दयानंद पांडेय
विष्णु प्रताप सिंह जीनियस तो थे ही स्मार्ट भी बहुत थे और प्राइवेट सेक्टर की नौकरी में होने के बावजूद खुद्दार भी ख़ूब थे। यह उनकी खुद्दारी ही थी जो उनकी ओर सब को बरबस खींचती थी। उनके प्रतिद्वंद्वी और विरोधी भी उनकी इस खुद्दारी की ख़ास इज्जत करते। इनके बारे में और तमाम बातें लोग करते पर उनकी खुद्दारी की बात आती तो लोगों की चर्चा में जैसे विराम आ जाता। पर अब जब वह मरे थे तो जितने मुंह उतनी बातें थीं। क्यों कि वह स्वाभाविक मौत नहीं मरे थे और अपने शहर में नहीं मरे थे। हालांकि यह लखनऊ शहर भी उनका अपना शहर नहीं था। पर चूंकि कोई तीन दशक वह इस शहर में गुजार चुके थे, लगभग बस गए थे तो अब यह उनका अपना शहर ही था।
लखनऊ वह जब पढ़ने आए झांसी के किसी गांव से तो नहीं जानते थे कि यहीं बस जाएंगे। इंग्लिश लिट्रेचर से एम. ए. करने के लिए जब वह दाखिल हुए लखनऊ यूनिवर्सिटी में तो यह दाखिला ही उनके लखनऊ रहने का सबब बन गया। एक क्लासफेलो से उनकी आंखें लड़ीं तो उन्होंने फेरी भी नहीं। एम. ए. फाइनल करते न करते उन्होंने उस क्लासफेलो से कोर्ट मैरिज कर ली। लड़की के घरवालों की ओर से ऐतराज बड़ा हलका सा था लेकिन बाबू विष्णु प्रताप सिंह के घर से ऐतराज पहाड़-सा था। क्योंकि लड़की पिछड़ी जाति की थी और वह चौबीस कैरेट के क्षत्रिय। लेकिन विष्णु बाबू इस पहाड़-से ऐतराज से भी टकरा गए। सो घर वालों ने इनसे और इन्होंने घर वालों से नाता तोड़ लिया।
फिर तो बस गए लखनऊ में। भूल गए झांसी वांसी। मर गए लेकिन नहीं गए झांसी। पुरखों की जमीन जायदाद की भी कभी नहीं सोची उन्होंने। लखनऊ में ही उन्होंने तब की एक बड़ी कंपनी में बतौर अप्रेंटिस रोजी रोटी शुरू की।
पत्नी एक नर्सरी स्कूल में टीचर हो गईं। नौकरी में दोनों के उतार चढ़ाव आते जाते रहे। गोया समुद्र में ज्वार भाटा। लेकिन विष्णु बाबू ने कंपनी नहीं छोड़ी। अप्रेंटिस से शुरू हो कर पचास वर्ष से कम की उम्र में ही वह उसी कंपनी में अब जनरल मैनेजर हो चले थे। जब कि पत्नी एक इंटर कालेज में लेक्चरर। इस बीच तीन बच्चे भी हुए। एक बेटा पोलियो की चपेट में आ गया। वह बेटे को ले कर गए लिंब सेंटर, एक एक्सपर्ट डाक्टर को दिखाने। डाक्टर ने चेक अप के दौरान कुछ बताने में कोई फैक्चुअल गलती कर दी तो विष्णु बाबू उस एक्सपर्ट डाक्टर पर डपट पड़े। डाक्टर ने उल्टा उन्हें डपटते हुए पूछा कि, ‘डाक्टर मैं हूं कि आप ?’
‘डाक्टर आप ही हैं पर मेडिकल साइंस आप ठीक से नहीं जानते। लेकिन मैं जानता हूं।’ कह कर उन्होंने बेटे को वहां से उठाया और चलने लगे। साथ गए दो दोस्तों और पत्नी ने टोका भी कि, ‘बड़ा डाक्टर है !’ और जोड़ा भी कि, ‘बेटे की जिंदगी का सवाल है !’ पर विष्णु बाबू माने नहीं। बोले, ‘बेटे की जिंदगी का चाहे जो हो पर इस मूर्ख डाक्टर को जो मेडिकल साइंस ठीक से नहीं जानता उसके हाथों मैं अपने बेटे की जिंदगी हरगिज हवाले नहीं कर सकता।’
‘बड़े बदतमीज आदमी हैं आप !’ डाक्टर बोला, ‘आख़िर किस बेस पर आप बोल रहे हैं कि मैं मेडिकल साइंस नहीं जानता।’
‘बेस यह रहे !’ कह कर विष्णु बाबू ने अपना ब्रीफकेस खोल कर पोलियो से जुड़े तमाम देशी विदेशी लिट्रेचर डाक्टर की मेज पर पटक दिए ! बोले, ‘मेडिकल कालेज में तो आप ठीक से नहीं पढ़े। अब से पढ़ लीजिए। फिर पेशेंट्स देखिए !’
डाक्टर हकबक रह गया।
विष्णु बाबू बेटे को ले कर घर आ गए।
दरअसल विष्णु बाबू भले प्राइवेट कपंनी की नौकरी में थे पर चीजों के बारे में जानने की उनकी ललक उन्हें आल राउंडर बनाए रहती। सांइस, मेडिकल साइंस, हिस्ट्री, ज्यागर्फी, पॉलिटिक्स, स्पोर्ट, कामर्स से लगायत फिजिक्स, लिट्रेचर यहां तक कि ज्योतिष और खगोल शास्त्र तक के विषयों पर वह हमेशा अपडेट रहते। टाइम, न्यूजवीक, आब्जर्वर जैसी पत्रिकाओं, अख़बारों को वह नियमित मंगाते और पढ़ते थे। जानकारी का जज्बा इतना कि फुटपाथी दुकानों तक से वह काम की किताबें छांट कर सस्ते दामों में ले आते। इतवार को नक्खास बाजार में लगने वाली कबाड़ मार्केट तक से वह तमाम किताबें छान लाते। सो किसी भी विषय पर पूरे कमांड के साथ वह बतियाते।
क्षत्रिय वह भले थे पर मांसाहार और शराब छूते तक न थे। हां, मिठाई उनकी कमजोरी थी। वह कहते भी कि, ‘इस मामले में मैं ब्राह्मण हूं।’ वह जोड़ते, ‘ब्राह्मणम् मधुरम् प्रियम् !’ वह खुद भी खूब मिठाई खाते और यार दोस्तों को भी खिलाते। वह हमेशा सूटेड बूटेड रहते पर टाई नहीं लगाते। टाई की जगह स्कार्फ बांधते। वह जब कभी मूड में होते तो स्कार्फ ढीली टाइट करते, किसी दोस्त को पटाते हुए कहते, ‘आओ चलो, तुम्हें मिठाई खिलाते हैं!’
विष्णु प्रताप सिंह की जिंदगी ऐसे ही मिठास क्षणों को जीते-भोगते गुजर रही थी।
कि अचानक उनकी जिंदगी में एक नमकीन क्षण आ गया। उनकी एक नई पर्सनल असिस्टेंट आ गई। थी तो वह पचीस-तीस के बीच की और नाम के आगे कुमारी लिखती थी। पर जल्दी ही अफवाह उड़ी कि वह डाइवोर्सी है। इस अफवाह में एक पुछल्ला यह भी जुड़ा कि उसके दो बच्चे भी हैं। जो भी हो यह बात अफवाह थी या सच इसकी सत्यता न किसी ने जांची, न आगे जांचने की जरूरत समझी। अफवाहबाजों को तो इसके तथ्य और सत्य को जानने में जरा भी दिलचस्पी नहीं थी। वह तो उसके चाहने वालों की क्यू में लग गए थे। क्या बुड्ढे क्या जवान ! सभी क्यू में थे।
उस की मदद, उस की रक्षा में हाजिर !
