Wednesday, 22 February 2012

भूचाल

दयानंद पांडेय 

उन के अंतर्विरोध उन्हें इस तरह डंसे हुए थे कि उन्हें समझना किसी एक के लिए क्या पूरे शहर के लिए मुश्किल था। शायद वह खुद भी अपने को समझ नहीं पाती थीं। संभवतः इसी लिए लगभग हर किसी पर आरोप दर आरोप मढ़ती वह यहां से वहां भागती फिरतीं। कभी बनारस, कभी लखनऊ तो कभी दिल्ली एक किए रहतीं।

पता नहीं क्या था कि जब भी कभी वह कुंदन से क्या किसी भी से मिलतीं या फोन करतीं तो हमेशा शिकायतों का पिटारा खोल बैठतीं। और अब तो कई दफा वह यह भी नहीं देखतीं कि अगला उन का परिचित है कि अपरिचित। वह तो बस शुरू हो जातीं तो शुरू हो जातीं। उन की राय में जैसे हर कोई उन के खि़लाफ साजिश रच रहा होता था। अगर वह कभी बीमार भी होतीं और जो उन्हें देखने कोई पहुंच जाए तो वह इस में भी कोई साजिश सूंघ लेतीं और उस के जाते ही किसी दूसरे से पूछ बैठतीं, ‘आखि़र यह मुझे देखने आया ही क्यों था ?’ ‘अगला आदमी चुप भी रहता तो वह ख़ुद ही जवाब भी दे लेतीं, ‘कुछ तो सबब रहा होगा वरना यह शख्स तो यूं ही नहीं आने वाला।’ वह जोड़तीं, ‘कुछ तो दाल में जरूर काला है।’

अब वह कोई पचास बरस की थीं। पर बीते जमाने में कभी बहुत अच्छी कविताएं लिखती थीं। हिंदी में भी और अंगरेजी में भी। पर बतौर कवियित्री उन्हें कभी ठीक से जाना नहीं गया। कवियित्री होने की मान्यता तो बहुत दूर की कौड़ी थी। विभा जी अब तो यदा-कदा लेखादि लिखती हैं और पुरानी कविताओं को ही नई बता-बता कर जब-तब सुनाया करती हैं। हां, डायरी भी वह लिखती हैं पर अंगरेजी में तो भी उन के पास शहर के बूढ़े कवियों, रिटायर्ड अफसरों और पस्त हो चुके नेताओं और बुद्धिजीवियों का आना जाना लगा रहता है। उनको वह ख़ूब खिलाती पिलाती हैं और साथ ही साजिशों की गंध भी हेरती फिरती हैं।

उन के आरोपों की फेहरिस्त शायद इसी लिए इतनी लंबी है कि ख़त्म ही नहीं होती। उन के आरोपों से उन का इकलौता बेटा भी बरी नहीं है। वह बेटे के लिए एक दिन फोन पर कहने लगीं, ‘साले को गोली मार दूंगी और फांसी चढ़ जाऊंगी। पर अब और बर्दाश्त नहीं कर सकती।’ उसे लगा कि वह इस बात को लाइटली कह रही हैं तो उसी अर्थ में चुहुल करते हुए कुंदन ने कहा भी कि, ‘हां, ‘मदर इंडिया’ में भी नरगिस ने बेटे बने सुनील दत्त को मार दिया था। यह कहते हुए कि, ‘लाज नहीं दे सकती हूं। बेटा दे सकती हूं।’ सुन कर वह बिफरीं। बोलीं, ‘हां, नरगिस ने तो डायलागबाजी की थी। मैं तो वह भी नहीं करूंगी।’ वह दहाड़ीं, ‘सीधे गोली मार दूंगी।’ गनीमत बस यही थी कि वह टेलीफोन पर दहाड़ रही थीं। सामने नहीं थीं। सो वह सुरक्षित था। जो भी हो वह समझ गया कि बात ज्यादा गंभीर हो गई है। सो वह टालते हुए बोला, ‘जाने भी दीजिए। बीती बातों को बिसार दीजिए। आखि़र कुछ भी है, है तो आपका बेटा ही !’

