शहर में उस रोज यह ख़बर सुलगते देर नहीं लगी कि एक पाकिस्तानी पकड़ा गया है। पर जब लोगों ने जाना कि वह पाकिस्तानी कोई और नहीं अब्दुल मन्नान हैं तो जो चिंगारी शोला बनना चाहती थी यकबयक फुस्स हो गई, पर फुसफुसाहट नहीं ख़त्म हुई। किसिम-किसिम की बातें, किसिम-किसिम के आरोप-प्रत्यारोप। बिलकुल घटाटोप ! सर्दियों का वह कोई दिन था। पर शहर में सर्दी पर इस ख़बर की गरमी तारी थी।
अब्दुल मन्नान जाति के
जुलाहा थे। जुलाहा भले ही थे अब्दुल लेकिन जाहिल नहीं थे। पढ़ने-लिखने में बचपन से ही अव्वल थे। अंगरेजी में एम. ए. कर यूनिवर्सिटी
टॉप किया और गोल्ड मेडलिस्ट बने। वह भी तब जब ज्यादातर मुस्लिम लड़के मदरसे में इस्लामी पढ़ाई भी पूरी नहीं कर पाते थे या फिर मदरसा से आगे नहीं जा पाते, लेकिन अब्दुल ने एम. ए. किया और जुलाहा का बेटा होने के बावजूद किया। सीमित साधनों में पढ़-लिख कर
टॉपर और गोल्ड मेडलिस्ट बन के अब्दुल ने अपने ख़ानदान का
नाम रौशन कर दिया। तभी उन के इस्तकबाल के
लिए उन की ससुराल से भी बुलावा आ गया। उन की ससुराल तब पूर्वी पाकिस्तान में थी। वह अपनी बीवी के साथ ससुराल रवाना हो गए। वहां भी उन का बड़ा स्वागत हुआ। हालां कि शुरू-शुरू में कुछ लोगों ने
मन्नान को हिंदुस्तानी जासूस कह कर बदनाम किया, लेकिन
उन के ससुर की वहां इतनी धाक थी कि यह दाग
मन्नान के सिर से जल्दी ही हट गया। ससुराल के लोग खाते-पीते लोग थे सो अब्दुल कुछ रोज वहीं रह गए। फिर एक डिग्री
कालेज में प्रिंसिपल हो गए और बाकायदा ससुराल में रह
कर जिंदगी का मजा लूटने लगे। कहने वाले कहते हैं कि वहां उन की एक साली थी, वह उस
पर लट्टू हो गए थे सो वहीं रहने
लगे। बहरहाल,
जो भी हो धीरे-धीरे वह वहीं के हो कर रह गए।
जिंदगी चैन से कट रही
थी कि तभी उन पर आफत बरपा हो गई। वह भी
सर्दियों के दिन थे। भारत पाकिस्तान में जंग शुरू हो गई। जंग ख़त्म होने के बाद पूर्वी
पाकिस्तान का अस्तित्व ख़त्म हो चुका था। अब नया देश बांगलादेश दुनिया के नक्शे पर उभर आया। लेकिन भारत पाकिस्तान के बीच जंग भले ही ख़त्म हो गई थी वहां बांगलादेश में आपस में लोगों में ख़ून ख़राबा जारी था। ख़ास कर बिहारी मुसलमानों की वहां ख़ैर नहीं थी। तब वहां माना जाता था कि बिहारी मुसलमान पाकिस्तान परस्त हैं। बांगलादेश बनने के पहले भी बिहारी मुसलमानों और बंगाली मुसलमानों में भारी मतभेद थे। बल्कि बांगलादेश बनने का यही बड़ा सबब बना। बिहारी मुसलमान और बंगाली मुसलमान तब के दिनों भी अगल बगल खड़े हो कर नमाज तो पढ़ लेते थे, लेकिन
शादी-ब्याह और खान-पान इन
के बीच नहीं था। रोटी और बेटी का रिश्ता नहीं था। दूसरे, बिहारी मुसलमानों की भाषा उर्दू थी जब कि बंगाली मुसलमानों की बांगला। एक दुश्वारी यह भी थी कि बंगाली मुसलमानों को लगता था कि उर्दू उन पर लादी जा रही है। उनको लगता था कि बिहारी उन का मजाक उड़ाते हैं। पर आबादी के हिसाब से बंगाली मुसलमान ज्यादा थे सो बिहारी मुसलमानों को जब तब सबक सिखाते रहते थे। पर ज्यादातर बिहारी मुसलमान आर्थिक रूप से संपन्न थे, ऊंची कुर्सियों पर थे। सो वह बंगाली मुसलमानों को मौका पाते ही रगड़ते रहते थे। नतीजतन दोनों वर्गों के बीच गहरी खाई खुदती गई। हालां कि तब के वहां के नेता शेख मुजीबुर्रहमान जो ख़ुद भी बंगाली मुसलमान थे, फिर
भी वे चाहते थे कि दोनों वर्ग मिल-जुल कर
रहें। पर बांगलादेश आजाद होने के बाद सत्ता उन्हों ने जरूर संभाल ली, लेकिन इस खाई को पाटने के पहले
ही उन की हत्या हो गई। ख़ून ख़राबा शुरू हो गया।
अब्दुल के ससुराल का मकान जला दिया गया था, जायदाद
लूट ली गई थी। अब्दुल के ससुर और एक साले की हत्या हो गई। बाकी लोग बचते-बचाते जान लिए पाकिस्तान भाग लिए। अब्दुल ने भी भाग कर बीवी-बच्चों समेत हिंदुस्तान की राह पकड़ी।
भाग कर अपने घर आए। घर
की छत के नीचे सुकून ढूंढ़ने। पर यहां तो वह पाकिस्तानी
डिक्लेयर हो चुके थे। बांगलादेश से ज्यादा आफत यहां थी। वहां तो ख़ून-ख़राबा था, यहां उस से भी ज्यादा
अविश्वास की नागफनी मुंह बाए खड़ी थी। और वो
जो कहते हैं न कि जैसे नागफनी का कांटा नागफनी को खुद चुभ जाए!
वही हालत हुई थी तब अब्दुल मन्नान की। हिंदू तो खुले आम उन्हें पाकिस्तानी जासूस कह कर ताना क्या कसते थे, लगभग जूता मारते थे,
लेकिन मुसलमानों में
भी कम अविश्वास नहीं था उन के प्रति। मुसलमान भी जल्दी उन से बात नहीं करते थे। करते भी तो सीधे मुंह नहीं। तो इस लिए कि अव्वल तो जुलाहों में पढ़ाई-लिखाई का अभाव था सो जाहिलियत ! दूसरे,
कहीं पुलिस पाकिस्तानी
होने के फेर में सब के गले में फंदा न डाल दे। तीसरे, पट्टीदार भी चाहते थे कि अब्दुल को पाकिस्तान भेज दिया जाए ताकि उन के हिस्से के मकान, जायदाद पर उन का कब्जा बना रहे।
वैसे भी हर दूसरे, तीसरे
रोज पुलिस आती अब्दुल को मय परिवार के उठा ले जाती पूछताछ के लिए। जाने कौन-सी पूछ-ताछ
थी जो ख़त्म नहीं होती थी और पुलिस फिर-फिर
पकड़ ले जाती। तो अब्दुल मन्नान की मदद में कोई खड़ा नहीं होता। अब्दुल अपना राशन कार्ड, पुरानी वोटर लिस्ट, अपने नाम पुश्तैनी मकान के
कागजात, अपनी पढ़ाई लिखाई के सर्टिफिकेट, यूनिवर्सिटी टॉपर
होने, गोल्ड मेडलिस्ट होने और अपने को सभ्य शहरी
होने की ढेरों दलीलें रखते। लेकिन सब
बेअसर !
पागल हो गए थे अब्दुल
मन्नान। खाने के लाले पड़ गए। फाका होने लगा। कोई मकान तक ख़रीदने या गिरवी रखने को तैयार न था। कोई मामूली-सा काम
या नौकरी देने को तैयार न था। अब्दुल काम
मांगने बाद में जाते, उन से पहले उन के पाकिस्तानी
होने की ख़बर पहुंची रहती। उन की पत्नी थोड़ी ख़ूबसूरत थीं सो थक हार कर पत्नी को साथ ले वह तमाम छोटे बड़े नेताओं, मौलानाओं, अफसरों के घर भी गए, सिर पटका, गिड़गिड़ाए, अपने सोलहो-आने हिंदुस्तानी होने का वास्ता दिलाया, सुबूत दिया, कुरआन की कसमें खाईं।
पर सब बेकार, सब बेअसर ! एक बार मय
बीवी बच्चे के जहर खा कर मरने की कोशिश भी की अब्दुल मन्नान ने। पर खाना न देने वाले, काम न देने वाले लोग ही उठा कर
उन्हें अस्पताल ले गए और वह सपरिवार बच गए। यह बात सारे शहर में आग की तरह फैल गई। हिंदुओं में तो फिर भी नहीं, मुसलमानों में थोड़ी-थोड़ी सहानुभूति अब्दुल के प्रति उपजने लगी। ऐसे ही मुसलमानों में एक थे मुहम्मद शफी।
मुहम्मद शफी एक
प्रिंटिंग प्रेस चलाते थे। प्रेस उन का काफी बड़ा था। इस प्रेस से वह उन दिनों सोलह पेज का एक साप्ताहिक अख़बार भी निकालते थे। और चूंकि तब शहर में कोई दैनिक अख़बार नहीं था सो उन के अख़बार की तूती बोलती थी। बनारस, लखनऊ से छप कर कुछ हिंदी, अंगरेजी
अख़बार तब वहां पहुंचते जरूर थे, कुछ
साप्ताहिक, पाक्षिक अख़बार और भी थे शहर में, पर जो हनक और रसूख मुहम्मद शफी के अख़बार की थी, किसी
और अख़बार की तब के दिनों बिलकुल नहीं
थी। मुहम्मद शफी ने भी बड़ा संघर्ष किया था। थे तो धुर देहात के। पिछड़े हुए तराई इलाके के और बीड़ी बना-बना कर पढ़ाई की थी।
सोशियोलाजी में एम. ए. थे।
पर अब्दुल मन्नान की तरह टॉपर या गोल्ड मेडलिस्ट नहीं थे। पर जिंदगी जरूर वह सलीके से ऐश करते हुए जी रहे थे। कुछ सालों तक मुहम्मद शफी ने दिल्ली के एक बड़े अख़बार में भी काम किया था और वहां के पोलिटिकल सर्किल में अपनी पैठ भी बनाई थी। प्रधानमंत्री तथा कई मंत्रियों के साथ अपनी फोटो भी अलग-अलग खिंचवा रखी थी उन्हों ने। उन
की प्रतिभा को देखते हुए पूर्वांचल के एक केंद्रीय
मंत्री उन्हें वापस यहां लाए और एक अख़बार निकालने का पूरा सेटअप दिया। लंबा चौड़ा
स्टाफ रखा। उन दिनों जब पत्रकार
चप्पलें चटकाते घूमते थे वैसे में हैंडसम सेलरी विथ कार एंड ड्राइवर दिया। तो मुहम्मद शफी ने भी अच्छा अख़बार निकाल कर तहलका मचा दिया। उन की महत्वाकांक्षाएं बढ़ने लगीं। जल्दी ही उन्हों ने मंत्री जी का सब कुछ गड़प कर अपना अख़बार शुरू कर दिया। यह अख़बार भी चल निकला। अब शफी ही शफी थे, हर तरफ। इसी बीच संसदीय चुनाव आ गया। शफी ने अपने तराई क्षेत्र की सीट से कांग्रेस का टिकट जुगाड़ लिया। प्रतिद्वंद्वियों को
अच्छी टक्कर दे वह जीत
भी रहे थे लेकिन तब के जनसंघियों ने कांग्रेस उम्मीदवार शफी को हराने के लिए एक निर्दलीय मुस्लिम उम्मीदवार खड़ा कर
दिया था। वह निर्दलीय
मुस्लिम उम्मीदवार शफी के काफी मुस्लिम वोट काट रहा था। शफी ने उसे कई बार चुनाव में अपने पक्ष में बैठाने की कोशिश की। पैसे आदि का प्रलोभन दिया, डराया धमकाया। गरज यह कि साम, दाम,
दंड, भेद सब अपनाया पर वह निर्दलीय मुस्लिम उम्मीदवार शफी की बातों, धमकियों
या प्रलोभन में आया नहीं। उसे शफी के
विरोधियों ने दरअसल समझा दिया था कि अब तो तुम्हीं
जीतोगे और वह इसी गुमान में अड़ा रहा। चुनाव में शफी को कड़ी टक्कर देता रहा कि उस की एक रात अचानक हत्या हो गई। तोहमत शफी के सिर आ गई। शफी कहते रहे, चिल्लाते रहे कि, ‘यह मुझे हराने
की जनसंघियों की साजिश है, मुझे फंसाया जा रहा है।’ पर शफी की किसी ने एक न सुनी। मुसलमानों ने
भी नहीं। बल्कि क्षेत्र के मुसलमानों ने तो उन से नफरत शुरू कर दी। शफी चुनाव हार गए। हत्या दरअसल उस
निर्दलीय मुस्लिम प्रत्याशी की नहीं वास्तव में
मुहम्मद शफी की हुई थी। राजनीतिक हत्या !