उस लड़की का नाम बिंदू बंसल था और वह तमाम सहयोगियों की ‘मदद’ और ‘रक्षा’ वाली लालसा की लपटों से परेशान थी। पर इस लालसा लपट की सूची में अभी तक उसके बॉस विष्णु प्रताप सिंह नहीं समाए थे। बिंदू ने लालसा लपट उम्मीदवारों से सुरक्षा ख़ातिर एक ख़ामोश गुहार विष्णु प्रताप सिंह से की। पर उन्होंने इस ओर तब कुछ ख़ास ध्यान नहीं दिया। बिंदू की ख़ामोश गुहार को रुटीन के जंगल में छोड़ दिया। लेकिन रुटीन के इस जंगल में कुत्ते, भेड़िए बहुत थे सो उसने एक दिन शेर से स्पष्ट रूप से सुरक्षा की गुहार लगा दी। विष्णु प्रताप सिंह हालां कि पचास की उम्र पार कर गए थे पर एक बार प्रेम विवाह के भंवर में लिपटने के बाद अन्य औरतों में उनकी दिलचस्पी लगभग नहीं रह गई थी। उनकी सारी दिलचस्पी मिठाई में थी। पर अब बिंदू नाम की एक औरत उनसे सुरक्षा की भीख मांग रही थी। और वह जाने क्यों अब चाह कर भी उसे रुटीन के जंगल में छोड़ना नहीं चाहते थे। सो वह रुटीन के जंगल में शिकार तलाशते कुत्ते, भेड़ियों से बिंदू को बचाने के लिए बिलकुल जंगल के राजा शेर की ही तरह सामने आ गए। कुछ चीते, तेंदुए टाइप के लोग अफनाए भी पर सिर्फ अफना कर रह गए।
सामने शेर जो था। जंगल का राजा।
बिंदू बंसल अब बिंदू जी कहलाने लगी थीं। किसी कि हिम्मत ही नहीं पड़ती आंख उठा कर उन्हें देखने की। पीठ पीछे चाहे जो टिप्पणी चलाएं लोग लेकिन बिंदू जी के सामने चीते, तेंदुए, कुत्ते, भेड़िए आदि सभी की नजरें नत रहतीं। क्या सीनियर, क्या जूनियर सभी की।
बिंदू जी आख़िर विष्णु प्रताप सिंह की रक्षा-सुरक्षा में थीं और वह कंपनी के जनरल मैनेजर थे। जंगल के राजा।
कुत्तों, भेड़ियों ने तो नहीं पर चीता, तेंदुआ टाइप लोगों ने इस रक्षा-सुरक्षा का रंग पूरा मसाला मिला कर पहले कंपनी के एम. डी. और फिर चेयरमैन तक पहुंचाया। पर चेयरमैन और एम. डी. ने अपने खुद्दार जनरल मैनेजर के खि़लाफ ऐसी खुसफुस टाइप की शिकायत को सुना ही नहीं। कहा कि, ‘कंपनी के काम में जो कोई लापरवाही वह कर रहे हों तो बताएं।’ और बात यहीं ख़त्म हो गई।
पर विष्णु-बिंदू की बात ख़त्म नहीं हुई। सुलगती रही।
बिंदू जी तो नहीं पर विष्णु जी अब जब तब बिंदू जी के घर भी जाने लगे। बात आगे और बढ़ी। अब वह गले की स्कार्फ ढीली-टाइट करते बिंदू जी को मिठाई भी खिलाने लगे। तेंदुआ, चीता टाइप लोगों ने बिंदू मिठाई में नमक मिला कर विष्णु प्रताप सिंह की पत्नी को परोसा। पर उन्होंने इस नमक को इस ख़ामोशी से सुना कि जैसे कुछ सुना ही नहीं और जब सुना ही नहीं तो कोई जवाब या प्रतिक्रिया भी नहीं आई। उन्होंने तो विष्णु प्रताप सिंह तक से इस नमक का जिक्र नहीं किया। पर इधर तो नमक अब ब्लड प्रेशर की हदें लांघते हुए बढ़ रहा था।
अब दफ्तर में विष्णु प्रताप सिंह का नया नाम चल गया था शुगर और बिंदू बंसल का नाम ब्लड प्रेशर ! पर पीठ पीछे और खुसफुस अंदाज में । अब जहां शुगर और ब्लड प्रेशर दोनों एक साथ हों वहां सेहत पर कुछ न कुछ असर तो पड़ेगा ही। पड़ा भी, बात एम. डी. तक फिर पहुंचाई गई। जनरल मैनेजर विष्णु प्रताप सिंह के पास फोन आया एम. डी. का। विष्णु प्रताप सिंह ने उलटे एम. डी. को डपट लिया, ‘आप की हिम्मत कैसे हुई मुझ से ऐसी रबिश टाक की !’ कह कर उन्होंने फोन पटक दिया। बिंदू जी को बुलाया। इस्तीफा बोल कर लिखवाया। कहा कि ‘तुरंत टाइप करके ले आओ !’
‘लेकिन विष्णु जी अचानक ? आख़िर....।’ बिंदू बंसल की जबान फंस-फंस जा रही थी।
‘कहा कि तुरंत टाइप कर ले आओ।’ विष्णु प्रताप सिंह बिंदू बंसल पर गरजे।
‘मैं कहती हूं एक बार पुनर्विचार कर लीजिए !’ बिंदू बंसल बोलीं, ‘मेरी बात मान लीजिए !’ वह रुआंसी हो गईं।
‘सब विचार कर लिया है।’ वह बोले, ‘तुम टाइप कर रही हो कि मैं हाथ से लिख लूं ?’ विष्णु प्रताप सिंह अब की डपट कर नहीं, बड़े सर्द आवाज में बोले। बिंदू बंसल समझ गईं कि मामला संगीन है। सो ‘अभी टाइप कर लाती हूं सर !’
उसी तरह सर्द आवाज में बोलती हुई बिंदू बंसल चैम्बर से बाहर निकल गईं। उनकी शोख़ चाल भी इस क्षण सर्द चाल में बदल गई थी।
बिंदू बंसल को विष्णु प्रताप सिंह का इस्तीफा टाइप करने में ज्यादा समय नहीं लगा। कंप्यूटर पर हालांकि उनकी उंगलियों की दस्तक बड़ी ठंडी थी पर दफ्तर में यह ख़बर गरम थी कि विष्णु प्रताप सिंह की एम. डी. ने खाल खींच ली है।
इस्तीफा पर दस्तख़त कर चपरासी से एम॰ डी॰ के पास भेज कर विष्णु प्रताप सिंह अपनी व्यक्तिगत चीजें बटोरने लगे। किताबें ज्यादा थीं।
बिंदू बंसल भी उनकी मदद में थीं। अभी वह यह सब सहेज ही रहे थे कि फोन फिर बजा। विष्णु प्रताप सिंह ने खुद उठाया। उधर से एम. डी. थे, ‘यह इस्तीफा क्यों भेज दिया ?’ उन्होंने बात को टालते हुए कहा, ‘अरे, मैंने तो सिर्फ मजाक किया था आप से ! भूल जाइए उस बात को।’
‘मेरा आप का मजाक का रिश्ता रहा है कभी ?’ विष्णु प्रताप सिंह बोले, ‘अभी आप की उम्र हमसे मजाक की नहीं है। आप के पिता और इस कंपनी के चेयरमैन तक ने कभी मुझ से कोई हलकी बात नहीं की और फिर मैंने कंपनी को कहां से कहां पहुंचाया है, इसका भी लिहाज नहीं आया आप को ?’ विष्णु प्रताप सिंह बहुत ठंडे ढंग से बोले, ‘मेरा इस्तीफा मंजूर करने का अगर आप में दम नहीं है तो इसे अपने पिता के पास दिल्ली भिजवा दीजिए।’
‘लेकिन सुनिए तो !’
‘कुछ नहीं, मैंने इस्तीफा दे दिया है और थोड़ी देर में घर जा रहा हूं।’ कह कर विष्णु प्रताप सिंह ने फोन रख दिया।
थोड़ी देर बाद वह जब अपनी कुछ व्यक्तिगत चीजों और किताबों से लदे-फंदे दफ्तर से बाहर निकले तो कैम्पस के गेट पर दरबान ने उन्हें रोक लिया। विष्णु प्रताप सिंह ने दरबान से डपट कर पूछा, ‘क्या बात है ?’
‘साहब, तलाशी लेनी है !’ दरबान जरा बेरुखी से बोला।
‘मेरी तलाशी !’ विष्णु प्रताप सिंह सकपकाए। बोले, ‘लेकिन यह सब मेरी व्यक्तिगत चीजें हैं।’ कार का फाटक खोलते हुए उन्होंने दरबान से आतुर हो कर कहा, ‘तुम खुद देख लो। कंपनी की कोई भी चीज नहीं है।’
‘पर साहब आप कुछ नहीं ले जा सकते।’ दरबान बोला, ‘एम. डी. साहब ऐसा ही बोला है।’
‘रुको मैं खुद एम. डी. से बात करता हूं।’ कार से उतर कर वाचमैन हट में रखे इंटरकाम फोन की ओर विष्णु प्रताप सिंह बढ़े।
‘लेकिन एम. डी. साहब दफ्तर में नहीं हैं।’ दरबान उनको फोन करने से रोकते हुए बोला।
‘पर अभी तो थे। मेरी बात भी हुई है।’ विष्णु प्रताप सिंह आहत होते हुए बोले।
‘हां, थे तो पर अभी-अभी पांच मिनट पहले निकल गए।’ कह कर दरबान दो दूसरे आदमियों से कह कर कार के भीतर से किताबें वगैरह निकलवाने लगा। एक क्लर्क आगे बढ़ कर सामानों की लिस्ट बनाने लगा। दफ्तर के और भी लोग गेट पर इकट्ठे होने लगे। विष्णु प्रताप सिंह के अपमान की इंतिहा थी यह। बाकी सामान उन्होंने खुद कार से निकाल कर बाहर फेंका और कार स्टार्ट कर चलने लगे तो दरबान ने उन्हें फिर रोका। तो विष्णु प्रताप सिंह उसे गुरेरते हुए लेकिन सर्द आवाज में बोले, ‘अब क्या है ? सब तो खुद ही निकाल दिया।’
‘हां, लेकिन पीछे डिग्गी भी देखना है !’ दरबान पूरी बेरुखी से बोला।
‘ओफ्फ ! इतना ह्यूमिलिएशन !’ वह बुदबुदाते हुए कार बंद कर बाहर निकले। डिग्गी खोली। बोले, ‘ठीक से देख लो। कहो तो इंजन भी खोल दूं।’
‘नहीं साहब, इंजन मत खोलिए।’ डिग्गी में रखी स्टेपनी हिला डुला कर देखते हुए दरबान बुदबुदाया, ‘साहब गुस्सा मत होइए। गरीब आदमी हूं, नौकरी कर रहा हूं।’
‘ठीक है, ठीक है।’ खीझते हुए विष्णु जी ने कार स्टार्ट की। पर गेट पर आ बटुरे दफ्तर का एक भी आदमी उनकी सहानुभूति में आगे नहीं आया। बिंदू बंसल भी नहीं। वह तो अपने क्यूबिकल से ही बाहर नहीं आईं।
पर गेट पर विष्णु जी के साथ क्या-क्या घटा उसका पूरा ब्यौरा बारी-बारी कई लोगों ने लगभग तंज करते हुए उन्हें सुनाया। पर बिंदू बंसल ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी।
लोगों ने कयास लगाया कि बिंदू बंसल भी कल से आफिस नहीं आएंगी। लेकिन वह दूसरे दिन क्या चौथे, पांचवें दिन भी आईं। बावजूद इस रुटीन के जंगल में चीतों, तेंदुओं, कुत्ते, भेड़ियों की बढ़ आई गश्त के। इनकी गश्त बढ़ गई थी और उन का शेर इस्तीफा दे गया था।
बिंदू बंसल परेशान थीं। बेहद परेशान। पर परेशानी की लकीरें चेहरे पर वह नहीं आने देती थीं।
एक पुराना एडिशनल जनरल मैनेजर अब कंपनी का नया जनरल मैनेजर बना दिया गया था। बिंदू बंसल अब इस नए जनरल मैनेजर की मातहत थीं। नया जनरल मैनेजर यानी इस रुटीन के जंगल का नया राजा। पर बिंदू बंसल ने न सिर्फ उसे अपना शेर नहीं माना बल्कि उसकी उपेक्षा भी शुरू कर दी। पांच बजते न बजते उनका बैग तैयार हो जाता और वह चलने लगतीं तो नया जनरल मैनेजर उन्हें थोड़ी देर और रुकने को कहता। वह टालती हुई बोलतीं, ‘सर देर तक रुक पाना मेरे लिए पॉसिबिल नहीं है।’ वह जोड़तीं, ‘एक तो अंधेरा हो जाता है दूसरे, घर में भी बहुत काम है।’
