Monday, 6 February 2012

बड़की दी का यक्ष प्रश्न

दयानंद पांडेय 

बस अभी हिचकोले ही खा रही थी कि अन्नू ने मुझे अपनी सीट पर बुलाया। मैं अभी अपनी सीट से उठी ही थी कि बस एक स्पीड ब्रेकर पर भड़भड़ कर गुजरने लगी। मैं गिरते-गिरते बची। अन्नू की सीट पर जा कर बैठी तो वह बोला, हियरिंग एड लगा लीजिए।मैं ने उसे बताया कि, लगा रखा है।तो वह बोला, बड़की बुआ से मिलेंगी?इस बीच बस किसी ट्रक को ओवरटेक करने लगी। ओवरटेक और तेज हार्न के बीच अन्नू की आवाज गुम सी गई। उस ने बात फिर दुहराई, बड़की बुआ से मिलेंगी?उस ने अपना मुंह मेरे कान के पास ला कर और जोर से कहा, उन का कस्बा बस आने ही वाला है।

मैं ने सहमति में सिर हिला दिया।

बड़की दी हम दस भाई बहनों में दूसरे नंबर पर थी और सात बहनों में सब से बड़ी। भाई बहनों में मैं सब से छोटी थी। मैं अब कोई पचास की थी और बड़की दी कोई पचहत्तरकी। घर में वह बड़की थी और मैं छोटकी। इस तरह हमारे उस के बीच उम्र का कोई पचीस बरस का फासला था। पर विडंबना यह थी कि मेरे पैदा होने के पहले ही बड़की दी विधवा भी हो चुकी थी। बाल विवाह का अभिशाप वह भुगत रही थी। उस का दांपत्य जीवन बमुश्किल दो ढाई बरस का ही था। पेट में पलता एक जीव छोड़ कर जीजा जी हैजे की भेंट चढ़ गए। बड़की की जिंदगी उजड़ गई थी। वह तब सोलह सतरह की ही थी। उस के एक बेटी हुई। वह बेटी ही उस की जिंदगी का आसरा बन गई।

बड़की दी के साथ भगवान ने भले अन्याय किया था पर मायका और ससुराल दोनों ही उसे भला मिला था। उस को एक पति की कमी छोड़ किसी और बात की कमी नहीं होने दी। जवानी आने के पहले ही उस के बाल कट गए। साथ ही विधवा जीवन की तमाम शर्तें उस ने ख़ुशी ख़ुशी ओढ़ लीं। घर से बाहर वह निकली तभी जब अधेड़ हो गई। उस के बाल पकने लगे और देह पर झुर्रियों ने दस्तक दे दी। सालों साल तक लोगों ने उस की आवाज तो दूर उस के पैरों की आवाज भी नहीं सुनी थी। पर अब जब बड़की दी घर से बाहर निकली तो एक दूसरी ही बड़की दी थी। उस की आवाज कर्कश हो चली थी और पैरों में जैसे तूफान समा गया था। माना गया कि यह उस के विधवा जीवन के फ्रस्ट्रेशन का नतीजा है। एक बार बड़के भइया से गांव के किसी ने शिकायत की कि, तुम्हारी बहन बहुत टेढ़ा बोलती है।तो बड़के भइया ने पलट कर उसे जवाब दिया था, बोलती टेढ़ा जरूर है। पर हमारी मूंछ तो टेढ़ी नहीं करती।

और सच जवानी आने के पहले ही विधवा हो जाने वाली बड़की दी के बारे में किसी ने न खुसफुस की, न खुसफुस सुनी, न बड़की दी की नजरों में कोई चढ़ा, न किसी की नजर उस पर पड़ी। पर जिंदगी के पचहत्तर बरस बेदाग रहने वाली बड़की दी की जिंदगी पर अब एक दाग लग गया था। लोगों की उंगलियां उस पर अनायास ही उठ गई थीं। मायके और ससुराल दोनों ही से उस का रिश्ता जैसे ख़त्म सा हो गया था। छोटके भइया कहते, हमारे लिए तो बड़की दी मर गई।

यह वही छोटके भइया थे जो अभी हाल तक यह कहते नहीं अघाते थे कि बड़की दी ने हमारी तीन पीढ़ी को अपनी गोद में खिलाया है। हम भी इस की गोद में खेले, हमारा बेटा भी खेला, और अब हमारा पोता भी खेल रहा है।जवाब में बड़की दी हुमक कर कहती, और का !कह कर वह बालकनी में छोटके भइया के पोते को तेल मालिश करने लगती। फिर जैसे ख़ुद से ही कहती, अब ई हमारे मान का नहीं। बहुत उछलता है। और हमारे पास अब शक्ति नहीं रही। बुढ़ा गई हूं।कहते हुए छोटके भइया के पोते को गोद से उछालती और उस से तुतला कर पूछती, है न बुढ़ऊ !फिर जैसे जोड़ती, न तोहरे दांत, न हमरे दांत। कहो बुढ़ऊ !कहते कहते वह बच्चे के हाथ-पैर दबा-दबा कंधे तक ले जा, ले जा साइ-सुई खिलाती और वह खिलखिला कर हंसने लगता। छोटके भइया के पोते यानी अन्नू के बेटे से बड़की दी को जाने क्यों बहुत लगाव था। अन्नू को भी वह बहुत मानती थी। अन्नू बचपन में बड़की दी से बहुत डरता था। उस की कर्कश आवाज और झन्नाटेदार थप्पड़ अच्छे अच्छों को डराता था। अन्नू तब टीन एजर था। गांव में किसी की बारात विदा हो रही थी। दुल्हा जा रहा था। अन्नू तमाम लड़कों के साथ टेंपो पर लटका आ रहा था। दूर से ही उस ने बड़की दी को देख लिया। फिर क्या था मारे डर के वह चलते टेंपो से उतर पड़ा। जान तो बच गई पर सिर बुरी तरह फूट गया था। वह घटना सोच कर अन्नू आज भी सिहर उठता है। अन्नू बड़की दी से डरता बहुत था, पर उन्हें मान भी बहुत देता था। जाने क्या था कि बचपन से ही अन्नू जब कभी और कहीं भी बीमार पड़ता, बड़की दी कहीं भी होती आ धमकती। और अन्नू की सेवा टहल में लग जाती। कम से कम तीन बार वह अन्नू को मौत के मुंह से खींच कर लाई थी। बड़की दी डॉक्टर तो क्या पढ़ी लिखी भी नहीं थी। पर किस बीमारी में क्या खिलाना चाहिए, कैसे रहना चाहिए, क्या देना चाहिए आदि-आदि उसे सब मालूम था। और अन्नू ही क्यों कोई भी बीमार पड़े तो बड़की दी प्राण प्रण से सेवा टहल में लग जाती। वह न तो बीमार से परहेज करती, न बीमारी से घृणा। वह जैसे सब कुछ आत्मसात कर लेती। और भूत की तरह बीमारी के पीछे पड़ जाती, उसे भगा कर ही दम लेती।
बड़की दी जहां भी रहती चाहे मायका हो या ससुराल, पूरे दबदबे से रहती। मजाल क्या था कि बड़की दी की बात कोई काट दे। उस के आगे क्या छोटे, क्या बड़े सभी दुबके रहते। वह डट कर घर के सारे काम करती। हाड़ तोड़ मेहनत। कोई मना भी करता तो कहती, काम न करूं, तो बीमार पड़ जाऊं।सो लोग बड़की दी का सहारा ढूंढते। ससुराल और मायका दोनों ही जगह उसे रखने की होड़ मची रहती। पर कहां रहना है, यह बड़की दी ख़ुद तय करती। और जहां ज्यादा जरूरत समझती, वहीं रहती। पर सब का सहारा बनने वाली बड़की दी उम्र के इस चौथेपन में ख़ुद सहारा ढूंढने लग गई। उम्र जैसे-जैसे ढलती जा रही थी, वैसे-वैसे अवसाद और निराशा में घिरती बड़की दी आशा की एक किरण ढूंढते-ढ़ूंढते छटपटाने लगती। फफक-फफक कर रोने लगती। रोते-रोते कहती, अभी तो जांगर है। करती हूं, खाती हूं। पर जब जांगर जवाब दे जाएगा, तब मुझे कौन पूछेगा?हर किसी से बड़की दी का यही एक सवाल होता, तब हमें कौन पूछेगा ?हमारे जैसे लोग उसे दिलासा देते, सब पूछेंगे।और अन्नू उन्हें चुप कराते हुए कहता, मैं पूछूंगा। जब तक मैं जिंदा हूं, बड़की बुआ आप को मैं देखूंगा। मैं आप की सेवा टहल करूंगा।छोटके भइया, भाभी भी बड़की दी से यही बात कहते। उस की ससुराल में उस के देवर भी उसे दिलासा देते। पर बड़की दी को किसी की भी बात पर विश्वास नहीं होता। वह फफक-फफक कर रोती और पूछती, जब हम अचलस्त हो जाएंगे तो हमें कौन पूछेगा?बड़की दी रोती जाती और पूछती, हमें कौन देखेगा।वह आधी रात में अचानक उठती और रोने लगती। और पूछने पर यही यक्ष प्रश्न फिर दुहरा देती।

और फिर वह मन ही मन अपनी बेटी की याद करती। अपने यक्ष प्रश्न का जवाब बड़की दी जैसे अपनी बेटी में ही ढूंढती। उस की बेटी जो अब नाती पोतों वाली हो गई थी। पर बड़की दी के लिए जैसे वह अभी भी दूध पीती बच्ची थी। वह अपनी बेटी को हमेशा असुरक्षा में घिरी पाती। और अपना सब कुछ उस पर न्यौछावर करती रहती। रुपया-पैसा, कपड़ा-लत्ता, जेवर-जायदाद जो भी उस के पास होता, वह चट बेटी को पठा देती। और बेटी भी उसे जैसे कामधेनु की तरह दुहती रहती। और यह बात लगभग हम सब लोग जानते थे कि बड़की दी के प्राण उस की बेटी में ही बसते हैं। पर पता नहीं क्यों हम सब लोग यह नहीं जान पाए कि बड़की दी अपने यक्ष प्रश्न, तब हमें कौन पूछेगा?का जवाब भी अपनी बेटी में ही ढूंढती है। ढूंढती है, और पूछती है। तो शायद इस लिए भी कि इस पुरुष प्रधान समाज में हम कभी यह नहीं सोच या मान पाते कि मां बेटी के घर भी जा कर रह सकती है। ख़ास कर उस समाज में जहां मां-बाप बेटी के घर का पानी भी नहीं पीते हों।

ख़ैर, बड़की दी शुरू से ही एक-एक कर अपने सारे जेवर, चांदी के रुपए और तमाम धरोहरें बेटी को थमाती गई। और दामाद उसे शराब और जुए में उड़ाता गया। धीरे-धीरे उधर दामाद की लत बढ़ती गई और इधर बेटी की मांग। पर बड़की दी ने कभी भी उफ नहीं की। बड़े जतन से जोड़े गए एक-एक पैसे वह बेटी को देती गई। बेटी ने कभी यह नहीं सोचा कि लाचार मां को भी कभी इन पैसों की जरूरत पड़ सकती है। वह तो आती या पति को भेजती अपनी परेशानियों का चिट्ठा ले कर। और बड़की दी इधर-उधर से पैसे जोड़ कर पठा देती। पर बात जब ज्यादा बढ़ गई तो बड़की दी धीरे-धीरे हाथ बटोरने लगी। उस ने दो एक बार दामाद पर लगाम लगाने की भी कोशिश की। शराब और जुए के लिए टोका-टाकी की। तो उस ने जा कर बड़की दी की बेटी की पिटाई की। और कहा कि आइंदा अपनी मां को टोका टोकी के लिए मना कर दो नहीं तो फांसी लगा कर मर जाऊंगा। बेटी ने मां को टोका टोकी के लिए मना कर दिया। और बड़की दी मान भी गई।

यह तब के दिनों की बात है जब बड़की दी का दबदबा था और उस के पास कोई यक्ष प्रश्न भी नहीं था। लेकिन धीरे-धीरे बड़की दी का जोड़ा बटोरा धन, जेवर सब चुक गया और दामाद बेटी की आमद भी कम से कमतर हो गई। पर कहा न कि बेटी में बड़की दी के प्राण बसते थे। वह कहीं शादी ब्याह में नेग के साड़ी, कपड़े, पैसे पाती, चट-पट बेटी को पठा देती। बिन यह सोचे कि इस की उसे भी जरूरत है। पहले तो बड़की दी की बेटी दामाद की उस के ससुराल और मायके दोनों ही जगह ख़ूब आवभगत होती। कुछ समय तक तो यह सोच कर कि बेटी दामाद हैं। और बाद के दिनों में बड़की दी से डर कर कि कहीं उस के दिल को ठेस न पहुंचे। पर दामाद की ऐय्याशी जब ज्यादा बढ़ गई, उस की नजर घर की बेटियों, औरतों पर भी फिरने लगी तो उस का आना-जाना तो कोई फिर भी नहीं रोक पाया पर आवभगत में वह भावख़त्म हो गया। धीरे-धीरे दामाद ने आना बंद कर दिया। वैसे भी बड़की दी के पास उसे देने के लिए कुछ बाकी नहीं रह गया था। बड़की दी ने उसे पैसे देना बंद किया तो उस का जुआ शराब भी कम हो गया। बड़की दी भी अब अधेड़ से बूढ़ी हो चली थी। उस की देह पर अब झुर्रियों ने घर बना लिया था और जबान पर वह यक्ष प्रश्न, तब हमें कौन देखेगा ?बस सा गया था।

और संयोग ही था कि बड़की दी का यक्ष प्रश्न जल्दी ही कसौटी पर कस गया। वह तब ससुराल में ही थी। रात में अचानक उस का पेट फूल गया। अब तब हो गई। और खुद बड़की दी को भी लगा कि अब वह नहीं बचेगी। लेकिन वह बच गई। बड़की दी के यक्ष प्रश्न का जवाब भी आ गया था। मायका, ससुराल सब उस के साथ था। उस के देवर ने इलाज का खर्चा उठाया। पैसा कम पड़ा तो सूद पर ले आया। आख़िर आपरेशन हुआ था।

छोटके भइया भी पूरी तैयारी से थे। पर बड़की दी के देवर ने कहा कि, यह हमारा धर्म है, हमें शर्मिंदा मत करिए। हम भी भौजी की गोद में खेले हैं,इस बीमारी में बड़की दी के बेटी दामाद भी आए थे। पर इस मौत के क्षण में भी उन्हें बड़की दी की तिजोरी ही नजर आती रही। उन का सारा जोर बड़की दी को उस शहर के नर्सिंग होम से निकाल कर अपने कस्बे में ले जाने पर रहा। दामाद बड़की दी के देवर को लगातार डांटता ही रहा, आप लोग यहां इन्हें मार डालेंगे। हम को ले जाने दीजिए।बेटी भी इसी बात पर अड़ी रही। दरअसल बेटी दामाद को लगता था कि बड़की दी अब बचेगी नहीं। सो उन्हें अपने अख़्तियार में ले कर उन के हिस्से की खेती बारी भी लिखवा लें। सो उन की नजर बड़की दी के इलाज पर नहीं, उन की जायदाद पर थी। बड़की दी शायद होश में होती तो चली भी जाती। पर वह तो बेहोश थी। और उस का देवर दामाद की मंशा जानता था, सो छोटका भइया को सामने खड़ा कर दिया। और बड़की दी को नर्सिंग होम से नहीं जाने दिया।

आपरेशन के बाद बड़की दी बच जरूर गई थी, पर अब सचमुच उस की देह जवाब दे गई थी। आंखों की रोशनी मद्धिम पड़ गई थी। देह से फूर्ति बिसर गई थी। उस की सारी सक्रियता ख़त्म हो गई थी। वह चार छः कदम चलती और जमीन जरा भी ऊंची-नीची पड़ती तो गिर पड़ती।

बड़की दी का यक्ष प्रश्न अब कहीं ज्यादा सघनता के साथ उस के सामने उपस्थित था, उस की पनीली आंखों से छलछलाता हुआ।

वादे के मुताबिक अन्नू उसे अपने साथ ले गया। पर बड़की दी का शहर में मन नहीं रमा। वह कहती, यहां तो कोई बतियाने के लिए भी नहीं मिलता।वह बरस भर में ही गांव वापस आ गई। फिर गई, फिर वापस आई। इसी तरह वह आती जाती रही। फिर अन्नू ने उस की आंखों की मोतियाबिंद का आपरेशन करवाया। इस बहाने उस की बेटी का बेटा, बेटी और पतोहू भी बड़की दी से आ कर मिलने लग गए। गुपचुप-गुपचुप तय हो गया कि बड़की दी अब अपने हिस्से के सारे खेत और जायदाद बेटी के नाम लिखेगी। एक बार अन्नू से भी बड़की दी ने इस बारे में पूछताछ की। अन्नू ने बड़की दी को साफ बताया कि कानूनी रूप से तो यह ठीक है, लेकिन सामाजिक और पारिवारिक परंपरा के हिसाब से यह ठीक नहीं है। अन्नू ने बड़की दी को फिर यह भी कहा कि जिस ससुराल में आप का इतना मान है, उसे क्यों मिट्टी में मिलाना चाहती हैं। और आगाह किया कि अपने जीते जी यह काम मत करिएगा। और फिर आप की बेटी चाहेगी तो आप के मरने के बाद भी आप की जमीन-जायदाद कानूनन मिल जाएगी। और ज्यादा से ज्यादा आप चाहिए तो गुपचुप एक वसीयतनामा लिख जाइए। बड़की दी ने अन्नू की बात मुझे भी बताई और राय मांगी। मैं ने भी अन्नू की राय को ही ठीक बताया।

बड़की दी मान गई थी।

अन्नू के यहां से वापस जाने के बाद बीते दिनों बड़की दी ससुराल में थी। उस से मिलने उस की बेटी का बेटा आया। वह आया तो बड़की दी ठीक-ठाक थी। लेकिन जब जाने लगा तो वह बीमारहो गई। बेटी के बेटे ने कहा, चलो नानी डॉक्टर को दिखा दें।बड़की दी का देवर भी मान गया। बोला, जाओ नाती नानी को दिखा लाओ।पर नाती बड़की दी को जो डॉक्टर को दिखाने ले गया तो फिर पलट कर नहीं आया। बड़की दी भी नहीं आई। सुबह से शाम हुई। बड़की दी नहीं आई तो देवर ने समझा कि शहर में रुक गई होंगी भौजी। पर जब दो-चार दिन नहीं, हफ्ते दस दिन बीत गए तो देवर का माथा ठनका। वह भाग कर छोटके भइया के पास गया। पर बड़की दी वहां थी कहां जो मिलती। बड़की दी मिली तो अपनी बेटी के घर। और वापस आने को तैयार नहीं। वह देवर वापस आ गया। अब दूसरा वाला देवर लेने गया तो दामाद खुल कर लड़ पड़ा। गुथ्थम गुथ्था हो गए दामाद ससुर। पर बड़की दी नहीं आई। देवर ने बड़की दी से कहा भी कि, बेटी का अन्न जल खा कर हमारे मुंह पर कालिख मत लगवाओ भौजी। लौट चलो।पर बड़की दी नहीं मानी।

देवर लौट कर छोटके भइया के पास आया और सारा हाल बता कर कहा, चलिए आप ही ले आइए। आख़िर समाज में हम कैसे मुंह दिखाएं। अब तो लोग यही कहेंगे कि जब भौजी करने धरने लायक नहीं रहीं तो हम ने घर से निकाल दिया। और फिर भगवान ने उन का पहले ही बिगाड़ा था, और अब वह बेटी का अन्न, जल ले कर अपना अगला जनम भी बिगाड़ रही हैं। इस पाप के भागीदार हम लोग भी होंगे।पर छोटके भइया नहीं गए। बोले, बड़की दी अब हमारे लिए मर गई।

फिर कुछ दिनों बाद बड़की दी ने सारी जायदाद बेटी के नाम लिख दी। और एक दिन उस की बेटी का बेटा छोटके भइया के पास पहुंचा और कहा कि, नानी को बुलवा लीजिए। लेकिन उस को उस की ससुराल मत भेजिएगा। वहां लोग उसे जहर दे कर मार डालेंगे।पर छोटके भइया का जवाब फिर वही था, बड़की दी हमारे लिए मर गई।और अब उन्हीं छोटका भइया का बेटा अन्नू चलती बस में पूछ रहा था मुझ से कि, बड़की बुआ से मिलेंगी ?मैं ने सहमति में सिर हिला दिया और पूछा कि, पता मालूम है ?