शफी के हारने में यह
हत्या तो एक फैक्टर था ही, एक फैक्टर और था। दरअसल शफी जब दिल्ली में थे तब एक हिंदू परिवार में उन का आना जाना बहुत बढ़ गया था। पैसे और अपने रसूख के दम पर उन्हों ने उस परिवार की मालकिन को गांठ लिया। यह लोग भी हालांकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इटावा के ही रहने वाले थे,
फिर भी शफी और उन लोगों के लिए काफी था यू. पी.
- यू. पी. !
हिंदू-मुस्लिम
की दीवार भी पैसे के दबाव और रसूख की आंच में बह गई। वह परिवार व्यवसाई था और शफी ने अपने रसूख के दम पर उन के बिजनेस को ख़ूब प्रमोट करवाया। कोई दिक्कत नहीं थी। अब तक उस महिला से शफी के सरोकार काफी ‘प्रगाढ़’ हो चले थे। हालां कि शफी शादीशुदा थे पर उन की अनपढ़ जाहिल पत्नी तराई के उन के गांव में रहती थी। शफी पहले तो उस के लिए भागे-भागे गांव पहुंचते थे, लेकिन तब लड़कपन था। पर अब तो वह उस की चर्चा तो दूर अपने को कुंवारा ही फरमाते। बाद में जब उन
का इस शहर में भी वापस आना हुआ तो भी उन्होंने उस परिवार
से नाता नहीं तोड़ा।
प्रगाढ़ ही रखा। बल्कि उस परिवार का आना जाना बाद में इस शहर में भी हो गया। बाई प्लेन। सारे खर्चे-बर्चे
शफी उठाते। इस आने जाने के बीच
उस हिंदू परिवार की मालकिन की दो बेटियां भी बड़ी होने लगीं। एक बेटी अंजू तो बला की ख़ूबसूरत थी। वह बोलती थी तो लगता जैसे मिसरी फूट रही हो। उस की कानवेंटी हिंदी अजीब-सा कंट्रास्ट घोलती। चलती तो लगता जैसे किसी फूल की कली फूट रही हो। उस के होंठ भी बड़े नशीले थे। और आंखें तो ऐसी गोया ख़य्याम की रुबाई हों। उस की शोख हंसी से लोगों के दिलों में मछलियां दौड़-दौड़ जातीं। तो ऐसे में शफी कौन से ब्रह्मचारी थे ? वह कैसे न फि होते इस
अंजू नाम की लड़की पर। क्यों न मर मिटते उस पर ! भले वह उन की माशूका की बेटी थी। तो क्या, शफी ने भी रूसी उपन्यास ‘लोलिता’ पढ़ रखा था। फिर पड़ गए वह भी इस
अंजू रूपी लोलिता के कपोलों के किलोल में। उस के कपोलों पर लटकती जुल्फों के असीर हो गए। बतर्ज मीर ’हम हुए तुम हुए कि मीर हुए, सब
इसी जुल्फ के असीर हुए।’
अंजू भी सोलह-सत्तरह
के चौखटे में थी। सेक्स के पाठ में जल्दी ही प्रवीण हो गई शफी के साथ। शफी के हाथ क्या पड़े उस पर कि उस की रंगत ही बदल गई। देह उस की गदराने लगी। अंजू की मां को कुछ-कुछ भरम-सा हुआ, शक-शफी पर भी गया पर जब तक शक पक्का होता हवाता बात बहुत आगे बढ़ चुकी थी। अंजू शफी के बच्चे की मां बनने वाली थी। अब क्या करे
अंजू ? क्या करे अंजू की मां ? बात अंजू के पिता तक पहुंची। उन्हों ने माथा पीट
लिया। बोले,
‘मुह काला करने के लिए
इसे मुसलमान ही मिला था ?’ अब उन्हें कौन समझाता भला कि यह मुसलमान उन के घर में बरसों से सेंध लगाए पड़ा है। कौन बताता उन्हें कि बेटी तक तो वह बाद में आया, पहला पड़ाव तो मां बनी जो आप की
बीवी है। आप की बीवी ही पुल बनी आप की बेटी तक शफी को
पहुंचाने में। लेकिन बिजनेस प्रमोट करवाने
के चक्कर में आप की आंख बंद रही तो कोई क्या करे भला ?
ख़ैर अंजू के मां बनने
की ख़बर से पूरा घर तबाह था। अगर कोई निश्चिंत था तो वह खुद अंजू थी। शफी ने सपनों के ऐसे शहद चखा रखे थे अंजू को, प्यार के ऐसे पाठ पढ़ा रखे थे अंजू को, कि उसे कोई फिक्र होती भी तो
कैसे ? जिंदगी के थपेड़ों की उसे थाह भी नहीं थी।
वह तो अपनी ख़ूबसूरती की चाश्नी में मकलाती
फुदकती रहती।
अंततः मां ने पहल की
पूछा, अंजू से, ‘तू क्या चाहती है ?’
‘किस बारे में ?’ अंजू चहकती हुई प्रति-प्रश्न
पर आ गई।
‘इस बच्चे के बारे में।’ मां ने साफ
किया, ‘तेरे होने वाले बच्चे के बारे में?’
‘जैसा शफी साहब कहेंगे !’ वह फिर चहकती हुई बोली।
‘तुम ने कोई बात की है इस बारे में शफी से ?’
‘नहीं, बिलकुल नहीं।’
‘करेगी भी ?’
‘जरूरत क्या है ?’
‘जरूरत है।’ मां बोली, ‘मैं ट्रंकाल
बुक करती हूं। बात तू कर !’
‘जल्दी क्या है अभी ?’ अंजू बोली, ‘अगले हफ्ते तो
वह आने वाले हैं?’
‘कौन आने वाले हैं ?’
‘शफी साहब !’ अंजू यह कहती हुए लिरिकल हो गई।
‘अगले हफ्ते तक नहीं रुक सकती मैं।’ मां बोली, ‘तू आज ही बात कर!’
‘तो तुम ट्रंकाल बुक करो मम्मी !’
फोन पर बात के बाद मां
ने अंजू से पूछा, ‘तो फिर ?’
‘ओह मम्मी !’ अंजू मां के गले में बाहें डालती हुई बोली, ‘डोंट वरी, वह शादी के लिए
तैयार हैं !’
‘कौन शादी के लिए तैयार हैं ?’ मां ने चकराते
हुए पूछा।
‘शफी साहब !’ अंजू इतराती हुई बोली, ‘और कौन शादी के लिए तैयार होगा?’ वह अपने पेट पर हाथ रखती हुई बोली, ‘जिस का बच्चा
है वही तो तैयार होगा !’
‘ओफ्फ !’ कह कर मां ने माथे पर हाथ रख लिया। बोली, ‘तुझे पता है कि शफी तुझसे दोगुनी
उमर से भी ज्यादा का है ?’
‘पता है मम्मी।’ वह बोली, ‘दिस इज नाट
माई प्राब्लम !’ उस ने जोड़ा, ‘माई प्राब्लम इज दैट आई लव हिम !’ मां का मन हुआ
कि अंजू को बताए कि तुझे पता है, तेरा
शफी मुझ से भी लव करता रहा है ? पर यह सवाल वह पी गई। बतातीं
भी तो कैसे बतातीं, बेटी
से भला यह और ऐसी बात !
शफी ने सचमुच अंजू से
शादी कर ली। शहर में यह बात तेजी से फैली कि शफी ने एक नाबालिग हिंदू लड़की को भगा फुसला कर शादी कर ली ! इस
शादी की हवा इतनी तेज बही शहर
में कि एक बार तो हिंदू-मुस्लिम फसाद की नौबत आ गई। पर गनीमत कि बात सिर्फ टेंशन तक आ कर ही निपट गई। बाद में शफी ने अपने प्रोग्रेसिव होने का सुबूत दिया। अंजू का नाम अंजू ही रहने दिया। उसे मुस्लिम बनाने पर जोर नहीं दिया। न सिर्फ इतना बल्कि अंजू के साथ वह बाकायदा होली, दीवाली भी मनाते और अंजू उन के
साथ ईद, बकरीद मनाती। अंजू के एक बेटी हुई। उस के
तालीम की अच्छी से अच्छी व्यवस्था की
शफी ने और बाद में उसे नैनीताल के एक बोर्डिंग स्कूल में डाल दिया। यह अलग बात है एक बच्ची की मां बन जाने के बावजूद अंजू के हुस्न में कोई कटौती नहीं हुई उल्टे इजाफा हुआ। कई बार तो शफी ने अपनी तरक्की के लिए अंजू के हुस्न की सीढ़ी का इस्तेमाल किया और ख़ूब किया। इतना ही नहीं अंजू की छोटी बहन पर भी शफी ने डोरे डाले और उस का भी ख़ूब इस्तेमाल किया। पर अंजू के हुस्न के आगे वह फिर भी छोटी पड़ती। सुंदरता में अंजू के आगे वह कहीं ठहरती भी नहीं थी। तो एक यह
फैक्टर भी शफी के चुनाव के खि़लाफ गया। कि शफी ने मुस्लिम बीवी को छोड़ हिंदू औरत को रख लिया।
शफी ने फिर-फिर चुनाव
लड़ा और फिर-फिर हारे। कांग्रेस से टिकट नहीं मिला तो निर्दलीय लड़े। संसदीय चुनाव लड़े, नहीं जीते तो विधानसभा के चुनाव
लड़े। फिर भी जीत उन की झोली में नहीं आई। क्यों कि उन की तो राजनीतिक हत्या हो चुकी थी। चुनावी राजनीति में, वोट की राजनीति में मुसलमान उन के खि़लाफ थे। सो वह चुनाव हारते रहे। पर व्यावहारिक राजनीति में तो शफी की तूती बोलती थी। शहर में उन दिनों वह ‘मिनिस्टर
विदआऊट पोर्टफोलियो’ कहे जाते थे। कुछ अपनी बुद्धि, तिकड़म और जोड़-तोड़ की महारथ के दम पर
तो ज्यादा कुछ अपनी पत्नी अंजू के
हुस्न के दम पर। हालां कि शफी थे जीनियस, लेकिन राजनीति और अख़बार दोनों एक साथ साधने में वह ‘सिद्ध’ नहीं हो पाए। दो नावों में पांव रखना
उन्हें भारी पड़ा। लोग कहते थे कि अगर शफी साहब ने सिर्फ पत्रकारिता की होती तो वह बहुत बड़े पत्रकार हुए होते और जो सिर्फ राजनीति की होती तो बेहद सफल राजनीतिज्ञ हुए होते। पर दोनों के फेर में न इधर के हुए,
न उधर के। हुस्न का हसिया उन को काटता रहा ! जो
भी हो तमाम मंत्री, तमाम अफसर, तमाम नेता और तमाम लोग
मुहम्मद शफी पर मेहरबान थे उन दिनों। और यही मुहम्मद शफी अब अब्दुल मन्नान पर मेहरबान होने जा रहे थे।
शफी ने आदमी भेज कर
मन्नान को बुलवाया। मन्नान से पहले तो सहानुभूति जताई फिर सारा हाल जाना। उन के सारे कागजात देखे। पूर्वी पाकिस्तान के कालेज में उन के
प्रिंसिपल वाला नियुक्ति पत्र भी देखा। मन्नान से कहा कि ‘आप पढ़े लिखे हैं। अपनी पूरी कहानी खुद लिख
डालिए।’ मन्नान ने लिखा और पूरे दिल से लिखा। सारी तकलीफ, सारा अपमान, सारी जिल्लत पूरी संवेदना और शऊर से ब्यौरेवार लिखा। मन्नान के इस
लिखे को शफी ने थोड़ा ‘रीटच’ किया और अपने अख़बार में मय मन्नान और उन
के परिवार के फोटो सहित छापा। हेडिंग लगाई, ‘मैं कैसे नहीं हूं हिंदुस्तानी !’ दिल दहला देने वाले, रोंगटे खड़े कर देने वाले इस लेख को पढ़ कर लोगों की आंखें फैल गईं। फिर सब देख दाख कर शफी ने एक बड़े वकील से कंसल्ट किया। वकील भी मुसलमान था। उसे कुरआन शरीफ का वास्ता दिया, फिर कंसलटेंसी फीस दे कर कानूनी पेचीदगियां जानीं, तब
अफसरों से संपर्क किया। दिल्ली के राजनीतिक संपर्कों को खंगाला। विदेश
मंत्रालय से लगा गृह मंत्रालय तक पैरवी करवाई और इस सब के लिए
शहर के मुसलमानों से चंदा लिया। मन्नान के पास
तो फूटी कौड़ी नहीं थी, शफी अपना पैसा गलाना नहीं चाहते थे सो कुछ अमीर मुसलमानों को सेंटीमेंटल गिरफ्त में लिया, बताया
कि यह आफत तो किसी भी उस मुसलमान पर आ सकती है, जिस
की नाते-रिश्तेदारी कभी भी पाकिस्तान में रही हो। तो एकजुट होना जरूरी बताया। फिर अपना रसूख दिखाया और भारी भरकम चंदा बटोर लिया था। जो भी हो मन्नान का काम पूरा न सही, निन्यानबे फीसदी हो गया था। केस चलना था और लोकल इंटेलिजेंस यूनिट यानी एल.
