचा तो जो है वो खैर है ही, मुस्लिम पर्सनल लॉ की मार इन पर सबसे ज्यादा है। हालत यह है कि अधिकांश मुस्लिम देशों ने भी समान नागरिक कानून लागू कर द्विविवाह और तिहरे तलाक को तिलांजलि दे दी है। लेकिन मजहब के नाम पर हिंदुस्तान में यह कुरीति आज भी हमारे मुस्लिम समाज में जारी है। भारतीय मुस्लिम समाज में इस कुरीति के चलते हालत यह है कि एक 18 साल की औरत 3 बच्चों की माँ बन जाती है और तलाक भी पा जाती है। अब बताइए उसकी आर्थिक स्थिति और सामाजिक स्थिति उसको कहाँ ले जाएगी? गरज यह है कि एक मुस्लिम औरत की जिंदगी शुरू होने के पहले ही तबाह हो जाती है। कोई कानून भी उसका साथ नहीं देता। मजहब का आतंक उसे जीने नहीं देता। कुछ समय पहले राष्ट्रीय महिला आयोगकी तत्कालीन सदस्या सईदा सैयदेन हमीद ने अपनी रिपोर्ट वायस ऑफ वायसलेसमें देश की मुस्लिम महिलाओं की सामाजिक और आर्थिक स्थिति का जो ब्यौरा परोसा था, उसे पढ़ कर दिल दहल जाता है। बरबस रूलाई आ जाती है। मुस्लिम महिलाओं पर मुस्लिम पुरूषों द्वारा अत्याचार पढ़ कर। सईदा सैयदेन हमीद ने इस रिपार्ट को सरकार को पेश करते वक्त सरकार से माँग की थी कि दुनिया के और देशों जिनमें कई मुस्लिम देश भी शामिल हैं, ने द्विविवाह प्रथा और तिहरा तलाक खतम कर सिविल कोड लागू कर दिया है, यहाँ तक कि पाकिस्तान ने भी। इसलिए हिंदुस्तान में भी मुस्लिम समाज के लिए यह तिहरा तलाक और द्विविवाह प्रथा समाप्त कर सिविल कोड लागू कर दिया जाए। लेकिन सरकार ने इस रिपोर्ट पर अमल करना तो छोड़िए गौर करना भी वाजिब नहीं समझा। जानते हैं क्यों? क्योकि जामा मस्जिद के ईमाम मौलाना बुखारी ने सरकार को यह धमकी दे दी थी कि अगर हिंदुस्तान में यह रिपोर्ट लागू हुई तो देश में आग लग जाएगी। और फील गुड फैक्टर वाले, भारत उदय की हुंकार भरने वाले तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने ऐसी सर्द चुप्पी साधी कि आज तक इस रिपोर्ट ने साँस नहीं ली। कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए सरकार ने भी इसे ठंडे बस्ते में ही रखा है। वायस ऑफ द वायसलेसयानी बेआवाज़ों की आवाज़ को सचमुच आज तक आवाज़ नहीं मिली। आगे भी मिलने की उम्मीद नहीं दिखती। ऐसी सूरत में मुस्लिम महिलाएँ क्या शहर की क्या गाँव की, देश और समाज के विकास में आखिर क्या भूमिका निभाएंगी? यह बात न मौलाना बुखारी समझ पाते हैं और न हमारे देश की सत्ता में बैठे समझदार लोग। पाकिस्तान की एक शायरा ने एक बार लिखा, मेहर की रकम लौटा तो दी है तुमने, साथ में मेरा शबाब भी लौटा दो!इस रिपोर्ट में मुस्लिम औरत की यातना तो दिखती ही है, मुस्लिम समाज के सामाजिक परिदृश्य के आज का बयान भी बड़ी शिद्दत से मिलता है। और मुस्लिम समाज हमारे भारतीय समाज से अलग नहीं है। मुस्लिम समाज की तरक्की हिंदुस्तान की तरक्की है। अगर मुस्लिम समाज पिछड़ा रह गया, मुस्लिम महिलाएँ देश के विकास की धुरी से अलग हो गईं तो समग्र रूप से देश भला कैसे विकास कर पाएगा? जरूरी है कि सभी समाज एक साथ सही दिशा में विकास करें। तभी देश की तरक्की होगी। और साथ ही महिलाओं की भी। महिलाएँ विकास करेंगी, तभी हम एक सभ्य और शिक्षित समाज विकसित कर पाएंगे। लेकिन सलमान रूश्दी या तसलीमा नसरीन और आरक्षण की बहस में उलझा हमारा भारतीय मुस्लिम समाज मुस्लिम औरतों के बेइंतिहा तक़लीफ को भी जाने क्यों परदे में ही रखना चाहता है।