मालूम तो नहीं हैं पर मालूम कर लेंगे। छोटा कस्बा है। कोई मुश्किल नहीं होगी।अन्नू बोला।

हां, मिल एरिया है। मिल ही जाएगा।मैं ने कह दिया।

कहीं पापा नाराज हुए तो ?अन्नू ने पूछा।

देखा जाएगा। पर अभी तो बड़की दी से मिल लें।कह कर मैं भावुक हो गई।

ढूंढते-ढूंढते आख़िर मिल गया बड़की दी के दामाद का क्वार्टर। घर में पहले अन्नू घुसा फिर मैं, अन्नू की बीवी और अन्नू के छोटे भाई मुन्नू और चुन्नू।

बड़की दी बिस्तर पर लेटी नीचे पैर लटकाए छत निहार रही थी। अन्नू ने उस के पैर छुए तो एकाएक वह पहचान नहीं पाई। हड़बड़ा गई। पर मुन्नू ने जब पैर छुए तो वह पहचान गई। उठ कर बैठ गई। मुझे देखते ही वह भावुक हो गई। बोली, छोटकी तू !और मुझे भर अकवार भेंटने लगी। अन्नू की बीवी ने बड़की दी के पैर छुए और अपने बेटे को बड़की दी की गोद में बिठा दिया। बड़की दी, बाबू हो, बाबू होकह कर उसे जोर-जोर से गुहारने लगी। फिर उसे बुरी तरह चूमने लगी और फफक कर रो पड़ी। पर अन्नू का बेटा बड़की दी की गोद में नहीं रुका और रोते-रोते उतर गया। अन्नू के बेटे के गोद से उतरते ही बड़की दी का भावुक चेहरा अचानक कठोर हो गया। अपने चेहरे पर जैसे वह लोहे का फाटक लगा बैठी। वह समझ गई थी कि अब उस से अप्रिय सवालों की झड़ी लगाने वाली हूं मैं। पर उस की उम्मीद के विपरीत मैं चुप रही।

बिलकुल चुप।

बड़की दी ने जैसे अचानक अपने चेहरे पर से लोहे का फाटक खोल दिया। सिर का पल्लू ठीक करती हुई वह फिर से भावुक होने लगी। बोली, अन्नू का तो नहीं जानती थी पर तुम्हारी बात जानती थी। जानती थी कि छोटकी जरूर आएगी।

पर तुम यहां क्यों आई बड़की दी ?कहती हुई मैं बिलख कर रो पड़ी।

अब मुझ से और नहीं सहा जा रहा था।बड़की दी बोली, अब मेरी उमर सेवा टहल करने की नहीं रही। और मेरी सेवा टहल की किसी को कोई फिकर ही नहीं थी। न नइहर में न ससुराल में।बोलते-बोलते वह रोने लगी। रोते-रोते कहने लगी, अब मुझे सहारे की जरूरत थी। मैं चाहती थी कोई मुझे पकड़ कर उठाए- बैठाए। मेरी सेवा करे। पर करना तो दूर कोई मुझे पूछता भी नहीं था।बड़की दी आंचल से आंसू पोंछते हुए बोली, चलते-चलते गिर पड़ती तो कोई आ कर उठा देता। या खुद ही फिर से उठ जाती। पर कोई हरदम साथ-साथ नहीं होता।वह बोली, कोई मुंह बुलारो नहीं होता। नइहर हो या ससुराल हर जगह लोग यही समझते रहे कि बड़की को तो बस खाना और कपड़ा चाहिए।वह सिसकने लगी। बोली, जवानी तो हमने खाना और कपड़े में काट लिया, बुढ़ापा नहीं काट पाई। क्यों कि बुढ़ापा सिर्फ खाना और कपड़े से नहीं कटता।बड़की दी बोलती ही जा रही थी, मैं ऊब गई थी ऐसी जिंदगी से।

तो तुम छोटके भइया के पास आ गई होती।

वह आया भी कहां बुलाने ?वह बोली, फिर जब से वह नौकरी से रिटायर हुआ है, खिझाने बहुत लगा है। घर भर को दुखी किए रहता है। मुझे भी जब-तब खिझा-खिझा कर रुला देता। फिर एक बार बात ही बात में वह मुझ पर और पैसा कौड़ी खर्च करने से मना करने लगा। कहने लगा मेरे खर्चे ही बहुत हैं। पेंशन में गुजारा नहीं चल पाता।

तो तुम अन्नू के पास चली जाती।मैं ने कहा तो अन्नू भी कहने लगा, हां, मैं ने तो कभी आप की जिम्मेदारी से इंकार नहीं किया।

हां, अन्नू ने इंकार नहीं किया।हामी भरती हुई बड़की दी बोली, पर अन्नू के यहां तो और मुश्किल थी। वह और बहू दिन में दफ्तर चले जाते और बच्चे स्कूल। फिर बाबू रह जाता और मैं। मैं अपने को संभालती कि बाबू को। फिर मैं यह भी नहीं समझ पाती कि अन्नू मेरी देखभाल के लिए मुझे अपने पास ले गया है कि अपने बच्चे की देखभाल करने के लिए मुझे लाया है। और मुझे हर बार यही लगता कि अन्नू बच्चे की देखभाल के लिए ही मुझे लाया है।बड़की दी बोली, ख़ैर, बाबू को देखने में कोई बुराई नहीं थी। पर मैं वहां अकेली पड़ जाती। कोई बोलने बतियाने वाला नहीं होता वहां। एक बार फाटक बंद होता तो फिर शाम को ही खुलता। फिर आते ही बच्चे, बहू, अन्नू सभी टी॰वी॰ देखने लगते, खाना खाते सो जाते। मेरे लिए जैसे किसी के पास समय ही नहीं होता।वह बोली, तो मैं क्या करती अन्नू के यहां भी जा कर। जब वहां भी मुझे कोई देखने वाला नहीं था। उठाने-बैठाने वाला नहीं था।

यहां कौन है उठाने-बैठाने वाला ?मैं बिफर कर बोल बैठी।

हैं न !बड़की दी सहज होती हुई बोली, चार-चार जने हैं उठाने-बैठाने वाले। नाती, नतिनी, नतोहू सभी हमारी सेवा में लगे रहते हैं। उठती-बैठती हूं तो हरदम पकड़े रहते हैं।कहते हुए जैसे उस के चेहरे पर एक दर्प सा छा गया।

बड़की दी के चेहरे पर यह संतोष भरा दर्प देख कर मुझे कहीं खुशी भी हुई। अभी हमारी बात चीत चल ही रही थी कि बड़की दी की बेटी की छोटी बेटी आ गई जिस की उमर कोई सोलह-सत्रह बरस रही होगी। वह कहने लगी, आइए, आप लोग बड़े वाले कमरे में बैठिए।

नहीं हम लोग यहीं ठीक हैं।अन्नू बोला, फिर अभी हम लोग चले जाएंगे।

बिट्टी कहां है ?मैं ने पूछा तो बड़की दी बोली, बंबई गई है। उसे कैंसर हो गया है।उस ने जोड़ा, पर घबराने की बात नहीं है। अभी शुरुआत है। डॉक्टर ने कहा है ठीक हो जाएगी। बंबई में अभी उस की सिंकाई चल रही है।

अच्छा अपनी जमीन-जायदाद का क्या किया ?मैं सीधे प्वाइंट पर आ गई और पूछ लिया, किसी को लिख दिया कि नहीं ?

हां, लिख दिया।कहती हुई बड़की दी बिलकुल कठोर हो गई। वह पूरी दृढ़ता से बोली, बिट्टी को लिख दिया।

पर तुम ने यह तो ठीक नहीं किया बड़की दी !मैं ने भी पूरी दृढ़ता और कठोरता के साथ कहा, जो देवर जिंदगी भर तुम्हारे लिए जी जान से खड़े रहते रहे, उन के साथ यह ठीक नहीं किया।मैं बोलती गई, बिट्टी को जो जमीन-जायदाद लिख दी, तो लिख दी तुम्हें यहां रहने नहीं आना चाहिए था बड़की दी।

तो मैं वहां क्या करती ? गिरते-पड़ते जान दे देती। बेवा तो थी ही, बेसहारा मर जाती ?उस ने तल्ख़ी से पूछा।

नहीं। जब बिट्टी और उस के बच्चे, पतोहू तुम्हारी सेवा करने को तैयार थे तो तुम इन्हें बारी-बारी अपने घर ही बुला कर कर रखती। यह वहीं तुम्हारी सेवा टहल करते।मैं बोली, पर कुछ भी कहो बड़की दी मैं तुम्हारी सारी बातें मान सकती हूं। पर यह बात नहीं मानने वाली। तुम्हारी गोद में मैं भी खेली हूं। तुम मुझ से बहुत बड़ी भी हो। पर बड़की दी, बेटी के घर आ कर यह तुम ने ठीक नहीं किया।

क्यों ठीक नहीं किया ?यह बात बड़की दी ने नहीं, बिट्टी की बेटी ने कहा जो अभी-अभी बड़े कमरे में हम लोगों से चल कर बैठने के लिए कह रही थी। उस ने अपना सवाल फिर से उसी तल्ख़ी, तेजी और तुर्शी से दरवाजे के बीच खड़ी-खड़ी दुहराया, क्यों ठीक नहीं किया ?

नहीं, जमीन-जायदाद लिखनी थी बिट्टी दीदी को तो लिख देतीं बड़की बुआ पर यहां रहना नहीं चाहिए था।अन्नू बोला, हमारे घर रह लेतीं। पापा के पास रह लेतीं।

क्यों रह लेतीं ?बिट्टी की बेटी दहाड़ती हुई बोली, जब दिया यहां, तो वहां क्यों रहेंगी ?

छोटके भइया कहते हैं कि हमारे मुंह पर कालिख पोत दिया।बोलते-बोलते मुझे रुलाई छूट गई। बोली, वह कहते हैं कि अब तो दुनिया यही कहेगी कि जब तक काम करने लायक थी, तब तक रखा। और जब बूढ़ी और लाचार हो गई, काम करने लायक नहीं रही तो घर से निकाल दिया। तभी तो बड़की दी बेटी के घर रहने लगी !

बेटी के घर रहने लगी तो क्या पाप कर दिया ?बिट्टी की बेटी फिर ललकार कर बोली, मां-बाप बेटे के साथ रह सकते हैं तो बेटी के साथ भी क्यों नहीं रह सकते हैं ?

नहीं रह सकते। हमारे यहां यह परंपरा नहीं है। दोष माना जाता है। माना जाता है कि नरक मिलता है....।

और कीड़े पड़ते हैं।बात काटती हुई बिट्टी की बेटी जोर से बोली, आप तो इन के देवरों वाली भाषा बोल रही हैं। नानी के देवर भी कहते हैं कि कीड़ा पड़ेगा।वह गुर्राती हुई बोली, पहले जब इन के देवर लोग यहां आते थे, दस-दस दिन रह कर खाते थे, जाते थे तो किराया भी ले जाते थे। तब उन को कीड़ा नहीं पड़ता था। तो अब इन को कीड़ा क्यों पड़ेगा ? तब जब कि हमारा नहीं, अपना ही खा रही हैं। रही बात पानी की तो यह हमारा क्वार्टर नहीं है, मिल का क्वार्टर है, कोई पुश्तैनी गांव नहीं।वह यहीं नहीं रुकी। बोली, आप लोग इन्हें बरगलाने आए हैं।

देखिए अब आप प्लीज चुप हो जाइए। अब और बदतमीजी मत करिए।अन्नू बोला, जिन से आप लगातार बदतमीजी से पेश आ रही हैं वह इन की सगी छोटी बहन हैं। सो यह भी आप की नानी हुईं। वह बोला, और हम लोग इन को बरगलाने नहीं, इन से मिलने आए हैं। इन को देखने आए हैं। इन की जमीन जायदाद से हम लोगों का कुछ लेना-देना नहीं है।बावजूद इस के वह फिर बोलने लगी तो अन्नू ने उसे अब की जरा कड़ाई से डांटा, प्लीज चुप हो जाइए।

पर बड़की दी उस की बदतमीजी पर कुछ नहीं बोली। ऐसे बैठी रही जैसे कुछ हुआ ही न हो। किसी ने कुछ कहा ही न हो। यह वही बड़की दी थी जो मुझे कभी कोई कुछ कहता तो उस का मुंह नोच लेने को हरदम तैयार रहती थी। वही बड़की दी आज गुमसुम सी चुप थी। और मैं सिसक-सिसक कर रो रही थी।

इसी बीच बिट्टी की वह बेटी बिस्किट और पानी ले कर आई। पर पानी किसी ने पिया नहीं। बिस्किट किसी ने छुआ नहीं। माहौल गंभीर हो गया था। तब तक चुन्नू कैमरा लिए आया और अन्नू से पूछने लगा, भइया सब के साथ बुआ की एक फोटो खींच लूं?

हां, हां।अन्नू बोला। चुन्नू अभी कैमरे का लेंस ठीक कर ही रहा था कि बड़की दी का एक नाती आया और फोटो खींचने से चुन्नू को मना करने लगा।

चुन्नू ने अन्नू से चिल्ला कर कहा, भइया यह फोटो खींचने से मना कर रहे हैं।

तो रहने दो।अन्नू भी कुछ-कुछ उत्तेजित हो गया था।

तनावपूर्ण स्थिति देख कर मैं समझ गई अब यहां और रुकना ठीक नहीं है। माहौल बिगड़ सकता है। सो अन्नू से कहा कि, अब चला जाए।अन्नू ने भी कहा, हां, उठिए।कह कर वह उठ खड़ा हुआ। उठते-उठते मुझे रुलाई फूट पड़ी। उठ कर चलने लगी तो सोचा कि बड़की दी जरा रुकने को कहेगी। पर उस ने नहीं कहा। मैं ने चलते-चलते बड़की दी को भर अकवार भेंटा। वह भी फफक कर रोने लगी। मैं तो रो ही रही थी। अन्नू भी रोने लगा। बोला, बड़की बुआ हम आप को कभी नहीं भूलेंगे। और हमारे लायक आप जब भी जो भी समझिएगा, कहिएगा, जरूर करूंगा।इस बीच अन्नू की बहू भाग कर बस में गई। और अपने ब्रीफकेस से एक नई साड़ी निकाल कर ले आई। कुछ पैसे और साड़ी बड़की दी को देने लगी। उस ने ले लिया। हम सब के सब रोते हुए घर से बाहर आ गए। बस में आ कर बैठे। पलट कर देखा तो बड़की दी के घर का दरवाजा बंद हो गया था। बड़की दी के नाती, नतिनी जो घर में लड़ने पर आमादा थे, औपचारिकतावश भी बस तक या घर के बाहर तक छोड़ने नहीं आए थे। न ही बड़की दी।

बस स्टार्ट हो गई थी। सांझ घिरते-घिरते जैसे दोहरी हो रही थी। बस फर्राटे से चली जा रही थी कि तभी अन्नू ने मुझे फिर अपनी सीट पर बुलाया। उस की आंखें नम देख कर मैं भी सिसकने लगी। बोली, जाने, बड़की दी के भाग्य में क्या बदा है। पता नहीं भगवान उसे कैसी मौत देंगे।

मैं तो सोच रहा था कि अब तक जो हुआ सो हुआ। अब से बड़की बुआ को अपने पास लेते चलूं।अन्नू कहने लगा, मैं तो कहने भी जा रहा था कि बड़की बुआ चलिए। पर कहूं-कहूं कि तभी चुन्नू ने बताया कि बुआ की फोटो नहीं खींचने दे रहे हैं। तो मैं चुप रह गया। यह सोच कर कि जब यह लोग फोटो नहीं खींचने दे रहे हैं तो ले कैसे जाने देंगे ?