‘लेकिन बलात्कार से पैदा हुआ।’ वह पूरी सख़्ती से बोलीं, ‘बलात्कार से जन्मा बेटा, बेटा नहीं होता। और यह बलात्कार से जन्मा है।’

‘फिर भी है तो आप का ही अंश। आप का ही ख़ून।’ उस ने बात को नरम करते हुए कहा, ‘आप की ही कोख से पैदा हुआ !’

‘हां, है तो।’ वह थोड़ी संयत होती हुई बोलीं, ‘तभी तो मेरा गोरा रंग पा गया है। मेरी नाक-नक्श और बुद्धि भी मेरी पा गया है। तो सफलता की सीढ़ियां चढ़ता जा रहा है।’ वह बोलती जा रही थीं, ‘नहीं वह है क्या ! सब कुछ मेरी वजह से ही है। नहीं अब जिस पोजीशन पर वह है अपने बाप के बूते तो नहीं हो सकता था।’

‘ये तो है।’ वह बोला।

‘यहां लखनऊ से ले कर दिल्ली तक मैं ने ही उस को सब से इंट्रोड्यूस करवाया। पी॰ एम॰ हाउस से ले कर हर जगह तक। सारे मिनिस्टर्स मुझे जानते हैं। करीब करीब सभी पोलिटिकल पार्टियों में मेरे लोग हैं।’

‘अच्छा !’ कहते हुए वह समझ गया कि विभा जी अब ज्यादा फेंकने लगी हैं।

‘मेरी पोलिटिकल इनफ्लूएंस का तुम्हें शायद पता नहीं है।’ वह उस को थाहते हुए बोलीं, ‘मैं जो चाहूं आज भी करवा सकती हूं। वह आज जो स्टार बना हुआ है तो मेरे ही बूते।’

‘आखि़र आप का बेटा है।’ कुंदन ने खुशी जताते हुए कहा। लेकिन वह बिदक गईं। बोलीं, ‘क्या बेटा-बेटा लगा रखा है। तुम्हें बताया कि बलात्कार से पैदा हुआ बेटा नहीं होता।’ उन की आवाज की सख़्ती फोन पर जारी थी।

‘लेकिन अभी तो आप कह रही थीं कि आप का गोरा रंग, आप की नाक नक्श और आप की बुद्धि भी पा गया है।’ कुंदन ने बात को फिर से पटरी पर लाने की कोशिश की।

‘वह तो मैं ने ठीक कहा।’ वह बिफरीं, ‘बुद्धि तो मेरी जरूर पा गया है। पर उल्लू के पट्ठे साले ने आदतें तो अपने बाप की पाई हैं।’ उन्हों ने जैसे जोड़ा, ‘वही टुच्चई, वही धूर्तई, वही मक्कारी सारा कुछ बाप का ! साले ने मेरी एक भी आदत नहीं ली।’ कह कर उन्हों ने लंबी सी सांस भरी।

थोड़ी देर दोनों ओर से ख़ामोशी तारी रही। फोन पर। फिर अचानक विभा जी ही बोलीं, ‘देखो कुंदन तुम अब मुझ से उसे बेटा-बेटा मत कहना।’ कह कर वह रुआंसी हो गईं। बोलीं, ‘अब की जब दिल्ली गई थी तो पता है तुम्हें प्रज्ञान ने मेरे साथ क्या-क्या किया ?’

‘क्या किया ?’