यहां सुविधा के लिए भारत के मुस्लिम पर्सनल लॉतथा अन्य इस्लामिक देशों के मुस्लिम कानून पर तुलनात्मक दृष्टि डालना उचित होगा। प्रो. ताहिर महमूद ने अपनी किताब फैमली लॉ रिफार्म्स इन द मुस्लिम वर्ल्डमें निम्न तथ्यों को उजागर किया है-
  1. तुर्की में परंपरागत मुस्लिम कानून की जगह आधुनिक सिविल कोड ने ली है।
  2. मिस्र, सूडान, लेबनान, जार्डन, सीरिया, ट्यूनिशिया, मोरक्को, अलजीरिया, ईरान, पाकिस्तान और बांग्लादेश ने मुस्लिम पर्सनल लॉ में आवश्यक सुधार किए हैं। 
  3. उपरोक्त सभी देशों में तखय्युर (इस्लाम धर्म के विभिन्न संप्रदायों के सिद्धांतों में समानता और विनिमयशीलता) की स्वीकृति के पश्चात परंपरागत कानून का कठोरता से पालन समाप्त हो गया। 
  4. तुर्की और ट्यूनिशिया में मुस्लिम विवाह और तलाक के लिए अलग कानून बनाया गया है।
  5. इंडोनेशिया, मलेशिया और ब्रूनेई में बहुविवाह प्रतिबंधित कर दिया गया। 
  6. ईरान, इराक, सीरिया, पाकिस्तान और बांग्लादेश में बहुविवाह पर न्यायालय और प्रशासनिक संस्थाओं का कड़ा नियंत्रण है। 
  7. तुर्की, ट्यूनिशिया, अलजीरिया, इराक, ईरान, इंडोनेशिया, पाकिस्तान और बांग्लादेश में एकपक्षीय तलाक पर रोक लगा दी गई है। 
  8. अनेक मुस्लिम देशों में महिलाओं के तलाक, गुजारे और बच्चों की अभिरक्षा संबंधी अधिकार और अधिक व्यापक कर दिया गया है। 
  9. मिस्र, सूडान, जार्डन, सीरिया, ट्यूनिशिया, मोरक्को, पाकिस्तान और बांग्लादेश में तीन बार तलाक कहने की प्रथा पर रोक है। 
  10. मिस्र, सीरिया, ट्यूनिशिया, मोरक्को, पाकिस्तान और बांग्लादेश में अनाथ पौत्रों के लिए विरासत संबंधी नए कानून बनाए गए हैं। 
  11. मिस्र, सूडान, सीरिया, ट्यूनिशिया में जीवित पत्नी के उत्तराधिकार संबंधी अधिकार और व्यापक कर दिए गए।
पाकिस्तान में फेमली लॉ आर्डिनेंस 1961लागू होने के बाद बहुविवाह अब पुरूष का यह अधिकार नहीं रहा जिसे चुनौती नहीं दी जा सकती है। दूसरे विवाह के लिए पहली पत्नी की लिखित स्वीकृति जरूरी है। क्योंकि सभी विवाह पंजीकृत होते हैं अतः तीन बार तलाक कह देने से वे समाप्त नहीं होंगे। तलाक अब लिखित अधिसूचना पर ही प्राप्त होगा। यह भी तब जब समझौते की सारी कार्रवाइयाँ दंपत्ति का पुनर्मिलन कराने में असफल हो गई हों। गुजारा भत्ता तलाकशुदा स्त्री का अधिकार है और यह केवल इद्दत की अवधि तक ही सीमित नहीं है।। धर्म तंत्री इस्लामिक देश पाकिस्तान में यह परिवर्तन 1950 के महिला आंदोलन की दृढ़ता और दबाव के कारण आया।