आई. यू. में हर महीने
हाजिरी लगानी थी।
मन्नान, शफी
के इस किए से उन के गुलाम से हो गए। अंततः शफी ने मन्नान को अपने प्रेस का मैनेजर भी बना दिया। मन्नान की बेगम भी पढ़ी लिखी थीं, उन्हें लड़कियों के एक मुस्लिम स्कूल इमामबाड़ा में टीचरी मिल गई। मन्नान की मेहनत और शफी की इनायत से मन्नान के परिवार की गाड़ी चल निकली क्या, दौड़ पड़ी। अब मन्नान के दिन अमन चैन से कट रहे थे। सब से
बड़ा लड़का हैंडलूम के पुश्तैनी कारोबार में लग गया
था। शादी भी हो गई थी। दूसरा लड़का उन का अब
यूनिवर्सिटी पढ़ने जाने लगा था, तीसरा इंटर में था। एक लड़की थी उस की शादी हो गई थी और अब वह दूसरे लड़के की शादी के लिए फिक्रमंद हो चले थे।
हालां कि शफी के आफिस
में काम थोड़ा ढीला चल रहा था। कई बार तो कर्मचारियों
को वेतन की मुश्किल हो जाती। कई बार हफ्ते-दस रोज की देरी हो जाती वेतन बंटने में। कर्मचारी आते मैनेजर मन्नान से एडवांस मांगते तो मन्नान छूटते ही कहते, ‘जहर खाने को पैसा नहीं है और तुम लोग एडवांस मांग रहे हो।’ वह कहते, ‘पैसा होता तो सेलरी न तुम लोगों को बांट देता !’
मन्नान अब बूढ़े हो चले
थे पर उन के काम में कहीं कोई कमी नहीं थी। फिर भी प्रेस में दिक्कत थी तो मन्नान के नाते नहीं शफी की पॉलिसी के नाते! शफी ने दरअसल अब दिल्ली से एक उर्दू अख़बार भी निकालना शुरू कर दिया था। सारा पैसा वह उसी में एडजस्ट कर देते। दूसरे, प्रेस
में अब नई-नई टेक्नीक आ चली थी, कंप्यूटर
की आमद हो गई थी सो काम भी कम होता जा रहा था। टी.वी.
वगैरह ने अख़बारों का यूं ही धुआं निकाल रखा था। मन्नान कई बार इस तंगी से आजिज आ प्रेस की नौकरी छोड़ अपना कोई कारोबार लगाने की भी योजना बनाते लेकिन शफी की इनायतों की याद उन्हें रोक लेती। जैसे-तैसे
वह काम चला रहे थे।
मन्नान उस रोज आफिस
में आ कर बैठे ही थे कि तभी पुलिस आ गई। दारोगा ने कहा कि, ‘जरा आइए पुलिस आफिस चलिए !’
‘आखि़र बात क्या है ?’
‘मन्नान ने परेशान हो कर पूछा।’
‘कुछ नहीं।’ दारोगा बोला, ‘बस रुटीन बात करनी है।’
‘लेकिन मामला तो अब सब ख़त्म हो चुका है।’ मन्नान बिफरे।
‘हां,
फिर भी कुछ बात करनी है !’
‘चलिए !’ कह कर मन्नान आफिस से चल दिए। इकट्ठा हुए
कर्मचारियों को तसल्ली दी। बोले, ‘कुछ नहीं
रुटीन बात करनी है। तुम लोग काम करो!’
पर मन्नान जब दारोगा
के साथ पुलिस आफिस पहुंचे तो वहां उन की पत्नी, बच्चे सभी
बैठे मिले तो उन का माथा ठनका। उन्हें बताया गया कि उन्हें
सपरिवार हिंदुस्तान
छोड़ने का आदेश हो गया है। यह सुनते ही मन्नान के होश उड़ गए। पत्नी, बच्चे अलग रोए जा रहे थे। मन्नान की बात कोई सुनने को तैयार नहीं था। आखि़र वह अपने लिखे पुराने लेख की हेडिंग चिल्लाने लगे, ‘कैसे नहीं हूं मैं हिंदुस्तानी !’
वह बार-बार यह
हेडिंग चिल्लाते। पर कोई सुनने वाला ही नहीं था।
अंततः दोपहर के समय एक
अफसर के सामने उन्हें पेश किया गया तो मुख़्तसर में अपना सारा किस्सा मन्नान ने बयान किया। अफसर ने मन्नान के साथ सहानुभूति जताई, लेकिन असमर्थता जताते हुए कहा कि, ‘मैं आप की कोई मदद नहीं कर सकता।’ उस ने बड़े सर्द ढंग से बताया, ‘आदेश दिल्ली
से आया है। केंद्रीय गृह मंत्रालय का आदेश है !’
‘लेकिन अब तो जहां मैं रहता था, जहां मेरी ससुराल थी, पाकिस्तान में नहीं है।’ उन्हों ने जोड़ा, ‘पूर्वी पाकिस्तान तो अब रहा नहीं। कब का ख़त्म हो
गया !’ मन्नान ने घिघिया कर एक और पासा फेंका।
‘तो आप को पाकिस्तान भेजा भी नहीं जा रहा !’ अफसर बोला, ‘आप को, आप के परिवार को, आप के
ही वतन बांगलादेश भेजा जा रहा है।’
‘क्या कहा ?’ मन्नान लगभग रोने लगे, ‘बांगलादेश ?’
‘जी !’ अफसर बोला, ‘जितनी जल्द पॉसिबिल हो आप यह देश छोड़ दीजिए!’
‘पर यह तो मेरा ही देश है !’ मन्नान रोते
बिलखते बोले। लंबे चौड़े मन्ना
ने दौड़ कर अफसर के
पांव पकड़ लिए और बोले, ‘साहब आप हम सबको यहां फांसी लगवा दीजिए पर हमें बांगलादेश मत भेजिए !’ वह बिलबिलाए, ‘वहां तो हम लोग कुत्तों की
मौत मारे जाएंगे !’
‘क्यों ?’ अफसर हैरान हो गया।
‘क्यों कि हम बंगाली मुसलमान नहीं, बिहारी मुसलमान हैं।’ मन्नान अफसर के पैर पकड़ कर
बोले, ‘सर,
कुछ भी कर दीजिए पर कुत्ते की मौत मरने के लिए हमें बांगलादेश मत भेजिए !’ वह बोले, ‘वहां सब हमें भून कर खा जाएंगे। पिछली ही बार
किसी तरह जान बचा कर भाग कर आए थे।’
‘आर्डर हम कैसे बदल देंगे ?’ अफसर फिर धीरे
से बोला,
‘गृह मंत्रालय का आर्डर ! आप पढ़े लिखे आदमी हैं, समझ सकते
हैं। रोने गिड़गिड़ाने से कुछ नहीं होने वाला।
क्यों कि चीजें न तो आप के हाथ में हैं, न ही मेरे हाथ में।’
कह कर अफसर उठ खड़ा
हुआ। जाते-जाते बोला, ‘आज ही आप को यह शहर छोड़ देना है। भले ही आधी रात तक ! आप जब जाना चाहें। हमारी फोर्स
आप के साथ जाएगी। बार्डर तक।
बांगलादेश के अधिकारियों के सिपुर्द कर के ही आएगी।’
चलते-चलते
वह मुड़ा और बोला, ‘तब तक आप अपने घर से जरूरी सामान, कपड़े लत्ते, पैसे वगैरह किसी को भेज कर मंगवा लें। जिस भी किसी से मेल
मुलाकात करनी हो, कर करा लें।’ वह बोला, ‘मानवता के नाम पर बस इतनी ही मदद हम आप की कर सकते हैं।’
‘दो एक दिन भी नहीं टल सकता ?’ मन्नान
स्थितियों को समझते हुए बोले।
‘बिलकुल नहीं।’ अफसर बोला, ‘क्यों कि आप
के सपरिवार अरेस्ट की ख़बर दिल्ली
टेलेक्स से भेज दी गई है।’
‘ओफ्फ !’ कह कर मन्नान अफसर के पीछे-पीछे
कमरे से बाहर आ गए।
मन्नान पुलिस आफिस के
बरामदे में आ कर बैठ गए। मन्नान से मिलने आने वाले धीरे-धीरे बढ़ते जा रहे थे। पहले वाली स्थिति अब नहीं रही थी।
पहले जब वह नए-नए बने बांगलादेश से भाग कर यहां
आए थे तो शहर के क्या हिंदू, क्या मुसलमान बात करने तक को तैयार नहीं थे। पर अब सूरत बदल गई थी। मन्नान को पाकिस्तानी करार दे कर पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है यह ख़बर पूरे शहर में आग की तह फैल गई। जो जहां था, मन्नान से
मिलने भागा। कोई उन के घर गया तो कोई उन के दफ्तर ! फिर
पता करते-कराते सब के सब पुलिस आफिस आते गए। शुरू-शुरू में मर्द ही आए पर बाद में सुबकती-रोती औरतें भी आने लगीं। मन्नान की बेगम के कालेज की टीचरें, प्रिंसिपल
यहां तक कि स्टूडेंट्स तक आ गई थीं। मुहल्ले की औरतें, रिश्तेदारों
की औरतें, दोस्तों की औरतें भी आई थीं। कुछ ही समय
में पुलिस आफिस दाढ़ी वाले मर्दों और बुर्के
वाली औरतों से ठसाठस भर गया। हर कोई मन्नान को तसल्ली दे रहा था। भरोसा दिला रहा था, ‘घबराएं नहीं सब दुरुस्त हो जाएगा। अल्ला मौला पर यकीन कीजिए !’ हर कोई अपनी औकात भर दौड़ धूप भी कर रहा था। भीड़
अब पुलिस आफिस से बाहर की सड़क पर भी पसर रही थी।
लगता था जैसे शहर के सारे मुसलमान
पुलिस आफिस आ गए हों।
मुसलमान ही क्यों धीरे-धीरे मन्नान के हिंदू दोस्तों, परिचितों की भी भीड़ आ रही थी। पर हिंदू फिर भी मुसलमानों
से कम
थे। मन्नान के दफ्तर
के लोग भी आगे पीछे लगे थे। मुहम्मद शफी
की बेगम अंजू भी आ गई थीं, इधर-उधर पुलिस अफसरों से बात भी वह कर रही थीं। अपने हुस्न का सागर छलकाती हुई, लोगों
को भरमाती हुई। पर बात नहीं बन
रही थी। तभी किसी मौलवी ने मन्नान से जरा जोर से पूछा ताकि
अंजू बेगम भी सुन लें, ‘अरे मन्नान, ये शफी कहां हैं, दिखाई नहीं दे रहे ?
कहो कि अपनी पालिटिकल चाभी घुमाएं दिल्ली में !’
‘शफी साहब हैं कहां यहां ?’ मन्नान थोड़ा
अदब से बोले,
‘वो तो दिल्ली में हैं।’
‘तो उन को दिल्ली ख़बर करो !’
‘कोशिश बहुत की।’ अंजू बेगम घाव
पर शहद घोलती हुई बोलीं, ‘पर वह होटल से निकल चुके हैं। दो चार जगह और ट्राई किया ट्रेस नहीं हो रहे।’ वह बोलीं, ‘होटल में मैसेज छोड़ दिया है। कि आते ही घर पे फोन
करें।’
‘घर पे फोन सुनेगा कौन ? आप तो यहीं हैं।’ मौलवी साहब ने फिर सवाल फेंका।
‘नहीं मेरी डाटर है। सर्वेंट भी है !’ अंजू बेगम
सफाई देती हुई एक तरफ
निकलती हुई बोलीं, ‘अभी मैं फिर फोन कर के आती हूं।’
‘ओह !’ मौलवी ने दाढ़ी पर हाथ फेरा, माथा सहलाया। बोले, ‘खुदा रहम करे तुझ पर मन्नान, लेकिन
मानो ना मानो यह आग फिर मियां शफी की ही लगाई हुई है !’