‘पर पहले तो आप रात दस-दस बजे तक रुकती थीं।’ नया जनरल मैनेजर द्विअर्थी मुसकान फेंकता हुआ बोलता, ‘तब अंधेरा नहीं होता था ?’ वह लगभग आदेश देता, ‘अभी बैठिए कुछ जरूरी काम है। देर होने पर कंपनी की कार आपको घर छोड़ आएगी।’ बिंदू बंसल फिर भी आनाकानी करतीं तो जनरल मैनेजर लगभग किचकिचाता, ‘देखिए नौकरी करना आप की मजबूरी है यह मैं जानता हूं। इस लिए जैसा कहता हूं चुपचाप वैसा ही कीजिए।’ इशारा साफ होता कि मेरे साथ भी वही संबंध रखो और मेरी गोद में आ जाओ। जैसे पुराने जनरल मैनेजर के साथ मिठाई खाती थी, मेरे साथ भी खाओ। पर बिंदू बंसल नए जनरल मैनेजर की मिठाई खानी तो दूर उसकी मिठाई की ओर देखती भी नहीं थीं। यह बात नए जनरल मैनेजर को नागवार गुजरती और वह तरह-तरह से बिंदू बंसल को तंग करता। एक बार उसने बहक कर बिंदू बंसल का हाथ पकड़ लिया तो बिंदू बंसल ने झट दूसरे हाथ से अपनी सैंडिल निकाल ली। ऐन वक्त पर चपरासी ने बीच बचाव किया।
बात आगे बढ़ गई। बिंदू बंसल को अनुशासनहीनता के आरोप में डिसमिस करने की जनरल मैनेजर ने पहल की। पर इस कंपनी में ट्रेड यूनियन तब स्ट्रांग थी।
यूनियन के लोग आगे आए और बिंदू बंसल के डिसमिसल की बात यहीं दफन हो गई। फिर भी वह लंबी छुट्टी पर चली गईं। मेडिकल लीव पर। अफवाहों ने फिर हवा पकड़ी कि मेडिकल लीव नहीं, एबॉर्शन लीव पर गईं हैं मैडम। तो कोई कहता नहीं मिस्टर शुगर के यहां ब्लड प्रेशर जी अपना प्रेशर बढ़ाने गईं हैं। कोई कहता कि अब क्या आएंगी ? लेकिन बीस दिन के मेडिकल लीव के बाद फिटनेस सर्टिफिकेट के साथ वह आईं। उसी दिन उनका ट्रांसफर एकाउंट्स सेक्शन में कर दिया गया।
जाति की बनिया भले थीं बिंदू बंसल पर एकाउंट्स में जीरो थीं। हाई स्कूल तक में मैथ उन्होंने नहीं पढ़ी थी। होम साइंस ले कर किसी तरह हाई स्कूल पास कर इंटर किया था। बी. ए. में दो बार फेल हो कर किसी तरह सोसियोलॉजी, एजूकेशन, साइकॉलजी टाइप सब्जेक्ट ले कर थर्ड डिवीजन पास हुई थीं और अब एकाउंट्स सेक्शन से उनका पाला पड़ा था। दूसरे, एकाउंट्स का सेक्शन हेड नए जनरल मैनेजर का चंपू था। एकाउंट्स सिखाने के नाम पर वह बिंदू बंसल को अपने पास ही बैठाता था और जब तब द्विअर्थी बातें करता रहता। वह हिप से ब्रा साइज तक की बातें करता और खुसफुसा कर पूछता, ‘बिना मर्द के आप कैसे रहती हैं ?’ बिंदू बंसल उसकी बातों का बिना जवाब दिए ख़ामोशी से पी जातीं। लेकिन सेक्शन हेड की द्विअर्थी बातों का पिटारा ख़त्म नहीं होता। उकता कर बिंदू उठ खड़ी होतीं। तो खीझ कर वह पूछता, ‘क्या बात है ?’
‘बाथरूम जा रही हूं।’
‘क्या खाती हो जो इतना बाथरूम जाती हो ?’ वह किचकिचा कर लेकिन इस बात को द्विअर्थी टच दे कर खुसफुसा कर पूछता। बिंदू बंसल निरुत्तर हो जातीं और बाथरूम जाने के बजाय बैठ जातीं। थोड़ी देर बाद सेक्शन हेड द्विअर्थी मुसकान फेंकता पूछता, ‘रुक गई क्या ?’
‘क्या ?’ बिंदू बंसल अचकचा कर पूछतीं।
‘अरे, वही बाथरूम और क्या ?’ फिर वह तुरंत जोड़ता,’ आप का पीरियड आज तक कभी रुका है कि नहीं ?’
बिंदू बंसल तिलमिला कर रह जातीं। पर बोलतीं फिर भी कुछ नहीं। क्यों कि नौकरी उनकी सचमुच की मजबूरी थी और वह सेक्शन हेड की शिकायत भी नहीं करतीं। क्यों कि वह सारी बातें खुसफुसा कर धीमी आवाज में ही करता। दूसरे, वह नए जनरल मैनेजर का चंपू था। तीसरे, इस में उन की ही बदनामी थी। क्यों कि पुराने जनरल मैनेजर विष्णु प्रताप सिंह के साथ उनका नाम उछल ही चुका था। सो वह चुप ही रहतीं।
विष्णु प्रताप सिंह लखनऊ की यह कंपनी छोड़ने के कुछ दिन बाद दिल्ली की एक बड़ी कंपनी में कंसलटेंट हो गए थे। पर बिंदू बंसल को वह भूले नहीं थे। जब कभी लखनऊ आते तो अपने परिवार से भी ज्यादा समय वह बिंदू बंसल के साथ बिताते। दिल्ली से वह उन्हें जब तब फोन भी करते और चिट्ठियां भी लिखते। फोन पर खुल कर बात संभव नहीं बन पाती और चिट्ठियां घर में या दफ्तर में किसी और द्वारा पढ़ लिए जाने का ख़तरा होता। सो चिट्ठियों में भी वह संकेतों में ही अपनी बात लिखते। हालां कि बाद में बिंदू बंसल ने चिट्ठियों के लिए डाक घर में एक बाक्स नंबर ले लिया। लेकिन बात सिर्फ चिट्ठियों से ही नहीं निपटने वाली थी। वह अपनी कुछ-कुछ परेशानियां विष्णु जी को बतातीं और कुछ-कुछ क्या ज्यादा कुछ छुपा जातीं। क्यों कि दिल्ली में विष्णु जी भी परेशान ही थे। इस नई कंपनी में उन्होंने देखा कि पुराने अनुभवी और काबिल मैनेजरों की कोई ख़ास जरूरत नहीं थी। ज्यादातर जगहों पर, नए-नए एम. बी. ए. वाले लड़के-लड़कियों की भरमार भी थी और डिमांड भी। पुरानों की जरूरत लगभग नहीं थी। हां, रिटायर्ड आई. ए. एस॰, आई॰, पी. एस. अफसरों की खपत जरूर थी। जो प्रशासनिक और अन्य कामों के बजाय कंपनी के लिए लॉयजनिंग के कामों में ज्यादा लगाए जाते थे और वेतन के नाम पर मोटी रकम डकारते।
सो विष्णु जी दिल्ली में एक तरह से अनफिट और अनसेटिल्ड थे। तो ऐसे में वह बिंदू बंसल को दिल्ली में भला कहां एडजस्ट करवाते ? लेकिन बिंदू बंसल की सेक्शन हेड से पंगेबाजी बढ़ती ही जा रही थी। एक दिन एक लेजर में भारी हेर फेर दिखा कर बिंदू बंसल को अपने आगोश में इनवाइट करने पर आमादा हो गया। बोला, ‘कुछ नहीं होगा। मैं बचा लूंगा। बस आज शाम मेरे साथ फला होटल चली चलो।’
‘सवाल ही नहीं !’ बिंदू बंसल ने बड़ी सख़्ती से कहा।
‘तो फिर तुम्हें अब ब्रह्मा भी नहीं बचा सकते।’ सेक्शन हेड बोला, ‘कंपनी तुम्हें डिसमिस तो करेगी ही, हेराफेरी के आरोप में एफ. आई. आर. भी दर्ज कराएगी। और यूनियन इसमें कुछ नहीं कर पाएगी। क्यों कि मामला स्पष्ट रूप से हेराफेरी का है।’ बिंदू बंसल सेक्शन हेड के दबाव में आ गईं। होटल तो उसके साथ शाम को नहीं गईं पर आफिस के पर्सनल डिपार्टमेंट में जा कर अपना इस्तीफा सौंप गईं।
विष्णु जी को रात फोन कर अपने इस्तीफा की ख़बर दी और कहा कि ‘विष्णु जी प्लीज मेरे लिए भी दिल्ली में ही कुछ प्रबंध कीजिए।’ उन्होंने जोड़ा, ‘आफिस की तो प्राब्लम जो यहां थी सो थी ही, सच यह भी है कि अब मैं आप के बिना भी नहीं रह सकती। सो प्लीज कुछ कीजिए !’ दो तीन महीने लखनऊ में यहां वहां भटकने के बाद सचमुच वह दिल्ली चली गईं पर तब तक विष्णु जी भी फिर से इस्तीफा दे चुके थे और इधर-उधर मार पीट कर सो काल्ड कंसलटेंसी कर रहे थे। पर गुजारे लायक पैसे बटोर लेते थे। लखनऊ में खर्चे की चिंता उन्हें वैसे भी नहीं थी। पत्नी की लेक्चररशिप चल रही थी और शांति से चल रही थी। पर बिंदू जी के भी दिल्ली पहुंच जाने की ख़बर से उनकी पत्नी निशा कुशवाहा की शांति में थोड़ी खलल जरूर हुई पर विष्णु जी से उन्होंने फिर भी तब कुछ नहीं कहा। शुरू-शुरू में विष्णु जी ने लोक लाज की परवाह करते हुए बिंदू बंसल के दिल्ली में रहने की अलग व्यवस्था की। पर यह अलग वाली व्यवस्था बाद में भारी पड़ने लगी। लगभग सो काल्ड कंसल्टेंसी में तीन-तीन इस्टेब्लिशमेंट चलाना विष्णु जी को भारी पड़ने लगा। हालां कि लखनऊ में परिवार का खर्च पत्नी चलाती थीं तो भी दिल्ली से लखनऊ भी आने जाने का खर्च तो था ही। इसे ही वह तीसरा इस्टेब्लिशमेंट कहते। इस बीच बिंदू बंसल के लिए छोटी मोटी नौकरी की ख़ातिर खुद भी दौड़ भाग की उन्होंने। जान-पहचान के दायरे में वह बिंदू बंसल को अपने परिचय के मार्फत भेजना नहीं चाहते
थे। फिर भी एक कंपनी में कुछ जगहें उन्हें पता चलीं जहां बिंदू जैसी औरत एडजस्ट हो सकती थी। वहां का मैनेजर चावला विष्णु प्रताप सिंह को जानता भी था। यह बात उन्होंने बिंदू बंसल को बताई और उसके कुछ डिटेल्स दिए कि कैसे वह कनविंस होता है और कहा कि, ‘जाओ यहां तुम्हारी नौकरी पक्की है।’ साथ ही जोड़ा भी कि, ‘लेकिन मेरा जिक्र भूल कर भी नहीं करना !’ बिंदू बंसल सज-धज कर टैक्सी से पहुंचीं विष्णु जी के साथ कनॉट प्लेस जहां उस कंपनी का दफ्तर था। पालिका बाजार की पार्किंग से दोनों अलग हो गए। बिंदू बंसल, चावला के पास इंटरव्यू के लिए पहुंचीं। विष्णु जी की बताई तरकीबों को आजमाया। चावला सचमुच प्रभावित हो गया। बिंदू बंसल बातचीत में बिलकुल निश्चिंत हो गईं कि अब तो यह नौकरी उनके हाथ में है। चावला ने उनसे पूछा भी कि, ‘कब से ज्वाइन करना चाहेंगी ?’ बिंदू बंसल कुछ जवाब देतीं कि तभी ‘हाय गजब कहीं तारा टूटा’ वाली बात हो गई। चावला ने अचानक दुबारा बायोडाटा पर नजर डालते हुए होंठ गोल किए और बोला, ‘ओह तो आप इस कंपनी में लखनऊ में काम कर चुकी हैं?’