‘यह पूछो कि क्या नहीं किया ?’ वह ऐसे बोल रही थीं जैसे नदी कोई बांध तोड़ कर बह रही हो, ‘एक रात दो बजे वह शराब पी कर आया। मैं सोई थी। गालियां दे कर मुझे जगाया। फिर कलाईयां दोनों हाथों से जोर से पकड़े खींच कर वह लॉबी में लाया और चीख़ा, ‘कुत्ती हरामजादी सुबह 4 बजे तक यहां से निकल जाओ सुबह तक मैं तेरा चेहरा नहीं देखना चाहता।’ बताते-बताते विभा जी फफक कर फोन पर ही रो पड़ीं। वह रोते-रोते बोलीं, ‘कुंदन मैं तुम्हें क्या-क्या बताऊं। प्रज्ञान चाहता क्या हैं ? उस की कौन-कौन सी इच्छाएं पूरी करूं।’ वह रुकीं और बोलीं, ‘वह तो इतना गिर गया है कि अपने कॅरियर के लिए अपनी बहनों तक से प्रास्टीच्यूट करवा दे !’

‘क्या कह रही हैं आप ?’ कुंदन भौंचकिया गया।

‘हां भई, दो तीन बार इस तरह के अटेंप्ट भी वह कर चुका है।’ विभा जी बोलीं।

‘यह तो हद है !’

‘अब मैं तुम्हें क्या-क्या बताऊं।’ वह बोलीं, ‘कुछ बातें तो ऐसी हैं जिन्हें बताते भी नहीं बनता।’

‘मसलन !’

‘अब क्या बताऊं ?’

‘तो भी !’

‘सोचो मेरी सलवार तक खोल दी गई !’ वह उबलती हुई बोलीं।

‘क्यों ?’ कुंदन फिर अचरज में पड़ गया।

‘क्यों कि मैं अपने पैसे, ज्वेलरी सब कुछ सलवार की जेब में ही रखती हूं। चेन लगवा रखी है।’

‘ओह !’ कुंदन कुछ निश्चिंत हुआ। फिर पूछा, ‘क्या प्रज्ञान ने ऐसा किया?’

‘पता नहीं। मुझे तो स्लीपिंग पिल्स खिला कर सुला दिया था।’ वह बोलीं, ‘हो सकता है उस की बीवी ने सलवार खोली हो। पर खोली तो प्रज्ञान की मर्जी से ही होगी।’

‘हां, ये तो है।’ कुंदन संक्षिप्त सा बोला।

‘पर मेरी ज्वेलरी, पैसे सब निकाल लिए। बाद में महरी से मैं ने पूछा तो वह कहने लगी मैडम कहीं और भूल आई होंगी आप।’ वह बोलीं,’ ‘अब इस का मैं क्या जवाब देती भला ?’

‘तो क्या कहीं और गई थीं क्या आप ?’ कुंदन ने पूछा।

‘ह्वाट यू मीन बाई कहीं और गई थीं क्या आप !’ वह और भड़कीं, ‘तुम तो प्रज्ञान वाली भाषा बोल रहे हो !’

‘ऐसा नहीं है विभा जी। आप गलत सोच बैठीं।’ कुंदन ने प्रतिवाद किया।

‘गलत क्यों सोचूंगी। प्रज्ञान भी ऐसे ही कहता है। कहता है कि मैं इंज्वाय करने के लिए लखनऊ में अकेले रहती हूं।’ वह जरा रुकीं और बोलीं,‘क्या तो मर्दों की संगत ख़ातिर !’

‘यह तो बड़ी अफसोस की बात है।’ कुंदन ने कहा, ‘बेटे को मां के बारे में इस तरह नहीं बोलना चाहिए।’

‘तुम ने फिर बेटा कहा !’ कहते हुए वह थोड़ा मद्धिम पड़ीं। कहने लगे, ‘चलो कुछ भी मुझे वह कहे या मैं भी उसे जो कहूं सच तो यह है ही कि वह मेरा बेटा है। चलो बलात्कार से पैदा हुआ।’ वह बोलीं, ‘बेटा होने के नाते उसे ऐसा नहीं कहना चाहिए। पर वह सभी सर्किल में यही कहता फिरता है तो तकलीफ तो होगी न !’