ठीक ही किया, जो नहीं कहा।मैं बोली, बड़की दी आती भी नहीं। और तुम्हारी बात ख़ाली जाती।

पर अब होगा क्या बड़की बुआ का ?अन्नू ने पूछा।

भगवान जाने क्या लिखा है।मैं बोली, अभी तक तो बेटी के नाम जायदाद लिख कर, बेटी ही के घर रहने वाले मैं ने जितने भी देखे हैं, सब की दुर्दशा ही हुई है। जमीन-जायदाद लिखने के साल दो साल तक अगले की पूछ रहती है फिर लोग उसे दुत्कार देते हैं कुत्ते की मौत मरने के लिए। अपने घर के पिछवाड़े हरिमोहन बाबा को ही देखो। उन का क्या हाल हुआ। बेटी के यहां मरे। देह में कीड़े पड़-पड़ गए थे। न उन्हें जीते जी कोई छूने वाला था, न मरने ही के बाद। भरी बरसात में वह मरे थे। कोई उन की लाश फूंकने वाला भी नहीं था वहां। अंततः गांव के लोग गए। और फिर उन के भतीजे ने ही उन्हें आख़िरकार आग लगाई। यही हाल हमारे गांव की सुभावती का हुआ। भीख मांग कर मरी बेचारी। ओफ्फ ! और बड़की दी यह सब किस्से जानती थी, फिर भी यह कर बैठी। और फिर इस के यहां तो और मुश्किल है। बिट्टी को वह कैंसर बता ही रही थी। कहीं वह मर-मरा गई तो क्या होगा ? दामाद पहले ही से जुआरी और शराबी है। हे राम क्या होगा बड़की दी का!

घबराइए नहीं। हम लोग हैं न। बड़की बुआ की ऐसी स्थिति नहीं होने देंगे।अन्नू बोला।

हां, ध्यान रखना अन्नू।

एक बात है छोटकी बुआ।अन्नू बोला, बड़की बुआ के इस फैसले में सिर्फ उन का ही दोष नहीं हैं उन के देवर भी सब दुष्ट हैं। वह सब बड़की बुआ की देखभाल तो करते थे पर ऊपरी तौर पर, और दिखावटी। उन सब की नजर भी बड़की बुआ की जमीन पर ही थी।

यह तुम कैसे कह सकते हो ?

शुरू-शुरू में बड़की बुआ जब मेरे पास रहने आई थीं तो एक बार इन का एक देवर आया। जो पुलिस में है। सुबह-सुबह आया और कहने लगा भौजी आप तुरंत चलिए, छोटकी भौजी बीमार हैं। बचेंगी नहीं। आप को तुरंत बुलाया है। पर बड़की बुआ उस का झूठ ताड़ गईं। हम से कहने लगीं कि अगर देवरानी मरती होती तो यह वहां उस की दवा-दारू में लगता, हम को बुलाने थोड़े ही आता। पर वह बड़की बुआ की कमजोर नस भी जानता था। और उस ने तुरंत एक दूसरा दांव भी फेंका। कहा कि रास्ते में बिट्टी का घर पड़ेगा, उस से भी भेंट करवा दूंगा। बड़की बुआ आनन-फानन तैयार हो गईं। और वह आने के एक घंटे के भीतर ही बुआ को लिवा ले गया। बड़की बुआ को बिट्टी के इस घर पर पहली बार वही ले कर आया था। तो रास्ता तो उसी ने खोला।

पर वह आनन-फानन बड़की दी को तुम्हारे यहां से ले क्यों गया ?

उसे अंदेशा था कि कहीं बड़की बुआ की जमीन मैं अपने नाम न लिखवा लूं।अन्नू बोला, जब कि ऐसा पाप मैं ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था। फिर जब बड़की बुआ को यह बात पता चली तो उन्हों ने अपने देवर को इस बात के लिए बड़ी लताड़ लगाई।

पर यह बात तुम्हें किसने बताई ?

बड़की बुआ ने ही।अन्नू बोला, बड़की बुआ कहने लगीं, पाप उस के मन में ख़ुद था, पर लांछन तुम पर लगा रहा था।अन्नू बोला, यह जमीन-जायदाद भी बड़ी अजीब चीज है। क्या-क्या न करवा दे।

हमको तो पता चला है कि बड़की बुआ के देवर भी अब आपस में उन की जमीन के लिए लड़ने लगे थे।मुन्नू बताने लगा, हर कोई चाहता था कि अकेले उसी के नाम बड़की बुआ अपनी सारी जमीन लिख दें। सब के सब उन्हें फुसलाने से ले कर धमकाने तक में लगे थे, तभी तो बड़की बुआ घर छोड़ कर बिट्टी के घर चली गईं।

हमने तो सुना है बड़की बुआ ने जो जमीन-जायदाद बिट्टी के नाम लिखा है, उस के ख़िलाफ उन के देवरों ने मुकदमा भी कर दिया है।चुन्नू ने कहा।

हो सकता है कर दिया हो।मैं बोली, देवर भी सब दुष्ट हैं ही। सब दुष्ट न होते तो बड़की दी भला ऐसा क्यों करती ? बेटी के घर जा कर भला क्यों अपना अगला जनम भी बिगाड़ती। यह जनम तो उस का बिगड़ा ही था जो जवानी आने से पहले ही विधवा हो गई। और अब अंत समय में बेटी का अन्न-जल लेने उस के घर पहुंच गई, अगला जनम भी बिगाड़ने।

आप लोग क्या तभी से वितंडा खड़ा किए हुए हैं ?पीछे की सीट पर बैठी अन्नू की बहू बुदबुदाई, आख़िर वह अपनी बेटी ही के पास तो गई हैं। बेटी के पास न जाएं तो किस के पास जाएं ? रही बात जमीन-जायदाद की तो वह भी अगर बेटी को लिख दिया तो क्या बुरा कर दिया ? कौन सा आसमान फट पड़ा। किस को अपने बच्चों से मोह नहीं होता।

हां, यह बात भी ठीक है।अन्नू बीवी की हां में हां मिलाते हुए बोला।

दुनिया कहां से कहां पहुंच गई। रीति-रिवाज, परंपराएं और मान्यताएं बदल गईं। यहां तक कि बड़की बुआ बदल गईं।अन्नू की बहू बोली, पर आप लोग अभी भी नहीं बदले। तभी से बेटी का घर, बेटी का घर आप लोगों ने लगा रखा है। अरे, एक मां अगर अपनी बेटी और उस के बच्चों के बीच अपनी पहचान ढूंढना चाहती है, उन के साथ अपनी जिंदगी के अंतिम दिन बिताना चाहती है, अपनों में खो जाना चाहती है और इस के लिए जो अपना सर्वस्व गंवा भी देती है तो बुरा क्या है ?

इस में बहुत बुरा नहीं है बहू।मैं बोली, पर यहां बात दूसरी है। बड़की दी तो बेटी के मोह माया में फंस गई है। वह तो वहां अपनत्व ढूंढने गई है पर बिट्टी और दामाद तो उसे कामधेनु माने बैठे हैं। बिट्टी को कैंसर हो गया है। पता नहीं वह जिएगी कि मरेगी। और दामाद ठहरा जुआरी, शराबी। ऐसे में बड़की दी का क्या होगा ? मैं तो साफ देख रही हूं कि बड़की दी फंस गई है। वह सब उसे अपने यहां सेवा करने के लिए नहीं ले गए हैं। उन की नजर तो उस की जमीन-जायदाद पर है। देखा नहीं कि अभी चार महीने भी उसे नहीं हुए यहां आए। और सब कुछ लिखवा लिया। जाहिर है कि नीयत साफ नहीं है। नीयत साफ  होती तो वह चार दिन का लड़का फोटो खींचने से भला क्यों रोकता ? और वह लड़की बेबात हम से क्यों झगड़ने लगती भला ?

यही बात गड़बड़ लगी मुझे भी।अन्नू की बहू बोली, पर बुआ जी को जो अच्छा लगे वही करने दीजिए।

हां, अब तो यही हो सकता है।

मैं ने देखा मेरी और बहू की बात चीत के बीच अन्नू सोने लगा था। जाने सो रहा था कि सोने का अभिनय कर रहा था। फिर भी मैं थोड़ी देर तक उस के साथ उस की सीट पर ही बैठी रही। बैठी रही और सोचती रही कि क्या बड़की दी ने बिट्टी के मोह में यह सब किया ? क्या बच्चों का मोह मां को ऐसे ही बांध लेता है ? कि गलत सही का खांचा आदमी भूल जाता है। जैसे कि द्वापर युग में धृतराष्ट्र भूल गया था दुर्योधन के अंध मोह में ? और इस कलयुग में गलत सही का खांचा भूल गई है बड़की दी बिट्टी के अंध मोह में ?

क्या पता ?

मेरे तो बच्चे ही नहीं हैं। मेरे भी बच्चे होते तो शायद यह बात ठीक से समझती। निःसंतान मैं क्या जानूं यह सब ? यह सोच कर ही रोने लगती हूं। रोती सिसकती अपनी सीट पर आ बैठती हूं। शायद बड़की दी के काट से बड़ा है मेरा काट। मैं सोचती हूं कि बड़की दी की जगह अगर मैं होती तो क्या मैं भी बिट्टी के लिए वही सब करती, जो बड़की दी कर गई है, परंपरा और संस्कार सब को दरकिनार करती हुई !

क्या पता !

और फिर जब मैं भी बड़की दी जितनी बूढ़ी हो जाऊंगी तो हमें कौन देखेगा? बड़की दी का यह यक्ष प्रश्न क्या मेरा भी यक्ष प्रश्न नहीं बन जाएगा ? तो मैं कहां जाऊंगी। फिर यह सोच कर संतोष मिलता है कि निःसंतान ही सही बड़की दी की तरह मैं बेवा तो नहीं हूं। हमारा पति तो है। हम दोनों जन एक साथ रह लेंगे। दोनों एक दूसरे की सेवा करते हुए।

हमारी बस को एक ट्रक बड़ी तेजी से ओवरटेक करता हुआ, तेज-तेज हार्न बजाता हुआ गुजर रहा है। और बाहर, अंधेरा गहराता ही जा रहा है। और यह घुप अंधेरा जैसे मेरे मन के भीतर कहीं बहुत गहरे धीरे-धीरे उतरने लगा है।

मैं फिर से रोने लगी हूं। और बस चलती जा रही है भड़भड़ करती हुई। शायद फिर कोई स्पीड ब्रेकर है !