साथ के चार्ट में विवाह तलाक और गुजारे संबंधी भारत के मुस्लिम कानून अन्य मुस्लिम देशों के कानून अन्य मुस्लिम देशों के कानून तथा भारत के सामान्यतः कानून की तुलना प्रस्तुत है। इस चार्ट से स्पष्ट है कि भारत में मुस्लिम महिलाओं में दुनिया की अन्य मुस्लिम महिलाओं की अपेक्षा घुटन व संत्रास ज्यादा है ही, एक तरह का अत्याचार भी है पुरूषों द्वारा।

यही सच है। और जो एक शेर में यही बात कहूँ तो शायद इसे आप और बेहतर ढंग से समझ सकेः
सच तो एक परिंदा है
घायल है पर जिंदा है

विश्वास है आप इस तकलीफ को इसी शिद्दत से समझेंगे।


विषयमुस्लिम लॉ (भारत)मुस्लिम कानून, अन्य देशसामान्य कानून, भारत
विवाहपुरूष की स्थितिः एक मुस्लिम पुरूष एक समय में एक साथ 4 पत्नियाँ रख सकता है तथा पाँचवा विवाह भी कर सकता हैं पाँचवीं शादी अनियमित है परन्तु अमान्य नहीं। महिला की स्थितिः यदि पत्नी बगैर तलाक लिए अपनी पति के जीवन काल में दूसरा विवाह करती है तो एक आई.पी.सी. की धारा 494 के अंतर्गत दंडनीय है इसके अतिरिक्त मुस्लिम पुरूष कानून के अंतर्गत एक किताबिया (यहूदी अथवा ईसाई) स्त्री से शादी कर सकता है। परंतु महिला किताबिया से शादी नहीं कर सकती।तुर्की, मिस्र, लेबनान, सूडान, इंडोनेशिया, मलेशिया, इराक, पाकिस्तान और इरान में न्यायालय तथा प्रशासनिक संस्थाओं का बहुविवाह पर कड़ा नियंत्रण है। उदाहरणार्थ पाकिस्तान में ‘मुस्लिम फेमली लॉ 1961’, जिसमें एक विवाचन परिषद का प्राविधान है, ने पर्सनल लॉ के मूल सिद्धांतों में परिवर्तन किए बगैर बहुविवाह को सीमित कर दिया है। इस कानून के अनुसार कोई भी व्यक्ति एक विवाह के कायम रहने की स्थिति में, विवचन परिषद की लिखित अनुमति के बगैर दूसरा विवाह अनुबंध नहीं कर सकता। तथा बिना स्वीकृति के कोई भी ऐसा विवाह अनुबंध पंजीकृत नहीं होगा।एक स्त्री अथवा पुरूष एक समय में केवल एक विवाह कर सकता हे। एक जीवन साथी के होते हुए अगर कोई भी पक्ष दूसरा विवाह करता है तो यह आई.पी.सी. की धारा 494 के अन्तर्गत दंडनीय है।
तलाकएक स्वस्थ मस्तिष्क का मुस्लिम पति अपनी इच्छानुसार कभी भी बिना कोई कारण बताए अपनी पत्नी को तलाक दे सकता है। तलाक के समय पत्नी की उपस्थिति भी आवश्यक नहीं है। यदि कोई मुस्लिम पत्नी अपने पति से मुक्ति चाहती है तो उसे डिसल्युशन ऑफ मुस्लिम मैरेजेज एक्ट 1939 के अंतर्गत न्यायालय जाना होगा। तुर्की और ईरान जैसे देशों में पुरूष एवं स्त्री को तलाक के समान अधिकार प्राप्त हैं। इंडोनेशिया, पाकिस्तान और बांग्लादेश में यह आवश्यक है कि प्रशासनिक अधिकारी पहले समझौते की कार्रवाई करें। इसके अतिरिक्त तलाक विवाचन परिषद के द्वारा ही प्राप्त होगा। इस कानून के अंतर्गत कोई भी व्यक्ति यदि अपनी पत्नी को किसी भी प्रकार को तलाक देता है तो वह इसकी लिखित सूचना परिषद के चेयरमैन को देगा तथा उसकी एक प्रति पत्नी को भी देगा। 30 दिनों के अन्दर अध्यक्ष एक विवाचन परिषद का गठन करेगा तथा वे परिषद दोनों पक्षों में पुनर्मिलन की समस्त कार्रवाइयां करेगा।’ अधिसूचना जारी होने के 90 दिनों तक यह तलाक प्रभावी नहीं होगा तथा इस अवधि में विवाचन परिषद अपनी कार्रवाई करेगा।तलाक केवल न्यायालय से ही प्राप्त हो सकता है।
ग़ुजारा भत्तामुस्लिम विमेन प्रोटेक्शन ऑफ राईट्स (ऑन डायवोर्स) एक्ट 1936 के अनुसार एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला गुजारे की माँग कर सकती है। परन्तु यदि पति गुजारा देने की स्थिति में न हो तो यह जिम्मेदारी वक्फ़ बोर्ड की बनती है। बच्चों के गुजारे के बारे में कोई स्पष्ट प्राविधान नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक निर्णय में यह स्पष्ट किया है कि सी.आर.पी.सी. की धारा 125 के अंतर्गत बच्चों के गुजारे की जिम्मेदारी पिता की है। चाहे वह किसी भी धर्म का हो।अधिकांश मुस्लिम देशों में स्त्री के दहेज और गुजारे संबंधी अधिकार और व्यापक कर दिए गए हैं।सी.आर.पी.सी. की धारा 125 के अन्तर्गत तलाक की प्रक्रिया के दौरान अलग रहने की स्थिति में तथा तलाक के बाद भी पत्नी और बच्चों के गुजारे की जिम्मेदारी पति की होती है।