‘जी मैं लखनऊ की ही हूं।’ बिंदू बंसल पूरे कानफिडेंस के साथ बोलीं।
‘ओह तब तो आप विष्णु प्रताप सिंह को भी जानती होंगी....?’
‘नो सर !’ चावला की बात काटते हई बिंदू बंसल पूरे कानफिडेंस से अतिरिक्त चतुराई घोलती हुई बोलीं, ‘बिलकुल नहीं सर !’
‘अच्छा !’ चावला ने कंधे उचकाए। बोला, ‘पर मैं जानता हूं। ही इज ए नाइस मैंन। बहुत ही खुद्दार, बहुत ही तेज। जीनियस है वह जीनियस !’ चावला रुका और बोला, ‘पर उसी कंपनी में जिस में वह बरसों जी. एम. रहा, आप ने भी काम किया और उस जीनियस को आप नहीं जानतीं ?’
‘नो सर ! वेरी सॉरी !’ बिंदू बंसल का कानफिडेंस हिल चुका था पर चतुराई नहीं।
‘ठीक है आप को बाद में थ्रू लेटर इंटीमेट कर दिया जाएगा।’ चावला बोला, ‘अभी आप चलिए !’
बिंदू बंसल की सारी सज-धज, अतिरिक्त चतुराई, विष्णु जी की बताई तरकीबें, कानफिडेंस आदि सब पर पानी फिर गया था।
अपनी कंसलटेंसी ट्रिप से लौट कर शाम को जब विष्णु जी बिंदू से कनॉट प्लेस में ही मिले तो उन की उदासी देख कर वह समझ गए कि बात बनी नहीं है। तो भी उन्हों ने बिंदू का कंधा ठोंकते हुए कहा, ‘दिस इज नॉट ए लास्ट चांस।’ वह चहकते हुए बोले, ‘डोंट वरी। फिर कहीं देखेंगे।’
एक रेस्टोरेंट में मिठाई खाने खिलाने के बाद विष्णु जी बिंदू जी का हाथ, हाथ में लिए जनपथ की सैर कर रहे थे कि अचानक चावला सामने दिख गया। बिंदू बंसल तो घबरा कर मुंह छुपाने की जगह ढूंढ़ने लगीं पर विष्णु जी ने बिलकुल मिठाई खाने खिलाने वाले अंदाज में एक हाथ से स्कार्फ ढीली टाइट करते हुए दूसरा हाथ हिला कर चावला को विश किया। चावला ने भी भलमनसाहत दिखाई। हाथ हिलाते हुए तेजी से आगे बढ़ गया। बाद में बिंदू ने पूरे इंटरव्यू का वाकया बताया और यह भी कि उनके बताए मुताबिक कैसे उन्होंने चावला से उन्हें जानने से सिरे से इंकार कर दिया था। यह ब्यौरे देती हुई वह बोलीं, ‘नौकरी तो नहीं ही दी नासपीटे ने और यहां मिल भी गया !’
‘डोंट वरी !’ विष्णु जी बिंदू की हिप हलके से थपथपाते और मुसकुराते हुए बोले, ‘यह लखनऊ नहीं, दिल्ली है। यहां इस सब की इतनी नोटिस नहीं ली जाती।’
‘पर मैं तो लखनऊ की हूं। कैसे भूल जाऊं कि....।’
‘कुछ नहीं, दिल्ली आई हो तो दिल्ली में रहने की आदत डालो।’
‘अपने तो आप अभी तक दिल्ली में रहने की आदत डाल नहीं पाए, दिल्ली वाले बन नहीं पाए और हमें नसीहत दे रहे हैं।’
‘क्या बात कर रही हो ?’
‘तो हम दोनों साथ-साथ क्यों नहीं रह सकते ?’ बिंदू जी अब इस मौके को छोड़ना नहीं पकड़ लेना चाहती थीं। बोलीं, ‘जब यह लखनऊ नहीं, दिल्ली है और यहां लोग ऐसी बातों की नोटिस नहीं लेते तो यह क्या हुआ कि आप जमुना पार रहें और मैं रोहिणी में। यह किस लिए ?’
‘इस लिए कि लखनऊ के कुछ लोग यहां भी रहते हैं और लखनऊ से जब तब लोग दिल्ली भी आते रहते हैं।’
‘तो लखनऊ के लोगों के लिए रखिए जमुना पार का अपना ऐड्रेस। रोहिणी में चल कर मेरे ऐड्रेस पर रहिए।’
‘मकान मालिक ऐतराज करे तो ?’
‘ऐतराज क्यों करेगा ? किराया नहीं देते हैं क्या ?’
‘चलो जल्दी ही ऐसा कुछ सोचते हैं।’ कह कर विष्णु जी ने इस चैप्टर को यहीं क्लोज कर दिया। लेकिन बिंदू बंसल ने यह चैप्टर ओपेन रखा। बड़े मनुहार से कहा, ‘आज आप रोहिणी चले चलिए। बहुत दिन हो गया।’ विष्णु जी ने हूं-हां कर के टालना चाहा। पर बिंदू की मनुहार को अंततः टाल नहीं पाए। गए रोहिणी। फिर धीरे-धीरे रोहिणी में वह रहने लगे। लेकिन जल्दी ही मकान मालिक का ऐतराज आ गया। रोहिणी के ही दूसरे सेक्टर में मकान किराए पर लिया । लेकिन ऐतराज ने पीछा यहां भी नहीं छोड़ा। अंततः विष्णु जी ने फरीदाबाद में एक फ्लैट ख़रीद लिया। अब दोनों आराम से रहने लगे। गोया मियां बीवी हों। प्रेमी प्रेमिका नहीं। बिंदू जी ने यहां फरीदाबाद में आ कर अपना नाम भी बदल लिया। कॉलोनी वालों के लिए अब वह रीता सिंह थी। फरीदाबाद की ही एक फैक्ट्री में पर्सनल असिस्टेंट की नौकरी भी कर ली उन्होंने। गाड़ी चल क्या दौड़ पड़ी।
अलबत्ता लखनऊ में निशा कुशवाहा यह सब जान सुन कर दुखी हुईं। पर कभी किसी से मुंह नहीं खोला। फरीदाबाद में एक बार विष्णु जी की बीमारी की ख़बर सुन कर वह पहुंचीं भी। यहां बिंदू बंसल ऊर्फ रीता सिंह से उनका सीधा साबका पड़ा। बस झोंटा-झोटौव्वल भर नहीं हुआ बाकी सब हुआ। अंततः बिंदू बंसल ही अपना ब्रीफकेस बांध कर लखनऊ चल पड़ीं। कुछ दिन निशा कुशवाहा रहीं फरीदाबाद में विष्णु जी की तीमारदारी में। वह जब स्वस्थ हो गए तो लखनऊ वापस आ गईं। समझा बुझा कर कि अभी कुछ नहीं बिगड़ा। बोलीं, ‘मैं लखनऊ वापस इस लिए जा रही हूं कि बच्चे अकेले हैं और मेरी लेक्चररशिप कनफर्म है। फिर इस उम्र में कहीं नौकरी भी मिलने से रही। तो यहां कैसे रहूं ? खर्च कैसे चलेगा?’ उन्होंने विष्णु जी से भी कहा कि, ‘ऐसी ही कंसलटेंसी करनी है तो चलिए लखनऊ ही आप भी रहिए। मैं क्या कोई भी कुछ नहीं कहेगा !’