‘बिलकुल होगी।’ कुंदन ने कहा, ‘किसी को भी होगी।’

‘क्या-क्या बताऊं कुंदन ! प्रज्ञान मेरा बेटा है जरूर पर मुझ पर कैसे कलंक लगा दे वह इसी फिराक में लगा रहता है।’ वह बताने लगीं कि, ‘एक बार उस की बीवी ने घर में ऐसा तांडव किया दिल्ली में कि उस का घर छोड़ कर मुझे एक गेस्ट हाऊस में जा कर ठहरना पड़ा।’ वह बोलीं, ‘फिर जानते हो प्रज्ञान ने क्या किया? मेरी जासूसी उस गेस्ट हाऊस में करवाने लगा कि कौन-कौन मिलने आता है। किस-किस के फोन आते हैं।’ बिसूरती हुई वह बोलीं, ‘और यह सब वह अपनी मोटी बीवी के इशारे पर करता रहा।’

‘बच्चे कितने हैं ?’

‘बच्चे हुए कहां ?’ वह बोलीं, ‘शादी के पहले जाने कितने एबारशन करवा चुकी है तो बच्चे होंगे कैसे ?’ वह बोलीं, ‘अब भी जब तब जिस-तिस के साथ भाग जाती है। प्रज्ञान भी परेशान रहता है। करे भी तो क्या करे बेचारा !’

‘प्रज्ञान की बीवी करती क्या है ?’ कुंदन ने दबी जबान पूछा।

‘करेगी क्या ! बाप ब्लैकमेलर जर्नलिस्ट था। वह भी वही जर्नलिस्ट है। बाप भी हाथी था। वह भी हथिनी है।’ वह बिफरीं, ‘मोटी इतनी कि प्रज्ञान की बीवी नहीं मां लगती है।’

‘नौकरी कहां करती है ?’ कुंदन ने पूछा, ‘क्या वह भी उसी टी॰ वी॰ चैनल में है ?’

‘नहीं एक इंगलिश मैगजीन में हैं।’ फिर उन्हों ने एक बड़ी मैगजीन का नाम लिया।

‘वह तो अच्छी मैगजीन है।’

‘पर यह मोटी तो अच्छी नहीं है।’ वह बोलीं, ‘प्रज्ञान को जब तब बरगलाती रहती है। बाप किताबें लिख-लिख कर लोगों को ब्लैकमेल करता था यह प्रज्ञान की आड़ में मुझे ब्लैकमेल करती है।’

‘यह तो हद है।’

‘और तो और मेरी सलवार तक खोल देती है।’ वह बोलीं, ‘और प्रज्ञान है कि मेरे खि़लाफ लखनऊ में भी जासूस लगा रखे हैं। एक नहीं कई-कई। जिसे देखो वही मुंह उठाये चला आ रहा है।’ वह उदास होती हुई बोलीं, ‘पर अब तो मेरी बर्दाश्त से बाहर हो गया है।’ वह फिर भड़कीं, ‘अब तो मैं साले को गोली मार दूंगी। छोड़ूंगी नहीं।’

‘लेकिन प्रज्ञान ऐसा करता क्यों है ?’

‘प्रापर्टी !’ वह बोलीं, ‘सब कुछ प्रापर्टी के लिए।’

‘इसके लिए यह सब करने की क्या जरूरत है ? आप की प्रापर्टी तो है ही उसी की।’