अब ज़रा समूची महिलाओं के परिदृश्य पर थोड़ी चर्चा ज़रूरी है। ग्रामीण महिलाओं में शिक्षा की बात करना बेमानी है। क्योंकि गाँव में शिक्षा नहीं साक्षरता की हवा चलती है। करोड़ों का बजट हर साल स्वाहा होता है। शहरों में आज की लड़कियाँ शिक्षा में भले लड़कों को पीट रही हों, पर गाँवों में तो लड़कियाँ ही पीटी जा रही हैं और चौतरफा। शिक्षा हो, काम हो, स्वास्थ्य हो या कुछ और, पीटी औरतें ही जा रही हैं, घर से लेकर बाहर तक। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट उत्तर प्रदेश में ग्रामीण महिलाओं के हैसियत की दर्दनाक खाका खींचती है। शिक्षा की छोड़िए उत्तर प्रदेश में महिलाओं की साक्षरता ही केरल से आधी है। केरल में 87.9 प्रतिशत महिलाएँ साक्षर हैं। जब कि उत्तर प्रदेश में 42.98 प्रतिशत महिलाएँ साक्षर हैं। इनमें भी सब से कम पूर्वी उत्तर प्रदेश में महिलाएँ साक्षर हैं। जरा तफसील में बात करें तो पूर्वी उत्तर प्रदेश में 40 प्रतिशत, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में 44.64 प्रतिशत, मध्य उत्तर प्रदेश में 47.12 प्रतिशत, बुंदेलखंड में 44.18 प्रतिशत महिलाएँ साक्षर हैं। सोचिए कि इस तरह पूरे उत्तर प्रदेश में 1991 से 2000 के बीच बटोरे गए आँकड़ों के मुताबिक 42.98 प्रतिशत महिलाएं साक्षर हैं। जबकि केरल में 87.9 प्रतिशत, तमिलनाडु में 64.6 प्रतिशत और पंजाब में 68.1 प्रतिशत महिलाएँ साक्षर हैं। उत्तर प्रदेश में यह गिरावट सिर्फ साक्षरता में ही नहीं है, लड़कियांे के जन्म दर में भी बेतरह गिरावट पाई गई हैं उत्तर प्रदेश  में 1991 में लड़कियों की पैदाइश की दर 1000 में 927 थी पर 2001 में यह दर गिर कर 916 पर आ गई।