‘तुम चाहती हो मैं पराजित व्यक्ति की तरह चल के लखनऊ रहूं अब?’
‘मेरी जिंदगी में आप ही मेरे हीरो हैं। क्यों चाहूंगी कि आप पराजित व्यक्ति की तरह कहीं रहें।’ वह बोलीं, ‘आप को लगता है कि लखनऊ रहने में आप की पराजय है तो यहीं रहिए। लेकिन कुछ लोक लाज की परवाह कीजिए। बच्चे बड़े हो गए हैं उनकी सोचिए। सोचिए कि जब बच्चे जानेंगे कि पापा ऐसा कर रहे हैं तो क्या बीतेगी उन पर। क्या मुंह दिखाऊंगी मैं।’ फिर अपने पुराने प्यार का वास्ता दिलाया। बताया कि अपने परिवार से टकरा कर, दकियानूसी मान्यताओं को दरकिनार कर आप ने मुझ से विवाह किया था। तब से लखनऊ में आप की इमेज एक बहादुर आदमी की है। पर वही लखनऊ जब जानेगा कि आप यह सब कर रहे हैं और आप से नहीं न सही, मुझ से दबी जबान भी पूछेगा तो मैं क्या जवाब दूंगी ? क्या कहूंगी कि मेरा हीरो मर गया है ?’ कहती हुई वह रोने लगीं और रोती हुई ही वह लखनऊ लौटीं।
लेकिन घर आ कर वह सहज हो गईं। ऐसे कि जैसे कुछ घटा ही न हो। पर मन में तो जैसे बाढ़ आई हुई थी। पर इस बाढ़ को वह काम के कई-कई बांध बना कर रोके रहीं। विष्णु जी फिर-फिर लखनऊ आते रहे, फरीदाबाद जाते रहे। पर निशा कुशवाहा फिर नहीं गईं फरीदाबाद।
गईं फरीदाबाद तो वह विष्णु जी के निधन पर ही।
आधी रात गए यह दुखद ख़बर फोन पर फरीदाबाद से बिंदू बंसल ने निशा कुशवाहा को दी। बिंदू ने फोन पर सीधे निधन की ख़बर नहीं दी। फोन पर उन्होंने भर्राई आवाज में बताया कि, ‘विष्णु जी की तबीयत अचानक बहुत बिगड़ गई है।’ कहते हुए वह रो पड़ीं। रोती हुई ही वह बोलीं, ‘उनके जीवन और मौत के बीच बहुत कम फासला रह गया है....।’ फिर वह बोल नहीं पाईं। रोती रहीं लगातार फोन पर। लेकिन इधर निशा कुशवाहा यह ख़बर सुन कर रोई नहीं। विष्णु जी की बीमारी और तकलीफ के डिटेल्स पूछती रहीं। लेकिन बिंदू बंसल की रुलाई थी कि थम नहीं रही थी। वह बोलतीं तो ख़ैर क्या ? निशा कुशवाहा ने विष्णु जी से बात करवाने को कहा तब भी बिंदू बंसल रोती ही रहीं। रोती हुई ही बोलीं, ‘बस आप तुरंत आ जाइए।’
फोन कट गया था। आधी रात फोन की घंटी सुन कर बच्चे भी जग गए थे। और फोन पर मां की बातचीत से दुखद ख़बर का अंदाजा भी लग गया था। किसी ने किसी से कुछ कहा नहीं। सभी ख़ामोश थोड़ी देर बैठे रहे। सभी की आंखें सवाल दर सवाल में सुलग रही थीं। पर जवाब दर जवाब तो छोड़िए जवाब का एक बिंदु भी नहीं दिख रहा था जो प्रस्थान बिंदु का काम कर सके। अंततः चुप्पी तोड़ी निशा जी की बड़ी बेटी ने। बोली, ‘फरीदाबाद अब तो चलेंगी मम्मी ?’
‘हां बेटी !’ वह बोलीं, ‘हम सभी चल रहे हैं और अभी !’ उनकी आवाज में जरा भारीपन तो आ गया था पर आंखें सूखी ही थीं। भींगी नहीं उनकी आंखें। जरा रुक कर बेटी से वह बोलीं, ‘कुछ कपड़े लत्ते ब्रीफकेस में भरो और रेलवे इंक्वायरी फोन कर पता करो कि दिल्ली के लिए अभी गाड़ी कितने बजे की है ?’
तब रात के दो बज रहे थे। रेलवे इंक्वायरी का फोन तुरंत मिल गया। बताया गया कि सुबह पांच बजे गोमती के अलावा और कोई ट्रेन दिल्ली के लिए अभी नहीं है। सो गोमती पकड़ना तय हुआ। पर अब एक बड़ी दिक्कत खड़ी हुई पैसों की। चार लोगों के आने-जाने का टिकट। टैक्सी और अन्य खर्चे। महीने का आखि़री हफ्ता था और पैसे घर में कुल जोड़ कर तीन चार हजार से ज्यादा नहीं थे। ‘क्या करूं ?’ निशा जी खुद से बुदबुदाईं। तभी शुक्ला जी की उन्हें याद आई। शुक्ला जी अभी युवा थे पर विष्णु जी के बहुत ही प्रिय। लखनऊ की जिस कंपनी में विष्णु जी जनरल मैनेजर थे, शुक्ला जी अभी भी वहीं काम कर रहे थे। शुक्ला जी विष्णु जी की तो इज्जत करते ही थे, निशा जी का भी बहुत आदर करते थे। अलग बात है कि वह बिंदू बंसल को भी रिस्पेक्ट देते थे। तो इस लिए कि वह विष्णु जी से जुड़ी हुई थीं। ख़ैर, निशा जी ने घड़ी देखी; रात के ढाई बजे थे। उन्होंने डायरी निकाली; शुक्ला जी का फोन नंबर ढूंढ़ा और मिलाया। फोन शुक्ला जी ने ही उठाया।
‘भइया जी मैं निशा बोल रही हूं। विष्णु जी की पत्नी !’
‘नमस्ते भाभी जी !’ शुक्ला जी नींद से जागते हुए बोले, ‘कहिए क्या हो गया?’
‘भइया जी माफ करिए कि आप को इतनी रात में फोन करना पड़ा।’
‘नहीं, कोई बात नहीं। आप हुकुम कीजिए।’
‘हुकुम की बात नहीं है, भइया जी हमारी थोड़ी मदद कीजिए !’
‘हां, हां बताइए !’
‘अभी इसी वक्त हमें कुछ पैसे चाहिए।’
‘कितने ?’
‘दस बीस हजार जो भी हों अधिक से अधिक !’
‘क्यों क्या हो गया ?’
‘भइया जी, अभी थोड़ी देर पहले फरीदाबाद से बिंदू जी का फोन आया था। वह बहुत रो रही थीं। रोते हुए ही बताया कि विष्णु जी की तबीयत ज्यादा बिगड़ गई है। तो भइया जी हम तुरंत गोमती से निकल रहे हैं बच्चों को ले कर।’ वह भावुक हुईं। बोलीं, ‘आप कुछ कर सकेंगे ?’
‘हां, देखता हूं।’ शुक्ला जी बोले, ‘इतने पैसे तो शायद घर में नहीं होंगे। फिर भी मैं इंतजाम करता हूं।’
‘तो भइया जी, जो भी हो सके घर पर मेरे अभी पहुंचा देंगे ? जल्दी से जल्दी?’
‘हां, हां। बस मैं पहुंच रहा हूं।’
शुक्ला जी ने फोन रख कर पत्नी को जगाया। बोले, ‘घर में जितने भी पैसे हों सब के सब निकालो।’
‘हुआ क्या ?’ पत्नी ने नींद में ही पूछा, ‘किसका फोन था ?’
‘निशा भाभी का। विष्णु जी की तबीयत अचानक बहुत बिगड़ गई है।’
‘तो अब फरीदाबाद जाएंगे ?’
‘मैं नहीं, निशा भाभी जा रही हैं, पैसे उन्हों ने मांगे हैं।’
‘कितने निकालूं ?’
‘कहा न जितने हैं सब ! बीस पचीस हजार। जो हो सब !’
‘इतने पैसे कहां हैं ?’
‘तुम अपनी बचत वाले पैसे भी निकाल लो न ?’
‘तब भी इतने नहीं हो पाएंगे।’
पैसा निकालते हुए शुक्ला जी की पत्नी थोड़ी अनमनस्क हुईं। पर मामला चूंकि विष्णु जी का था सो वह कुछ बोलीं नहीं। जोड़ गांठ कर कुल आठ हजार ही निकले। शुक्ला जी घबराए। एक दोस्त को फोन किया। उसने भी पांच हजार ही देने को कहा। शुक्ला जी ने कहा भी कि, ‘सुबह बैंक खुलने के बाद जैसे भी होगा, पैसे आज ही दे देंगे।’
‘लेकिन हों तब दूं न ?’ दोस्त नींद में ही बड़बड़ाया।
‘ख़ैर चलो निकाल कर पैसे बाहर रखो। मैं तुम्हारे घर पहुंच रहा हूं।’
पैसे ले कर शुक्ला जी विष्णु जी के घर पहुंचे। साढ़े तीन बज गए थे। निशा जी तैयार बैठी थीं मय बच्चों के। शुक्ला जी को देखते ही उठ कर खड़ी हो गईं। बोलीं, ‘भइया जी इतनी रात में आप ही एक आसरा दिखे। माफ कीजिएगा आप को परेशान कर दिया।’
‘कोई बात नहीं भाभी जी ! आप जाइए विष्णु जी को देखिए। पैसों की और जरूरत होगी तो पहुंच कर फोन करिएगा। मैं और इंतजाम कर के खुद पहुंचूंगा। दिन में तो बैंक भी खुल जाएंगे।’
‘अच्छा भइया जी देखूंगी वहां पहुंच कर !’ वह बोलीं, ‘एक काम और नहीं कर देंगे ?’