‘यही तो ! यही तो मसला है !’ वह बोलीं, ‘साला बाप पर गया है न ! बाप की आदतें बिरसे में मिली हैं न साले को !’ वह बोलीं, ‘पता है अब की मेरी तबीयत ख़राब हुई। अपने जासूसों से साले को पता चल गया। भाग कर आ गया लखनऊ! क्या तो मेरी देख रेख करने !’ वह बोलीं, ‘देख-रेख के नाम पर साले ने डॉक्टरों को मिला लिया। पता नहीं क्या दवा खिला दी। मैं सुध-बुध खो बैठी। इसी बीच जाने कहां-कहां मेरी दस्तखत ले ली। पावर आफ एटार्नी भी करा ली। विवाद न बढ़े इस लिए बहनों को भी बुला लिया। मिल-जुल कर सब सालों ने मेरी आधी से अधिक प्रापर्टी बेच डाली। और एक भी पैसा तो देना दूर उलटे मुझे साइकिक डिक्लेयर करवा दिया।’ कह कर वह फिर से रोने लग गईं।

‘ऐसा कर दिया प्रज्ञान ने ?’

‘और नहीं तो क्या ?’ वह बोलीं, ‘फिर मुझे दिल्ली उठा ले गया।’

‘क्यों ?’

‘उसे पी॰ एम॰ के साथ फारेन विजिट पर जाना था।’ वह बोलती जा रही थीं, ‘तो पी॰ एम॰ के साथ जाने का जुगाड़, पासपोर्ट, वीजा सब मेरे कंधे पर बैठ कर करवाना था। मेरे कांटेक्ट और इनफ्लूएंस को कैश करना था।’ वह बोलीं, ‘तो कुछ दिनों के लिए मैं मम्मी जी बन गई थी और काम ख़त्म होते ही कुतिया साली हरामजादी हो गई।’ कह कर वह रोने लगीं, ‘बताओ मैं साली कुतिया हरामजादी हूं कि मां हूं उस की।’

‘जाहिर है कि आप प्रज्ञान की मां ही हैं और मां ही रहेंगी।’

‘जाने आगे क्या रहूंगी। अभी तो साली कुतिया हरामजादी हूं।’ वह फिर से फोन पर ही सुबुकने लगीं।

‘इतनी दरार आप मां बेटे के बीच आई कैसे ?’ कुंदन ने पूछा।

‘दरार !’ उन्हों ने पलट कर पूछा, ‘अब तो दरार नहीं भूचाल है हमारे बीच!’ वह बोलीं, ‘सब कुछ वह अपने कमीने बाप की तर्ज पर कर रहा है। तब जब कि उसे पढ़ाया लिखाया मैं ने। मैं ही उंगली पकड़ उसे प्रिंट मीडिया और बाद में इलेक्ट्रानिक मीडिया तक ले गई। टेलेंटेड तो था ही रिपोर्टर से कंपेयरर तक पहुंचाया।’ वह बोलती जा रही थीं, ‘हमेशा ही उस की मम्मी जी थी। पर अचानक जाने कब घुन की तरह हमारी जिंदगी में वह मोटी समा गई। पता हीं नहीं चला। वह दिल्ली में था और मैं लखनऊ में। जब मुझे पता चला तो मैं गई दिल्ली। पता चला तीन महीने से साथ ही रह रही है। तो भी सब पर पर्दा डाल कर धार्मिक रीति रिवाज के मुताबिक बाकायदा शादी करवाई। आशीष दिया। ताकत भर खर्च बर्च किया। अलग से पैसे दिए। ताकि बच्चों को कोई तकलीफ न हो। अब क्या पता था कि बच्चे तो मेरी ही तकलीफ का ताना-बाना बुन रहे हैं।’

‘चलिए वह सब तो खुश हैं न ! बच्चे सुखी रहें इस से ज्यादा मां को क्या चाहिए ?’ कुंदन ने कहा।

‘कैसे सुखी रहेंगे ?’ वह डपटीं, ‘मुझे दुखी कर के, मुझे अपमानित कर के भला सुखी रह पाएंगे ?’

