फ़ेसबुकिया नोट्स की एक और लड़ी
- सेक्यूलरिज्म के नाम पर लफ़्फ़ाजी हांकने वाले घुसपैठिए राजनीति ही नहीं, साहित्य में भी बहुतेरे हैं। रचना-आलोचना से परे यह लोग दिन-रात सिर्फ़ सेक्यूलरिज्म का पहाड़ा रटते रहते हैं और गिरोहबंदी कर वास्तविक रचनाकारों को किनारे कर अपनी हेकड़ी और अहंकार में चूर सिरमौर बनने का ड्रामा करते घूमते रहते हैं। वैचारिक खोह के बहाने एक जातीय घटाटोप की ढाल गढ़ते हुए। इन को कोई यह बताने वाला भी नहीं मिलता कि अंतत: रचना-आलोचना ही जीवित रहती है। लफ़्फ़ाजी कैसी भी हो वह तो कपूर की तरह उड़ ही जाती है। बचती तो सिर्फ़ और सिर्फ़ रचना ही है।
- मुझे उन तमाम लखकों पर तरस आता है जो कहते हैं कि वह जनता के लिए लिखते हैं। लेकिन जनता की भावनाओं और इच्छाओं को नहीं समझ पाते। तो क्या खाक लिखेंगे जनता के लिए? सच यह है है कि यह लेखक अपने लिए लिखते हैं और अपनी हेकड़ी, अपने अहंकार में जीते हैं। इसी लिए इन्हें कोई और नहीं पढ़ता। पाठकों के बीच खारिज हैं यह। यह खुद लिखते हैं और खुद पढ़ कर खुश हो लेते हैं। और अपनी पीठ ठोंकने के लिए मुट्ठी भर लोगों का एक गिरोह बना कर रहते हैं। समाज में इसी लिए इन की अब कोई पहचान नहीं रह गई है। गिरोह के मारे इन लेखकों को आत्म-निरीक्षण भी नहीं आता।
- फेसबुक पर कुछ दोस्तों की दुविधा यह है कि वह अपनी प्रतिक्रिया में विमर्श नहीं फैसले की भाषा बोलते हैं। अगर भाजपा या मोदी के पक्ष में माहौल चला गया है तो क्या मैं चिल्लाता फिरूं कि मेरे साथ बलात्कार हो गया है ! जैसा कि कुछ लोग कर और कह रहे हैं? मेरे लिए यह मुश्किल काम है। इस लिए भी कि मैं लोकतंत्र में यकीन करता हूँ और कि जनादेश का सम्मान भी करता हूँ । बहुत सारी बातें मेरे मन की होती नहीं दिखतीं तो क्या मैं दिन को रात या रात को दिन कहता फिरूं? तो सारी बातें मेरे मन की हो जाएंगी? अगर मेरी देह में जो कोई कोढ़ हो गया है तो कब तक मैं उसे कोई कपड़ा रख कर छुपाता फिरुंगा? कुछ दोस्तों के साथ यही हो गया है। एक बात और बताना चाहता हूँ की मुझे कुछ दोस्तों की तरह मोतियाबिंद नहीं है। सो तार्किक बात करता हूँ । दूसरे यह बात भी नोट कर लीजिए मित्रों कि विचारधारा और पसंद एक बात है, सत्य और तथ्य बिलकुल दूसरी बात। ज़रूरी नहीं है की दोनों संयोग एक साथ मिल जाएं। कभी मिल भी सकते हैं आर कभी नहीं भी । यह बात जिस दिन आप मित्र लोग समझ लेंगे आप की सारी दुविधा दूर हो जाएगी । लेकिन दोस्तों जब मेरे साथ विमर्श कीजिए कभी तो तार्किक ढंग से कीजिए, खुशी होगी । मईया मैं तो चंद्र खिलौना लैहौं ! में बात हरदम नहीं बनती । एक बार फिर से अपनी दुविधा दूर कर लीजिए मित्रों और जान लीजिए की मैं किसी राजनीतिक दल या किसी संगठन से संबद्ध नहीं हूँ, न ही किसी खूंटे से बंधा हूँ । स्वतंत्र रचनाकार और टिप्पणीकार हूँ । दिन को दिन और रात को रात कहने में यकीन करने वाला। एक और बात बड़े-बड़े अक्षरों में लिख लीजिए मित्रों कि मैं भाजपाई नहीं हूं। न ही कांग्रेसी वगैरह। मैं एक स्वतंत्र रचनाकार और टिप्पणीकार हूं। समय की दीवार पर लिखा निष्पक्षता से बांच देता हूं। बिना किसी आग्रह या पूर्वाग्रह के। सो आप अपनी मोतियाबिंद का इलाज कीजिए और कि यह फतवा अपने पास ही रखिए। यह भी कि जो आप को न भाए उसे भाजपाई घोषित करने की बीमारी से अवकाश लीजिए।क्यों कि यह बहुत खतरनाक बीमारी है। ।
- क्या तो वह अंबेडकर, लोहिया और जे पी के अनुयायी हैं। लेकिन पिछड़ा, अति पिछड़ा, दलित और महादलित होने का गुरुर जीते हुए। इस का कार्ड खेलते हुए। पूरे शहीदाना अंदाज़ में। अंबेडकर, लोहिया और जे पी को मुह चिढ़ाते हुए। हा हा ! सब शुतुर्मुर्गी सेक्यूलर हैं ! सामाजिक न्याय के पुरोधा ! मौकापरस्ती की मलाई काटते हुए। कुछ मित्र झूट्ठै परेशान हैं। यह लोग ऐसे ही, ऐसी ही बशर्मी से जीते रहेंगे सीना तान कर।
- मीडिया के कुछ लोगों को पटा कर अखबारों में समय बेसमय फ़ोटो और बयान छपवाने वाले मीडियाकर टाइप लेखकों के बारे में लोग क्या नहीं जानते?
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