Tuesday 14 February 2012

सोचने की इच्छा लगभग शराब हुई है

दयानंद पांडेय 


चौबीस कैरेट के गांधीवादी भवानी भाई कई कंट्रास्ट भी जीते थे। जैसे कि कम लोग जानते हैं कि भवानी प्रसाद मिश्र ने कई फिल्मों में संवाद निर्देशन का भी काम किया। पर फिल्में वह लगभग नहीं ही देखते थे। अपनी पूरी जिंदगी में इक्का-दुक्का फिल्में ही उन्होंने देखीं। ऐसे ही रहते तो महानगरों में रहे पर प्रवृत्ति और प्रकृति उनकी कस्बाई और गंवई ही रही।

भवानी भाई का कविता पाठ सुनना एक नहीं कई कई अनुभवों से गुजरना होता था। अपने कविता पाठ के दौरान वह कब आप में आक्रोश और आग भर दें और कब संवेदना बो कर आपको रोने के लिए विवश कर खुद भी फफक कर रोते हुए छोटी छोटी आंखों से आंसू छलका दें कहना मुश्किल था ठीक अपनी उस कविता की तरह, अभी बैन/अभी बान/अभी बानों के सिलसिले।

दरअसल पंडित भवानी प्रसाद मिश्र की यह कविता सिर्फ कविता नहीं उनकी जिंदगी की इबारत भी है। वह कहते भी थे, घटनाएं/हम तक आएं/इससे अच्छा है/कि हम/घटनाओं तक जाएं। वह जिंदगी को कुछ अलग ही ढंग से जीने के कायल थे फूल को विखरा देने वाली हवा भी कौन कहता है कि चलनी नहीं चाहिए समूचा जंगल जला देने वाली आग भी कौन कहता है कि लगनी नहीं चाहिए।

अलग बात है कि इस तरह वह जंगल की अराजकता खत्म करने के लिए जंगल में आग लगाने की बात सीधे कहते थे कोई बिबंब गढ़ कर या प्रतीक रन कर नहीं। दरअसल भवानी भाई की कविता का सारा शिल्प ही इसी बिना पर टिका हुआ था, जिस तरह हम बोलते हैं उस तरह तू लिख। और सच्चाई यही है कि वह कविता क्या लिखते थे बल्कि इसी बहाने वह लोगों से बोलते बतियाते थे कमर जैसे कलाई टूट जाए हिम्मत जैसे घड़ी फूट जाए तबीयत कुछ नए ढंग से खराब हुई है सोचने की इच्छा लगभग शराब हुई है। बात को कहने का उनका अंदाज जरूर थोड़ा अलग पर सहज था नाव पर लदी हुई बारात को गीत नहीं सूझ रहा है शाम का सारा समां मल्लाह से जूझ रहा है।

29 मार्च 1913 को गांव टिंगरिया, तहसील सिवनी मालवा, जिला होशंगाबाद (मध्य प्रदेश) में भवानी प्रसाद मिश्र जनमे जरूर थे। बुंदेलखंड के हमीरपुर कस्बे से (जो अब जिला है) उनके पितामह मध्य प्रदेश गए थे। उनकी जीविका मंदिर में पूजा थी। पर पिता शिक्षा विभाग में निरीक्षक थे। भवानी भाई ने लिखा है मैं अपने बचपन के बारे में सोचता हूं तो ज्यादातर ख्याल आसपास के लोगों का नहीं आता बल्कि आसपास के पशुओं के आत्मीय भाव के कारण मैंने उनकी लीला भूमि अर्थात प्रकृति को भी बचपन से ही उसके वत्सल रूप में देखा। हरे भरे खुले मैदान जंगल या पहाड़ झरने और नदियां इन्हीं के तुफैल से मेरे बने।