हालत यह है कि ग्रामीण औरतों का स्वास्थ्य भी निरंतर गिर रहा है, मजदूरी में उनके साथ सौतेला बरताव हो रहा है। उन्हें समान काम का समान वेतन नहीं मिल रहा है। उनकी पारिवारिक और सामाजिक स्थिति बेहद तकलीफदेह है। हालत यह है कि 100 में से 90 औरतें अपना रोग छुपाती हैं, आर्थिक तंगी में दिन गुजारती हें साथ ही परिवार और समाज दोनों में महिलाओं के इलाज में उपेक्षा की प्रवृत्ति निरंतर बढ़ रही है। परिवार के लोग औरतों के रोग पर ध्यान ही नहीं देते। दवाएँ महंगी हैं। इलाज छोड़िए एक सर्वे के मुताबिक 75 प्रतिशत ग्रामीण महिलाएँ दोनों टाइम भर पेट खाना भी नहीं पातीं। जो खाना उन्हें मिलता भी है वह बचा-खुचा होता है और स्वास्थ्यवर्धक बिलकुल नहीं। जितनी कैलोरी उन्हें मिलनी चाहिए, नहीं मिलती। नतीजतन महिलाओं के स्वास्थ्य की हालत बहुत ही चिंताजनक है। पूर्वांचल में एक लाख में 707 औरतें शारीरिक अक्षमता और उचित चिकित्सा अभाव के कारण प्रसवकाल के दौरान ही मर जाती है। आधे से अधिक बच्चे कम वजन के पैदा होते हैं और 10 में से 3 बीमार होते हैं। इस कारण कि बच्चों की माताओं को पूरी खुराक नहीं मिली होती है। दूसरे, अधिक बच्चों को जन्म देने के कारण ये औरतें मानसिक और शारीरिक रूप से कमजोर हो जाती हैं।

योजना के स्तर पर भी महिलाओं के साथ निरंतर छलकपट जारी है। सर्वाधिक दुःखद पक्ष यह है कि नौवी पंचवर्षीय योजना में कुल योजना धनराशि 41 हजार 910 करोड़ रुपए थी। जिसमें महिलाओं के लिए 993.95 करोड़ रुपए ही योजना धनराशि रखी गई। और तकलीफदेह यह है कि इसमें से भी सिर्फ 748.70 करोड रुपए ही खर्च हुआ। यानी कुल योजना का 2.02 प्रतिशत महिलाओं पर खर्च हुआ। दिलचस्प तथ्य यह है कि दसवीं पंचवर्षीय योजना में महिलाओं  के विकास के लिए यह धनराशि घट कर 2 प्रतिशत से भी कम हो गई। दसवीं योजना में कुल योजना धनराशि 59708 करोड़ रुपए है। जिसमें 1198.07 करोड रुपए महिलाओं के विकास के लिए है। गरज यह कि 47.32 प्रतिशत आबादी के लिए योजना धनराशि सिर्फ 2 प्रतिशत है।