‘अब क्या बताएं मौलवी साहब !’ रुआंसे होते
हुए मन्नान ने अपना सिर मौलवी के कंधे पर रख
दिया और सिसक-सिसक कर रोने लगे। रोते-रोते कहने
लगे, ‘मैं ने तो उन की ख़ातिरदारी में कोई कसर छोड़ी नहीं। जिंदगी उन के नाम लिख दी।’ रुमाल से आंखें पोंछते हुए मन्नान बोले, ‘फिर भी उन्हों ने ऐसा किया तो क्यों कर
किया ? समझ में नहीं आता !’ मन्नान बोले, ‘चाहता तो कोई और कारोबार कर
सकता था,
यूनिवर्सिटी या किसी और डिग्री कालेज में पढ़ा सकता था,
तमाम और काम थे। पर मैं ने ऐसा कुछ भी नहीं किया। यह सोच कर कि यह जिंदगी तो शफी साहब के लिए ही जिऊंगा। चाहे जो हो जाए।’ कह कर मन्नान फिर रोने लग गए।
‘मत रोओ मन्नान ! ख़ुदा पर यकीन करो।’ मौलवी साहब बोले।
‘पर शफी ने ऐसा किया क्यों ?’ एक जनाब ने
पूछा मन्नान से।
‘उन को किसी ने समझा दिया था कि मैं अब अपना कारोबार शुरू करने जा रहा हूं।’ मन्नान बोले, ‘उन को लगा कि उन के प्रेस का मैं पटरा बिठा दूंगा और उन्हीं के लोगों को तोड़ कर अपने यहां उठा ले जाऊंगा। जैसा कि उन्हों ने खुद बाजवक्त नेता जी के साथ किया था।’
‘क्या सचमुच ऐसा कर रहे थे आप ?’
‘कुछ नहीं इस हिंदू औरत ने शफी की जिंदगी नरक कर दी।’ एक दूसरे बुजुर्ग मौलाना बीच
में बात काटते हुए बोले, ‘इसी की वजह से शफी चुनाव हारा, नहीं मिनिस्टर हुआ होता। इसी ने शफी को मुसलमानों से काटा। साला अच्छा ख़ासा मुसलमान था शफी ! हिंदू हो गया।’ वह बोले, ‘अब तो साहब शफी सिर्फ नाम का ही मुसलमान रह गया है और ख़तने से ! बाकी तो वह अब हिंदू ही है।’ वह बोलते जा रहे थे, ‘होली खेलता है, दीवाली के दीए जलाता है खुल्लमखुल्ला ! क्या पता घर में बैठ कर गीता, रामायण भी पढ़ता हो इस छिनाल के
कहे पर।’
‘क्या यह सब बक रहे हो !’ मौलवी साहब बोले, ‘यहां कुछ हिंदू
लोग भी आए हैं।’
‘तो आएं न ! कौन मना करता है।’ मौलवी बोले, ‘यह तो मन्नान भाई का व्यवहार है जो सब लोग इन की मिजाजपुर्शी में आए हैं। शफी के नाते तो हम लोग आए भी नहीं हैं। न ही इस छिनाल हिंदू औरत के नाते आए हैं।’
‘अब चुप भी रहिए जनाब !’ एक दूसरे मुस्लिम बोले।
‘क्यों चुप रहें।’ मौलाना बोले, ‘जरूर इस हिंदू छिनाल के भड़काने में शफी आ गया होगा तभी शफी ने मन्नान के खि़लाफ यह किया।’
‘नहीं ऐसा बात नहीं है।’ मन्नान से चुप
नहीं रहा गया। बोले, ‘अंजू जी सचमुच बड़ी नेक
औरत हैं। उन के बारे में और तो बहुत कुछ कहा जा सकता है, लेकिन हिंदू-मुस्लिम वाली बात करना सरासर गुनाह होगा।’ मन्नान इस तकलीफ की घड़ी में भी
बोले, ‘हिंदू-मुस्लिम के खाने में अंजू जी नहीं जीतीं। वह सचमुच इस सब से ऊपर हैं। बड़ी नेक औरत हैं !’
‘तो यह ....?’
‘उलटे शफी साहब ने इन की जिंदगी नरक कर दी।’ मन्नान बोले, ‘शफी साहब की बेटी की उम्र है इन की पर बहकावे में उन की बेगम बन गईं। तब जब कि शफी साहब के पहले इन की मां से ताल्लुकात थे !’
‘क्या ?’ मौलवी साहब ने माथे पर हाथ फेरा। बोले, ‘तौबा, तौबा ! फिर तो बड़ा नीच है शफी !’
‘आप लोग नहीं जानते शफी साहब के बारे में अभी पूरी तरह !’ मन्नान बोले, ‘अंजू बेगम की तो जिंदगी वह नरक कर ही चुके हैं, अपनी
तरक्की के लिए इन्हें सीढ़ी बनाने में भी वह जरा भी गुरेज
नहीं करते।’
‘क्या ?’
‘एक से एक मिनिस्टर, नेता, अफसर आखि़र क्यों शफी साहब के
यहां गिरे रहते हैं।’
‘तो यह कारोबार भी करता है शफी ?’
‘अब तो यहां अंजू बेगम और दिल्ली में अंजू बेगम की छोटी बहन सोनम!’ मन्नान बोले, ‘अब सोनम से शफी साहब ने शादी तो नहीं की है
बाकायदा पर वह भी उन की लगभग दूसरी बेगम हैं और दूसरी
सीढ़ी !’
‘छीः छीः !’
‘आप लोग नहीं जानते शफी साहब को। नहीं जानते कि वह भीतर से और क्या-क्या हैं !’ मन्नान बोले, ‘बहुत-से राज
हैं, इस सीने में दफन हैं, मत
खुलवाइए!’
‘यह सब जानते हुए भी आप शफी के साथ बने रहे ?’
‘बहुत एहसान हैं भई उन के मुझ पर।’ मन्नान बोले, ‘कहा न जिंदगी उन के नाम लिख दी। अरे, आज
पुलिस आफिस मेरे लिए भरा पड़ा है। पर एक दिन वह भी था जब कोई मुझ से बात करना नहीं गवारा करता था, तब शफी साहब ने मेरा साथ
दिया था, मुझे शरण दी और मेरी, मेरे बीवी बच्चों की हिफाजत की!’ कैसे भूल सकता हूं उन का वह एहसान !’ मन्नान बोले, ‘पर आज का दिन
और यह फजीहत,
अल्ला ने जिंदगी रखी तो
यह भी नहीं भूलूंगा।’ मन्नान बोलते-बोलते
थोड़ा नहीं पूरे कसैले हो गए, ‘नहीं भूलूंगा शफी साहब !’ कहते-कहते
वह और कठोर हो गए। वह रुके और बोले, ‘क्या पता था कि राम के वेश में रावण मिला है मुझे !’
‘पर इतना यकीन से कैसे कह सकते हैं मन्नान भाई कि यह सारी खुराफात शफी साहब की ही है ?’ मन्नान और शफी के एक कामन दोस्त रहमत ने पूछा।
‘रहमत भाई, एक समय यूनिवर्सिटी टाप की थी, गोल्ड
मेडेल पाया था तो बेवजह नहीं।’ मन्नान बोले, ‘ठीक है किस्मत में ठोकर पर ठोकर लिखी है, लेकिन पूर्वी पाकिस्तान के डिग्री कालेज में मैं तब के समय प्रिंसिपल था, यह बात थोड़े से और लोग भी जानते हैं। पर उस डिग्री कालेज का नाम,
एप्वाइंटमेंट का समय
वगैरह यहां इस शहर में सिर्फ मैं, मेरी बेगम और शफी साहब तीन ही जानते हैं। मन्नान बोले, ‘मैं बताने गया
नहीं, बेगम मेरी गई नहीं, भारत
सरकार को यह बताने गया तो गया कौन ? जाहिर है तीसरा आदमी गया
यह बताने। और तीसरा आदमी है शफी ?' यह
पहली बार था कि जब बातचीत में मन्नान शफी साहब की जगह सिर्फ शफी बोल रहे थे। वह बोले, ‘अभी जिस अफसर ने कमरे में बुला कर
मुझ से बात की उस ने कुछ कागज मेरे खि़लाफ दिखाए जिस में सब से पुख़्ता कागज सिर्फ डिग्री कालेज की मेरी प्रिंसिपली का था। एप्वाइंटमेंट की डेट, कालेज
का नाम वगैरह फुल डिटेल्स में थीं।’
‘हो सकता है आप ने जो बहुत बरस पहले आर्टिकिल लिखा था, जो
शफी साहब के अख़बार में फ्रंट पेज पर छपा था, उस
में यह डिटेल आप ने ही लिखी हो और पुलिस ने उस
आर्टिकिल से ही लिया हो यह डिटेल !’ मन्नान के एक
दूसरे दोस्त ने सवाल रखा।
‘लिखा तो था यह डिटेल मैं ने अपने उस आर्टिकिल ‘मैं कैसे नहीं हूं हिंदुस्तानी’ में। पर यह डिटेल शफी ने ही मुझे बता कर काट दिया था, छपने
नहीं दिया था। कहा था
कि कोई बाद में इस का मिसयूज कर सकता है। तो मैं ने तो तब वकील तक को यह डिटेल नहीं दी थी।’
‘कभी पुलिस से बातचीत में दे दिया हो ?’
‘भूल कर भी नहीं दिया। सपने में भी नहीं।’ मन्नान बोले, ‘बेगम तक को ताकीद कर दी थी। बल्कि बेगम को तो अब सिर्फ कालेज का नाम भर याद है। एप्वाइंटमेंट की तारीख़ वह भी अब भूल गई हैं।’ मन्नान ने सांस छोड़ कर कहा, ‘पर जनाब शफी नहीं भूले वह तारीख़ !’ उन्हों ने
जोड़ा, ‘नोट किए रहे !’
‘छोड़िए भी, शफी कोई अल्ला मियां नहीं हैं मन्नान भाई, जो आप की तकदीर लिखेंगे।’ रहमत बोले, ‘तकदीर लिखने वाला तो वह परवरदिगार है। और आप ने कभी किसी का बुरा नहीं किया है, यह भी वह देख रहा है तो जो भी
होगा, जल्दी ही बेहतर होगा। बस अल्ला और उस के
रसूल पर यकीन रखिए !’
‘हां,
रहमत भाई अब तो उस ऊपर वाले ही के रहमोकरम पर है सब कुछ !’ मन्नान थक कर बारामदे की बेंच पर बैठ गए। कहने
लगे, ‘तिनका-तिनका जोड़ कर दुबारा गृहस्थी बनाई थी अब फिर लुट गई। समझ में नहीं आता कितनी बार यह गृहस्थी उजड़ेगी ऐसे और इस तरह !’ कह कर वह रहमत के कंधे पर सिर रख कर रोने लगे। बोले, ‘यह बार-बार उजड़ना तोड़ देता है रहमत भाई !
बच्चे अभी पढ़ रहे थे। इन की तो पढ़ाई भी गई।’
अब तक यह लगभग तय हो
गया था कि मन्नान और उन के परिवार को बाई ट्रेन वाया कलकत्ता बांगलादेश भेजा जाएगा। दिन के तीन बज गए थे। दो घंटे बाद ही कलकत्ते की एक ट्रेन थी, लेकिन मन्नान के रिश्तेदारों ने
अफसरों के हाथ पैर जोड़ कर रात की ट्रेन के लिए मना लिया
था जो शायद राते ग्यारह बजे के आस पास जाती
थी।
जो भी हो मन्नान के
पास आने वालों का सिलसिला बढ़ता ही जा रहा था। ऐसे गोया मुसलमानों की कोई रैली हो, कोई जलसा हो। अब तक कुछ लोकल
मुस्लिम लीडर भी आने लगे थे मन्नान से मिलने की
ख़ातिर। मन्नान का मनोबल बढ़ाने की ख़ातिर। धीरे-धीरे शाम गहराने लगी थी। अब अड़ोसी पड़ोसी ज़िलों से भी लोग आने लगे थे। लोगों से मिल-मिल कर लगातार रोते-रोते मन्नान की आंखें सूज गई थीं। ऐसे जैसे किसी ने उन की
आंखों पर ही मारा हो।
लोग आ कर पूछते भी कि, ‘क्या पुलिस वालों ने बदसुलूकी भी की है ?’