‘जाने भी दीजिए अपना दुख, अपना अपमान !’ कुंदन ने लगभग राय दी, ‘बच्चों के खुश रहने में ही आप की भी खुशी है।’

‘कहीं तुम भी तो प्रज्ञान से नहीं मिल गए हो !’ वह भड़कीं।

‘नहीं विभा जी। मैं तो कभी मिला ही नहीं। कभी बात भी नहीं की।’ कुंदन ने कहा, ‘बस टी॰ वी॰ पर ही देखता हूं जब-तब !’

‘हूं।’ उन्हों ने एक गहरी सांस ली, ‘फिर तो ठीक है।’ वह बोलीं, ‘देखो मैं ने सोच लिया है कि बची हुई प्रापर्टी का कुछ हिस्सा अब मैं भी बेंच दूं।’ वह अचानक ट्रैक बदलती हुई बोलीं, ‘रायबरेली में इंडस्ट्रियल एरिया में एक बड़ी जमीन है मेरी। उसे बेंच कर एक कोई अच्छी-सी कार ख़रीदूंगी और बाकी पैसे बैंक में जमा कर दूंगी। फिर लाइफ को इंज्वाय करूंगी।’ वह बोलीं, ‘बोलो तुम कुछ मदद करोगे?’

‘कैसी मदद ?’ वह अचकचाया।

‘यही जमीन के बिकवाने में ?’

‘मैं कैसे बिकवा दूंगा ?’ दबी जबान में कुंदन बोला।

‘चलो मैं ही कुछ करती हूं।’ वह चुप नहीं हुईं। बोलती नहीं, ‘पहले इस जमीन को बेंचती हूं। फिर कार ख़रीद कर फार्म हाउस को भी थोड़ा ठीक-ठाक करवाती हूं। और हां, एक डिक्लेयरेशन भी करनी है !’

‘वो कैसी !’

‘यही कि मेरी प्रापर्टी का एक भी पैसा अब प्रज्ञान को नहीं मिले।’

‘ऐसा क्यों करना चाह रही हैं ?’

‘इस लिए कि मेरी कोई भी प्रापर्टी उस के बाप की नहीं बल्कि मेरे बाप की है जिस पर उसका कोई हक नहीं है।’

‘इस में जल्दबाजी मत करिए। थोड़ा समय ले कर सोच समझ लीजिए।’

‘सब सोच समझ लिया है। अब कुछ नहीं सोचना।’ वह खुश-सी होती हुई बोलीं।’

‘अच्छा यह बताइए प्रज्ञान अपने नाम के आगे सरनेम किस का लिखता है? आप का या अपने पिता का।’

‘उल्लू का पट्ठा साला कोई सरनेम नहीं लिखता !’

‘स्कूली सर्टिफिकेट में कुछ तो लिखा ही होगा कभी।’

‘साला अपने कमीने बाप का नाम लिखता था ! एस॰ के॰ सक्सेना !’ कह कर वह पूछने लगीं, ‘क्यों क्या हुआ ?’

‘कुछ नहीं बस ऐसे ही पूछ लिया था।’

‘तुम यह सब छोड़ो। पहले डिक्लेयरेशन का कुछ करो और जमीन भी बिकवाने का कुछ करो।’ वह चहकीं, ‘नहीं होगा तो इस पैसे से एक मैगजीन भी निकाल लेंगे। एक इंगेजमेंट भी हो जाएगा मेरा।’

‘देखिए देखता हूं।’ कुंदन ने इस बात को लगभग टालते हुए कहा। क्योंकि वह जानता था कि विभा जी के पास रोज क्या हर घंटे एक नई स्कीम, एक नया मुद्दा इजाद होता रहता है। फिर भी उस ने बात चालू रखी और उन से पूरे अदब और लिहाज से पूछा, ‘आप की शादी तो लव मैरेज थी न ?’

‘लव और मैरिज ?’ वह बोलीं, ‘क्या बेवकूफी की बात करते हो ?’ वह तुनकीं, ‘इस का मतलब कुछ जानते ही नहीं तुम।’

‘आप ने कभी कुछ बताया ही नहीं।’ संकोच घोलता हुआ कुंदन बोला।

‘पंद्रह साल की लड़की क्या जाने लव और मैरिज !’