‘बताइए !’
‘हम सब को स्टेशन नहीं छोड़ देंगे ?’ वह बोलीं, ‘जाने सड़क पर कोई सवारी मिले कि न मिले। सुबह पांच बजे की ट्रेन है।’
‘चलिए बारी-बारी कर के सबको छोड़ देता हूं।’
फिर शुक्ला जी ने स्कूटर से दो बार में निशा जी और उन के बच्चों को स्टेशन पहुंचाया। रिजर्वेशन था नहीं सो टिकट ख़रीद कर किसी तरह ट्रेन में उन के बैठने का बंदोबस्त किया। ट्रेन छूटने से पहले फरीदाबाद में विष्णु जी के घर का पता और फोन नंबर लिया।
ट्रेन छूटने के बाद शुक्ला जी स्टेशन से बाहर आए। उन्हें बेचैनी महसूस हुई! इसी बेचैनी में वह एक पी. सी. ओ. पहुंचे और विष्णु जी के फरीदाबाद वाले घर का फोन मिलाया। जाने किसने फोन उठाया। विष्णु जी की तबीयत के बारे में शुक्ला जी ने पूछा, ‘अब कैसी तबीयत है विष्णु जी की ?’
‘तबीयत की पूछते हो ? वह तो रात ही मर गया।’
‘आप कौन बोल रहे हैं ?’ पूछते हुए शुक्ला जी को रुलाई आ गई।
‘मैं तो जी पड़ोसी हूं। तुम हमको नहीं जानोगे !’ वह पड़ोसी बोला, ‘यहां तो क्रिमिनेशन की तैयारी हो रही है। बस लखनऊ से इस के बच्चों के आने का वेट हो रहा है।’
‘अच्छा बिंदू जी से बात करवा दीजिए।’ शुक्ला जी रुलाई रोकते हुए बोले।
‘कौन बिंदू ?’
‘बिंदू जी !’
‘यहां कोई बिंदू नहीं है भाई ! तुम कौन बोल रहे हो !’
‘मैं लखनऊ से शुक्ला बोल रहा हूं।’
‘तो इस के बच्चों को भेजो !’
‘बच्चे अभी गोमती ट्रेन से यहां से चल चुके हैं।’
‘फिर तो ठीक है !’ पड़ोसी फोन पर बोला, ‘कब तक ट्रेन आ जाएगी यहां?’
‘दो ढाई बजे तक दिल्ली पहुंचती है।’
‘ओ हो तब तक तो शाम हो जाएगी फरीदाबाद आते-आते।’ वह बोला, ‘ख़ैर चलो आने दो।’ कह कर उसने फोन खुद ही काट दिया।
शुक्ला जी ने ताबड़तोड़ दिल्ली में दो तीन और लोगों को फोन मिलाया। जो लोग कि विष्णु जी को जानते थे और लखनऊ से दिल्ली गए थे। इनमें एक वाजपेयी जी को तो विष्णु जी के निधन की ख़बर पहले से थी और वह फरीदाबाद के लिए बस निकल ही रहे थे। शुक्ला जी ने वाजपेयी जी से कहा कि, ‘कुछ पैसे वैसे भी लेते जाइएगा और हो सके तो कोई छोटा ट्रक ही सही विष्णु जी की बॉडी लखनऊ भेजने के लिए अरेंज करवा दीजिएगा।’
‘देखो भाई देखते हैं।’ वाजपेयी जी बोले, ‘ट्रक वगैरह की दिक्कत तो नहीं होने दी जाएगी, न पैसे की। उनकी फेमिली जैसा कहेगी, वैसा कर दूंगा। बाकी पेंच तो तुम जानते ही हो !’
‘क्या पेंच ?’
‘ख़ैर छोड़ो यह सब। यह मौका यह सब बतियाने का नहीं है। फोन रखो। मैं फरीदाबाद के लिए निकल रहा हूं।’ वह बोले, ‘आखि़र वह जीनियस मेरा भी दोस्त था !’
शुक्ला जी घर पहुंचे उदास-उदास। बिखरे-बिखरे। पत्नी ने पूछा, ‘क्या हुआ?’
‘विष्णु जी नहीं रहे !’ कहते-कहते शुक्ला जी फूट-फूट कर रोने लगे।
पत्नी ने सांत्वना दी। पर शुक्ला जी रोते रहे। पत्नी ने पानी दिया, फिर चाय लाई। चाय पी कर शुक्ला जी लेट गए। थके-हारे से। लेटे-लेटे सो गए। नौ बजे के करीब पत्नी ने उन्हें झिंझोड़ा, ‘नौ बज रहे हैं। आफिस नहीं जाएंगे क्या ?’
‘नहीं आज आफिस नहीं जा पाऊंगा !’ लेटे-लेटे शुक्ला जी बोले, ‘आफिस फोन कर के तुम्हीं बता देना कि तबीयत ठीक नहीं है। ?’
‘डाक्टर के यहां चलें ?’
‘‘नहीं, कहीं नहीं।’ कह कर शुक्ला जी लेटे ही रहे। खाना भी नहीं खाया।
शाम हुई तो उठे। एक कप चाय पी और कपड़े पहन कर घर से निकले। एक पी. सी. ओ. पहुंचे। शाम के साढ़े चार बज गए थे। फरीदाबाद विष्णु जी का फोन मिलाया। किसी अपरिचित ने ही उठाया। उसने बताया कि विष्णु जी की फेमिली लखनऊ से पहुंच गई है और अब सब लोग उनके क्रिमिनेशन के लिए निकल रहे हैं।
‘क्या बॉडी लखनऊ नहीं आएगी ?’
‘नहीं जी। उनकी फेमिली क्रिमिनेशन यहीं चाहती है।’
‘जरा उनकी पत्नी से बात करवा दीजिए।’
‘बात अभी नहीं हो सकती। वह बाहर बॉडी के पास बैठी हैं।’ कह कर उस अपरिचित ने फोन काट दिया।
उदास हताश शुक्ला जी घर लौट आए।
फिर फरीदाबाद फोन नहीं किया शुक्ला जी ने। दो दिन बाद विष्णु जी के लखनऊ वाले घर गए। यह सोच कर कि अंत्येष्टि के बाद निशा जी और उनके बच्चे लखनऊ लौट आए होंगे। पर उनके घर पर ताला था। उनके सामने के पड़ोसी से पूछने पर पता चला कि, ‘अब वे लोग विष्णु जी के श्राद्ध के बाद आएंगे।’
‘क्या वे लोग झांसी गए हैं ?’ शुक्ला जी ने यह समझ कर पूछा कि क्या पता विष्णु जी के पैतृक निवास पर श्राद्ध किया जाए।’
‘नहीं फरीदाबाद में ही हैं।’
‘आप को किसने बताया ?’
‘निशा जी का परसों रात ही फोन आया था।’
‘अच्छा-अच्छा !’ कह कर शुक्ला जी लौट लिए। यह सोचते हुए कि निशा जी ने उनको फोन कर के यह सूचना क्यों नहीं बताई ?’
पर अब सोचने से कोई फायदा नहीं था। विष्णु जी नहीं रहे तो किस बात का अधिकार उस परिवार पर !
एक महीना से अधिक बीत गया विष्णु जी के निधन को। फिर भी निशा जी का फोन नहीं आया। तो भी एक शाम शुक्ला जी विष्णु जी के लखनऊ वाले घर पहुंच गए। निशा जी कोई दस मिनट बाद ड्राइंग रूम में आईं। शुक्ला जी को यह भी खला।
ख़ैर, वह आईं तो बिलकुल सामान्य ढंग से। उनको देख कर ऐसा लगा नहीं कि उन पर पहाड़ टूटा हो, वह विधवा हो गई हों ! घर में एक सन्नाटा-सा जरूर था पर उनके बच्चों के बर्ताव में भी निराशा नहीं थी। सभी कुछ पहले-सा, सामान्य सा था।
थोड़ी देर बाद औपचारिक होने के बाद शुक्ला जी ने सवालों को सुलगाना शुरू किया। उन से रहा नहीं गया। बोले, ‘अंत्येष्टि के लिए विष्णु जी की बॉडी लखनऊ क्यों नहीं लाईं ?’ वह बोले, ‘यहां लखनऊ में पूरी गरिमा से उनकी अंत्येष्टि हुई होती!’ पर निशा जी कुछ बोली नहीं। शुक्ला जी ने सवाल फिर दुहराया तो भी निशा जी टाल गईं। बोलीं, ‘जाने दीजिए भइया जी। अब जो बीत गया सो बीत गया !’ उन्हों ने एक ठंडी सांस ली।
‘आप जानते हैं हमारी व्यवस्था ! यहां तक उनकी बॉडी ले आने में मुश्किल बहुत थी !’
‘क्या वाजपेयी जी ने कुछ व्यवस्था नहीं की ?’
‘नहीं भइया जी, वाजपेयी जी ने तो दरवाजे पर ला कर ट्रक खड़ा कर दिया था। लेकिन हमीं ने मना कर दिया।’ वह रुकीं और बोलीं, ‘विष्णु जी को तो आप जानते ही रहे हैं।’ वह बोलीं, ‘जीते जी जब वह किसी का एहसान नहीं लेते थे तो मैंने सोचा अब मरने के बाद भी उन को किसी के एहसान से क्यों लादें !’
‘यह तो ठीक है पर आप चाहतीं तो लखनऊ आ कर वाजपेयी जी को बाद में ट्रक के पैसे वापस भेज सकती थीं।’
‘वो तो ठीक है।’ वह बोलीं, ‘पर मुश्किलें और भी कई थीं।’
‘और क्या मुश्किल थी ?’
‘बिंदू जी भी नहीं चाहती थीं कि बॉडी लखनऊ लाई जाए। उनका श्राद्ध भी वहां बिंदू जी की ही जिद के नाते करना पड़ा।’
‘बिंदू जी !’ बिंदू जी का नाम सुन कर शुक्ला जी थोड़ा लटपटाए। पर खुल कर कुछ नहीं पूछ पाए।
‘हां भइया जी, बिंदू जी !’ निशा जी की नदी का जैसे बांध टूट रहा था।
बोलीं, ‘आप को भइया जी, शायद पता नहीं कि बिंदू जी दिल्ली-फरीदाबाद में विष्णु जी के साथ रहती थीं। बाकायदा पत्नी की तरह !’