‘नहीं, नहीं बिलकुल नहीं, वह लोग तो फुल्ली
कोआपरेट कर रहे हैं।’ वह फिर जैसे जोड़ते हुए बुदबुदाते, ‘बदसुलूकी की
किसी और ने है !’
‘किस ने की है ?’ लोग लगभग तल्ख़ होते हुए पूछते। ऐसे जैसे वह मिले
तो उसे जूता मार देंगे। गोली मार देंगे। लेकिन इस
तल्ख़ी पर मन्नान चुप ही
रहते। बिलकुल चुप। लेकिन अगल बगल बैठा हुआ, खौलता
हुआ कोई बोल ही पड़ता, ‘अरे, वही शफी ! अपने मुहम्मद शफी !’
‘जैसे कोई पंछी शिकारी पर विश्वास कर ले ! वैसे ही मन्नान भाई ने
शफी पर यकीन कर लिया !’ रहमत बैठे-बैठे बोल पड़े।
अब तक मन्नान को
बांगलादेश तक छोड़ने जाने वाली पुलिस पार्टी तैयार हो गई थी और उन के लोकल कागजात भी। मन्नान ने भी घर से जरूरी चीजें, कपड़े, कागजात, बैंक से चेक काट कर पैसे भी मंगवा लिए थे। डोलची, अटैची, बक्से, बिस्तर वगैरह
भी होलडाल में बांध दिए गए थे। ढेर सारा अल्लम-गल्लम सामान भी था। तोता भी पिंजड़े सहित आ गया था। लेकिन मन्नान ने ढेर सारा सामान वापस करवा दिया। यह कह कर कि ‘जान ले कर जाऊं-आऊं यही बहुत है।’
‘वहां भी इस सब की जरूरत पड़ेगी।’ उन के एक
पड़ोसी ने हमदर्दी के साथ कहा।
‘तो क्या चाहते हैं मियां कि वहीं जा के बस के जान दे दूं ?’ उन्हों ने थोड़ी मुसकुराहट, थोड़ी
खीझ, थोड़ा गुस्सा घोल कर धीरे से पूछा, ‘क्या चाहते
हैं वापस न आऊं ?’
‘अल्ला करे आप जाएं ही नहीं।’ कह कर पड़ोसी
ने मन्नान को बाहों में भर लिया और रोने
लगे।
‘जाना तो अभी पड़ेगा भई !’ मन्नान बोले, ‘पर आप लोग
मेरे घर का ख़याल रखिएगा।’ वह रुके और बोले, ‘हां, मेरी बकरियां भी आप ही संभाल
लीजिएगा। चाहिएगा तो मेरे बरामदे में ही बांधिएगा, लेकिन
उन को रखिएगा प्यार से। फिर उन्हों ने
तोते का पिंजड़ा उठा कर उन्हें थमाते हुए बोले, ‘और ये मिट्ठू मियां भी आप की ही सुपुर्दगी में रहेंगे।’ कहते हुए मन्नान की हिचकियां बंध
गईं। रोने लगे। बोले, ‘क्या पता इन्हीं के प्यार का नसीब
मुझे वापस, मेरे
वतन लौटा लाए। सही सलामत। सो मियां इन मिट्ठू मियां को बड़े प्यार और बड़ी हिफाजत से रखिएगा। संभाल कर। दिल की तरह।’ फिर वह पिंजड़ा उठा कर मिट्ठू मियां की चोंच से
मुंह मिला कर, ‘मिट्ठू-मिट्ठू गुहरा-गुहरा बतियाने लगे। बतियाते-बतियाते
रोने लगे। उन के दिल की तपन मिट्ठू से भी
न देखी गई,
टूक्-टूक् कर के मिट्ठू भी रोने लगा। रोते-रोते कहने लगा, ‘मन्ना जल्दी
आना, जल्दी आना !’ यह कोई नई बात नहीं थी मिट्ठू मियां के लिए। न नया संवाद। वह तो जब-जब मन्नान घर से निकलते तो
हर बार मिट्ठू मियां मन्नान से यह जरूर कहते, ‘मन्ना जल्दी आना, जल्दी आना !’
तो आज भी मन्नान की
तैयारी देख मिट्ठू मियां बोलने लगे, ‘मन्ना जल्दी आना,
जल्दी आना !’ और मन्नान को
रोते देख मिट्ठू मियां भी रोने लगे। मिट्ठू मियां
के इस संवाद के साथ सिर्फ एक ही नई बात थी और बिलकुल ही नई। वह यह कि ‘मन्ना जल्दी आना, जल्दी
आना’ संवाद के साथ मिट्ठू मियां पहली बार रोने लगे थे, ‘टूक्-टूक् !’ तो मिट्ठू मियां करते भी तो क्या करते। मन्ना भी उन के सामने पहली ही बार रो रहे थे और फूट-फूट कर
पिंजड़े को छाती से सटाए हुए रो रहे थे। रो रहे थे मन्नान मियां और मिट्ठू मियां। एक साथ। दिल से दिल मिला कर। ऐसे कि कोई विमल रॉय, कोई गुरुदत्त, कोई असित सेन,
कोई गुलजार, कोई श्याम बेनेगल, कोई शेखर कपूर, कोई कविता चौधरी,
कोई महेश भट्ट अपनी फिल्म का एक फ्रेम बना के, इस संवेदना, इस आग, इस आवेग, और संवेग को कैमरे में दर्ज कर कोमलता, मानवता और दिल की एक संस्पर्श भरी नदी बहा दे, मन को गहरे छू
लेने वाली, एक
आकाश गंगा निकाल दे !
लेकिन कहां ?
यहां तो पुलिस का एक
दारोगा आहिस्ता ही से सही मन्नान से कह रहा था, ‘स्टेशन चला
जाए नहीं तो यह ट्रेन भी निकल जाएगी !’
‘हां,
चलते हैं।’ मन्नान बोले, ‘बस दस मिनट !’ कह कर वह अपनी बेगम की ओर बढ़े जो कि बरामदे में एक दूसरे कोने में औरतों से घिरी अचेत पड़ी थीं। डॉक्टर दवा दे गए थे, साथ ही नींद का इंजेक्शन भी ताकि सदमे से मानसिक संतुलन भी न बिगड़ जाए। कुछ इंजेक्शन और मंगा कर रख लिए गए थे, कुछ टेबलेट्स भी। ताकि रास्ते में काम आए। बेटी और बहू तीमारदारी में लगे थे। मन्नान पहुंचे वहां तो कई बुर्के वालियां बगल हो गईं। वहां वह बिछी चटाई पर बैठे। धीरे से बेगम का माथा सहलाया और बुदबुदाए, ‘जाने अल्ला को क्या मंजूर है ?’ फिर बेटी की ओर देखा। आंखों-आंखों में ही पूछा कि सारी तैयारी हो गई है ? बेटी ने भी अपने बच्चे को संभालते हुए बिना बोले ही आंखों से ही हामी भर दी। तो वह बहू की ओर मुड़े-बोले,
‘बेटा, क्या बताएं हमारे साथ तुम्हें भी पिसना पड़ रहा है !’
‘कोई बात नहीं अब्बू !’ कह कर वह खुद भी रोने लगी। दरअसल हुआ यह था कि मन्नान को सपरिवार बांगलादेश जाने का हुक्म आया था। उन के बड़े बेटे की पैदाइश तो पूर्वी पाकिस्तान यानी बांगलादेश की ही थी सो उसे तो वहां का पक्का बाशिंदा करार दे दिया गया था। पर उस की शादी यहां इसी शहर में हुई थी। सो अब बेटे को बांगलादेश जाने का आदेश था पर बेटे की बीवी के लिए कोई आदेश नहीं था। पर बीवी का कहना था कि वह भी अपने शौहर, बच्चे
ही के साथ रहेगी चाहे बांगलादेश रहना पड़े, चाहे
हिंदुस्तान! समस्या मन्नान की बेटी के साथ भी थी।
हालां कि वह यहीं हिंदुस्तान में
पैदा हुई थी और शादी
भी हिंदुस्तान में ही हुई थी, बेटी का बच्चा भी यहीं पैदा हुआ था तो भी बेटी को भी बांगलादेश जाने का फरमान आया था, बेटी
के पति और बच्चे के लिए कोई आदेश नहीं था।
इसी तरह बाकी दो बेटे भी यहीं हिंदुस्तान
में, इसी शहर में पैदा हुए थे। तो भी चूंकि ‘पाकिस्तानी’
मन्नान के बेटे थे सो
उन्हें भी बांगलादेश जाना ही जाना था। सब कुछ स्पष्ट था पर बेटे की बीवी, बच्चे
और बेटी के शौहर बच्चे का क्या हो? यह
स्पष्ट नहीं था। बेटे की बीवी तो अपने शौहर के साथ जौहर के लिए भी तैयार थी पर बेटी का
शौहर गम में तो शरीक था पर बीवी के लिए ‘जौहर’ के
रंग में नहीं था। फिर
भी वह मन्नान के साथ कलकत्ते तक के सफर के लिए तैयार था। और यही क्यों कलकत्ते तक मन्नान का सफर तय कराने के लिए कोई दस बारह, दोस्त नातेदार, रिश्तेदार भी घर से
तैयार हो कर आ गए थे। बांगलादेश जा
कर कैसे वापसी हो इस पर भी गुपचुप ‘रणनीति’ मन्नान ने तैयार कर ली थी और
इस काम में सारा रिस्क ले कर उन के कुछ दोस्त और रिश्तेदार भी शुमार थे। जिनमें सब से आगे रहमत मियां और बेटे की ससुराल वाले भी थे। रहमत मियां पर मन्नान हालां कि पूरा यकीन से नहीं थे क्यों कि वह शफी के भी कामन फ्रेंड थे। सो वह सारे ‘गणित’ से रहमत को अलग रखे थे। फिर भी रहमत का जोश-ख़रोश
चूंकि मन्नान के पक्ष में था सो ऊपरी-ऊपरी बातों का राजदार उन्हें भी बना लिया था मन्नान ने। मन्नान के दो तीन हिंदू दोस्त भी उन के भीतरी ‘गणित’ के राजदार थे। इन में एक वकील था जिस ने एक साथ कई वकालतनामों, गड्डी-भर वाटर मार्क पर मन्नान,
मन्नान की बेगम और बच्चों के दस्तख़त ले लिए थे कि जाने कब कहां क्या जरूरत पड़ जाए। जल्दी-जल्दी
में
एक पावर आफ एटार्नी भी
मन्नान ने बनवा ली ताकि उन का मुकदमा उन की अनुपस्थिति
में भी ठीक से लड़ा जा सके और जो जरूरत पड़े तो खर्चे के लिए उन का मकान वगैरह भी बेचा जा सके।
सब जगह दस्तख़त कर, सब से
यह तय कर कि किसको कब क्या करना है वगैरह-वगैरह निपटा कर मन्नान और उन की फेमिली पुलिस जीप में बैठ कर स्टेशन के लिए चल पड़े। मिट्ठई मियां भी पिंजड़े के समेत उन के साथ थे। डरे-डरे,
सहमे-सहमे, बुझे-बुझे और बिन बोले। लगभग सभी निःशब्द थे उस पुलिस जीप में। पुलिस वाले भी। मन्नान स्टेशन पर बाद में पहुंचे। उन से मिलने, उन्हें
बिदा देने वाले लोग पहले। बल्कि बहुत पहले।
पूरा स्टेशन दाढ़ी
वालों और बुर्के वालियों से ठसाठस भरा पड़ा था। हर कोई मन्नान और उन की फेमिली से मिलने को बेताब ! मन्नान के लिए दुआ करता
हुआ। कोई खाना लिए था, कोई
पैसा, कोई कंबल, कोई सब कुछ। कुछ हिंदू
दोस्त और उन की बीवियां भी खाना, कंबल
और पैसे लिए प्लेटफार्म पर जमे पड़े थे। दो हिंदू दोस्त तो मन्नान के साथ कलकत्ते तक भी जा रहे थे। इन में से एक श्याम सुंदर तो प्लेटफार्म पर एक जगह लोगों से घिरा खड़ा कहने लगा, ‘बांगलादेश तक चलूंगा। देखूं भला क्या कर लेते हैं वहां के फसादी मुसलमान।’ वह बोला, ‘बताऊंगा वहां
कि देखो हिंदुस्तान में हम हिंदू भी मुसलमान
भाइयों के लिए जान लड़ाने को तैयार हैं और हमेशा तैयार रहते हैं। इस लिए कि यह मुसलमान भाई बंटवारे के बावजूद हम पर यकीन कर के अपने देश में रह गए। तो हमारा भी फर्ज बनता है कि इन के यकीन को हम बनाए रखें। चाहते तो ये पाकिस्तान जा सकते थे पर नहीं गए क्यों कि इन को हम पर यकीन था। तो इन के यकीन को हम कैसे भून कर खा जाएं !’ वह बोला, ‘वहां लोगों को बताएंगे कि हम हिंदू-मुस्लिम कुछ जिन्ना जैसे जल्लादी सो काल्ड राजनीतिज्ञों के नाते दिलों में दूरी नहीं बनाते। सुख-दुख
बांटते हैं। साथ-साथ रहते हैं, साथ-साथ मरते हैं।’ श्याम सुंदर थोड़ा और भावुक हुआ और बोला, ‘मैं तो कहूंगा कि मन्नान को मारना है तो पहले मुझे मारो, फिर मन्नान को मारना !’ वह बोला, ‘बताऊंगा कि हम
उस गांधी के देश के हैं जो कभी तुम्हारा
भी था। इंसानियत के लिए लड़ना नहीं, मरना जानते हैं। प्यार और भाई-चारा जानते हैं। चीजों को लड़ कर नहीं बातचीत कर समझदारी से
तय करना जानते हैं।’ वह बोला, ‘और याद दिलाऊंगा कि तुम्हारे यहां भी एक मुजीबुर्रहमान हुआ था। बेहद डेमोक्रेटिक और बेहद लिबरल। वह भी तुम्हारा गांधी था। और कि तुम जो आजाद हुए हो पाकिस्तानी अत्याचार और उस की गुलामी से तो वह भी भारत देश के लोगों की मदद और दुआ से ! और फिर
भी तुम आज बिहारी मुसलमान और बंगाली मुसलमान की
दीवार खड़ी कर फसाद करते हो ! मुजीबुर्रहमान की आत्मा पर दाग लगाते हो !’