शायद तभी वह इतनी आसानी से लिख गए देखे हैं मैंने बाढ़ों से पड़े पेड़/एक साथ बहते पेड़ों पर सहारा लिए सांप और आदमी और तक एकाएक चमका है यह सत्य है कि बेशक सांप और आदमी आफत में एक है मौत की गोद में सब बच्चे हैं। हालांकि वह कहते थे शब्दों की जिस नदी को चुनने का संयोग मिला है वह मेरे भाग्य से नर्मदा है। पर मैं आता हूं कि सिर्फ नर्मदा ही नहीं जीवन की नदी को भी उन्होंने बड़े चाव से अपने भाग्य में लिखवाया था और तभी यह कसैला सच भी उकेरा था, मैं असभ्य हूं क्योंकि चीर कर धरती धान उगाता हूं मैं असभ्य हूं क्योंकि हवा में उड़ जाते हैं आप सभ्य है क्योंकि आग बरसा देते हैं भू पर।

अब से कोई पचास बरस पहले गीत फरोश से भवानी भाई पूरे हिन्दुस्तान में माने जाने लगे। आजादी की लड़ाई में वह जी जान से कूदे रहे ओर जो जेल में नहीं होते तो वह भी तार सप्तक के कवि होते। अज्ञेय ही ने उनसे तार सप्तक के लिए कविताएं मांगी थी। पर वह जेल में रहने के कारण कविताएं दे नहीं पाए। नतीजन जेल से छूटने के बाद वह दूसरा सप्तक के कवियों शुमार हुए पर जाने वह तब भी गीत फरोश के लिए ही गए और आज पचास बरस बाद भी पहले वह गीत फरोश के लिए ही याद किये जाते हैं। समय की नस उन्होेंने कोई पचास बरस पहले ही छू ली थी जी हो हूजूर मैं गीत बेचता हूं मैं तरह तरह के गीत बेचता हूं मैं किसम किसिम के गीत बेचता हूं जी पहले कुछ दिन शर्म लगी मुझको जी लोगों ने तो बेच दिये ईमान जी आप न हों सुनकर ज्यादा हैरान मैं सोच समझ कर आखिर अपने गीत बेचता हूं।

यह गीत जब भवानी भाई पढ़ते थे तो आंखें तो उनकी छलकती ही थीं, उनका दिल भी रोता था। दिल ही क्या, रोयां रोयां रोता था उनका। और वह लगभग सिसकते हुए उच्चारते थे, है गीत बेचना वैसे बिलकुल पाप क्या करूं मगर लाचार हार कर गीत बेचता हूं। तो उनकी सिसकियों का मर्म समझना भी बहुत आसान होता था। गीत फरोश के बाद दुबारा भवानी भाई चर्चित हुए इमर्जेंसी के दिनों में रोजाना त्रिकाल संख्या लिखकर।

चौबीस कैरेट के गांधीवादी भावानी भाई कई कंट्रास्ट भी जीते थे। जैसे कि कम लोग जानते हैं कि भवानी प्रसाद मिश्र ने कई फिल्मों में संवाद निर्देशन का भी काम किया। पर फिल्में वह लगभग नहीं ही देखते थे। अपनी पूरी जिंदगी में इक्का दुक्का फिल्में ही उन्होंने देखीं। ऐसे ही वह रहते तो महानगरों में रहे पर प्रवृतित्त और प्रकृति उनकी कस्वाई और गंवई ही रही। खादी वह खुद की काती हुई ही पहनते रहे और सबसे कहते भी रहते, जो कात सो पहने वाले बात बिलकुल ठीक है। वह कहते थे खादी के प्रति मेरी दृष्टि स्नेह बंधन की है। मैं उसके साथ बुद्वि और भावना दोनों से बंधा हूं। मैं खादी को राष्ट्रीयता का प्रतीक नहीं, मानवीयता का प्रतीक मानता हूं।