‘क्या कह रही हैं आप ?’ शुक्ला जी और लटपटाए, ‘कब शादी की इन लोगों ने ?’
‘शादी का तो पता नहीं पर रह रहे थे ऐसे ही।’ वह बोलीं, ‘बिंदू जी ने तो वहां कॉलोनी में अपना नाम भी बदल लिया है। वह अब रीता सिंह हैं वहां, बिंदू बंसल नहीं।’ ठंडी सांस छोड़ती हुई वह बोलीं, ‘गनीमत कि वह विष्णु बंसल नाम पर नहीं आए। बाकी हो तो वह गए ही थे।’ शुक्ला जी चुप थे लेकिन निशा जी बोल रही थीं, ‘भइया जी, अब आप से क्या छुपाना ? देर सबेर आप को कहीं न कहीं कोई बताता ही। आज मैं ही बता दे रही हूं।’
‘तो आप को पहले से मालूम था ?’
‘मालूम तो लखनऊ से ही था।’ वह बोलीं, ‘पर मुझे अपने आप पर, विष्णु जी के प्यार पर इतना ज्यादा यकीन था कि कोई परवाह नहीं की। सोचा कि टेंपरेरी फेज है, निकल जाएगा।’ वह बोलीं, ‘अब क्या पता था कि यह मेरी और विष्णु जी की जिंदगी का डैमेज फेज बन जाएगा।’
शुक्ला जी फिर चुप थे। पर निशा जी चुप नहीं थीं।
वह बोलती जा रही थीं, ‘मैं भी विष्णु जी का क्रिमिनेशन लखनऊ में करना चाहती थी। पर जानते हैं उनकी बॉडी यहां क्यों नहीं ले आई ?’
‘क्यों ?’
‘क्यों कि विष्णु जी अपनी मौत नहीं मरे थे।’
‘क्या ?’
‘हां, जब मैं फरीदाबाद पहुंची तो विष्णु जी की बॉडी पूरी की पूरी नीली पड़ चुकी थी। कहीं-कहीं काली भी।’
‘क्या मतलब ?’
‘हां, उनको जहर दिया गया था।’ वह बोलीं, ‘भइया जी, अब ऐसे में उनकी बॉडी कैसे लखनऊ लाती। लोग यहां देखते तो क्या कहते ? फिर कहीं रास्ते में पुलिस चेक करती, सवालों के घेरे में फंसाती तो किस-किस को क्या-क्या जवाब देती मैं भला ?’
‘जहर किस ने दिया ?’
‘बिंदू जी के अलावा उनके साथ था कौन ?’
‘तो आप ने पुलिस में रिपोर्ट क्यों नहीं की ?’
‘क्या होता इस से ?’
‘जहर देने वाले को जेल होती !’
‘और विष्णु जी का ?’ निशा जी बोलीं, ‘कितनी इज्जत ख़राब होती उन की। कितनी बदनामी होती उनकी। बात अख़बारों तक में उछलती। मेरा कितना अपमान होता ?’ वह बोलीं, ‘मैं नहीं चाहती थी कि विष्णु जी की इज्जत पर कोई बट्टा आए। उन्होंने जो किया वो किया पर मैं नहीं चाहती थी कि उनकी शान में कोई दाग लगे!’ वह बोलीं, ‘‘पता है एक बार मैंने उनसे लखनऊ वापस आने की बात कही थी तो जानते हैं उन्होंने क्या कहा था मुझ से ?’ वह बोलीं, ‘कहने लगे कि तुम चाहती हो मैं पराजित व्यक्ति की तरह चल के लखनऊ रहूं अब ?’ तो भइया जी इस लखनऊ में जहां वह विजयी की तरह रहे उनकी बॉडी ला कर मरने के बाद उन्हें पराजित नहीं देखना चाहती थी !’ एक ठंडी सांस लेती हुई वह बोलीं, ‘लोगों की नजर में भले वह अब मरे हैं पर भइया जी, मेरे लिए तो विष्णु जी कब के मर चुके थे। तभी जब वह बिंदू जी के साथ रहने लगे थे।’
‘पर आप ने कभी चर्चा नहीं की।’
‘क्या चर्चा करती ? कोई फायदा था क्या ? सिवाय छिछालेदर के और क्या मिलता ?’ वह बोलीं, ‘फिर मैं सोचती थी कि कभी तो विष्णु जी लौटेंगे ? लौटेंगे मेरे पास ! पर क्या करूं वह लौटे ही नहीं।’ निशा जी ऐसे बोलीं जैसे बहुत बड़ी लड़ाई वह हार गई हों।
थोड़ी देर तक ड्राइंग रूम में चुप्पी पसरी रही।
‘भइया जी कोई विश्वसनीय वकील आप की जानकारी में हो तो बताइए!’ कह कर निशा जी ने ही चुप्पी तोड़ी।
‘क्यों ? क्या होगा ?’
‘अब क्या-क्या बताऊं आप को ?’ वह बोलीं, ‘विष्णु जी को तो छीन ही लिया था बिंदू जी ने, उनकी सारी प्रापर्टी, सारा कैश भी हड़प लिया !’ वह बोलीं, ‘लाखों रुपए तो मरने के बाद गड़प लिए। बैकों में हेरा-फेरी कर के।’
‘ऐसा कैसे हो सकता है ?’
‘क्यों नहीं हो सकता ?’ वह बोलीं, ‘मरने के बाद ही दो तीन दिनों में उनके सभी बैंक खाते ख़ाली हो गए। पुराने चेकों के मार्फत।’ वह कहने लगीं, ‘जब तक बैंकों में जा कर मैं सूचना देती तब तक पैसे बाई चेक निकल चुके थे।’ उन्होंने जोड़ा, ‘और यह काम सिवाय बिंदू जी के और कौन कर सकता है ?’
‘मैं नहीं मान सकता !’ शुक्ला जी ने धीमे से प्रतिवाद किया। यह सोच कर कि निशा जी की सौतिया डाह की चिंगारी अभी बुझी नहीं है।
‘क्यों नहीं मान पा रहे हैं भईया जी ? मैं सही कह रही हूं।’
‘चलिए, बिंदू जी ने एक बार ऐसा किया भी तो मान लिया। लेकिन ये बताइए कि विष्णु जी इतने खुद्दार और ईमानदार आदमी थे, बेईमानी, दलाली कभी की नहीं तो इतना पैसा उनके पास आया कहां से कि लाखों रुपए बिंदू जी ने गड़क लिए ?’
‘भइया जी, आप कुछ नहीं जानते हैं।’ निशा जी बोलीं, ‘अब आप को मैं बताती हूं कि कैसे विष्णु जी के पास लाखों रुपए आए।’ वह बोलीं, ‘विष्णु जी ईमानदार और खुद्दार थे सही है पर बुद्धिमान भी बहुत थे। दलाली, बेईमानी नहीं की कभी उन्होंने। पर दूसरे और कई काम किए और ख़ूब पैसे कमाए।’
‘क्या ?’ शुक्ला जी चौंके।
‘चौंकिए नहीं। कोई गलत काम नहीं किया विष्णु जी ने।’ निशा जी बोलीं, ‘आप को मालूम नहीं। घर खर्च में वह मुझे एक पैसा नहीं देते थे। अपने वेतन से घर का खर्च मैं चलाती थी। उनका पॉकेट खर्च तक। जब वह लखनऊ में थे।’
‘तो अपनी सेलरी का क्या करते थे वह ?’
‘वही तो बता रही हूं।’ निशा जी बोलीं, ‘अपनी सेलरी कई दूसरे कामों में वह लगाते थे। जैसे शेयर ख़रीदने बेचने का काम करते थे वह शुरू में। बाद में ज ब पैसे बढ़े तो जगह-जगह जमीनें ख़रीदने बेचने लगे। जमीन वाला बिजनेस उनका काफी जम गया था।’ वह बोलीं, ‘मैं भी सोचती थी कि चलो पैसा कहीं लगा ही रहे हैं, उड़ा तो नहीं रहे हैं। पर क्या पता था कि सारा पैसा ऐसे डूब जाएगा।’
‘तो इसमें वकील क्या करेगा ?’ शुक्ल जी भौंचकिया कर पूछ बैठे।
‘वकील ही तो कर सकता है।’ वह बोलीं, ‘कुछ चीजों के उल्टे सही डिटेल्स मेरे पास हैं। कुछ वह कानूनी ढंग से निकालेगा। बाकी विष्णु जी के कुछ और दोस्तों से भी मैं दरियाफ्त कर रही हूं।’ वह बोलीं, ‘पर ज्यादातर हिसाब किताब, डिटेल्स तो बिंदू जी ने दबा लिए हैं, वह भी उनसे उगलवाना है।’ बोलीं, ‘अभी दो तीन चक्कर दिल्ली-फरीदाबाद के मैं और लगाऊंगी। आप भी साथ चलेंगे ?’
‘क्या करूंगा मैं चल कर ?’
‘बिंदू जी से थोड़ा टोह लीजिएगा। विष्णु जी के दोस्तों से पूछिएगा।’
‘देखिए सोचता हूं।’
‘असल में हुआ क्या कि जब अंत्येष्टि के लिए हम लोग विष्णु जी की बॉडी ले कर श्मशान घाट जाने लगे तो सभी लोग गए पर बिंदू जी नहीं गईं। सबने जोर दिया पर वह नहीं गईं। जानते हैं वह क्या बोलीं ?’
‘क्या ?’