श्याम सुंदर का भाषण
चालू था।
इसी प्लेटफार्म पर
हिंदुओं की एक और टोली दिनेश अग्रवाल के साथ जुटी पड़ी थी। दिनेश भी मन्नान के साथ कलकत्ते तक जा रहे थे। उन के मुहल्ले के कुछ लड़के उन्हें स्टेशन तक छोड़ने आए थे। एक लड़के ने दिनेश से पूछा, ‘आखि़र मन्नान साहब बांगलादेश जाने से इतना डर
क्यों रहे हैं ?’
‘एक तो वतन छूट रहा है दूसरे उन्हें वहां के मुसलमानों से ख़तरा है कि वे उन्हें मार डालेंगे।’ कि तभी किसी
नौजवान जो हिंदू ही था, ने पूछा, ‘पर
ये मुसलमान-मुसलमान
आपस में लड़ते क्यों हैं ?’
‘बेवकूफ हैं।’ दिनेश सर्रे से बोला।
‘नहीं कुछ तो वजह होगी।’ नौजवान ने
जिज्ञासा की आंख और बढ़ाई।
‘बिहारी मुसलमान और बंगाली मुसलमान का कुछ चक्कर है।’ दिनेश बात को टालता हुआ बोला।
‘फिर भी कोई तो फैक्टर होगा ही।’ नौजवान जैसे
अड़ा रहा।
‘देखो भाई सच बताऊं ?’ दिनेश बोला, ‘मैं तो
अख़बारों में पढ़ता हूं कि शिया-सुन्नी
में दंगा हो गया। तो मैं तो ये भी नहीं जानता कि ये शिया
सुन्नी भी आपस में
क्यों लड़ते हैं।’
‘कुछ तो वजह होगी ही !’ नौजवान ने सवाल जारी रखा।
‘फिर एक सच बताऊं ?’ दिनेश नौजवान से बोला, ‘मैं यह भी नहीं समझ पाता कि यह हिंदू-मुसलमान
भी क्यों लड़ते हैं ? क्यों दंगा-फसाद
करते हैं ?’ वह बोला, ‘चलो एक बार हिंदू-मुसलमान लड़ते हैं तो समझ में आता है कि दोनों के रीति-रिवाज अलग-अलग हैं। खाने, पहनावे में फरक है।’ वह लगभग
बिलबिलाते हुए बोला, ‘कुछ टकराहट हो
जाती होगी। लेकिन ये मुसलमान-मुसलमान क्यों लड़ते हैं यह तो मेरी समझ में बिलकुल नहीं आता!’
‘क्यों ?’ नौजवान ने फिर सवाल किया।
‘भाई हम को तो सभी मुसलमान एक ही जैसे लगते हैं। सभी की दाढ़ी। सिर पे टोपी। बस किसी की दाढ़ी सफेद, किसी की काली और औरतें तो सभी एक
ही तरह की बुर्के वाली। बस किसी का काला, किसी
का नीला किसी का सफेद। अब बुर्के के अंदर कौन है
यह मुसलमान ही नहीं जान पाते तो हम हिंदू कैसे जानेंगे?’
‘मुसलमान क्यों नहीं जान पाते?’ एक दूसरे
हिंदू नौजवान ने जिज्ञासा जताई।
‘अगर जान पाते कि बुर्के में कौन है तो गुरुदत्त वाली फिल्म ‘चौदवीं का चांद’ क्यों बनती ?’ दिनेश बोला, ‘देखा नहीं उस
फिल्म का पूरा का पूरा
सस्पेंस ही बुर्के के
भ्रम में बुना हुआ है। बस बुर्के बदल जाता है तो होने वाली बीवी बदल जाती है।’
‘पता नहीं चचा मैं ने यह फिल्म नहीं देखी।’
‘मैं ने भी नहीं।’ दूसरा नौजवान
भी बोला।
‘तो बेटा लोगों, मौका निकाल कर देखो। बड़ी बढ़िया फिल्म है।’ वह बोला, ‘देखोगे तो बुर्के की नजाकत जान जाओगे।
‘चलिए बुर्के में तो हम लोग भी नहीं पहचान पाते हैं किसी को तो वह तो फिल्म
है ही।’
‘अच्छा बुर्का वालियों को नहीं पहचान पाते हो तो क्या इन दाढ़ी वालों को पहचान पाते हो ?’ दिनेश बोला, ‘एक साथ सभी
दाढ़ियां खड़ी कर दो। सब एक जैसी! बस
काली सफेद ही पहचानूं।’ वह बोला, ‘तो जब सब एक जैसे हैं तो ससुरे आपस में
लड़ते क्यों हैं ?’ कभी शिया-सुन्नी, कभी
बिहारी-बंगाली। मेरी तो समझ में नहीं आता।’ उस ने जोड़ा, ‘वह तो भला हो मन्नान भाई का कि उन के दाढ़ी
नहीं है तो उन से दोस्ती हो गई और उन्हें पहचान भी लेता हूं।’
‘देखिए, आप लोग कुछ नहीं जानते !’ एक हिंदू बुजुर्ग बहस में शरीक होते हुए बोला, ‘कोरे नादान हैं आप लोग और बातें भी बचकानी कर रहे
हैं। कोरी
बचकानी !’
‘तो चचा आप ही हम लोगों की नादानी दूर कर दीजिए !’ दिनेश घड़ी देखते हुए बोला, ‘अभी ट्रेन के आने में भी देर है !’
‘ऐसा है कि शिया-सुन्नी का झगड़ा तो इस लिए है कि मुसलमान होते हुए भी इन के बीच कुछ मजहबी मतभेद हैं। जिस की चर्चा यहां करना अभी ठीक नहीं है। क्यों कि यहां इस समय शिया-सुन्नी दोनों वर्गों के लोग मौजूद
हैं। बात बेबात दूसरे किस्म का तनाव हो जाएगा।’ बुजुर्गवार बोले, ‘पर बिहारी और बंगाली मुसलमानों का झगड़ा धार्मिक नहीं आर्थिक है और सामाजिक भी!’ वह बोले, ‘भाषाई झगड़ा भी
है। उर्दू और बांगला का झगड़ा।’
इस तरह प्लेटफार्म पर
जो जहां था,
खड़ा-खड़ा कुछ न कुछ बतिया रहा था। भीड़ बढ़ती जा रही थी और ट्रेन अभी नहीं आई थी, बस आने ही वाली थी। बार-बार इस बारे में एनाउंसमेंट हो रहा था। हालां कि
स्टेशन पर इस समय रेलवे की सारी व्यवस्था इस
भीड़ के आगे लड़खड़ा गई थी। ख़ास कर इस प्लेटफार्म पर तो बिलकुल ही। ठीक वैसे ही जैसे मन्नान की गृहस्थी की, मन्नान
की जिंदगी की, मन्नान के दिल की व्यवस्था इस आफत के आगे ध्वस्त हो गई थी। मन्नान समझ नहीं पा रहे थे कि आगे कैसे क्या संभव होगा। इस आफत से निपटने के लिए कुछ दोस्तों के साथ मिल कर दो तीन तरह का ‘गणित’ भी भिड़ाया था, फिर भी अकल काम नहीं कर रही थी।
कुछ लोग बारी-बारी आ
कर खाना, कंबल और पैसा भी दे जा रहे थे उन्हें। वह हर बार ‘नहीं-नहीं, कोई जरूरत नहीं। क्यों तकलीफ कर रहे हैं।’ जैसी बात भी कहते पर कोई मानने को तैयार ही नहीं
था। अंततः खाने वाले टिफिन कॅरियर, कंबल
बहुत ज्यादा हो गए तो उन्होंने हाथ जोड़ लिए। बोले, ‘कितना खाऊंगा, कितना ओढूंगा ? अब बस भी कीजिए।’ वह बोले, ‘चार छः कंबल और इतने ही टिफिन छोड़
सब आप लोग ले जाइए। नहीं, यह सब बुक कराना पड़ेगा। कहां ले जाऊंगा ?’ पर दिक्कत यह थी कि कोई भी अपना दिया हुआ सामान
वापस लेने को तैयार नहीं था। न कंबल, न
टिफिन। सभी यह सोच कर लाऐ थे कि मन्नान के काम आएगा। अब यह तो कोई जानता नहीं था कि मन्नान की मदद की शहर में इस कदर बाढ़ आ जाएगी!
इस मदद की बाढ़ में
मुहम्मद शफी की हिंदू बेगम अंजू जी भी अपनी बेटी के साथ प्लेटफार्म पर खड़ी थीं। उन की आंखों में आंसू थे और गला रुंधा हुआ। कंबल, पैसा और टिफिन वह भी लाई थीं। पांच हजार रुपए उन्होंने
मन्नान के हाथ में
जबरदस्ती थमा दिए। मन्नान के आफिस के कर्मचारी भी इसी तरह कुछ न कुछ पैसे अपनी-अपनी बिसात के हिसाब से किसी ने सौ, किसी
ने दो सौ, किसी ने पांच सौ मन्नान को दिए। मन्नान के दोस्तों रिश्तेदारों का भी यही हाल था। कोई सौ, दो सौ, पांच सौ, हजार, दो हजार, पांच हजार,
दस हजार जिस की जैसी व्यवस्था
थी देता गया। यह कहते हुए कि, ‘आप के काम आएगा।’ और कि, ‘इसे कर्ज नहीं दुआ समझिएगा।’
ट्रेन आ गई थी। मन्नान
को सपरिवार पुलिस ने ट्रेन में बिठा दिया। कलकत्ता तक जाने वाले उन के दोस्त रिश्तेदार भी बैठ गए। यहां तक कि मिट्ठू मियां भी मय पिंजड़े के। अचानक पूरा प्लेट फार्म सिसकियों-सुबकियों
से भर गया। हर कोई रो रहा था। मिट्ठई मियां भी और
अंजू जी भी। ट्रेन चलने को हुई तो अचानक मन्नान
ने अपने उस पड़ोसी को हाथ से इशारा कर फिर से अपने पास बुलाया जिस की सुपुर्दगी में वह दोपहर पुलिस आफिस में मिट्ठू मियां को थमा रहे थे। वह पड़ोसी फौरन मन्नान के पास भाग कर पहुंचे। बोले, ‘हां, मन्नान भाई !’
‘कुछ नहीं !’ मन्नान बिलखते हुए बोले, ‘सोच रहा हूं मैं तो बेवतन हो ही रहा हूं
मिट्ठू मियां को काहे बेवतन करूं ! सो इन्हें आप अपनी हिफाजत में
ले लीजिए !’ फिर उन्होंने पिंजड़ा उठाया, मिट्ठू मियां को कलेजे से लगाया।
मिट्ठू रोए और कलमा पढ़ा, ‘ला इल्ललाह मुहम्मदुर्रसूलल्लाह !’ और एक बार फिर मियां की चोंच को पिंजड़े से मुंह सटा कर चूमा। बोले, ‘खुदा हाफिज मिट्ठू मियां !’