दरअसल भवानी भाई कविता और जिंदगी दोनों को कहीं अलग अलग खाने में रखकर जीने के आदी नहीं थे। जिंदगी के सभी रंग सभी शेड दुख सुख हंसी खुशी उनकी कविताओं में वैसी ही पसरी पड़ी मिलती है जैसे कि जिंदगी में है। कहीं कोई शाब्दिक शिल्पगत था कत्यगत दुराव-छिपाव की गुजाइश भवानी भाई के यहां खोजे से भी नहीं मिलती। बहुतेरे लोग मारे उत्साह में भवानी भाई को राष्ट्रीय कवि के रूप में भी स्थापित करने में लगे ही रहते हैं। तो कुछ लोग उन्हें इससे खारिज करवाने की भी कोशिश करते दीखते हैं।

तो क्या सिर्फ ब्यौरा भर परोस देने से कविता को गांधीवादी, राष्ट्रीय या किसी और खाने में डाल दिया जाना चाहिए? सिर्फ सीमाओं का ब्यौरा, भारत भारत चिल्लाने और बढ़े चल बढ़े चलों या वह करो यह न करो सरीखे शब्द परोसने भर से कविता राष्ट्रीय हो जाती है और कवि राष्ट्रीय हो जाता है? अगर ऐसा है तो हर गली में ऐसे दो चार कवि मिल ही जाते हैं। भवानी भाई जाहिर है ऐसे कवियों में शुमार नहीं हैं भवानी भाई दरअसल पहचाने ही गए समय की बदतमीजियों के खिलाफ खड़े होने के लिए। सच यह है कि भवानी भाई की कविताओं में पौरूष बराबर उपस्थित दीखता है। इसीलिए वह उद्बोधन के कवि होने के खतरे से लगातार बचे रहे। और जीवन की सचाई को पानी की तरह परोसते रहे यह दिन कवि का नहीं चार कौओं का दिन है और शब्दों की इयत्ता भी वह तलाशते रहे जैसे जब मैं कहता हूं किसी भी संदर्भ में चांद तो जिनती चाहता हूं मैं मन के भीतर उतनी चांदनी क्यों नहीं उससे छिटकती या जब मैं लिख देता हूं किसी पंक्ति में वृक्ष तो पूरी वह सतर की सतर हरहराती क्यों नहीं है या हो क्यों नहीं जाता बातहीन क्षण की तरह मेरी पूरी कविता के वन का वातावरण स्तब्ध या हो क्यों नहीं जाती कम से कम मेरे आसपास की जगह हरी और शीतल और ताजा। वह इस सचाई को भी उसी तलखी से उकेरते थे हम आपके इरादे आपके काम फिलहाल इसलिए सह रहे हैं कि सूरज दिन भर तप कर शाम को डूब जाता है हर अत्याचारी किसी न किसी क्षण ऊब जाता है अपने अत्याचारों से। और कि साठ करोड़ आदमियों की इच्छा में बल होता है वे जो चाहते हैं वह अगर आज नहीं कल होता है। विरोध जैसे लक्ष्य को भी इस आसानी से व्यक्त करना ही भवानी भाई की ताकत थी। ठीक जैसे ही जैसे वह लिखते थे तो पहले अपना नाम बता दूं तुम को फिर चुपके चुपके धाम बता दूं तुम को तुम चौंक नहीं पड़ना यदि धीमें धीमें मैं अपना कोई काम बता दूं तुमको। भवानी भाई की कविताएं मथनी की तरह सीधे मन में प्रवेश कर जाती हैं क्योंकि उनकी कविता मन से ही निकलती है। मन से लिखी कविता भवानी भाई जब दुगुने मे से पढ़ते थे तो उनका वह बिंब उनकी आंखों में नाचते हुए होठांे पर इतराने लगता था अभी बैन अभी बान अभी बानों सिलसिले

सच, उनका काव्य पाठ यादों में अभी भी वैसे ही गूंजता है और मन सिसकता है सिसक सिसक रोता है जैसे कभी भवानी भाई अपने काव्य पाठ में रोते थे रूलाते थे बिलकुल वैसे ही।

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