इस कहानी का मराठी अनुवाद 


मराठी अनुवाद : प्रिया जलतारे


बसला हादरे बसत होते ,अन्नू ने मला त्याच्या सीटवर बोलावले. मी उठताना बस एका स्पीड ब्रेकर वरुन खडखडाट करत जात राहिली .मी तर अगदी पडता पडता वाचले.अन्नूच्या बाजुला जाऊन बसले तर तो म्हणाला,’ हियरिंग एड लाव.’ मी संगितले ,’मी लावले आहे.’ तो म्हणाला ‘थोरल्या आत्या ला भेटशील?’ हया दरम्यान बस बाजूच्या ट्रकला ओव्हरटेक करत होती.ओव्हरटेक आणि कर्कश हॉर्न ह्यात अन्नूचा आवाज विरून गेला. त्याने पुन्हा विचारले,’ थोरल्या आत्याला भेटशील?’ त्याने त्याचे तोंड माझ्या कानाशी आणले आणि मोठयाने म्हणाला,’तिचे गाव येईल आता.’
मी होकारार्थी मान हालवली.
थोरली ताई आम्हा दहा बहिण भावात दूसरी आणि सात बहिणीमधे सर्वात थोरली.सर्व भावन्डात मी छोटीआहे .मी पन्नासची झाले. थोरली ताई आता पंचाहत्तरची झाली.घरात ती थोरली आणि मी छोटी होते.आमच्या वयात पंचवीस वर्षाचे अंतर होते.माझ्या जन्मापूर्वीच ती बाल विधवा झाली. तो शाप ती भोगत होती.तिचे वैवाहिक आयुष्य तर उणे पुरे दोन वर्षाचे.पोटात वाढणारा जीव सोडून जिजाजी पटकीने गेले. थोरलीचे आयुष्य उजाड झाले.तेव्हा ती सतरा वर्षाची होती. तिला एक मुलगी झाली.ती मुलगीच तिच्या जगण्याचा आधार झाली.
थोरली सोबत देवाने जरी अन्याय केला तरी माहेर आणि सासर मात्र खूप चांगले होते.तिला पतीची कमी सोडल्यास बाकी कश्याची कमी नव्हती. तरुणपणाची सुरुवातच केशवपनाने झाली. सोबतच विधवापणाचे नियम तिनेच आवडीने स्विकारले.घरातून बाहेर पडली तेव्हा ती प्रौढ झाली होती.केस ही पिकले आणि देहावर प्रौढत्वाच्या खुणा साद देत होत्या. वर्षानूवर्ष लोकांनी तिचा आवाजच काय तिची चाहुल सुद्धा ऐकली नव्हती.पण आता जेव्हा ती बाहेर पडली तेव्हा दूसरीच कोणी व्यक्ति होती.तिचा आवाज कर्कश होत चालला होता आणि पायात जणु काही तुफान.मान्य होते की हे तिच्या विधवा जीवनाच्या फ़्रस्ट्रेशनचा परिणाम होता. एकदा मोठया दादाकडे एका माणसाने थोरलीची तक्रार केली
‘तुमची बहीण नेहमी तिरकस बोलते?’त्यावर मोठया दादाने पलटून उत्तर दिले,’बोलते तिरकस पण आमची मिशी नाही वाकडी केली.’
आणि खरेच तारुण्य येतानाच विधवा झालेली थोरलीच्या बाबत कोणी काही कुजबुज केली नाही,ना कोणी काही ऐकली ,न थोरलीच्या नजरेत कोणी राहिले ना कोणाची नजर तिच्यावर पडली.पण वयाचे
पंचाहत्तर वर्ष बिना डागाच्या थोरलीच्या आयुष्यावर आता मात्र डाग लागला.लोकांच्या नजरा अनायास तिच्या वर रोखल्या होत्या.माहेर आणि सासर दोन्हीकडे आता तिचे संबंध संपुष्टात आले होते. छोटे भाऊ तर म्हणायचे ,’आमच्यासाठी तर थोरली मेली.’
हे तेच छोटे भाऊ होते जे आता पर्यन्त हे म्हणताना थकत नव्हते की थोरली ने आमच्या तीन पिढ्या मांडीवर खेळवल्या.आम्ही,आमचे मुलं,आता आमची नातवंडही थोरलीने खेळवले.उत्तरादाखल थोरली
गर्वाने बोलायची,’हो,नाही तर काय!’ असे म्हणत ती छोट्या भावाच्या नातवाला तेल मालिश करायची.
मग स्वत: शी बोलायची, ‘आता हा माझ्या लायक राहिला नाही, खूप उसळतो.आता माझ्यात ताकद नाही.म्हातारी झाले.’ बोलता बोलता छोट्या भावाच्या नातवाला वर फेकून विचारायची,’आहे ना मी आता बूढी?’ झेलून परत म्हणायची,’न तुला दात न मला दात.’ असे म्हणत त्याच्या पायापासून खांदयापर्यन्त मालिश करुन द्यायची, तो पठ्ठया खदखद हसायचा.छोट्या भाऊचा नातू ,अन्नुचा मुलगा हयाच्या वर थोरलीचा खूप जीव होता.अन्नुवर ही तिचे खुप प्रेम होते. अन्नु लहानपणी थोरलीला खूप घाबरायचा.
तिचा कर्कश आवाज आणि जोरदार बसणारी थप्पड भल्या भल्यांना भीति वाटायची.अन्नु तेव्हा टीन एजर होता. गावात कोणाची वरात जात होती.नवरदेव जात होता.अन्नु मित्रांसोबत टेम्पोला लटकून येत होता.दूरुनच त्याने थोरलीला पाहीले.मग काय घाबरून जाऊन चालत्या टेम्पोतून उडी मारली.जीव तर वाचला पण डोके फुटले .ही घटना आठवली तरी अन्नुच्या अंगावर काटा येतो.अन्नु थोरली ला खूप घाबरायचा पण त्याला तिच्या बाबत आदर खूप होता. कसे काय कोण जाणे अन्नु लहानपणी कुठेही ,कधी आजारी पडला तर थोरली कुठे ही असली तरी अन्नुकडे पोहोचायची.अन्नुच्या सेवेत स्वतः ला वाहून द्यायची.कमीत कमी तीनदा तरी तिने अन्नुला मरणाच्या दारातून ओढून आणले .थोरली काही डॉक्टर नव्हती, खरे तर काहीच शिकली नव्हती.पण कोणत्या आजारात काय खाऊ घालायचे ,कसे राहायचे, काय द्यायचे इत्यादी तिला सारे काही माहीती होते.आणि अन्नुच काय कोणी पण आजारी पडले तर ती त्याची सेवा करायची. ना ती रुग्णाचा तिरस्कार करायची ना रोगाची घृणा. ती जसे सर्व काही आत्मसात करायची. भुतासारखी रोगाच्या मागेच लागायची,आणि रोगाला घालवूनच दम घ्यायची.
थोरली जिथे राहायची,माहेर असो की सासर,तिचा दबदबा असायचा.कोणाची मजाल होती की तिचे बोलणे कोणी खोडेल? तिच्या पुढे लहान काय,मोठे काय सारेच दबकून असायचे.ती पुढे होऊन सारे काही काम करत राहायची.जीव तोडून कष्ट करायची. कोणी म्हणाले,’नको करू आता काबाडकष्ट’ तर म्हणायची,’काम नाही केले तर आजारी पडेल.’मग लोक ही तिचाच आधार घ्यायचे.सासरीआणि माहेरी दोन्ही कडे तिला ठेऊन घ्यायला स्पर्धा चालायची.पण कुठे रहायचे, हे तिचे तीच ठरवायची.जिथे तिची जास्त गरज असेल तिथे राहायची. स्वतः सर्वांचा आधार होणारी थोरली आता आयुष्याच्या ह्या टप्प्यावर स्वतः आधार शोधत होती.वय जसे जसे वाढत गेले तसे तसे ती अवसाद आणि निराशेच्या गर्तेत आशेचा एक किरण शोधत तळमळत होती .घळ घळ रडायची. रडत रडत म्हणायची,’आता तर मी कष्ट करते,तर ठीक आहे.पण जेव्हा मी थकेल तेव्हा माझे काय होईल?तेव्हा मला कोण विचारेल?’
प्रत्येकाला ती हेच विचारायची.आमच्या सारखे तिला दिलासा देत,’ सगळे विचारतील.’आणि अन्नु तिला चुप करत सांगायचा,’ मी विचारेल. जो पर्यन्त मी जीवंत आहे, थोरली आत्या मी सांभाळेन, तुझी सेवा सुश्रुषा करेल.’छोटे भाऊ,वहिनी पण थोरलीला हेच सांगायचे. तिच्या सासरचे,दिर ही तिला दिलासा द्यायचे. पण थोरलीचा कोणाच्या ही शब्दावर विश्वास नव्हता. ती रडत रडत बोलायची,’जेव्हा मी अंथरुण पकडेल ,तेव्हा कोण विचारेल?’ ती रडत बसायची आणि विचारायची,’मला कोण पाहील?’रात्री अचानक झोपेतून उठून रडायची. कोणी विचारले तर हाच प्रश्न परत विचारायची.
मग ती मनातल्या मनात तिच्या मुलीची आठवण काढायची. आपल्या यक्ष प्रश्नाचे उत्तर आपल्या मुलीत शोधायची.तिची मुलगी आता नातवंडाची आजी होती.पण थोरली साठी ती अजून दूध पिती बेबीच होती. तिला तिची मुलगी नेहमी असुरक्षित भासायची.आपले सारे काही ती मुलीला अगदी लुटुन द्यायची. रुपयाअडका, कपडालत्ता ,दागदागिने जे तिच्या कडे होते, ते चटकन मुलीला द्यायची. आणि मुलगी सुद्धा 
कामधेनु सारखे अगदी दोहून घ्यायची. आम्ही सर्व जण आता जाणत होतो की थोरली चे प्राण तिच्या मुलीत आहे.पण समजतच नव्हते की थोरली तिच्या यक्ष प्रश्न,‘ मला कोण विचारेल?’ हया प्रश्नाचे उत्तर आपल्या मुलीकडे शोधते आहे.शोधते आहे आणि विचारत आहे. ते कदाचित ह्या करताह्या पुरुष प्रधान समाजात आपण कधी हा विचार करू शकत नाही, अथवा मान्य करू शकत नाही की आई मुलीच्या घरी सुद्धा राहू शकते. विशेषत: अश्या समाजात जिथे आई- वडील मुलीच्या घरी पाणी सुद्धा पित नाही.
असो,थोरली सुरूवाती पासूनच एक एक करत आपले सारे दाग दागिने,चांदीचे नाणे आणि बाकी किमती ऐवज मुलीच्या स्वाधीन करत राहिली.आणि जावई दारू आणि जुगारात उडवत राहिला. हळू हळू
जावयाचे व्यसन वाढत गेले आणि मुलीच्या मागण्या. पण थोरलीने कधी हूं का चूं नाही केले.मोठया कष्टाने जमवलेले पैसे ती मुलीला देत राहिली.मुलीने सुद्धा हा विचार नाही केला की लाचार आईला सुद्धा कधी तरी पैशाचे काम पडू शकते.ती यायची नाही तर पतीला पाठवून द्यायची,आपल्या अडचणी सांगायची.आणि थोरली इकडून तिकडून जोड करुन पैसे पाठवायची.पण गोष्टी आटोक्याबाहेर गेल्या तेव्हा थोरलीने हात आकडता घेतला.तिने एक दोनदा जावयाला लगाम लावायचा प्रयत्न केला. दारू आणि जुगाराबाबत बंधन घालायचे प्रयत्न केले .त्याने जाऊन थोरलीच्या मुलीला मारझोड केली. वरुन तिला सांगितले की आईला सांग,मधे पडशील तर मी फाशी लावून घेईल. मग काय मुलीने आईला मनाई केली,मधे पडायचे नाही,त्याला काही बोलायचे नाही.थोरलीने ते मान्य केले .
ही गोष्ट तेव्हाची आहे जेव्हा थोरलीचा दबदबा होता आणि तिच्याकडे कोणता ही यक्ष प्रश्न नव्हता.
पण मग थोरलीचे जमा होते ते पैसे, दागिने कमी होत गेले.आणि जावयाची आवक ही कमीत कमी झाली.पण थोरलीचे प्राण तर मुलीत होते.तिला कुठे लग्नात काही आहेर,साडी,कपडे,पैसे काही आले तर लगेच मुलीला पाठवून द्यायची.काही ही विचार न करता की ह्याची तिला पण गरज आहे.पहीले तर लेक आणि जावयाचे तिच्या सासरी आणि माहेरी दोन्ही कडे स्वागत व्हायचे.काही दिवस लेक जावई समजून आदरातिथ्य झाले.नंतरच्या दिवसात थोरलीला घाबरून करावे लागायचे,तिला वाईट वाटू नये फक्त एवढ्या साठीच,पण जावयाचे चैन,विलास खूपच वाढले.त्याची नजर घरातल्या मुलींवर, बायकांवर फिरायला लागली,त्याचे येणे जाणे तर बंद नाही झाले पण स्वागत,आतिथ्य राहिले नाही.पुढे जावयाने येणे बंद केले. आता थोरली कडे ही त्याला देण्यासारखे काही नव्हते. थोरलीने पैसे देणे बंद केले तसे त्याची दारू आणि जुगार कमी झाले.थोरली पण आता प्रौढ नव्हे म्हातारी होत चालली.तिच्या देहावर म्हातारपणाच्या खुणा दिसत होत्या.आणि तोंडात सतत हाच यक्ष प्रश्न होता,‘तेव्हा मला कोण विचारेल?’
आणि योगायोग असा की हया प्रश्नाचा कस लागला. तेव्हा ती सासरी होती.रात्री अचानक तिचे पोट फुगले.तेव्हा थोरलीला सुद्धा वाटले की आता ती वाचत नाही.पण ती वाचली.तिच्या यक्ष प्रश्नाचे उत्तर ही आले .माहेर,सासर सारेच तिच्या सोबत होते.तिच्या दिराने इलाज केला. पैसे कमी पडले तर कर्ज घेतले.शेवटी ऑपरेशन झाले.
छोटे भाऊ पण तयारीत होते.पण थोरलीच्या दिराने सांगितले,’ हे आमचे कर्तव्य आहे,आम्हाला लाजवू नका,आम्ही तिच्या मांडीवर वाढलो.’हया आजारपणात,थोरलीचे लेक जावई पण आले.पण हया मृत्युच्या क्षणी सुद्धा त्यांची नजर तिच्या जामिनीवर होती.थोरलीला शहराच्या दवाखान्यातून आपल्या गावाकडच्या दवाखान्यात न्यायची त्यांची खूपच इच्छा होती जावई थोरलीच्या दिराला खूप रागवत होता.म्हणाला,’तुम्ही त्यांना इकडे मारून टाकाल,आम्हाला त्यांना नेऊ द्या.’ मुलगी पण हेच म्हणत होती.खरे तर जावयाला असे वाटत होते की थोरली आता वाचणार नाही.मग तिला घरी नेवून तिची जमीन हडप करायची.त्याची नजर फक्त तिच्या जमिनीवर होती. थोरली शुद्धीवर नव्हती,पण असती तर तिने नक्कीच जावयाचे ऐकले असते.ती त्याच्या सोबत त्याच्या घरी गेली असती.तिचा दीर जावयाची इच्छा समजून होता.मग छोट्या भाऊला समोर केले. त्यानी थोरलीला दवाखान्यातून जावयाकडे जाऊ दिले नाही.
ऑपरेशन नंतर थोरली वाचली खरी पण शरीराने आता थकली,नेत्रज्योति मध्यम आणि गात्र थकली. स्फूर्ति संपली, अशक्त झाली.चार पाऊले चालून थकत होती.जमीन थोडीही ऊंच सखल झाली की ती पडत होती.
थोरलीचा यक्ष प्रश्न आता सघनतेने तिच्या समोर उभा होता,तिच्या नजरेत अश्रु. अन्नुने शब्द दिला होता त्यानुसार तो तिला त्याच्या घरी घेऊन गेला.पण शहरात तिचे मन लागले नाही. ती म्हणत होती, ‘शहरात कोणी बोलायला नाही.’ वर्षभरात ती गावी परत आली.पुन्हा गेली,पुन्हा आली. अशीच ती जात येत राहिली.नंतर अन्नुने तिचे मोतीबिंदुचे ऑपरेशन केले.हया दरम्यान तिचा नातू, मुलगी हयांचे येणे जाणे वाढले.गूपचुप असे ठरले की थोरली आता तिचे शेत,तिची जमीन मुलीच्या नावे करणार.एकदा तिने अन्नुशी पण सल्ला मसलत केली.अन्नुने तिला साफ़ सांगितले की कायदयानुसार तर हे ठीक आहे पण सामाजिक आणि पारिवारिक दृष्टीने हे अगदी चूक आहे.अन्नुने हे पण सांगितले की ,‘ज्या सासरी तुला एव्हढा मान आहे तो तू का धुळीत मिळवते?’आणि ताकीद दिली,जीवात जीव असे तोवर हे करू नकोस.आणि कायदयानुसार तुझ्या मृत्युनंतर मुलीचेच आहे.जास्तीत जास्त गुपचुप मृत्यपत्र लिहून ठेव.थोरलीने अन्नुचे मत मला सांगितले.आणि माझे मत विचारले. मी पण अन्नुचेच मत कसे योग्य आहे तेच पटवले.
थोरलीने ते मान्य केले.
मोतीबिंदु ऑपरेशन नंतर अन्नुने तिला गावी आणले. त्यानंतर काही दिवस ती सासरी होती.तिला भेटायला तिचा नातू आला. तो आला तेव्हा थोरली चांगली होती.पण तो निघाला तेव्हा अचानक तिची तब्येत बिघडली. नातू म्हणाला, ‘चल आजी डॉक्टर कडे जाऊ.’थोरलीचा दिर सुद्धा म्हणाला, डॉक्टर कडे जाऊन या.नातू जो थोरलीला घेऊन डॉक्टर कडे गेला तो परत आलाच नाही.थोरली सुद्धा आली नाही.सकाळची संध्याकाळझाली.थोरली आली नाही तर दिराला वाटले की शहरात थांबले असतील.पण जेव्हा दोन चार दिवस गेले,आठवडा नाहीतर दहा बारा दिवस लोटले.त्याचे माथे ठणकले मग तो छोट्या भाऊ कडे धावत आला. पण थोरली तिथे होतीच कुठे!थोरली सापडली ती तिच्या मुलीकडे. परत यायला तयार नव्हती.तो दिर जाऊन परत आला. आता दूसरा गेला .जावई त्याच्याशी खूप भांडला. थोरली आलीच नाही. दिर म्हणाला, ‘मुलीच्या घरचे अन्नपाणी घेऊन आमच्या तोंडाला काळे का फासता, वहिनी,चला घरी आपल्या.’पण थोरलीने ऐकले नाही.
दिर घरी येवुन छोट्या भाऊला म्हणाला,तुम्हीच जाऊन घेवुन या आता वहिनीला.समाजात आम्ही कसे तोंड दाखवणार?आता लोक असे बोलतील की वहिनी आता काम करू शकत नाही तर आम्ही तिला हाकलले. आधीच देवाने त्यांचे जीवन दु:खद आहे.आणि आता मुलीच्या घरी खाऊन पुढचा जन्म पण वाईट करणार.हया पापाचे आम्ही वाटेकरी आहोत.पण छोटे भाऊ थोरलीला आणायला गेले नाही. छोटे म्हणाले, ‘थोरली मेली आता आमच्या साठी.’
मग एक दिवस थोरलीने सारे काही शेत,जमीन मुलीच्या नावाने करुन दिले.एक दिवस तिचा नातू , मुलीचा मुलगा छोट्या भाऊ कडे आला आणि त्याने सांगितले ,आजीला बोलवून घ्या,पण तिला सासरी पाठऊ नका. तिला जहर देतील मारून टाकतील तिला. पण छोट्या भाऊचे उत्तर तेच होते,’ थोरली मेली आमच्या साठी.’ आणि आता त्याच छोट्या भाऊचा मुलगा अन्नु मला चालत्या गाडीत विचारत होता, ‘थोरल्या आत्याला भेटशील का?’ मी सहमती दर्शवत मान हलवली आणि विचारले,’पत्ता माहीती आहे?’
‘माहित तर नाही पण माहिती करून घेऊ. छोटे गाव आहे.काही कठीण नाही.’ अन्नु म्हणाला.
‘हो, मिल एरिया आहे,सापडेल घर.’ मी म्हणाले.
‘ बाबा नाराज झाले तर?’अन्नु ने विचारले.
‘पाहू नंतर,पण आता तर थोरलीला भेटू.’ मी खूप भावूक झाले होते.
शोधत शोधत सापडले घर. घरात पहिले अन्नु, मग मी, अन्नु ची बायको, त्याचे मुलं,चून्नू, मून्नू प्रवेशलो. थोरली बिछान्यात पहुडली होती ,आकाशाकडे पाहात होती. अन्नुने तिला नमस्कार केला.अचानक आम्ही गेल्याने तिला काही समजले नाही.मग अन्नु पाया पडला. ती उठून बसली. मला पाहून ती खूप भावूक झाली. म्हणाली,’ छोटी तू.’ मला मीठीत घेतले. अन्नुच्या बायकोने थोरलीचे पाय धरून नमस्कार केला आणि छोट्या मुलाला तिने थोरलीच्या मांडीवर बसवले.थोरली ,’बाबू ,बाबू’ करत त्याचा लाड करु लागली.त्याचे मुके घेत राहिली.आणि अचानक रडायला लागली.अन्नुचा मुलगा तिच्याकडे थांबला नाही, रडत रडत तिच्या मांडीवरुन उतरला.तो उतरला तसे थोरलीचे भाव बदलले.तिचा भावूक चेहरा एकदम कठोर झाला.ती तोंडावर एक लोखंडी फाटक लावून बसली.ती समजली की मी आता अप्रिय प्रश्नांची सरबत्ती करणार तिच्यावर.पण तिच्या अपेक्षेच्या विरुद्ध मी चूप बसले.