विश्व बैंक की एक रिपोर्ट बताती है कि काम करने वाली औरतों में जो 15 साल से अधिक हैं सिर्फ 9 प्रतिशत औरतें ही काम करती हैं जब कि पुरूषों में यही अनुपात 44 प्रतिशत का है। ग्रामीण महिलाओं में 16.4 प्रतिशत महिलाएँ कम करती हैं 5 साल से 8 साल तक की लड़कियाँ खेतों आदि में काम करती हैं। जब कि शहरों में 8.4 प्रतिशत महिलाएँ घर के बाहर काम करती हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश की स्थिति थोड़ी उलट है। यहाँ 4 से 5 प्रतिशत महिलाएँ ही काम करती हैं। हालां कि पूरे भारत का परिदृश्य भी बहुत सुखद नहीं है। पूरे भारत में 12.8 प्रतिशत महिलाएँ काम करती हैं। थोड़ा और तफसील में जाएँ तो बड़ी जातियों में 13 प्रतिशत, अनुसूचित जाति-जनजाति 40 प्रतिशत है। कुल काम करने वाली औरतों में 85 प्रतिशत औरतें खेत-मजदूरी करती हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश में 58 प्रतिशत महिलाएँ खेत-मजदूरी करती हैं जबकि 7 प्रतिशत महिलाएं गैर खेती मजदूरी करती हैं महिलाओं के साथ मजदूरी में भी मनमानापन बरकरार है। महिलाओं को पुरूषों की अपेक्षा कम मेहनताना मिलता है।

वर्ष 1951 में 71 लाख महिलाएँ यानी कुल महिलाओं में 24 प्रतिशत महिलाएँ काम करती थी। लेकिन 1991 में यह प्रतिशत गिरा और 7.5 प्रतिशत महिलाएँ काम करती मिलीं। गिरावट पुरूषों में भी दर्ज हुई है। 1951 में 60 प्रतिशत पुरूष काम करते थे। जबकि 1991 में यह दर गिर कर 49 प्रतिशत पर आ गई। फिर भी महिलाओं की अपेक्षा  पुरूषों का अनुपात बेहतर है। औरतों में शादी की औसत उम्र पर गौर करें तो नजारा यह है कि 1991 में औरतों की शादी की औसत आयु 18 वर्ष थी। लेकिन 2001 में कुछ सुधार हुआ और शादी की औसत आयु 19 वर्ष हो गई। लेकिन पूर्वी उत्तर प्रदेश में शादी के लिए लड़की की औसत आयु बढ़ने के बजाय घटी है। पूर्वी उत्तर प्रदेश में औरतों की औसत आयु 15 से 16 वर्ष आँकी गई है। ग्रामीण औरतों के साथ एक त्रासदी यह भी है कि उनकी शादी अपने से अधिक उम्र के पुरूषों से होती है। सो विधवा होने की संभावनाएँ ग्रामीण महिलाओं में ज्यादा होती है। सामाजिक हिंसा, घरेलू हिंसा की भी वह शिकार होती ही होती हैं। गरीब पुरूषों और महिलाओं में खर्च का परिदृश्य भी बताता है कि खर्च पुरूषों में ही अधिक है। जैसे कि 20 प्रतिशत निर्धनतम पुरूषों पर कुल खर्च का 10.3 प्रतिशत खर्च है, वहीं निर्धनतम महिलाओं पर खर्च 9.9 प्रतिशत है।

प्राथमिक शिक्षा में भी महिलाओं के साथ अन्याय ही है। 100 में से 74 लड़के प्राथमिक शिक्षा लेते हैं। जबकि लड़कियों में यह अनुपात 55 का है। कुटीर उद्योगों को काठ मार जाने से भी महिलाओं की स्थिति में बिगाड़ आया है। साड़ी, बीड़ी, चूड़ी, बिंदी आदि कुटीर उद्योगों में बहुतायत में औरतें ही काम करतीं थीं। और ज्यादातर यह काम घरों में भी चलाती थीं। पर औरतें अब घर में भी बेरोजगार हो गई हैं। संयुक्त परिवार के ढाँचे में उनकी  आर्थिकी में महिलाओं का योदान पहले ज्यादा था, अब संयुक्त परिवार टूटने की वजह से इस आर्थिकी की मार भी महिलाओं पर पड़ी है।


2 comments:

  1. आप ने शायद शमीम आरा वाले केस में सुप्रीमकोर्ट का जजमेंट पढ़ा नहीं है। यह लेख मुस्लिम औरतों के खिलाफ है क्यों कि यह भ्रम पैदा करता है कि तिहरा तलाक जायज है। शमीम आरा का फैसला पढ़ें और इस लेख को डिलिट करें। http://indiankanoon.org/doc/332673/

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