‘ख़ुदा हाफिज !’ मिट्ठू मियां भी तुतलाते हुए बोले। तब तक ट्रेन
जरा-सी सरकी। तो फाटक पर खड़े-खड़े
मन्नान ने मिट्ठू मियां को पड़ोसी के हवाले
किया। अचानक मिट्ठू
पंख फैला कर कस-कस कर फड़फड़ाए। गोया मन्नान की ट्रेन के साथ उड़ पड़ेंगे! पर पिंजरे की हद ने उन्हें रोक लिया। उड़ नहीं पाए मिट्ठू मियां पर चिल्लाए, ‘मन्ना जल्दी
आना, जल्दी आना !’
जाने ट्रेन की खट-खट,
प्लेटफार्म पर लोगों की सिसकियों-सुबकियों और
अपने रुंध आए गले के बावजूद मन्नान सुन पा रहे
थे कि नहीं,
पर पिंजड़े में
फड़फड़ाते मिट्ठू मियां
आज लगातार चिल्ला रहे थे, मीठी नहीं कर्कश आवाज में,
‘मन्ना जल्दी आना, जल्दी आना !’ और लगातार चिल्ला रहे थे। लोग हाथ हिला रहे थे, कोई-कोई रुमाल भी। ट्रेन जा रही थी, चली जा रही थी,
स्पीड बढ़ाती हुई।
ट्रेन चली गई।
लोग रह गए, लोगों
की भीड़ रह गई सुबकती और सिसकती हुई। ख़ामोश भीड़। ऐसे जैसे पूरे प्लेटफार्म पर मातम की चादर बिछी हो।
लोग प्लेटफार्म पर
बिलख रहे थे तो मन्नान और उन के परिवारीजन ट्रेन में। मन्नान के दोस्त मन्नान और उन के बेटों को चुप करा रहे थे जब कि पुलिस टीम की दो महिला कांस्टेबिल मन्नान की बेटी, बहू को चुप करा रही थीं। लेकिन किसी की रुलाई रुक नहीं रही थी। यहां तक कि चुप कराते-कराते
चुप कराने वाले भी रोने लगे। दोनों महिला
सिपाही भी रह-रह कर रो पड़तीं। दूसरी तरफ मन्नान की बेगम इस सब से बेख़बर अचेत पड़ी थीं। नींद के इंजेक्शन में नीम बेहोश !
ख़ैर, पुलिस
टीम मन्नान और उन के परिवार को ले कर कलकत्ता पहुंची। फिर वहां से बांगलादेश बार्डर पर। पुलिस टीम में बांगलादेश बार्डर पर मन्नान और उन के परिवार को कागजी लिखत पढ़त में
वहां की सेना के सिपुर्द कर दिया। लेकिन जैसे
रिश्वतखोर यहां की पुलिस थी, वैसी ही रिश्वतखोर वहां की सेना भी थी। कुछ पैसे मन्नान ने पहले ही से तैयार रखे थे बाकी दोस्तों रिश्तेदारों के दिए पैसे भी बहुत काम आए। मन्नान ने अपनी रणनीति की पहली ‘गणित’ के मुताबिक पुलिस और सेना दोनों के हाथ
पैर जोड़े,
सुविधा शुल्क का चढ़ावा चढ़ाया
और इस तरह बंगाली मुसलमानों के कहर से बच कर बांगलादेश बार्डर से वापस फिर इंडिया बार्डर में समा गए। यहां की सेना को भी सुविधा-शुल्क का चढ़ावा चढ़ाया और कलकत्ता आ गए। अपनी पुलिस टीम के साथ ही।
पुलिस टीम तो पहले ही
से ‘सेट’ थी सो कोई
दिक्कत नहीं हुई। फिर रणनीति की गणित के ही
मुताबिक पुलिस टीम कागज-पत्तर ले कर, मन्नान के दोस्तों के साथ अपने शहर रवाना हो गई और मन्नान सपरिवार नेपाल कूच कर गए। इस लिए कि हिंदुस्तान में गुप-चुप रहना भी ख़तरे से ख़ाली नहीं था।
नेपाल में मन्नान ने
फिर से अपनी टेंपरेरी गृहस्थी बनाई। पर वह यहां नेपाल में भी बार-बार आशियाना बदलते रहे। इस आशंका से कि कहीं फिर उन्हें पकड़ कर बांगलादेश न भेज दिया जाए ! पैसे बहुत
खर्च हो चुके थे फिर भी तंगी में ही सही मन्नान गुजारा चलाते रहे। बहू और दामाद वापस हिंदुस्तान आ गए थे और नेपाल-हिंदुस्तान
के बीच उन के कॅरियर
बने हुए थे। बारी-बारी।
नाते रिश्तेदारों से
मिलते। फिर रातों रात निकल जाते। गुपचुप ! एक बार उन का मन हुआ कि अपने मुहल्ले में जाएं। अपना घर, उस की
दीवारें देखें और मिट्ठू मियां
से भी मिलें। बताएं कि, ‘मिट्ठू मियां मैं आ गया हूं।’ पर कुछ भय, कुछ मन की कमजोरी,
वह नहीं गए। लेकिन जब वह
दुबारा हिंदुस्तान आए तो रात के अंधेरे में अपने घर भी गए। रिक्शे से ही सही, मुहल्ले की गली-गली घूमते रहे। बार-बार। रिक्शा वाला परेशान हो गया।
पर वह अपने घर के अगवाड़े पिछवाड़े की गलियों में रिक्शा घुमवाते रहे। फिर अचानक अपने घर के पास उन्होंने रिक्शा रुकवाया। सोचा कि पड़ोसी का दरवाजा खटखटा कर मिट्ठू मियां से थोड़ी गुफ्तगू कर लें। पर चलते-चलते अचानक रुके और अपने घर की दीवार चिपक कर छूने लगे।
दीवारों को
वह अभी मन ही मन महसूस
कर ही रहे थे कि एक कुत्ता उन्हें चोर समझ कर भौंकने लगा। वह भाग कर रिक्शे पर बैठ गए। रिक्शे वाले से कहा, ‘अब यहां से चलो !’
कुत्ते एक से दो, दो से
तीन, तीन से चार होने लगे। कुत्ते भौंकते जा रहे थे और रिक्शा चलता जा रहा था। अब कुत्ते रिक्शे के आगे भी दौड़-दौड़ कर
भौंकने लगे थे। मन्नान
डर गए कि अभी तो कुत्ते उन्हें चोर समझ कर भौंक रहे हैं। कहीं मुहल्ले वाले जग गए और उन्हें पहचान लें तो ?
‘रिक्शा तेज चलाओ !’ मन्नान मारे डर के बड़बड़ाए।
‘तुम पागल हौ कि पिए हुए हौ !’ रिक्शावाला
बोला, ‘का नशा किए हौ!’
‘कोई नशा पानी नहीं किए हूं। तुम बस चलो !’
‘तो काहें चोर की तरह भागि रहे हो!’ वह बोला, ‘चोर हौ कि नटवरलाल हौ!’
मन्नान कुछ बोले नहीं। बोलते तो बात बढ़ती और जो रिक्शा वाला उतार देता तो बड़ी फजीहत होती। किसी तरह वह बस-स्टेशन आए और बस में बैठ कर नेपाल रवाना हो गए।
इस बीच मन्नान ने
नेपाल में छोटा-सा कारोबार भी कर लिया। रोटी-दाल की ख़ातिर। आखि़र कब तक लोगों का दिया खाते ? नेपाल की गरीबी के चलते कारोबार बहुत अच्छा तो नहीं पर थोड़ा बहुत चल जाता था। रोटी दाल भर का। दिक्कत यह भी थी कि मुस्तकिल कोई दुकान, दफ्तर खोल नहीं सकते थे।
ज्यादा पूंजी चाहिए होती। दूसरे, उन के
शहर के कुछ लोग अकसर नेपाल आते रहते थे सो पहचान लिए जाने का ख़तरा था सो अलग !
एकाध बार हुआ भी ऐसा
कि कोई परिचित दिख गया तो मन्नान को आंख बचा कर छुपते-छुपते वहां से भागना पड़ा। अपनी पहचान को छुपाने ख़ातिर
उन्हों ने दाढ़ी बढ़ाने की तरकीब भी निकाली। पर दाढ़ी
उन की घनी नहीं थी। फिर भी उन्हों ने
बढ़ाई। बात बनी नहीं सो साफ करा दी दाढ़ी। फिर उन्हों ने पैंट कमीज की जगह धोती, कुर्ता पहनना शुरू किया। फिर भी चेहरा पहचान लिया जाता और बड़ा कांशस रहना पड़ता ! धोती पहनने का अभ्यास था नहीं सो
अटपटे ढंग से चलने के नाते जिस को नहीं देखना होता वह
भी देखने लगता। तो यह धोती एक्सपेरीमेंट
भी छोड़ना पड़ा। फिर मन्नान ने शेरवानी टोपी पहनना शुरू किया। यह कुछ-कुछ चल गया। हालां कि शेरवानी टोपी की भी आदत नहीं थी
मन्नान को फिर भी धोती वाले एक्सपेरीमेंट से बेहतर
था यह।
बाद के दिनों में
मन्नान इंडिया से सब्जी चावल वगैरह छुप छुपा के ला कर नेपाल में बेंचने लगे और इसी तरह नेपाल से इलेक्ट्रानिक सामान, कुछ
कपड़े वगैरह ले जा कर इंडिया में दामाद, बहू
को बेचने ख़ातिर दे देते। सब्जी, चावल वगैरह बहू, दामाद
पहले से ख़रीद कर रखते, जिसे मन्नान नेपाल बेचने की ख़ातिर लाते। यह कारोबार अच्छा चल गया। उन की बेगम अब नेपाल में धीरे-धीरे एडजस्ट हो गई थीं। एक दिन
बड़ी खुश थीं। बोली, ‘अब यहीं रह
जाते हैं।’
‘क्या ?’ मन्नान चौंके। बोले, ‘क्या कह रही हैं आप ?’
‘ठीक ही तो कह रही हूं।’ वह बोलीं, ‘छोड़िए इंडिया में केस वगैरह का चक्कर!’
‘नहीं, ऐसा नहीं हो सकता !’ मन्नान थोड़ी
सख़्ती से बोले।
‘क्यों नहीं हो सकता ?’
‘इस लिए कि ऐसे ही आप ने तब की दफा पाकिस्तान में रोक लिया था तो यह जहन्नुम के दिन भुगतने पड़ रहे हैं।’ मन्नान बोले, ‘अब और नहीं माननी इस बारे में आप
की बात !’
‘सच बताइए आप मेरे कहे से तब पाकिस्तान में रुके थे ?’ बेगम ने आंखें तरेर कर मन्नान से पूछा।
‘तो और किस के कहे से रुका था ?’ मन्नान झल्ला
कर बोले।
‘याद कीजिए !’ बेगम बोलीं और शरारती हंसी और तल्ख़ी घोल कर बोलीं, ‘याद कीजिए और जरा दिल पर हाथ रख कर याद कीजिए !’
‘आप कहना क्या चाहती हैं ?’ मन्नान झुंझला
कर बोले।
‘यही कि आप मेरे कहे के नाते नहीं मेरी बहन सबीना के नाते तब के दफा पाकिस्तान में रुके थे।’
‘क्या बकती रहती हैं आप ?’ मन्नान बोले, ‘कई दफा कहा कि वह सब बातें भूल जाइए। पर आप
जाने क्यों याद रखती हैं।’ मन्नान बोले, ‘घाव पर नश्तर नहीं मरहम लगाना
सीखिए !’
‘अब सही बात कह दी तो नश्तर लग गया ?’ बेगम बड़ी
तल्ख़ी से बोलीं।
‘इस बात को ख़त्म नहीं कर सकतीं आप ?’
‘चलिए ख़त्म करती हूं सबीना वाली बात।’ वह बोलीं, ‘पर अब फिर से रिक्वेस्ट करती हूं कि नेपाल में ही रह जाते हैं।’ उन्हों ने जोड़ा, ‘बड़ा
सुकून है यहां की धरती
पर।’
‘सुकून तो है !’ मन्नान बोले, ‘पर यहां रहने
की दूसरी कीमत देनी पड़ेगी!’
‘यहां भी कोई सबीना मिल गई है क्या ?’ बेगम
मुसकुराती हुई बोलीं।
‘आप औरतें भी अव्वल दर्जे की बेवकूफ होती हैं।’ मन्नान बोले, ‘यहां जान निकली पड़ी है
और आप सबीना के पहाड़े में ही पड़ी हैं।’ वह खीझ कर
बोले, ‘इस उमर में, इस तकलीफ में यह सब
सूझेगा भला ?’