बिलकुल चूप.
थोरलीने अचानक तिचे लोखंडी फाटक खोलले.डोक्यावरचा पदर नीट केला.परत भावूक होऊन म्हणाली,’अन्नुचे तर नाही सांगता येत पण तुझे वाटत होते, तू मला भेटायला येशीलच.’
‘पण तू इथे का आली?’ मला ही खूप रडायला आले.
‘आता, मला सहन होत नाही.’थोरली म्हणाली, ‘आता मी या वयात सेवा करू शकत नाही.आणि माझ्या सेवेचे कोणाला मोल नव्हते, ना माहेरी, ना सासरी.बोलता बोलता ती रडत होती.’आता मला सहारा हवा होता.मला वाटत होते,कोणी मला पकडून उठवेल,बसवेल, माझी सेवा करेल,करणे तर दूर कोणी माझ्याकडे लक्ष्य ही देत नव्हते.थोरली पदर धरुन रडत होती,चालतांना मी पडले तर उचलायचे,नाही तर मी स्वत:च उठायची. पण सतत असे कोणी सोबत रहायचे नाही.’ ती म्हणाली,’ माहेर असो की सासर,सर्वांना वाटायचे,थोरलीला जेवण आणि कपडा दिला की झाले.’ ती मुसमुसत होती.
‘तरुणपणी जेवण ,कपडयावर निभावले. पण म्हातारपण नाही कटत.’थोरली सांगत होती,’मी थकले ,ऊबून गेले जगण्याला.’
‘मग तू छोट्या भाऊ कडे यायचे होते.’
‘तो आला कुठे, त्याने मला बोलवले तरी का?’ती बोलली,’आणि तो निवृत्त झाला तसा मला खिजवतो. सर्वांनाच दु:खी करतो.मला ही नेहेमी खिजवायचा.एकदा बोलता बोलता माझ्यावर पैसा ख़र्च करायला मनाई करायला लागला. म्हणत होता ,माझा खर्च जास्त आहे,पेन्शन मधे आमचे भागत नाही.’
‘मग तू अन्नु कडे जायचे.’ मी म्हणाली, तसा अन्नु म्हणाला,’हो, मी कधी जबाबदारी नाकारली नाही ना.’
‘हो, अन्नुने कधी नकार नाही दिला’ थोरली सांगत होती ,’ अन्नुकडे अजून मुश्किल ग . अन्नु आणि सुनबाई दिवसभर कामावर जातात,मुलं ही शाळेत.मग बाबू आणि मीच.मी स्वत:ला पहाणार की बाबू ला?हे ही समजत नव्हते अन्नु माझी देखभाल करायला घेवून आला की त्याच्या मुलाची देखभाल करायला मला घेऊन आला. दर रोज मला हेच वाटायचे की त्याच्या मुलाच्या सोईसाठीच त्याने मला बोलवले.’थोरली बोलत होती, ‘ तसे बाबूला पाहणे काही वाईट नव्हते, पण मी खूप एकटी पडले.कोणी बोलायला नव्हते.एकदा फाटक बंद झाले की रात्रीच खुलायचे. मग आले की मुलं, सुन,अन्नु टीवी पाहायचे, जेवायचे , झोपायचे.माझ्याशी कोण बोलेल?तर मग मी काय करणार अन्नुकडे ही जाऊन?
तिथे ही माझी देखभाल कोण करणार होते? उठवून कोण बसवणार होते?’
‘मग इथे कोण आहे उठबस करायला?’मी डाफरले.
‘आहे न,’ थोरली सहज होत म्हणाली, ‘चार चार जण आहेत उठ बस करायला,नातू, नात,पणतू सारे जण माझ्या सेवेत आहेत.उठते,बसते ना तर मला पकडतात.’ सांगताना तिच्या शब्दात दर्प होता.
थोरलीचा दर्पयुक्त समाधानी चेहरा पाहून मला ही आनंद तर वाटत होता.आमचा संवाद चालू असताना थोरलीची नात तिथे आली . तिचे वय सतरा च्या आसपास असेल.’या,आपण समोरच्या मोठया खोलीत बसू.’
‘नाही, इथे ठीक आहोत. आणि आम्ही जाऊच आता.’ अन्नु बोलला.
‘बीट्टी कुठे आहे?’मी विचारले तर थोरली म्हणाली,’ मुंबईला गेली, तिला कैन्सर झाला’ मग म्हणाली की पण घाबरायचे कारण नाही .आता सुरुवात आहे. डॉक्टर म्हणाले ठीक होईल. मुंबईला तिचा इलाज चालू आहे.’
‘अच्छा ,आणि जमिनीचे काय केले?’ मी आता मुद्दा काढला.’कुणाच्या नावावर केली की नाही ?’
‘केली ना.’ दृढतेने ती म्हणत होती, ‘बीट्टीच्या नावावर केली.’
‘पण तू हे योग्य नाही केले,’ मी ही स्पष्टच बोलले,’जे तुझे दिर आयुष्यभर तुझ्यासाठी खंबीरपणे उभे राहिले,त्यांच्याशी हे असे वागणे चूक आहे.’ मीबोलतच राहिले.’बीट्टीला जमीन दिली तर ठीक पण इथे रहायचे नाही.’
‘तर मग मी तिथे काय करणार होते, अशक्त झाले होते, सारखी पडत होते मी,माझा जीव जाऊ द्यायचा का?विधवा तर आहेच, बेसहारा राहुन मेली असती.’ती चिडून बोलली.
‘नाही.हे सर्व जण तुझी सेवा करायला तयार होते,तर हयांना एकानंतर एकाला आपल्या घरी बोलवायचे.
हे तिथे आले असते तुझी सेवा सुश्रुषा करायला.’मी म्हणाले,‘तू काही म्हण,मी तुझे सारे काही मान्य करते, पण हे नाही. तुझ्या मांडीवर मी मोठी झाले. तू खूप मोठी आहेस. पण मुलीच्या घरी येणे काही ठीक नाही केले.’
‘का ठीक नाही केले?’ हे थोरलीने नाही ,तिच्या नातीने विचारले, जी आता आम्हाला समोरच्या मोठया खोलीत बसा म्हणाली.तिने परत दारात उभे राहून,अतिशय संतापून तोच सवाल केला.
‘का ठीक नाही केले?’
‘नाही,जमीन दिली बीट्टी दीदीला ते ठीक आहे,पण इथे रहायचे नाही.’अन्नु म्हणाला.माझ्याकडे रहायचे नाही तर बाबाकडे रहायचे.’
का रहाणार तुमच्या कडे?’बीट्टी च्या मुलीने गर्जत विचारले,’ जर इथे दिले तर तिथे का राहील?’
‘छोटा भाऊ म्हणतो की आमच्या तोंडाला काळे फासले.’मला रडू आले.‘ तो म्हणतो,आता दुनिया 
म्हणेल की काम करत होती,तेव्हा ठेवले.आता म्हातारी आणि लाचार झाली, काम करू शकत तर घरातून हाकलले. हया साठी तर मुलीकडे रहाते!’
‘मुलीकडे राहिली तर काय पाप केले?’ बीट्टी ची मुलगी ओरडत होती,’ आई ,बाप मुलासोबत राहू शकतात तर मुली सोबत का नाही?’
‘ नाही राहू शकत.आपल्याकडे ही परंपरा नाही.दोष मानतात.असे म्हणतात की नरकात जावे लागते.’
‘आणि किडे पडतात.’ बीट्टीच्या मुलगी मधेच बोलली.’तुम्ही तर हिच्या दिराचीच भाषा बोलत आहात.
आजीचे दिर पण हेच म्हणतात,किडे पडतात.’ ती गुरकावत होती.‘पहिले हिचे दिर इथे येत होते, दहा दहा दिवस इथे रहायचे ,खायचे,जाताना,भाड्याचे पैसे सुद्धा न्यायचे. तेव्हा किडे पडत नव्हते का?आणि आता हिच्या साठी किडे पडणार? आणि अजून एक सांगते ,आमचे नाही तर ती तिच्या पैशाचे खाते.राहिली गोष्ट ‘पाणी’तर हे आमचे घर मिलचे क्वॉर्टर आहे, वडिलोपार्जित घर नाही.’तेव्हढयावर नाही थांबली. बोलली,’गोड गोड बोलून तिला झाश्यात घ्यायला आले का?’
‘हे बघ,आता तू गप्प बस.अजून असभ्यपणे वाद विवाद करू नकोस.’ अन्नु म्हणाला.’इतक्या असभ्यपणे
तू जिच्याशी वाद करते आहेस ,ती पण थोरली आत्याची बहिण आहे ,तुझी आजीच आहे.’ तो म्हणाला, ‘आणि आम्ही हिला बहकवायला नाहीतर भेटायला आलो.तिला पहायला आलो.तिच्या जमीनीशी आमचे काही घेणे देणे नाही.’हया नंतर देखिल ती बोलत होती,मग अन्नु कडक आवाजात बोलला,’प्लीज,पूरे आता .गप्प बस!’
पण थोरली,तिला तिच्या वाह्यातपणा वर काही बोलली नाही.अशी बसून राहिली की जसे काही झालेच नाही.कोणी काही बोललेच नाही. हीच ती थोरली होती,जी कोणी मला काही बोलले तर त्याला फाडून खायची.तीच थोरली आज चूप होती ,मी मात्र हमसून हमसून रडत होती.
हया दरम्यान बीट्टीची मुलगी बिस्किट आणि पाणी घेवून आली.पाणी कोणी पिले नाही. बिस्किट कोणी घेतले नाही.वातावरण गंभीर झाले. चून्नु आला,म्हणाला,अन्नुला म्हणाला,’ भैय्या, सर्वांचा फोटो काढू का आत्या सोबत?’
‘हो ,हो’ अन्नु म्हणाला . चून्नु अजून केमेरा लेंस ठीक करत होता. थोरलीचा एक नातू आला आणि फोटो काढायला मनाई करायला लागला.
चून्नु ओरडून म्हणाला ,’ भैय्या,हे फोटो काढायला मना करत आहेत.’
‘मग राहू दे .’ अन्नु ही आता उत्तेजीत झाला.
तणावपूर्ण स्थिति पाहून मी समजले की आता इथे थांबून काही उपयोग नाही.वातावरण खूप खराब झाले होते.अन्नुला म्हणाले,’ आता चल, नीघू.’ अन्नु पण म्हणाला,’हो, चल.’तो उभा राहिला. मी रडत होते.उठून चालायला लागली तर वाटले की थोरली थोडेसे थांब म्हणेल.पण ती काही बोलली नाही.
जाता जाता मी तिला मिठीत घेतले.ती पण रडायला लागली.अन्नु पण रडत होता.म्हणाला,’थोरली आत्या,आम्ही तुला कधी विसरणार नाही.आमच्या लायक काही काम असेल तर सांग,आम्ही करु.अन्नुच्या बायको तिच्या सामानातून एक नवी साडी घेवुन आली.काही पैसे आणि साडी थोरलीला दिली.आम्ही सर्व जण रडत रडत गाडीत येवून बसलो. मागे पाहीले तर घराचे दार बंद झाले होते.थोरली चे नातू ,नात उपचारापूरते फाटकापर्यन्त आले नाही,थोरलीने तरी यायचे पण नाही.बस सुरु झाली .रात्र होत आली. बसने वेग घेतला. अन्नुने मला त्याच्याकडे बोलावले. त्याची पाणीदार नजर पाहून माझे रडणे परत सुरु झाले.मी म्हणाले,’ थोरलीच्या नशिबात काय आहे कोण जाणे, समजत नाही आता हिचा शेवट कसा होईल!’
‘मी तर विचार करत होतो,आता जे झाले ते झाले.आता थोरली आत्याला आता घेवून जावे.मी बोलणार तेव्हा चून्नु म्हणाला की आत्याचा फोटो काढ़ू देत नाही.तर मी चूप झालो. फोटोलाच नाही म्हणतात ,तर ते तिला पाठवतील कसे?’
‘ठीक च केलेस काही बोलला नाहीस.’मी म्हणाले,’थोरली आली नसती. तुझे शब्द फुकट गेले असते.’
‘पण आता काय होईल तिचे?’ अन्नु म्हणाला.
‘देवच जाणो, तिच्या नशिबात काय लिहिले आहे .’ मी म्हणाले, आज वर मुलीच्या नावे स्थावर संपत्ति करणारे, मुलीच्या घरात राहणारे, मी जितके लोक पाहीले,सर्वांची दुर्दशा झाली आहे. जमीन तिच्या नावाने लिहिल्यावर एक, दोन वर्ष विचारतात ,मग तर तिरस्कार करतात, लाथाडतात, सोडून देतात, मरायला.आपल्या मागे राहणारे हरिमोहन बाबाचे बघा, त्यांचे किती हाल झाले.मुलीच्या घरी मेले. शरीरात किडे किडे झाले.ते जीवंत होते तेव्हा ही कोणी शिवत नव्हते, मेल्यावर ही नाही.भर पावसात ते गेले. चितेला अग्नि देणारे कोणी नव्हते.शेवटी गावकरी पोहोचले.पुतणा आला शेवटी.त्याने अग्नि दिला.
हाच प्रकार आमच्या गावाच्या सुभवती चा झाला.भीक मागत होती शेवटी.ओ! आणि थोरली तर हे जाणत होती.तरी ही तेच केले .आणि हिच्या कडे तर किती मुश्किल आहे.बीट्टीला तर कर्करोग झाला.ती गेली तर?जावई पहिलेच दारूडा, जुगारी.हे राम, काय होणार आहे थोरलीचे.’
‘घाबरू नको.आम्ही आहोत.थोरल्या आत्याची अशी अवस्था नाही होणार.’अन्नु म्हणाला.
‘हो, लक्ष ठेव अन्नु.’
एक सांगतो छोटी आत्या.’अन्नु म्हणाला,’ थोरली आत्याच्या हया निर्णयात फक्त तिचा दोष नाही, तिचे दिर पण खूप दुष्ट आहेत.ते तिची देखभाल करत होते पण वर वर, देखावा नुस्ता.त्यांची नजर तिच्या जमीनीवरच होती.’
‘असे कसे म्हणतो तू?’
‘ सुरुवातीला थोरली आत्या माझ्या कडे राहायला आली तेव्हा एकदा तिचा दिर आला होता, जो पोलीस मधे काम करत आहे .पहाटेच आला आणि म्हणाला, वहिनी तुम्ही चला, छोटी वहिनी आजारी आहे, वाचणार नाही, तुम्ही चला.पण थोरली आत्या त्याचे खोटे बोलणे ,समजली, म्हणाली की खरेच जाऊबाई आजारी असती तर तिला दवाखान्यात नेणे सोडून इथे आला नसता.पण तो थोरली आत्याची दुखती रग जाणत होता, म्हणाला ,जाताना बीट्टी कडे ही जाऊ.त्याने विचारपूर्वक दूसरा फासा टाकला.
थोरली आत्या लगेच तयार झाली.एका तासातच तो तिला घेऊन गेला सुद्धा.थोरली आत्याला बीट्टी कडे ,हया घरी घेऊन जाण्यात त्याचाच हात होता.
पण अचानक तो थोरलीला घेवुन का गेला?
‘त्याला संशय येत होता ,मी थोरली आत्याची जमीन माझ्या नावाने करुन ना घेवो’, अन्नु म्हणाला,‘जेव्हा असे पापी विचार माझ्या मनात सुद्धा नव्हते.नंतर, थोरल्या आत्याला हे समजल्यावर तिने खूप झापले त्याला.’
‘पण हे तुला कोणी सांगितले?’
‘थोरल्या आत्यानेच सांगितले.’अन्नु म्हणाला, ‘ती म्हणाली ,पाप त्याच्या मनात,पण लांछन तुझ्या वर लावतोय.’अन्नु बोलला, ‘हे जमीन जुमला प्रकरण खूप अजब असते, काय काय करवून घेते.’
‘आता तर असे समजले की थोरल्या आत्याचे दिर सुद्धा आपसात भांडत होते आत्याच्या जमिनीसाठी .
प्रत्येकाला असेच वाटायचे की आपल्याला एकट्याच्याच नावाने ही जमीन करुन द्यावी.सारे जण तिला बहकवत होते एव्हढेच नाही धमकवत होते,मग आत्या बीट्टी कडे गेली.’
‘मी तर ऐकलेय की थोरल्या आत्याने बीट्टीच्या नावाने जमीन लिहून दिली तर तिच्या दिराने तिच्या विरुद्ध खटला दाखल केला आहे कोर्टात .’चून्नु म्हणाला.
‘होऊ शकते असे , तिचे दिर दुष्ट आहेत.’ मी म्हणाले,ते दुष्ट नसते तर थोरलीने असे केले असते?मुलीच्या घरी राहुन तिने दूसरा जन्म बिघडवला असता का? हा जन्म तर तरुणपणी विधवा झाल्याने वाया गेला.
आता अंत समयी मुलीच्या घरी अन्न पाणी घ्यायला गेली, पुढचा जन्म ही वाया.’
‘तुम्ही अजून तेच धरून आहात?’मागच्या जागेवर अन्नुची बायको बसली होती, तिने विचारले ‘शेवटी आत्या तिच्या मुलीकडेच तर गेली.मुलीकडे नाही तर कुठे जाईल?जमीन जुमला सुद्धा मुलीला दिले तर बिघडले कुठे? कोणते आकाश फाटले? कोणाला आपल्या मुलांचा मोह नसतो?’
‘हो, हे ही खरेच आहे.’ अन्नु ने तिच्या सुरात होकार भरला.
‘जग कुठुन कुठे पोहोचले. रीत रिवाज , परंपरा बदलले आहेत.अगदी थोरली आत्या सुद्धा बदलली.’
अन्नुची बायको बोलली,’पण अजून ही तुम्ही बदलले नाही .मघापासून काय लावून दिले मुलीचे घर,मुलीचे घर ! अरे, एक आई जर तिच्या मुलीत आणि नातवंडात तिचे सारे जीवन शोधते,त्यांच्या सोबत आपले अंतिम दिवस काढू पहाते, तिने त्यांच्या साठी सर्वस्व दिले तर त्यात वाईट काय आहे?’
‘ह्यात वाईट काहीच नाही सुनबाई.’मी म्हणाले,पण दूसरी बाजु अशी आहे की थोरली तर मुलीच्या मायेत फसली.ती तर आपुलकी शोधत आहे पण बीट्टी आणि तिचा नवरा तिला कामधेनु समजतात. बीट्टीला कर्करोग झाला आहे.वाचेल की नाही काही समजत नाही.जावई तो तसा दारूडा, जुगारी . अश्यात थोरलीचे काय होईल. मला तर साफ वाटते की थोरली तर पूर्णपणे फसली. ते तिला तिची सेवा करायला घेवून गेले असे नाही .त्यांची नजर तिच्या जमिनीवर आहे.ती इथे येवून चार महीने सुद्धा नाही झाले पण जमीन मात्र बीट्टीच्या नावाने झाली सुद्धा.जगजाहीर आहे की नियत साफ नाही.नियत साफ असती तर तो छोटा मुलगा फोटो का काढू देत नव्हता?आणि ती मुलगी सुद्धा विनाकारण का भांडली असती ना?’
‘ हो तेच तर ,गडबड वाटत आहे.’अन्नुची बायको बोलली ,’पण आत्याला जे योग्य वाटेल तसेच करू द्या.’
‘हो ,आता तर हेच होऊ शकते.’
मी पाहीले,आमच्या दोघींच्या बोलण्याच्या दरम्यान अन्नु झोपी गेला. कोण जाणे झोपला की झोपण्याचा अभिनय करत होता.तरी पण मी त्याच्या बाजूला त्याच जागेवर बसले.विचार करत बसले की थोरली ने बीट्टी च्या मोहाने असे केले का?अपत्य मोह हा असाच असतो का? चूक अथवा बरोबर चे भान उरत नाही .जसे की द्वापर युगात धृतराष्ट्राला दुर्योधनाच्या मोहाने कुठले ही भान उरले नव्हते.आता हया कलीयुगात थोरलीला बिट्टीच्या अंध मोहाने विसर पडला.
कोण जाणे?
मला तर अपत्यच नाही.असते तर मला ही समजले असते.नि:संतान मी काय समजू?ह्या विचाराने मी रडू लागते. रडत रडत मी माझ्या जागेवर येऊन बसले. माझा प्रश्न तर थोरलीच्या प्रश्नांपेक्षा ही जास्त बिकट होता का?मी विचार करते थोरलीच्या जागेवर मी असते तर मी ही असे सारे काही बीट्टी साठी केले असते का थोरली सारखे ,परंपरा आणि संस्कार सोडले असते का?
काय माहिती ?
आणि जेव्हा मी थोरलीच्या वयाची होईन,तेव्हा आम्हाला कोण पाहील?थोरलीचा हा यक्ष प्रश्न आमचाही यक्ष प्रश्न होणार नाही का? तेव्हा मी कुठे जाणार? पण असा विचार करुन संतोष वाटतो की थोरली सारखी मी विधवा तर नाही.माझा पती तर आहे.आम्ही दोघे सोबत राहू .एकमेकांची सेवा करू.
एक ट्रक ,कर्कश आवाज करत,आमच्या बसला ओव्हर टेक करत आहे. आणि बाहेर अंधार पसरत आहे.
हाच दाट अंधकार माझ्या मनात ही गडद होत चालला आहे.
मी परत रडू लागलेआहे. बस पुन्हा खडखडाट करत जात आहे .कदाचित आता अजून स्पीड ब्रेकर आहेत. 
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थोरल्या ताईचा यक्ष प्रश्न:प्रिया जलतारे द्वारा अनुवाद