‘बिंदू जी कहने लगीं कि मैं विष्णु सिंह जी को इतना प्यार करती थी कि अब उनको जलते हुए नहीं देख पाऊंगी ! मैंने सबके सामने उनको टोका भी कि मुझ से भी ज्यादा प्यार करती हो ? जानती हो मेरे प्यार के लिए विष्णु जी ने अपना पैतृक घर परिवार छोड़ दिया। तो जानते हैं वह बेशर्म क्या बोली ? कहने लगी लेकिन मेरे प्यार के लिए विष्णु जी ने आप को छोड़ दिया।’
‘छोड़ा नहीं भटक गए थे। मैंने बताया कि उनके प्यार की निशानी मेरे पास उन के बच्चे हैं। तुम्हारे पास क्या है ? तो वह कहने लगी उनका प्यार जो वह अंतिम समय तक मेरे साथ रहे।’
‘तभी तुम ने उन को मार डाला !’
‘मैंने नहीं आप ने उन को मारा !’
निशा जी बोलीं, ‘सब के सामने ऐसी घड़ी में वह बेशर्म इस तरह बोले जा रही थी तो मैं ही चुप हो गई। विष्णु जी की मर्यादा को ध्यान में रख कर!’ निशा जी बोलती जा रही थीं, ‘और जब चार-पांच घंटे बाद हम लोग श्मशान घाट से लौटे तब तक विष्णु जी के कागज-पत्तर, हिसाब-किताब, कैश-वैश सब को ठिकाने लगा चुकी थीं बिंदू जी ! हम हाथ मलते रह गए।’ निशा जी बोलती जा रही थीं, ‘भइया जी बताऊं आप को कि विष्णु जी तो अब रहे नहीं। पर वहां लोग बता रहे थे कि इनके जीते जी ही बिंदू जी एक बैंक मैनेजर से पेंग मारने लगी थीं। वह जब तब घर भी आने लगा था। विष्णु जी इस बात को ले कर बहुत परेशान रहने लगे थे। बिंदू जी से उनका इस बात को ले कर इधर झगड़ा भी बहुत बढ़ गया था। विष्णु जी के सारे कागज पत्तर, हिसाब-किताब, चेकों को इधर-उधर भी उसी बैंक मैनेजर की मदद से बिंदू जी ने किया।’ वह कहने लगीं, ‘आप को पता है कि विष्णु जी का अभी श्राद्ध भी नहीं हुआ था और बिंदू जी उस बैंक मैनेजर के साथ खुले आम हमारे सामने ही उसकी कार में घूमने लगी थीं। तो यह क्या है?’
‘अच्छा फरीदाबाद वाला फ्लैट विष्णु जी के ही नाम है ?’
‘ना !’
‘फिर ?’
‘पहले इन्हों ने अपने ही नाम ख़रीदा था। बाद में बिंदु जी के नाम कर दिया।’
‘ओह !’
‘पर मैं बिंदू जी को ऐसे ही छोड़ूंगी नहीं।’ वह बोलीं, ‘भइया जी, बस आप किसी विश्वसनीय वकील का पता कीजिए। ऐसा वकील जो औरतों वगैरह के चक्कर में नहीं फंसे। नहीं, बिंदू जी का क्या है उसी को फंसा लें।’
‘अरे नहीं !’
‘नहीं भइया जी ! उनका क्या है कि बिना पतवार की नाव की तरह ऐसे पेश हो जाती हैं कि जो चाहे जिधर बहा ले जाए ! और फिर वह खुद नाव के साथ बह जाता है। नाव बची रह जाती है और पतवार चलाने वाला गुम हो जाता है।’ कहते हुए उनकी आंखें थोड़ी नम हो गईं। बोलीं, ‘जैसे हमारे विष्णु जी गुम हो गए!’
ड्राइंग रूम में फिर चुप्पी पांव फैला गई।
शुक्ला जी बुझे मन से लौट आए थे। समय बीतता गया। पर शुक्ला जी इस त्रिकोण में दोषी कौन था, पलड़ा किस का भारी था, इसकी थाह नहीं पाते थे। माप नहीं पाते थे। विष्णु जी, निशा जी और बिंदू जी। तीनों को एक साथ खड़ा कर वह कोई ऐसा एक बिंदु नहीं तय कर पाते थे कि इनमें सचमुच दोषी कौन है का कम से कम प्रस्थान बिंदु ही निकल आए। हां, निशा जी द्वारा बताया गया बिंदू जी का वह संवाद उन्हें रह-रह जलाता रहता कि, ‘मैं विष्णु सिंह जी को इतना प्यार करती थी कि अब उनको जलते हुए नहीं देख पाऊंगी !’ और फिर निशा जी का उनको टोकना और जलाता कि, ‘मुझ से भी ज्यादा प्यार करती हो ?’
शुक्ला जी का यह जलना थमता नहीं था। जलते ही रहते थे वह जब तब।
कुछ समय बाद लखनऊ में ही शुक्ला जी को वाजपेयी जी मिल गए। दिल्ली से आए उन्हें दो दिन हो गए थे। बातचीत दुनिया-भर की होती रही। कई लोग थे। सो शुक्ला जी सुलग-सुलग कर रह जाते थे। विष्णु जी के बारे में कुछ-पूछ नहीं पा रहे थे। लेकिन थोड़ी देर बाद जब दो तीन लोग ही रह गए तो शुक्ला जी ने विष्णु जी के निधन का प्रसंग बिना किसी भूमिका के छेड़ दिया। बोले, ‘वाजपेयी जी आप ने दोस्ती का तकाजा पूरा नहीं किया !’
‘क्या कहते हो ?’ वाजपेयी जी बोले, ‘क्या-क्या नहीं किया ?’
‘हम तो विष्णु की बॉडी का पोस्टमार्टम करवाना चाहते थे। पूरी तैयारी कर ली थी। क्यों कि तुम शायद जानते ही हो कि विष्णु स्वाभाविक मौत नहीं मरा। बॉडी उसकी नीली पड़ गई थी। स्पष्ट था कि प्वाइजन था। अब यह प्वाइजन उसने खुद खाया, बिंदू ने खिलाया कि किसी और ने खिलाया या फिर कुछ और हुआ, यह तो पोस्टमार्टम से ही पता चलता। और फिर मान लो किसी तरह कोई प्वाइजन या कुछ और ही हुआ तो उसे हॉस्पिटल क्यों नहीं ले गई बिंदू ? पड़ोसियों को या किसी को भी इत्तिला मरने के बाद ही क्यों दी ? पहले क्यों नहीं दी ? ऐसे तमाम सवाल थे जो पोस्टमार्टम और पुलिस में रिपोर्ट के बाद ही खुलते और हमने इसकी पूरी तैयारी की। मिश्रा तथा और भी विष्णु के तमाम दोस्त जो वहां इकट्ठे हुए थे सबकी यही राय थी।’ वाजपेयी जी बोलते जा रहे थे, ‘बस हम लोग लखनऊ से विष्णु की वाइफ का वेट कर रहे थे। वह पहुंचते ही विष्णु की बॉडी से लिपट कर रोने लगी। रोते-रोते कहने लगी, ‘विष्णु सिंह मैंने तुमको मार डाला!’ और बार-बार, जोर-जोर से दहाड़ें मार-मार कर वह यही कहती रही कि विष्णु सिंह मैंने तुम को मार डाला! हम लोग तो अवाक रह गए यह सुन कर। बाद में जब वह शांत हुईं तो हम लोगों ने पोस्टमार्टम की बात पूछी तो उसने पूरी सख़्ती से मना कर दिया। कहने लगी इससे विष्णु जी की बदनामी बहुत होगी ! यह बात भी ठीक थी। सो हम सभी चुप लगा गए। बॉडी लखनऊ ले जाने के लिए मैंने ट्रक भी मंगवा दिया। लखनऊ जाने से भी उसने मना कर दिया। फिर विष्णु जी की वाइफ और बिंदू दोनों सौतों-सी लड़ने लगीं।’ वाजपेयी जी बोले, ‘अब इसमें हम क्या कर सकते थे। सिवाय ख़ामोश रहने के ! लेकिन दो औरतों के चक्कर में एक जीनियस ऐसी विवादास्पद मौत मरेगा, यह हम नहीं सोचते थे।’
‘यह तो है !’ कह कर शुक्ला जी ख़ामोश हो गए। पर जलते जरूर रहे बिंदू बंसल के उस कहे की आग में कि, ‘मैं विष्णु सिंह जी को इतना प्यार करती थी कि अब उनको जलते हुए नहीं देख पाऊंगी ?’ तो क्या मैं खुद देख पाता विष्णु जी को जलते हुए ? लखनऊ ही में सही ! शुक्ला जी खुद से पूछते हैं। या कि निशा जी की तरह बिंदू जी को टोक कर, ‘मुझ से भी ज्यादा प्यार करती हो ?’ विष्णु जी को जलते हुए देखते ? शुक्ला जी कुछ भी तय नहीं कर पाते। और खुद ही जलने लगते हैं इन सवालों और संवादों की आग में।
उनका जलना ख़त्म नहीं होता।
हां, लेकिन बिंदू जी फरीदाबाद से फिर लखनऊ नहीं लौटीं !
एक जीनियस की विवादास्पद मौत पृष्ठ-200 मूल्य-200 रुप॔ए प्रकाशक जनवाणी प्रकाशन प्रा. लि. 30/35-36, गली नंबर- 9, विश्वास नगर दिल्ली- 110032 प्रकाशन वर्ष-2004 |
बहुत अच्छा लगा। सारी घटनाएं सामान्य पर असामान्य रूप से बुनी हुई। वाकई पांडेय जी आपका शिल्प और कथ्य बढिय़ा है।
ReplyDeleteबहुत अच्छा लगा। सारी घटनाएं सामान्य पर असामान्य रूप से बुनी हुई। वाकई पांडेय जी आपका शिल्प और कथ्य बढिय़ा है।
ReplyDeleteशब्दों का अद्भुत तिलस्म ,बिना पूरा पढ़े बाहर नहीं निकल सके |
ReplyDeleteआप की एक एक कहानी को बार बार पढ़ने का दिल करता है भैया
ReplyDeleteसत्यकथा जैसा।
ReplyDeleteएक सांस में पढ़ गया।
ReplyDeleteबहुत रोचक और मार्मिक लिखा है सर! जादू है आपकी लेखनी में!
ReplyDeleteVery nice story
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