‘क्या मतलब ?’

‘मतलब यह कि मेरी मां जब मरी तो मैं ढाई तीन बरस की थी। फिर पिता ही मेरी मां थे और बाप भी। बनारस में मेरे पिता वकील काली प्रसाद चतुर्वेदी का बड़ा नाम था। पैसे वालों में भी और विद्वानों में भी। प्रज्ञान का बाप एस॰ के॰ सक्सेना मेरे पिता का जूनियर वकील था। मेरे पिता जब मरे तो मैं सिर्फ पंद्रह साल की थी। मेरे कोई और भाई बहन नहीं था। इकलौती थी। जो थे चचाजात थे। तो यह सक्सेना साला बरगला कर वेलविशर बन मुझे लखनऊ उठा लाया। मैं पंद्रह की थी और यह छत्तीस बरस का। लंगड़ा था सो अलग। मैं नासमझ थी कुछ समझी नहीं। जब तक समझती-समझती बहुत देर हो चुकी थी। तीन बच्चों की मां बन चुकी थी। जाति बिरादरी, पट्टीदारी-रिश्तेदारी में मेरा बहिष्कार हो चुका था क्या अब भी है। तभी तो मेरी यह दुर्दशा हो रही है।’ वह बोलती गईं, ‘इस कमीने सक्सेना ने लखनऊ में प्रैक्टिस शुरू की। चली नहीं तो मेरे बाप की प्रापर्टी बेंच-बेंच कर खाने लगा।’ कहते हुए उन्हों ने लंबी सांस ली, बोलीं, ‘जब तक बाप जिंदा था वह सताता रहा अब बेटा सता रहा है।’ कह कर वह रोने लगीं। पूछने लगीं, ‘बताओ कुंदन मैं क्या करूं, मैं तो टूट गयी हूं, पूरी तरह। करूं तो क्या ! हूं ?’ वह कहने लगीं, ‘बेटे का यह हाल है। बाकी ससुरालीजनों से मुझे नफरत है और मायके में मेरा बायकाट ! दो चार पुरुष मित्र मिले भी तो नोचने और छलने वाले !’ वह हरहराती नदी की मानिंद बोलती रहीं ‘बाकी अकेली औरत जान कर ये अधेड़, ये बूढ़े लार टपकाते जब देखो तब चले आते हैं। दुख पर मरहम लगाने के बहाने लिजलिजी लार बहाने लगते हैं। तंग आ गई हूं ऐसे लिजलिजे लोगों से। ऐसे अकेलेपन से। जो सिर्फ संत्रास देता है। मैं ढूंढ़ती हूं भावनात्मक सुरक्षा और मिलती है लिजलिजी भावुकता और गिद्धों की नोच खसोट। कोई प्रापर्टी नोचता है तो कोई मन, कोई तन-मन दोनों।’ बोलते-बोलते वह फफक कर रो पड़ीं, ‘लोग, बेटा और दोस्त कहते हैं कि मैं साइकिक हो गई हूं। बोलो कुंदन क्या मैं साइकिक हो गई हूं ? क्या इस तरह टूट जाने को, लोगों से अलग-थलग पड़ जाने को ही साइकिक कहते हैं ? हूं ?’ वह रुलाई रोकती हुई बोलीं, ‘जरा पूछना किसी डॉक्टर से। फिर बताना। अगर जिंदा रही तो जान लूंगी।’

‘क्या ?’ कुंदन भी भावुक होता हुआ बोला, ‘क्या जान लेंगी ?’

‘कि मैं साइकिक नहीं हूं।’ कह कर उन्हों ने उस रोज भी फोन हमेशा की तरह अचानक ही काट दिया।

1 comment:

  1. एक सांस में पढ़ गयी .बहुत कुछ सोचने को मजबूर करती कहानी .,

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