मूळ हिंदी कहानी :सरोकारनामा ब्लॉग :बढ़की दी का यक्ष प्रश्न : दयानंद पांडेय
मराठी अनुवाद: प्रिया जलतारे

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इस कहानी का भोजपुरी अनुवाद 


बड़की दीदी क यक्ष प्रश्न 

                                                

बस अभियो हिचकोला खात रहे तले अन्नु के आवाज़ हमरा कान में पड़ल ,उ हमरा के अपना सीट प बोलावत रहे। हम अपना सीट से उठले रहीं की बस एगो स्पीड ब्रेकर से भड़भड़ा के गुजरत रहे आ हम गिरला-भहराइला से बाँचत,अन्नू के सीट प जाके बईठनी तले अन्नू बोललस की, ‘हियरिंग एड लगा ल’। हम उनके बतावनी की ‘हम लगा ले ले बानी’। त उ बोलले ‘बड़की फुआ से मिलबु?’ एहि बीचे बस कवनो ट्रक के ओभर टेक करत रहे ओकर तेज़ सिटी के बीचे अन्नू के आवाज एकदम से दबा गइल रहे। उ फिर से कहले, ‘बड़की फुआ से मिलबु?’ उ आपन मुँह हमरा कान के एकदम जरी लिया के अउरी जोर से कहले, ‘उनकर गाँव बस आवहीं वाला बा’।

हम आपन मुड़ी उनका सहमति में हिला दिहनी।

बड़की दिदिया हमनी दस भाई बहिन के  बीच में दूसरा नम्बर प रहली अउरी सात गो बहिन लोग में से सबसे बड़। भाई-बहिन में सबसे छोट हमहिं रहनी। हम पचास साल के रहनी आ बड़की दिदिया होइहैं उहे लमसम पचहतर साल के।

घर मे उ बड़की रहली आ हम छोटकी। एह तरे हमनी दुनो लोग के उमिर के बीचे लमसम 25 बरिस के अंतर रहे। लेकिन लिखतन्त देखीं की हमरा पैदा भइला से पहिलहीं दिदिया ‘बिधवो’ हो गायिल रहली।

बचपने में बियाहे के ‘सराप’ के उ भोगत रहली।उनकर बियहल जिंनगी लमसम दुइ भा अढ़ाई साल चलल रहे।जीजा जी पेट पलत ऐगो जीव के छोड़ के ‘हैजा के भेंट’ चढ़ गइल रहले। बड़की दिदिया के जिंनगी उजर गइल रहे,ओह घर उ मात्र सोलहे-सतरहे साल के रहली। उनका एगो बेटी भइल।उ बेटिये उनका जिनगी के आसरा बन गइल।

बड़की दिदिया के संगे भगवान भले अन्याय करस,उनकर नइहर आ ससुरा दुनो जगह के लोग बढ़िया रहले। उनका जिंनगी में बस ऐगो पति के कमी के छोड़ा के अउरी कवनो चीज़ के कमी बुझाए ना देले रहे लोग।जवानी आवे से पहिलहीं उनकर बार कटा गइल। साथे बिधवा जीवन के जतना कुल्ह पाबन्दी आ नियम क़ानून रहे उ कुल्ह खुशी-खुशी मान लिहली।घर से बाहरी उ तबे निकलली जब उ अधेड़ ना हो गइली। उनकर बार पाके लागल रहे देह के मये चाम अब झूले लागल रहे। बरिसन तक उनकर बोली त छोड़ी उनकर केहू गोड़ो के आवाज़ ना सुनले रहे। लेकिन जब बड़की दिदिया घर से बहरी निकलली त एगो अलगे बड़की दीदीया रहली।उनकर बोली एकदम कर्कश हो चलल रहे आ गोड़न में जइसे तूफ़ान समा गइल रहे। जे उनका के एह रूप में देखल उ ई  मान लिहल की ई उनकर विधवा जीवन के आऊंजहट ह।एक हाली बड़का भइया से केहू गाँव के शिकाइत कइले रहे कि, ‘तोहार बहिन बड़ी टेढ़ बोलत बाड़ी’। त भइया पलट के जवाब दिहले कि, ‘ उ बोलत भले टेढ़ बाड़ी लेकिन  हमर मूँछ त त टेढ़ नइखी करत’।

आ साँचो जवानी आवे से पहिलहीं बिधवा होखे वाली बड़की दिदिया के बारे में ना केहु ख़ुसूरफुसर कइलस,ना केहु ख़ुसूरफुसर सुनलस,ना बड़की दीदीया के नजरी प केहु चढ़ल ना उनका प केहु के नज़र । बाकिर जिंनगी के पचहत्तर बरिस बिना कवनो लांछना के रहे वाली दिदिया के जिंनगी प अब ऐगो लछना ला गईल रहे। लोगन के अंगुरी उनका प एहितरे उठ गइल रहे। नइहर आ ससुरा से नाता एकदमे टूते-टूटे भ गइल रहे।छोटका भइया त एहिजा तक कह देले रहले कि,  ‘हमरा ख़ातिर बड़की दीदीया मर गइल बाड़ी’।

ई उहे छोटका भइया रहले जे अबहि तक ई कहस फिरत की बड़की दिदिया हमनी के तीन गो पीढ़ी के अपना गोदि खेलवले बाड़ी।हमहुँ इनका गोदी में खेलनी, हमार लइको आ अब हमार नातियो खेलत बा’।जवाब में बड़की दिदिया झूमक के ‘अउरी का!’अतना कहि के उ बालकनी में छोटका भइया के नाती के तेल लगा के तेलवान करे लागस। फेनु बुझाए जे अपने से कहस, ‘ई अब हमरा मान में नइखे बहुत उछलत बा’। आ हमरा लगे अब ओतना जोर नइखे ।बूढा गइल बानी ।ई कहत छोटका भइया के नाती के गोदि में लेके उछालस आ आ थेथरा के पूछस, ‘ना बुढ़ऊ!’ फेनु ओकरा के जोड़त कहस की ‘न तोहरे दाँत, न हमरे दाँत। का हो बुढ़ऊ! कहत कहत उ लइका के हाथ गोड़ दबा दबा के कान्हा तके ले जाके साई सुई खेलावस आ उ  खिलखिला के हँसे लागे। छोटका भइया के नाती माने अन्नु के लइका से का जाने काहे बड़की दिदिया के जाद लगाव भा पियार । अनूओ के उ ढेरे मानत रहली। अन्नु लरिकाई में बड़की दिदिया से ढ़ेर डेरात रहे। ओकर एकदम करकस आवाज़ अउरी जबरराट थापड़ बढ़िया से बढ़िया लोग क डेरवावत रहे। अन्नू ओह घरी टीनऐज मने अब उ धीरे-धीरे लरिकाईं के उमिर से निकलत । गाँवे केहू के बारात विदाई होत रहे। दूल्हा जात , आ अनुआ मय लइकन के संगे टेम्पो लटकल चलल आवत रहे। दुरे से उ बड़की दिदिया के देख लेले रहे। फेन का रहे डेराइला के मारे उ चलते टेंपू से कूद गइल रहे। जान त बांच गइल बाकिर कपार पूरा फाट गायिल रहे। आजो जब ई घटना के अनु याद करेलन त उनकर करेजा कांप जाला ।अन्नु बड़की दिदिया डेरात बहुत रहले बाकिर उनकर इज्जतो बहुत करत रहे। का जाने का रहे लारिकइये से कि अनु कबहु जे बेमार पड़े कहियो परे बड़की दिदिया टप से ओहिजा आ जासु।आ अनु के सेवा टहल बजावे लागसु। अन्नु के उ कम से कम तीन हाली यमराज के हाथ से खींच के लियाईल रहली।

बड़की दिदिया डागडर त दूर पढ़लो लिखल ना रहलीं ।बाक़िर कवना रोग में कवन चीज़ रोगी के खियावे के बा, कवन चीज़ से परहेज़ करे के बा उनका ई कुल्ह पता रहे।खाली अन्नुये काहें घर मे केहू बेमार खाली पर जाये बड़की दिदिया जीउ जान से लोगन के सेवा टहल में लाग जात रहली।उ ना बेमार आदमी से घिनासु आ ना बेमारी से।  बुझात अइसे रहे जे उ अपना भितरी कुल्ह समेट लेले बाड़ी । आ ओह बेमारी के पीछा जब लागसु त उनका के भगाइये के दम लेसु।

बड़की दिदिया जहाँ रहसु चाहे नइहर चाहे ससुरा अपना दबदबा से से रहत रहली।उनके चलती रहे।केहू भीतरी ओतना जोर ना रहे कि उनकर बात के केहू काट देउ। उनका आगे का छोटा का बड़ सभे सकपकाईल रहत रहे।उ लाग भीर के घर के काम करत रहली। आ हाड़ तोड़ मेहनत।केहू उनका जो मना करे काम करे से त कहस’ ‘काम ना करब त बेमार नु पड़ जाइब’। एहि से सभे बड़की दिदिया के साथ खोजत रहे।

नइहर आ सासुर दुनो जगह उनका के आछो-आछो भइल रहत रहे। बाक़िर बड़की दिदिया ई तय करस की उनका कहाँ रहे के बा। अउरी उ जहाँ उनका बुझात रहे कि उनकर बेसी ज़रूरत बा, ओहिजे रहत रहली। बाकिर सबकर सहारा बनत-बनत उमिर के एह चउथेपन में उ खुदे सहारा खोजे लागल रहली। उमिर जइसे-जइसे बीतत रहे वइसे-वइसे बड़की दिदिया के दिमाग़ी हालत से उपजल रोग अवसाद आ निराशा के ऐगो करिया बदरी से घिरत जात रहली। आ ओहि करिया बदरी से निकले के आशा में एगो किरिन के खोजत-खोजत छटपटाए लागत रहली। फफक के रोवे लागत रहलीं।रोअत-रोअत कहसु अबहि त जांगर बा। अबहि करत बानी त खात बानी,बाक़िर जहिया जांगर थाक जाई त के खियाई? के पूछी?। हर आदमी से उनकर एके सवाल रहत रहे ‘तब के पूछी’? हमरा नयन लोग उनका के समझावत रहे ‘सभे पूछी।’ अउरी अनु उनका के चुप करावत कहस ‘हम पूछब। जबले हम जियत बानी तब ले हम राउर देख भाल करब,हम राउर सेवा टहल करब’। छोटका भइया ,बड़की भाभियो बड़की दिदिया से इहे बात कहस लोग। उनका ससुरा में उनकर देवर लोग इहे बात कहसु । बाक़िर तबो बड़की दिदिया के केहु के बात प विश्वास ना होखे। उ फफक के रोवे लागसु आ कहसु की,‘जब हम खटिपर हो जाइब त हमरा के के पूछी’?बड़की दिदिया रो रो के पूछस,’ हमरा के पूछी भा देखी’।उ आधा रात खा हड़बड़ा के उठ के रोवे । आ पुछला प फेरू उहे  यक्ष प्रशन, उहे सवाल फेरू से दोहरा देसु।

फेरु मने-मन उ अपना बेटी के बारे में सोंचे लागत । अपना यक्ष प्रश्न के जवाब बुझाए जे बड़की दीदी अपना बेटिये में खोजत रहली। उनकर बेटी जवन अब नाति-नातिन वाला हो गइल रहली। बाक़िर बड़की दिदिया ख़ातिर अभियो उ ढूढ पियत लइकी रहली। उ हमेशा ई सोंचस की उनका बेटी प हमेशा ख़तरा बा भा उनका लागे की उनकर बेटी अबहि लइके बिया।अउरी आपन सब कुछ ओकरे प लुटावत रहली। रुपया-पइसा कपड़ा-लाता, गहना-गुरिया,ज़मीन-जयदाद जवन उनका लगे होत रहे चट से बेटी किहें पठा देत रहली।आ बेटियो उनका के कामधेनु गाय अस दुहत रहत रहसु आ ई बात सभे कोई जानत रहे की बड़की दिदिया के जान उनका बेटिये में बसे ला। बाक़िर तबो पता ना काहें हमनी के ना जान पवनी जा कि, बड़की दिदिया आपन यक्ष प्रश्न, ‘ तब हमरा के के पूछी ?’  के जवाब अपना बेटिये में काहे ढूंढत रहेली आ पूछत रहेली।उ एह से की शायद एह पुरूष प्रधान समाज में हमनी के ई सोचियों ना सकेनी जा की एगो माई बेटी किहें जा रहियो सकेले। बेसी ओह समाज में जहवाँ ई मानल जाला की बेटी के घरे माई-बाप के पनियों ना पिये के।

कुछो होखे, बाक़िर बड़की दिदिया शुरूए से आपन मय गहना-गुरिया ,चानी के सिका एके गो कइके कुल्ह अपना बेटी किहें पेठावत रहली। आ ओने उनकर दामाद एह कुल्ह धन के शराब आ जुआ में उड़ावत रहे।लहे-लहे उनकर दमाद के ई लत बढ़ गईल आ ओने बेटी के माई से धन के लालच। बाक़िर तबो बड़की दिदिया  नु तनिक सोंचलि नु बिचरली , की हतना जतन से एक-एक पाई कइके के जोड़ल धन आ गहना-गुरिया कइसे दिहीं।उ एह एक -एक पइसा के अपना बेटी देत चल गइली आ उनकर बेटी में मुँह अउरी सूरसा अस बढ़त चल गइल। उनकर बेटी कब्बो ई ना सोंचली की ई पइसा उनका लाचार माई के कब्बो कामे आ सकेला।आपन दुःख आ दर्द के कहानी के लेके उ अवात रही भा आपन मरद के भेजत रही।अउरी बड़की दिदिया एने-ओने से जोड़-तोड़ कइके पइसा पेठा देसु। बाकी बात जब बेसी बढ़ गइल त लगली बड़की दिदिया आपन हांथ समेटे।एक दु हाली अपना दामादो प नकेल कसे कोशिस कइली। शराब आ जुआ ख़ातिर टोकली बोलली। त उ अपना घरे जा के बड़की दिदिया के बेटी मने अपना मेहरारू प उनकर खीस निकलले उनका  से झग़डा कइके। आ कहले की अपना माई के मना कई द की हमरा बारे कुछो मत कहस हम जवन करत बानी वह से उनकर कवनो लेना देना नइखे आ जदी ना मनिहे त एक दिन हम फाँसी लगा लेब। बेटी माई के टोकली की माई काहे टोकत बाड़े उनका के ,कुल्ह कहानी बतवली आ बड़की दिदिया मानियो गइली।

ई बात ओह घरी के ह जवना घरी बड़की दिदिया के सगरो  दबदबा चलत रहे आ उनका लगे कवनो 'यक्ष प्रश्न' ना रहे। लेकिन गते-गते  बड़की दिदिया के जोड़ल कुल्ह धन, गहना गुरिया लमसम खत्म हो गइल रहे ,आ बेटी दमाद के आवजाहियो। बाक़िर सभे जानते रहे कि बेटी में बड़की दिदिया के जान-परान बसेला। उनका कहीं से कुछो मिले ,कहीं  शादी-बियाह में नेग, साड़ी,पइसा रुपया ,गहना ओहि घरी ओकरा के अपना बेटी किहें पेठा देसु। कब्बो ई कुल्ह चीज़ के उनका काम लगी ई बिना सोचले उ ई कुल्ह पेठा देसु। पहिलवा त बड़की दिदिया के बेटी आ दमाद के उनका सुसरा आ नइहर दुनो जगह खूब ख़ातिर दारी होत रहे ,इहे सोच के की बेटी दमाद ह लोग। आ बदवा में ई सोंच के की बड़की दिदिया के मन मे कवनो तकलीफ़ ना होखे की उनके बेटी दमाद के हिगरावल जाता,ख़ातिरदारी नइखे होत। बाकिर जब दमाद के अय्यासी ढेरे बढ़ गइल त ओकर नज़र घर के बेटी-पतोह प परे लागल बाक़िर उनकर आईल गइल तब्बो केहु ना रोक पावल,बाक़िर ख़ातिरदारी में पहिले वाला भाव आ बात ना रहे।गते-गते दमाद, आईल बन के दिहले।ओइसहु बड़की दिदिया के लगे त अब देबे ख़ातिर कुछ बाँचल ना रहे। बड़की दिदिया अब पइसा रुपया दिहल बन के देले रहली त जुआ आ शारब पियला में तनि कमी आइल । बड़की दीदियो अब  बूढा गइल रहली ।उनका देह के चाम अब झूल गइल रहे आ मुँह प बस एकही  उहे  यक्ष सवाल रहे कि ' 'अब हमरा के  के देखी?'  बस इहे उनका जीभी प,  बस गइल  रहे।

अउरी ई संजोगे रहे कि बड़की दिदिया के उ यक्ष सवाल जल्दिये कसउटी प कसा गइल, ओकर जांच हो गइल।ओह घरी उ ससुरे में रहली। एगो रात खा उनकर पेट फूल गइल। अब तब हो गइल।अउरी बड़की दीदियो के लागल रहे कि अब उ ना बांच पइहें। बाक़िर भगवान के लीला के जानत बा उ बांच गइली। उनकर सबसे बड़का सवाल उत्तरो आ मिल गइल रहे। नइहर,सासुर  सब उनका सनागे ठाढ़ रहे। उनकर देवर उनका इलाज के मये खर्चा उठावले ।जब पइसा कम परल त सूद प जाके पइसा के  बेवस्था कइले। तब जाई के उनकर अपरेशन भइल।

छोटको भइया पूरा तैयारी में रहले। बाकिर बड़की दिदिया के देवर हाथ जोड़ के कहले कि "  हमार धरम ह ,हमरा के करे  दीं लाजवाई मत"। हमहुँ छोटे प भउजी के गोदि में खेलल बानी एह से हमरो बेटा से कवनो कम हक़ नइखे ,त बेटा धरम  निभावे दीं,एह बेमारी के बेर दिदिया के बेटी आ दामादो आईल रहे लो। बाकिर एह मउतो के बेर ओह लोग के बड़की दिदिया के धने लउके। ओ लोग के मये जोर दिदिया के ओह शहर के नर्सिंग होम से निकाल के अपना कस्बा में ले जाये प रहल।दमाद ,बड़की दिदिया के देवर के डाँटते रह गइल रहे, रवा लोग इनका के एहिजा मार देब एहि नर्सिंग होम मे। हमरा के  ले जाए दीं सभे ,इंहा के एकदम चंगा हो के आईब ओने से'।  बेटियो एहि बात प एकदमे अड़ल रह गइल।बात अइसन रहे कि बेटी-दमाद के लागे की आब बड़की दिदिया बचिहें ना। एह से उ लोग के मन रहे  कि, इनका के अपना बस में  क के, उनका हिस्सा के खेत-बारी अपना नावे करवा लीं।एहि से उ लोग के धियान बड़की दिदिया के  दवा-दारू प ना उनका जदी-जयदाद प रहे। बड़की दिदिया होश में होखती त चलियो जइति शायद! बाकिर उ बेहोश रहली। अउरी उनकर देवर उनका बेटी-दमाद के मन के बात जानत रहले, एहि से छोटका भइया के ओह लोग के सामने खड़ा के दिहले। अउरी बड़की दिदिया के नर्सिंग होम से जाए ना दिहले।