‘तो फिर जब कारोबार ठीक-ठाक चल गया है, कोई जिल्लत नहीं है
तो यहां रहने में हर्ज क्या है ?’
‘हर्ज यह है कि मैं ज्यादा दिन इस तरह स्मगलर बन कर नहीं जी पाऊंगा!’ मन्नान ने बेगम से यह बात ऐसे कही जैसे चाबुक मार रहे हों।
‘क्या कह रहे हैं आप ?’ बेगम जैसे आसमान से जमीन पर आ गईं। बोलीं, ‘या अल्लाह ! आप स्मगलर कब से बन गए।’
‘जब से लोगों की भीख लेनी बंद की !’ मन्नान बोले, ‘यह जो नेपाल का सामान इंडिया और
इंडिया का सामान नेपाल में बेंच-बेंचवा रहा हूं यह स्मगलिंग नहीं तो और क्या है ?’
‘हाय अल्ला ! ये खाने-पीने की चीजें बेंचना भी
स्मगलिंग है ?’
‘बेंचना स्मगलिंग नहीं है।’ मन्नान बोले, ‘इंडिया से चोरी छुपे यहां ला कर बेंचना
स्मगलिंग है। क्यों कि यहां यह चीजें पैदा नहीं होतीं और हम
ड्यूटी दे कर नहीं
चोरी छुपे ला कर बेंचते हैं।’ मन्नान बोले, ‘पर अब जमीर और यह गवारा नहीं करता। क्यों कि
अपने वतन के साथ यह भी एक किस्म की गद्दारी है।’ वह बोले, ‘देशद्रोह है !’
‘हाय अल्ला !’ बेगम बोली, ‘तौ फौरन से
पेस्तर बंद कर दीजिए यह काम!’
‘तो खाएंगे क्या ?’
‘भीख मांग लेंगे। मेहनत मजदूरी कर लेंगे पर यह काम और इस काम का नहीं
खाएंगे !’
‘केस कैसे लड़ेंगे ? कहां से लाएंगे केस का खर्चा ?’
‘कर्ज ले लीजिए, घर बेंच दीजिए।’
‘यही तो दिक्कत है !’ मन्नान बोले, ‘घर कौन
ख़रीदेगा ?
ख़रीदेगा भी तो रजिस्ट्री तो
इंडिया में ही होगी !’ वह बोले, ‘कौन जाएगा
रजिस्ट्री के
लिए इंडिया में?’
‘ये तो है !’
‘कुछ नहीं अल्ला और उस के रसूल पर यकीन कीजिए।’ बेगम का हाथ अपने हाथ में लेते हुए
मन्नान बोले,
‘सब ठीक हो जाएगा। जैसे इतना हुआ है वैसे आगे भी होगा।’
इसी दिन मन्नान की बहू
इंडिया से नेपाल आई। उस ने बताया कि केस अब फाइनल हियरिंग के स्टेज में है। सुन कर मन्नान और उन की बेगम बड़े खुश हुए। ख़ास कर मन्नान की खुशी का कोई ठिकाना नहीं था। मारे खुशी के वह बहू से बोले, ‘बेटा हो सके तो एक एहसान और कर दो !’
‘जो कहिए अब्बू वह करूंगी, पर एहसान जैसा कुछ मत कहिए।’
‘चलो एहसान न सही, एक काम ही कर दो !’
‘बोलिए, अब्बू !’
‘किसी सूरत से मिट्ठू मियां को यहां हमारे पास ला दो !’
‘पर कैसे अब्बू ?’
‘क्यों ? क्या दिक्कत है ?’
‘दिक्कत नहीं अब्बू, दुश्वारी है।’
‘क्या ?’
‘चलिए मैं चच्चू से मांग कर मिट्ठू मियां को ले भी आऊं, अपने
लिए कह कर ही सही, आप का जिक्र भी नहीं करूं
तो भी शक की एक चादर तो फैल जाएगी कि इतने दिन हो गए इस ने मिट्ठू को नहीं मांगा, अब क्यों मांग रही है ?’ वह बोली, ‘केस अब फाइनल
स्टेज पर है तो ख़ामख़ा कहीं बिगड़ जाए! तो क्या फायदा ?’ वह बोली, ‘अब तो अल्लाह
से दुआ मनाइए कि आप जल्दी से जल्दी अपने मुल्क वापस
चलिए!’
‘ठीक है बेटा !’ मन्नान बोले, ‘पर एक बार जा
के मिट्ठू को देख जरूर लेना।’
‘एक बार क्या मैं तो अकसर जाती हूं। मिट्ठू से बतिया लेती हूं।’ वह बोली,
‘एक बार तो आप ही की तरह मैं ने भी सोचा कि मिट्ठू मियां को चच्चू से मांग लूं। फिर यह सोच कर कि बेवजह शक या चरचा का मसला हो जाएगा। सो चुप लगा गई।’
‘ठीक है बेटा, अब मिट्ठू से आएंगे तभी मिलेंगे।’ मन्नान बोले, ‘पर केस पर बराबर नजर
रखना, कोई चूक न होने पाए !’
‘बिलकुल अब्बू !’
‘और हां, हम लोगों ने तय किया है कि ये सब्जी, अनाज वगैरह का कारोबार अब और नहीं
करेंगे ?’
‘क्यों ?’
‘अब जमीर और इजाजत नहीं देता।’
‘यहां जमीर कहां से आ गया ?’
‘बेटा तुम्हीं बताओ, यह एक किस्म की स्मगलिंग नहीं है ?’ मन्नान बोले,
‘और जिस मुल्क से हम अपने रहने के लिए पनाह मांग रहे हैं, उसी
मुल्क के साथ यह गद्दारी ठीक है क्या ?’
‘पर अब्बू ! यह तो अपने मुल्क के बहुत से लोग कर रहे हैं !’
‘बहुत लोगों को करने दो !’ मन्नान बोले, ‘हम नहीं करेंगे बस !’
‘ठीक है अब्बू !’ वह बोली, ‘लेकिन फिर
खर्चा कैसे चलेगा ?’
‘यहीं करेंगे कुछ !’ मन्नान बोले, ‘थोड़ा कम
खाएंगे, थोड़ा ख़राब पहनेंगे! बस!’
‘ठीक है अब्बू !’
मन्नान ने सचमुच वह
कारोबार छोड़ कर एक दुकान पर मुनीमी कर ली। लड़के भी इधर-उधर छोटे-मोटे कामों में लग गए। बेगम और बेटी ने भी
सिलाई-कढ़ाई का काम शुरू कर
दिया। इस तरह थोड़ा खाने पहनने की तकलीफ हुई, पर काम चलता रहा।
इसी बीच पता चला कि
दामाद ने दूसरा निकाह कर लिया। लेकिन मन्नान ने यह बात किसी को बताई नहीं। न बेटी को, ने बेगम को। खुद यह तकलीफ सीने
में दफन कर बैठे। दामाद वैसे भी बेटी से मिलने
अब नेपाल नहीं आता था। धीरे-धीरे मन्नान के दिन नेपाल
में कटते रहे। इस आस में कि एक न एक दिन तो अपने मुल्क, अपनी इंडिया लौटना ही है ! अपने घर,
अपने शहर, अपने लोगों के बीच।
और सचमुच एक दिन ऐसा आ
गया। मन्नान की बहू और उन के वकीलों की मेहनत रंग लाई। कोर्ट ने मन्नान की भारत की नागरिकता को वैध मान लिया। मय उन के परिवार के। यह ख़बर भी शहर को हो गई। पर उस तरह नहीं जिस तरह उन की पाकिस्तानी के तौर पर गिरफ्तारी की हुई थी।
मन्नान की बहू ने
लेकिन जल्दबाजी नहीं की। मजारों पर चादरें चढ़ाई। मिठाई सब को खिला दी, यहां तक कि मन्नान के उस दामाद को भी जा कर मिठाई खिलाई जिस ने दूसरा निकाह कर लिया था। सब कुछ किया पर मन्नान के पास फौरन नहीं गई। क्यों कि वह कोई ‘रिस्क’ नहीं लेना चाहती थी। पहले कोर्ट से आदेश की नकल ली। नकल की भी कई फोटो कापियां कराईं। फिर गई वह नेपाल !
लेकिन चुपके से !
मन्नान और उन के
परिवार की खुशी का ठिकाना न था। फिर तय हुआ कि नेपाल से अपने मुल्क को तुरंत न जा कर हफ्ते, दस रोज बाद पहुंचा जाए। नहीं,
कहीं जल्दबाजी में
कोई दूसरा इशू न खड़ा हो जाए ! न कुछ तो यही कि मन्नान परिवार सहित बांगलादेश नहीं, नेपाल में रहे । तो ?
फिर एक सुबह अचानक
मन्नान अपने शहर, अपने घर पहुंच गए। सपरिवार! मुहल्ले वालों ने उन्हें हाथों हाथ लिया। शहर में भी जिस-जिस को
जब-जब पता चला मन्न्नान के
घर की ओर चला। दोपहर तक मन्नान के घर पर मिलने वालों की
भीड़ बढ़ गई। मन्नान से मिलने उन का दामाद भी
आया। और तो और अंजू बेगम के साथ मुहम्मद शफी भी फूलों के गुलदस्ते और फलों की टोकरी के साथ मन्नान से मिलने आए। मुल्क में उन की
दोबारा आमद पर उन्हें
गले मिल कर मुबारकवाद दी।
हां, अगर
मन्नान से कोई नहीं मिला तो वह थे मिट्ठू मियां जो मन्नान से हरदम कहते थे, ‘मन्ना जल्दी आना, जल्दी आना !’ जो उस रोज भी मिट्ठू मियां ने कहा था जब
मन्नान ट्रेन से बांगलादेश जा रहे थे। मिट्ठू मियां ने तो कहा था और बार-बार कहा था, चिल्ला-चिल्ला कर कहा था, ‘मन्ना जल्दी
आना, जल्दी आना।’
पर आज मन्ना का
इस्तकबाल करने के लिए महफिल में मिट्ठू मियां नहीं थे। रहते भी कैसे ? उन का इंतकाल हो गया था और मन्ना ने आने में थोड़ी नहीं, बहुत देर कर दी थी ! महफिल में रौनक थी, मन्नान के आमद की। पर
मन्नान कहीं उदास भी थे मिट्ठू मियां की याद
में।
आदरणीय मित्रों, शुभप्रभात..!
ReplyDeleteशायद कोई पांच एक साल पुरानी बात है, किसी समारोह में स्मृति चिन्ह के रूप में दयानन्द पाण्डेय जी का उपन्यास 'बांसगांव की मुनमुन' मिला। उपन्यास पढकर में मुनमुन का फैन तो हुआ ही उसकी मां दयानन्द पाण्डेय का भी फैन हो गया। । चौंकिये नहीं कोई गलती नहीं हुयी मैने सच कहा कि मुनमुन की मां दयानन्द पान्डेय जी ही है ऐसा स्वयं पान्डेय जी ने ही कहा है कि
''...जब मैं लिखता हूं तो मां बन जाता हूं। अनायास । रचना जैसे मेरे लिखने में आ कर बच्चों की तरह झूम जाती है । खिलखिलाती मिलती है । रचना में समाये पात्र चौकड़ी भरते हैं बच्चों के दोस्तों की तरह । कभी बात मान जाते हैं , कभी नहीं मानते । बहुत बार मेरे हाथ में नहीं आते । अपने मन से जो चाहे करते रहते हैं । और मैं एक मां की तरह उन के पीछे-पीछे लगा रहता हूं। उन को सजाता, संवारता और दुलराता हुआ।..''
.....सचमुच उनके लिखे से प्रभावित हुये बगैर रहा ही नहीं जा सकता।
आज श्री दयानन्द पाण्डेय जी की लिखी एक सच्ची कहानी 'मन्ना जल्दी आना' का अंश साझा कर रहा हूं जिसे पढकर आप भी इस पूरी कथा को अवश्य पढना चाहेंगे :-
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ReplyDeleteBahoot khoob Sir. Lga ki samne kisi bade screen pr koi film chal rhi hai.
ReplyDeleteCongratulations. ..
बेहतरीन कथानकों में से एक
ReplyDeleteपूरा सागर एक गागर में।कलम के जादूगर से लगे।
ReplyDeleteबहुत मज़ेदार कहानी थी सर अंत तक रहस्य बना रहा
ReplyDeleteउम्दा। बिना पूरा पढ़े उठ नहीं सका।
ReplyDeleteBahut hee badiya Sir
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