अपरेशन के बाद बड़की दिदिया बांच त गइली ,बाक़िर उनकर देह अब साँचो जवाब दे गइल रहे। आँखी से कम लउके  लागल रहे।देह से  फुरती गायब रहे।उनकर मये ताक़त अब गते-गते खतम होखे लागल रहे।उनका से चार-छव कदम ना ठीक से चलल जात रहे।
 
बड़की दिदिया के यक्ष प्रश्न बड़ी मजगुति अब उनका सामने ठाड़ रहे,उनका आंख से छलछलात पानी के रूप में।

वादा मोताबिक अन्नू उनका के अपना साथे ले गइल रहले।बाक़िर बड़की दिदिया के मन ओहिजा शहर में  ना जमल । उ कहस ' एहिजा त केहु दु गाल बतियाहूं वाला नइखे मिलत'। साल भर के भितरे उ फेरू से गाँवे आ गइली। फेरू गइली, फेरू अइली। एहि तरे उ आवत जात रहली।फेरू अन्नू उनकर आँखी के मोतियाबिंद के अपरेशन करवइले। एहि बहाना उनकर बेटी के बेटा-बेटी आ पतोहियो आईके बड़की दिदिया से मिलले लो।भितरे-भितर ई तय हो गइल की बड़की दिदिया अपना हिस्सा के मये खेत अपना बेटी के  नावे लिखीहें। बड़की दिदिया एक हाली अनूओ से एकरा बारे में पुछले रही। अनु साफे-साफ कहले की दिदिया कानूनन त ई एकदम ठीक बा,बाक़िर समाज एकरा के ठीक ना कही,आ परिवार के परम्परो के हिसाब से ठीक नइखे। अन्नू बड़की दिदिया से इहो कहले की जवना ससुरा में तहार अतना मान-जान बा, ओकरा के माटी में काहें मिलावल चाहत बाड़ू।अउरी चेतवले की अपना जियत जिंनगी में ई मत करिह।अउरी तहरा मरला के बाद अगर तहार बेटी चाही त ओकरा के ओकर हक़ कानून से  मिलिये जाई। अउरी जादा अगर तहरा दिक्कत बा चुपेचाप एगो वसीयतनामा लिख द।बड़की दिदिया अन्नू के बात हमरा से बतवली आ हमार राय पूछली ।हमहुँ अन्नुये के बात के सही कहनी।

बड़की दिदिया मान गइल रहे।

अन्नू के एहिजा से लवटला के बाद कुछ दिने पहिले बड़की दिदिया ससुरा में रहली। उनका से मिले उनकर बेटी के लइका आइल जब उ आइल रहे त उ बेमार ना रहली। बाक़िर जसहीं उ जाए लागल बड़की दिदिया बेमार हो गइल। बेटी के बेटा कहलस की 'चल नानी तहरा के डॉक्टर से  देखवाई आईं' । बड़की दिदिया के देवरो मान गईले। कहले' जा नाती नानी के देखा द बढ़िया डागडर से'।बाकिर नाती बड़के दिदिया के जवने ना देखावे  ले गइले की फेर उ लवट के ना अइले। बड़की दीदियों ना अइली। भोर से साँझ ,सांझ से रात आ रात से दिन हो गइल। दिन बीतल, हफ्ता बीतल बाकी नु  नातीये आइले नु बड़की दिदिया। अब जब दस दिन हो गइल उन्हन लोग के गइल त उनकर देवर भाग के छोटका भइया किहें गइले ,बाकिर बड़की दिदिया होखस तब नु! मिलति। बड़कडी दिदिया मिलली कहाँ त अपना बेटी के घरे। आ ओहिजा से लवटे के नामे ना लेत रहली। उ देवर उनकर लवट अइले। दोसर जाना  लिया आवे गइले त दमाद अब एकदम खुल के लड़ गइले। अब दुनो ससुर आ दमाद आपसे में भीड़ गइल लो। बाक़िर बड़की दिदिया ना लवट के अइली।उनकर बड़की दिदिया से कहबो कइले की ' काहे बेटी के घरे खाई के हमनी के मुंह प कालिख पोटवावत बाड़ू, मत कर ई कुल्ह। चल घरे लवट चल । बाकिर बड़की दिदिया ना मनली।

उनकर देवर ओहिजा से लउट के छोटका भइया के लगे अइले आ मये बात बता के कहले, 'चलीं अब रवे उनका के ले आयीं' । हम त समाज मे मुँहों देखावे लायक ना रहब। लोग बाग कही की जब  भउजाई के जांगर थाक गइल त इहन लोग उनका के छोड़ दिहल। उनका के घर से निकाल दिहल लो। अउरी भगवान त उनकर पहिलहीं से बिगड़ले  बाड़े, अब  उ अपना बेटी, के आनाज खाइ के  आपन अगिला जन्म बिगारत बाड़ी। आ एह पाप के त भागीदारी हमनियो के  होखब जा।'

बाकिर छोटका भइया ना गइले । बोलले ' बड़की दिदिया अब हमरा ख़ातिर मर गइल बाड़ी'।

फेरू थोरहिं दिन के बाद ई पता चलल की बड़की दिदिया आपन मय ज़मीन जयदाद अपना बेटी  के नावे के दिहली।अउरी एक दिने उनका बेटी के बेटा छोटका भइया के लगे गइल आ कहलस की, 'नानी के बोला लिहिं ,बाकिर उनका के उनकर ससुरा मत भेजब'। ओहिजा लोग 'उनका के जहर देके मुआ घालि'। बाकिर फेरू छोटका भइया के उहे जबाब रहे कि  ' बड़की दिदिया हमरा ख़ातिर मर गइल बाड़ी'। अउरी अब  उहे  छोटका भइया के लईका अनू हमरा से  चलत बस में पूछत बा की , 'बड़की फुआ से मिलबु'? हम ओकरा बात में गरदन हिलाक़े हं में हं मिलावत पूछनी की 'पता जानत बाड़?'

जानत त नइखी बाकिर ,पता त चलिए नु जाई पुछला प। कवनो बड़ थोड़े कस्बा भा गाँव बा।'ढ़ेर दिक्कत ना होइ खोजे में!'। अन्नू कहलस।

हं,मिल एरिया ह । मिल त जाहीं के चाहीं। हम कह देनी।

 आ जनला के बाद पापा खिसिया जइहें तब?? अन्नू पूछलस

देखल जाई, बाकिर अभी बड़की दिदिया से मिल लिहल जाऊ। कहला के बाद हम तनि भावुक हो गइनी।

खोजत-खोजत आखिर मिलिए गइल बड़की दिदिया के दामाद के घर। उनका घर मे पहिले अन्नू घुसलस फेरू हम, अन्नू के मेहरारू, अन्नू के छोट भाई  चुन्नू आ मुन्नू।

बड़की दिदिया बिछवना प ओठनंग के गोड़ के नीचे लटका के छत के ओर देखत रहली। अन्नू जब एकाएक उनका के गोड़ लगलस त उ चिन्ह ना पवली। हड़बड़ा के उठली। बाक़िर जब मन्नू उनकर गोड़ छूअलस त उ चिन्ह गइली। उ उठ के बईठ गइली। हमरा के देखते उ भावुक हो गइली। ' छोटकी तें??' कहि के अंकवारि में भरे ख़ातिर उठली। अन्नू के मेहरारू गोड़ छुअली आ आपन गोदि के लइका के दिदिया के गोदि में दिहली। बड़की दिदिया, ओकरा के गोदि में लेके 'बाबू हो बाबू ' कहि के  पुचकारे  लगली।फेरू चूमे लगली जल्दी-जल्दी । अउरी पोंका फार के रोवे लगली। बाक़िर अन्नू के लइका उनका गोदी में ना रुकल।रोइ के उतर गोदी से उतर गइल उनका। ओह लइका के गोदी स उतरते बड़की दिदिया के चेहरा एकदमे कड़ा आ भावुक हो गइल रहे।अपना चेहरा प बुला उ लोहा के फाटक अबले लगवले रही । उ जान गइल रहली की हम अब उनका से उनका बेकार लागे वाला सवाल पूछब।बाक़िर एह कुल्ह के उलट हम चुप रहनी।

एकदमे चुप।

बड़की दिदिया बुझाइल जइसे धड़ से अपना चेहरा प से उ लोहा के फाटक खोल दिहली। माथ के साड़ी के पाला ठीक करत, उ फेरू से भावुक होखे लागल रही। कहली ' अन्नू के त ना जानत रहीं बाकिर तोहर जानत रहीं'जानत रहीं की छोटकी आयी जरूर।

बाक़िर तू एहिजा  काहें अइलू बड़की दिदिया??'  कही के हमहुँ फफक के रो दिहनी'।

 'अब हमरा से एकदमे ना सहात रहे'।बड़की दिदिया कहली हमार 'अब उमिर केहु के सेवा टहल करे के नइखे'। अउरी हमरा सेवा टहल के केहु के फिकिरे ना रहे। ना नइहरे नु ससुरा।बोलत-बोलत रोए लागल रहली बड़की दिदिया'। रोअत-रोअत कहे लागल रहली 'अब हमरा केहु के सहारा के जरुरत रहे।बाक़िर सेवा कइल त दूर के बात बा, हमरा के केहु पूछतो ना रहे। बड़की दिदिया 'अपना आँचर के कोर से लोर पोछत कहे लगली।'
चलत-चलत केनियो गिर-भहरा जायीं त, केहु आ के उठा देवे बस, आ चाहे क़ब्बो-कबो अपने से उठ जायीं, केहु पूछे वाला ना रहे। नइहर होखे भा सासुर सबका इहे लागत रहे कि,बड़की के खाली कपड़ा आ खाना चाहीं'। उ फफक के रोवे लागल रहली। बोलली, 'जवानी त कपड़ा आ खाना में काटिये दिहनी, बुढ़ौती नइखे कटात। काहे की बढ़ौती खाली, कपड़ा आ खाना से ना कटाला।' हम अब ऊब गइल रहनी ह एह जिंनगी से,बड़की दिदिया बोलते जात रहली।।
'त तू छोटके भइया किहें आ गइल रहितू!।
'उ  आईले कब रहे लियावे? उ बोलली, फेरू जब से उ नौकरी से रिटायर भइल बा,बहुते खिसियाए लागल बा। मये घर भर लोग ओकरा से दुःखी रहे लागल रहले।हमरो के जब ना तब खीझा के रोवा देत रहे।फिर एक दिन उ बाते-बात में हमरा ऊपर पइसा-रुपया जवन खर्च होत रहे उ  ना करे के कहे लागल रहे।कहे लागल हमरे खर्चा बहुत हो गइल बा। पिनसिन से गुजारा नइखे हो पावत।'

त तू अनु के पासे चल गइल रहितू?'।हम कहनी त अन्नू कहे लागल की हम त कबो अपना जिमेदारी से नइखी भागल? हम त क़ब्बो तहरा  ख़ातिर इनकार नइखी कइले??


हं अन्नू , क़ब्बो मना नइखे कइले। हं में हं मिलावत बड़की दिदिया बोलली, बाक़िर अनु किहें त अउरी दिक्कत रहे। उ आ पतोहिया दुनो दिन में आफ़िसे चल जात रहे लोग आ लइका कुल्ह स्कूले । घरे बस दुगो लोग बांच जात रहे एगो हम आ एगो अनु के छोटका लइका। अब हम आपन देखभाल करतीं की बबुआ के?। फेर हमरा इहो ना बुझात रहे कि हम एहिजा का करे आईल बानी? आपन सेवा करवावे की अन्नू के लइका के देख-रेख  करे?। हमरा हर बेर इहे बुझात रहे कि उ हमरा के आपन लइका के देखभाल  करे ख़ातिर एहिजा ले आईल बा।

बड़की दिदिया बोलली, 'बाकिर बाबु के देख-रेख करे में हमरा कवनो दिकत ना रहे!। बाकिर हम ओहिजा अकेले रह जात रहनी। केहु ओहिजा हमरा से बोले बतियावे वाला ना रहे। एक हाली जे फाटक बंद होत रहे त फेरू सांझिये खा खुलत रहे। आ घरे आवते सांझी खा लइका-फईका,बहुरिया आ खुद अन्नुये टीवी में लाग जात रहे लो,ओकरा बाद खा के सभे सुत जात रहे।हमरा ख़ातिर अइसन बुझाए जे केहु लगे तनियो मनी टाइम नइखे।' उ कहली,त हम अन्नू किहें जाइके का करतीं?'  जब ओहिजो हमरा के केहु देखे वाला ना रहे,। हमरा के उठावे-बइठावे वाला ना रहे'।

एजिगा के बा उठावे-बइठावे वाला?'। हम तनि खिसियाईल बोलनी।

'बा नु! काहें नइखे ? बड़की दिदिया एकदमे सहज होक बोलली,' चार-चार लोग बा एहिजा हमरा के उठावे-बइठावे वाला। नाती ,नातिन,बेटी  आ नातीनपतोह बा लोग हमार टहल बजावे ख़ातिर। जबे मुंह खोलनी तबे चारो लोग आके हमार सेवा टहल करे लागेला लो।' ई कहत दिदिया के चेहरा प ऐगो अलगे संतोख के भाव आ गइल रहे।

बड़की दिदिया के चेहरा प अइसन भाव देख के हमहुँ तनि खुश भइनी।अबहि हमनी के बातचीत होते रहे कि,बड़की दिदिया के छोट बेटी हमनी बीचे आ गइल ,उमिर होइ इहे सोलह भा सतरह के। कहे लागल आई रवा सभे बड़का कमरा में बइठि सभे।

'ना हमनी के एहिजे ठीक बानी जा'। अन्नू कहलस, आ फेरू हमनी के लगले चलिए जाइब जा।

'बिट्टी कहाँ बिया?' हम पूछनी त बड़की दिदिया  बोलली, ' बम्बइ गइल बाड़ी,ओकरा कैंसर हो गइल बा।' 'लेकिन कवनो घबराए के बात नइखे'। अभी ई शुरआते ह ।' डाक्टर साहेब कहले बानी उ जल्दिये ठीक हो जाई'। बम्बई में अभी ओकर सेंकाई चलत बा।

'अच्छा तू आपन जमीन-जायदाद के का कइलू?' हम अब सीधा एक दम जवन मुद्दा रहे ओकरे प आ गइनी आ पूछ दिहनी।'केहु लिखलु ह की ना अभी ले?'

 'हं लिख देले बानी' बड़की दिदिया  ई कहत  एकदमे कड़ा हो गइल रहली ,।उ एकदम निश्चिन्त हो  के बोलली, ' बिट्टी के लिख देले बानी'।

'बाकिर ई तू ठीक ना कइलू ह,दिदिया । हमहुँ पूरा निश्चिन्तहे अउरी मजगुती से आपन बात कहनी,  जे देवर जिंनगी भर तहरा के अपना तरहथि प लेके घुमत रहे लो,तहर सेवा टहल करत रहे लो,उहन लो के संगे ई तू ठीक ना कइलू '। हम अब बोलत गइनी,  बिट्टी के जमीन लिखलु ठीक कइलू, लेकिन तहरा एहिंजा रहे ना आवल चाहत रहे।'


' त हम ओहिजा का करतीं?? गिरत-भहरात मर जइती? बेवा त रहबे कइनी ,बेसहारा मर जइति? उ खिसिया के पूछली।

'ना' । जब बिट्टी आ ओकरा पूरा परिवार तहर देखभाल करे ख़ातिर रहबे कइल ह त,ओह लोग के तू पारा-पारी अपना घरहीं बोलवा लिहतु'। ई कुल्ह लोग तोहर ओहिजा सेवा करीत।' हम कहनी , कछुओ कहु बड़की दिदिया, हम तोर मये बात माने ख़ातिर तइयार बानी।बाकी ई बात हम नइखी मान सकत। तोरा गोदि में हमहुँ खेलल बानी।तू हमरा बड़ बाड़ू। बाकी, बड़की दिदिया' बेटी के घरे आइके ई ठीक ना कईलू।

'काहे ना ठीक कईली??' ई बात बड़की दिदिया ना,बाकिर बिट्टी के छोटकी बेटी बोलले रहे,जवन अभी लगले हमनी के बइठका से निकाल के बड़का घर मे चले खातिर कहत रहे। उ आपन आवाज़ अउरी तेज़ी से आ खिसियाइला अस  दुआरी के बिचवे में खाड़ होके फेर कहलस, 'काहें ना ठीक कइली ?'

ना ,मने  जमीन जायदाद लिखे के रहे लिख दिहति,बाकी बड़की फुआ के एजिगा ना रहे के चाहत रहे।' अन्नू बोलल ,हमरा लगे रह लिहति।पापा किहें रह लिहति।'

'काहें रह लिहति?' बिट्टी एकदमे तमतमाईल बोललस, 'जब  दिहली एहिंजा त ओहिजा काहे रहीहें?'

'छोटका भइया कहत बाड़े की हमनी की मुंह प करिखा पोत दिहली बड़की दिदिया'।'बोलत-बोलत हमरा रोआई छूट गइल।' उ कहले की समाज आ लोग बाग अब त इहे नु कही की जबले बड़की दिदिया करे लायक रहली जांगर चलावत रहली तब ले ई लोग उनका के रखलस। 'आ जब उनकर जांगर थाक गइल त ई लोग एकदम मरल माछी अस छोड़ देलस।'  तबे त बड़की  दिदिया अपना बेटी के घरे रहे लगली!

'बेटी के घरे रहिके कवन पाप के दिहली?' बिट्टी के बेटी फेरू खिसिया के बोलल,  'माई-बाप बेटा के साथे रह सकेला त बेटी के साथे काहें ना'?

'ना ,नइखी रह सकत, ई हमनी के परंपरा में नइखे।' दोष मानल जाला। मानल जाला की ओकरा नरक मिलेला जे बेटी के घर के पानी पीएला।' 

'अउरी पिलुआ परेला'! अन्नू के बात के बीचे में काटत उ लइकि बोललस, रावा सभे त इनकर  दुनो देवर के लोग के भाषा बोले लागल बानी जा। नानी के  दुनो देवर लोग इहे कहत रहे कि 'पिलुआ पर जाई'। गरजत बोललस, पहिले जब इनकर देवर लोग एहिजा आवत रहे त,दस-बारह दिन खूब जम के खात-पियत रहे लोग,अउरी ना त भड़ो लेके जास लो'। ओह घरी  त कवनो पिलुआ ना परत रहे! त अब इनका काहे पिलुआ परी? तब जब ई हमनी के ना आपन खात बाड़ी। अउरी रहल बात पानी के त ई क्वार्टर हमनी का नाही बा, मिल के ह कवनो पुश्तैनी ना,गाँव के ना। उ लइकी एहिजे ना रुकल, बोलल ' रवा लोग एहिजा इनका के बरगलावे आइल बानी जा।'

अब माथा ठनकल हमार,कहनी देख बाची, अब चुप हो जा ढ़ेर हो गइल ,बहुत बोल लिहलु। अब एह तरे बदतमीजी मत कर! अन्नू कहलस' 'की तू जे तरे इनका से बोल रहल बाड़ू उ इनकर एकलाद के छोट बहिन हईं'।  एह नाते इहो तहर नानिये भइली। अउरी हमनी के एहिजा इनका के बहकावे नइखी जा आइल,इनका से मिले,बोले इनकर हाल चाल जाने आइल बानी सन।इनका जमीन आ जायदाद से हमनी के तनिकियो फेर नइखे।अतना कहला के बादो उ लइकी चुप होखे के नावे ना लेत रहे'। अब अन्नू तनि कड़ाई से डंटलस 'चुप हो जा'।

'बाक़िर बड़की दिदिया ओह लइकी के एह बेवहार प कुछो ना कहली'। अइसे बइठल रहली जइसे कुछ भइले ना होखे।' केहु कुछ कहले ना होखे। '
ई उहे बड़की दिदिया रहली जे हमरा के तनकियो कुछो बोल देत रहे त उ  ओकर मुंह नोचे ख़ातिर हरमेश तइयार रहत रहली।'
उहे बड़की दिदिया आज एकदम गूंगी साध लेले रहली। आ हम सिसकारी पार के रोवे लागल रहली।

एहि बीचे बिट्टी के बेटी सबके पानी पिये ख़ातिर भीतरी से ऐगो तश्तरी में बिस्कुट आ जग में पानी लेके आईल, बाकिर केहु ओह बिस्कुट आ पानी के हाथों ना लगावल। माहौल अब गम्भीर हो गइल रहे। तबले चुन्नू कैमरा लेके आईल आ अन्नू से पूछलस,भइया बुआ के साथे सबके एगो फ़ोटो खींच लीं??

हं,हं ।' अन्नू बोललस। चुन्नू अबहि आपन कैमरा के लेंस ठीके करत रहे कि बड़की दिदिया के एगो नाती आईल आ फ़ोटो खिंचे से मना करे लागल।'

चुन्नू चिल्ला के कहलस ' भइया देख ई फोटो नइखन खिंचे देत।'

त रहे द! अनूओ अब एकदम तैश में आ गइल रहे।'

अइसन महौल देख के हम समझ गयिनी की अब एहिंजा रुकल तनिकियो ठीक नइखे।  अउरी मामिला बिगड़ सकेला। त अन्नू से कहली की 'चल अब चलल जाए।' अनूओ कहलस, हं चलल जाए अब'। आ उठ के बहरी चल गइल। हमर उठत-उठत रोआई फुट गइल।' जब चले के तइयार भइनी त हमरा लागल की बड़की दिदिया हमरा के रोकिहें।' बाकिर उ ना कहली।' चले के बेर हम बड़की दिदिया के अंकवारि में भर लिहनी आ जोर-जोर से रोवे लागल रहनी। अनूओ रोवे लागल रहे, सभे ओहिजा जे जे रहे रोवे लागल रहे।  बड़की फुआ हम तोहरा के कबो नइखी भुला सकत'। अनु कहलस। अउरी हमरा लायक जवन जूरी जब कहब हम तइयार रहब।' एहि बीचे अनु के मेहरारू दउड़ के गाड़ी में से अटैची खोल के एगो नया साड़ी निकाल के लेके अइली। आ दिदिया के कुछ रुपया आ साड़ी देबे लगली। दिदिया उ साड़ी आ पैसा लिहली। हमनी के सब आदमी  रोअत घर के बहरी आ गइनी जा। गाड़ी में आ के बइठनी जा। पलट के देखनी त दिदिया के घर के केवाड़ी बंद हो गइल रहे। उनकर नातीन भा नाती जे भीतरी लड़े ख़ातिर मुंह बाई के खड़ा रहे लो ,उ लोग घर के बहरी तक छोडहुँ ना आईल लो। ना बड़की दिदिये।'

बस अब चले ख़ातिर तइयार रहे। थोरहिं देरी में बस अब मेन रोड प सरपट भागत रहे। अब सांझ होखे लागल रहे। अन्नू हमरा के अपना सीट प फेरू  से बोलवलस। ओकर आँखि भींजल रहे आ ओकरा के देख के हमरो आँखि भींज गइल। कहली,'जाए द का जाने बड़की दिदिया के भाग में का लिखल बा'। भगवान का जाने कइसन मउत लिखले बाड़े उनका भाग में।'

हम त सोंचत रहीं की अबहि तक जवन भइल तवन भइल। अब से हम बड़की फुआ के अपना संगे लेके घरे चलतीं। अन्नू कहे लागल ' हम त इहो कहे के तइयार रहनी की चल फुआ  आजुये हमरा संगे।'
हम अभी कहहिं वाला रहीं की तले चुन्नू बतवलस की ओकरा के फोटो तक नइखे खिंचे देत लो,त हम चुप हो गयिनी।ई सोंच के की जब ई लो फोटो नइखे खिंचे देत लो त संगे जाए कइसे दिहि लो।'

ठीके कइल जे ना कहले,बड़की दिदिया तहरा संगे आइबो ना करती ।आ तहर बात खाली जाइत।

'बाक़िर अब का होइ बड़की फुआ के'? अन्नू पूछलस।

'भगवान जानस का होइ! हम बोलनी ' अबहि तक जतना लोग के हम देखले बानी जे आपन कुल्ह ज़मीन-जयदाद अपना बेटी के नावे कईके, बेटी किहें रहल बा लो ओह लोग जे दुर्दशे भइल बा अंत में।
जमीन नावे भइला के बाद दु साल तक आछो-आछो रही ,बाकिर जसहि समईआ बीती लोग एकदम दूध में के माछी अस निकाल के फेंक देले। अपना घरहि के पिछवा के हरिमोहन बाबा के देख ल। उनकर का हाल भइल। बेटी के घरे मरलन। देहि में किरा पड़ गइल रहे। ना उनका के केहु जियते छुअल ना मरते।' भादो के भदवार में मुअल रहले।खूब बुनी होत रहे। केहु उनकर लाशो फूंके वाला ना रहे ओहिजा'। आखिर में गांवे के लोग काम आईल सब गाँव के लोग ओहिजा गइल तब उनकर लाश के किरियकरम भइल।उनकर भतीजा उनका के मुंहे आगी दिहलस। इहे हाल हमरा गाँव के सुभावती चाची के भइल रहे। बेचारी! के भीख मांग के आपन पेट चलावे के परत रहे।' ओह!। अउरी बड़की दिदिया ई मये कहानी जानत रहली,तबो इहे के बइठली। फेरू इनका इहें त अउरी दिक्कत बा। बिट्टी के कैंसर  बड़ले बा। कहीं इनका से पहिले उ मर गइल तब?  दमाद पहिले से जुआरी आ पियक्कड़ बा। हे !देवता लोग का होइ बड़की दिदिया के'।

'घबरा मत ।'हमनी के बानी जा नु'। बड़की के फुआ के अइसन हालत ना होखे देम जा।' अन्नू कहलस।

'हं ध्यान रखिहे बाबु'

'एगो  बात त बा  छोटकी फुआ।' अन्नू बोलल,बड़की फुआ के अइसन फ़ासिला में खाली उनके दोष नइखे, उनका देवरो लोग के बा। सब जने दुष्ट बाड़न। उ सब लोग बड़की फुआ के सेवा करत रहे लोग बाकी उपरे मन से,देखावे बदे। कुल्ह जाना के ऑंख उनका जमीने प गड़ल रहत रहे।

ई का कहत बार?

'पहिले-पहल जवना घरी बड़की फुआ हमरा किहें रहे आईल रहली त एक हाली इनकर देवर हमरा किहें आईल रहले। जवन पुलिस में बाड़न।भोरे-भोरे आईले आ कहे लगले भउजी चल गांवे,छोटकी भउजी बेमार बाड़ी। बुझात बा जे बचिहें ना। रावा के जल्दिये बोलवली ह।बाकिर बड़की फुआ ओह झूठ के जान गयिनी।हमरा से कहत रहली की मान ले बचवा की घरे केहु मरत होइ त ई ओहिजा ओकरा दवा-दारू नु केहु करी की हमरा के लियावे आ जाई।बाकिर उहो बड़की फुआ के सबसे कमजोर इस जानत रहे। तड़ से कहलस की रहिया में बिट्टी के घरवो पड़ी ना होखे त जात घरी बिट्टी से मिल लिहल जाइत। अतना सुने के रहे कि बड़की फुआ झट दे तइयार हो गइली।अउरी घण्टा भर के भितरे उ फुवा के लियाके चल गइले। बिट्टी के घरे रहे के चस्का उहे लगवले रहले। रास्ता त उहे देखवले रहे लो।

'बाक़िर हतना तड़ताड़िये में तोहरा किहें से बड़की दिदिया के काहे लेके गइले?'

'उनका डर रहे कि बड़की फुवा कहीं आपन मये जमीन हमरा नावे ना क देसु।' अन्नू कहलस ' बाकिर अइसन पाप हमरा में मनो में ना आईल रहे।' फेरू जब बड़की फुवा के ई बात पता चलल त उ अपना देवर के जम के गरियवली।'

'बाक़िर ई बात तोहरा कइसे पता चलल?'

'बड़किये फुवा'। अन्नू बोलल ' बड़की फुआ कहे लगली की पाप ओकरे मन मे रहे आ लछना तोहरा ऊपर लगावत रहलन। अन्नू बोललस' ई जमीनों जायदाद अजबे चीज बा। का का ना करवा दी।

' हमरा त इहो पता चलल बा कि ,बड़की फुवा के देवर लोग अपने में कुकुरझांउझ करे लागल रहे लोग। मन्नू बतावे लागल,मये जाना इहे चाहत रहे लो की बड़की फुवा कुल्ह जमीन उनके नावे के देसु। सब जाना अपना तरीका से बड़की फुवा के फुसलावे से लेके धमकावे तक  कुल्ह अजमावल लो, ओहि घरी बड़की फुवा घर छोड़ के बिट्टी के घरे चल गइली।'

'हम त अतना ले सुनले बानी की ,जवन जमीन फुवा बिट्टी के लिखले बाड़ी ओकरा प उनकर कुल्ह देवर लोग मुकदमा ,फौजदारी कइले बा।' चुन्नू कहलस।

'हो सकेला कइले होखस लो।' हम कहनी ' बड़की दिदिया के देवर लो एकदमे दुष्ट ह लो। अइसन ना रहित लो बड़की दिदिया अइसन काहे करती? बेटी के घरे भला जाई के अपना अगिला जनम काहे बिगड़ती। ई जन्म त उनकर बिगड़ल रहबे कइल जे जवानी आवे से पहिलहीं बेवा हो गईली, अउरी अब अंतिम समय मे बेटी के घरे जायके खाये रहे लगली,अगिलो जनम बिगाड़े ख़ातिर।

"रावा सब का कबे ले बखेड़ा खड़ा कइले बानी सभे?अन्नू के मेहरारू पिछला सीट प बइठल बुदबुदाइल, अरे उ गइल त अपना बेटिये के नु घरे बानी? बेटी के घरे बा जासु त केकरा लगे जासु? आ रहल बात जमीन जायदाद के त बेटी के लिख दिहली त का हो गइल? कवन आफ़त आ गइल! केकरा अपना जामल से मोह  ना होखेला।'

'हं इहो बात सहिये बा।' अन्नू अपना मेहरारू के हं में हं मिलावत बोलल।

'दुनिया कहाँ से कहाँ चल गइल। कतना बदल गइल। मये रिति रिवाज, परम्परा कुल बदल गायिल। इंहा ले कि बड़की  फुवा बदल गइली।
अन्नू के मेहरारू कहलस' बाकिर रवा लोग ना बदलनी।'तबे ले मार बेटी के घरे, बेटी के घरे के रट लगवले बानी सभे। अरे,ऐगो माई जब अपना बेटी  आ अउरी बच्चन के बीचे आपन पहिचान ढूंढे के चाहै ले, उ लोग के साथे आपन जिंनगी के अंतिम समय बितावल चाहे ले ,अउरी एह खतिर उ आपन कुल्ह लुटा देबे ले त ओह में का हरज बा?'

'एकरा में कुछू हरज नइखे कनिया'। हम कहनि,' बाकिर एहिंजा बात दोसर बा।'बड़की दिदिया त ओहिजा अपना बेटी के मोहमाया में फंस गइली।ओहिजा उ आपन लइकी के आपन जान के गइली। बाकिर बिट्टी आ उनकर दमाद उनका के त कामधेनु गाय मान लेले बा लो।बिट्टी के कैंसर होइ गइल बा। का जाने जिहि की मरी। अउरी दमाद बाबु त एक नमर के हवन जुआरी आ पियक्कड़। अब एह तरी रही त बड़की दिदिया के का होइ? हमरा त साफे लउकत बा बी बड़की दिदिया ओहिजा जा के फंस गायिल बाड़ी। उ मये उनका के ओहिजा सेवा करे ख़ातिर ना ,मेवा पावे ख़ातिर ले गइल बाड़न।देख ल अभी चारो महीना ठीक से ना भईल की कुल्ह लिखवा लेहले स। एह साफे बुझात बा कि ओह लो के नेत ठीक नइखे। अगर नेतिये ठीक रहित त उ चार दिन के लइका फ़ोटो खिंचे से मना करीत? आ उ लईकी हमनी से काहे लड़ित? का ओकरे खेत कटले रहनी जा हमनी के?'

'इहे बात हमरो गड़बड़ लागल' अन्नू के मेहरी बोलल, बाकिर फुवा जी के जवने निक बुझाए उहे करे दीं सभे।'

'हं अब त इहे होइए सकेला।'

'हम देखनी, हमरा आ पतोहू के बतीयवला के बीचे अन्नू सूते लागल रहे।' अब भगवान जानसु की सुतत रहे की ओकर नाटक कइले रहे। तबो हम थोरे घरी से ओकरा संगे  ओहि सीट प बइठल रहीं। बईठ के बस इहे सोंचत रहीं की का बड़की दिदिया ई कुल्ह बिट्टी के मोह में कइली? का लइका-फइका के मोह माई-बाप के एहि तरे बान्ह लेला? की साही आ गलती के पहिचान ना आदमी क पावे। जे तरे द्वापर में धृतराष्ट्र ,दुर्योधन के  झूठामोह भुला गइल रहले? का बड़की दीदीयो बिट्टी के झुठामोह में बन्हा गयींल बिया??

   'के जानत बा?'

हमरा त लइके-फइका नइखे। अगर बाल बच्चा रहित त का जाने हम एह बात के ठीक से बुझतीं। हम बाँझ बानी'। ,हम का जानी ई कुल्ह?

ई सोचिए के हम रोवे लागेनी। रोअत सिसकत अपना सीट प आके बईठ गइनी। हो सकेला की हमार दुःख से बड़ बा बड़की दिदिया के दुःख। हम सोंचत बानी की अगर जे हम बड़की दिदिया के जगह प होखती त का हमहुँ उहे करती बिट्टी ख़ातिर? जवन बड़की दिदिया करत बिया?' परम्परा अउरी संस्कार के एकदमे लाते मारत।

'के जानत बा?'

अउरी फेरू जब हम बड़की दिदिया नियन बूढ़ हो जाइब  त हमरा के देखी? बड़की दिदिया के यक्ष प्रश्न का हमरो यक्ष प्रश्न ना बन जायी?
तब हम कहाँ जाइब? लेकिन तबे ई सोंच के सुख मिलेला की हम भलहीं बाँझ बानी बाकिर बड़की दिदिया लेखा  बिधवा ना। हमार मर्द अभी जिंदा बाड़े। हमनी दुनो बेक़त साथे रह लेब जा। एकदूसरा के सेवा टहल करत।

हमनी के बस के  एगो ट्रक बड़ा जोर धइले ओवरटेक करत जोर-जोर से सिटी बजावत गुजरत जात बा। बहरी  अउरी अन्हार होखत चल आवत बा।अउरी ई अन्हार हमरा मन के भीतरी केनियो जा के उतर रहल बा।

हम फेरू रोवे लागल बानी। अउरी बस चलत जात बिया ,भड़भड़ात।
बुझात बा जे फेरू कवनो ठोकर (स्पीडब्रेकर) ह!

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बड़की दी का यक्ष प्रश्न
पृष्ठ- 175
मूल्य-175 रुपए

प्रकाशक
जनवाणी प्रकाशन प्रा. लि.
30/35-36, गली नंबर- 9, विश्वास नगर
दिल्ली- 110032
प्रकाशन वर्ष-2000

5 comments:

  1. एक बार पढना शुरू की तो अंत तक पढ़ती गयी हूँ...खाना खाए का हाथ बिना धुले सूख गया है,पूरी पुस्तक पढने की जिज्ञासा है सर जी...बिलकुल अपने घर की रिश्तेदारों की बात सी लगी...

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  2. हाय रे ये बुढ़ापा ! जब तक हाथ में माल, तब तक सब पूछें हाल l

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  3. भिगो गई..
    कहानी है यथार्थ राम जाने..
    वाह रे स्पीड ब्रेकर..

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  4. Truth of life written beautifully

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  5. बहुत ही मार्मिक परन्तु यथार्थ

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